Thursday, 14 June 2018

Karnatka shows the way for unified opposition - कर्नाटक में विपक्ष की दिखी ताकत

कर्नाटक में विपक्ष की दिखी ताकत  

2019 में मोदी और भाजपा को महागठबंधन की मजबूत चुनौती!
जयशंकर गुप्त

कर्नाटक में एच डी कुमार स्वामी के नेतृत्व में जनता दल एस और कांग्रेस की सरकार को लगातार प्रामाणिकता और जनादेश प्राप्त होते जाने से लगता है कि यह गठबंधन और इसी के तर्ज पर अन्य राज्यों में भी बन रहे विपक्ष के गठबंधन 2019 में केंद्र और तकरीबन 20 राज्यों में भाजपा के नेतृत्ववाले सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के लिए खासा सिरदर्द साबित हो सकते हैं. कर्नाटक में साझा सरकार ने अपना विधानसभा अध्यक्ष चुनकर और समय सीमा के भीतर सदन में बहुमत साबित कर न सिर्फ अपनी प्रामाणिकता प्रदर्शित की है बल्कि तुरंत बाद हुए विधानसभा की दो सीटों के चुनाव-उपचुनाव जीतकर साबित कर दिया है कि कर्नाटक का जनादेश भी साझा सरकार के पक्ष में है. इससे पहले मंत्रिमंडल के विस्तार की कसौटी को भी गठबंधन सरकार ने बखूबी पार कर लिया है. जयनगर विधानसभा की सीट तो भाजपा की अपनी परंपरागत सीट थी, जिसपर इसके दिवंगत उम्मीदवार पिछले चार बार से लगातार विधायक थे. इस सीट पर कांग्रेस का उम्मीदवार जीत गया. इस जीत को कांग्रेस अपनी बढ़ती राजनीतिक ताकत और साझा सरकार के लिए जनादेश के रूप में प्रचारित करेगा.
 कुछ दिनों पहले, 23 मई को बेंगलुरु में जनता दल एस के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के रूप में कांग्रेस के दलित नेता जी परमेश्वर के शपथ ग्रहण समारोह में गैर भाजपा-राजग विपक्ष के तमाम सूरमाओं की एक मंच पर मौजूदगी से ही लग गया था कि विपक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके नेतृत्ववाले सत्तारूढ़ राजग को चुनौती देने के मूड में आ गया है. यह शपथ ग्रहण का समारोह कम विपक्ष की एकजुटता का राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन ज्यादा था जिसमें एक दर्जन से अधिक कांग्रेसनीत यूपीए के घटक दलों के साथ गैर भाजपा, गैर कांग्रेस क्षेत्रीय दलों का अद्भुत राजनीतिक संगम देखने को मिला. इसके तुरंत बाद ही उत्तर प्रदेश के कैराना और महाराष्ट्र के भंडारा गोदिया संसदीय सीटों और उत्तर प्रदेश, बिहार एवं मेघालय एवं अन्य राज्यों में हुए एक दर्जन विधानसभा सीटों में से 11 सीटों पर विपक्ष के उम्मीदवारों की जीत से भी सत्तारूढ़ खेमे में बेचैनी और विपक्ष का मनोबल बढ़ा है.
