कमाल अता तुर्क के देश में
जयशंकर गुप्त
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इस्तांबुल में एशिया-यूरोप का संगम सामने दिख रही सुल्तान अहमद मस्जिद |
अता तुर्क (राष्ट्र पिता) के नाम से सम्मानित तुर्की गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति कमाल पाशा के देश में जाने, मुस्लिम देश होने के बावजूद धर्मनिरपेक्ष देश होने, कमाल पाशा के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक सुधारों, ईरान की इस्लामी क्रांति के तुर्की पर पड़ रहे प्रभावों आदि को लेकर मन में उठ रही जिज्ञासा के साथ 22 मार्च की सुबह को हम ईरान के बजरगान से लगनेवाली तुर्की की सीमा में प्रवेश के लिए सीमा आव्रजन (इमिग्रेशन) कार्यालय पर थे. वीसा को लेकर शुरू से ही दिक्कतों का सामना करना पड़ा. तथाकथित ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के बावजूद पाकिस्तान के जत्थे को तुर्की सरकार ने वीसा नहीं दिया. लिहाजा उन्हें तेहरान से सीरिया की राजधानी दमिश्क होकर लेबनान जाना पड़ा. तेहरान में रह कर पढ़ाई कर रहे पाकिस्तानी छात्र मोहतशिम और उनकी लेबनानी बीवी तो हमारे साथ ईरान-तुर्की की सीमा तक आए भी लेकिन उनके पास चूंकि पाकिस्तानी पासपोर्ट था, उन्हें भी लौटा दिया गया. वीसा की समस्या हमारे और फिल्मकार राजकुमारी अस्थाना के सामने भी आई क्योंकि हमारा नाम मार्च में शामिल होने वालों की सूची में बाद में जुड़ा था. लोग तमाम तरह की अटकलें लगा रहे थे. यह भी लगा कि हमें भी वापस हमारे हिन्दुस्तान भेजा जा सकता है. माथे पर पसीने की लकीरें बढ़ रही थीं. हालांकि सुरेश खैरनार जी एवं फीरोज मिठीबोरवाला आश्वस्त कर रहे थे कि हमारे साथ ऐसा नहीं होगा और जरूरत पड़ी तो वे लोग इसका भी इंतजाम करेंगे.
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ईरान की सीमा से लगी तुर्की की सीमा पर आव्रजन कार्यालय के बाहर
एशिया और यूरोप का संगम !
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लेकिन इस तरह के उहापोह के बीच सबके साथ हमें भी उस समय घनघोर आश्चर्य हुआ जब हमें हमारा पासपोर्ट देखते ही तत्काल, बिना किसी हीला-हवाली के, वीसा क्लीयरेंस मिल गया. पता चला कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमारे पासपोर्ट पर अमेरिका का वीसा लगा हुआ था. माना गया कि जो अमेरिका हो आया है, वह तुर्की के लिए भी ‘खतरनाक’ नहीं होगा. तुर्की उन मुस्लिम देशों में संभवतः पहला था जिसने सरकार के स्तर पर इजराइल को सबसे पहले मान्यता दी थी.
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तुर्की के आब्रजन कार्यालय के बाहर |
यूरेशिया में स्थित तुर्की या कहें टर्की को एशिया और यूरोप का संगम भी कहते हैं. इसका कुछ भाग यूरोप में तथा अधिकांश भाग एशिया में पड़ता है, इसलिए इसे यूरोप एवं एशिया के बीच का 'पुल' भी कहा जाता है. इसके वाणिज्यिक राजधानी शहर इस्तांबुल के इजीयन सागर (Aegean sea) के बीच में आ जाने से इस पर बने पुल के दो भाग हो जाते हैं, जिन्हें साधारणतया यूरोपीय टर्की (थ्रेस) तथा एशियाई टर्की (अनातोलिया) कहते हैं. तुर्की के तकरीबन 473896 वर्ग किमी के क्षेत्रफल में यूरोपीय टर्की (पूर्वी थ्रैस) का क्षेत्रफल 14524 वर्ग किमी तथा एशियाई टर्की (अनातोलिया) का क्षेत्रफल 459387 वर्ग किमी बताया जाता है. तुर्की की सीमाएं पूर्व में रूस और ईरान, दक्षिण की ओर इराक, सीरिया तथा भूमध्यसागर, पश्चिम में ग्रीस और बुल्गारिया और उत्तर में कालासागर से लगती हैं. तुर्की की तकरीबन 7.5 करोड़ की आबादी में सर्वाधिक आबादी तुर्कों की है जबकि कुर्द, अर्मेनियाई, अल्बेनियाई, अरब, अजरबैजानी, बुल्गार और अन्य अल्पसंख्यक समूहों के लोग भी बड़ी मात्रा में रहते हैं. आधिकारिक भाषा तुर्की है लेकिन कुर्द, अरबी, अजेरी, आदि भाषाएं भी बोली, लिखी जाती हैं. लेकिन धर्म के मामले में नब्बे फीसदी से अधिक आबादी मुस्लिम होने के बावजूद तुर्की का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है. शासन के स्तर पर धर्मिनरपेक्षता पर अमल होता है. धर्म वहां सरकारी नहीं बल्कि व्यक्तिगत नैतिकता, व्यवहार तथा विश्वास तक सीमित है.
