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Tuesday, 5 October 2021

HAL FILHAL: TURMOIL IN CONGRESS


कांग्रेस में बवाल


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/EPk4Jo3oOsE

    
    
    पंजाब में कांग्रेस के कथित ‘मास्टर स्ट्रोक’ को लेकर बवाल है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. एक तरफ पंजाब प्रदेश कांग्रेस के त्यागपत्र दे चुके अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू और मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी यानी पंजाब सरकार के बीच हुए समझौते को लेकर असमंजस बना हुआ है. सिद्धू राज्य के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) को तत्काल बदलने की जिद पकड़े हैं जबकि मुख्यमंत्री चन्नी कह रहे हैं इकबाल प्रीत सिंह सहोता को अभी केवल अंतरिम डीजीपी का प्रभार दिया गया है. नये डीजीपी के लिए दस नाम संघ लोकसेवा आयोग के पास भेज दिए हैं. वहां से क्लीयर होकर तीन नाम आते ही उनमें से किसी एक को नये और पूर्णकालिक डीजीपी के रूप में नियुक्त कर लिया जाएगा. लेकिन सिद्धू अभी भी मुंह फुलाए बैठे हैं. उन्होंने अपना त्यागपत्र वापस नहीं लिया है. कांग्रेस के आलाकमान ने भी लगता है कि उन्हें और भाव नहीं देने का तय कर लिया है. अगर वह अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ सार्वजनिक मंचों से बोलना बंद नहीं करते तो नए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की नियुक्ति की जा सकती है.

    

अमित शाह के साथ अमरिंदर: किसका खेल बिगाड़ेंगे !

    दूसरी तरफ आशंकाओं को सच साबित करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस से नाता तोड़ने की घोषणाएं कर रहे हैं. नई दिल्ली में गृह मंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल से उनकी मुलाकात के बाद से ही अटकलें लग रही हैं कि भाजपा के परोक्ष समर्थन-सहयोग से वह नई पार्टी बना सकते हैं. किसान हितों को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार से विवादित कृषि कानूनों को रद्द करवाकर या उनमें कुछ संशोधन करवाकर पंजाब में वह कांग्रेस का चुनावी खेल बिगाड़ने का खेल खेल सकते हैं. उन्हें उम्मीद है कि चन्नी मंत्रिपरिषद से बाहर हुए मंत्रियों और चुनाव के समय कांग्रेस के टिकट से वंचित उनके करीबी कांग्रेसी उनके साथ आ सकते हैं. अकाली दल और आम आदमी पार्टी के असंतुष्ट और अलग हुए धड़ों के भी उनसे जुड़ने की बातें कही जा रही हैं. हालांकि अभी तक कांग्रेस का कोई बड़ा नेता और विधायक उनके साथ खुलकर सामने नहीं आया है. लेकिन वह खुद लगातार आक्रामक हैं और कांग्रेस आलाकमान के विरुद्ध सक्रिय जी 23 के नेताओं के साथ भी संपर्क बनाए हुए हैं. कांग्रेस में आलाकमान के विरुद्ध एक अरसे से सक्रिय जी23 समूह के नेता भी पंजाब के बदले घटनाक्रमों के मद्देनजर मुखर हो गए हैं.

कांग्रेस का बेहतर सामाजिक समीकरण


    

बाएं से रंधावा, चन्नी, सिद्धू और सोनीः बेहतर सामाजिक समीकरण

    दरअसल, नेतृत्व परिवर्तन और चरणजीत सिंह चन्नी के रूप में पंजाब में पहला दलित मुख्यमंत्री और जाट सिख सुखजिंदर सिंह रंधावा और हिंदू नेता ओपी सोनी को उपमुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस आलाकमान को लगने लगा था कि इस बेहतर सामाजिक समीकरण से उसे लगातार दूसरी बार पंजाब का राजनीतिक किला फतेह कर लेने में आसानी होगी. पंजाब में दलित मतदाताओं की संख्या तकरीबन 32 फीसदी और जाट सिख मतदाताओं की संख्या तकरीबन 22 फीसदी बताई जाती है. कांग्रेस आलाकमान को लगा इस सामाजिक समीकरण के साथ सिद्धू के रूप में जाट सिख प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और चन्नी के रूप में दलित मुख्यमंत्री को सामने रखकर वह अगले विधानसभा चुनाव में बड़े बहुमत से जीत हासिल कर राज्य में दोबारा सत्तारूढ़ हो सकेगी. चन्नी की सक्रियता, उनके कुछ शुरुआती जन-किसान हितैषी फैसलों और घोषणाओं के बाद इस तरह का माहौल भी बनने लगा था. 