इससे पहले भी गुजरात विधानसभा के चुनाव में अपेक्षकृत अच्छे प्रदर्शन और कई संसदीय उपचुनावों में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के उम्मीदवारों की जीत ने कांग्रेस और विपक्ष को एक अलग तरह की राजनीतिक ऊर्जा प्रदान की थी. लेकिन बेंगलुरु में इक्का दुक्का अपवादों को छोड़कर तमाम गैर भाजपा-गैर राजग नेताओं का उत्साहित जमावड़ा  2019 के आम चुनाव में खुद को अपराजेय समझने वाली प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सिपहसालार, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी के सामने विपक्ष की ओर से मजबूत राजनीतिक चुनौती का स्पष्ट संकेत है. एच डी कुमार स्वामी के शपथग्रहण समारोह में विपक्ष का कौन बड़ा नेता नहीं था. कुमार स्वामी और उनके पिता 85 वर्षीय पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा की अगवानी में कांग्रेसनीत यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खरगे, कर्नाटक के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धरमैया, डी शिव कुमार, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष एवं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, बसपा की अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और उनके महासचिव सतीश मिश्र, एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार, बिहार में राजद यानी विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव, लोकतांत्रिक जनता दल के शरद यादव, झारखंड से झामुमो के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, एक और पूर्व मुख्यमंत्री झाविमो के बाबूलाल मरांडी, राष्ट्रीय लोकदल के चैधरी अजित सिंह, माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी, भाकपा के सचिव डी राजा, केरल के माकपाई मुख्यमंत्री पिनराई विजयन, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी वहां पहंुचे. तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष, मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव एक दिन पहले ही देवेगौड़ा और कुमार स्वामी से मिलकर शपथग्रहण समारोह में शमिल नहीं हो पाने का अफसोस जता गए थे. यूपीए के एक प्रमुख घटक द्रविड़ मुनेत्र कझगम के नेता एम के स्टाॅलिन भी तमिलनाडु के तूतिकोरिन में हुए पुलिस गोलीकांड के मौके पर पहंुंचने का कारण बताकर नहीं पहंुच सके. फिल्म अभिनेता से नेता बनने की दिशा में सक्रिय कमल हासन भी उस दिन तूतिकोरिन में ही दिखे.
लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस के पिता-पुत्र डा. फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला भी नहीं दिखे. कारण रमजान और कश्मीर के हालात भी हो सकते हैं. लेकिन कांग्रेस के पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और मिजोरम के ललथनहवला भी नहीं दिखे. ओडिसा के मुख्यमंत्री एवं बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक भी नहीं आए. संभवतः वह अभी अपनी राजनीतिक दिशा तय नहीं कर पा रहे. बीजद के महासचिव अरुण कुमार साहू ने कहा कि उनकी पार्टी भाजपा और कांग्रेस से भी समान दूरी बनाए रखना चाहती है. हालांकि पिछले दिनों नवीन पटनायक ने भी तीसरे मोर्चे को मजबूत करने पर बल दिया था.
 बेंगलुरु में विपक्ष के नेताओं के बीच गजब की आपसी केमिस्ट्री दिखी. अखिलेश यादव के साथ मायावती की करीबी साफ दिख रही थी. दोनों संभवतः पहली बार इतनी आत्मीयता से मंच साझा कर रहे थे. वहीं सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ भी मायावती और अखिलेश के बीच अलग तरह की केमिस्ट्री बनते दिखी. जिस तरह से सोनिया गांधी और मायावती ने एक दूसरे के कंधे और कमर में हाथ डालकर अपनापन दिखाने की कोशिश की वह भविष्य की विपक्षी राजनीति का एक अलग संकेत दे रहा था. बीमार चल रहे राजद के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव ने सोनिया गांधी से लेकर देवेगौड़ा, मायावती और ममता बनर्जी के आगे झुककर उनका आशीर्वाद लिया.
लेकिन एक समय ऐसा भी लगा कि यूपीए और गैर राजग, गैर कांग्रेसी विपक्ष यानी तीसरे मोर्चे की बात करनेवाले नेता खासतौर से ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और अरविंद केजरीवाल, पिनराई विजयन मंच पर अलग अलग मुद्रा में दिख रहे हैं. इसे महसूस कर देवेगौड़ा और सोनिया गांधी ने ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू को भी अपने, शरद यादव, शरद पवार और मायावती तथा अखिलेश यादव के बीच लाकर बड़े फ्रेम में तस्वीरें खिंचवाई. फिर तो चंद्रबाबू नायडू और केजरीवाल, विजयन तथा येचुरी, राजा विपक्ष के सभी सूरमाओं के हाथ उठाकर ग्रुप फोटो बनवाए गए. इस तस्वीर को देखने के बाद पिछले चार साल में यह पहली बार लगा कि 2019 में विपक्ष एकजुट होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा-राजग को मजबूत चुनौती देने के लिए गंभीर है.
