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Thursday, 1 November 2018

शीर्षासन या संघ का वैचारिक कायापलट!

भाजपा की पितृ कहें या मातृ संस्था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने संगठन, विचारधारा और कार्यशैली को लेकर भारी कश्मकश के दौर से गुजर रहा है. खासतौर से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के आरएसएस की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे आतंकी संगठनों के साथ करने, गोहत्या और लव जिहाद के विरोध में माॅब लिंचिंग जैसी घटनाओं में उसके सांप्रदायिक, मनुवादी और फासिस्ट सोच और चरित्र का विद्रूप सामने आने के बाद से परेशान संघ का नेतृत्व अपनी छवि सुधारने और चमकाने और बदलती परिस्थितियों के मद्देनजर खुद को ढालने या कहें कि अपनी एक सकारात्मक छवि पेश करने की कोशिशों में लगा है. आमतौर पर पर्दे के पीछे गोपनीय गतिविधियों में लिप्त रहने वाले संघ ने पिछले दिनों खुलकर सामने आने की कोशिश की. संघ के पुराने तकरीबन सभी सर संघचालक सार्वजनिक तौर पर बहुत कम बोलते रहे हैं लेकिन 2009 में संघ की कमान संभालने के बाद से ही पेशे से मवेशी डाक्टर रहे मोहन भागवत अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही बोल रहे हैं. कई बार उनके बोल विवादों का कारण भी बनते रहे हैं.
लेकिन हाल के वर्षों में संघ के संगठन और संसाधनों के मामले में भी चतुर्दिक विकास होने के बावजूद देश विदेश के बौद्धिक वर्ग के बीच उसकी सर्व सवीकार्यता नहीं बन सकी है. देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के बजाय अंग्रेजों का साथ देने की उसकी भूमिका, हिटलर की नस्ली तानाशाही और मुसोलिनी के फासीवाद के साथ ही देश में मनुस्मृति का समर्थक होने के कारण वह लगातार सवालों के घेरे में आलोचना का पात्र रहा है. संघ के आलोचक इस मामले में इसके दूसरे सर संघचालक माधव सादाशिव गोलवलकर उर्फ गुरु जी की पुस्तक ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ और 'बंच आफ थाट्स’ के उनके विचारों तथा विभिन्न अवसरों पर दिए गए भाषणों को  उद्धृत करते रहे हैं. हालांकि बाद के वर्षों में ‘बंच आफ थाट्स’ के कई नए संस्करण आए जिनमें से उनके द्वारा कही गई कुछ विवादित बातों को गायब किया गया लेकिन आप मूल रूप से उनके विचारों को तो नहीं बदल सकते. और फिर संघ की शाखाओं में प्रचारकों के पास राणा प्रताप बनाम अकबर और शिवाजी बनाम औरंगजेब के अलावा स्वयंसेवकों को गुरु गोलवलकर की बातों की घुट्टी ही तो पिलाई जाती रही है. यह घुट्टी संघ के स्वयंसेवकों के मन मस्तिष्क में इस कदर जम गई है कि इसके आगे कुछ सोचने विचारने और बोलने की उनमें क्षमता ही नहीं विकसित हो सकी. जब कभी आर्थिक, सामाजिक, वैदेशिक, वैज्ञानिक मामलों पर बहस होती है, वे लोग लड़खड़ा से जाते हैं. 
और हाल के वर्षों में खासतौर से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में और तकरीबन डेढ़ दर्जन राज्यों में भी भाजपानीत साझा सरकारों के आने के बाद जिस तरह से संघ परिवार से जुड़े लोगों का गो हत्या, लव जिहाद आदि के विरोध के नाम पर ‘माब लिंचिंग’ के जरिए जो विद्रूप चेहरा सामने आया है, और उस पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं, वह संघ की शिक्षाओं और उसके द्वारा पिलाई गई मुस्लिम, दलित और महिला विद्वेष की घुट्टी की ही देन है लेकिन उसको लेकर संघ और उसके द्वारा संचालित भाजपानीत सरकारों की छीछालेदर के बाद संघ के नेतृत्व को लगने लगा है कि दिखावे के तौर पर ही सही संघ को अपनी पुरानी खोल से बाहर आना ही होगा. इसके लिए एक सुविचारित योजना और तैयारी के साथ मोहन भागवत ने पिछले दिनों चार दिनों के दिल्ली प्रवास के दौरान बदलती परिस्थितियों के मद्देनजर ‘बदलते संघ’ की छवि पेश करने की कोशिश की.  
