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Monday, 27 September 2021

Hal Filhal : Social Engineering by Political Parties in Uttar Pradesh



यूपी में सोशल इंजीनियरिंग का दौर


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/vQHW41wZiJo


    
    पांच-छह महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए राजनीतिक शतरंज की बिसात अभी से बिछनी शुरू हो गई है. पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी के रूप में पहला दलित मुख्यमंत्री दे कर कांग्रेस ने न केवल पंजाब बल्कि अन्य चुनावी राज्यों में भी अपने राजनीतिक विरोधियों को शह देने की कोशिश की है. हालांकि चुनाव आयोग की आचार संहिता लागू होने में महज तीन-चार महीने ही बाकी रह गए हैं, रविवार, 26 सितंबर को चन्नी मंत्रि परिषद के विस्तार में भी सामाजिक एवं क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखने की कोशिश की गई. चन्नी का दलित चेहरा सामने रखकर कांग्रेस उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी दलित, ब्राह्मण और अल्पसंख्यक मतदाताओं के अपने परंपरागत जनाधार को वापस पाने की कोशिश में है. दूसरी तरफ, सत्तारूढ़ भाजपा ने भी रविवार को ही योगी मंत्रि परिषद का विस्तार कर सोशल इंजीनियरिंग का अपना पुराना फार्मूला लागू करने की कोशिश की है. इसके साथ ही मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के रणनीतिकार भी यूपी में नए सिरे से सोशल इंजीनियरिंग में जुट गए हैं. सभी दलों का फोकस दलित और अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों के साथ ही सवर्ण ब्राह्मणों के बीच अपनी पैठ बढ़ाने और मजबूत करने पर केंद्रित होते दिख रहा है.

भाजपा आलाकमान की बेचैनी

   
    उत्तर प्रदेश को लेकर, पिछले विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ हुई भाजपा के आलाकमान का विश्वास कुछ डगमगा गया सा लगता है. कोरोना की महामारी में उचित इलाज और ऑक्सीजन के अभाव में बड़े पैमाने पर हुई मौतों, मृतकों के सम्मानजनक अंतिम संस्कार नहीं हो पाने के कारण नदी में तैरते और नदी किनारे रेत में दबे शवों की तस्वीरें सार्वजनिक होने, महंगाई, बेरोजगारी और किसान आंदोलन के साथ ही कानून-व्यवस्था की बदतर स्थिति, दलितों पर बढ़ते अत्याचार-उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाएं उत्तर प्रदेश में भाजपा के आलाकमान को परेशान किए हैं. उसे नहीं लगता कि मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान का उसका परंपरागत एजेंडा इस बार भी कारगर हो सकेगा. इसका एक कारण शायद यह भी है कि उसके तथा संघ परिवार की तरफ से हिंदू-मुसलमान के बीच नफरत का माहौल बनाने के इरादे से दिए जाने वाले उत्तेजक बयानों पर दूसरी तरफ से खास प्रतिक्रिया नहीं हो रही है. सांप्रदायिक दंगे नहीं हो रहे हैं. इस कारण सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी नहीं हो पा रहा है. भाजपा और संघ परिवार की इस रणनीति को निष्क्रिय बनाने में किसान आंदोलन और उसके नेता राकेश टिकैत की भूमिका भी महत्वपूर्ण मानी जा रही है. भाजपा शासन में प्रयागराज के प्रतिष्ठित बाघंबरी मठ के महंत और भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष नरेंद्र गिरि की हत्या-आत्महत्या की गुत्थी एवं दर्जन भर अन्य साधु-संतों की हत्या को लेकर हिंदू समाज वैसे भी उद्वेलित है. नरेंद्र गिरि की हत्या-आत्महत्या के मामले में उनके पांच सितारा शिष्य' आनंद गिरि के साथ ही भाजपा के नेता का नाम भी सामने आने से पार्टी की किरकिरी हुई है. आनंद गिरि के भी भाजपा नेताओं के साथ करीबी संबंध सामने आ रहे हैं. उन पर अपने गुरु को उनके कथित अश्लील वीडियो के सहारे ब्लैक मेल करने के आरोप हैं. 

