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Saturday, 1 July 2017

रायसीना हिल्स पर राम नाथ


दावेदारी: पीएम मोदी और भाजपा नेताओं के साथ रामनाथ कोविंद

जयशंकर गुप्त
सत्रह जुलाई को कुछ असंभव-सा अप्रत्याशित नहीं हुआ तो भाजपा के दलित नेता, बिहार के पूर्व राज्यपाल, पूर्व सांसद रामनाथ कोविंद देश के 14वें राष्ट्रपति बन जाएंगे। सत्तारूढ़ एनडीए के उम्मीदवार कोविंद का रायसीना हिल्स पर आलीशान राष्ट्रपति भवन में बतौर प्रथम नागरिक स्थापित होना अब महज औपचारिकता ही रह गई है। हालांकि विपक्षी कांग्रेस और उसके साथ लामबंद तकरीबन डेढ़ दर्जन छोटे-बड़े दलों ने कोविंद के विरुद्ध एक और दलित नेता मीरा कुमार को खड़ा करके मुकाबले को रोचक बनाने की कोशिश की है। पूर्व उप-प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार केंद्रीय मंत्री और लोकसभाध्यक्ष रह चुकी हैं और उनकी शख्सियत भी वजनदार है। इससे पहले भी के.आर. नारायणन के रूप में दलित नेता देश के राष्ट्रपति बन चुके हैं (हालांकि पूर्व राजनयिक और केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके नारायणन दलित नेता के रूप में पहचान बताए जाने पर शर्ममिंदगी महसूस करते थे। वे कहते थे कि देश के प्रथम नागरिक के रूप में उनका चयन दलित होने के कारण नहीं, बल्कि योग्यता और अनुभव के आधार पर हुआ था) लेकिन संसदीय इतिहास में यह शायद पहली बार है कि सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए दो वरिष्ठ दलित नेता आमने-सामने हैं।
वैसे, कहने को तो सर्वोच्च पद के लिए किसी एक नाम पर आम राय बनाने की बात भी चली थी लेकिन भाजपा ने कोविंद के नाम पर विपक्ष तो क्या अपने सहयोगी दलों को भी भरोसे में लेने की आवश्यकता नहीं समझी। उन्हें उम्मीदवार बनाने की एकतरफा घोषणा करके विपक्ष के सामने चुनौती पेश की कि वह या तो सत्ता पक्ष के उम्मीदवार का समर्थन करे या फिर उसका सामना करे। विपक्ष ने दूसरा विकल्प चुना। वैसे भी, 1977 में नीलम संजीव रेड्डी के चुनाव को छोड़ दें तो तकरीबन सभी राष्ट्रपतियों के चुनाव मतदान के जरिए ही हुए।
दरअसल, इस बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आगामी विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनाव की रणनीति के तहत ही उत्तर प्रदेश के कानपुर में कोरी या कहें कोली समाज से आने वाले दलित नेता कोविंद को अपना उम्मीदवार बनाया है। बिहार में राज्यपाल से पहले दो बार राज्यसभा का सदस्य रह चुके कोविंद भाजपा के प्रवक्ता, अनुसूचित जाति मोर्चा, भारतीय कोली समाज के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश भाजपा के महासचिव रह चुके हैं। वे एक-एक बार लोकसभा और विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। इसी वजह से उन्हें 2014 में लोकसभा का टिकट भी नहीं मिला।
शायद यही कारण है कि 14वें राष्ट्रपति पद के लिए उनकी उम्मीदवारी की घोषणा हुई तो बहुतों को और मीडिया के एक बड़े तबके को भी आश्चर्य हुआ। हालांकि उनके नाम पर विचार तो पहले से ही हो रहा था। कम से कम इस लेखक ने आउटलुक के आठ मई के अंक में भाजपा के राष्ट्रपति पद के संभावित उम्मीदवारों में उनके नाम की चर्चा प्रमुखता से की थी। भाजपा सूत्रों के अनुसार उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में गैर-जाटव दलित और गैर-यादव पिछड़ी जातियों पर केंद्रित भाजपा की चुनावी रणनीति की सफलता को आधार मानकर ही उन्हें एनडीए का उम्मीदवार बनाया गया।
