Tuesday, 4 June 2013

तपती गर्मी में जैसलमेर 3: हम तो मर मर के जीते हैं




जयशंकर गुप्त


जैसलमेर से बाहर उत्तर पश्चिम की ओर निकलते ही कंकरीली-रेतीली झाड़ियों से भरे मैदान दूर दूर तक दिखाई देते हैं. सड़क सीमा संगठन द्वारा बनाई सड़क सीधे जैसलमेर से 130 किमी दूर पाकिस्तान सीमा के पास स्थित तनोट तक जाती है. कहीं कहीं सड़क पर रेत भर जाने से कठिनाई होती है. थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर बड़े बड़े दैत्याकार पंखों वाले मोटे खंभों की कतार दिखती है. ये खंभे यहां बड़े पैमाने पर पवन ऊर्जा (विंड एनर्जी) के उत्पादन में लगी कंपनियों सुजलान एनर्जी और एनरकान के हैं. जैसलमेर और बाड़मेर जिलों में पवन ऊर्जा के क्षेत्र में बड़े काम हो रहे हैं. सरकारी सूत्रों के अनुसार इससे तकरीबन 500 मेगावाट बिजली पैदा हो रही है. पवन ऊर्जा के उत्पादन में लगी कंपनियों की मानें तो अगर स्थापित क्षमता का संपूर्ण उपयोग हो जाए तो पूरे देश का बिजली संकट इससे दूर हो सकता है. कहीं-कहीं सौर ऊर्जा के संयंत्र भी दिखते हैं.

सड़क किनारे झोंपड़े में लू से बचाव और चाय की तैयारी में चरवाहे 

थोड़ा और आगे सोनु गांव के पास लाइम स्टोन की खदानें एवं लाइम स्टोन क्रशर दिखते हैं. बताते हैं कि यहां उच्च गुणवत्ता वाले चूना पत्थर मिलते हैं जिनका इस्तेमाल इस्पात कारखानों में होता है. जैसलमेर में बड़े पैमाने पर जिप्सम की खदानें भी हैं. कुछ जगहों पर तेल के भंडार भी मिले हैं. रामगढ़ के पास रिफाइनरी भी बन रही है. जैसलमेर और तनोट से समान (65 किमी) दूरी पर स्थित रामगढ़ कस्बेनुमा ग्राम पंचायत है जो आसपास के ग्रामीण इलाकों के लिए हर तरह की सुविधों की आपूर्ति का केंद्र और बाजार भी है. रामगढ़ के थोड़ा आगे बढ़ने पर पानी से भरी नहर मिलती है जिसके चलते आसपास के इलाकों में हरियाली और खेत भी नजर आते हैं. लेकिन उससे 25-30 किमी और आगे रणाऊ की ढाणी तक एक बार फिर रेतीले बंजर में कीकर, खेजरी और जाल घास के अलावा कुछ नहीं दिखता. रास्ते में एक जगह फूस के झोंपड़े में कुछ लोग बैठे हैं. पता चला कि आसपास के गांवों के चरवाहे हैं. मवेशी तो मैदान में चर रहे या पेड़ों, घास के झुरमुटों में छांह खोज रहे हैं जबकि चरवाहे इसी तरह के झोंपड़ों में बैठे आराम कर रहे होते हैं. कई बार ये लोग रात को भी यहीं कहीं सो जाते हैं. झोंपड़े में कुल तीन लोग हैं और साथ में भेड़ का एक मेमना भी. लकड़ी सुलगाकर चाय बन रही है.

 रणाऊ में बेकार खड़ा पवन ऊर्जा का खंभा 
गे दूर से ही रणाऊ गांव नजर आता है जहां सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नजर नहीं आता. सड़क से 300-350 मीटर दूर बसे सोलंकी राजपूतों के इस गांव में प्रवेश करते समय हमारी गाड़ी रेतीले रास्ते में फंस गई. ड्राइवर के लाख जतन करने पर भी रेत में धंसे कार के पहिए आगे-पीछे होने का नाम न लें. तपती रेत पर पैदल ही गांव में जाना पड़ा. रेत पर बसे गांव में एक महिला घर में भर गई रेत निकाल कर बाहर रख रही थी. पूछने पर बताती है कि यह तो आए दिन की बात है. जब भी तेज हवा या आंधी चलती है घरों में रेत भर जाती है. कुछ महिलाएं गांव से नीचे सड़क के पास टैंक से सिर पर घड़ों में पानी भरकर ला रही हैं. पता चला कि ट्यूबवेल में खराबी के कारण सात आठ दिन तक पानी नहीं आया था. रघुनाथ सिंह बताते हैं कि पानी के बिना बड़ी मुश्किल हुई थी. काफी अनुनय-विनय के बाद सीमा सुरक्षा बल के लोगों ने कुछ पानी दिया था. वह बताते हैं कि 70-80 घरों की इस ढाणी को आयल इंडिया ने गोद लिया है. ट्यूबवेल भी उसी ने लगाया है. उसके सौजन्य से कुछ साल पहले पवन ऊर्जा का एक खंभा भी गड़ा था लेकिन उससे बिजली आज तक नहीं मिली. बेकार खड़ा है. गांव में स्कूल है जहां आठवीं तक की पढ़ाई होती है. आसपास कोई अस्पताल नहीं है. न ही कोई डाक्टर-कंपाउंडर या एएनएम कभी इधर का रुख करता है.

 रेत के उपर बने घरों के सामने बात करती कमला देवी-
हम तो मर मर के जीते हैं
भी हमारी बात चल ही रही थी कि एक बुजुर्ग सी महिला कमला देवी सामने आती हैं और हमारा ही इंटरव्यू लेना शुरू कर देती हैं. बाद में कहती हैं, इस तरह के पूछने वाले बहुतेरे आते हैं लेकिन कुछ करते नहीं. लौटने के बाद सब भूल जाते हैं. आप भी भूल जाओगे. हमारी परेशानी ऐसे ही रहेगी. वह कहती हैं, ‘‘हम लोग तो यहां मर-मर के जीते हैं. गर्मी में गर्मी और लू सताती है. बरसात में मिट्टी-गोबर के घर गिरने लग जाते हैं. सर्दियों में ठंड सताती है. सर्दियों में रेत एकदम से ठंडी हो जाती और कई बार तापमान शून्य तक पहुंच जाता है. वह बताती हैं कि सिरदर्द की टिकिया से लेकर बुखार और डिलीवरी तक के लिए रामगढ़ जाना या फिर डाक्टर को फोन करके बुलाना पड़ता है. इस सड़क पर केवल एक बस चलती है. सुबह तनोट से रामगढ़ होकर जैसलमेर जाती है और फिर शाम को वही बस लौटती है. बाकी समय के लिए रामगढ़ से फोन करके टैक्सी बुलानी पड़ती है जो इमरजेंसी में एक हजार रु. भाड़ा लेता है. कई बार मरीज रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं. यहां लैंड लाइन नहीं. मोबाइल फोन की सुविधा भी नहीं के बराबर है. बीएसएनएल का टावर तनोट में है लेकिन कनेक्टिविटी नहीं. ऊपर टीले पर जाने और मौसम साफ होने पर ही बातचीत हो पाती है. राशन से लेकर सब्जी या कोई अन्य सामान रामगढ़ से ही मंगाना पड़ता है. पूरा गांव जीविका के लिए पशुपालन पर ही निर्भर करता है. लेकिन इस गांव में बच्चों में पढ़ने की ललक दिखती है.

गाय दूध रही एक महिला
णाऊ से थोड़ा आगे बढ़ने पर एक रास्ता गुर्दूवाला गांव की तरफ जाता है. तीन किमी के रास्ते में सेना के दस्ते और रेतीली पहाड़ियों पर उनके बंकर भी नजर आते हैं. गुर्दूवाला रेत के टीले पर बसा राजपूतों का गांव है. नीचे प्राइमरी स्कूल के पास खेल रहे बच्चों में स्वरूप सिंह भी है जो सातवीं में पढ़ने के लिए सोनु जाकर रहता है. वह नंगे पावं तपती रेत में दौड़कर गांव वालों को बुलाकर लाता है. सभी लोग स्कूल में जमा होते हैं. एक और युवक भूर सिंह 70 किमी दूर अपनी बहन के गांव हावुर (पूनमनगर) में जाकर दसवीं की पढ़ाई कर रहा है. छुट्टियों में गांव आया है. वह बताता है कि गांव तक सड़क है लेकिन बस नहीं आती. पानी के लिए जल दाय विभाग का ट्यूबवेल है जिसे चलाने की जिम्मेदारी गांव के ही दो युवकों पर है. सरकारी कर्मचारी कभी नहीं आता. इन्हें अपने वेतन से कुछ रु. देकर काम करवाता है. भूर सिंह बताता है कि गांव में रेत उड़ते रहती है. जवान लोग तो मवेशियों के साथ बाहर निकल जाते हैं. रात को जंगल में ही रह जाते, रोटियां सेंकते और बकरी के दूध में मिलाकर पी जाते हैं. कई बार आटे में रेत भी मिल जाती है. ये लोग भी रणाऊ  के लोगों की तरह ही यहां चार पीढियों से रह रहे हैं. गर्मी से बचाव के लिए क्या करते हैं? पूछने पर भूर सिंह बताता है कि भोगोलिक परिस्थितियां सब कुछ सहने के लायक बना देती हैं. लोग अपनी आवश्यकताओं को उपलब्ध संसाधनों के हिसाब से ढाल लेते हैं. ग्रामीण इलाकों में जो पानी मिलता है वह खारा, नमकीन होता है. उसमें फ्लोराइड की मात्रा अधिक होती है लेकिन गांव के लोग उसी का इस्तेमाल नहाने और पीने के लिए भी करते हैं. जिनके पास पैसे हैं वे मीठा पानी खरीदकरमंगाते हैं. गांव के बुजुर्ग कर्ण सिंह इस बात से खफा हैं कि अभी तक गुर्दूवाला को राजस्व गांव का दर्जा नहीं मिल सका है. हर छोटे बड़े काम के लिए रामगढ़ या जैसलमेर के चक्कर लगाने पड़ते हैं. सरकारी योजनाओं का उन्हें पता भी नहीं लगता, लाभ मिलना तो दूर बात है. किसी भी स्कूल में यहां मिड डे मील जैसी योजना का अता-पता नहीं.

माता तनोट राय का मंदिर

 तनोट की देवी का मंदिर
गुर्दूवाला से हम तनोट की तरफ बढ़ते हैं. ग्रामीणों की मदद से कार सड़क पर पहुंच जाती है. तनोट भी एक छोटी सी बस्ती है, दलित मेघवालों की. तनोट की ख्याति 1965 में हुए भारत पाकिस्तान युद्ध के कारण हुई थी. पाकिस्तानी फौज यहां लोंगेवाला होते हुए अंदर तनोट तक आ गई थी. सीमा सुरक्षा बल के लोगों का कहना है कि कम संख्या में मौजूद भारतीय जवान घिर गए थे. तभी वहां प्रकट सी हुई किसी महिला (देवी) ने उनसे मंदिर की ओट में आ जाने को कहा था. बताते हैं कि पाकिस्तानी सैनिकों ने वहां तकरीबन तीन हजार बम गोले बरसाए. 450 गोले मंदिर के पास भी गिरे लेकिन किसी का बाल भी बांका नहीं हुआ. बहुत सारे गोले तो फटे ही नहीं. उन्हें मंदिर प्रांगण में ही सहेजकर रख गया है. इसी तरह 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना की एक टुकड़ी लोंगेवाला पोस्ट तक घुस आई थी लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी और भारतीय सेना ने उन्हें मारते, वापस
 1965 के भारत-पाक युद्ध के समय मंदिर के पास गिराए 
पाकिस्तानी गोले जो फूट नहीं सके थे.
मंदिर में अन्य स्मृति चिह्नों, तस्वीरों के साथ उन्हें भी 
सहेजकर रखा गया है

खदेड़ते हुए उनके टैंक व गाड़ियां कब्जे में ले लिया था. इसे भी सेना और सीमा सुरक्षा बल के लोग देवी के चमत्कार से ही जोड़कर देखते हैं. बताते हैं कि उस समय वहां पोस्ट पर रहे जवान और अफसर साल में एक बार जरूर तनोट की देवी का दर्शन करने यहां आते हैं. अब तो वहां सीमा सुरक्षा बल की देख रेख और प्रबंधन में भव्य मंदिर, धर्मशाला और कार्यालय भी खुल गए हैं. देश भर से श्रद्धालुओं का यहां साल भर आना-जाना लगा रहता है.

नोट से लौटते समय हम लोंगेवाला पोस्ट होकर रामगढ़ आते हैं. लोंगेवाला में उस विजय स्तंभ और भारतीय सैनिकों द्वारा कब्जा किए गए पाकिस्तानी टैंक को देखते हैं. रास्ते में जगह-जगह मुख्य नहर से जोड़ने के नाम पर बनाई गई पक्की नालियां दिखती हैं जो जगह-जगह से टूटी-फटी हैं और सरकारी कामों की गुणवत्ता का बयान करती हैं. नहर का पानी अभी तक इन इलाकों में नहीं पहुंचा है और ना ही आजाद भारत के विकास की कोई किरण. जाहिर सी बात है कि जैसलमेर में दूर दराज के अनेक सीमावर्ती गांव अभी भी पिछड़ेपन का भूगोल बने हैं. चाहे गर्मी हो अथवा सर्दी और बरसात, उन्हें तो मर-मर के ही जीना पड़ता है.


नोट: इस लेख, यात्रा वृतांत के सम्पादित अंश लोकमत, लोकमत समाचार में प्रकाशित.

इस लेख यात्रा वृतांत एवं ब्लॉग पर प्रकाशित अन्य लेखों पर प्रतिक्रिया jaishankargupta@gmail.com पर भी दी जा सकती हैं.

Monday, 3 June 2013

तपती गर्मी में जैसलमेर 2: सम के पास सूर्यास्त का सौंदर्य

सम के पास रेत के टीबों पर सूर्यास्त का सौंदर्य और ऊँट की सवारी 
जैसलमेर रेलवे स्टेशन पर दिन के 12 बजे रेल गाड़ी से बाहर निकलते ही शहर में मौसम का मिजाज समझ में आने लगता है. मटमैली रेतीली धूल से ढके आसमान से लगता था कि अंगारे बरस रहे हैं. दिन का तापमान 46-47 डिग्री सेल्यिस को छूने को बेकरार था (कभी-कभी तो यहां तापमान 50 के पार भी पहुंच जाता है.शहर में कर्फ्यू जैसा सन्नाटा पसरा है. स्टेशन से यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने में लगे आटो रिक्शा और टैक्सियों के अलावा सड़कों पर बहुत कम वाहन दिखते हैं. बाजार में भी चहल-पहल गायब है. शाम को हम जैसलमेर से 45 किमी दूर सम के लिए रवाना होते हैं. सम के पास रेत के टीबों या कहें टीलों (सैंड ड्यून्स) से सूर्यास्त के सौंदर्य का नजारा बेहद मनमोहक लगता है. इसे देखने के लिए देश और दुनिया भर से हजारों पर्यटक यहां खिंचे चले आते हैं. लेकिन गर्मी के दिनों में पर्यटकों की आमद कम हो जाती है. सम के पास सड़क से अक्सर स्थान बदलते रहते रेत के टीबों तक जाने के लिए ऊंट की सवारी करनी पड़ती है. तपती धरती-रेत और आग के गोले बरसाते आसमान के बावजूद कुछ देसी-विदेशी पर्यटक  ऊंटों पर सवार होकर रेत के टीबों तक पहुंचते हैं. शाम शुरू होने के साथ ही रेत की गरमी भी कम होनी शुरू हो जाती है. रात दस-ग्यारह बजे तक रेत ठंडी होने लगती है. मौसम का मिजाज भी बदल जाता है. दिन की तपिश सुहानी ठंड में बदल जाती है. आधी रात होने तक तो कंबल-रजाई ओढ़ने की नौबत आ जाती है.

 म के पास सूर्यास्त तकरीबन 7.40 बजे होता है लेकिन आसमान में उस दिन छाई रेतीली धूल के कारण सूर्य देवता सूर्यास्त से कुछ मिनट पहले ही आंखों से ओझल हो गए. कुछ लोग वापस लौटते हैं तो कुछ मौज मस्ती के मूड में रेत पर लोटते-पोटते, खेलते नजर आते हैं. यहां की रेत शरीर और कपड़ों से चिपकती नहीं है. जानकार लोग बताते हैं कि एक जमाने में रेत के टीबों का क्षेत्रफल और उनकी ऊंचाई काफी अधिक होती थी लेकिन अब बदलते पर्यावरण, जिले में नहर आदि से बढ़ रही हरियाली आदि के कारण भी रेत के टीबों की ऊंचाई और क्षेत्रफल कम होते जा रहा है.