उन्होंने संघ की नजर में ‘भविष्य का भारत’ विषय पर सरकारी विज्ञान भवन में दो दिनों तक एकालाप किया और तीसरे दिन तकरीबन अपने लोगों के द्वारा ही संघ से जुड़े विवादित मुद्दों, जिनको लेकर उसकी आलोचना होती रही है, ऐसे तमाम विषयों पर पूछे गए सवालों के जवाब दिए. उन्होंने गुरु गोलवलकर के बहुत सारे विचारों, खासतौर से देश के लिए आंतरिक दुश्मनों के रूप में कम्युनिस्टों, मुसलमानों और ईसाइयों को परिभाषित करने को उस समय की परिस्थितियों के अनुकूल कह कर खारिज करने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि संघ अब अपने संस्थापक डा. केशव बलिराम हगडेवार और गुरु गोलवलकर के समय से काफी आगे आ चुका है. लेकिन अगर गोलवलकर के विचारों को निकाल बाहर कर दें तो संघ के पास वैचारिक पूंजी के बतौर बचता क्या है. उनके उन्हीं विचारों को लेकर तो संघ के स्वयंसेवक और नए जमाने के भक्त कम्युनिस्टों को देशद्रोही करार देते हैं और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध जहरीली बातें करते हैं. गौरतलब है कि इन आंतरिक दुश्मनों की पहचान भी गोलवलकर ने अंग्रजों के मुकाबले की थी. स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल नहीं होने और अंग्रेजों का साथ देने को तार्किक आधार देते हुए उन्होंने कहा था कि 'हमें अंग्रेजों से नहीं बल्कि अपने इन तीन आंतरिक दुश्मनों से लड़ने की जरूरत है.' 
अब दिखावे के तौर पर ही सही क्या संघ अपना हुलिया बदल सकेगा! संघ मामलों के एक जानकार कहते हैं कि मोहन भागवत का दिमाग खुद बहुत सारे मामलों में साफ नहीं है. वह एक बार तो संघ को संविधान के प्रति निष्ठावान बताते हैं और मनुस्मृति को खारिज नहीं करते और फिर संविधान से  धारा 370 और 35 ए को हटाने की बात भी करते हैं. बिहार विधानसभा के चुनाव के समय वह अपने मुखपत्रों-पांचजन्य और आर्गनाइजर को दिए साक्षात्कार में आरक्षण पर पुनर्विचार करने की बात कहते हैं और फिर राजस्थान, म.प्र., छत्तीसगढ़ और तेलंगाना विधानसभाओं के चुनाव के समय आरक्षण की वकालत करते हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार आरक्षण पर अपने पहले बयान के कारण उन्होंने बिहार में दलितों और पिछड़ों को भाजपा विमुख करने में योगदान किया था और अब वह आरक्षण विरोधी सवर्णों को भाजपा से दूर करने के लिए आग में घी डालने का काम कर रहे हैं. एससी, एसटी ऐक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को उलटने के लिए मोदी सरकार के स्टैंड से जले भुने सवर्णों के घावों पर भागवत के बयान ने नमक छिड़कने का काम ही किया है. इसी तरह संविधान के प्रति निष्ठां जतानेवाले भागवत सबरीमाला और अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का खुला विरोध करते हैं.   
कुछ साल पहले उन्होंने कहा था कि जिस तरह से अमेरिका में रहनेवाले  सभी लोग अमेरिकन होते हैं उसी तरह भारत में रहनेवाले सभी लोग हिंदू हैं. यानी आप संघ के हिंदू राष्ट्र में मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन या अपनी अलग धर्म और पहिचान के साथ समान हैसियत में नहीं रह सकते. लेकिन विज्ञान भवन में उन्होंने कहा कि मुसलमानों के बिना हिंदुत्व की अवधारणा बेमतलब और अधूरी है. 2013-14 से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के अन्य बड़े नेता 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा देते आ रहे हैं. पिछले साढ़े चार वर्षों तक इस पर चुप्पी साढ़े रहे  भागवत ने  पिछले दिनों (17 से 19 सितम्बर 2018) नई दिल्ली के विज्ञान भवन के अपने उद्बोधन में इससे असहमति जताते हुए 'कांग्रेस युक्त भारत' की बात कही.   