तुर्की दुनिया के सबसे पुराने बसे हुए क्षेत्रों में से एक माना जाता है. तुर्की के हजारों वर्षों इतिहास में कई सभ्यताओं के बीच टकराव और संघर्ष दर्ज हैं जिनमें से दो प्रमुख थीं-यूनानी, रोमन और तुर्क. ईसा से 1200 वर्ष पूर्व यूनानियों ने यहां अनेक शहर बसाए, जिनमें एक का नाम था बाइजैन्टियम. बाद में यही शहर इस्तांबुल कहलाया. यूनानियों के बाद यहां कोंस्तांतिन प्रथम के नेतृत्व में रोमन साम्राज्य का आधिपत्य हुआ तब बाइजैन्टियम का नाम कोंस्टनटिनोपल या कुस्तुनतुनिया रखा गया, तब तक रोमन साम्राज्य के ईसाई धर्म ने तुर्की में अपनी पकड़ जमा ली थी.
समय बीता और इतिहास का चक्र आगे बढ़ा. सन् 900-1,000 के आसपास सेल्जुक तुर्कों ने रोमन साम्राज्य को हराकर तुर्की का तुर्कीकरण और इस्लामीकरण, दोनों प्रारंभ किया. कुछ समय बाद मंगोल आक्रमणकारी तुर्की तक आ पहुंचे. सेल्जुक तुर्क मंगोलों से हार गए. वैसे तो मंगोल योद्धा विजेता बनने के बाद वापस लौट गए. बाद में सेल्जुक साम्राज्य के उस्मान प्रथम ने उस्मानी (ऑटोमन) राजवंश की नींव रखी, जिसने तुर्की पर अगले लगभग 650 वर्ष राज किया. प्रथम विश्व युद्ध में उस्मानियों ने जर्मनी का साथ दिया और युद्ध में हार के बाद विराम संधि के अंतर्गत उस्मानी साम्राज्य के कुछ भाग ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, ग्रीस आदि में बंट गए. 1922 में तुर्की की सेना में फील्ड मार्शल रहे, क्रांतिकारी और प्रगतिशील विचारों वाले राजनेता मुस्तफा कमाल पाशा ने जंगे आजादी का ऐलान किया और तुर्की की आजादी हासिल की. और इस तरह 29 अक्तूबर 1922 को तुर्की स्वतंत्र एवं संप्रभु गणराज्य के रूप में अस्तित्व में आया. अंकारा देश की राजधानी घोषित हुई और आधुनिक तुर्की गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति बने मुस्तफा कमाल पाशा. वह मृत्यु पर्यंत, 1938 तक तुर्की के राष्ट्रपति रहे. बाद में उन्हें अता तुर्क यानी राष्ट्रपिता के सम्मान से नवाजा गया.
खास है ‘अया सोफिया’
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चर्च, मस्जिद और संग्रहालय, मस्जिद का रूप बदलती रही अया उर्फ हागिया सोफिया |
तुर्की के गौरवशाली लेकिन हमलों और आपसी टकराव के साक्षी रहे इतिहास की गवाह ‘अया या कहें हागिया सोफिया’ भी है, जो विश्व की सर्वश्रेठ स्थापत्य कलावाली इमारतों में से एक है. बताया जाता है कि छठी शताब्दी में बाइजैन्टिन शहंशाह जस्टिनियन प्रथम एक ऐसा गिरजाघर बनाना चाहते थे, जो रोम की इमारतों से भव्य हो और जो स्वर्ग की सुंदरता धरती पर ले आए. उनकी देख रेख में कई वर्षों (532-537) के निरंतर निर्माण के बाद एक ऐसी इमारत बनी, जिसे देख कर शहंशाह मुग्ध हो उठे. ईसाई धर्म के धार्मिक दृष्य दर्शाने वाले कुट्टभि चित्र (मोजेक), ऊंचे स्तंभ, जिन पर टिका है, इस इमारत का विशेष आकर्षण, इसका ऊंचा गुंबद. आज से 1500 साल पहले इस गुंबद की परिकल्पना और निर्माण शायद किसी जादूगर ने ही की होगी!