इस चुनावी रणनीति के जनक उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अब राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह बताए जाते हैं। कल्याण सिंह ही कोविंद को पहली बार 1990 में भाजपा की राजनीति में लाए थे। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि आलाकमान की राय में सवर्णों के बीच भाजपा का समर्थन आधार चरम पर पहुंच चुका है। लिहाजा, पार्टी अपनी चुनावी रणनीति दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों पर केंद्रित कर रही है। दलितों में खासतौर से चमार या जाटवों के बीच मायावती और कांग्रेस की पकड़ मजबूत है जबकि पिछड़ी जातियों में यादव आमतौर पर मुलायम सिंह-अखिलेश यादव और लालू प्रसाद तथा कुछेक राज्यों में कांग्रेस तथा अन्य गैर-भाजपा दलों के साथ बताए जाते हैं। लिहाजा, भाजपा ने आदिवासियों के साथ ही गैर-जाटव दलित और गैर-यादव अन्य पिछड़ी जातियों के बीच पैठ बढ़ाने की कवायद तेज कर दी।
इस लिहाज से प्रधानमंत्री मोदी के रूप में अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व पहले से ही होने के बाद अब सर्वोच्च संवैधानिक पद पर किसी आदिवासी या दलित को बिठाने की रणनीति पर विचार किया गया। दिखावे के लिए लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू और श्रीधरन के नाम भी चर्चा में लाए गए थे। आडवाणी की दावेदारी तो खुद मोदी ने सोमनाथ यात्रा के दौरान अमित शाह और पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की मौजूदगी में यह कहकर बढ़ा दी थी कि आडवाणी जी को राष्ट्रपति बनवाना उनके लिए गुरु दक्षिणा होगी। ठगे-से महसूस कर रहे आडवाणी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उन्हें ऐसी गुरु दक्षिणा मिलेगी!
दरअसल, भाजपा और संघ परिवार के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार अंतिम क्षणों में चर्चा सिर्फ दो नामों-झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू और बिहार के राज्यपाल कोविंद पर ही सिमट गई थी। ओडिशा की द्रौपदी मुर्मू के लिए अंग्रेजी तथा हिंदी भाषा की अज्ञानता संभवत: उनकी उक्वमीदवारी पर भारी पड़ गई। उनके समर्थन में यह तर्क था कि उनके चयन का लाभ ओडिशा में सत्तारूढ़ बीजद का समर्थन और कई राज्यों में आदिवासियों के बीच आधार मजबूत करने में मिल सकता है। हालांकि बीजद ने तो पहले ही एनडीए के उम्मीदवार को समर्थन देने की घोषणा कर दी थी।
कोविंद के पक्ष में तर्क दिए गए कि करीबी संबंधों के चलते सिर्फ नीतीश कुमार और जदयू का ही समर्थन नहीं मिलेगा, बल्कि उत्तर प्रदेश का होने के नाते मायावती और उनकी बसपा को भी समर्थन पर मजबूर होना पड़ेगा। यह नहीं भी होता है तो उत्तर प्रदेश में दलितों का बड़ा तबका भाजपा के साथ हो जाएगा और फिर गुजरात, राजस्थान तथा मध्यप्रदेश में कोली समाज को भाजपा से जोड़ने में सफलता मिलेगी।
हालांकि गुजरात में तेजी से उभरे युवा दलित नेता जिग्नेश मेवानी नहीं मानते कि सिर्फ दलित और कोली होने के कारण गुजरात में और देश के अन्य हिस्सों में भी दलित भाजपा का साथ देंगे। वे कहते हैं, ''भाजपा वाले समझते हैं कि दलित समाज में पैदा हुए रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति के पद के लिए नॉमिनेट करके उन्होंने 'मास्टर स्ट्रोक’ मारा है। लेकिन अब दलित ऐसे पैंतरों के झांसे में आने वाले नहीं।’
अगले चुनाव में दलितों को अपने पाले में लाने का फायदा मिले न मिले फौरी तौर पर भाजपा को इस रणनीति में कामयाबी मिलती साफ दिख रही है। विपक्ष की एकजुटता के पक्षधर नीतीश कुमार ने राज्यपाल के रूप में कोविंद की तटस्थ भूमिका के आधार पर समर्थन की घोषणा कर विपक्षी दलों में खलबली मचा दी। बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, अन्ना द्रमुक के दोनों धड़ों और वाईएसआर कांग्रेस ने पहले ही एनडीए उम्मीदवार के समर्थन की घोषणा कर दी थी। नीतीश कुमार का एक तर्क यह भी था कि कोविंद की राजनैतिक पृष्ठभूमि आरएसएस से जुड़ी नहीं है। वे 1977 से 1979 के दौरान तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार के समय केंद्र सरकार के वकील और तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री कार्यालय में निजी सहायक थे। हालांकि विपक्ष के अन्य नेता यह समझाने में लगे हैं कि संघ से जुड़े नहीं होने का मतलब कोविंद का धर्मनिरपेक्ष होना नहीं है।