    लेकिन एक तो नेतृत्व परिवर्तन के तरीके से खुद को अपमानित महसूस करने वाले अमरिंदर सिंह की बगावत और फिर चन्नी सरकार के काम शुरू करते ही उसके कुछ फैसलों को लेकर नाराज सिद्धू के त्यागपत्र का इसमें फच्चर लग गया. प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से सिद्धू के औचक त्यागपत्र ने अगले साल मार्च महीने में उम्र के अस्सी साल पूरा रहे अमरिंदर सिंह को नये सिरे से सक्रिय होने और सिद्धू के साथ ही कांग्रेस आलाकमान के खिलाफ भी आक्रामक होने का बहाना दे दिया. उन्होंने सिद्धू को अस्थिर दिमाग तथा राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को अनुभवहीन करार देते हुए आरोप लगाया कि सिद्धू के दबाव में उन्हें अपमानित कर अपदस्थ किया गया. हालांकि शुरुआती ना नुकुर के बाद ही भाजपा नेताओं के साथ उनकी मेल-मुलाकातों और बयानबाजियों ने साबित किया है कि अमरिंदर सिंह को हटाने का आलाकमान का फैसला कितना सही था ! कांग्रेस आलाकमान लगातार अपने पूर्व कैप्टन की राजनीतिक गतिविधियों पर नजर रखे हुए है.
 

आलाकमान को सिद्धू का झटका

    
    

नवजोत सिंह सिद्धूः नाराजगी की राजनीति !

    लेकिन कांग्रेस आलाकमान को जोर का झटका तब लगा जब नवजोत सिंह सिद्धू ने चन्नी सरकार में अपनी अनदेखी के आरोप लगाते हुए अचानक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र की घोषणा कर दी. जिस तरह से तत्कालीन मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की अनिच्छा के बावजूद ढाई महीने पहले सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था, आलाकमान ने सपने में भी नहीं सोचा था कि सिद्धू इतनी जल्दी रंग बदलने लगेंगे.दरअसल, चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही लगातार दो दिनों तक उनके साथ साए की तरह लगे रहे और गाहे बगाहे उनकी पीठ पर हाथ धरते हुए सिद्धू ने खुद को सुपर सीएम और चन्नी को कागजी मुख्यमंत्री समझकर व्यवहार करना शुरू कर दिया था. उन्होंने संकेत देने शुरू कर दिए कि विधानसभा का अगला चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा. तब पंजाब के प्रभारी हरीश रावत के एक ट्वीट से भी गलतफहमी हुई कि विधानसभा का चुनाव सिद्धू के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. इसको लेकर तमाम तरह के सवाल उठने लगे. बाद में आलाकमान को सफाई देनी पड़ी कि चुनाव प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सिद्धू और मुख्यमंत्री चन्नी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. उधर, राजनीति के अनुभवी और मजे खिलाड़ी की तरह चन्नी ने शुरू में ही अपने कुछ राजनीतिक और जन हितैषी फैसलों के साथ आम आदमी से जुड़ाव वाले नेता की अपनी छवि पेश कर साफ कर दिया कि वह कागजी अथवा रबर स्टैंप मुख्यमंत्री नहीं हैं. सिद्धू को भी अपनी हैसियत का जल्दी ही अंदाजा लग गया. उन्हें यह एहसास भी सताने लगा कि कांग्रेस के चुनाव जीतने के बाद भी मुख्यमंत्री पद पर उनका नंबर नहीं लगनेवाला. तब भी चन्नी ही मजबूत दावेदार होंगे.

चरणजीत चन्नीःरबरस्टैंप मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे!