कांस्टेंटिनपोल के तुर्की पर जीत के बाद 1453 में उस्मानी राजवंश ने इस्तांबुल पर कब्जा किया तो यहां के नागरिकों ने ‘अया सोफिया’ में जमकर लूट-पाट की. मेहमूद द्वितीय के आदेश पर इस गिरजाघर को मस्जिद में बदल दिया गया. ईसा मसीह और मरियम के चित्र तोड़े तो नहीं गए, पर प्लास्टर से ढक जरूर दिए गए. दीवारों पर कुरान की आयतों के टाइल लगा दिए गए. मुअज्जिन के लिए स्थान बनाया गया. चार मीनारें बनीं और लगभग 500 वर्ष तक इसे इस्लाम धर्म की प्रमुख मस्जिदों में गिना गया. लेकिन सत्तारूढ़ होने के बाद मुस्तफा कमाल पाशा ने एक क्रांतिकारी निर्णय लिया कि ‘अया सोफिया’ जैसी खूबसूरत इमारत न तो मस्जिद होगी और न ही गिरजाघर. 1935 में उसे सरकारी संग्रहालय घोषित कर दिया गया. अभी पूरी दुनिया से करोड़ों पर्यटक इसे देखने यहां आते हैं. इस खूबसूरत इमारत का आनंद लेते हैं जिसमें ईसाई और इस्लाम धर्म दोनों समाविष्ट हैं. बाद में उसे यूनेस्को संरक्षित विश्व इमारतों में शामिल कर लिया गया. (इधर, जुलाई 2020 में तुर्की के मौजूदा राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोगन ने एक बार फिर से अया सोफिया का रूपांतरण मस्जिद के रूप में करने का विवादित फरमान जारी कर दिया जिसका देश-विदेश में भी भारी विरोध हुआ. दरअसल, एर्दोगन अरब देशों में अपने कट्टरपंथी विचारों के साथ नया खलीफा बनने के प्रयासों में दिख रहे हैं. हालांकि उन्होंने फिलीस्तीन के सवाल पर किसी तरह का समर्थन-सहयोग नहीं किया है).
अया सोफिया के सामने 'ब्ल्यू मास्क'
हालांकि उस्मानी साम्राज्य के एक सुल्तान अहमद ने इस्तांबुल में एक और मस्जिद बनाने का निर्णय लिया, जबकि उस समय की सबसे बड़ी मस्जिद ‘अया सोफिया’ वहां पहले से मौजूद थी. सुल्तान अहमद ने इसका निर्माण भी ‘अया सोफिया’ के बिल्कुल सामने किया. इसलिए इसे सुल्तान अहमद मस्जिद भी कहा जाता है. सुल्तान इस मस्जिद को स्थापत्य के मामले में अया सोफिया से भी शानदार इमारत बनाना चाहते थे. बना भी बहुत खूब, उस्मानी वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण. पंचमुखी गुंबद, आठ छोटे गुंबद और छह मीनारें. लेकिन जब मक्का के तत्कालीन उलेमाओं ने इस मस्जिद पर छह मीनारें देखीं तो कुपित हो गए क्योंकि मक्का की मस्जिद-अल-हरम में उस समय छह मीनारें ही थीं और अन्य मस्जिदों में चार. उनका तर्क था कि कोई मस्जिद मक्का की मस्जिद-अल-हरम की बराबरी कैसे कर सकती है. उस जमाने में मक्का-मदीना उस्मानी राजवंश के जिम्मे ही था. तत्कालीन सुल्तान ने समस्या के समाधान के लिए एक समझौते के तहत हुक्म देकर मक्का की मस्जिद-अल-हरम में सातवीं मीनार का निर्माण करवाकर उसकी श्रेष्ठता साबित की. तब जाकर समस्या टली!