एकजुट विपक्ष के सामने चुनौतियां
लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं हैं. यक्ष प्रश्न यही है कि विपक्ष की यह एकजुटता कब तक बनी रहेगी और मोदी के विकल्प के बतौर इसका नेतृत्व कौन करेगा. एक प्रश्न के जवाब में राहुल गांधी के यह कहने पर कि कांग्रेस को बहुमत मिलने की स्थिति में वह प्रधानमंत्री बनने को तैयार हैं, ममता बनर्जी ने कहा था कि जरूरी नहीं कि किसी एक व्यक्ति को सामने रखकर ही विपक्ष लोकसभा का अगला चुनाव लड़े. वह गाहे बगाहे गैर भाजपा, गैर कांग्रेसी दलों, खासतौर से क्षेत्रीय दलों का अलग विपक्षी गठबंधन बनाने पर जोर देते रहती हैं. बंेगलुरु में भी ममता बनर्जी ने यही कहा कि शपथग्रहण समारोह में उनकी शिरकत का मकसद क्षेत्रीय दलों को मजबूती प्रदान करना है. यही राय कमोबेस आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और कभी तीसरे, संयुक्त मोर्चे के संयोजक रहे चंद्रबाबू नायडू, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की भी रही है. हालांकि कभी कांग्रेस समर्थित तीसरे, संयुक्त मोर्चे की सरकार के प्रधानमंत्री रह चुके एच डी देवेगौड़ा ने कहा है कि कांग्रेस के बिना किसी गैर भाजपा विपक्षी महागठबंधन की कल्पना संभव नहीं. लेकिन पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में कांग्रेस किसके साथ गठबंधन करेगी, वाम दलों के साथ अथवा ममता बनर्जी की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के साथ. क्या यह संभव हो पाएगा कि ये तीनों ही राजनीतिक ताकतें वहां भाजपा के विरोध में महा गठबंधन बना सकें. बेंगलुरु के शपथ ग्रहण समारोह में ममता बनर्जी के साथ मंच साझा करनेवाले माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने साफ कर दिया कि भाजपा कोे रोकने के लिए विपक्ष की एकता के नाम पर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से हाथ मिलाने का सवाल ही नहीं उठता. उन्होंने कहा, ‘‘भाजपा के नेतृत्ववाली सरकारें देश में और ममता बनर्जी की सरकार पश्चिम बंगाल में समान रूप से लोकतंत्र की हत्या कर रही हैं.’’ लिहाजा माकपा लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में ममता और मोदी, दोनों को और केरल में कांग्रेस को हराएगी.
इसी तरह से आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में परस्पर विरोधी चंद्रबाबू नायडू और के चंद्रशेखर राव तथा ओडिसा में नवीन पटनायक और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को भी तय करना होगा कि उन्हें भाजपा से लड़ना है कि कांग्रेस से या दोनों से. कांग्रेस को भी इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा कि उसे कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की दिशा में अग्रसर भाजपा से लड़ना है कि क्षेत्रीय दलों के साथ!
इसके साथ ही इस विपक्षी महागठबंधन के नेता और नीतियों-कार्यक्रमों पर भी विचार करना होगा. अभी तक विपक्षी जमावड़े का मकसद भाजपा और मोदी तथा उनके बहाने आम चुनाव में सांप्रदायिकता का विरोध ही नजर आ रहा है. भविष्य में उन्हें उनका विकल्प भी पेश करना पड़ेगा. विपक्ष में कांग्रेस के राहुल गांधी से लेकर मायावती, ममता बनर्जी, शरद पवार और शरद यादव जैसे कई नेता नेतृत्व की लालसा पाले हुए हैं. कहा जा रहा है कि नेतृत्व का फैसला लोकसभा चुनाव के बाद भी संभव है जैसा 2004 में हुआ था. हालांकि भाजपा के लोग प्रधानमंत्री मोदी के सामने विपक्ष के पास वैकल्पिक नेतृत्व के अभाव को भुनाने की कोशिश कर सकते हैं. देश के मतदाता बड़े पैमाने पर आज भले ही केंद्र सरकार और भाजपा से भी नाराज दिख रहे हैं. उन्हें लगता है कि पिछले चार वर्षों में मोदी और भाजपा के चुनावी वादे छलावा ही साबित हुए हैं. लेकिन उनमें से एक बड़े तबके को अभी भी मोदी से उम्मीदें हैं.