    उत्तर प्रदेश में कभी सवर्ण ब्राह्मण-बनियों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा में इन दिनों और खासतौर से योगी आदित्यनाथ के शासन में जिस तरह से उनके सजातीय राजपूतों का वर्चस्व बढ़ा है ब्राह्मण समाज के लोग खुद को पीड़ित और उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. दलितों और पिछड़ी जातियों के उत्पीड़न, बच्चियों के साथ बलात्कार और हत्या की घटनाएं लगातार बढ़ने के कारण दलितों और पिछड़ी जातियों के बीच भी भाजपा के प्रति नाराजगी बढ़ी है. इस सबके चलते ही एक बार तो भाजपा आलाकमान ने राज्य में नेतृत्व परिवर्तन का मन भी बना लिया था लेकिन मुख्यमंत्री, योगी आदित्यनाथ के अड़ जाने के कारण ऐसा नहीं हो सका. इसके बाद ही भाजपा के रणनीतिकारों ने उत्तर प्रदेश में आदित्यनाथ के अलावा, ब्राह्मण समाज, दलित एवं अन्य पिछड़ी जातियों के बड़े चेहरे भी सामने लाने और उनके सहारे उनके जाति-समाज को आकर्षित करने के इरादे से भाजपा आलाकमान ने उत्तर प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग के अपने पुराने फार्मूले पर काम करना शुरू कर दिया है.

    
गृह मंत्री अमित शाह के साथ बेबी रानी मौर्या: यूपी भाजपा का दलित चेहरा !
    इस रणनीति के तहत ही पिछले पखवाड़े उत्तराखंड की राज्यपाल बेबी रानी मौर्या से त्यागपत्र दिलवाकर उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने की घोषणा के बावजूद भाजपा आलाकमान की योजना उन्हें उत्तर प्रदेश में भाजपा के दलित (जाटव) चेहरे के बतौर पेश करने की है. पूरे उत्तर प्रदेश में उनकी रैलियां-सभाएं करवाने के कार्यक्रम बन रहे हैं. इसके साथ ही भाजपा ने केंद्र सरकार में राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल के अपना दल और संजय निषाद की निषाद पार्टी के साथ चुनावी गठजोड़ की घोषणा भी की है. संजय निषाद वही हैं, जिनका ‘पैसे लेने’, ‘मार डालने’ जैसे विवादित बयानों का स्टिंग पिछले दिनों वायरल हुआ था. निषाद के साथ ही हाल ही में भाजपा में शामिल जितिन प्रसाद, वीरेंद्र गुर्जर एवं गोपाल अंजान को विधान परिषद में नामित कर भाजपा के पक्ष में सामाजिक समीकरण बनाने की कवायद रविवार, 26 सितंबर को की गई. इसमें से जितिन प्रसाद ब्राह्मण तथा बाकी तीन अन्य और अति पिछड़ी जातियों से हैं. 

    रविवार की शाम को ही भाजपा के आलाकमान के दबाव में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने अपनी मंत्रि परिषद का विस्तार भी किया लेकिन मंत्री-राज्य मंत्री उन्होंने अपनी और संघ की मर्जी से ही बनाए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पसंद के पूर्व नौकरशाह, विधान पार्षद अरविंद शर्मा और निषाद पार्टी के संजय निषाद को उन्होंने मंत्री नहीं बनाया. इसके बजाय उन्होंने जितिन प्रसाद (ब्राह्मण) को मंत्री बनाने के साथ ही अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों के तीन लोगों-छत्रपाल गंगवार (कुर्मी), संगीता बिंद (निषाद) और धर्मवीर प्रजापति (कुम्भकार), गैर जाटव अनुसूचित जाति के पलटू राम और दिनेश खटिक के साथ ही अनुसूचित जनजाति के संजय गोंड को राज्य मंत्री बनाया. हालांकि यूपी में जितिन प्रसाद की पहिचान एक ब्राह्मण नेता के रूप में कभी नहीं रही, भाजपा के रणनीतिकार सोचते हैं कि वह इस सबसे बड़े राज्य में ब्राह्मणों की नाराजगी कुछ कम कर सकेंगे. वैसे भी, भाजपा के रणनीतिकारों को लगता है कि लाख नाराजगी के बावजूद ब्राह्मण और बनिए बड़े पैमाने पर भाजपा के साथ ही बने रहेंगे. 