उन्होंने महिलाओं के सशक्तीकरण पर जोर दिया और कहा कि महिलाओं के प्रति विचार और व्यवहार में जमीन आसमान के अंतर को मिटाना होगा. हर मामले में महिलाओं को बराबरी की हिस्सेदारी दी जानी चाहिए. लेकिन इन्हीं मोहन भागवत ने कुछ साल पहले छह जनवरी 2013 को इंदौर में कहा था, ‘‘ पति की देखभाल के लिए महिला उसके साथ एक करार से बंधी होती है. पति और पत्नी के बीच एक करार होता है, जिसके तहत पति का यह कहना होता है कि तुम्हें मेरे सुख और घर की देखभाल करनी होगी और बदले में मैं तुम्हारी सभी जरूरतों का ध्यान रखूंगा. जब तक पत्नी करार का पालन करती है, पति उसके साथ रहता है. यदि पत्नी करार का उल्लंघन करती है, तो वह उसे त्याग सकता है.’’ इतना ही नहीं इससे कुछ पहले उन्होंने यह कहा था कि बलात्कार जैसी घटनाएं ग्रामीण भारत में नहीं, बल्कि शहरी भारत में होती हैं.
मोहन भागवत ने अपने नए अवतार में स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस के योगदान को सराहा. हालांकि इसके अलावा वह और कह क्या सकते थे. संघ को जनतांत्रिक संगठन बताने की कोशिश की लेकिन यह नहीं बता सके कि सर संघचालक से लेकर नीचे तक के पदों के लिए संघ के इतिहास में कोई चुनाव हुए भी हैं क्या. उन्होंने अपने प्रवचनों और प्रायोजित सवालों के जवाब में संघ को दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और अन्य पिछड़ी जातियों का हिमायती बताया लेकिन यह नहीं बताया कि उनके सभी सर्वोच्च पदों पर केवल द्विज और वह भी ब्राह्मण-इनमें से भी अधिकतर महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण ही क्यों हैं. संघ के राष्ट्रीय पदाधिकारियों और समूची राष्ट्रीय कार्यकारिणी में एक भी दलित, आदिवासी और महिला का नाम क्यों नहीं है. संघ में सूचना के बाद सोचना बंद क्यों हो जाता है, इसके जवाब में उन्होंने समझाने की कोशिश की कि सूचना लंबे विचार विमर्श के बाद दी जाती है इसलिए उसके बाद उस पर सोचने की जरूरत नहीं रह जाती. लेकिन यह तो फासिस्ट समाजों में होता है लोकतांत्रिक समाज में कतई नहीं. 
उन्होंने समलैंगिकता को समर्थन देकर मध्यप्रदेश में अपने भाजपा सरकार में वित मंत्री रहे राघव जी जैसे लोगों का मनोबल जरूर बढ़ाया. 
कुल मिलाकर संघ का जो मूल चरित्र है, उसमें फिलहाल तो बदलाव की कोई संभावना नजर नहीं आती. परिस्थितियों के दबाव में इसके नरम या उदार चेहरा को पेश करने की जितनी भी कोशिशें की जाएं, इसका मूल चरित्र नहीं बदल सकता. कुछ लोग मोहन भागवत के इन विचारों को सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव गोर्वाच्योव के ग्लासनोश्त से करने लगे हैं लेकिन ग्लासनोश्त के बाद पेरेस्त्रोइका भी हुआ था और उसके साथ ही सोवियत संघ का पतन कहें या विखंडन भी. क्या संघ इसके लिए तैयार है !

Sunday, 10 June 2018

Former President Pranab Mukharji at RSS Headquarter in Nagpur

संघ मुख्यालय, नागपुर में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी 

 गुरुवार, सात जून 2018 को पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नागपुर में रेशिम बाग स्थित आर एस एस के मुख्यालय में जाने और उनके भाषण को लेकर तमाम तरह की व्याख्याएं हो रही हैं. व्याख्या तो दो दिन पहले से ही तमाम टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर भी हो रही थीं, उनके भाषण के बाद व्याख्या की भंगिमाएं कुछ बदल सी गई हैं.