    इस बीच चन्नी सरकार के एक दो विवादित फैसलों ने उन्हें मौका दे दिया और उन्होंने त्यागपत्र देकर आलाकमान की उलझन बढ़ा दी. अपनी नाराजगी और त्यागपत्र का कारण उन्होंने बताया कि एक तो मुख्यमंत्री चन्नी ने उन्हें भरोसे में लिए बगैर अपनी मंत्रि परिषद बना ली और फिर उनके विरोध को दरकिनार कर उनकी सरकार ने डीजीपी के पद पर विवादित इकबाल प्रीत सिंह सहोता तथा एडवोकेट जनरल के पद पर अमनप्रीत सिंह देओल की नियुक्ति कर दी. सिद्धू इन दोनों पर बेअदबी मामले में दोषी नेताओं और पुलिस अफसरों की मदद करने और उनका केस लड़ने के आरोप लगाते रहे हैं. वह इन पदों पर क्रमशः सिद्धार्थ चट्टोपाध्याय और डी एस पटवालिया एडवोकेट को बिठाना  चाहते थे. लेकिन उनकी नहीं सुनी गई और उन्होंने पद त्याग कर दिया. यही नहीं, वह सार्वजनिक मंचों से सरकार के विरुद्ध खुलकर बोलने लगे.

    लेकिन सिद्धू की तुनकमिजाजी और बात-बात पर बतंगड़ बनाने की उनकी कार्यशैली को लेकर कांग्रेस का आलाकमान भी नाराज हुआ. आलाकमान ने उनका त्यागपत्र नामंजूर करते हुए कह दिया कि उनकी नाराजगी का मसला पंजाब के लोग आपस में ही मिल बैठकर निपटाएं. इस बीच पंजाब के लिए कांग्प्ररेस के भारी हरीश रावत को उत्तराखंड के विधानसभा के चुनाव में व्यस्त होने के नाम पर पंजाब से दूर कर सह प्रभारी हरीश चौधरी को काम पर लगा दिया गया. चौधरी और मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने नवजोत सिंह सिद्धू से मिलकर उनकी नाराजगी दूर करने के लिए ऐसा रास्ता निकालने की कोशिश की जिससे न सिद्धू को झुकना पड़े और न ही सरकार को. संगठन और सरकार में बेहतर समन्वय के लिए प्रभारी हरीश चौधरी, मुख्यमंत्री चन्नी और सिद्धू की एक समिति बनाकर कहा गया कि मह्तवपूर्ण मामलों पर निर्णय यह समिति आम राय से करेंगी. बेअदबी मामले में विवादित भूमिका वाले लोगों को डीजीपी और एडवोकेट जनरल बनाने को लेकर सिद्धू की आपत्तियों के मद्देनजर सरकार ने साफ किया कि इकबाल प्रीत सहोता को एडिशनल चार्ज दिया गया है. नये डीजीपी के लिए 10 नाम संघ लोकसेवा आयोग को भेज दिए गए हैं. वहां से जो तीन नाम फाइनल होंगे, सिद्धू की सहमति से उनमें से किसी एक को डीजीपी बनाया जाएगा. नए एडवोकेट जनरल देओल पर सिद्धू की आपत्ति के मद्देनजर श्रीगुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी से जुड़े मामलों से उन्हें परे रखकर उसकी पैरवी के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता राजविंदर सिंह बैंस को स्पेशल प्रॉसीक्यूटर बनाया गया.

