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Monday, 27 September 2021

Hal Filhal : Social Engineering by Political Parties in Uttar Pradesh



यूपी में सोशल इंजीनियरिंग का दौर


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/vQHW41wZiJo


    
    पांच-छह महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए राजनीतिक शतरंज की बिसात अभी से बिछनी शुरू हो गई है. पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी के रूप में पहला दलित मुख्यमंत्री दे कर कांग्रेस ने न केवल पंजाब बल्कि अन्य चुनावी राज्यों में भी अपने राजनीतिक विरोधियों को शह देने की कोशिश की है. हालांकि चुनाव आयोग की आचार संहिता लागू होने में महज तीन-चार महीने ही बाकी रह गए हैं, रविवार, 26 सितंबर को चन्नी मंत्रि परिषद के विस्तार में भी सामाजिक एवं क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखने की कोशिश की गई. चन्नी का दलित चेहरा सामने रखकर कांग्रेस उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी दलित, ब्राह्मण और अल्पसंख्यक मतदाताओं के अपने परंपरागत जनाधार को वापस पाने की कोशिश में है. दूसरी तरफ, सत्तारूढ़ भाजपा ने भी रविवार को ही योगी मंत्रि परिषद का विस्तार कर सोशल इंजीनियरिंग का अपना पुराना फार्मूला लागू करने की कोशिश की है. इसके साथ ही मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के रणनीतिकार भी यूपी में नए सिरे से सोशल इंजीनियरिंग में जुट गए हैं. सभी दलों का फोकस दलित और अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों के साथ ही सवर्ण ब्राह्मणों के बीच अपनी पैठ बढ़ाने और मजबूत करने पर केंद्रित होते दिख रहा है.

भाजपा आलाकमान की बेचैनी

   
    उत्तर प्रदेश को लेकर, पिछले विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ हुई भाजपा के आलाकमान का विश्वास कुछ डगमगा गया सा लगता है. कोरोना की महामारी में उचित इलाज और ऑक्सीजन के अभाव में बड़े पैमाने पर हुई मौतों, मृतकों के सम्मानजनक अंतिम संस्कार नहीं हो पाने के कारण नदी में तैरते और नदी किनारे रेत में दबे शवों की तस्वीरें सार्वजनिक होने, महंगाई, बेरोजगारी और किसान आंदोलन के साथ ही कानून-व्यवस्था की बदतर स्थिति, दलितों पर बढ़ते अत्याचार-उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाएं उत्तर प्रदेश में भाजपा के आलाकमान को परेशान किए हैं. उसे नहीं लगता कि मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान का उसका परंपरागत एजेंडा इस बार भी कारगर हो सकेगा. इसका एक कारण शायद यह भी है कि उसके तथा संघ परिवार की तरफ से हिंदू-मुसलमान के बीच नफरत का माहौल बनाने के इरादे से दिए जाने वाले उत्तेजक बयानों पर दूसरी तरफ से खास प्रतिक्रिया नहीं हो रही है. सांप्रदायिक दंगे नहीं हो रहे हैं. इस कारण सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी नहीं हो पा रहा है. भाजपा और संघ परिवार की इस रणनीति को निष्क्रिय बनाने में किसान आंदोलन और उसके नेता राकेश टिकैत की भूमिका भी महत्वपूर्ण मानी जा रही है. भाजपा शासन में प्रयागराज के प्रतिष्ठित बाघंबरी मठ के महंत और भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष नरेंद्र गिरि की हत्या-आत्महत्या की गुत्थी एवं दर्जन भर अन्य साधु-संतों की हत्या को लेकर हिंदू समाज वैसे भी उद्वेलित है. नरेंद्र गिरि की हत्या-आत्महत्या के मामले में उनके पांच सितारा शिष्य' आनंद गिरि के साथ ही भाजपा के नेता का नाम भी सामने आने से पार्टी की किरकिरी हुई है. आनंद गिरि के भी भाजपा नेताओं के साथ करीबी संबंध सामने आ रहे हैं. उन पर अपने गुरु को उनके कथित अश्लील वीडियो के सहारे ब्लैक मेल करने के आरोप हैं. 

    उत्तर प्रदेश में कभी सवर्ण ब्राह्मण-बनियों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा में इन दिनों और खासतौर से योगी आदित्यनाथ के शासन में जिस तरह से उनके सजातीय राजपूतों का वर्चस्व बढ़ा है ब्राह्मण समाज के लोग खुद को पीड़ित और उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. दलितों और पिछड़ी जातियों के उत्पीड़न, बच्चियों के साथ बलात्कार और हत्या की घटनाएं लगातार बढ़ने के कारण दलितों और पिछड़ी जातियों के बीच भी भाजपा के प्रति नाराजगी बढ़ी है. इस सबके चलते ही एक बार तो भाजपा आलाकमान ने राज्य में नेतृत्व परिवर्तन का मन भी बना लिया था लेकिन मुख्यमंत्री, योगी आदित्यनाथ के अड़ जाने के कारण ऐसा नहीं हो सका. इसके बाद ही भाजपा के रणनीतिकारों ने उत्तर प्रदेश में आदित्यनाथ के अलावा, ब्राह्मण समाज, दलित एवं अन्य पिछड़ी जातियों के बड़े चेहरे भी सामने लाने और उनके सहारे उनके जाति-समाज को आकर्षित करने के इरादे से भाजपा आलाकमान ने उत्तर प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग के अपने पुराने फार्मूले पर काम करना शुरू कर दिया है.

    
गृह मंत्री अमित शाह के साथ बेबी रानी मौर्या: यूपी भाजपा का दलित चेहरा !
    इस रणनीति के तहत ही पिछले पखवाड़े उत्तराखंड की राज्यपाल बेबी रानी मौर्या से त्यागपत्र दिलवाकर उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने की घोषणा के बावजूद भाजपा आलाकमान की योजना उन्हें उत्तर प्रदेश में भाजपा के दलित (जाटव) चेहरे के बतौर पेश करने की है. पूरे उत्तर प्रदेश में उनकी रैलियां-सभाएं करवाने के कार्यक्रम बन रहे हैं. इसके साथ ही भाजपा ने केंद्र सरकार में राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल के अपना दल और संजय निषाद की निषाद पार्टी के साथ चुनावी गठजोड़ की घोषणा भी की है. संजय निषाद वही हैं, जिनका ‘पैसे लेने’, ‘मार डालने’ जैसे विवादित बयानों का स्टिंग पिछले दिनों वायरल हुआ था. निषाद के साथ ही हाल ही में भाजपा में शामिल जितिन प्रसाद, वीरेंद्र गुर्जर एवं गोपाल अंजान को विधान परिषद में नामित कर भाजपा के पक्ष में सामाजिक समीकरण बनाने की कवायद रविवार, 26 सितंबर को की गई. इसमें से जितिन प्रसाद ब्राह्मण तथा बाकी तीन अन्य और अति पिछड़ी जातियों से हैं. 

    रविवार की शाम को ही भाजपा के आलाकमान के दबाव में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने अपनी मंत्रि परिषद का विस्तार भी किया लेकिन मंत्री-राज्य मंत्री उन्होंने अपनी और संघ की मर्जी से ही बनाए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पसंद के पूर्व नौकरशाह, विधान पार्षद अरविंद शर्मा और निषाद पार्टी के संजय निषाद को उन्होंने मंत्री नहीं बनाया. इसके बजाय उन्होंने जितिन प्रसाद (ब्राह्मण) को मंत्री बनाने के साथ ही अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों के तीन लोगों-छत्रपाल गंगवार (कुर्मी), संगीता बिंद (निषाद) और धर्मवीर प्रजापति (कुम्भकार), गैर जाटव अनुसूचित जाति के पलटू राम और दिनेश खटिक के साथ ही अनुसूचित जनजाति के संजय गोंड को राज्य मंत्री बनाया. हालांकि यूपी में जितिन प्रसाद की पहिचान एक ब्राह्मण नेता के रूप में कभी नहीं रही, भाजपा के रणनीतिकार सोचते हैं कि वह इस सबसे बड़े राज्य में ब्राह्मणों की नाराजगी कुछ कम कर सकेंगे. वैसे भी, भाजपा के रणनीतिकारों को लगता है कि लाख नाराजगी के बावजूद ब्राह्मण और बनिए बड़े पैमाने पर भाजपा के साथ ही बने रहेंगे. 