गुरुवार को ही शाम 5.40 बजे से 8.50 बजे तक हम भी इस पर चर्चा के लिए एक बड़े टीवी चैनल पर मौजूद. प्रणब बाबू का भाषण वाकई जोरदार और एक राजनेता की तरह का था, लेकिन संघ की अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं था. पूरे भाषण में उन्होंने एक बार भी संघ अथवा उसके संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार का नाम नहीं लिया. उनके गीत नहीं गुनगुनाए और नाही मंच पर मौजूद लोगों की तरह ध्वज प्रणाम किया और नहीं तो अपने सारगर्भित भाषण में उन्होंने परोक्ष रूप से संघ को राष्ट्र, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद पर परोक्ष रूप से अच्छी नसीहत भी दी. उन्होंने एक धर्म और एक भाषा की परिकल्पना को खारिज करते हुए भारतीय संविधान को राष्ट्रवाद का श्रोत बताया. उन्होंने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के हवाले से कहा कि देश में विविधता के लिए पर्याप्त जगह है. देश में 122 से ज्यादा भाषाएं और 1600 से ज्यादा बोलियां हैं. सात मुख्य धर्म और तीन जातीय समूह हैं. यही हमारी असली ताकत है, जो हमें दुनिया में विशिष्ट बनाती है. हमारी राष्ट्रीयता जाति-धर्म से बंधी नहीं है.
संघ मुख्यालय में उनकी मौजूदगी और उनके भाषण पर तकरीबन तीन घंटे की चर्चा की शुरुआत में ही हमने कहा था कि प्रणब कहां जाते हैं और क्या बोलते हैं यह उनका निजी मामला है. और यह भी कि वह वहां कुछ भी बोलें, इसका संघ की सेहत पर खास फर्क नहीं पड़नेवाला क्योंकि उनके स्वयंसेवक-प्रचारक आमतौर पर चिकना घड़ा होते हैं. इसकी तस्दीक करते हुए संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने भी अपने उद्बोधन में साफ कहा कि कार्यक्रम के बाद प्रणब प्रणब ही रहेंगे और संघ भी संघ ही रहेगा.
जाहिर सी बात है कि बाकी लोगों के लिए भी कुछ समय तक जुगाली करने से अधिक प्रणब दा के भाषण का विशेष महत्व नहीं रह जाएगा क्योंकि लोग भूल जाएंगे कि उन्होंने वहां कहा क्या क्या था. याद रहेगा या जिसे संघ के लोग अपनी वैधता साबित करने के लिए गाहे बगाहे याद करवाते रहंेगे, वह है, संघ मुख्यालय में उनकी उपस्थिति. और संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के बारे में स्मृति पुस्तिका में लिखे उनके वाक्य और इस अवसर पर उनके साथ ली गई तस्वीरें. आगे चलकर संघ के लोग उनके भाषण को भी तोड़ मरोड़ कर पेश करेंगे ही. प्रणब बाबू का इस्तेमाल उनके लिए अपने प्रोडक्ट को वैधता प्रदान करनेवाले एक विज्ञापन के माडल के रूप में ही किया जाएगा. इस तरह की जायज आशंका उनकी पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी ने भी जाहिर की थी. एक दिन बाद ही सोशल मीडिया पर ‘डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट’ की ओर से फोटो शाप की मदद से तैयार कुछ ऐसी तस्वीरें भी पोस्ट की गई हैं जिसमें प्रणब संघ के निष्ठावान प्रचारक की तरह संघ के ध्वज को प्रणाम करते दिख रहे हैं.
ऐसा यह प्रणब के साथ ही करेंगे, यह सवाल बेमानी है क्योंकि अतीत में ऐसा ही ये लोग महात्मा गांधी के साथ भी कर चुके हैं. 1934 में गांधी वर्धा में संघ के एक शिविर में गए थे. वहां उन्होंने संघ के बारे में कुछ भी नहीं कहा था. लेकिन बाद में संघ के एक बड़े पदाधिकारी एच वी शेषाद्रि ने कहा, ‘‘गांधी जी को वहां यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि अश्पृश्यता का विचार रखना तो दूर स्वयंसेवकों को एक दूसरे की जाति का पता भी नहीं था. गांधी जी इससे बहुत प्रभावित हुए थे.’’ यह बात गांधी ने कभी खुद  कही हो इसका उल्लेख उनके साहित्य में और ना ही उनके किसी करीबी ने अपने किसी संस्मरण में ही किया है. यही नहीं गांधी जी के निजी सचिव रहे प्यारे लाल अपनी पुस्तक ‘‘महात्मा गांधी द लास्ट फेज, भाग 2 के पृष्ठ 400 पर लिखते हैं कि गांधी जी की टोली के एक सदस्य ने एक बार उनसे कहा कि संघ के लोगों ने शरणार्थी शिविर में बहुत अच्छा काम किया है. उन्होंने अनुशासन, साहस और कठिन श्रम की क्षमता प्रकट की है. इस पर गांधी जी ने कहा कि मत भूलो कि हिटलर के नाजी और मुसोलिनी के फासिस्ट भी ऐसे ही थे. इसका जिक्र संघ के लोग कभी नहीं करते.