    दरअसल, गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी का मामला पंजाब में और खासतौर से पंथिक सिख समुदाय की भावनाओं के साथ जुड़ा है. 2015 में बरगाड़ी गांव के गुरुद्वारा साहिब के बाहर भद्दी भाषा वाले पोस्टर लगाए और पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब के साथ बेअदबी क्रुद्ध सिख समाज में व्यापक आक्रोश और विरोध प्रदर्शन देखने को मिले थे. 2017 के विधानसभा चुनाव में इसकी कीमत अकाली दल और भाजपा गठबंधन सरकार को करारी हार के रूप में चुकानी पड़ी थी. अमरिंदर सरकार में भी इस मामले को लगातार हवा देते रहे सिद्धू उन पर बेअदबी मामले के गुनहगार नेताओं और अफसरों के प्रति नरमी बरतने के आरोप लगाते रहे. इस मामले में बीच के फार्मूले पर बनी सहमति के बाद लगा था कि सिद्धू त्यागपत्र वापस ले लेंगे. लेकिन ऐसा नहीं करके उन्होंने ट्वीट किया कि पद पर रहें अथवा नहीं कांग्रेस में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के साथ वह हमेशा खड़ा रहेंगे. उनके हाव भाव से लगता है कि चन्नी सरकार से उनकी नाराजगी दूर नहीं हुई है. वह सहोता और देओल को तत्काल हटाने की मांग पर अड़े हैं. राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि सिद्धू दिखाने के लिए भले इस मामले को तूल दे रहे हों, उनकी असली कसक सुपर सीएम की तरह काम नहीं कर पाने और अगले चुनाव में उन्हें कांग्रेस के इकलौते चेहरे के रूम में नहीं पेश किया जाना ही है. लेकिन अपनी ताजा हरकतों से सिद्धू कांग्रेस में अलग थलग पड़ते दिख रहे हैं. कांग्रेस आलाकमान ने भी साफ कर दिया है कि अगर वह नहीं मानते हैं तो उनकी जगह प्रदेश कांग्रेस की कमान किसी और को सौंपी जा सकती है. नए अध्यक्ष के रूप में पंजाब कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष कुलजीत सिंह माजरा और पूर्व मुख्यमंत्री सरदार बेअंत सिंह के पौत्र, लुधियाना के सांसद रवनीत सिंह बिट्टू के नाम भी उछलने लगे हैं. 

   मुखर हुए कांग्रेस के असंतुष्ट


कपिल सिब्बलः फैसलों पर सवाल

    पंजाब कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन के बाद इस तरह की उथल-पुथल से कांग्रेस में एक अरसे से सक्रिय असंतुष्ट नेताओं या कहें 'जी-23' के सदस्यों को भी खुलकर सामने आने का मौका मिल गया. कई वरिष्ठ नेता गांधी परिवार के नेतृत्व को खुलेआम चुनौती देने लगे हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि कांग्रेस में अभी कोई अध्यक्ष नहीं है. पता नहीं कि फ़ैसले कौन ले रहा है. सिब्बल के बयान को लेकर पार्टी के भीतर ही विवाद हो गया. जी-23 के नेता एक तरफ़ दिखे तो गांधी-नेहरू परिवार के वफ़ादार नेता दूसरी तरफ. सिब्बल के निवास पर युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन और तोड़-फोड़ भी की. जी 23 के नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद, मनीष तिवारी इसके विरोध में खुलकर सामने आए. आजाद ने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर कांग्रेस कार्य समिति की बैठक बुलाने की मांग की जिसमें पंजाब की उथल-पुथल और पार्टी से नेताओं के हो रहे मोहभंग पर चर्चा की जा सके. इस बीच उनके सुर में सुर मिलाते हुए पी चिदंबरम ने भी ट्वीट कर कहा, ''जब हम पार्टी के भीतर कोई सार्थक बातचीत नहीं कर पाते हैं तो मैं बहुत ही असहाय महसूस करता हूं. मैं तब भी आहत और असहाय महसूस करता हूं जब एक सहकर्मी और पूर्व सांसद के आवास पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के नारे लगाने वाली तस्वीरें देखता हूं.'' दूसरी तरफ़ पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, कांग्रेस के महासचिव अजय माकन और युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बीवी श्रीनिवास ने जी-23 के नेताओं के ख़िलाफ मोर्चा खोल दिया. उनकी तरफ से सिब्बल को बताया गया कि सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष हैं और वही फैसले कर रही हैं. हालांकि कांग्रेस आलाकमान ने अभी तक मुंह नहीं खोला है. कहा जा रहा है कि श्रीमती गांधी शीघ्र ही कांग्रेस कार्य समिति की बैठक बुलाकर उसमें ही इन सब मुद्दों पर बात कर सकती हैं.