सुना था कि अया सोफिया की तरह ही इस विशाल नयनाभिराम मस्जिद की खूबसूरती देखते ही बनती है. कहते हैं कि इसका निर्माण ताजमहल बनाने वाले शिल्पकारों ने किया था. इसे नीली मस्जिद (ब्ल्यू मास्क) भी कहा जाता है. बाहर से तो नीला कुछ भी नहीं हैं, पर अंदर जाने पर नीले रंग के हजारों टाइल्स देखने को मिलते हैं, जिनमें फूल-पौधों की आकृतियां बनी हैं. इसमें अभिरंजित कांच जड़ित खिड़कियों से रोशनी छनकर मस्जिद के अंदर आती है. इस मस्जिद में पर्यटकों को भी जाने की छूट है. सच तो यह है कि दुनिया भर से हर साल 40-50 लाख पर्यटक और श्रद्धालु इस मस्जिद की महत्ता, भव्यता, इसके स्थापत्य को देखने और सजदा करने आते हैं. इसके लिए पर्यटकों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता लेकिन मस्जिद में प्रवेश के लिए उनके लिए निर्धारित वस्त्र धारण करना आवश्यक है. अगर किसी के पास निधार्धारित वस्त्र नहीं हैं तो वहां पर्यटकों के लिए निशुल्क दुपट्टा और लुंगी मिलती है ताकि मस्जिद की पवित्रता का सम्मान हो सके. लेकिन नमाज के समय पर्यटकों को अंदर जाने की अनुमति नहीं है. हम लोग भी ‘ब्ल्यू मास्क’ और अया सोफिया के भीतर नहीं जा सके लेकिन उसके कारण कुछ और थे जिसका जिक्र आगे करेंगे.
कहर ढाती कड़ाके की ठंड
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एरझुरुम शहर के बाहर सड़क के किनारे, पीछे बिछी बर्फ की चादरें |
बहरहाल, ठंड तो ईरान और उसके बजरगान इलाके में भी कम नहीं थी लेकिन तुर्की में प्रवेश के समय से ही तापमान तेजी से नीचे गिरने लगा था. दो-तीन दिन पहले ही पूरे इलाके में जबरदस्त बर्फबारी हुई थी. हालांकि मार्च महीने में इन इलाकों में इस तरह की बर्फबारी अनहोनी के रूप में ही देखी जा रही थी. तुर्की में राजधानी अंकारा पहुंचने तक अधिकतर जगहों पर तापमान शून्य और इससे कम ही मिला. बर्फ से ढकी पहाड़ियों के बीच गुजरते हुए हमारे कारवां का पहला पड़ाव तुर्की के पूर्वी अनातोलिया क्षेत्र में इग्दिर प्रांत की राजधानी इग्दिर के पास ‘फाइव स्वर्ड’ नामक स्मारक के पास रुका जहां बड़ी संख्या में आए तुर्की के लोगों ने कारवां का स्वागत बड़े जोश-खरोश के साथ किया. आसमान की तरफ उठी 40 मीटर लंबी पांच तलवारों के साथ बना यह स्मारक 1915 में आरमेनियाई सैनिकों द्वारा मारे गए तुर्की के तीन हजार लोगों की स्मृति में बनाया गया है. इग्दिर से तकरीबन 290 किमी आगे बढ़ने पर रात में एरझुरुम शहर में तापमान शून्य से 9 डिग्री सेल्सियश नीचे तक चला गया था. इसी एरझुरुम शहर में 2010 के ‘विंटर ओलंपिक’ खेलों का आयोजन हुआ था. एरुझुरुम में हम लोग थोड़ी देर रुके. एक पार्क में जमी बर्फ में पांव धंसाकर खड़े हुए, वहां सभा भी हुई. रात का खाना भी हुआ. लगा कि रात्रि विश्राम भी वहीं होगा. लेकिन हम वहां रुके नहीं, रात में ही अंकारा के लिए रवाना हो गए. रात भर वातानुकूलित वाल्वो बस में सफर करते हुए तकरीबन 870 किमी दूर तुर्की की राजधानी अंकारा पहुंचने के बाद ही ठंड में कुछ कमी महसूस की जा सकी.  |
इग्दिर में 'फाइव स्वर्ड' के पास कारवां का प्रदर्शन
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हर बात के पैसे !