सम के आगे अंधेरा है 

म सम से आगे बढ़ते हैं. रास्ते में पर्यटक मौसम में गुलजार रहने वाले बहुत सारे होटल, रिजार्ट, हट्स-स्विस टेंट्स वीरान नजर आते हैं. सूर्यास्त के बाद सम के आगे एक अजीबोगरीब अंधेरे से सामना होता है जो न सिर्फ इस इलाके में पिछड़ेपन के भूगोल और जीवन की बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित गांवों-ढाणियों के दर्शन कराता है, देश की 66-67 वर्षों की आजादी पर प्रश्नचिह्न भी लगाता है. सबरों की ढाणी से पगडंडी रास्ते से होते हुए हम मेण़ुवों की ढाणी पहुंचते हैं. पूरा इलाका अंधकार में डूबा है. दूर दूर तक रोशनी का नामो निशां भी नहीं. कार की हेडलाइट्स देख कुछ लोग पास जमा हो जाते हैं. मिट्टी-पत्थरों से बनी दीवारों और एक खास तरह के फूस से बनी छत वाले छोटे से कमरे में 12-13 साल की बच्ची झिमा खान लकड़ी के चूल्हे में फूंक मारकर रोटियां सेंक रही है. एक अन्य कमरे से निकले प्यारे खान बताते हैं कि दस साल पहले गांव में बिजली के कुछ खंभे गाड़े गए थे लेकिन उनमें तार और बिजली कनेक्शन नहीं जोड़े जाने के कारण गांव में आज तक रोशनी नहीं आ सकी. बिजली नहीं तो पंखे-कूलर की बात बेमानी है. गर्मी का सामना कैसे करते हैं? प्यारे खान बताते हैं कि दिन में आमतौर पर घर से बाहर लोग, खासतौर से बूढ़े और बच्चे कम ही निकलते हैं. शरीर पर पानी भिंगोए कपड़े लपटते रहते हैं. ठंडा रखने के लिए मिट्टी के घड़ों-मटकों में पानी भरकर रखते हैं. पानी कम पीने की आदत बन गई है. गर्मी के दिनों में गाय का छाछ-मट्ठा, बकरी का दूध सबसे सुलभ और स्वास्थ्यकर पेय है. तकरीबन एक सौ घरों और 300 लोगों की इस बस्ती में पानी या तो 27 किमी दूर नहर से या फिर नौ किमी दूर सम से टैंकर में आता है. घर के पास बने टंका-सीमेंट की टंकी-में पानी जमा करते हैं. उसी से पानी पीते, नहाते और मवेशियों को भी पिलाते हैं. कुछ गांवों में ट्यूबवेल से पानी जीएलआर (ग्राउंड लेबल रिजर्वायर) में जमा होता है, उससे ग्रामीण घड़ों और पखालों-ऊंट की खाल से बने हौदों-में पानी भरकर घर के पास बनी टंकियों में जमा करते हैं. मिश्री खान बताते हैं कि सप्ताह में एक बार ही वे लोग नहा पाते हैं. पूरी बस्ती में शौचालय का कोई इंतजाम नहीं, लोग और महिलाएं भी खुले में ही शौच के लिए जाते हैं. गांव में एक भी पढ़ा-लिखा, साक्षर नहीं है. प्राइमरी स्कूल है लेकिन बकौल करमाली खान, टीचर कभी आते ही नहीं, पढ़ाई कैसे हो. वैसे, स्थानीय लोग बच्चों और खासतौर से बच्चियों को तालीम देने में ज्यादा उत्साहित नजर नहीं आते. यही हाल बगल की मतुओं की बस्ती और सगरों की बस्ती का भी है. बीमार पड़ने पर नौ किमी दूर सम में स्थित प्राथमिक चिकित्सा केंद्र पर जाना पड़ता है या फिर जैसलमेर. मोबाइल फोन अधिकतर लोगों के पास हैं. लेकिन नेटवर्क कनेक्शन की और बिजली के अभाव में फोन को चार्ज करने की समस्या आम रहती है. इन गांवों में लोगों की जीविका का मुख्य साधन कैमल सफारी-ऊंट की सवारी-और मवेशी पालन होता है. लोग बड़े पैमाने पर गाय-भेड और बकरियां पालते हैं. इन इलाकों में भैंसें नहीं के बराबर दिखती हैं क्योंकि उन्हें पानी की अधिक दरकार होती है. बरसात के बाद ग्वार-बाजरा की खेती भी हो जाती है.

नोट: इस लेख, यात्रा वृतांत के सम्पादित अंश लोकमत, लोकमत समाचार में प्रकाशित.

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तपती गर्मी में जैसलमेर 1: प्रकृति की मार और अभाव की जिंदगी

जयशंकर गुप्त

प्रकृति की मार और अभाव की जिंदगी  



'सोने का किला !'
पिछले सप्ताह राजस्थान के जैसलमेर जिले में जाना हुआ. जैसलमेर हम पहले भी जा चुके हैं लेकिन इस बार की बात कुछ और थी. ऐसे समय में जबकि दिन का तापमान तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, थार मरुस्थल वाले जैसलमेर की यात्रा! अटपटी सी बात लगती है. लेकिन चहुंओर मरुस्थल, रेत के टीबों (धोरों), कीकर (बबूल)- और खेजरी के सूखे-हरे दरख्तों, जालों और जहा-तहां भेड़-बकरियों, गायों के अलावे और कुछ भी नहीं दिखनेवाले जैसलमेर के भारत-पाकिस्तान सीमा से लगे ग्रामीण इलाकों में भी तो लोग जीते हैं. कैसे? यह जानना ही अपनी यात्रा का मकसद था.

जैसलमेर की ख्याति यहां सुनहरे किले और खासतौर से यहां से 45 किमी दूर सम के पास रेत के टीबों से सूर्यास्त के मनमोहक सौंदर्य के नजारे के लिए ही रही है. जैसलमेर का किला सोने का नहीं बना है और न ही इसकी दीवारों पर सोने का रंग चढ़ा है. लेकिन यहां 25 किमी के दायरे में स्थित 20 फुट गहरी खदानों से निकलने वाले सुनहरे रंग के रेतीले पत्थरों (सैंड स्टोन्स) से बना होने के कारण दूर से, और खासतौर से चटखती धूप अथवा रात में बिजली की रोशनी में भी यह किला सोने की तरह दमकता है. और अब तो शहर में तथा जिले में भी अधिकतर इमारतों के भी इन्हीं पत्थरों से बनी होने के कारण जैसलमेर को स्वर्णनगरी भी कहा जाने लगा है. प्रख्यात फिल्मकार स्व. सत्यजित रे ने किले की इसी खूबी के कारण एक फिल्म बनाई थी, ‘सोनार किल्ला’ यानी सोने का किला. इन पत्थरों की खासियत अपेक्षाकृत कमजोर होने और धूप में सोने जैसे दमकने के साथ ही ईंट के मुकाबले सस्ते, गर्मी में अपेक्षाकृत ठंडे और सर्दियों में गरम होने की भी है. किले की एक खासियत और भी है. देश और दुनिया में भी यह शायद पहला किला है जहां भरी पूरी आबादी और बाजार भी है. इसलिए भी देश और विदेश से बड़े पैमाने पर पर्यटक यहां हर साल आते हैं. पर्यटकों का मौसम यहां जुलाई-अगस्त से लेकर मार्च-अप्रैल तक होता है. पाकिस्तान की सीमा से लगा होने के कारण जैसलमेर और आसपास की आबादी का बड़ा हिस्सा सीमा सुरक्षा बल, भारतीय सेना और वायुसेना के लोगों का है. एक तरह से देखें तो जैसलमेर की अर्थव्यवस्था मुख्यरूप से पर्यटकों और सेनाओं तथा सीमा सुरक्षा बल के जवानों-अफसरों पर ही टिकी है.

सड़क किनारे झोंपड़े में गर्मी से बचाव और चूल्हे पर पकती चाय 
हाल के वर्षों में जैसलमेर में कई तरह के बदलाव आए हैं. इंदिरा गांधी नहर के प्रवेश के कारण कई इलाकों में पानी पहुंचने लगा है. कहीं कहीं हरियाली भी दिखने लगी है. इसके चलते बरसात की मात्रा भी बढ़ी है,  (एक जमाने में बरसात यहां नहीं के बराबर होती थी. कहा तो यह भी जाता है कि एक बार गांव में बरसात हुई तो एक आठ-दस साल का बच्चा डर कर घर में घुस गया क्योंकि उसने कभी आसमान से पानी बरसते देखा ही नहीं था. इसी तरह से कुछ वर्षों पूर्व अचानक भारी बरसात के कारण जैसलमेर में आयी बाढ़ से डरकर लोग घरों में छिप गए थे), रेगिस्तान या कहें रेत के टीबे भी सिमटने लगे हैं. सैंड स्टोंस, लाइम स्टोन, जिप्सम जैसे खनिजों के कारण और फिर हाल के वर्षों में पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा के संयंत्रों के कारण और इन सबके अलावा अब दिल्ली से सीधी रेल सेवा जैसलमेर तक पहुंचने के कारण पर्यटकों की आमद लगातार बढ़ते जाने से यहां आर्थिक गतिविधियां बढ़ी हैं. इससे पहले हवाई जहाज से अथवा रेलगाड़ी से भी जोधपुर और वहां से तकरीबन 300 किमी तक की जैसलमेर की दूरी टैक्सी, बस अथवा छोटी लाइन की छुकछुक रेलगाड़ी से तय करनी पड़ती थी.

लेकिन इन सारी गतिविधियों और विकास कार्यों का जैसे जिले के दूर दराज के, पाकिस्तान की सीमा से सटे गांवों-ढाणियों-बस्तियों में रहने वाले ग्रामीणों की सामाजिक-आर्थिक सेहत पर खास असर नहीं पड़ा है. चरम को छूती गर्मी हो अथवा बरसात या फिर सर्दियों में हाड़ कंपाने और शून्य डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाने वाली ठंड, दूर दराज के गांवों और ढाणियों में रहने वालों के लिए मुश्किलें बढ़ा देती है. गर्मी तो इन दिनों दिल्ली और  देश के अन्य हिस्सों में भी तकरीबन इसी हिसाब से पड़ रही है लेकिन अभाव की जिंदगी जैसलमेर के मरुस्थली इलाकों में गर्मी को और भी मारक बना देती है. दूर दूर तक आबादी का नामो निशां नहीं. चारों तरफ रेतीले बंजर में कीकर (बबूल),खेजरी और जाल की घासें. कहीं कहीं गाय, भेड़-बकरियों के झुंड नजर आ सकते हैं. या फिर फूस के झोंपड़ों में गर्मी से पनाह लेते चरवाहे. यहां भी शहर-कस्बों में जहां पक्के मकान हैं और बिजली-पानी की सुविधा उपलब्ध है, लोग पंखे, एसी, कूलर के जरिए गर्मी से बचाव कर लेते हैं लेकिन ग्रामीण इलाकों में ऐसे कई गांव और ढाणियां हैं जहां अभी तक सड़क, बिजली पहुंची ही नहीं. पानी का भी अभाव है. सूर्य की तपिश बढ़ने पर लोग गोबर मिश्रित मिट्टी से बने घरों में दुबके रहते, भींगे कपड़ों से तन को लपेटकर गर्मी से बचाव करते हैं. अगर बाहर निकल गए हैं तो हरे-सूखे दरख्तों अथवा घास-जालोंकी छांह या उसका एहसास ही रक्षा कर सकती है. छांह की तलाश में मवेशी भी भटकते रहते हैं. इन सबके बीच रेतीली आंधी लोगों की दुश्वारियों को और बढ़ा देती है. आंधी के कारण तापमान में थोड़ी कमी जरूर आ जाती है लेकिन इससे रेत घरों में घुस जाती है. जब आंधी चलती है, पास से भी कुछ भी दिखाई नहीं देता.


तपती रेत में नीचे ट्यूबवेल से पानी लाती महिलाएं 


लेकिन देश के अन्य हिस्सों की गर्मी और यहां रेगिस्तानी इलाकों की गर्मी में एक बुनियादी फर्क है. अगर हवा चल रही है और आप पेड़-दरख्त की आड़ में हैं तो रहत महसूस कर सकते हैं. और फिर यहां सूर्योदय के साथ ही रेत जिस रफ्तार से गरम होती है, सांझ ढलने के साथ ही उसी रफ्तार से ठंडी भी होने लगती है. रात होने तक तो पूरे इलाके में तापमान इतना ठंडा (25-26 डिग्री सेल्सियस अथवा इससे कम भी) हो जाता है कि बाहर मैदान में सोने वाले को कंबल अथवा रजाई के बगैर रात काटनी दूभर हो जाती है. इलाके के ग्रामीण बताते हैं कि उन्होंने अभाव की जिंदगी के साथ यहां मौसम का मुकाबला करना सीख लिया है. ठंडे पानी के लिए रेतीली मिट्टी में धंसाकर रखे घड़ों-मटकों में भरा पानी ठंडा रहता है. पीने का हो अथवा नहाने का, आदमी के लिए हो अथवा मवेशी के लिए, पानी के लिए लोगों को सरकारी ट्यूबवेल से भरे टैंक और टैंकरों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. लोग अपने घरों के सामने सीमेंट, चूने की टंकी बना कर उसमें पानी जमा कर लेते हैं. पानी कम पीने और कई कई दिन बाद नहाने की आदत सी बन गई है. अधिकतर इलाकों में पानी खारा और नमकीन तथा फ्लोराइडयुक्त होता है. अक्सर तमाम तरह की मौसम और जल जनित बीमारियों का सामना भी ग्रामीणों को करना पड़ता है. आसपास प्रशिक्षित डाक्टर और नर्सों वाले सरकारी अस्पताल नहीं. मामूली बीमारी के लिए भी जैसलमेर और जोधपुर तक जाना ग्रामीणें की नियति है. रास्ते में मरीज का दम तोड़ देना आम बात है. ग्रामीण इलाकों, खासतौर से पंचायत और प्रखंड मुख्यालयों पर प्राथमिक चिकित्सा केंद्र हैं भी तो वहां डाक्टर नहीं मिलते. गांवों में और वह भी गर्मियों में सरकारी डाक्टरों का इन इलाकों में मिलना किसी देवी देवता के दर्शन से कम नहीं. यही हालत स्कूलों की भी है. ग्रामीण इलाकों में अधिकतर स्कूलों में शिक्षक आते ही नहीं तो बच्चे भी नदारद ही रहते हैं. गांवों-ढाणियों में कुछ पैसेवालों को छोड़ दें तो शौचालय की सुविधा नहीं के बराबर नजर आती है. शौच के लिए खुले में ही जाना पड़ता है. खासतौर से औरतों को रात के अंधेरे में ही खुले मैदान में जाना पड़ता है. दिन में उन्हें झुरमुटों की आड़ की तलाश में बहुत दूर तक जाना पड़ता है. जैसलमेर के ग्रामीण इलाकों में अभाव की यह जिंदगी देश की 66-67 वर्षों की आजादी पर प्रश्नचिह्न भी लगाती है. क्या दिल्ली के वातानुकूलित कमरों-कार्यालयों में बैठे हमारे योजना आयोग और उसके कर्ता -धर्ताओं को इसका एहसास है?


नोट: इस लेख, यात्रा वृतांत के सम्पादित अंश लोकमत, लोकमत समाचार में प्रकाशित.

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Sunday, 26 May 2013

बीत गए चार साल आगे कौन हवाल



जयशंकर गुप्त

बीते 22 मई को कांग्रेसनीत संप्रग2 सरकार के चार साल बीत गए. एक तरह से कहें तो केंद्र में संप्रग सरकार के लगातार सत्ता में नौ साल बीत गए. इसको एक और तरह से देखें तो भारतीय जनता पार्टी और इसके नेतृत्ववाले राजग की भी लगातार मुख्य विपक्षी दल या कहें मुख्य विपक्षी गठबंधन बन रहने की उस दिन नौवीं वर्षगांठ थी. कांग्रेस और संप्रग सरकार ने उस दिन अपनी उपलब्धियों का जश्न मनाया. अखबारों में लंबे चौड़े इश्तिहार छपे. रात को प्रधानमंत्री निवास पर सरकारी उपलब्धियों का रिपोर्ट कार्ड जारी होने के साथ ही भव्य भोज भी हुआ. भाजपा ने लगातार मुख्य विपक्ष बने रहने की अपनी नौवीं वर्षगांठ पर अपनी ‘उपलब्धियों का जश्न’ मनाने के बजाए अपनी राजनीतिक ऊर्जा सरकार को उसकी नाकामियों, भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों पर अपने रटे रटाए अंदाज में घेरने में ही खपाई.