म.प्र., राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनाव
विपक्षी एकता की परख तो अगले कुछ महीनों में राजस्थान, म.प्र. और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में भी होगी. इन तीन राज्यों में चुनावी लड़ाई वैसे तो मोटे तौर पर कांग्रेस बनाम भाजपा ही है. वहां भाजपा को चुनौती देने की ताकत रखने वाली बहुत मजबूत क्षेत्रीय पार्टी नहीं है, लेकिन कुछ-कुछ पॉकेट में सपा, बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और लाकतांत्रिक जनता दल के ठीक-ठाक वोट हैं. बीते विधानसभा चुनाव में 6.29 फीसदी वोट पाने वाली बसपा को म.प्र. में चार सीटें भी मिली थीं. इसी तरह उसे छत्तीसगढ़ में 4.27 और राजस्थान में 3.77 फीसदी वोट मिले थे. पिछले साल म.प्र. के उपचुनाव में बीएसपी का उम्मीदवार खड़ा न करना दो सीटों पर कांग्रेस की जीत की वजह बना था. इन तीन राज्यों में कांग्रेस के दिल बड़ा कर सपा, बसपा, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और लोकतांत्रिक जनता दल जैसे क्षेत्रीय दलों के लिए भी कुछ सीटें छोड़ने की स्थिति में 2019 के आम चुनाव की झांकी इन राज्य विधानसभाओं के चुनाव में दिख सकती है.
कर्नाटक की साझा सरकार की स्थिरता सबसे बड़ी चुनौती
 विपक्ष के लिए सबसे बड़ी चुनौती तो कर्नाटक में साझा सरकार की स्थिरता को लेकर सामने आएगी. खंडित जनादेश के बीच सोनिया गांधी की राजनीतिक परिपक्वता और दोनों दलों की एकजुटता से राजनीतिक मात खाई भाजपा आसानी से हार मानने और पांच साल तक इंतजार करनेवाली नहीं है. विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सत्ता हाथ से निकल जाने के कारण चोटिल भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने कहा भी कि कांग्रेस और जेडीएस अपने विधायकों को छुट्टा खोलकर तो देखंे! हालांकि कांग्रेस और जेडीएस के  विधायकों की एकजुटता ने 25 मई को विश्वासमत प्रस्ताव हासिल करने और उससे पहले कांग्रेस के नेता रमेश कुमार को विधानसभाध्यक्ष चुनवाने और सदन में विस्वासमत हासिल करने की प्रारंभिक जंग को जीत लिया है.
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की रणनीति पर गौर करने पर इस बात का अंदाजा आसानी से लग सकता है कि कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस के इस गठबंधन को 2019 से पहले तोड़ना भाजपा के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता होगी. ताकि ऐसे किसी गठजोड़ को मौकापरस्त दलों का कुर्सीपरस्त गठबंधन साबित करने के साथ ही यह बताया जा सके कि ये वो लोग हैं, जो मोदी और भाजपा को रोकने के लिए बेमेल रिश्ते तो गांठ लेते हैं, लेकिन दो कदम साथ नहीं चल सकते.
 जाहिर सी बात है कि दोनों दलों के नेताओं की महत्वाकांक्षाएं, अंतर्विरोध और सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर अंदरूनी टकराहटों में ही भाजपा अपने लिए अवसर तलाशेगी. मुख्यमंत्री भाजपा की नजर लगातार कुमारस्वामी और उनके कुनबे पर होगी. एचडी कुमार स्वामी के बड़े भाई, विधायक एचडी रेवन्ना लगातार सत्ता में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने का दबाव बनाए रखेंगे. और फिर संकट की घड़ी में कांग्रेस और जनता दल एस के विधायकों को सुरक्षित और एकजुट रखने में सफल रह कर्नाटक के कद्दावर कांग्रेसी नेता, विधायक डी शिव कुमार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और उनका अतीत भी इस साझा सरकार के लिए संकट का कारण बन सकता है. सिद्धरमैया की सरकार में ऊर्जा मंत्री रह चुके शिव कुमार के दर्जनों ठिकानों पर पिछले साल आयकर के छापे पड़ चुके हैं. देखना होगा कि पिछले पांच साल में सैकड़ों करोड़ के धनी बनने वाले और संकट के समय कांग्रेसी विधायकों को अपने पांच सितारा होटल में मेहमान के रूप में छिपाकर रखने वाले शिव कुमार के कारनामों की फाइल आने वाले दिनों में कहीं कांग्रेस और इस सरकार के लिए संकट का कारण न बन जाए. भाजपा की नजर अब उन विधायकों पर भी रहेगी, जो बहुमत के वक्त सारे प्रलोभन ठुकराकर भी नई सरकार में कुछ नहीं पा सके. ऐसे विधायक जिस दिन भी अपनी नाराजगी का सौदा करने को तैयार हो जाएंगे, कर्नाटक में तख्ता पलटते देर नहीं लगेगी. मंत्रिमंडल विस्तार के बाद दोनों दलों के विधायकों में असंतोष के छिटपुट स्वर भी सुनने को मिले लेकिन फिलहाल उन पर काबू पा लिया गया है.