    दरअसल, कांग्रेस में शिखर नेतृत्व के स्तर पर उहापोह और असमंजस की स्थिति ने भी असंतुष्ट स्वरों को अवसर दिया है. सोनिया गांधी की उम्र और खराब स्वास्थ्य के मद्देनजर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के खुलकर सामने नहीं आने और यह साफ नहीं करने के कारण भी कांग्रेस का संकट बढ़ रहा है कि वह पूर्णकालिक अध्यक्ष के रूप में कांग्रेस की कमान संभालेंगे कि नहीं. उनकी मौजूदा सक्रियता और आक्रामक तेवर भविष्य में भी जारी रहेंगे कि नहीं. कांग्रेस खेमे से लगातार इस तरह की सूचनाएं छनकर आ रही हैं कि राहुल गांधी अपने मन मिजाज की ‘लेफ्ट आफ दि सेंटर’ कांग्रेस बनाने की कवायद में लगे हैं. पिछले सप्ताह पूर्व कम्युनिस्ट युवा नेता कन्हैया कुमार और दलित युवा नेता, गुजरात के निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी को कांग्रेस में शामिल करवाकर उन्होंने इसी तरह के संकेत देने की कोशिश की है. लेकिन अपने मन मिजाज की कांग्रेस बनाने की उनकी गति बहुत धीमी है. गुजरात में भी अगले साल ही विधानसभा के चुनाव होने हैं. वहां अभी तक कांग्रेस का पूर्णकालिक अध्यक्ष तक नहीं है. इस तरह की शिकायतें अन्य कई राज्यों में भी हैं जहां संगठनात्मक पद लंबे अरसे से खाली पड़े हैं. राजस्थान, छत्तीसगढ़, मेघालय आदि राज्यों में भी नेतृत्व को लेकर अंदरूनी बवाल मचा है. 

    

सोनिया और राहुल गांधी: अपनों से चुनौती !

    लेकिन कांग्रेस में गांधी परिवार के वर्चस्व का विरोध कर रहे नेताओं ने भी अतीत में पार्टी को मजबूत करने के लिए ऐसा कुछ नहीं किया और ना ही ऐसा कोई चेहरा ही वे पेश कर सके जो आगे आकर कांग्रेस की कमान संभालने का दावा कर सके. जी 23 के अधिकतर नेताओं की अपने बूते कोई भी चुनाव लड़ने और जीतने की हैसियत नहीं दिखती. वे किसी और के भरोसे ही वैतरणी पार करने अथवा आलाकमान पर दबाव बनाकर कुछ हासिल करने की कवायद में लगे रहते हैं. राहुल गांधी अकेले जिस तरह से खुलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार, भाजपा, उनके करीबी पूंजीपतियों और आरएसएस के खिलाफ मोर्चा लेते हुए बोलते हैं, कांग्रेस के असंतुष्ट हों या वफादार खुलकर उनके साथ लामबंद नहीं दिखते. जी 23 के नेता जितने बयान और ट्वीट कांग्रेस आलाकमान के विरुद्ध देते दिखते हैं, उनकी वैसी ही आक्रामकता आरएसएस, भाजपा, प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के विरुद्ध नहीं दिखती. उनमें से कई तो मानसिक तौर पर भाजपा और संघ की मानसिकता के करीब ही दिखते हैं.

    जाहिर सी बात है कि कांग्रेस की इस अंदरूनी कलह से कल तक पंजाब में अपने अस्तित्व रक्षा की चिंता में लगी भाजपा के नेता अभी मजे लेने की स्थिति में आ गए हैं. वे कह रहे हैं कि भाजपा ने उत्तराखंड, कर्नाटक और गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन सुगमता से कर लिया लेकिन पंजाब में नेतृत्व परिवर्तन के बाद कांग्रेस में उथल-पुथल शुरू हो गई है. भाजपा नेतृत्व की निगाह पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह पर भी लगी हुई है. हालांकि कांग्रेस से नाता तोड़ने की घोषणाएं करते रहनेवाले अमरिंदर सिंह ने अभी तक व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं किया है. कांग्रेस आलाकमान को लगता है कि नवजोत सिंह सिद्धू को काबू में कर लिए जाने के बाद अमरिंदर के तेवर ढीले पड़ जाएंगे. कांग्रेस की अंदरूनी कलह के बीच कांग्रेस और एनसीपी के साथ महाराष्ट्र में महा विकास आघाड़ी की साझा सरकार का नेतृत्व कर रही शिवसेना ने कांग्रेस की अंदरूनी उथल पुथल पर तंज कसते हुए कहा है कि कांग्रेसियों ने ही कांग्रेस को डुबोने की सुपारी ले ली है. राहुल गांधी कांग्रेस के किले की मरम्मत कर किले की सीलन और गड्ढों को भरना चाहते हैं लेकिन पुराने लोग उन्हें ऐसा नहीं करने दे रहे हैं. शिवसेना के मुखपत्र सामना में ‘कांग्रेस का टॉनिक’ शीर्षक के तहत संपादकीय के अनुसार, लगता है कि राहुल गांधी को रोकने के लिए कांग्रेस के कुछ लोगों ने भाजपा से हाथ मिला लिया है.
 