 ही मायने में कांग्रेसनीत सत्तारूढ़ संप्रग और भाजपानीत विपक्षी राजग की इन चार या कहें नौ वर्षों की उपलब्धियां क्या रहीं. कांग्रेस और संप्रग के लिए तो सबसे बड़ी उपलब्धि लगातार नौ वर्षों तक कई बार अल्पमत में होते हुए भी गठबंधन सरकार चलाते रहने की कही जा सकती है. इस मामले में मनमोहन सिंह पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे दूसरे प्रधानमंत्री कहे जा सकते हैं जिन्होंने लगातार नौ साल किसी सरकार का नेतृत्व किया और दसवां साल पूरा करने जा रहे हैं. उनके पहले कार्यकाल में सरकार ने सूचना का अधिकार कानून, मनरेगा, किसानों की कर्जमाफी, अमेरिका के साथ परमाणु करार जैसे कई उल्लेखनीय काम किए. इन कामों के सहारे संप्रग2 भी सत्तारूढ़ हो सका. उनके पहले कार्यकाल में भ्रष्टाचार के ऐसे कोई बड़े मामले भी सार्वजनिक नहीं हुए जिनके चलते सरकार की थू-थू होती, जैसी आज गाहे बगाहे हो रही है. इसका एक कारण शायद वाम दलों का सरकार को बाहर से समर्थन भी था जो सरकार और उसके फैसलों पर एक तरह का अदृश्य सा नियंत्रण भी रखते थे. लेकिन अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु करार के विरोध में वामदलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. हालांकि इसका खामियाजा कांग्रेस और संप्रग के बजाय वामदलों को ही लोकसभा और फिर विधानसभा के चुनावों में भी करारी हार के रूप में भुगतना पड़ा था.

लेकिन मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग 2 की सरकार ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ सकी. हालांकि कांग्रेस को 2004 में 141 के मुकाबले 2009 में लोकसभा की अधिक (206) सीटें मिली थीं. सरकार पर इसकी पकड़ भी पहले से कहीं ज्यादा थी. लेकिन शिक्षा का अधिकार कानून बनाने और मल्टीब्रांड खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी और कैश सबसिडी ट्रान्सफर योजना के अलावा सरकार ने ऐसा कोई बड़ा काम नहीं किया जो जनमानस पर सकारात्मक छाप छोड़ सके. मल्टी ब्रांड खुदरा बाज़ार में  प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का लाभ भी आमजन को मिलते नहीं दिखा. दूसरी तरफ विभिन्न कारणों से तेलंगाना राष्ट्र कांग्रेस, आल इंडिया मजलिसे मुत्ताहिदा मुसलमीन, झारखंड विकास मोर्चा, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक जैसे तकरीबन आधा दर्जन घटक दल संप्रग से अलग होते गए. एकमात्र नई एंट्री अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल की हुई. सरकार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की लड़खड़ाती बैसाखी के सहारे टिकी है. भ्रष्टाचार के नित नए किस्से उजागर होते रहे जिनके चलते तकरीबन आधा दर्जन केंद्रीय मंत्रियों को सरकार से बाहर होना और कुछ को जेल भी जाना पड़ा. संवैधानिक पदों और संस्थाओं में नियुक्ति से लेकर अन्य बातों पर टकराव विवाद का विषय बनते रहे. संसद में विपक्ष लगातार नकारात्मक रुख के साथ सरकार के विरुद्ध हमलावर रहा जिससे मौजूदा लोकसभा का अधिकतर समय हल्ला-हंगामे की भेंट ही चढ़ते रहा. यहां तक कि सरकार और कांग्रेस के लिए भी ‘गेम चेंजर’ कहे जाने वाले खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण और लोकपाल जैसे विधेयक पारित नहीं कराए जा सके जबकि इन विधेयकों पर विपक्ष की असहमति नहीं के बराबर रही है. और अब जबकि लोकसभा चुनाव में साल भर से भी कम का समय ही रह गया है, कांग्रेस के लिए ‘चुनावी ब्रह्मास्त्र’ साबित होने वाले इन विधेयकों का कानून बन पाना संदिग्ध ही लगता है. बचे समय में बमुश्किल मानसून सत्र और शीतकालीन सत्र की गुंजाइश ही बचती है. चुनाव जब सिर पर हों, विपक्ष कांग्रेस के इन ‘गेम चेंजर’ विधेयकों को पारित कराने के लिए सहयोग भला क्यों करेगा?
पलब्धियों की कसैटी पर देखें तो भाजपा का रेकार्ड भी बहुत बेहतर नहीं रहा है. मुख्य विपक्षी दल के नाते उसकी एक भी सकारात्मक भूमिका या कहें ठोस विकल्प पेश करने की कोशिश नहीं दिखी जिसका जनमानस पर सकारात्मक असर देखने को मिला हो. कुल मिलाकर पिछले नौ सालों में विपक्ष और खासतौर से भाजपा की छवि नकारात्मक रवैए और बात बेबात संसद को जाम करते रहने वाले विपक्ष के रूप में ही उभर कर आती रही है. मतभेदों और अंतर्विरोधों वाले राजग में शिवसेना, जद (यू), अकाली दल और हरियाणा जनहित कांग्रेस जैसे दल ही रह गए हैं. संप्रग सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा ने संसद में जितना आक्रामक तेवर दिखाया, वही तेवर सड़कों पर दिखाने में वह विफल सी रही. भ्रष्टाचार के विरुद्ध भाजपा अथवा राजग के बजाय अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ज्यादा सक्रिय दिखे. दिल्ली में एक पैरा मेडिकल छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद उसकी हत्या के विरोध में सड़कों पर उमड़े जानाक्रोश और जनांदोलन को भी भाजपा कोई दिशा नहीं दे सकी. यहां तक कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही उसे अपने दो मुख्यमंत्री या कहें दो राज्यसरकारें और एक राष्ट्रीय अध्यक्ष की राजनीतिक बलि देनी पड़ी. उसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और अभी कर्नाटक विधानसभा के चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा जबकि  झारखंड में उसके नेतृत्ववाली साझा सरकार उसके हाथ से निकल गई. इस लिहाज से देखें तो भाजपा की पिछले चार साल की राजनीतिक उपलब्धि नकारात्मक ही रही.

ब अगले कुछ ही महीनों बाद दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम विधानसभा के चुनावों में और उसके साथ अथवा कुछ ही महीनों बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा और कांग्रेस को भी अपने सहयोगी दलों के साथ मैदान में उतरकर अपनी उपलब्धियों का लेखा जोखा करना होगा. कांग्रेस को आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में किसी ने किसी सहयोगी दल के सहारे की जरूरत होगी. इन तीन बड़े राज्यों में लोकसभा की तकरीबन सवा सौ सीटें हैं. बिहार में तो कांग्रेस का लालू प्रसाद और रामविलास पासवान के साथ चुनावी तालमेल तय सा लगता है. ठीक इसी तरह भाजपा को भी तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश       ( अब तो कर्नाटक में भी इसकी हालत पतली सी हो गई है), पश्चिम बंगाल और ओडिशा में नए-पुराने सहयोगी दलों को फिर से राजग के साथ जोड़ना पड़ेगा. तब कहीं जाकर लड़ाई बराबर के स्तर पर हो सकेगी लेकिन इससे पहले भाजपा को अपना घर भी व्यवस्थित करना पड़ेगा.


(इस लेख के सम्पादित अंश  26 मई  2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित )

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Sunday, 19 May 2013

Articles: सूखी धरती प्यासे लोग

Articles: सूखी धरती प्यासे लोग:  महाराष्ट्र में प्रकृति ही नहीं जल कुप्रबंधन की देन भी है सूखा उ म्मीदें आसमान पर टंगी हैं. शायद इस बार अच्छा और कुछ जल्दी मानसून आएगा औ...

कलंकित होता क्रिकेट



जयशंकर गुप्त

क्रिकेट हमारे लेखन का प्रिय विषय नहीं रहा है. ऐसा भी नहीं कि क्रिकेट के प्रति हमारी रुचि ही नहीं रही. हम भी उन लोगों में से रहे हैं जिन्हें आम भारतीयों की तरह क्रिकेट के मास्टर ब्लास्टर या कहें ‘भगवान’ कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर के सौवें शतक का अंतहीन इंतजार है. यही नहीं, हमने लिटिल मास्टर कहे जाने वाले सुनील गावस्कर के शतकों का रिकार्ड बनने के क्रम में उनकी अनेक बोझिल पारियों के बारे में  भी पढ़ी-सुनी हैं. ठीक उसी तरह जैसे 2003 में एक दिनी क्रिकेट के विश्वकप विजेता कप्तान कपिल देव के  गेंदबाजी का रिकार्ड बनने के क्रम में उनकी भोथरी होती गई गेंदबाजी  के बारे में  भी हम पढ़ते-सुनते रहे हैं. उस समय क्रिकेट के मैदानों तक अपनी पहुँच नहीं होती थी और टेलीविज़न अपने सामर्थ्य के बाहर होता था. अखबार और आकाशवाणी ही अपने क्रिकेट ज्ञान या कहें जिज्ञासा को पूरा करने के माध्यम होते थे. बाद के वर्षों में जब भी किसी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच में किसी दूसरे देश की टीम के सामने एक गेंद अथवा रन पर हमारी टीम की जीत अथवा हार तय होने की बात होती, टी वी सेट के सामने हमारा दिल भी तेजी से धड़कने लगता. हारने से दिल बैठ जाता और जीत जाने पर खुशी के मारे उछलने लगता. इसे हमारे क्रिकेटी राष्ट्रवाद से जोड़कर भी देखा जा सकता है. वैसे, दुनिया भर के अन्य क्रिकेटरों के बेहतरीन खेल के भी हम कायल रहे हैं.

लेकिन जब से क्रिकेट में बेशुमार दौलत का प्रवाह होने लगा, इसके नित नए संस्करण जुड़ते गए, खासतौर से बड़े ताम झाम और चमक दमक के साथ आईपीएल के नाम से 2008 में शुरू हुए टी 20 क्रिकेट मैचों के प्रति मेरा कभी आकर्षण नहीं बन पाया. किसी भी टीम अथवा खिलाड़ी को अपना कह सकने लायक कारण समझ में नहीं आते. बस यही लगता कि सब पैसों के लिए खेल रहे हैं. हालांकि इसमें एक अच्छी बात यह जरूर उभर कर आई कि भारतीय और शायद अन्य देशों में भी क्रिकेट की जिन युवा प्रतिभाओं को या फिर टीम में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाने के कारण बाहर हो गए खिलाडियों को अपनी राष्ट्रीय टीमों में खेलने का अवसर नहीं मिल पाता, उन्हें आईपीएल मैचों में विभिन्न टीमों का हिस्सा बनकर अपना हुनर दिखाने और अच्छे प्रदर्शन से अपनी राष्ट्रीय टीमों में जगह बनाने के लिए अपनी दावेदारी भी मजबूत करने का मौका मिल जाता है. इसमें उन्हें खूब सारा पैसा भी मिल जाता है जिसकी उम्मीद वे राष्ट्रीय टीम में खेलने के बावजूद नहीं कर सकते. अब केरल के प्रतिभाशाली गेंदबाज श्रीसंत को ही देखिए. पिछले कुछ समय से बाहर श्रीशंत के आईपीएल मैचों में अच्छे प्रदर्शन के कारण भारतीय टीम के अगले विदेश दौरे में शामिल किए जाने की अटकलें लगने लगी थीं. पिछले साल राजस्थान रायल्स ने उन्हें तकरीबन सवा दो करोड़ रु. में खरीदा था. लेकिन शायद इतने भर से उन्हें संतोष नहीं था. और जब आईपील मैचों को मैच फिक्सिंग और स्पाट फिक्सिंग के जरिए हजारों करोड़ रु. के गोरखधंधे में बदल देने वाले सटोरियों और उनके बुकी या कहें फिक्सर्स ने संपर्क किया तो वह अपने कुछ अन्य साथी क्रिकेटरों के साथ डोल गए. एक ओवर में 13 या उससे अधिक रन पिटवाने के एवज में उन्हें 40 लाख रु. और उनके एक अन्य सहयोगी अंकित चह्वाण को इसी काम के लिए 60 लाख रु. का प्रलोभन मामूली नहीं था. लेकिन इसके चलते न सिर्फ उनका क्रिकेट भविष्य अंधकारमय हो गया, ‘स्पाट फिक्सिंग’ के लिए जेल जाने वाले किसी पहले टेस्ट क्रिकेटर का ‘खिताब’ भी उनके नाम  जुड़ गया. क्या मैच फिक्सिंग और स्पॉट फिक्सिंग के खेल में शामिल होनेवाले श्रीसंत अकेले क्रिकेटर हैं?

 ह पहली बार नहीं हुआ है जब क्रिकेटरों के कारण क्रिकेट कलंकित हुआ है. जब से क्रिकेट में काले अथवा सफेद धन का प्रवाह बढ़ा है, भ्रष्टाचार, विवाद और मैच फिक्सिंग के प्रकरण भी बढ़े हैं. जिन लोगों का क्रिकेट से कभी कुछ भी लेना देना नहीं रहा, वे बड़े नेता, नौकरशाह और वकील भी क्रिकेट की राजनीति और प्रबंधन से जुड़ने लगे. लाखों-करोड़ों रु. के वारे न्यारे होने लगे. इस सबके बीच ही सटोरिये और जुआड़ी भी क्रिकेट की तरफ मुखातिब होने लगे. आगे चलकर क्रिकेट मैचों के फैसलों को मनचाहे ढंग से करवाने के नाम पर मैच फिक्सिंग का धंधा जोर पकड़ने लगा. क्रिकेट में सटोरियों और मैच फिक्सिंग में लगे लोगों का मामला पहली बार उस समय प्रकाश में आया था जब तत्कालीन हरफन मौला खिलाड़ी मनोज प्रभाकर ने इस मामल में कपिलदेव का नाम भी उछाला था. तब कपिल के क्रिकेटी कद को देखते हुए इसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया गया था. उसके बाद अप्रैल 2000 में दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट टीम के कप्तान हैंसी क्रोंजे ने स्वीकार किया था कि भारत दौरे के समय मैच फिक्सिंग में उनकी भूमिका थी. उनके क्रिकेट खेलने पर आजीवन प्रतिबंध लगा था. बाद में उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत भी हो गई थी. कुछ ही महीनों बाद हुए खुलासे के बाद भारतीय टीम के बेहतरीन क्रिकेटर-कप्तान अजहरुद्दीन और अजय जडेजा सहित कुछ और लोग भी मैच फिक्सिंग के जाल में फंसे थे. उनके क्रिकेट खेलने पर भी क्रमशः आजीवन एवं पांच साल तक के प्रतिबंध लगे थे. अभी केंद्रीय मंत्री एवं आईपीएल के चेयरमैन राजीव शुक्ल कह रहे हैं कि स्पाट फिक्सिंग के लिए गिरफ्तार अथवा दोषी पाए गए अन्य क्रिकेटरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी. कड़ी कार्रवाई क्या वैसी ही होगी जैसी अजहर के खिलाफ हुई? वह आज हमारी संसद के सम्मानित सदस्य हैं.