मंत्रिपरिषद का विस्तार : मर्जी के मंत्री, राज्य मंत्री
    इस मंत्रि परिषद विस्तार के जरिए भाजपा ने ब्राह्मण समाज के साथ ही गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित जातियों को साधने की कोशिश की है. भाजपा की योजना इन नए मंत्रियों को उनके जातीय समूहों के बीच लाल बत्ती वाली गाड़ियों पर घुमाकर यह जताने की है कि देखो, मनुवादियों की पार्टी कही जानेवाली भाजपा दलितों और अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों का कितना खयाल रखती है. इसके पहले केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंत्रि परिषद के विस्तार में भी उत्तर प्रदेश से एक ब्राह्मण और आधा दर्जन राज्य मंत्री दलित और ओबीसी ही बनाए गए थे.

    हालांकि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव सिर पर होने, तीन-चार महीने बाद ही आचार संहिता लागू हो जाने के मद्देनजर एक तो प्रशासनिक अधिकारी मंत्रियों की वैसे भी नहीं सुनते और फिर राज्य मंत्रियों के पास गाड़ी पर लाल बत्ती लग जाने, बंगला, कार्यालय, सुरक्षा गार्ड और कुछ कारकून मिल जाने के अलावा वैसे भी कुछ काम नहीं होते. उनके सरकारी फाइलें बमुश्किल ही भेजी जाती है. इसको लेकर दलित एवं अति पिछड़ी जातियों के बीच उनके प्रतिनिधियों के साथ भेदभाव की शिकायत भी बढ़ सकती है. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने दलित और पिछड़ी जातियों के प्रति भाजपा के इस प्रेम को उसका ढोंग करार देते हुए कहा है कि अगर इतना ही प्रेम है तो भाजपा की केंद्र सरकार जातिगत आधार पर जनगणना क्यों नहीं करवाती. एक तरफ तो सार्वजनिक उपक्रमों को निजी पूंजीपतियों के हाथों बेचकर सरकार इन उपक्रमों की नौकरियों में आरक्षण समाप्त कर रही है और दूसरी तरफ उनके कुछ मंत्रियों को राज्य मंत्री बनाकर अपने दलित-ओबीसी प्रेम का दिखावा कर रही है. यूपी में दलितों-पिछड़ी जातियों पर अत्याचार उत्पीड़न लगातार बढ़ रहा है.

      अभी तक भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग गैर जाटव दलित एवं गैर यादव पिछड़ी जातियों के बीच पैठ बढ़ाने पर केंद्रित रही है. पिछले कुछ चुनावों में उसे इसका राजनीतिक डिविडेंड भी मिला है. भाजपा की रणनीति अब दलितों में भी सबसे अधिक जाटव (चमार) आबादी पर भी फोकस कर बसपा सुप्रीमो मायावती के परंपरागत जनाधार में सेंध लगाने की लगती है. शायद इसलिए भी जाटव समाज की बेबी रानी मौर्या को आगे किया जा रहा है. लेकिन रविवार की भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग में बेबी रानी मौर्या कहीं नहीं दिखीं. न विधानपरिषद में और न ही मंत्रि परिषद में! ऐसे में, कर्मकांडी भाजपा की श्राद्ध पक्ष में 'सोशल इंजीनियरिंग' पर आधारित यह चुनावी रणनीति कितनी कारगर होगी! पोगापंथी लोगों का प्रचार है कि श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य नहीं किए जाते. भाजपा के लोग भी अभी तक श्राद्ध पक्ष में हुए पंजाब में कांग्रेस के नेतृत्व परिवर्तन को लेकर मजे ले रहे थे लेकिन योगी आदित्यनाथ ने श्राद्ध पक्ष में ही अपनी मंत्रि परिषद के विस्तार में एक ब्राह्मण को मंत्री बनाकर इस टोटके को मिटा दिया है. 
 