ममता बनर्जी की चुनौती


    

ममता बनर्जीः निगाहें दिल्ली की ओर!

    लेकिन कांग्रेस का संकट सिर्फ अंदरूनी ही नहीं है. अतीत में कांग्रेस से अलग हुए नेता भी इसके लिए लगातार सिरदर्द बन रहे हैं. खासतौर से पश्चिम बंगाल में लगातार तीसरी बार प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ हुई तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी 2024 के संसदीय चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए विपक्ष की ओर से अपनी संभावित दावेदारी पेश करने लगी हैं. इसके लिए विभिन्न राज्यों में अपनी पार्टी को खड़ा करने के क्रम में वह भाजपा के साथ ही कांग्रेस में भी सेंध लगा रही हैं. पश्चिम बंगाल में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के पुत्र, पूर्व सांसद अभिजीत मुखर्जी और असम-त्रिपुरा में कांग्रेस के बड़े नेता रहे संतोष मोहन देव की पुत्री सुष्मिता देव के तोड़ लेने के बाद उन्होंने गोवा में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व मुख्यमंत्री लुइजिनो फलेरियो को अपनी पार्टी में मिला लिया. मेघालय में भी पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के उनके साथ जुड़ने की अटकलें जोर पकड़ रही हैं. हालांकि राहुल गांधी से मुलाकात के बाद लगता है कि मुकुल संगमा का मन बदल गया है. पश्चिम बंगाल में भाजपा से उनकी पार्टी में आ रहे सांसद, विधायकों की कतार के साथ ही भवानीपुर में उनकी खुद की तथा जंगीपुर और समसेरगंज के विधानसभाई उपचुनावों में भी उनकी पार्टी के उम्मीदवरों की भारी जीत से उनका मनोबल और बढ़ा है. कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार के विरुद्ध सक्रिय असंतुष्टों के साथ ही अतीत में कांग्रेस से अलग हुए आंध्र प्रदेश में वायएसआर कांग्रेस के नेता, मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के सी राव, शरद पवार की एनसीपी के लोग भी निकट भविष्य में उनके साथ राजनीतिक गठजोड़ कर सकते हैं. उनकी उम्मीदें ओडिशा में नवीन पटनायक, कर्नाटक में एच डी देवेगौड़ा के जनता दल एस, यूपी में अखिलेश यादव और बिहार में तेजस्वी यादव तथा कुछ और गैर कांग्रेसी, गैर भाजपा दलों और नेताओं के ऊपर भी टिकी हैं. इस बीच उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव भी कांग्रेस के इमरान मसूद और नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे नेताओं को तोड़कर कांग्रेस को कमजोर करने की कवायद में लगे हैं. बिहार में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद ने भी संकेत देना शुरू कर दिया है कि कांग्रेस ने बिहार में अपनी जमीनी सच्चाई को स्वीकार नहीं किया तो उसके साथ महा गठबंधन बनाए रखना मुश्किल होगा. बिहार विधानसभा के दो उपचुनावों में कांग्रेस और राजद के भी दोनों ही सीटों पर उम्मीदवार खड़ा कर देने से वैसे भी महागठबंधन बिखर सा गया है.जाहिर सी बात है कि आनेवाले दिनों में कांग्रेस के अंदरूनी घटनाक्रम और अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनावों के नतीजे भी कांग्रेस की भविष्य की राजनीतिक दशा और दिशा तय करने में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं.

नोट : तस्वीरें इंटरनेट के सौजन्य से