ईपीएल क्रिकेट मैचों और उनके प्रबंधन से जुड़े लोगों का कहना है कि हजारों करोड़ रु. के इस आयोजन में किसी को भी घाटा नहीं है. यहां तक कि जो टीम सबसे निचले पायदान पर रहती है उसे भी खासा मुनाफा हो जाता है. लेकिन स्पाट फिक्सिंग के खुलासे के बाद लगता है कि इस पूरे प्रकरण में किसी की हार होती है तो वह मैदान में बैठे अथवा टीवी चैनलों पर अपने प्रिय क्रिकेटरों के बेहतर अथवा बदतर प्रदर्शन पर उछलने अथवा उदास हो जाने वाले दर्शकों की, जिन्हें पता ही नहीं होता कि उनका प्रिय क्रिकेटर किस बाल, रन और चैक्के, छक्के के लिए कितने रु. का सौदा कर चुका है. कहा तो यह भी जा रहा है कि जितने हजार करोड़ रु. का कुल कारोबार आईपीएल6 में अनुमानित है, उससे कहीं अधिक रकम आईपील के एक-एक मैच, एक-एक गेंद और रन को लेकर फिक्सिंग के जरिए होने वाली सट्टेबाजी और जुए में लग रही है. सट्टेबाजों और उनके फिक्सर्स के लिए मैच फिक्सिंग के मुकाबले स्पॉट फिक्सिंग ज्यादा सुरक्षित और मुफीद नज़र आने लगी. इसमें पुरे मैच के बजाय उसका कुछ या खास हिस्सा ही फिक्स करना था. मसलन, अगली गेंद नो बाल डालनी है, कौन सी बाल वाइड फेंकनी है, किस ओवर में आउट होना है. या अगले ओवर में कितने रन बनने हैं आदि आदि. इस फिक्सिंग में कोई एक खिलाडी अकेले भी शामिल हो सकता है. इसमें एक्यूरेसी भी ज्यादा दिखती है लिहाजा इसमें पैसों का फ्लो भी ज्यादा ही होता है. पहले जहाँ मैच पर सट्टे लगते थे वहां अब हर गेंद पर सट्टा लगने लगा है.

 ह गोरखधंघा न सिर्फ मुंबई, दिल्ली बल्कि देश के अन्य बड़े शहरों, इलाकों में भी वर्षों से धड़ल्ले से चल रहा है. कहा तो यह भी जाता है कि इसके लिए सट्टेबाज, बड़े आपरेटर पुलिस अफसरों को नियमित ‘हफ्ता’ पहुंचाते हैं. अभी पिछले आईपीएल 5 के दौरान भी एक खबरिया चैनल ने स्टिंग आपरेशन के जरिए मैच-स्पॉट फिक्सिंग का खुलासा किया था लेकिन उसके बाद क्या हुआ? अगर हमारी पुलिस, भारतीय एवं अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट की प्रबंधक समितियां एवं आईपीएल मैचों का प्रबंधन इस मामले में गंभीर होते तो शायद क्रिकेट और क्रिकेटरों और उनके शुभचिंतकों-प्रशंसकों को भी यह दिन नहीं देखने पड़ते. लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात इन मैचों में बढ़ रही सट्टेबाजी और फिक्सिंग और इस गोरखधंधे में मुंबई, कराची, दुबई और अन्य ठिकानों पर बैठे माफिया-आतंकी सरगनाओं के सक्रिय होने को लेकर होनी चाहिए. स्पॉट  फिक्सिंग का खुलासा करने वाली दिल्ली पुलिस के अनुसार इस गोरखधंधे के तार कुख्यात आतंकी माफिया सरगना दाउद इब्राहिम और उसकी बदनाम डी कंपनी के साथ भी जुड़े हो सकते हैं. आश्चर्य की बात नहीं कि मैच फिक्सिंग और स्पॉट फिक्सिंग पर आधारित जुए और सट्टेबाजी से जमा रकम का एक बड़ा हिस्सा भारत और पाकिस्तान के भी कुछ शहरों-इलाकों को निशाना बनाने वाली आतंकवादी गतिविधियों पर भी खर्च होता है. इसकी चिंता किसे है?

(इस लेख के सम्पादित अंश 1 9 मई 2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित )

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Monday, 13 May 2013

सरकार, भ्रष्टाचार और भाजपा


जयशंकर गुप्त


भ्रष्टाचार ने आखिर यूपीए2 सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खासुलखास कहे जाने वाले दो मंत्रियों-रेल मंत्री पवन कुमार बंसल और कानून मंत्री अश्विनी कुमार की राजनीतिक बलि ले ही ली. पिछले सप्ताह हमने जिक्र किया था कि किस तरह कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में जीत का खुशनुमा संकेत देने वाली राजनीतिक हवाएं भी सरकार के संकट कम नहीं कर पा रही हैं. नतीजे आ गए और कर्नाटक के रूप में दक्षिण भारत के किसी पहले राज्य में भाजपा का राजनीतिक किला भरभरा कर गिर भी गया. सिद्धरमैया के नेतृत्व में कांग्रेस की पूर्ण बहुमत से सरकार वहां बनने जा रही है. लेकिन कांग्रेस और यूपीए सरकार का संकट कम होते नहीं दिख रहा. विपक्ष के नकारात्मक रवैए और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे इन दोनों मंत्रियों को नहीं हटाने के सरकार के शुरुआती रुख के कारण खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण जैसे चुनावी दृष्टि से कांग्रेस के लिए और लोकपाल जैसे भ्रष्टाचार के विरोध के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण विधेयक पारित कराए बगैर ही संसद का बजट सत्र दो दिन पहले ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया. बजट सत्र के दूसरे चरण में कायदे से कोई विधायी कार्य नहीं हो सका. यहां तक कि विनियोग एवं वित्त विधेयक और रेल तथा सामान्य बजट भी सरकार को बिना किसी चर्चा और बहस के ही पारित करवाना पड़ा, वह भी तब जबकि विपक्ष सदन से बहिर्गमन के लिए राजी हो गया था.

 कर्नाटक के चुनावी नतीजे आ जाने और संसद के बजट सत्र के अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किए जाने के बावजूद जब पानी सिर से ऊपर चढ़ने लगा, रेलवे रिश्वतखोरी प्रकरण में सीबीआई का शिकंजा उनके कुनबे से होते हुए सीधे रेल मंत्री बंसल पर कसने लगा और कोयला खदानों के आवंटन घोटाले की जांच कर रही सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट में छेड़छाड़ के मामले में सुप्रीम कोर्ट कानून मंत्री अश्विनी कुमार की भूमिका को लेकर सरकार और सीबीआई के संबंधों पर प्रतिकूल टिप्पणियां करने लगा, कांग्रेस आलाकमान यानी सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए इन दोनों मंत्रियों को बचा पाना असंभव हो गया. हालांकि इसके लिए भी शुक्रवार को राजधानी के सत्ता गलियारे में जबरदस्त राजनीतिक ड्रामा देखने को मिला. रेल मंत्री बंसल कुर्सी बचाने के लिए अंधविश्वासी बन बकरी पूजा करने लगे. लेकिन दोपहर ढलते ढलते सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री निवास जाकर मनमोहन सिंह से साफ कह दिया कि इन मंत्रियों के अब बने रहने का कोई तुक नहीं है. बंसल ने तो त्यागपत्र दे दिया लेकिन अश्विनी कुमार अंत तक इस कोशिश में लगे रहे कि उनके मामले में खुद भी विवादों के घेरे में आ चुके प्रधानमंत्री उन्हें बचा लेंगे लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका. उनके इस्तीफे में देरी होते देख श्रीमती गांधी ने अपने राजनीतिक सचिव अहमद पटेल को प्रधानमंत्री निवास भेजकर साफ करवा दिया कि वह क्या चाहती हैं. नतीजतन कुछ ही देर में अश्विनी कुमार के भी सरकार से बाहर होने की खबर आ गई.

बंसल ने अगर पहले ही त्यागपत्र दे दिया होता तो शायद उनकी और सरकार की भी इतनी दुर्गति और छीछालेदर नहीं हुई होती. लेकिन वह अपने भांजे की करतूत से कोई सरोकार नहीं होने की बेमतलब सफाई देते रहे. पहली बात तो यह कि घर में बैठे बेटे, भतीजे और भांजे की करतूतों का पता नहीं होने की रेलवे जैसे भारी भरकम महकमे के मंत्री की सफाई न सिर्फ बेमानी थी बल्कि इतने गुरुतर मंत्रालय की जिम्मेदारी निभाने की उनकी काबिलियत पर प्रश्न चिह्न भी लगाती है. अब जिस तरह से उनके भूत और वर्तमान के पिटारे से भ्रष्टाचार के किस्से एक एक कर बाहर आने लगे हैं, ऐसा लगता है कि उनके पहली बार केंद्र में वित्त राज्यमंत्री बनने के साथ ही उनका कुनबा भ्रष्टाचार के काम में सक्रिय हो गया था. सीबीआई को मिल रहे साक्ष्यों के ताजा खुलासों से तो लगता है कि भ्रष्टाचार के कई मामलों में न सिर्फ उन्हें जानकारी थी बल्कि उनकी मिलीभगत भी थी.

लेकिन सरकार का संकट केवल बंसल और अश्विनी कुमार के सरकार से बाहर हो जाने भर से दूर होते नहीं दिखता. विपक्ष इतने भर से संतुष्ट होते नहीं दिखता. शनिवार को भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने ‘कोयला गेट’ में सीधे प्रधानमंत्री से त्यागपत्र की मांग करके विपक्ष के इरादे जाहिर कर दिए हैं. सवाल है कि अश्विनी कुमार का गुनाह क्या था. सुप्रीम कोर्ट की मनाही के बावजूद सीबीआई के निदेशक को बुलाकर स्टेटस रिपोर्ट देखने और उसमें छेड़ छाड़ करने के जिस मामले में उन्हें हटाया गया है, उसमें पहली बात तो यह है कि उनका अपना सीधा कोई हित नहीं जुड़ा था. दूसरे, इस मामले में वह अकेले नहीं थे. उनके साथ प्रधानमंत्री कार्यालय और कोयला मंत्रालय के आला अफसर भी तो थे. क्या दोनों आला अफसर प्रधानमंत्री और कोयला मंत्री की इच्छा और निर्देश के बगैर सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट में बदलाव कर रहे थे. स्टेटस रिपोर्ट कोयला खदान आवंटन घोटाले को लेकर थी जिसका सीधा सरोकार कोयला मंत्रालय और तत्कालीन कोयला मंत्री मनमोहन सिंह से है. जाहिर सी बात है कि इस मामले में प्रधानमंत्री के त्यागपत्र की मांग को लेकर संसद का मानसून सत्र जाम कर चुकी भाजपा अगला मानसून सत्र भी नहीं चलने दे सकती है. और फिर इसी मामले में अश्विनी कुमार की ‘बलि’ ने विपक्ष को एक मजबूत राजनीतिक अस्त्र थमा दिया है.

लेकिन संसद को जाम करने की रणनीति से भाजपा अथवा विपक्ष को क्या मिला. बंसल और अश्विनी कुमार के रूप में दो मंत्रियों और उससे पहले भी भ्रष्टाचार के मामले में ही तीन और मंत्रियों-दयानिधि मारन, ए राजा और सुबोधकांत के सरकार से बाहर होने को अपने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की सफलता घोषित कर भाजपाई अपनी पीठ खुद ही थपथपा सकते हैं. लेकिन लगातार, बात बे बात संसद को जाम करने और नकारात्मक विपक्ष की उसकी भूमिका को मतदाता पसंद नहीं कर रहे, इस पर भाजपा और उसे संचालित करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ को भी गंभीरता से मंथन और आत्मचिंतन करना चाहिए. क्या वजह है कि केंद्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के मुद्दों को संसद से लेकर सड़कों पर भी मजबूती से उठाने, उनको लेकर संसद जाम करने के दौरान ही हुए उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और अब कर्नाटक विधानसभाओं के चुनाव हुए जिनमें मतदाताओं ने भाजपा को नकार दिया. तीन राज्यों में सरकारें उसके हाथ से निकल गईं जबकि उत्तर प्रदेश में पहले से ही कमजो भाजपा की हालत और भी पतली हो गई. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के चुनावी नतीजों ने तो भाजपा को इस बात के लिए भी सोचने को विवश कर दिया है कि भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किए जा रहे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के बाहर विफल हो जाने के बाद वह अब किस नेता पर दाव लगाएगी. मुश्किल यह है कि भाजपा के पास आज न तो ऐसे नेता हैं और ना ही ऐसे मुद्दे जो अगले लोकसभा चुनाव में उसकी अथवा उसके नेतृत्ववाले गठबंधन की सरकार बनवाने में भी सहायक साबित हो सकें. अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, कश्मीर से धारा 370 को हटाने और सबके लिए समान नागरिक संहिता जैसे विवादित मुद्दों को तो भाजपा का नेतृत्व भी भुला सा चुका है. कम से कम नई दिल्ली में हुई भाजपा की पिछली राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक में तो उसने इन मुद्दो की चर्चा तक नहीं की.

 कांग्रेस और भाजपा के भी कर्नाटक में अपना पूरा चुनाव अभियान भ्रष्टाचार के विरुद्ध ही केंद्रित करने के बावजूद वहां येदियुरप्पा से लेकर बेल्लारी के खनन माफिया-चाहे वे जिस किसी पार्टी से अथवा निर्दलीय ही चुनाव लड़े हों-की जीत राजनीतिक दलों के साथ ही हम सबके लिए भी चिंता की बात होनी चाहिए. उनकी जीत इस बात का संकेत भी है कि मतदाता के लिए भ्रष्ट अथवा भ्रष्टाचार बहुत अधिक मायने नहीं रखते. दरअसल, भ्रष्टाचार के विरुद्ध सबसे पहले जनमानस को ही खड़ा होना पड़ेगा. तभी इसके विरुद्ध शासन, प्रशासन और न्यायपालिका पर भी सकारात्मक दबाव बनाया जा सकेगा.

लेकिन ‘कोयला गेट’ प्रकरण के बहाने एक अच्छी बात सीबीआई की स्वायत्ता को लेकर शुरू हुई है. मंत्रियों का समूह इसकी औपचारिकताएं तय करने में लगा है. यह कवायद किस हद तक कारगर होती है, इसके मद्देनजर भी इस देश में भ्रष्टाचार और उसके विरोध में चलनेवाले अभियानों का भविष्य तय हो सकेगा. कहीं इस कवायद का हश्र भी ‘लोकपाल’ विधेयक की तरह ना हो जाए, इसका डर भी बना हुआ है. लोकपाल संसद की दहलीज पर अटका पड़ा है जिसे पारित कराने में किसी भी दल की इच्छा और प्रतिबद्धतानजर नहीं आती. चूंकि सीबीआई की स्वायत्तता के पीछे सुप्रीम कोर्ट का डंडा भी है, इसलिए कुछ धुंधली सी उम्मीद भी बंधती है.

(सम्पादित अंश 1 2  मई के लोकमत समाचार में प्रकाशित )

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Sunday, 5 May 2013

संकट में सरकार! और सरबजीत की मौत के मायने




जयशंकर  गुप्त

र्नाटक से आ रही सकारात्मक चुनावी हवाएं भी यहां दिल्ली में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार पर मंडरा रहे संकटों को कम नहीं कर पा रही हैं. कर्नाटक से ताजा सूचनाएं बता रही हैं कि दक्षिण भारत के किसी पहले राज्य में भारतीय जनता पार्टी का ‘राजनीतिक दुर्ग’ भर भरा कर गिरने वाला है. चुनावी नतीजे 8 मई को आएंगे लेकिन कर्नाटक में भाजपा की दोबारा सरकार बनने के आसार कतई नजर नहीं आ रहे. कांग्रेस को अगर स्पष्ट बहुमत नहीं भी मिले तो भी सरकार उसके ही नेतृत्व में बनने के पूर्वानुमान लगाए जा रहे हैं. हालांकि राजनीति में कुछ भी सुनिश्चित नहीं होता, ऐन वक्त पर मतदान के समय कोई एक मुद्दा प्रभावी होकर सारे पूर्वानुमानों को ध्वस्त कर सकता है.

र्नाटक में जो कुछ होगा वह भविश्य के गर्त में है लेकिन यहां केंद्र सरकार पर छाए संकट के बादल और घने होते जा रहे हैं. तकनीकीतौर पर सरकार के अस्तित्व पर कोई खतरा नजर नहीं आता क्योंकि विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाने को तैयार नहीं है और लोकसभा के अगले चुनाव एक साल बाद होने हैं. इसके बावजूद नौकरशाही से लेकर आम जनता के बीच सरकार की साख लगातार कमजोर होती जा रही है. सरकार के दो प्रमुख सहयोगी रहे तृणमूल कांग्रेस और द्रविड़ मुनेत्र कझगम इससे अलग हो चुके हैं. सरकार का अस्तित्व बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी तथा कुछ अन्य छोटे क्षेत्रीय दलों के समर्थन की बैसाखी पर टिका है. वे लोग सरकार को बुरा भला कहते रहते और एन केन प्रकारेण अपने समर्थन की कीमत भी वसूलते रहते हैं.