  खंडित जनादेश ने दी विपक्ष को ताकत!
दरअसल, कर्नाटक विधानसभा के चुनावी नतीजांे पर पूरे देश की निगाहें टिकी थीं. भाजपा को लगा था पश्चिम में गुजरात और उत्तर पूर्व में त्रिपुरा, मेघालय और मणिपुर की तरह ही कर्नाटक में भी जीत और सरकार बनाने का का सिलसिला जारी रखते हुए वह 2019 में विपक्ष की चुनौती को यह कहते हुए भोथरा साबित कर सकेगी कि उत्तर पूर्व से से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक देश का मतदाता वर्ग तमाम दुश्वारियों और नाराजगी के बावजूद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को ही पसंद करता है. दूसरी तरफ, गुजरात में सत्ता के करीब पहुंचते पहुंचते पिछड़ गई कांग्रेस को भी लगता था कि कर्नाटक की जीत के बाद नई राजनीतिक ऊर्जा से लबरेज होकर वह राजस्थान, म.प्र., छत्तीसगढ़ और मिजोरम में भी भाजपा को मजबूत चुनौती या कहें शिकस्त देकर 2019 के लिए खुद को तैयार कर सकेगी.
लेकिन कर्नाटक का जनादेश दोनों को ही दगा दे गया. विधानसभा की 224 में से 222 सीटों के लिए हुए चुनाव में भाजपा बहुमत के लिए जरूरी 112 विधायकों के आंकड़े तक पहंुचने के क्रम में 104 सीटों पर ही अटक गई. कांग्रेस को भी केवल 78 सीटें ही मिल सकीं, जबकि जनता दल एस को 37 और उसके साथ मिलकर चुनाव लड़ी बसपा को एक सीट मिली. दो सीटें निर्दलीयों के खाते में गईं. नतीजे कांग्रेस के मनोनुकूल नहीं आए, लेकिन त्रिशंकु विधानसभा की आशंका को महसूस कर कांग्रेस ने समय रहते बड़ा राजनीतिक दाव खेलते हुए जनता दल एस के एच डी कुमार स्वामी के नेतृत्व में साझा सरकार बनाने का प्रस्ताव एच डी देवेगौड़ा के सामने रख दिया. खुद सोनिया गांधी ने देवेगौड़ा से बात की. पिता पुत्र राजी हो गए. राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि कर्नाटक के खंडित जनादेश ने 2019 के आम चुनाव के लिए विपक्ष की चुनौती को दमदार बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. कांग्रेस को अगर अपने बूते वहां बहुमत मिल जाता तो उसके सुनहरे अतीत का अहंकार विपक्ष की एकजुटता की राह में बाधा बन सकता था. कांग्रेस में एक बड़ा तबका चुनावों में कांग्रेस के एकला चलो की रणनीति की वकालत करते रहता है. कांग्रेस के इसी अहंकार ने कर्नाटक में जनता दल एस और मायावती की बसपा के साथ, गुजरात में एनसीपी और बसपा के साथ तथा असम में बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ के साथ भी किसी तरह का चुनावी गठबंधन अथवा सीटों का तालमेल नहीं होने दिया था. कर्नाटक में भी यही गलती हुई. दरअसल, कर्नाटक में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने अपने मुख्यमंत्री सिद्धरामैया की चुनावी रणनीति, पर कुछ ज्यादा ही भरोसा किया और देवेगौड़ा परिवार की राजनीतिक ताकत को उनके प्रभाव क्षेत्रों में भी कम करके आंकने की गलती भी की. कांग्रेस के नरम हिन्दुत्व और राहुल गांधी के मठ मंदिरों में मत्था टेकने के कारण भी देवेगौड़ा परिवार के जनाधारवाले इलाकों में दलित और अल्पसंख्यक मतों का कांग्रेस और जनता दल एस के बीच विभाजन हुआ. यह भी एक कारण है कि 38 फीसदी मत हासिल करके भी कांग्रेस 78 सीटें ही जीत सकी जबकि भाजपा 36 फीसदी मत प्राप्त करके भी 104 सीटें हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर सकी. अगर कांग्रेस और जनता दल एस तथा बसपा सीटों का तालमेल कर चुनाव लड़ते तो कर्नाटक का राजनीतिक परिदृश्य आज कुछ और ही होता.