मंत्रिपरिषद का विस्तार : मर्जी के मंत्री, राज्य मंत्री
    इस मंत्रि परिषद विस्तार के जरिए भाजपा ने ब्राह्मण समाज के साथ ही गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित जातियों को साधने की कोशिश की है. भाजपा की योजना इन नए मंत्रियों को उनके जातीय समूहों के बीच लाल बत्ती वाली गाड़ियों पर घुमाकर यह जताने की है कि देखो, मनुवादियों की पार्टी कही जानेवाली भाजपा दलितों और अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों का कितना खयाल रखती है. इसके पहले केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंत्रि परिषद के विस्तार में भी उत्तर प्रदेश से एक ब्राह्मण और आधा दर्जन राज्य मंत्री दलित और ओबीसी ही बनाए गए थे.

    हालांकि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव सिर पर होने, तीन-चार महीने बाद ही आचार संहिता लागू हो जाने के मद्देनजर एक तो प्रशासनिक अधिकारी मंत्रियों की वैसे भी नहीं सुनते और फिर राज्य मंत्रियों के पास गाड़ी पर लाल बत्ती लग जाने, बंगला, कार्यालय, सुरक्षा गार्ड और कुछ कारकून मिल जाने के अलावा वैसे भी कुछ काम नहीं होते. उनके सरकारी फाइलें बमुश्किल ही भेजी जाती है. इसको लेकर दलित एवं अति पिछड़ी जातियों के बीच उनके प्रतिनिधियों के साथ भेदभाव की शिकायत भी बढ़ सकती है. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने दलित और पिछड़ी जातियों के प्रति भाजपा के इस प्रेम को उसका ढोंग करार देते हुए कहा है कि अगर इतना ही प्रेम है तो भाजपा की केंद्र सरकार जातिगत आधार पर जनगणना क्यों नहीं करवाती. एक तरफ तो सार्वजनिक उपक्रमों को निजी पूंजीपतियों के हाथों बेचकर सरकार इन उपक्रमों की नौकरियों में आरक्षण समाप्त कर रही है और दूसरी तरफ उनके कुछ मंत्रियों को राज्य मंत्री बनाकर अपने दलित-ओबीसी प्रेम का दिखावा कर रही है. यूपी में दलितों-पिछड़ी जातियों पर अत्याचार उत्पीड़न लगातार बढ़ रहा है.

      अभी तक भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग गैर जाटव दलित एवं गैर यादव पिछड़ी जातियों के बीच पैठ बढ़ाने पर केंद्रित रही है. पिछले कुछ चुनावों में उसे इसका राजनीतिक डिविडेंड भी मिला है. भाजपा की रणनीति अब दलितों में भी सबसे अधिक जाटव (चमार) आबादी पर भी फोकस कर बसपा सुप्रीमो मायावती के परंपरागत जनाधार में सेंध लगाने की लगती है. शायद इसलिए भी जाटव समाज की बेबी रानी मौर्या को आगे किया जा रहा है. लेकिन रविवार की भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग में बेबी रानी मौर्या कहीं नहीं दिखीं. न विधानपरिषद में और न ही मंत्रि परिषद में! ऐसे में, कर्मकांडी भाजपा की श्राद्ध पक्ष में 'सोशल इंजीनियरिंग' पर आधारित यह चुनावी रणनीति कितनी कारगर होगी! पोगापंथी लोगों का प्रचार है कि श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य नहीं किए जाते. भाजपा के लोग भी अभी तक श्राद्ध पक्ष में हुए पंजाब में कांग्रेस के नेतृत्व परिवर्तन को लेकर मजे ले रहे थे लेकिन योगी आदित्यनाथ ने श्राद्ध पक्ष में ही अपनी मंत्रि परिषद के विस्तार में एक ब्राह्मण को मंत्री बनाकर इस टोटके को मिटा दिया है. 
 

ब्राह्मणों को दोबारा जोड़ने में लगी बसपा    


    
त्रिशूल धारी मायावती : छीजते जनाधार की चिंता!
    उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यक कभी कांग्रेस के परंपरागत जनाधार रहे हैं लेकिन 1980 के दशक के अंतिम वर्षों में राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के क्रम में ब्राह्मण भाजपा तथा अल्पसंख्यक मुसलमान समाजवादी पार्टी के करीब होते गए. उसी दौर में कांशीराम के बामसेफ आंदोलन और मायावती के साथ मिलकर उनकी बहुजन राजनीति और बहुजन समाज पार्टी के राजनीतिक परिदृश्य पर तेजी से उभरने के बाद उत्तर प्रदेश में दलित और खासतौर से जाटव बड़े पैमाने पर उनके साथ जुड़ते गए. तब उनका नारा होता था, ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ और ‘ब्राह्मण, बनिया, क्षत्रिय छोड़, बाकी सब हैं, डीएस 4’. इस दलित जनाधार के बूते ही मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री बनीं और प्रधानमंत्री बनने के सपने भी देखने लगीं. 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले मायावती ने सवर्ण ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं के जनाधार पर काबिज होने की गरज अपनी रणनीति में बदलाव किया. खासतौर से ब्राह्मणों को साधने की गरज से उन्होंने भाई चारा सम्मेलन शुरू किए. उनके नारे भी बदल गए, 'पंडित शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा', 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु, महेश है'. इस सोशल इंजीनियरिंग ने गजब का असर भी दिखाया और उन्होंने विधानसभा में 30.43 फीसदी वोटों के साथ 206 सीट हासिल कर पहली बार पूर्ण बहुमत की अपनी सरकार बनाई. 2009 के लोकसभा चुनावों में भी बसपा 27.4 फीसदी वोटों के साथ 21 सीटें जीतने में सफल रही. लेकिन साल 2012 में और उसके बाद भी उनके सोशल इंजीनियरिंग की चमक फीकी पड़ती गई. उनका जनाधार भी बिखरते गया. सबसे बड़ा झटका 2014 के लोकसभा चुनावों में लगा, जब यूपी में बसपा को वोट तो 20 फीसदी मिले लेकिन सीट एक भी नहीं मिल सकी. 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे 23 फीसदी वोट के साथ सिर्फ 19 सीटें ही मिलीं, जिनमें से अब सिर्फ सात ही साथ बचे हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ चुनावी तालमेल से उसे दस सीटें मिलीं लेकिन सपा से चुनावी तालमेल तोड़ लेने के बाद अब यकीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता कि उनमें से कितने मन से उनके साथ रह गए हैं.

    
बेटे के साथ बसपा के प्रबुद्ध (ब्राह्मण) सम्मेलन में सतीश मिश्र :
भाजपा से नाराज ब्राह्मण बसपा से जुड़ेंगे!
    अब एक बार फिर से मायावती और उनकी बसपा ब्राह्मणों की ओर रुख कर रही हैं. उनके सिपहसालार कहे जाने वाले राज्यसभा सांसद सतीश मिश्रा ब्राह्मण समाज को वापस बसपा से जोड़ने के इरादे से प्रबुद्ध वर्ग (ब्राह्मण) सम्मेलन कर रहे हैं. मिश्र कहते हैं कि यूपी में भाजपा सरकार में ब्राह्मण उपेक्षा और उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं. शासन-प्रशासन में उनकी उपेक्षा हो रही है. करीब दो दर्जन साधु-संत, पुजारियों की हत्याएं हो चुकी हैं. यह समाज इनके पास धर्म के नाम पर आया था. लेकिन जब देखा कि अयोध्या में भगवान राम के नाम पर भी लोगों को ठगा गया, तो ब्राह्मण अब भाजपा से विमुख हो रहे हैं. उनके अनुसार ब्राह्मण का मान-सम्मान और स्वाभिमान सिर्फ बीएसपी में ही सुरिक्षत है. बसपा ने अपने शासन में उन्हें उचित भागीदारी दी थी. हालांकि हाल के दिनों में रामवीर उपाध्याय जैसे बसपा के कई बड़े ब्राह्मण नेता पार्टी में उचित मान सम्मान नहीं मिलेने को ही बहाना बनाकर बसपा से दूर हुए है.

    लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि जिस दलित समाज को अपना कोर वोट मानकर बसपा सोशल इंजीनियरिंग का यह प्रयोग कर रही है, क्या वह पूरी तरह से उसके साथ है? अल्पसंख्यक समाज के लोग तो कबके उनका साथ छोड़ चुके हैं. सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश हो या देश के किसी अन्य हिस्से में अल्पसंख्यकों, ओबीसी और दलितों पर होने वाले अत्याचार-उत्पीड़न, दलित बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं को लेकर मायावती और उनकी बसपा को कभी आक्रामक और आंदोलित होते नहीं देखा गया. संघर्ष और आंदोलनों को वह समय नष्ट करने की कवायद मानते हुए अपने लोगों को संगठित होने की सलाह देते रही हैं. हालांकि जुलाई, 2017 में उन्होंने यह कहते हुए राज्यसभा से इस्तीफा दिया था कि अब वह संसद छोड़कर दलित-उत्पीड़न के खिलाफ सड़कों पर उतरेंगी. लेकिन तबसे उन्हें कहीं भी सड़क पर उतरते, आंदोलित होते नहीं देखा गया. केंद्र में हो अथवा उत्तर प्रदेश में भी वह सत्तारूढ़ दल के बजाय कांग्रेस और सपा जैसे विरोधी दलों के खिलाफ ही ज्यादा आक्रामक दिखती हैं. भाजपा के प्रति उनके नरम रुख के कारण, उनके राजनीतिक विरोधी उन्हें भाजपा की 'बी टीम' भी कहने लगे हैं. इसके चलते भी अल्पसंख्यक, ओबीसी और दलित समाज के लोग उनसे कटते गए. 2017 में जीते उनकी पार्टी के 18 विधायकों में से दस सपा तथा दो भाजपा के शिविर में दिखने लगे. अपने इस परंपरागत दलित जनाधार को एकजुट रखने और उसे विस्तार देने की गरज से ही मायावती ने पंजाब में ढाई दशक के बाद शिरोमणि अकाली दल के साथ चुनावी गठजोड़ किया. इस गठबंधन ने सत्ता मिलने पर किसी दलित को उप मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा भी की गई. लेकिन कांग्रेस ने पंजाब में एक दलित चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर उनकी इस चुनावी रणनीति ओर वादे की भी हवा निकाल दी है.

     
चंद्रशेखर : अपना कुछ बनाएंगे या मायावती का खेल बिगाड़ेंगे !
इस बीच मायावती के ही जाटव समाज के युवा नेता चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी पहली बार चुनाव मैदान में उतरने जा रही है. पूरे उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर दलित और खासतौर से-पढ़े लिखे दलित युवा उनके आक्रामक तेवरों के कारण उनकी तरफ आकर्षित भी हो रहे हैं. अभी यह तय नहीं है कि वह किस दल अथवा गठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे. उनकी बातचीत कांग्रेस के साथ ही सपा-लोकदल गठबंधन के साथ भी हो रही है. अगर उनका अखिलेश यादव की सपा और जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल के साथ चुनावी गठजोड़ हो गया और अगर कांग्रेस भी इस गठजोड़ का हिस्सा बन गई तो यह बसपा के साथ ही भाजपा के लिए भी बहुत भारी पड़ सकता है.

    संगठन और जनाधार की कमी से जूझती कांग्रेस


    कांग्रेस के साथ दिक्कत यही है कि उसके पास इस समय उत्तर प्रदेश में न तो कोई ठोस संगठन है और न ही कोई ऐसा नेता जिसकी पूरे उत्तर प्रदेश में अपनी धाक और पहिचान हो. जिस प्रियंका गांधी वाड्रा के नाम पर यूपी का चुनाव लड़ने की बात कही जा रही है, उनके प्रति उत्तर प्रदेश में और खासतौर से युवाओं और महिलाओं के बीच आकर्षण तो दिख रहा है, लेकिन उन्होंने अभी तक इस बात के ठोस संकेत नहीं दिए हैं कि वह यूपी में अपनी राजनीति को लेकर बहुत गंभीर हैं. कुछ दिन यूपी में सक्रिय रहने के बाद वह अचानक गायब सी हो जाती हैं.

प्रियंका गांधी वाड्रा : उत्तर प्रदेश को लेकर कितनी गंभीर !

कांग्रेेस के बड़े नेता रहे जितेंद्र प्रसाद के यूपीए शासन में केंद्र सरकार में राज्य मंत्री रहे युवा नेता जितिन प्रसाद के बाद पीढ़ी दर पीढ़ी कांग्रेस के साथ रहे कमलापति त्रिपाठी के प्रपौत्र ललितेशपति त्रिपाठी के भी नाता तोड़ लेने के बाद यूपी में कांग्रेस की हालत और भी पतली हो गई है. 2017 के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस के साथ सीटों का तालमेल करने के बावजूद कांग्रेस की हालत पतली ही रही. शायद इसलिए भी कांग्रेस में एक बड़ा तबका इस बार किसी से तालमेल करने के बजाय प्रियंका गांधी वाड़ा को सामने रखकर अपने बूते ही चुनाव लड़ने पर जोर दे रहा है. हालांकि अभी तक यह तय नहीं हो पा रहा है कि प्रियंका खुद भी विधानसभा का चुनाव लड़ेंगी कि नहीं!

    ज्यादा उत्साहित हैं अखिलेश !


     
अखिलेश यादव: भाजपा का दलित-पिछड़ा प्रेम दिखावा!
    समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश में भाजपा और योगी आदित्यनाथ के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है. सत्ता किसके हाथ लगेगी, यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन हर कोई मान रहा है कि यूपी में मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही होने वाला है. अखिलेश यादव के साथ उनके सजातीय यादव और अल्पसंख्यक मतदाता पूरी तरह से लामबंद दिख रहे हैं. अन्य पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों में भी उनका समर्थन इधर बढ़ा है. सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल पूरे उत्तर प्रदेश में यात्रा कर अपने सजातीय पटेल कुर्मी किसानों को सपा के साथ जोड़ने में लगे हैं. चाचा शिवपाल सिंह यादव के साथ अखिलेश यादव की अनबन खत्म सी हो गई लगती है. सपा और उनकी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के बीच चुनावी गठजोड़ हो जाने की बात भी कही जा रही है. इसके साथ ही जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल, केशवदेव मौर्य के महान दल, संजय चौहान की जनवादी पार्टी के साथ भी सपा का चुनावी गठबंधन हो गया है. भीम आर्मी के चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी के साथ भी उनके चुनावी गठजोड़ की बात चल रही है. ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ भाजपा की बात नहीं बन पाने की स्थिति में उनके भी इसी गठजोड़ के साथ आने की बात कही जा रही है. किसान आंदोलन और उसके नेता राकेश टिकैत का समर्थन भी इसी गठजोड़ को मिलने की बात कही जा रही है. 