संघ अपनी वैधता साबित करने के लिए, हालांकि आज जिस तरह से उनका विस्तार हुआ या हो रहा है, उसे देखेते हुए, इसकी उन्हें खास जरूरत भी नहीं होनी चाहिए, अतीत में लोकनायक जयप्रकाश नारायाण, वामपंथी सोच के कृष्णा अय्यर, पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम आदि तमाम लोगों को अपने कार्यक्रमों में ले जाते रहे हैं और उनके वहां कहे की अपने तरह की व्याख्या पेश कर अपने को महिमामंडित करते रहे हैं. समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया कभी उनके मुख्यालय या किसी शिविर में नहीं गए लेकिन अब तो संघ के लोग यह बताने में संकोच भी नहीं करते कि वे भी उनके कार्यक्रम में आए थे. 7 जून के टीवी शो में भी विहिप से जुड़े सज्जन बड़े दावे के साथ ऐसा कह रहे थे.
टीवी शो में संघ और भाजपा के लोग जोर शोर से यह दावा कर रहे थे कि संघ में जाति मायने नहीं रखती. लेकिन जब हमने यह जानना चाहा कि 94 साल के संघ के इतिहास में अब तक कोई दलित, पिछड़ी जाति का सदस्य अथवा किसी भी जाति की महिला संघ के सर संघचालक क्यों नहीं बन सके. अभी तक सर संघचालक बने लोगों में इक्का दुक्का अपवाद का छोड़कर प्रायः सभी महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण ही क्यों रहे. और यह भी कि इस समय की संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नब्बे फसदी लोग ब्राह्मण और बाकी सदस्य भी सवर्ण क्यों हैं. सीधे जवाब देने के बजाय कहा गया कि संघ पुरुषों का संगठन है और महिलाओं के लिए संघ ने राष्ट्र सेविका समिति बनाई है. लेकिन यह समिति कब बनी. सीधी सी बात है कि संघ मनुवादी संगठन है जिसकी संविधान में आस्था नहीं और वह मनु संहिता की वकालत करता है जिसमें औरत और शूद्रों को गोस्वामी तुलसी दास की एक उक्ति ‘‘ढोर गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ की तर्ज पर प्रताड़ना के विषय बताए गए हैं. तिलमिलाहट स्वाभाविक है. लेकिन ठंडे दिमाग से संघ के और बड़े नेता इसका जवाब दें तो आभार मानूंगा.
चर्चा में संघ पर लगे प्रतिबंधों और स्वयंसेवकों-प्रचारकों के अनुशासन और बहादुरी की चर्चा भी हुई. हमने समझाने की कोशिश की कि आपातकाल में हम भी अपने पिता जी के साथ जेल गए थे. किस तरह आपातकाल में संघ के तत्कालीन सर संघचालक बाला साहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर माफी मांगी थी और कहा था कि उनका सामाजिक सांस्कृतिक संगठन आरएसएस उनके बीस सूत्री कार्यक्रमों के प्रचार प्रसार का इच्छुक है. इंदिरा गांधी ने उनके माफीनामे को अस्वीकार करते हुए संघ के नेताओं, प्रचारकों और स्वयंसेवकों से निजी और स्थानीय तौर पर माफीनामा भरने को कहा था. जेलों में माफीनामे की कतारें लग गई थीं. संघ और उसके नेतृत्व के सामने ये सवाल अक्सर मुंह बाए खड़े रहते हैं. यह भी कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में शिरकत के बजाय उसका विरोध क्यों किया था. क्यों इसके तत्कालीन सर संघचाललक गुरू गोलवलकर ने अंग्रेजों से लड़ने के बजाय अल्पसंख्यक मुसलमानों और कम्युनिस्टों से लड़ने को संघ की प्राथमिकता बताई थी. इसके सहयोगी हिंदू महासभा के नेता और बाद में जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने देश विभाजन के लिए जिम्मेदार मुस्लिम लीग के नेतृत्ववाली पश्चिम बंगाल सरकार में साझा किया और वरिष्ठ मंत्री का पद स्वीकार किया था.
ऐसे तमाम सवाल हैं जो संघ के अतीत और वर्तमान को लेकर उठते रहते है, जिनपर स्पष्टीकरण की आवश्यकता है. संघ के नेतृत्व को यह भी बताना चाहा कि वह प्रणब मुखर्जी के भाषण और सुझावों पर अमल करने के लिए तैयार है क्या!