ब्राह्मणों को दोबारा जोड़ने में लगी बसपा    


    
त्रिशूल धारी मायावती : छीजते जनाधार की चिंता!
    उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यक कभी कांग्रेस के परंपरागत जनाधार रहे हैं लेकिन 1980 के दशक के अंतिम वर्षों में राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के क्रम में ब्राह्मण भाजपा तथा अल्पसंख्यक मुसलमान समाजवादी पार्टी के करीब होते गए. उसी दौर में कांशीराम के बामसेफ आंदोलन और मायावती के साथ मिलकर उनकी बहुजन राजनीति और बहुजन समाज पार्टी के राजनीतिक परिदृश्य पर तेजी से उभरने के बाद उत्तर प्रदेश में दलित और खासतौर से जाटव बड़े पैमाने पर उनके साथ जुड़ते गए. तब उनका नारा होता था, ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ और ‘ब्राह्मण, बनिया, क्षत्रिय छोड़, बाकी सब हैं, डीएस 4’. इस दलित जनाधार के बूते ही मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री बनीं और प्रधानमंत्री बनने के सपने भी देखने लगीं. 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले मायावती ने सवर्ण ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं के जनाधार पर काबिज होने की गरज अपनी रणनीति में बदलाव किया. खासतौर से ब्राह्मणों को साधने की गरज से उन्होंने भाई चारा सम्मेलन शुरू किए. उनके नारे भी बदल गए, 'पंडित शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा', 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु, महेश है'. इस सोशल इंजीनियरिंग ने गजब का असर भी दिखाया और उन्होंने विधानसभा में 30.43 फीसदी वोटों के साथ 206 सीट हासिल कर पहली बार पूर्ण बहुमत की अपनी सरकार बनाई. 2009 के लोकसभा चुनावों में भी बसपा 27.4 फीसदी वोटों के साथ 21 सीटें जीतने में सफल रही. लेकिन साल 2012 में और उसके बाद भी उनके सोशल इंजीनियरिंग की चमक फीकी पड़ती गई. उनका जनाधार भी बिखरते गया. सबसे बड़ा झटका 2014 के लोकसभा चुनावों में लगा, जब यूपी में बसपा को वोट तो 20 फीसदी मिले लेकिन सीट एक भी नहीं मिल सकी. 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे 23 फीसदी वोट के साथ सिर्फ 19 सीटें ही मिलीं, जिनमें से अब सिर्फ सात ही साथ बचे हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ चुनावी तालमेल से उसे दस सीटें मिलीं लेकिन सपा से चुनावी तालमेल तोड़ लेने के बाद अब यकीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता कि उनमें से कितने मन से उनके साथ रह गए हैं.

    
बेटे के साथ बसपा के प्रबुद्ध (ब्राह्मण) सम्मेलन में सतीश मिश्र :
भाजपा से नाराज ब्राह्मण बसपा से जुड़ेंगे!
    अब एक बार फिर से मायावती और उनकी बसपा ब्राह्मणों की ओर रुख कर रही हैं. उनके सिपहसालार कहे जाने वाले राज्यसभा सांसद सतीश मिश्रा ब्राह्मण समाज को वापस बसपा से जोड़ने के इरादे से प्रबुद्ध वर्ग (ब्राह्मण) सम्मेलन कर रहे हैं. मिश्र कहते हैं कि यूपी में भाजपा सरकार में ब्राह्मण उपेक्षा और उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं. शासन-प्रशासन में उनकी उपेक्षा हो रही है. करीब दो दर्जन साधु-संत, पुजारियों की हत्याएं हो चुकी हैं. यह समाज इनके पास धर्म के नाम पर आया था. लेकिन जब देखा कि अयोध्या में भगवान राम के नाम पर भी लोगों को ठगा गया, तो ब्राह्मण अब भाजपा से विमुख हो रहे हैं. उनके अनुसार ब्राह्मण का मान-सम्मान और स्वाभिमान सिर्फ बीएसपी में ही सुरिक्षत है. बसपा ने अपने शासन में उन्हें उचित भागीदारी दी थी. हालांकि हाल के दिनों में रामवीर उपाध्याय जैसे बसपा के कई बड़े ब्राह्मण नेता पार्टी में उचित मान सम्मान नहीं मिलेने को ही बहाना बनाकर बसपा से दूर हुए है.

    लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि जिस दलित समाज को अपना कोर वोट मानकर बसपा सोशल इंजीनियरिंग का यह प्रयोग कर रही है, क्या वह पूरी तरह से उसके साथ है? अल्पसंख्यक समाज के लोग तो कबके उनका साथ छोड़ चुके हैं. सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश हो या देश के किसी अन्य हिस्से में अल्पसंख्यकों, ओबीसी और दलितों पर होने वाले अत्याचार-उत्पीड़न, दलित बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं को लेकर मायावती और उनकी बसपा को कभी आक्रामक और आंदोलित होते नहीं देखा गया. संघर्ष और आंदोलनों को वह समय नष्ट करने की कवायद मानते हुए अपने लोगों को संगठित होने की सलाह देते रही हैं. हालांकि जुलाई, 2017 में उन्होंने यह कहते हुए राज्यसभा से इस्तीफा दिया था कि अब वह संसद छोड़कर दलित-उत्पीड़न के खिलाफ सड़कों पर उतरेंगी. लेकिन तबसे उन्हें कहीं भी सड़क पर उतरते, आंदोलित होते नहीं देखा गया. केंद्र में हो अथवा उत्तर प्रदेश में भी वह सत्तारूढ़ दल के बजाय कांग्रेस और सपा जैसे विरोधी दलों के खिलाफ ही ज्यादा आक्रामक दिखती हैं. भाजपा के प्रति उनके नरम रुख के कारण, उनके राजनीतिक विरोधी उन्हें भाजपा की 'बी टीम' भी कहने लगे हैं. इसके चलते भी अल्पसंख्यक, ओबीसी और दलित समाज के लोग उनसे कटते गए. 2017 में जीते उनकी पार्टी के 18 विधायकों में से दस सपा तथा दो भाजपा के शिविर में दिखने लगे. अपने इस परंपरागत दलित जनाधार को एकजुट रखने और उसे विस्तार देने की गरज से ही मायावती ने पंजाब में ढाई दशक के बाद शिरोमणि अकाली दल के साथ चुनावी गठजोड़ किया. इस गठबंधन ने सत्ता मिलने पर किसी दलित को उप मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा भी की गई. लेकिन कांग्रेस ने पंजाब में एक दलित चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर उनकी इस चुनावी रणनीति ओर वादे की भी हवा निकाल दी है.

     
चंद्रशेखर : अपना कुछ बनाएंगे या मायावती का खेल बिगाड़ेंगे !
इस बीच मायावती के ही जाटव समाज के युवा नेता चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी पहली बार चुनाव मैदान में उतरने जा रही है. पूरे उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर दलित और खासतौर से-पढ़े लिखे दलित युवा उनके आक्रामक तेवरों के कारण उनकी तरफ आकर्षित भी हो रहे हैं. अभी यह तय नहीं है कि वह किस दल अथवा गठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे. उनकी बातचीत कांग्रेस के साथ ही सपा-लोकदल गठबंधन के साथ भी हो रही है. अगर उनका अखिलेश यादव की सपा और जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल के साथ चुनावी गठजोड़ हो गया और अगर कांग्रेस भी इस गठजोड़ का हिस्सा बन गई तो यह बसपा के साथ ही भाजपा के लिए भी बहुत भारी पड़ सकता है.

    संगठन और जनाधार की कमी से जूझती कांग्रेस


    कांग्रेस के साथ दिक्कत यही है कि उसके पास इस समय उत्तर प्रदेश में न तो कोई ठोस संगठन है और न ही कोई ऐसा नेता जिसकी पूरे उत्तर प्रदेश में अपनी धाक और पहिचान हो. जिस प्रियंका गांधी वाड्रा के नाम पर यूपी का चुनाव लड़ने की बात कही जा रही है, उनके प्रति उत्तर प्रदेश में और खासतौर से युवाओं और महिलाओं के बीच आकर्षण तो दिख रहा है, लेकिन उन्होंने अभी तक इस बात के ठोस संकेत नहीं दिए हैं कि वह यूपी में अपनी राजनीति को लेकर बहुत गंभीर हैं. कुछ दिन यूपी में सक्रिय रहने के बाद वह अचानक गायब सी हो जाती हैं.

प्रियंका गांधी वाड्रा : उत्तर प्रदेश को लेकर कितनी गंभीर !

कांग्रेेस के बड़े नेता रहे जितेंद्र प्रसाद के यूपीए शासन में केंद्र सरकार में राज्य मंत्री रहे युवा नेता जितिन प्रसाद के बाद पीढ़ी दर पीढ़ी कांग्रेस के साथ रहे कमलापति त्रिपाठी के प्रपौत्र ललितेशपति त्रिपाठी के भी नाता तोड़ लेने के बाद यूपी में कांग्रेस की हालत और भी पतली हो गई है. 2017 के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस के साथ सीटों का तालमेल करने के बावजूद कांग्रेस की हालत पतली ही रही. शायद इसलिए भी कांग्रेस में एक बड़ा तबका इस बार किसी से तालमेल करने के बजाय प्रियंका गांधी वाड़ा को सामने रखकर अपने बूते ही चुनाव लड़ने पर जोर दे रहा है. हालांकि अभी तक यह तय नहीं हो पा रहा है कि प्रियंका खुद भी विधानसभा का चुनाव लड़ेंगी कि नहीं!