    
लालजी वर्मा और राम अचल राजभर के साथ अखिलेश यादव :
 सामाजिक समीकरण बनाने की कवायद
  इधर भाजपा और बसपा से नाराज दलित एवं अन्य पिछड़ी जातियों के कद्दावर नेता भी अखिलेश यादव के साथ जुड़ते जा रहे हैं. विधायक दल के नेता और प्रदेश बसपा के अध्यक्ष रहे लाल जी वर्मा (कुर्मी) और राम अचल राजभर की अखिलेश यादव से बात हो गई है. बसपा के एक और बड़े, बुजुर्ग नेता विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव राजभर ने भी अखिलेश यादव का समर्थन किया है. उनके पुत्र सपा में शामिल हो गए हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ी जातियों में शुमार होने वाले राजभर मतों की अच्छी तादाद बताई जाती है.अखिलेश यादव परशुराम जयंती मनाने के साथ ही परशुराम का बड़ा मंदिर बनाने की बात कर ब्राह्मण समाज को भी साधने में लगे हैं. वह भी प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन कर रहे हैं. लेकिन कारण चाहे कोरोना प्रोटोकोल हो या कुछ और वह अभी खुलकर मैदान में नहीं दिख रहे हैं और फिर उनमें तथा उनके करीबी लोगों में चुनावी जीत को लेकर अति विश्वास भी कुछ ज्यादा ही दिख रहा है. 

    इस बीच आम आदमी पार्टी और सांसद असदुद्दीन ओवैसी की मजलिसे मुत्ताहिदा मुसलमीन और पीस पार्टी भी उत्तर प्रदेश के चुनावी समर में सक्रिय हो रहे हैं. हालांकि उनकी भूमिका अभी तक इस या उस दल अथवा गठबंधन का राजनीतिक खेल बनाने अथवा बिगाड़ने से अधिक नहीं दिख रही है. इस तरह से उत्तर प्रदेश में बिछ रही राजनीतिक शतरंज की बिसात पर मोहरे फिट करने, सामाजिक समीकरण बनाने और बिगाड़ने के खेल जारी हैं. भविष्य में इस खेल में कुछ और आयाम भी जुड़ेंगे जो अगले साल फरवरी-मार्च महीने में होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजे को प्रभावित करेंगे. 