जाहिर है कि कर्नाटक के इस खंडित जनादेश के चलते कांग्रेस की अकड़ कुछ ढीली पड़ी और बेंगलुरु में विपक्षी महागठबंधन का एक अक्स उभरते दिखा. जिस कर्नाटक को भाजपाई अपने लिए गेट वे टु साउथ यानी दक्षिण में भाजपा का प्रवेश द्वार कह रहे थे, वह ‘गेट वे टु अपोजिशन यूनिटी’ यानी विपक्षी एकता का कारक बन गया. कांग्रेस के लिए सबसे अच्छी बात यह रही कि उसे दक्षिण भारत के कर्नाटक में जनता दल एस के रूप में एक महत्वपूर्ण सहयोगी मिला जिससे गठबंधन जारी रहा तो लोकसभा चुनाव में दोनांे दल राज्य की कुल 28 में से तीन चैथाई सीटें आसानी से जीत सकते हैं. हालांकि कांग्रेस और देवेगौड़ा के बीच अतीत के संबंध बहुत ज्यादा मधुर और भरोसेमंद नहीं रहे हैं. नब्बे के दशक में कांग्रेस के सहयोग से तीसरे ‘संयुक्त मोर्चे’ की सरकार के प्रधानमंत्री बने देवेगौड़ा की सरकार कांग्रेस के समर्थन वापस ले लेने के कारण ही गिरी थी. और फिर एचडी कुमार स्वामी पहले भी भाजपा के साथ सरकार साझा कर चुके हैं. इसलिए भी इस साझा सरकार को भविष्य में अतीत की गलतियों से सबक लेकर ही आगे बढ़ना होगा.
कर्नाटक के राजनीतिक घटनाक्रमों से गैर भाजपा दलों को यह बात तो समझ में आ गई है कि मोदी और भाजपा से लड़ना से है, तो एकजुट होना पड़ेगा. अलग-अलग लड़े-भिड़े, तो 2019 में फिर मारे जाएंगे. मोदी और शाह से यही डर उन्हें एकजुट होने का रास्ता दिखा रहा है. लेकिन मोदी की राजनीतिक शैली, आक्रामकता, लोकप्रियता और देश के बड़े हिस्से में उनके लिए जनसमर्थन गैर भाजपा दलों को 2019 से जितना डरा रहा है, उतना ही डर अब भाजपा को कांग्रेस के साथ क्षेत्रीय दलों के संभावित गठजोड़ से होगा. प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और उनके प्रशंसक डींगें चाहे कितनी भी हांकें, गुजरात के बाद कर्नाटक के नतीजे बताते हैं कि मतदाताओं पर उनकी पकड़ ढीली पड़ रही है. कर्नाटक में इससे पहले 2008 में भी भाजपा येदियुरप्पा के नेतृत्व में 110 सीटें जीत कर सरकार बना चुकी थी. इस बार तो वह 104 पर ही सिमट गई. राजग और भाजपा के भीतर भी असंतोष बढ़ते साफ दिख रहा है.

Sunday, 10 June 2018

Former President Pranab Mukharji at RSS Headquarter in Nagpur

संघ मुख्यालय, नागपुर में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी 

 गुरुवार, सात जून 2018 को पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नागपुर में रेशिम बाग स्थित आर एस एस के मुख्यालय में जाने और उनके भाषण को लेकर तमाम तरह की व्याख्याएं हो रही हैं. व्याख्या तो दो दिन पहले से ही तमाम टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर भी हो रही थीं, उनके भाषण के बाद व्याख्या की भंगिमाएं कुछ बदल सी गई हैं.