और भ्रष्टाचार-घोटालों से तो इस सरकार का जैसे चोली दामन का रिश्ता सा बन गया है. एक घोटाले और उसमें सरकार के प्रमुख लोगों की शिरकत की अनुगूंज मद्धिम नहीं पड़ती कि दूसरा घोटाला सामने आ जाता है. 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले की जांच कर रही संयुक्त संसदीय समिति (जे पी सी ) की ‘विवादित’ रिपोर्ट को लेकर इसके 30 में से आधे यानी 1 5 सदस्य अपने अध्यक्ष पी सी चाको के विरुद्ध अविश्वास व्यक्त कर चुके हैं. कानून मंत्री अश्विनी कुमार द्वारा कोयला खदानों के आवंटन में घोटाले की जांच कर रही सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हां को बुलाकर प्रधानमंत्री कार्यालय एवं कोयला मंत्रालय के आलाअफसर की मौजूदगी में उसकी की स्टेटस रिपोर्ट में छेड़छाड़ के आरोप में सरकार और सीबीआई को भी सुप्रीम कोर्ट की लताड़ झेलनी पड़ी. सुप्रीम कोर्ट की मनाही के बावजूद सीबीआई के निदेशक ने रिपोर्ट सरकार को दिखाई. अब कानून मंत्री अश्विनी कुमार का राजनीतिक भविष्य इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टंगा है.

विवादों में बंसल!

इस बीच रेल मंत्री पवन कुमार बंसल भी अपने भांजे विजय सिंगला की ‘करतूत’के कारण विवादों के घेरे में आ गए हैं. बीते शुक्रवार की रात सीबीआई ने सिंगला को चार दिन पहले ही रेलवे बोर्ड के सदस्य नियुक्त महेश कुमार के प्रतिनिधि मंजूनाथ से 90 लाख रु. की रिश्वत लेते हुए गिरफतार किया. यह  रिश्वत कथित तौर पर महेश कुमार की प्रोन्नति और फिरउनकी मेंबर इलेक्ट्रिकल जैसी मलाईदार पोस्टिंग के एवज में ली जा रही थी. हालांकि बंसल ने कांग्रेस आलाकमान और प्रधानमंत्री को भी यह समझाने की कोशिश की है कि सिंगला के साथ उनके किसी तरह के कारोबारी संबंध नहीं हैं. लेकिन विपक्ष के नेता परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर आरोप लगाते हैं कि इस रिश्वत प्रकरण और महेश कुमार के प्रोमोशन में कहीं कुछ अंतर्संबंध जरूर है. उनके मामले पर फैसला कांग्रेस आलाकमान को करना है.

  भ्रष्टाचार के इस इस ताजा मामले ने टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन, कोयला खदानों के आवंटन घोटाले और उसकी जांच कर रही सीबीआई के कामकाज में दखल का आरोप लगाते हुए कानून मंत्री अश्विनी कुमार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के त्यागपत्र की मांग को लेकर संसद को जाम कर रही भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को एक और मजबूत राजनीतिक हथियार थमा दिया है. जाहिर सी बात है कि बात बात पर संसद को जाम करने की आदी हो चुकी भाजपा को संसद को नहीं चलने देने के लिए ‘रेलवे गेट’ के नाम से एक और मजबूत बहाना मिल गया है. बजट सत्र के बाकी चार-पांच दिन भी विपक्ष के हंगामे की भेंट चढ़ने की आशंका बढ़ गई है. इस बार संसद के बजट सत्र का अधिकांश समय वजह बे वजह विपक्ष के हंगामों की भेंट ही चढ़ते रहा है. 22 अप्रैल को शुरू हुए बजट सत्र के दूसरे चरण में तो एक दिन के लिए भी संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही सुचारु रूप से नहीं चल सकी. प्रश्नकाल नहीं हुए, प्राइवेट मेम्बर्स बिल इज भी चर्चा नहीं हो सकी. यहां तक कि भारत के संसदीय इतिहास में संभवतः पहली अथवा दूसरी बार विनियोग, वित्त विधेयक, रेल और आम बजट भी दोनों सदनों में बिना किसी बहस और चर्चा के ही पारित कराए गए, वह भी विपक्ष के इन बजट- विधेयकों को पारित करने से पहले सदन से बहिर्गमन की मोहलत मिलने के बाद. बजट सत्र दस मई तक के लिए निर्धारित है, हालांकि संसदीय कार्य मंत्री कमलनाथ ने कहा है कि बजट सत्र का समय से पहले सत्रावसान नहीं किया जाएगा और सरकार की कोशिश खाद्य सुरक्षा एवं भूमि अधिग्रहण जैसे सरकार और कांग्रेस के लिए भी चुनावी दृष्टि  से बेहद महत्वपूर्ण विधेयकों पर संसद की मुहर लगवाने की होगी, भले ही यह काम संसद में हंगामों के बीच बिना किसी चर्चा के ही संपन्न क्यों न कराना पड़े. लेकिन सरकार की साख का क्या होगा?

सरबजीत की मौत पर!

पाकिस्तान के लाहौर की कोट लखपत जेल में 2 2- 23 साल गुजारने वाले सरबजीत सिंह की पिछले सप्ताह जेल में ही बर्बर पिटाई के चलते वहां जिन्ना अस्पताल में हुई मौत को लेकर पूरे देश में संसद से लेकर सड़क तक गम और गुस्से की लहर स्वाभाविक थी. गुस्सा इसलिए भी स्वाभाविक था क्योंकि भारत में यह धारणा है कि उन्हें उस गुनाह की सजा मिली जो उन्होंने किया ही नहीं था. लेकिन मौत के बाद उनकी लाश पर शुरू हुई राजनीति हमारे राजनीतिक दलों और नेताओं का चरित्र ही उजागर करती है. शराब के नशे में या कहें छोटी-मोटी जासूसी के फेर में सीमा पार कर गए और वहां गिरफतार कर दहशतगर्दी और बम धमाके के आरोप में कैद कर दिए गए सरबजीत के जीवित रहते उन्हें मानवीय अथवा कूटनीतिक आधार पर रिहा करवाने के गंभीर प्रयास किसी ने नहीं किए. अब मौत के बाद उन्हें ‘देश का वीर सपूत’ बताने, उनके परिवार के लोगों को 25 लाख रु. देने और उनके शव को विशेष विमान से लाहौर से स्वदेश मंगवानेवाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने, उनकी अंत्येष्टि राजकाीय सम्मान के साथ करवाने, उनके परिवारवालों की आर्थिक मदद करने, उनकी बेटियों को सरकारी नौकरी देने की घोषणा करने वाले अकाली दल ने और ‘कमजोर’ यूपीए सरकार पर सरबजीत की रिहाई के लिए गंभीर प्रयास नहीं करने के आरोप लगाने वाले भाजपा के लोगों ने भी केंद्र में और पंजाब में भी अपनी सरकार रहते कुछ भी ऐसा नहीं किया जिससे उनकी जीवित स्वदेश वापसी संभव हो सके. यूपीए सरकार ने तो कम से कम मौके बेमौके पाकिस्तान के हुक्मरानों के समक्ष उसकी रिहाई का मामला उठाया भी. हालांकि भारतीय जेल में हत्या के मामले में 20 वर्षों तक कैद रहे पाकिस्तानी वैज्ञानिक खलील चिश्ती की सद्भावना रिहाई के समय भारत भी पाकिस्तान पर दबाव बनाकर सरबजीत की मांग करता तो बात कुछ और हो सकती थी.

सरबजीत की जीवित वापसी तो नहीं हो सकी लेकिन उनकी मौत को लेकर देश भर में नेताओं की बयानबाजियों से लेकर मीडिया के एक हिस्से द्वारा जनाक्रोश की अभिव्यक्ति के जरिए पाकिस्तान और पाकिस्तान के लोगों के विरुद्ध उत्तेजना और उन्माद का जो माहौल बनाने की कोशिश की गई, उसे किसी भी तरह जायज करार नहीं दिया जा सकता. जिस तरह से जम्मू की एक जेल में कैद पाकिस्तान के एक आतंकवादी सनाउल्ला पर भारत के एक पूर्व सैनिक कैदी ने हमला कर उसे मौत की कगार पर पहंचा दिया, वह इस उत्तेजना और उन्माद की ही परिणति कही जा सकती है. सरकार ने सरबजीत की मौत के बाद भारतीय जेलों में कैद पाकिस्तानियों की सुरक्षा कड़ी करने के निर्देश जारी किए थे. जाहिर है कि जम्मू के जेल अधिकारियों ने उस पर अमल नहीं किया. बदले की इस कार्रवाई से फौरी तौर पर हम खुश हो सकते हैं की चलो सरबजीत का बदला ले लिया लेकिन सरबजीत की हत्या के मामले में अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान की सरकार और उसकी बदनाम खुफिया एजेंसी 'आइएसआई' को कठघरे में खड़ा करने का नैतिक अधिकार हमारे पास कहां रह जाता है. और फिर इससे क्या यह बात भी साबित नहीं होती कि जेलों में कैदी तो आपस में लड़ते मरते ही रहते हैं. अगर हम मानते हैं कि पाकिस्तान आज कट्टरपंथी अराजक तत्वों के हाथ में है तो जवाब में क्या हमें भी अराजक और कट्टरपंथी बन जाना चाहिए?

5 मई  2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित 
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Sunday, 28 April 2013

चिट फंड के नाम पर कब तलक लुटते रहेंगे!



जयशंकर गुप्त
श्चिम बंगाल इन दिनों अजीब से राजनीतिक और सामाजिक उथल पुथल के दौर से गुजर रहा है. एक बार फिर पैरा बैंकिंग के नाम पर सक्रिय चिट फंड कंपनियों ने न सिर्फ सुदूर ग्रामीण इलाकों के भोले भाले किसान मजदूरों, छोटे व्यापारियों बल्कि शहरी इलाकों के पढ़े लिखे कहे जाने वाले लोगों को भी ठगी का शिकार बनाया है. लोग सड़कों पर उतर कर सरकार से और इस कंपनी के साथ जुड़े रहे बड़े नामों से इन्साफ मांग रहे हैं. लाखों की संख्या में लोगों ने इन कंपनियों के अविश्वसनीय मगर बेहद लुभावने वायदों-आश्वासनों, उनके कार्यक्रमों में शिरकत करने, उनके साथ तस्वीरें खिंचवाने, यहां तक कि उनके विज्ञापनों की शोभा भी बढ़ाने वाली सत्तारूढ़ राजनीतिक शख्सियतों के भंवरजाल में फंसकर अपनी गाढ़ी कमाई का बड़ा हिस्सा, यहां तक कि कर्ज लेकर भी पैसे सुपरिचित एजेंटों के जरिए इन कंपनियों के पास जमा कर दिए थे, इस उम्मीद के साथ कि उनकी जमाओं पर बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ब्याज से कहीं ज्यादा, दो गुना-तीन गुना ब्याज मिलेगा और जरूरत पड़ने पर सस्ता ऋण भी.

  बेरोजगारी की मार झेल रहे ग्रामीण इलाकों के प्रभावशाली परिवारों के युवा भी इन कंपनियों के प्रचार, विज्ञापनों के जरिए दिखाए जा रहे सपनों के झांसे में आकर इनके एजेंट बनते चले गए. उन्हें 20 से 50 फीसदी तक का कमीशन जो मिलने लगा था.यानी आम निवेशकों को बहला फुसलाकर उनसे एकत्र रकम कंपनी के पास जमा करवाने से पहले ही अपना मोटा कमीशन पहले ही उसमें से काट लो. बेरोजगार या कहें छोटे-मोटे धंधों में लगे लोगों के लिए भी यह धंधा बुरा नहीं था. लोग एक-एक कर इन चिट फंड कंपनियों के झांसे में आकर उनसे जुड़ते और उनके खातों में करोड़ों रु. जमा करवाते गए. कोलकाता में इसी तरह की एक सारधा चिट फंड कंपनी और उसके कारनामे इन दिनों चर्चा का विषय बने हुए हैं. इस कंपनी पर न सिर्फ पश्चिम बंगाल बल्कि झारखंड, ओडिशा और उत्तर पूर्व के राज्यों में लाखों लोगों की गाढ़ी कमाई को चूना लगाते हुए तकरीबन 20 हजार करोड़ रु. का घोटाला करने का आरोप है. कंपनी के पास पैसा जमा करने वाले लाखों हताश निवेशक एजेंटों को ढूंढ़ते उनके आगे पीछे भाग रहे हैं, एजेंट मुंह छिपाए जहां तहां भाग छिप रहे हैं. कहा तो यह भी जा रहा है कि जल्दी कुछ नहीं किया गया तो संबद्ध राज्यों में कानून व्यवस्था का सवाल खड़ा हो सकता है. कर्ज में डूबे लोगों की ‘आत्म हत्या’ जैसी खबरें आनी शुरू हो सकती हैं. ऐसा वहां अस्सी और नब्बे के दशक में हो भी चुका है.

कंपनी के संचालक सुदीप्तो सेन और उनके दो सहयोगी-देबजानी मुखर्जी और अरविंद सिंह चैहान पुलिस की हिरासत में हैं. जम्मू-कश्मीर के सोनमर्ग में दोनों सहयोगियों के साथ गिरफ्तारी से पहले सेन द्वारा सीबीआई को लिखे लंबे चौड़े पत्र ने न सिर्फ पश्चिम बंगाल बल्कि उत्तर पूर्व के राजनीतिकों और केंद्र सरकार में बैठे लोगों, उनके रिश्तेदारों, वकीलों और पत्रकारों को भी विवादों के कठघरे में खड़ा कर दिया है. तृणमूल कांग्रेस के प्रमुख सांसदों, उत्तर पूर्व के कांग्रेसी नेताओं और यहां तक कि वित्त मंत्री पी चिदंबरम की पत्नी नलिनी चिंदबरम को भी विभिन्न कामों के एवज में लाखों-करोड़ों रु. देने की बात सेन ने लिखी है.

खुद को रामकृष्ण परमहंस और उनकी पत्नी मां शारदा का अनन्य भक्त कहने वाले और छात्र-युवा अवस्था में नक्सलवादी आंदोलन और उसके जनक चारू मजुमदार से प्रभावित सुदीप्तो सेन ने 1995 में मां शारदा के नाम से ही अपनी 'सारधा चिट फंड कंपनी' बड़े ताम झाम के साथ खोली. तब राज्य में वाम दलों की सत्ता थी लेकिन ममता बनर्जी के नेतृत्व में राज्य में उनकी तृणमूल कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने के बाद इस कंपनी की सफलता में जैसे चार चांद लगने शुरू हो गए और देखते ही देखते कई बड़े अखबार, पत्रिकाएं, खबरिया से लेकर मनोरंजन के क्षेत्र में सक्रिय टी वी चैनल तथा दर्जनों और कंपनियां इस कंपनी के नाम से जुड़ती चली गईं. लेकिन पिछले साल नवंबर महीने में अचानक पता चला कि कंपनी के कर्मचारियों को वेतन मिलने में असुविधा हो रही है. तीन चार महीने से वेतन भत्तों का भुगतान नहीं हो पा रहा था. और एक दिन पता चला कि इसके द्वारा संचालित तमाम टीवी चैनल एक झटके में बंद कर दिए गए. दो हजार से अधिक स्त्री-पुरुष, पत्रकार गैर पत्रकार बेरोजगार हो सड़क पर आ गए. इसी बीच पिछले 10 अप्रैल को जब सुदीप्तो सेन और उसके दोनों सहयोगी रहस्यमय परिस्थितियों में कोलकाता से गायब हो गए, सबको पता चल गया कि सारधा चिट फंड कंपनी का बेड़ा गर्क हो चुका है. निवेशकों की गाढ़ी कमाई के हजारों करोड़ रु. एक बड़े घोटाले की भेंट चढ़ चुके हैं.

लेकिन सुदीप्तो सेन और उसकी सारधा चिट फंड कंपनी का मामला न तो नया है और ना ही अकेला ही. पश्चिम बंगाल में इससे पहले अस्सी-नब्बे के दशक में भूदेव सेन की संचयिता और फिर पियरलेस और राज्य से बाहर निकलकर देखें तो कुबेर, जे वी जी जैसी कंपनियां भी लाखों लोगों की गाढ़ी कमाई पर डाका डाल चुकी हैं. लेकिन शायद अतीत के इन घोटालों से किसी ने, न तो सरकार ने और न ही इसके जाल में फंसते रहे लोगों ने ही कोई सबक नहीं लिया और बीच-बीच में इस तरह की चिट फंड और पैरा बैंकिंग कंपनियां नए नामों, नई तरकीबों और नए लुभावने आश्वासनों के साथ बाजार में आती और आम लोगों तथा बिना कुछ खास किए रकम दोगुनी, चौगुनी करने के ख्वाहिशमंद लोगों को अपने जाल में फंसाते रही हैं. देश के विभिन्न हिस्सों से इस तरह की कंपनियों के उदय और लाखों-करोड़ों रु. डकारने के बाद अस्त होने के समाचार आते रहते रहते हैं. सरकारी सूत्रों के अनुसार अकेले पश्चिम बंगाल में इस समय इस तरह की 400 कंपनियां भविष्य के सुनहरे सपनों और आश्वासनों के सहारे लोगों को लूटने-ठगने में लगी हैं. इनमें टाटा की नैनो कार के लिए आवंटित जमीन के खिलाफ आंदोलने कर उसे खदेड़ने में सफल रहे सिंगूर के इलाके में सक्रिय तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद से जुड़ी कंपनी भी शामिल है. केंद्र सरकार के आदेश पर सीरियस फ्राड इन्वेस्टिगेशन की स्पेशल टास्क फोर्स ने इस तरह की 87 कंपनियों की जांच शुरू की है.