Thursday, 14 June 2018

Karnatka shows the way for unified opposition - कर्नाटक में विपक्ष की दिखी ताकत

कर्नाटक में विपक्ष की दिखी ताकत  

2019 में मोदी और भाजपा को महागठबंधन की मजबूत चुनौती!
जयशंकर गुप्त

कर्नाटक में एच डी कुमार स्वामी के नेतृत्व में जनता दल एस और कांग्रेस की सरकार को लगातार प्रामाणिकता और जनादेश प्राप्त होते जाने से लगता है कि यह गठबंधन और इसी के तर्ज पर अन्य राज्यों में भी बन रहे विपक्ष के गठबंधन 2019 में केंद्र और तकरीबन 20 राज्यों में भाजपा के नेतृत्ववाले सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के लिए खासा सिरदर्द साबित हो सकते हैं. कर्नाटक में साझा सरकार ने अपना विधानसभा अध्यक्ष चुनकर और समय सीमा के भीतर सदन में बहुमत साबित कर न सिर्फ अपनी प्रामाणिकता प्रदर्शित की है बल्कि तुरंत बाद हुए विधानसभा की दो सीटों के चुनाव-उपचुनाव जीतकर साबित कर दिया है कि कर्नाटक का जनादेश भी साझा सरकार के पक्ष में है. इससे पहले मंत्रिमंडल के विस्तार की कसौटी को भी गठबंधन सरकार ने बखूबी पार कर लिया है. जयनगर विधानसभा की सीट तो भाजपा की अपनी परंपरागत सीट थी, जिसपर इसके दिवंगत उम्मीदवार पिछले चार बार से लगातार विधायक थे. इस सीट पर कांग्रेस का उम्मीदवार जीत गया. इस जीत को कांग्रेस अपनी बढ़ती राजनीतिक ताकत और साझा सरकार के लिए जनादेश के रूप में प्रचारित करेगा.
 कुछ दिनों पहले, 23 मई को बेंगलुरु में जनता दल एस के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के रूप में कांग्रेस के दलित नेता जी परमेश्वर के शपथ ग्रहण समारोह में गैर भाजपा-राजग विपक्ष के तमाम सूरमाओं की एक मंच पर मौजूदगी से ही लग गया था कि विपक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके नेतृत्ववाले सत्तारूढ़ राजग को चुनौती देने के मूड में आ गया है. यह शपथ ग्रहण का समारोह कम विपक्ष की एकजुटता का राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन ज्यादा था जिसमें एक दर्जन से अधिक कांग्रेसनीत यूपीए के घटक दलों के साथ गैर भाजपा, गैर कांग्रेस क्षेत्रीय दलों का अद्भुत राजनीतिक संगम देखने को मिला. इसके तुरंत बाद ही उत्तर प्रदेश के कैराना और महाराष्ट्र के भंडारा गोदिया संसदीय सीटों और उत्तर प्रदेश, बिहार एवं मेघालय एवं अन्य राज्यों में हुए एक दर्जन विधानसभा सीटों में से 11 सीटों पर विपक्ष के उम्मीदवारों की जीत से भी सत्तारूढ़ खेमे में बेचैनी और विपक्ष का मनोबल बढ़ा है.
इससे पहले भी गुजरात विधानसभा के चुनाव में अपेक्षकृत अच्छे प्रदर्शन और कई संसदीय उपचुनावों में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के उम्मीदवारों की जीत ने कांग्रेस और विपक्ष को एक अलग तरह की राजनीतिक ऊर्जा प्रदान की थी. लेकिन बेंगलुरु में इक्का दुक्का अपवादों को छोड़कर तमाम गैर भाजपा-गैर राजग नेताओं का उत्साहित जमावड़ा  2019 के आम चुनाव में खुद को अपराजेय समझने वाली प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सिपहसालार, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी के सामने विपक्ष की ओर से मजबूत राजनीतिक चुनौती का स्पष्ट संकेत है. एच डी कुमार स्वामी के शपथग्रहण समारोह में विपक्ष का कौन बड़ा नेता नहीं था. कुमार स्वामी और उनके पिता 85 वर्षीय पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा की अगवानी में कांग्रेसनीत यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खरगे, कर्नाटक के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धरमैया, डी शिव कुमार, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष एवं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, बसपा की अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और उनके महासचिव सतीश मिश्र, एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार, बिहार में राजद यानी विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव, लोकतांत्रिक जनता दल के शरद यादव, झारखंड से झामुमो के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, एक और पूर्व मुख्यमंत्री झाविमो के बाबूलाल मरांडी, राष्ट्रीय लोकदल के चैधरी अजित सिंह, माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी, भाकपा के सचिव डी राजा, केरल के माकपाई मुख्यमंत्री पिनराई विजयन, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी वहां पहंुचे. तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष, मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव एक दिन पहले ही देवेगौड़ा और कुमार स्वामी से मिलकर शपथग्रहण समारोह में शमिल नहीं हो पाने का अफसोस जता गए थे. यूपीए के एक प्रमुख घटक द्रविड़ मुनेत्र कझगम के नेता एम के स्टाॅलिन भी तमिलनाडु के तूतिकोरिन में हुए पुलिस गोलीकांड के मौके पर पहंुंचने का कारण बताकर नहीं पहंुच सके. फिल्म अभिनेता से नेता बनने की दिशा में सक्रिय कमल हासन भी उस दिन तूतिकोरिन में ही दिखे.
लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस के पिता-पुत्र डा. फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला भी नहीं दिखे. कारण रमजान और कश्मीर के हालात भी हो सकते हैं. लेकिन कांग्रेस के पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और मिजोरम के ललथनहवला भी नहीं दिखे. ओडिसा के मुख्यमंत्री एवं बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक भी नहीं आए. संभवतः वह अभी अपनी राजनीतिक दिशा तय नहीं कर पा रहे. बीजद के महासचिव अरुण कुमार साहू ने कहा कि उनकी पार्टी भाजपा और कांग्रेस से भी समान दूरी बनाए रखना चाहती है. हालांकि पिछले दिनों नवीन पटनायक ने भी तीसरे मोर्चे को मजबूत करने पर बल दिया था.
 बेंगलुरु में विपक्ष के नेताओं के बीच गजब की आपसी केमिस्ट्री दिखी. अखिलेश यादव के साथ मायावती की करीबी साफ दिख रही थी. दोनों संभवतः पहली बार इतनी आत्मीयता से मंच साझा कर रहे थे. वहीं सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ भी मायावती और अखिलेश के बीच अलग तरह की केमिस्ट्री बनते दिखी. जिस तरह से सोनिया गांधी और मायावती ने एक दूसरे के कंधे और कमर में हाथ डालकर अपनापन दिखाने की कोशिश की वह भविष्य की विपक्षी राजनीति का एक अलग संकेत दे रहा था. बीमार चल रहे राजद के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव ने सोनिया गांधी से लेकर देवेगौड़ा, मायावती और ममता बनर्जी के आगे झुककर उनका आशीर्वाद लिया.
लेकिन एक समय ऐसा भी लगा कि यूपीए और गैर राजग, गैर कांग्रेसी विपक्ष यानी तीसरे मोर्चे की बात करनेवाले नेता खासतौर से ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और अरविंद केजरीवाल, पिनराई विजयन मंच पर अलग अलग मुद्रा में दिख रहे हैं. इसे महसूस कर देवेगौड़ा और सोनिया गांधी ने ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू को भी अपने, शरद यादव, शरद पवार और मायावती तथा अखिलेश यादव के बीच लाकर बड़े फ्रेम में तस्वीरें खिंचवाई. फिर तो चंद्रबाबू नायडू और केजरीवाल, विजयन तथा येचुरी, राजा विपक्ष के सभी सूरमाओं के हाथ उठाकर ग्रुप फोटो बनवाए गए. इस तस्वीर को देखने के बाद पिछले चार साल में यह पहली बार लगा कि 2019 में विपक्ष एकजुट होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा-राजग को मजबूत चुनौती देने के लिए गंभीर है.