तुर्की में हर बात के पैसे लगते हैं. यहां तक कि बजरगान से सीमा पार कर तुर्की में प्रवेश के समय आब्रजन कार्यालय से लगी कैफीटेरिया के नीचे तलघर में बने मूत्रालय-शौचालय की सुविधा का इस्तेमाल करने पर दो लिरा (तुर्की की मुद्रा, उस समय भारतीय रु. के हिसाब से देखें तो तकरीबन 60-65 रु.) मांगे गए. हमारे पास लिरा नहीं था तो हमने दो (भारतीय) रु. का सिक्का थमा दिए लेकिन बात नहीं बनी. शौचालय के बाहर बैठे कर्मचारी ने हमें रोक कर लिरा में भुगतान करने को कहा. बाद में बाहरी मुसाफिर और मकसद जानने के बाद हमें यूं ही जाने दिया गया. रास्ते में पेट्रोल पंपों और होटल-रेस्तराओं में भी शौचालय की सुविधा इस्तेमाल करने के लिए एक से दो लिरा देने पड़ते थे. यहां तक कि कैमरे, मोबाइल और लैपटाप आदि इलेक्ट्रानिक उपकरणों की बैटरी चार्ज करने के लिए भी एक लिरा देना पड़ता था. अलबत्ता, सड़क पर मोटेल, रेस्तरां आदि पर नमाज पढ़नेवालों को इस शुल्क का भुगतान नहीं करने की छूट थी. रास्ते में जोर की आने पर भारतीय और पाकिस्तानी प्रतिनिधियों के सड़क किनारे खुले में पेशाब करना, बाकियों के लिए एक अचंभित करनेवाला अनुभव था. कई बार तो मजाक का विषय भी बने.
मुस्तफा कमाल पाशा के सुधार
और इस्लामी क्रांति का दबाव
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आधुिनक तुर्की के निर्माता मुस्तफा कमाल पाशा अता तुर्क
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तुर्की प्रवास के दौरान एक बात महसूस हुई. आधुनिक तुर्की के संस्थापक मुस्तफा कमाल पाशा की क्रांति और सुधारों के कारण भी तुर्की अपनी धर्मनिरपेक्षता के लिए मशहूर रहा है. अता तुर्क (राष्ट्र पिता) कहे जानेवाले कमाल पाशा ने एक धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक राष्ट्र की स्थापना के लिए तुर्की में तमाम सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक सुधार किये थे. उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को बहुत कड़ाई से लागू किया था. स्कार्फ ओढ़ने, टोपी पहनने पर पाबंदी लगाने से लेकर तुर्की भाषा में अजान देने जैसे कदम उठाये गए थे. ज्यादा समय नहीं बीता है जब तुर्की को दूसरे मुस्लिम देशों के लिए एक मिसाल के तौर पर पेश किया जाता था. लेकिन आज तुर्की भी बदलाव के दौर से गुजर रहा है. ईरान की इस्लामिक क्रांति से प्रभावित लोग तुर्की को भी इस्लामिक मुल्क बनाने की राह पर हैं. मजे की बात यह भी कि हमारी सभाओं और कार्यक्रमों में शामिल होने वाले लोगों में से अधिकतर लोग धार्मिक और कट्टर इस्लामी या कहें ईरान की इस्लामी क्रांति से प्रभावित लोग ही थे. जाहिर सी बात है कि तुर्की में क्रांति और सुधारों के जनक कमाल पाशा के बारे में इन लोगों की राय बहुत अच्छी नहीं थी. उसी तरह जैसे हमारे भारत में कट्टरपंथी हिन्दुओं का एक तबका राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में अच्छी राय नहीं रखता. लेकिन तुर्की में आम लोगों के बीच कमाल पाशा आज भी सबसे लोकप्रिय और श्रद्धेय राजनेता हैं, जैसे हमारे यहां गांधी जी. हमारे भारत का होने के बारे में पता चलते ही लोगों में हिन्दुस्तान और महात्मा गांधी की चर्चा शुरू हो जाती. युवाओं में शाहरुख खान और आमिर खान का जिक्र भी होता.
नोट ः अगली किश्त में तुर्की की राजधानी अंकारा, व्यावसायिक राजधानी और एशिया तथा यूरोप का संगम कहे जानेवाले इस्तांबुल शहर, विश्व प्रसिद्ध सूफी संत, शायर मौलाना जलालुद्दीन रूमी के शहर कोन्या और भूमध्य सागर के तट पर बसे बंदरगाह शहर मर्सिन और तैसुकु पर ग्लोबल मार्च यु येरूशलम में शामिल होने जा रहे एशियाई कारवां के साथ बीते रोचक और रोमांचक पलों से जुड़े संस्मरण के साथ और भी बहुत कुछ.
बहुत सुंदर यात्रा वृत्तांत।
ReplyDeleteBadhiya👍
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