    ज्यादा उत्साहित हैं अखिलेश !


     
अखिलेश यादव: भाजपा का दलित-पिछड़ा प्रेम दिखावा!
    समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश में भाजपा और योगी आदित्यनाथ के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है. सत्ता किसके हाथ लगेगी, यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन हर कोई मान रहा है कि यूपी में मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही होने वाला है. अखिलेश यादव के साथ उनके सजातीय यादव और अल्पसंख्यक मतदाता पूरी तरह से लामबंद दिख रहे हैं. अन्य पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों में भी उनका समर्थन इधर बढ़ा है. सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल पूरे उत्तर प्रदेश में यात्रा कर अपने सजातीय पटेल कुर्मी किसानों को सपा के साथ जोड़ने में लगे हैं. चाचा शिवपाल सिंह यादव के साथ अखिलेश यादव की अनबन खत्म सी हो गई लगती है. सपा और उनकी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के बीच चुनावी गठजोड़ हो जाने की बात भी कही जा रही है. इसके साथ ही जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल, केशवदेव मौर्य के महान दल, संजय चौहान की जनवादी पार्टी के साथ भी सपा का चुनावी गठबंधन हो गया है. भीम आर्मी के चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी के साथ भी उनके चुनावी गठजोड़ की बात चल रही है. ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ भाजपा की बात नहीं बन पाने की स्थिति में उनके भी इसी गठजोड़ के साथ आने की बात कही जा रही है. किसान आंदोलन और उसके नेता राकेश टिकैत का समर्थन भी इसी गठजोड़ को मिलने की बात कही जा रही है. 

    
लालजी वर्मा और राम अचल राजभर के साथ अखिलेश यादव :
 सामाजिक समीकरण बनाने की कवायद
  इधर भाजपा और बसपा से नाराज दलित एवं अन्य पिछड़ी जातियों के कद्दावर नेता भी अखिलेश यादव के साथ जुड़ते जा रहे हैं. विधायक दल के नेता और प्रदेश बसपा के अध्यक्ष रहे लाल जी वर्मा (कुर्मी) और राम अचल राजभर की अखिलेश यादव से बात हो गई है. बसपा के एक और बड़े, बुजुर्ग नेता विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव राजभर ने भी अखिलेश यादव का समर्थन किया है. उनके पुत्र सपा में शामिल हो गए हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ी जातियों में शुमार होने वाले राजभर मतों की अच्छी तादाद बताई जाती है.अखिलेश यादव परशुराम जयंती मनाने के साथ ही परशुराम का बड़ा मंदिर बनाने की बात कर ब्राह्मण समाज को भी साधने में लगे हैं. वह भी प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन कर रहे हैं. लेकिन कारण चाहे कोरोना प्रोटोकोल हो या कुछ और वह अभी खुलकर मैदान में नहीं दिख रहे हैं और फिर उनमें तथा उनके करीबी लोगों में चुनावी जीत को लेकर अति विश्वास भी कुछ ज्यादा ही दिख रहा है. 

    इस बीच आम आदमी पार्टी और सांसद असदुद्दीन ओवैसी की मजलिसे मुत्ताहिदा मुसलमीन और पीस पार्टी भी उत्तर प्रदेश के चुनावी समर में सक्रिय हो रहे हैं. हालांकि उनकी भूमिका अभी तक इस या उस दल अथवा गठबंधन का राजनीतिक खेल बनाने अथवा बिगाड़ने से अधिक नहीं दिख रही है. इस तरह से उत्तर प्रदेश में बिछ रही राजनीतिक शतरंज की बिसात पर मोहरे फिट करने, सामाजिक समीकरण बनाने और बिगाड़ने के खेल जारी हैं. भविष्य में इस खेल में कुछ और आयाम भी जुड़ेंगे जो अगले साल फरवरी-मार्च महीने में होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजे को प्रभावित करेंगे.