एकजुट विपक्ष के सामने चुनौतियां
लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं हैं. यक्ष प्रश्न यही है कि विपक्ष की यह एकजुटता कब तक बनी रहेगी और मोदी के विकल्प के बतौर इसका नेतृत्व कौन करेगा. एक प्रश्न के जवाब में राहुल गांधी के यह कहने पर कि कांग्रेस को बहुमत मिलने की स्थिति में वह प्रधानमंत्री बनने को तैयार हैं, ममता बनर्जी ने कहा था कि जरूरी नहीं कि किसी एक व्यक्ति को सामने रखकर ही विपक्ष लोकसभा का अगला चुनाव लड़े. वह गाहे बगाहे गैर भाजपा, गैर कांग्रेसी दलों, खासतौर से क्षेत्रीय दलों का अलग विपक्षी गठबंधन बनाने पर जोर देते रहती हैं. बंेगलुरु में भी ममता बनर्जी ने यही कहा कि शपथग्रहण समारोह में उनकी शिरकत का मकसद क्षेत्रीय दलों को मजबूती प्रदान करना है. यही राय कमोबेस आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और कभी तीसरे, संयुक्त मोर्चे के संयोजक रहे चंद्रबाबू नायडू, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की भी रही है. हालांकि कभी कांग्रेस समर्थित तीसरे, संयुक्त मोर्चे की सरकार के प्रधानमंत्री रह चुके एच डी देवेगौड़ा ने कहा है कि कांग्रेस के बिना किसी गैर भाजपा विपक्षी महागठबंधन की कल्पना संभव नहीं. लेकिन पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में कांग्रेस किसके साथ गठबंधन करेगी, वाम दलों के साथ अथवा ममता बनर्जी की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के साथ. क्या यह संभव हो पाएगा कि ये तीनों ही राजनीतिक ताकतें वहां भाजपा के विरोध में महा गठबंधन बना सकें. बेंगलुरु के शपथ ग्रहण समारोह में ममता बनर्जी के साथ मंच साझा करनेवाले माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने साफ कर दिया कि भाजपा कोे रोकने के लिए विपक्ष की एकता के नाम पर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से हाथ मिलाने का सवाल ही नहीं उठता. उन्होंने कहा, ‘‘भाजपा के नेतृत्ववाली सरकारें देश में और ममता बनर्जी की सरकार पश्चिम बंगाल में समान रूप से लोकतंत्र की हत्या कर रही हैं.’’ लिहाजा माकपा लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में ममता और मोदी, दोनों को और केरल में कांग्रेस को हराएगी.
इसी तरह से आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में परस्पर विरोधी चंद्रबाबू नायडू और के चंद्रशेखर राव तथा ओडिसा में नवीन पटनायक और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को भी तय करना होगा कि उन्हें भाजपा से लड़ना है कि कांग्रेस से या दोनों से. कांग्रेस को भी इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा कि उसे कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की दिशा में अग्रसर भाजपा से लड़ना है कि क्षेत्रीय दलों के साथ!
इसके साथ ही इस विपक्षी महागठबंधन के नेता और नीतियों-कार्यक्रमों पर भी विचार करना होगा. अभी तक विपक्षी जमावड़े का मकसद भाजपा और मोदी तथा उनके बहाने आम चुनाव में सांप्रदायिकता का विरोध ही नजर आ रहा है. भविष्य में उन्हें उनका विकल्प भी पेश करना पड़ेगा. विपक्ष में कांग्रेस के राहुल गांधी से लेकर मायावती, ममता बनर्जी, शरद पवार और शरद यादव जैसे कई नेता नेतृत्व की लालसा पाले हुए हैं. कहा जा रहा है कि नेतृत्व का फैसला लोकसभा चुनाव के बाद भी संभव है जैसा 2004 में हुआ था. हालांकि भाजपा के लोग प्रधानमंत्री मोदी के सामने विपक्ष के पास वैकल्पिक नेतृत्व के अभाव को भुनाने की कोशिश कर सकते हैं. देश के मतदाता बड़े पैमाने पर आज भले ही केंद्र सरकार और भाजपा से भी नाराज दिख रहे हैं. उन्हें लगता है कि पिछले चार वर्षों में मोदी और भाजपा के चुनावी वादे छलावा ही साबित हुए हैं. लेकिन उनमें से एक बड़े तबके को अभी भी मोदी से उम्मीदें हैं.
म.प्र., राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनाव
विपक्षी एकता की परख तो अगले कुछ महीनों में राजस्थान, म.प्र. और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में भी होगी. इन तीन राज्यों में चुनावी लड़ाई वैसे तो मोटे तौर पर कांग्रेस बनाम भाजपा ही है. वहां भाजपा को चुनौती देने की ताकत रखने वाली बहुत मजबूत क्षेत्रीय पार्टी नहीं है, लेकिन कुछ-कुछ पॉकेट में सपा, बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और लाकतांत्रिक जनता दल के ठीक-ठाक वोट हैं. बीते विधानसभा चुनाव में 6.29 फीसदी वोट पाने वाली बसपा को म.प्र. में चार सीटें भी मिली थीं. इसी तरह उसे छत्तीसगढ़ में 4.27 और राजस्थान में 3.77 फीसदी वोट मिले थे. पिछले साल म.प्र. के उपचुनाव में बीएसपी का उम्मीदवार खड़ा न करना दो सीटों पर कांग्रेस की जीत की वजह बना था. इन तीन राज्यों में कांग्रेस के दिल बड़ा कर सपा, बसपा, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और लोकतांत्रिक जनता दल जैसे क्षेत्रीय दलों के लिए भी कुछ सीटें छोड़ने की स्थिति में 2019 के आम चुनाव की झांकी इन राज्य विधानसभाओं के चुनाव में दिख सकती है.
कर्नाटक की साझा सरकार की स्थिरता सबसे बड़ी चुनौती
 विपक्ष के लिए सबसे बड़ी चुनौती तो कर्नाटक में साझा सरकार की स्थिरता को लेकर सामने आएगी. खंडित जनादेश के बीच सोनिया गांधी की राजनीतिक परिपक्वता और दोनों दलों की एकजुटता से राजनीतिक मात खाई भाजपा आसानी से हार मानने और पांच साल तक इंतजार करनेवाली नहीं है. विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सत्ता हाथ से निकल जाने के कारण चोटिल भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने कहा भी कि कांग्रेस और जेडीएस अपने विधायकों को छुट्टा खोलकर तो देखंे! हालांकि कांग्रेस और जेडीएस के  विधायकों की एकजुटता ने 25 मई को विश्वासमत प्रस्ताव हासिल करने और उससे पहले कांग्रेस के नेता रमेश कुमार को विधानसभाध्यक्ष चुनवाने और सदन में विस्वासमत हासिल करने की प्रारंभिक जंग को जीत लिया है.
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की रणनीति पर गौर करने पर इस बात का अंदाजा आसानी से लग सकता है कि कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस के इस गठबंधन को 2019 से पहले तोड़ना भाजपा के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता होगी. ताकि ऐसे किसी गठजोड़ को मौकापरस्त दलों का कुर्सीपरस्त गठबंधन साबित करने के साथ ही यह बताया जा सके कि ये वो लोग हैं, जो मोदी और भाजपा को रोकने के लिए बेमेल रिश्ते तो गांठ लेते हैं, लेकिन दो कदम साथ नहीं चल सकते.