वाल एक ही है कि अतीत के घटनाक्रमों के मद्देनजर इस तह की कंपनियों को यह सब करने की छूट अथवा लाइसेंस कैसे मिल जाता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस समय देश के विभिन्न हिस्सों में तकरीबन 34754 चिट फंड एवं पैरा बैंकिंग कंपनियां सक्रिय हैं. इनमें से केवल 12375 कंपनियों को ही भारतीय रिजर्व बैंक से गैर बैंकिंग कारोबार की अनुमति मिली हुई है. लेकिन इस अनुमति की आड़ में ये कंपनियां और बाकी 22 हजार से अधिक गैर अनुमति प्राप्त कंपनियां किस किस तरह के गुल खिला रही  हैं, इस पर भी किसी की नजर रहती है क्या? अगर सुदीप्तो सेन की मानें तो वह इस तरह के मामलों की नियामक संस्था सेबी के संबद्ध अधिकारियों को प्रति माह 70 लाख रु. और असम के पुलिस अधिकारियों को 40 लाख रु. दिया करता था. इसके अलावा आयकर अधिकारियों, नेताओं, सांसदों और मीडिया के लोगों को भी भारी रकम अदा करते रहता था. उसकी कंपनी में तमाम तरह के रिटायर्ड पुलिस-प्रशासनिक अधिकारी, पत्रकार वेतन भोगी थे. इस तरह के कामों में खर्च का उसका बजट करोडों रु. का था.

 स कंपनी तथा इस तरह की कुछ अन्य कंपनियों के मायाजाल में फंसकर अपना सब कुछ लुटा चुके लाखों लोगों का क्या होगा. अपने 23 महीनों के शासनकाल में सब बुराइयों और कमियों की जड़ वाम मोर्चा सरकार में ही खोजने की आदी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस घोटाले से बुरी तरह हिल गई लगती हैं. उनकी पार्टी के कई नेता, सांसद और मंत्री इस घोटाले के साथ परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप से साफ जुड़े नजर आ रहे हैं. उनके लिए सुकून की बात सिर्फ वित्त मंत्री चिदंबरम की पत्नी नलिनी का इस कंपनी के साथ वकील के रूप में जुड़ना और उससे भारी रकम और सुविधाएं प्राप्त करना हो सकता है. ममता बनर्जी ने घोटाले की जांच के लिए एक आयोग और विशेष जांच टीम घोषित की है. उन्होंने पीड़ित निवेशकों की राहत के लिए 500 करोड़ रु. के एक पैकेज की घोषणा करते हुए कहा है कि इसका एक हिस्सा सिगरेट की बिक्री पर 10 फीसदी अधिशेष के जरिए जमा किया जाएगा. इसके साथ ही उन्होंने राज्य के लोगों से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और मौत का कारण भी साबित होने वाली वैधानिक चेतावनी के साथ बेची जाने वाली सिगरेट का सेवन ज्यादा करने की ‘हास्यास्पद' अपील भी कर डाली है. जाहिर सी बात है कि राज्य में चिट फंड घोटाले की मार झेल रहे लोगों पर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी. इसकी बानगी शायद कुछ ही महीनों में पश्चिम बंगाल में होने वाले पंचायत और स्थानीय निकायों के चुनावों में भी देखने को मिल सकती है, जब लोग अपने हुक्मरानों से पूछना शुरू कर देंगे कि ‘‘कब तलक लुटते रहेंगे, लोग मेरे गांव के.’’

2 8 अप्रैल 2 0 1 3  के लोकमत समाचार में प्रकाशित 
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Sunday, 14 April 2013

ममता, मोदी और मार्क्सवादी



लोकतंत्र में सबको अपनी बातें कहने, मांगें मनवाने, उसके लिए दबाव बनाने और विरोध प्रदर्शन का अधिकार है लेकिन पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में और फिर कोलकाता में जिस तरह के धरना-विरोध प्रदर्शन और जवाबी हिंसक प्रदर्शन हुए उन्हें किसी भी लिहाज से जायज करार नहीं दिया जा सकता. योजना आयोग के समक्ष अपनी मांगें पेश करने आईं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनके वित्त मंत्री अमित मित्रा के साथ योजना भवन के दरवाजे पर माकपा की छात्र इकाई स्टूडेंट फेडरेशन आफ इंडिया -एसएफआई- के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन के नाम पर जो अभद्रता की, अमित मित्रा के कुर्ते फाड़ डाले, हाथापाई भी की, वह कतई निंदनीय था. अच्छी बात है कि माकपा के पोलित ब्यूरो ने भी इसकी भर्त्सना की. एसएफआई के प्रदर्शनकारी पश्चिम बंगाल में अपने नेता सुदीप्तो गुप्ता की पुलिस हिरासत में अदालत ले जाते समय हुई संदिग्ध मौत और उसके बारे में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ‘ओछी प्रतिक्रिया’ का विरोध कर रहे थे.

सके एक दो दिन बाद ही अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल कर आरक्षण की सुविधा दिए जाने की मांग कर रहे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दो सौ से अधिक जाट किसान विदेश -रूस-प्रवास पर गए गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे के सरकारी निवास पर तोड़ फोड़ करते हुए अंदर घुस गए. जाट किसानों को आरक्षण मिलना चाहिए कि नहीं, यह विवाद का विषय हो सकता है. सच तो यह है की 1 9 9 0 में जिस समय मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की गई थी, इसका सबसे भारी और तीव्र विरोध जाट किसानों ने ही किया था. समाजवादी नेता मधुलिमए सरीखे कुछ लोगों द्वारा उन्हें भी अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल किए जाने के प्रस्ताव का तब अपने इलाकों में चौधरी कहलानेवाले जाट किसानों ने यह कह कर उसका पुरजोर विरोध किया था कि वे लोग क्योंकर दलितों और पिछड़ों की कतार में बैठने लगे. लेकिन अब उन्हें यह एहसास होने लगा है कि सामाजिक दृष्टि से वे भी पिछड़े हैं और उन्हें भी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सुविधा मिलनी चाहिए. उनकी मांगों पर सरकार विचार कर सकती है. लेकिन इस तरह किसी मंत्री के निवास में घुसकर तोड़-फोड़ की इजाजत किसी को भी कैसे दी जा सकती है.

हां तक ममता बनर्जी और अमित मित्रा के साथ बदसलूकी की बात है, उनकी टिप्पणी से नाराज एसएफआई अथवा किसी और संगठन के लोगों को भी कोलकाता हो अथवा दिल्ली, कहीं भी शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन का अधिकार है. ममता जी को भी समझना होगा कि जब आप राजनीति में हैं, मंत्री मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार संवैधानिक पदों पर हैं तो तालियों और फूल मालाओं के साथ ही काले झंडों और विरोध प्रदर्शनों का सामना करने के लिए भी आपको तैयार रहना चाहिए. और फिर इस तरह के उग्र और हिंसक प्रदर्शनों की तो कोलकाता और पश्चिम बंगाल में लंबी और पुरानी परंपरा सी रही है. वाम मार्चा शासन के दौरान पश्चिम बंगाल की बाघिन कही जाने वाली ममता के विरोध प्रदर्शन भी कई बार कुछ इसी तरह के रहे हैं. एक बार तो कोलकाता के राइटर्स बिल्डिंग के पास प्रदर्शन के दौरान ममता बनर्जी ने रोकने की कोशिश कर रहे पुलिस के एक जवान की उंगली ही चबा ली थी. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इस आधार पर एसएफआई के उग्र और हिंसक प्रदर्शन को जायज ठहराया जा सकता है.

लेकिन उसके जवाब में ममता जी का आचरण कैसा था? एक राज्य के सम्मानित और जिम्मेदार मुख्यमंत्री की तरह तो कतई नहीं. वह योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और केंद्र सरकार में राज्य मंत्री राजीव शुक्ला पर इस तरह बिफर रही थीं जैसे सब कुछ उनका ही किया धरा था. उन्होंने बीमार हो जाने के नाम पर उसी शाम प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ और अगले दिन वित्त मंत्री पी चिदंबरम के साथ अपनी मुलाकात रद्द कर दी. वह कोलकाता लौट गईं, यह कहते हुए कि दिल्ली आम लोगों के लिए ही नहीं मुख्यमंत्रियों के लिए भी सुरक्षित नहीं. यह गंभीर बात है. दिल्ली पुलिस ने योजना भवन के पास उनकी सुरक्षा व्यवस्था में किसी तरह की कोताही नहीं की. उन्हें कार में बैठे ही योजना भवन के अंदर पोर्टिको तक जाने की सलाह दी गई थी लेकिन सीधे जनता की राजनीति करने वाली ममता प्रदर्शनकारियों के बीच से ही अंदर जाने की जिद कर गईं. दिल्ली में उनके साथ जो हुआ वह निंदनीय था लेकिन उसकी प्रतिक्रिया में कोलकाता और पश्चिम बंगाल के कुछ अन्य हिस्सों में जो हुआ वह क्या कम शर्मनाक था? माकपा कार्यकर्ताओं के साथ मार पीट, कोलकाता के ऐतिहासिक प्रेसीडेंसी कालेज में तोड़ फोड़ की गई. छात्राओं के साथ बदसलूकी हुई. उनके साथ बलात्कार की धमकियां दी गईं. वहां उस बेकर लेबोरेटरी को तहस नहस किया गया जहां बैठकर कभी सत्येंद्रनाथ बोस और जगदीश चंद्र बोस जैसे विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक शोध किया करते थे. इस सबको रोकने की संवैधानिक जिम्मेदारी क्या मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की नहीं थी?

जिस समय ममता बनर्जी दिल्ली में थीं, उसी दिन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी और मजबूत करने की गरज से कोलकाता में ममता दीदी की तारीफ में कसीदे पढ़ते हुए नए राजनीतिक समीकरण की दिशा में आगे बढ़ने के संकेत दे रहे थे. मोदी को और उनकी भाजपा को भी इस बात का एहसास हो चला है कि केंद्र में सरकार बनाना अकेले भाजपा तो क्या राजग के मौजूदा स्वरूप के बूते की बात भी नहीं. इसके लिए राजग के विस्तार की जरूरत होगी. ममता और जयललिता कभी राजग के साथ रह चुकी हैं. एक बार फिर साथ आने के लिए उन पर राजनीतिक डोरे डाले जा सकते हैं. हालांकि पश्चिम बंगाल संभवतः देश का अकेला बड़ा राज्य है जहां अल्पसंख्यक मुसलमानों की आबादी सबसे अधिक तकरीबन 27 फीसदी है. भाजपा और वह भी नरेंद्र मोदी के साथ जुड़कर ममता अल्पसंख्यकों के साथ कैसे सामंजस्य बिठा सकेंगी, यह समझने वाली बात है. उनके सामने अतीत का उदाहरण भी है. 2004 में जब उनकी पार्टी राजग -भाजपा-के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी तो उसे सिर्फ एक ममता बनर्जी की सीट से ही संतोष करना पड़ा था जबकि 2009 में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर उनकी तृणमूल कांग्रेस को 19 सीटें मिल गईं. राज्य में भी वह अपने बूते अपनी सरकार बनाने में कामयाब रहीं. ऐसे में मोदी और भाजपानीत राजग के साथ जुड़ने से पहले वह लाख दफे इसके राजनीतिक नफा-नुकसान के बारे में सोचेंगी. वैसे भी हाल के दिनों-महीनों में राज्य में उनकी लोकप्रियता का राजनीतिक ग्राफ जिस रफ़्तार से गिर रहा है, उससे वह काफी परेशान हैं. जहां तक कांग्रेस का सवाल है, उसके तो दोनों हाथों में लड्डू हैं. ममता नहीं तो माकपा एवं उसके सहयोगी सही. वाम दलों ने केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आश्वस्त कर रखा है कि उनके कारण सरकार गिरने नहीं दी जाएगी. वाम दल समय से पहले चुनाव के पक्षधर नहीं हैं. उनकी समझ से लोकसभा चुनाव जितनी भी देरी से होंगे, ममता कमजोर होंगी और वाम दल फायदे में रहेंगे.

 मुख्यमंत्री के रूप में गुजरात का कर्ज उतारने -हालांकि जब मोदी मुख्यमंत्री बने थे उस समय गुजरात पर कुल कर्ज 45 हजार 301 करोड़ रु. का था जो उनके दस-ग्यारह वर्षों के शासन में बढ़कर एक लाख 38 हजार करोड़ रु. तक पहुंच गया-के बाद प्रधानमंत्री के रूप में देश का कर्ज भी उतारने पर आमादा नरेंद्र मोदी की विडंबना यही है कि अभी तक राजग से बाहर की बात तो छोड़ ही दें राजग के घटक दलों और यहां तक कि उनकी अपनी भाजपा में भी उनकी दावेदारी पर आम राय नहीं बन पा रही है. वह भाजपा के संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति में तो आ गए लेकिन उन्होंने पार्टी की केंद्रीय चुनाव अभियान समिति की कमान संभालने के लिए हाथ खड़े कर दिए. क्या वह भाजपा के लिए कर्नाटक विधानसभा के अपेक्षित या कहें आशंकित नतीजों से डर गए़ ? यहां तक कि सदस्य होने के बावजूद वह चुनाव समिति की पहली बैठक में शामिल नहीं हुए क्योंकि उसमें कर्नाटक विधानसभा के लिए भाजपा के उम्मीदवारों का चयन होना था. यही नहीं वह कर्नाटक में भाजपा के चुनाव अभियान के शुभारंभ के अवसर पर भी बेंगलुरु से गायब रहे. संकेत यह भी हैं कि वह कर्नाटक में भाजपा के मुख्य प्रचारक नहीं रहेंगे. भाजपा के एक बड़े नेता की मानें तो मोदी नहीं चाहते कि कर्नाटक में पार्टी की आशंकित हार का ठीकरा उनके भविष्य की राह में रोड़ा साबित हो सके.

दूसरी तफ, राजग के विस्तार की तस्वीर तो अभी साफ हो नहीं रही, इस बीच राजग के महत्वपूर्ण घटक जनता दल (यू) और उसके नेता नीतीश कुमार ने उनके मामले में फच्चर फंसा दिया है. 13-14 अप्रैल को यहां हुई जद-यू- की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक में नीतीश कुमार ने नाम लिए बगैर मोदी पर कटाक्ष किया कि देश को जोड़ने वाले धर्मनिरपेक्ष नेता की जरूरत  है, तोड़नेवाले की नहीं. उन्होंने कहा कि देश को अटल बिहारी वाजपेयी जैसी सोच की जरूरत जो सबको साथ लेकर चलते थे और हरवक्त 'राजधर्म' का पालन करने की बात करते थे.जनता दल (यू)  ने भाजपा नेतृत्व से साफ कहा कि उसे इस साल दिसंबर महीने तक प्रधानमंत्री के दावेदार का नाम घोषित कर देना चाहिए, साथ ही यह जाता भी दिया गया की सांप्रदायिक छवि के मोदी उन्हें कतई कबूल नहीं. अब मोदी को अपनी दावेदारी के बारे में एक बार फिर से गंभीरता से सोचना पड़ेगा कि कम से कम उनकी अपनी पार्टी तो उन्हें अगले प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करे ही. लेकिन क्या भाजपा इसके लिए तैयार है?
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Sunday, 7 April 2013

राहुल बनाम मोदी ! चुनावी अक्स में उभरती तस्वीरें


गली लोकसभा के लिए चुनाव समय से पहले इस साल अक्टूबर-नवंबर में हों अथवा समय पर अगले साल अप्रैल-मई महीने में, चुनावी महाभारत की विभाजन रेखाएं साफ खिंचती नजर आने लगी हैं और यह भी स्पष्ट होने लगा है कि अगला लोकसभा चुनाव दलों के बीच नहीं बल्कि उनके नेताओं-कांग्रेस के राहुल गांधी और गुजरात के भाजपाई मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच ही होने वाला है. समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव कुछ गैर कांग्रेसी-गैर भाजपा दलों के भरोसे तीसरे मोर्चे के काल्पनिक अस्तित्व के सहारे इस चुनावी महाभारत को त्रिकोणीय बनाने की कवायद में जुटे हैं. इस लिहाज से देखें तो हमारे राजनीतिक महारथी अपने-अपने तरीके से राजनीतिक पेशबंदी में जुट गए हैं.