जनवरी 2016 में गांधीनगर में गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में कोविंद के एक भाषण की चर्चा भी हो रही है। उसमें उन्होंने कहा था कि गांधी और नेहरू का लक्ष्य सत्ता प्राप्त करना था। भाजपा प्रवक्ता के बतौर उनके एक कथन को भी उछाला जा रहा है, जिसमें उन्होंने ईसाइयों और मुसलमानों को एलियन यानी बाहरी करार दिया था।
दूसरी तरफ, कोविंद की उम्मीदवारी और नीतीश कुमार के पलटे रुख से बौखलाई कांग्रेस और उसके साथ खड़े बाकी विपक्ष ने भाजपा की राजनैतिक चाल की काट के लिए और उससे भी अधिक विपक्ष के बिखराव को रोकने के तहत मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया है। सोचा यह गया था कि बिहार की बेटी के नाम पर नीतीश फैसले पर पुनर्विचार करेंगे लेकिन यह सब बेअसर रहा। नीतीश ने साफ किया है कि कोविंद को उनका समर्थन जारी रहेगा, अलबत्ता वे 2019 में विपक्ष की एकता के पक्ष में हैं और राजग के साथ नहीं जाने वाले। सूत्र बताते हैं कि नीतीश विपक्ष के प्रत्याशी के रूप में महात्मा गांधी के पौत्र गोपाल कृष्ण गांधी के नाम की घोषणा करवाना चाहते थे। लेकिन मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाने का एक फायदा विपक्ष को इस रूप में जरूर मिला कि कोविंद की उम्मीदवारी से पसोपेश में पड़ गई मायावती को वापस विपक्ष के पाले में आने का बहाना मिल गया। हालांकि राजनैतिक प्रेक्षकों का मानना है कि विपक्ष की एकजुटता के लिए कांग्रेस ज्यादा गंभीर नहीं दिख रही है। वरना, समय रहते आम आदमी पार्टी, बीजद, तेलंगाना राष्ट्र समिति, वाईएसआर कांग्रेस और इनेलो को भी साधने की पहल क्यों नहीं की गई।
दूसरी तरफ कोविंद की जीत के प्रति आश्वस्त भाजपा के रणनीतिकार जीत के मतों का अंतर बढ़ाने की कवायद में लगे हैं। एक रणनीतिकार बताते हैं कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले भाजपा और इसके सहयोगी-समर्थक दलों का समर्थन आधार 49 फीसदी से कुछ कम ही बन पा रहा था। लेकिन अब उसे तकरीबन 60 फीसदी मतों का आश्वासन है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव में लोकसभा और राज्यसभा के साथ विधानसभाओं (विधान परिषद नहीं) के निर्वाचित सदस्य ही मतदान कर सकते हैं।
हालांकि प्रथम नागरिक के चुनाव में आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। मीरा कुमार की जाति को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर उनके पति को ब्राह्मण बताया जा रहा है जबकि वह जन्मना दलित हैं और उनकी शादी पिछड़ी जाति के मंजुल कुमार के साथ हुई है। उन पर दलितों के हित में कभी कुछ खास न करने और अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करते रहने के आरोप लगाए जा रहे हैं। इसी तरह के आरोप कोविंद पर भी लग रहे हैं। उनके बारे में तो सांसद रहते अपने ही मकान को सांसद निधि के खर्चे से 'बारात घर’ में तब्दील करवा लेने के आरोप भी लग रहे हैं। महिलाओं के लिए संसद और विधायिकाओं में 33 फीसदी आरक्षण का विरोध करने के कारण उन पर महिला विरोधी होने के आरोप भी लग रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि चुनाव अभियान के जोर पकड़ने के साथ ही दोनों उम्मीदवारों और उनके समर्थकों के बारे में आरोप-प्रत्यारोपों के और तीखे और तेज होने की आशंका है। लेकिन सच यह भी है कि आरोप-प्रत्यारोप माहौल तो बना-बिगाड़ सकते हैं लेकिन इस चुनाव के नतीजे नहीं बदल सकते।