 जाहिर सी बात है कि दोनों दलों के नेताओं की महत्वाकांक्षाएं, अंतर्विरोध और सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर अंदरूनी टकराहटों में ही भाजपा अपने लिए अवसर तलाशेगी. मुख्यमंत्री भाजपा की नजर लगातार कुमारस्वामी और उनके कुनबे पर होगी. एचडी कुमार स्वामी के बड़े भाई, विधायक एचडी रेवन्ना लगातार सत्ता में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने का दबाव बनाए रखेंगे. और फिर संकट की घड़ी में कांग्रेस और जनता दल एस के विधायकों को सुरक्षित और एकजुट रखने में सफल रह कर्नाटक के कद्दावर कांग्रेसी नेता, विधायक डी शिव कुमार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और उनका अतीत भी इस साझा सरकार के लिए संकट का कारण बन सकता है. सिद्धरमैया की सरकार में ऊर्जा मंत्री रह चुके शिव कुमार के दर्जनों ठिकानों पर पिछले साल आयकर के छापे पड़ चुके हैं. देखना होगा कि पिछले पांच साल में सैकड़ों करोड़ के धनी बनने वाले और संकट के समय कांग्रेसी विधायकों को अपने पांच सितारा होटल में मेहमान के रूप में छिपाकर रखने वाले शिव कुमार के कारनामों की फाइल आने वाले दिनों में कहीं कांग्रेस और इस सरकार के लिए संकट का कारण न बन जाए. भाजपा की नजर अब उन विधायकों पर भी रहेगी, जो बहुमत के वक्त सारे प्रलोभन ठुकराकर भी नई सरकार में कुछ नहीं पा सके. ऐसे विधायक जिस दिन भी अपनी नाराजगी का सौदा करने को तैयार हो जाएंगे, कर्नाटक में तख्ता पलटते देर नहीं लगेगी. मंत्रिमंडल विस्तार के बाद दोनों दलों के विधायकों में असंतोष के छिटपुट स्वर भी सुनने को मिले लेकिन फिलहाल उन पर काबू पा लिया गया है.
  खंडित जनादेश ने दी विपक्ष को ताकत!
दरअसल, कर्नाटक विधानसभा के चुनावी नतीजांे पर पूरे देश की निगाहें टिकी थीं. भाजपा को लगा था पश्चिम में गुजरात और उत्तर पूर्व में त्रिपुरा, मेघालय और मणिपुर की तरह ही कर्नाटक में भी जीत और सरकार बनाने का का सिलसिला जारी रखते हुए वह 2019 में विपक्ष की चुनौती को यह कहते हुए भोथरा साबित कर सकेगी कि उत्तर पूर्व से से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक देश का मतदाता वर्ग तमाम दुश्वारियों और नाराजगी के बावजूद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को ही पसंद करता है. दूसरी तरफ, गुजरात में सत्ता के करीब पहुंचते पहुंचते पिछड़ गई कांग्रेस को भी लगता था कि कर्नाटक की जीत के बाद नई राजनीतिक ऊर्जा से लबरेज होकर वह राजस्थान, म.प्र., छत्तीसगढ़ और मिजोरम में भी भाजपा को मजबूत चुनौती या कहें शिकस्त देकर 2019 के लिए खुद को तैयार कर सकेगी.
लेकिन कर्नाटक का जनादेश दोनों को ही दगा दे गया. विधानसभा की 224 में से 222 सीटों के लिए हुए चुनाव में भाजपा बहुमत के लिए जरूरी 112 विधायकों के आंकड़े तक पहंुचने के क्रम में 104 सीटों पर ही अटक गई. कांग्रेस को भी केवल 78 सीटें ही मिल सकीं, जबकि जनता दल एस को 37 और उसके साथ मिलकर चुनाव लड़ी बसपा को एक सीट मिली. दो सीटें निर्दलीयों के खाते में गईं. नतीजे कांग्रेस के मनोनुकूल नहीं आए, लेकिन त्रिशंकु विधानसभा की आशंका को महसूस कर कांग्रेस ने समय रहते बड़ा राजनीतिक दाव खेलते हुए जनता दल एस के एच डी कुमार स्वामी के नेतृत्व में साझा सरकार बनाने का प्रस्ताव एच डी देवेगौड़ा के सामने रख दिया. खुद सोनिया गांधी ने देवेगौड़ा से बात की. पिता पुत्र राजी हो गए. राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि कर्नाटक के खंडित जनादेश ने 2019 के आम चुनाव के लिए विपक्ष की चुनौती को दमदार बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. कांग्रेस को अगर अपने बूते वहां बहुमत मिल जाता तो उसके सुनहरे अतीत का अहंकार विपक्ष की एकजुटता की राह में बाधा बन सकता था. कांग्रेस में एक बड़ा तबका चुनावों में कांग्रेस के एकला चलो की रणनीति की वकालत करते रहता है. कांग्रेस के इसी अहंकार ने कर्नाटक में जनता दल एस और मायावती की बसपा के साथ, गुजरात में एनसीपी और बसपा के साथ तथा असम में बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ के साथ भी किसी तरह का चुनावी गठबंधन अथवा सीटों का तालमेल नहीं होने दिया था. कर्नाटक में भी यही गलती हुई. दरअसल, कर्नाटक में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने अपने मुख्यमंत्री सिद्धरामैया की चुनावी रणनीति, पर कुछ ज्यादा ही भरोसा किया और देवेगौड़ा परिवार की राजनीतिक ताकत को उनके प्रभाव क्षेत्रों में भी कम करके आंकने की गलती भी की. कांग्रेस के नरम हिन्दुत्व और राहुल गांधी के मठ मंदिरों में मत्था टेकने के कारण भी देवेगौड़ा परिवार के जनाधारवाले इलाकों में दलित और अल्पसंख्यक मतों का कांग्रेस और जनता दल एस के बीच विभाजन हुआ. यह भी एक कारण है कि 38 फीसदी मत हासिल करके भी कांग्रेस 78 सीटें ही जीत सकी जबकि भाजपा 36 फीसदी मत प्राप्त करके भी 104 सीटें हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर सकी. अगर कांग्रेस और जनता दल एस तथा बसपा सीटों का तालमेल कर चुनाव लड़ते तो कर्नाटक का राजनीतिक परिदृश्य आज कुछ और ही होता.
जाहिर है कि कर्नाटक के इस खंडित जनादेश के चलते कांग्रेस की अकड़ कुछ ढीली पड़ी और बेंगलुरु में विपक्षी महागठबंधन का एक अक्स उभरते दिखा. जिस कर्नाटक को भाजपाई अपने लिए गेट वे टु साउथ यानी दक्षिण में भाजपा का प्रवेश द्वार कह रहे थे, वह ‘गेट वे टु अपोजिशन यूनिटी’ यानी विपक्षी एकता का कारक बन गया. कांग्रेस के लिए सबसे अच्छी बात यह रही कि उसे दक्षिण भारत के कर्नाटक में जनता दल एस के रूप में एक महत्वपूर्ण सहयोगी मिला जिससे गठबंधन जारी रहा तो लोकसभा चुनाव में दोनांे दल राज्य की कुल 28 में से तीन चैथाई सीटें आसानी से जीत सकते हैं. हालांकि कांग्रेस और देवेगौड़ा के बीच अतीत के संबंध बहुत ज्यादा मधुर और भरोसेमंद नहीं रहे हैं. नब्बे के दशक में कांग्रेस के सहयोग से तीसरे ‘संयुक्त मोर्चे’ की सरकार के प्रधानमंत्री बने देवेगौड़ा की सरकार कांग्रेस के समर्थन वापस ले लेने के कारण ही गिरी थी. और फिर एचडी कुमार स्वामी पहले भी भाजपा के साथ सरकार साझा कर चुके हैं. इसलिए भी इस साझा सरकार को भविष्य में अतीत की गलतियों से सबक लेकर ही आगे बढ़ना होगा.
कर्नाटक के राजनीतिक घटनाक्रमों से गैर भाजपा दलों को यह बात तो समझ में आ गई है कि मोदी और भाजपा से लड़ना से है, तो एकजुट होना पड़ेगा. अलग-अलग लड़े-भिड़े, तो 2019 में फिर मारे जाएंगे. मोदी और शाह से यही डर उन्हें एकजुट होने का रास्ता दिखा रहा है. लेकिन मोदी की राजनीतिक शैली, आक्रामकता, लोकप्रियता और देश के बड़े हिस्से में उनके लिए जनसमर्थन गैर भाजपा दलों को 2019 से जितना डरा रहा है, उतना ही डर अब भाजपा को कांग्रेस के साथ क्षेत्रीय दलों के संभावित गठजोड़ से होगा. प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और उनके प्रशंसक डींगें चाहे कितनी भी हांकें, गुजरात के बाद कर्नाटक के नतीजे बताते हैं कि मतदाताओं पर उनकी पकड़ ढीली पड़ रही है. कर्नाटक में इससे पहले 2008 में भी भाजपा येदियुरप्पा के नेतृत्व में 110 सीटें जीत कर सरकार बना चुकी थी. इस बार तो वह 104 पर ही सिमट गई. राजग और भाजपा के भीतर भी असंतोष बढ़ते साफ दिख रहा है.