क तरफ कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी हैं जो फिलहाल जब भी चाहें मंत्री-प्रधानमंत्री बन सकते हैं. लेकिन वह अगले लोकसभा चुनाव के बाद भी प्रधानमंत्री बनने का विकल्प यह कह कर खुला रखना चाहते हैं कि उनकी प्राथमिकता में सत्ता नहीं बल्कि कांग्रेस संगठन को मजबूत करना और जनता की सेवा करना सर्वोपरि है. प्रधानमंत्री बनना अथवा नहीं बनना उनके लिए ज्यादा मायने नहीं रखता. दूसरी तरफ गुजरात विधानसभा के चुनाव में जीत की तिकड़ी बनाने वाले नरेंद्र मोदी हैं जिन्हें लगता है कि प्रधानमंत्री बने बगैर वह देश का ‘कर्ज’ नहीं उतार सकते. उनकी भाषा में कहें तो तीन बार मुख्यमंत्री रहकर वह गुजरात का ‘कर्ज’ उतार चुके हैं और अब उनके देश का कर्ज उतारने की बारी है. हालांकि उनके प्रधानमंत्री बनने अथवा नहीं बनने की बात तो भविष्य के गर्त में है, उन्हें इसके लिए दावेदार घोषित किए जाने को लेकर भी न सिर्फ राजग में बल्कि उनकी अपनी पार्टी में भी एक राय नहीं है. उनकी दावेदारी को लेकर अभी तक सारी सक्रियता कुछ निगमित घरानों एवं मीडिया के एक हिस्से में ही ज्यादा दिखती है.

 मुलायम सिंह यादव कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार को अपने बाहरी समर्थन की बैसाखी पर टिकाए हैं और कहते हैं कि ऐसा करना उनकी मजबूरी है क्योंकि ऐसा नहीं करने पर सरकार सीबीआई और आयकर विभाग से परेशान कर सकती है, उन्हें जेल भिजवा सकती है. इसके साथ ही वह तथाकथित तीसरे मोर्चे के सहारे प्रधानमंत्री बनने का सपना भी संजोए हैं और समझते हैं कि अगले चुनाव में त्रिशंकु लोकसभा के उभरने की स्थिति में कांग्रेस अथवा भाजपा के समर्थन से प्रधानमंत्री बनने का उनका बहुत पुराना, सुंदर सपना साकार हो सकता है. एक चौथे महारथी भी हैं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जो पिछले नौ साल से कांग्रेसनीत यूपीए की सरकार चला रहे हैं. वह प्रधानमंत्री के रूप में किसी भी दिन, किसी भी क्षण राहुल गांधी को स्वीकार करने की बात करते हैं लेकिन इस मामले में राहुल गांधी के संकोची या कहें सुविचारित वक्तव्यों के आलोक में यह कहना भी नहीं भूलते कि वह प्रधानमंत्री पद की दौड़ से न तो बाहर हैं और ना ही अंदर. जाहिर सी बात है कि उनका इशारा अगले लोकसभा चुनाव के बाद बनने वाली राजनीतिक परिस्थिति की ओर है. वह अपने पत्ते तभी, उस समय की राजनीतिक परिस्थिति को देखते हुए ही खोलेंगे. वैसे, 2004 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी द्वारा उन्हें नामित किये जाने से पहले भी उन्हें कहां उम्मीद थी कि वह इस देश के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं. इस बार भी दक्षिण अफ्रीका के डरबन में ब्रिक्स देशों के सम्मेलन से लौटते समय तीसरी बार उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावना के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने यही कहा कि जब ऐसी परिस्थिति आएगी तो तय करेंगे.

हालांकि कांग्रेस परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से भी साफ कर चुकी है कि अगला लोकसभा चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. अपने हिसाब से वह इसकी तैयारी में भी जुटे हैं. उनके बारे में अभी तक यही कहा जाता रहा है कि नौ साल से संसदीय राजनीति और कांग्रेस संगठन में भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों के साथ सक्रिय राहुल अपनी बातें, राजनीतिक,आर्थिक और सामाजिक सोच, देश के युवाओं, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों आदि वंचित तबकों की समस्याओं के समाधान के बारे में अपने सपनों पर आधारित कार्य योजनाओं के बारे में विस्तार से खुलकर कुछ बोलते नहीं. लेकिन पिछले गुरुवार को राजधानी दिल्ली में भारतीय उद्योग परिसंघ -कन्फेडरेशन आफ इंडियन इंडस्ट्रीज-के मंच पर उन्होंने देश के निगमित क्षेत्र के  धुरंधरों के सामने बड़े आत्मविश्वास और बेबाकी के साथ अपनी बातें रखीं. तकरीबन एक घंटे के भाषण में श्रोताओं के साथ जीवंत संवादवाली शैली में उन्होंने हाल के दिनों में अपनी रेल यात्राओं और देश के विभिन्न हिस्सों-शहरों में तमाम तरह के लोगों से हुई मुलाकातों के जरिए देश को जानने-समझने की कोशिशों और अनुभवों को भी बांटने की कोशिश की. उनका जोर देश के आर्थिक विकास और प्रगति के साथ ही इसे समावेशी बनाने पर है जिसमें युवाओं, दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों एवं अन्य वंचित तबकों की सहभागिता भी सुनिश्चित हो. इशारों में ही उन्होंने नरेंद्र मोदी की एकाधिकारवादी कार्यशैली पर प्रहार करते हुए सत्ता के विकेंद्रीकरण की बातें कही.

यपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर के बाद यह उनका पहला लंबा सार्वजनिक संबोधन था जिसे सुनकर लगा कि वाकई वह दिल से बोल रहे हैं. वह राजनीति, शासन-व्यवस्था और यहां तक कि कांग्रेस में कमियां भी गिनाते नजर आए लेकिन जयपुर की तरह एक बार फिर यहां भी वह समाधान सुझाने और देश और समाज को बदलने की अपनी भावी कार्ययोजनाओं का खाका पेश करने में विफल रहे जबकि मंच के सामने बैठे देश के शीर्षस्थ उद्योगपति एवं उनके प्रतिनिधि उनसे देश की अर्थव्यवस्था के भविष्य के बारे में उनका सोच जानना चाहते थे. ऐसा वह शायद इसलिए भी नहीं कर सके क्योंकि वह वहां सरकार के मुखिया अथवा प्रवक्ता की हैसियत से नहीं बल्कि कांग्रेस के भावी नेता के रूप में गए थे. वह काम एक दिन पहले उसी मंच पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पूरा कर गए थे. लेकिन राहुल गांधी कब तक कांग्रेस के ‘युवा तुर्क नेता’ की तरह संगठन, सरकार और व्यवस्था में खामियां ही गिनाते रहेंगे. लोग अब उनसे समस्याओं के समाधान के बारे में उनके सोच और उनकी कार्य योजनाओं के बारे में जानना चाहते हैं.

दूसरी तरफ, गांधीनगर में हों अथवा दिल्ली में या फिर देश के किसी अन्य हिस्से और शहर में, नरेंद्र मोदी ऐसा कोई अवसर नहीं खोना चाहते जब उन्हें अपने ‘सुशासन और विकास के गुजरात माडल’ के आधार पर प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को मजबूती से पेश करने का मौका मिल सके. राहुल गांधी ने भारतीय उद्योग परिसंघ की द्विवार्षिक सालाना बैठक में जहां उनके एकाधिकारवादी कार्यशैली पर प्रहार किया, मोदी ने उसी दिन गांधीनगर में एक पुस्तक के लोकार्पण समारोह में यह जताने की कोशिश की कि वह ‘भाषणवीर’ नहीं ‘कर्मवीर’ हैं. सिर्फ बोलते नहीं बल्कि करके दिखाते हैं. उनकी सरकार ने पिछले दस वर्षों में गुजरात में जो विकास कार्य किए हैं उस पर दुनिया भर से लोग रिसर्च करने आ रहे हैं. देश के आर्थिक विकास के बारे में अपने रोड मैप को समझाने के लिए मोदी आठ अप्रैल को राजधानी दिल्ली में उद्योगपतियों के एक दूसरे मजबूत संगठन फिक्की की महिला शाखा के सम्मेलन को संबोधित करने आ रहे हैं.

हालांकि गुजरात अपनी स्थापना के समय से ही देश के विकसित राज्यों की सूची में रहा है. मोदी के विकास माडल से विकसित राज्यों की सूची में उसके 'नंबर वन' हो जाने की बात तो अब भी नहीं कही जाती. और फिर, जब भी उनके गुजरात माडल की चर्चा होती है, उनके शासन में 2002 में गुजरात में हुए गोधरा कांड और उसकी प्रतिक्रिया में शासन-प्रशासन द्वारा 'प्रायोजित-समर्थित' कहे जानेवाले सांप्रदायिक दंगों की चर्चा भी अनिवार्य रूप से होती है जिसमें हजारों लोग मारे गए और बेसहारा हो गए थे. यह भी एक कारण हो सकता है कि कई धुर गैर कांग्रेसी दल और  नीतीश कुमार जैसे नेता भी उनके नेतृत्व में राजग सरकार की कल्पना मात्र पर विचार करने के लिए भी तैयार नहीं होते. नीतीश कुमार को तो मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जाना भी कबूल नहीं.

हाल के दिनों में एक सकारात्मक बात यह उभरकर आई है कि प्रधानमंत्री पद के संभावित दावेदार अपनी सोच और कार्ययोजनाओं के साथ शिक्षण संस्थानों से लेकर उद्योगपतियों के मंचों पर भी सार्वजनिक बहस में शामिल होने लगे हैं. आने वाले दिनों में इन मंचों पर और खबरिया चैनलों पर भी  यह क्रमऔर तेज होने की उम्मीद की जा सकती है, जब एकल भाषण के बजाए हमारे भावी कर्णधार आमने-सामने की बहस में शामिल होंगे और उनसे और उनकी सोच से जुड़े सवालों से भी दो चार होने लगेंगे.
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(7 अप्रैल 2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित साप्ताहिक स्तम्भ )    

Thursday, 4 April 2013

गरम, नरम, मुलायम


 पिछले नौ वर्षों में यूपीए सरकार पर आए तमाम राजनीतिक संकटों के समय मुख्य संकट मोचन की भूमिका में नजर आते रहे समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के बोल अचानक उनके नाम के विपरीत कठोर होने लगे हैं. कांग्रेस को कभी वह धोखेबाजों की पार्टी करार दे रहे हैं तो कभी उस पर सीबीआई और आयकर विभाग के जरिए विरोधियों, यहां तक कि समर्थकों को को भी डराने-धमकाने और उसके राजनीतिक दुरुपयोग के आरोप भी लगा रहे हैं. राजनीतिक ज्योतिषी की तरह वह लोकसभा के चुनाव इस साल अक्टूबर-नवंबर में ही कराए जाने की भविष्यवाणी भी कर रहे हैं. लेकिन पल-पल में पाला बदलने के लिए मशहूर मुलायम इसके साथ ही यह कहना भी नहीं भूल रहे कि सरकार से वह फिलहाल अपना समर्थन वापस नहीं लेने जा रहे हैं.

तृणमूल कांग्रेस के बाद द्रविड़ मुनेत्र कझगम के भी यूपीए-सरकार से अलग हो जाने के बाद संसद में सरकार अल्पमत में आ गई साफ नजर आ रही है. एक तरह से सरकार मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी के सहयोग-समर्थन पर पहले से कहीं ज्यादा आश्रित नजर आ रही है. मुलायम सिंह इस स्थिति को पूरी तरह से भुनाने की कोशिश में जुटे हैं. अतीत का विषय बन चुके तथाकथित तीसरे मोर्चे को वह नए सिरे से खड़ा करने और उसकी धुरी खुद बनने के सपने भी देखने-दिखाने लगे हैं. यहां तक कि भाजपा और उसके लालकृष्ण आडवाणी सरीखे नेताओं के प्रति भी उनका प्रेम अचानक उमड़ने लगा है.

रअसल, श्रीलंका में तमिलों के ‘जन संहार’ या कहें मानवाधिकार हनन के सवाल पर सरकार से मनचाही प्रतिक्रिया नहीं मिल पाने से नाराज द्रमुक के यूपीए-सरकार से अलग हो जाने के बाद से केवल मुलायम ही नहीं देश में बहुत सारे लोगों को लगने लगा है कि लोकसभा के चुनाव इस साल अक्टूबर-नवंबर में होने वाले दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम विधानसभा के चुनावों के साथ ही कराए जा सकते हैं. मुलायम को इसमें राजनीतिक लाभ भी नजर आ रहा है. उन्हें लगता है कि उत्तर प्रदेश में दिनों दिन बिगड़ती कानून व्यवस्था की हालत के कारण उनके पुत्र अखिलेश यादव की सरकार के साथ जिस रफ्तार से लोगों का मोहभंग होने लगा है, लोकसभा के चुनाव जितनी देरी से होंगे, राजनीतिकतौर पर उनके लिए उतना ही नुकसानदेह होगा. इसके विपरीत उन्हें उम्मीद है कि चुनाव जल्दी होने पर पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मिले प्रचंड जनसमर्थन की पुनरावृत्ति संभव है.

 र अगर वह 40-50 सीटें जीत पाते हैं तो अन्य क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने की पहल उनके हाथ आ सकती है. उनके सामने बार-बार 1996 में एच डी देवेगौड़ा के नेतृत्व में बनी संयुक्त मोर्चा की सरकार का उदाहरण घूमते रहता है जब बहुमत के अभाव में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली सरकार के 13 दिन बाद ही धराशायी हो जाने के बाद कांग्रेस के समर्थन से बनी संयुक्त मोर्चा सरकार में 46 सीटों वाले जनता दल के नेता एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री और 17 सीटों वाली सपा के नेता मुलायम सिंह रक्षा मंत्री बन गए थे. एक समय ऐसा भी आया था जब देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री पद से हटने के समय वह प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए थे. तब से नेताजी प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोए हुए हैं. जब भी लोकसभा चुनाव की आहट तेज होती है, प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा जोर मारने लगती है. उन्हें लगता है कि अगले चुनाव में दोनों तथाकथित राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भाजपा का राजनीतिक ग्राफ बहुत ऊंचा चढ़ने वाला नहीं है. क्षेत्रीय दल ही सरकार बनाने-बनवाने की निर्णायक भूमिका में होंगे. उनकी निगाहें ममता बनर्जी और वामदलों, जनता दल (यू), बीजू जनता दल, एनसीपी, इंडियन नेशनल लोकदल, द्रमुक, अन्ना द्रमुक, अकाली दल, तेलुगु देशम, असम गण परिषद एवं अन्य क्षेत्रीय दलों के उनके साथ एकजुट होने और इस एकजुट मोर्चे को कांग्रेस अथवा भाजपा का समर्थन हासिल हो जाने पर टिकी हैं. यह भी एक कारण हो सकता है कि इन दिनों उनके मुंह से अचानक भाजपा और उसके नेताओं के बारे में अच्छी-अच्छी ‘मुलायम’ बातें निकल रही हैं. लेकिन उनके सामने कई बाधाएं हैं. वामदलों और ममता तथा द्रमुक और अन्ना द्रमुक के एक साथ किसी मोर्चे में आने की संभावना  द्विवा स्वप्न ही लगती है. कांग्रेस और भाजपा खुद भी गठबंधन राजनीति कर रही हैं. कई बड़े और महत्वपूर्ण क्षेत्रीय दल पहले से ही कांग्रेस अथवा भाजपा गठबंधन के साथ हैं. जनता दल (यू) एवं अकाली दल इस समय भाजपानीत राजग के महत्वपूर्ण घटक हैं जबकि एनसीपी यूपीए का घटक है.

 बसे बड़ी बाधा मुलायम सिंह की अपनी विश्वसनीयता को लेकर है. अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने की खातिर उनके मौके बे मौके पाला बदलते रहने और किसी को भी गच्चा देते रहने के कारण उन पर कोई भरोसा करने की स्थिति में नहीं है. दूसरे, कांग्रेस और भाजपा से इतर कोई भी मोर्चा इन दलों के सहयोग-समर्थन के बिना सरकार बनाने की सोच भी नहीं सकता. कांग्रेस और भाजपा एकाधिक बार स्पष्ट कर चुके हैं कि किसी भी हालत में वे किसी तीसरे-चौथे मोर्चे को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने वाले नहीं हैं. भाजपा ने तो सवाल भी किया है कि नेताजी कांग्रेस से इतना ही त्रस्त हैं तो उसका साथ छोड़ क्यों नहीं देते.

राजनीति में कड़ी सौदेबाजी (हार्ड बार्गेनिंग) और कभी नरम तो कभी गरम रुख के लिए मशहूर मुलायम सिंह संभव है कि पर्दे के पीछे से कांग्रेस और यूपीए सरकार से कोई सौदा पटाने में लगे हों. संभव है कि वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने अपनी हाल की लखनऊ यात्रा के दौरान उन्हें और उनके मुख्यमंत्री पुत्र अखिलेश को किसी तरह का लालीपाप भी दिखाया हो. यह भी संभव है कि सीबीआई का डर उन्हें और मायावती को सरकार का समर्थन जारी रखने के लिए बाध्य कर रहा हो. उन्होंने कहा भी है कि सरकार का समर्थन करने वालों और उससे समर्थन वापस लेने वालों के पीछे सीबीआई और आयकर विभाग को लगा दिया जाता है. लेकिन जाहिरा तौर पर उन्हें यह भी पता है कि उनके समर्थन वापस ले लेने के बावजूद सरकार कम से कम संसद के चालू बजट सत्र में तो गिरने वाली नहीं है. उनके समर्थन वापस लेते ही मायावती सरकार के साथ और मजबूती से खड़ा हो सकती हैं. राष्ट्रपति के चुनाव के समय मुलायम सिंह से गच्चा खा चुकी ममता बनर्जी उनसे राजनीतिक बदला सधाने के लिए सरकार का ‘संकट मोचन’ बन सकती हैं और फिर सरकार से समर्थन वापस लेने के बावजूद श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रही ज्यादतियों के मुद्दे पर कुछ खास हासिल नहीं कर पाने की सार्वजनिक चिंता जताने वाले द्रमुक सुप्रीमो एम करुणानिधि के ताजा राजनीतिक संकेत भी बताते हैं कि सरकार में शामिल भले न हों, ठोस विकल्प के अभाव में वह प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से यूपीए का साथ दे सकते हैं. करूणानिधि हवा का रुख भांप लेनेवाले उन गिने चुने नेताओं में से हैं जिनकी पार्टी द्रमुक 1 9 9 6  से लेकर अबतक प्रायः सभी केंद्र सरकारों (1 9 98 से 19 99  के बीच की राजग सरकार अपवाद कही जा सकती है)  में शामिल रही है. सरकार के राजनीतिक प्रबंधक जनता दल (यू) के संपर्क में भी हैं.

 स स्थिति की कल्पना भाजपा को भी है, इसलिए भी वह सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए ज्यादा उत्साहित नजर नहीं आती. उसे यह भी एहसास है कि सरकार पर वास्तविक संकट खड़ा होने की स्थिति में मुलायम सिंह एक बार फिर उसके संकटमोचन नहीं बनेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है. और फिर उसे लगता है कि आने वाले दिनों में सरकार अपने अंतर्विरोधों के बोझ तले और दबती और कमजोर होती जाएगी. इससे बचने के लिए वह लोकसभा चुनाव समय से पहले भी करा सकती है. पिछले दिनों कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और फिर एक दिन बाद राहुल गांधी के द्वारा भी सांसदों से लोकसभा चुनाव के लिए तैयार रहने के आह्वान इस तरह के अनुमानों को और हवा देते हैं.

 न सबके बावजूद दक्षिण अफ्रीका के डरबन में ब्रिक्स देशों के सम्मेलन से लौटते समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का आत्म विश्वास गजब का नजर आया. उन्हें भी इस बात का एहसास तो है कि मुलायम सिंह कभी भी उनकी सरकार को गच्चा दे सकते हैं. लेकिन वह अपनी सरकार का कार्यकाल पूरा कर लेने और लोकसभा चुनाव समय पर यानी अगले साल अप्रैल-मई में ही कराए जाने को लेकर बेहद आश्वस्त नजर आए. इस हद तक कि अगला चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़े जाने और उन्हें ही अगला प्रधानमंत्री बनाए जाने के कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं के समवेत सुरों के बीच ही उन्होंने तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की संभावना के बारे में पूछे जाने पर मना करने के बजाए यह कहा कि वैसी स्थिति आने दीजिए, तब देखेंगे! उनका यह ‘आत्म विश्वास’ कांग्रेस के एक बड़े तबके में बेचैनी पैदा कर रहा है.
( 3 1 मार्च 2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित )

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Sunday, 17 March 2013

‘रिकार्डतोड’ सोनिया गांधी !



इस बार कांग्रेस  और उसके नेतृत्ववाले सत्तारूढ़ यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी पर लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं. तीन दिन पहले उन्होंने 127-28 साल पुरानी कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में 15 साल पूरा करने का रिकार्ड या कहें इतिहास बनाया. आप उनसे, उनकी पार्टी और उनकी राजनीतिक शैली से सहमत अथवा असहमत हो सकते हैं लेकिन इस सच से इनकार तो कतई नहीं कर सकते कि 14 मार्च 1998 को अंदर से बिखरी, लगातार दो चुनावी हारों से पस्तहाल कांग्रेस की कमान संभालने वाली विदेशी (इतालवी) मूल की इस महिला ने जिस तरह न सिर्फ कांग्रेस को एकजुट किया बल्कि आगे चलकर इसके नेताओं-कार्यकर्ताओं में जीत सकने और फिर से सत्तारूढ़ होने का जज्बा पैदा किया, वह वाकई बेमिसाल है. कांग्रेस का लगातार चार बार अध्यक्ष चुने जाने का भी उनका अलग तरह का राजनीतिक रिकार्ड है. इससे पहले लगातार चार बार और वह भी 15 वर्षों तक कांग्रेस का अध्यक्ष बने रहने का रिकार्ड और किसी के नाम नहीं है. 15 ही क्यों, कांग्रेस के मौजूदा संविधान के तहत सोनिया गांधी 2015 तक यानी दो साल और इस पद पर रह सकती हैं. पिछली बार 2010 में जब उनका चुनाव हुआ था, उसके बाद कांग्रेस के संविधान में संशोधन कर संगठनात्मक चुनाव पांच साल में एक बार अवश्य कराने का प्रावधान कर दिया गया था. वैसे भी, अगर श्रीमती गांधी उससे पहले अथवा उसके बाद कांग्रेस का अध्यक्ष पद अपने उपाध्यक्ष पुत्र राहुल गांधी को नहीं सौंप देतीं तो उन्हें 2015 के आगे भी अध्यक्ष बने रहने से कौन रोक सकता है. मौजूदा कांग्रेस में गांधी परिवार को चुनौती दे सकने की हैसियत आज किस कांग्रेसी नेता में है ? अतीत में शरद पवार से लेकर जितेंद्र प्रसाद तक जिस किसी ने उन्हें चुनौती देने की कोशिश की उसका राजनीतिक हश्र सबके सामने है.

सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष का पद सुशोभित कर चुके नेहरु-गांधी परिवार की पांचवीं सदस्य हैं. उनसे पहले पंडित मोतीलाल नेहरु, जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी भी कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके हैं. यह भी एक अजीब विडंबना है कि शुरुआती दिनों में राजनीति के प्रति अजीब तरह की बेरुखी व्यक्त करने वाली सोनिया कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में लगातार सफलता के कीर्तिमान कायम करते गईं. 1991 में जब उनके पति, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की श्रीलंका में सक्रिय तमिल आतंकी संगठन लिट्टे के आत्मघाती हमले में हत्या के बाद एक स्वर से देश भर के कांग्रेसजनों ने उनसे पार्टी और उसके नेतृत्व में बनने वाली सरकार का नेतृत्व स्वीकार करने का दबाव बनाया था तो कारण चाहे कुछ भी रहे हों, उन्होंने राजनीति के बारे में बड़ी हिकारतभरी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए साफ मना कर दिया था. लेकिन बाद के दिनों में वह कांग्रेस के अंदरूनी मामलों में रुचि जरूर लेती रहीं. 1996 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव की अध्यक्षता में कांग्रेस की बुरी पराजय और उसके बाद उनकी जगह गांधी परिवार के पुराने वफादार सीताराम केसरी के  कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति में आने के संकेत देने शुरू कर दिए थे. 1997 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में वह शामिल हुईं और बाकायदा कांग्रेस की प्राथमिक सदस्य भी बनीं. उन्होंने 1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए वोट भी मांगे. मुझे याद है कि उनकी पहली सभा 11 जनवरी को तमिलनाडु के श्रीपेरंबदुर में उसी जगह हुई थी जिसके बगल में सात साल पहले उनके पति राजीव गांधी की हत्या हुई थी. श्रीपेरंबदुर के बाद वह बेंगलुरु, हैदराबाद, कोच्चि और गोवा भी गई थीं. श्रीपेरंबदुर, बेंगलुरु और हैदराबाद की उनकी पहली सभाओं को कवर करने का सौभाग्य मुझे भी मिला था. तब मैं नई दिल्ली में दैनिक हिन्दुस्तान के साथ विशेष संवाददाता के बतौर जुड़ा था.
हालांकि 1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 141 सीटों के साथ पराजय का सामना ही करना पड़ा था. लेकिन चुनावी नतीजों के आने के कुछ ही दिन बाद 14 मार्च (अटल बिहारी वाजपेयी के राजग सरकार का दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के एक दिन पहले ) को कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को एक तरह से धकियाकर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और कांग्रेस की कमान सोनिया गांधी को सौंप दी गई. फिर तो उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने कांग्रेस की भावी राजनीति का खाका तैयार करने के लिए मध्यप्रदेश के पचमढ़ी में नेताओं का चिंतन शिविर लगाया. उसमें अन्य बातों के अलावा इस बात पर भी राय ली गई कि गठबंधन राजनीति के दौर में कांग्रेस को भी समविचार दलों के साथ गठबंधन राजनीति का हिस्सा बनना चाहिए कि नहीं. शिविर से यह राय निकली कि कांग्रेस को किसी तरह के गठबंधन का हिस्सा बनने के बजाय एकला चलो की रणनीति अपनाते हुए अपने बूते ही चुनाव जीतना और सरकार बनाना चाहिए. लेकिन यह रणनीति बुरी तरह विफल रही, 1999 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को इसके सुदीर्घ राजनीतिक इतिहास में संभवतः सबसे कम, 114 सीटें ही मिल सकीं. इसका एक कारण शायद यह भी था कि 1999 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव से पहले ही विदेशी मूल के बजाय किसी भारतीय मूल के व्यक्ति को ही कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की मांग के साथ लोकसभा में उस समय विपक्ष (कांग्रेस) के नेता, मराठा छत्रप शरद पवार ने पूर्व लोकसभाध्यक्ष पूर्नो ए संगमा, तारिक अनवर और पार्टी के पूर्व महासचिव देवेंद्रनाथ द्विवेदी के साथ मिलकर श्रीमती गांधी के खिलाफ बगावत सी कर दी थी. उन्होंने अपनी अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी बना ली थी.
 1998 और 1999 की चुनावी विफलता को देखते हुए सोनिया गांधी ने एक बार फिर कांग्रेस की भावी राजनीतिक दशा और दिशा पर विचार करने के लिए जुलाई 2003 में शिमला में कांग्रेस का दूसरा चिंतन शिविर आयोजित करवाया. इसमें ‘एकला चलो’ की रणनीति पर तात्कालिक विराम लगाते हुए समान विचारवाले दलों के साथ चुनाव पूर्व अथवा बाद भी गठबंधन करने की बात तय हुई. नतीजा सामने था. 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सीटें तो 145 ही मिलीं लेकिन उसके नेतृत्व में यूपीए की साझा सरकार बनी जिसे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और वाम दलों का बाहर से समर्थन प्राप्त था. उस समय कांग्रेस ने और यूपीए ने भी एक राय से श्रीमती गांधी को सत्तारूढ़ संसदीय दल का नेता यानी प्रधानमंत्री पद का दावेदार चुना था लेकिन कारण चाहे कुछ भी रहे हों, ऐन वक्त पर ‘राजनीतिक त्याग’ की अद्भुत मिसाल पेश करते हुए सोनिया गांधी ने अपनी जगह डा.मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया था. कहा जाता है कि प्रधानमंत्री बनने पर उनके विदेशी मूल के रूप में विपक्ष के हाथ एक मजबूत राजनीतिक हथियार मिल सकता था, इससे बचने के लिए भी उन्होंने मना कर दिया था. वैसे, अप्रैल 1999 में वह प्रधानमंत्री बनने के इरादे से ही समर्थक सासंदों की सूची के साथ राष्ट्रपति भवन की ड्योढ़ी तक गई थीं लेकिन तब ऐन वक्त पर मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी ने उनका राजनीतिक खेल बिगाड़ दिया था.

जो भी हो 2004 में आठ वर्षों के अंतराल के बाद बनी कांग्रेसनीत यूपीए की सरकार में सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनने के बावजूद सरकार और संगठन में भी सर्वशक्तिमान के रूप में उभर कर सामने आईं. उन्हें सत्तारूढ़ यूपीए और राष्ट्रीय विकास परिषद का अध्यक्ष बनाया गया. 2004 में फोर्ब्स पत्रिका ने उन्हें विश्व की तीसरी और 2007 में विश्व की छठी सबसे ताकतवर महिला घोषित किया. 2007-08 के लिए टाईम पत्रिका ने उन्हें विश्व की एक सौ सबसे महत्वपूर्ण शख्सियतों में शुमार किया. उनका राजनीतिक कौशल तो 2009 के चुनाव में देखने को मिला जब कांग्रेस को लोकसभा की दो सौ से ज्यादा सीटें मिलीं और उसके नेतृत्व में यूपीए लगातार दूसरी बार सत्तारूढ़ हुआ. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही बने. इस बीच कांग्रेस संगठन और सरकार पर भी पकड़ मजबूत बनाते हुए सोनिया गांधी ने नई पीढ़ी, अपने सांसद एवं कांग्रेस के महासचिव पुत्र राहुल गांधी के अपेक्षाकृत युवा हाथों में अपना उत्तराधिकार यानी कांग्रेस की बागडोर सौंपने की कवायद शुरू  कर दी है. जयपुर में कांग्रेस के तीसरे चिंतन शिविर से राहुल गांधी कांग्रेस संगठन में नंबर दो यानी उपाध्यक्ष के रूप में निकले. उनके पास अभी कांग्रेस अध्यक्ष का औपचारिक ठप्पा नहीं है लेकिन माना जा रहा है कि कांग्रेस लोकसभा का अगला चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ेगी.

इन बीते 15 वर्षों में कांग्रेस संगठन में जान फूंकने और जीत का जज्बा पैदा करने का श्रेय अगर श्रीमती गांधी को है तो कुछ विफलताएं भी उनके नाम हैं, मसलन कभी कांग्रेस का राजनीति का गढ़ रहे हिंदी पट्टी के उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस को इसका गौरवशाली अतीत वह नहीं दिला सकीं. गुजरात में लगातार चार-पांच चुनावों से उनकी पार्टी सत्ता से दूर है. महाराष्ट्र में शरद पवार की राकांपा के साथ गठबंधन इसकी मजबूरी सी बन गई है. तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल में और अब तो आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस किसी सहयोगी दल के ही भरोसे है. अपने बूते इन राज्यों में आज भी कांग्रेस न तो सत्तारूढ़ होने का दम भर सकती है और ना ही वहां लोकसभा की सर्वाधिक सीटें जीत सकने का दावा. कई राज्यों में कांग्रेस संगठन लुंज पुंज दशा में है. प्रदेश अध्यक्ष त्यागपत्र दे चुके हैं, उनके स्थानापन्न की घोषणा अरसे से लटकी पड़ी है. वह कांग्रेस संगठन में अदंरूनी लोकतंत्र बहाल करने में भी सफल नहीं हो सकी हैं. इसकी चर्चा कई अवसरों पर राहुल गांधी भी कर चुके हैं और सबसे बड़ी बात यह कि 1998 में भी कांग्रेस गांधी परिवार की मोहताज थी, आज 15 साल बाद भी है, इसे आप कमजोरी कह सकते हैं और इसकी ताकत भी.
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