Saturday, 1 July 2017

रायसीना हिल्स पर राम नाथ


दावेदारी: पीएम मोदी और भाजपा नेताओं के साथ रामनाथ कोविंद

जयशंकर गुप्त
सत्रह जुलाई को कुछ असंभव-सा अप्रत्याशित नहीं हुआ तो भाजपा के दलित नेता, बिहार के पूर्व राज्यपाल, पूर्व सांसद रामनाथ कोविंद देश के 14वें राष्ट्रपति बन जाएंगे। सत्तारूढ़ एनडीए के उम्मीदवार कोविंद का रायसीना हिल्स पर आलीशान राष्ट्रपति भवन में बतौर प्रथम नागरिक स्थापित होना अब महज औपचारिकता ही रह गई है। हालांकि विपक्षी कांग्रेस और उसके साथ लामबंद तकरीबन डेढ़ दर्जन छोटे-बड़े दलों ने कोविंद के विरुद्ध एक और दलित नेता मीरा कुमार को खड़ा करके मुकाबले को रोचक बनाने की कोशिश की है। पूर्व उप-प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार केंद्रीय मंत्री और लोकसभाध्यक्ष रह चुकी हैं और उनकी शख्सियत भी वजनदार है। इससे पहले भी के.आर. नारायणन के रूप में दलित नेता देश के राष्ट्रपति बन चुके हैं (हालांकि पूर्व राजनयिक और केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके नारायणन दलित नेता के रूप में पहचान बताए जाने पर शर्ममिंदगी महसूस करते थे। वे कहते थे कि देश के प्रथम नागरिक के रूप में उनका चयन दलित होने के कारण नहीं, बल्कि योग्यता और अनुभव के आधार पर हुआ था) लेकिन संसदीय इतिहास में यह शायद पहली बार है कि सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए दो वरिष्ठ दलित नेता आमने-सामने हैं।
वैसे, कहने को तो सर्वोच्च पद के लिए किसी एक नाम पर आम राय बनाने की बात भी चली थी लेकिन भाजपा ने कोविंद के नाम पर विपक्ष तो क्या अपने सहयोगी दलों को भी भरोसे में लेने की आवश्यकता नहीं समझी। उन्हें उम्मीदवार बनाने की एकतरफा घोषणा करके विपक्ष के सामने चुनौती पेश की कि वह या तो सत्ता पक्ष के उम्मीदवार का समर्थन करे या फिर उसका सामना करे। विपक्ष ने दूसरा विकल्प चुना। वैसे भी, 1977 में नीलम संजीव रेड्डी के चुनाव को छोड़ दें तो तकरीबन सभी राष्ट्रपतियों के चुनाव मतदान के जरिए ही हुए।
दरअसल, इस बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आगामी विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनाव की रणनीति के तहत ही उत्तर प्रदेश के कानपुर में कोरी या कहें कोली समाज से आने वाले दलित नेता कोविंद को अपना उम्मीदवार बनाया है। बिहार में राज्यपाल से पहले दो बार राज्यसभा का सदस्य रह चुके कोविंद भाजपा के प्रवक्ता, अनुसूचित जाति मोर्चा, भारतीय कोली समाज के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश भाजपा के महासचिव रह चुके हैं। वे एक-एक बार लोकसभा और विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। इसी वजह से उन्हें 2014 में लोकसभा का टिकट भी नहीं मिला।
शायद यही कारण है कि 14वें राष्ट्रपति पद के लिए उनकी उम्मीदवारी की घोषणा हुई तो बहुतों को और मीडिया के एक बड़े तबके को भी आश्चर्य हुआ। हालांकि उनके नाम पर विचार तो पहले से ही हो रहा था। कम से कम इस लेखक ने आउटलुक के आठ मई के अंक में भाजपा के राष्ट्रपति पद के संभावित उम्मीदवारों में उनके नाम की चर्चा प्रमुखता से की थी। भाजपा सूत्रों के अनुसार उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में गैर-जाटव दलित और गैर-यादव पिछड़ी जातियों पर केंद्रित भाजपा की चुनावी रणनीति की सफलता को आधार मानकर ही उन्हें एनडीए का उम्मीदवार बनाया गया।
इस चुनावी रणनीति के जनक उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अब राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह बताए जाते हैं। कल्याण सिंह ही कोविंद को पहली बार 1990 में भाजपा की राजनीति में लाए थे। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि आलाकमान की राय में सवर्णों के बीच भाजपा का समर्थन आधार चरम पर पहुंच चुका है। लिहाजा, पार्टी अपनी चुनावी रणनीति दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों पर केंद्रित कर रही है। दलितों में खासतौर से चमार या जाटवों के बीच मायावती और कांग्रेस की पकड़ मजबूत है जबकि पिछड़ी जातियों में यादव आमतौर पर मुलायम सिंह-अखिलेश यादव और लालू प्रसाद तथा कुछेक राज्यों में कांग्रेस तथा अन्य गैर-भाजपा दलों के साथ बताए जाते हैं। लिहाजा, भाजपा ने आदिवासियों के साथ ही गैर-जाटव दलित और गैर-यादव अन्य पिछड़ी जातियों के बीच पैठ बढ़ाने की कवायद तेज कर दी।
इस लिहाज से प्रधानमंत्री मोदी के रूप में अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व पहले से ही होने के बाद अब सर्वोच्च संवैधानिक पद पर किसी आदिवासी या दलित को बिठाने की रणनीति पर विचार किया गया। दिखावे के लिए लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू और श्रीधरन के नाम भी चर्चा में लाए गए थे। आडवाणी की दावेदारी तो खुद मोदी ने सोमनाथ यात्रा के दौरान अमित शाह और पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की मौजूदगी में यह कहकर बढ़ा दी थी कि आडवाणी जी को राष्ट्रपति बनवाना उनके लिए गुरु दक्षिणा होगी। ठगे-से महसूस कर रहे आडवाणी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उन्हें ऐसी गुरु दक्षिणा मिलेगी!
दरअसल, भाजपा और संघ परिवार के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार अंतिम क्षणों में चर्चा सिर्फ दो नामों-झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू और बिहार के राज्यपाल कोविंद पर ही सिमट गई थी। ओडिशा की द्रौपदी मुर्मू के लिए अंग्रेजी तथा हिंदी भाषा की अज्ञानता संभवत: उनकी उक्वमीदवारी पर भारी पड़ गई। उनके समर्थन में यह तर्क था कि उनके चयन का लाभ ओडिशा में सत्तारूढ़ बीजद का समर्थन और कई राज्यों में आदिवासियों के बीच आधार मजबूत करने में मिल सकता है। हालांकि बीजद ने तो पहले ही एनडीए के उम्मीदवार को समर्थन देने की घोषणा कर दी थी।
कोविंद के पक्ष में तर्क दिए गए कि करीबी संबंधों के चलते सिर्फ नीतीश कुमार और जदयू का ही समर्थन नहीं मिलेगा, बल्कि उत्तर प्रदेश का होने के नाते मायावती और उनकी बसपा को भी समर्थन पर मजबूर होना पड़ेगा। यह नहीं भी होता है तो उत्तर प्रदेश में दलितों का बड़ा तबका भाजपा के साथ हो जाएगा और फिर गुजरात, राजस्थान तथा मध्यप्रदेश में कोली समाज को भाजपा से जोड़ने में सफलता मिलेगी।
हालांकि गुजरात में तेजी से उभरे युवा दलित नेता जिग्नेश मेवानी नहीं मानते कि सिर्फ दलित और कोली होने के कारण गुजरात में और देश के अन्य हिस्सों में भी दलित भाजपा का साथ देंगे। वे कहते हैं, ''भाजपा वाले समझते हैं कि दलित समाज में पैदा हुए रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति के पद के लिए नॉमिनेट करके उन्होंने 'मास्टर स्ट्रोक’ मारा है। लेकिन अब दलित ऐसे पैंतरों के झांसे में आने वाले नहीं।’
अगले चुनाव में दलितों को अपने पाले में लाने का फायदा मिले न मिले फौरी तौर पर भाजपा को इस रणनीति में कामयाबी मिलती साफ दिख रही है। विपक्ष की एकजुटता के पक्षधर नीतीश कुमार ने राज्यपाल के रूप में कोविंद की तटस्थ भूमिका के आधार पर समर्थन की घोषणा कर विपक्षी दलों में खलबली मचा दी। बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, अन्ना द्रमुक के दोनों धड़ों और वाईएसआर कांग्रेस ने पहले ही एनडीए उम्मीदवार के समर्थन की घोषणा कर दी थी। नीतीश कुमार का एक तर्क यह भी था कि कोविंद की राजनैतिक पृष्ठभूमि आरएसएस से जुड़ी नहीं है। वे 1977 से 1979 के दौरान तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार के समय केंद्र सरकार के वकील और तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री कार्यालय में निजी सहायक थे। हालांकि विपक्ष के अन्य नेता यह समझाने में लगे हैं कि संघ से जुड़े नहीं होने का मतलब कोविंद का धर्मनिरपेक्ष होना नहीं है।
जनवरी 2016 में गांधीनगर में गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में कोविंद के एक भाषण की चर्चा भी हो रही है। उसमें उन्होंने कहा था कि गांधी और नेहरू का लक्ष्य सत्ता प्राप्त करना था। भाजपा प्रवक्ता के बतौर उनके एक कथन को भी उछाला जा रहा है, जिसमें उन्होंने ईसाइयों और मुसलमानों को एलियन यानी बाहरी करार दिया था।
दूसरी तरफ, कोविंद की उम्मीदवारी और नीतीश कुमार के पलटे रुख से बौखलाई कांग्रेस और उसके साथ खड़े बाकी विपक्ष ने भाजपा की राजनैतिक चाल की काट के लिए और उससे भी अधिक विपक्ष के बिखराव को रोकने के तहत मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया है। सोचा यह गया था कि बिहार की बेटी के नाम पर नीतीश फैसले पर पुनर्विचार करेंगे लेकिन यह सब बेअसर रहा। नीतीश ने साफ किया है कि कोविंद को उनका समर्थन जारी रहेगा, अलबत्ता वे 2019 में विपक्ष की एकता के पक्ष में हैं और राजग के साथ नहीं जाने वाले। सूत्र बताते हैं कि नीतीश विपक्ष के प्रत्याशी के रूप में महात्मा गांधी के पौत्र गोपाल कृष्ण गांधी के नाम की घोषणा करवाना चाहते थे। लेकिन मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाने का एक फायदा विपक्ष को इस रूप में जरूर मिला कि कोविंद की उम्मीदवारी से पसोपेश में पड़ गई मायावती को वापस विपक्ष के पाले में आने का बहाना मिल गया। हालांकि राजनैतिक प्रेक्षकों का मानना है कि विपक्ष की एकजुटता के लिए कांग्रेस ज्यादा गंभीर नहीं दिख रही है। वरना, समय रहते आम आदमी पार्टी, बीजद, तेलंगाना राष्ट्र समिति, वाईएसआर कांग्रेस और इनेलो को भी साधने की पहल क्यों नहीं की गई।
दूसरी तरफ कोविंद की जीत के प्रति आश्वस्त भाजपा के रणनीतिकार जीत के मतों का अंतर बढ़ाने की कवायद में लगे हैं। एक रणनीतिकार बताते हैं कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले भाजपा और इसके सहयोगी-समर्थक दलों का समर्थन आधार 49 फीसदी से कुछ कम ही बन पा रहा था। लेकिन अब उसे तकरीबन 60 फीसदी मतों का आश्वासन है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव में लोकसभा और राज्यसभा के साथ विधानसभाओं (विधान परिषद नहीं) के निर्वाचित सदस्य ही मतदान कर सकते हैं।
हालांकि प्रथम नागरिक के चुनाव में आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। मीरा कुमार की जाति को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर उनके पति को ब्राह्मण बताया जा रहा है जबकि वह जन्मना दलित हैं और उनकी शादी पिछड़ी जाति के मंजुल कुमार के साथ हुई है। उन पर दलितों के हित में कभी कुछ खास न करने और अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करते रहने के आरोप लगाए जा रहे हैं। इसी तरह के आरोप कोविंद पर भी लग रहे हैं। उनके बारे में तो सांसद रहते अपने ही मकान को सांसद निधि के खर्चे से 'बारात घर’ में तब्दील करवा लेने के आरोप भी लग रहे हैं। महिलाओं के लिए संसद और विधायिकाओं में 33 फीसदी आरक्षण का विरोध करने के कारण उन पर महिला विरोधी होने के आरोप भी लग रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि चुनाव अभियान के जोर पकड़ने के साथ ही दोनों उम्मीदवारों और उनके समर्थकों के बारे में आरोप-प्रत्यारोपों के और तीखे और तेज होने की आशंका है। लेकिन सच यह भी है कि आरोप-प्रत्यारोप माहौल तो बना-बिगाड़ सकते हैं लेकिन इस चुनाव के नतीजे नहीं बदल सकते।