गुरुवार को ही शाम 5.40 बजे से 8.50 बजे तक हम भी इस पर चर्चा के लिए एक बड़े टीवी चैनल पर मौजूद. प्रणब बाबू का भाषण वाकई जोरदार और एक राजनेता की तरह का था, लेकिन संघ की अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं था. पूरे भाषण में उन्होंने एक बार भी संघ अथवा उसके संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार का नाम नहीं लिया. उनके गीत नहीं गुनगुनाए और नाही मंच पर मौजूद लोगों की तरह ध्वज प्रणाम किया और नहीं तो अपने सारगर्भित भाषण में उन्होंने परोक्ष रूप से संघ को राष्ट्र, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद पर परोक्ष रूप से अच्छी नसीहत भी दी. उन्होंने एक धर्म और एक भाषा की परिकल्पना को खारिज करते हुए भारतीय संविधान को राष्ट्रवाद का श्रोत बताया. उन्होंने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के हवाले से कहा कि देश में विविधता के लिए पर्याप्त जगह है. देश में 122 से ज्यादा भाषाएं और 1600 से ज्यादा बोलियां हैं. सात मुख्य धर्म और तीन जातीय समूह हैं. यही हमारी असली ताकत है, जो हमें दुनिया में विशिष्ट बनाती है. हमारी राष्ट्रीयता जाति-धर्म से बंधी नहीं है.
संघ मुख्यालय में उनकी मौजूदगी और उनके भाषण पर तकरीबन तीन घंटे की चर्चा की शुरुआत में ही हमने कहा था कि प्रणब कहां जाते हैं और क्या बोलते हैं यह उनका निजी मामला है. और यह भी कि वह वहां कुछ भी बोलें, इसका संघ की सेहत पर खास फर्क नहीं पड़नेवाला क्योंकि उनके स्वयंसेवक-प्रचारक आमतौर पर चिकना घड़ा होते हैं. इसकी तस्दीक करते हुए संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने भी अपने उद्बोधन में साफ कहा कि कार्यक्रम के बाद प्रणब प्रणब ही रहेंगे और संघ भी संघ ही रहेगा.
जाहिर सी बात है कि बाकी लोगों के लिए भी कुछ समय तक जुगाली करने से अधिक प्रणब दा के भाषण का विशेष महत्व नहीं रह जाएगा क्योंकि लोग भूल जाएंगे कि उन्होंने वहां कहा क्या क्या था. याद रहेगा या जिसे संघ के लोग अपनी वैधता साबित करने के लिए गाहे बगाहे याद करवाते रहंेगे, वह है, संघ मुख्यालय में उनकी उपस्थिति. और संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के बारे में स्मृति पुस्तिका में लिखे उनके वाक्य और इस अवसर पर उनके साथ ली गई तस्वीरें. आगे चलकर संघ के लोग उनके भाषण को भी तोड़ मरोड़ कर पेश करेंगे ही. प्रणब बाबू का इस्तेमाल उनके लिए अपने प्रोडक्ट को वैधता प्रदान करनेवाले एक विज्ञापन के माडल के रूप में ही किया जाएगा. इस तरह की जायज आशंका उनकी पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी ने भी जाहिर की थी. एक दिन बाद ही सोशल मीडिया पर ‘डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट’ की ओर से फोटो शाप की मदद से तैयार कुछ ऐसी तस्वीरें भी पोस्ट की गई हैं जिसमें प्रणब संघ के निष्ठावान प्रचारक की तरह संघ के ध्वज को प्रणाम करते दिख रहे हैं.
ऐसा यह प्रणब के साथ ही करेंगे, यह सवाल बेमानी है क्योंकि अतीत में ऐसा ही ये लोग महात्मा गांधी के साथ भी कर चुके हैं. 1934 में गांधी वर्धा में संघ के एक शिविर में गए थे. वहां उन्होंने संघ के बारे में कुछ भी नहीं कहा था. लेकिन बाद में संघ के एक बड़े पदाधिकारी एच वी शेषाद्रि ने कहा, ‘‘गांधी जी को वहां यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि अश्पृश्यता का विचार रखना तो दूर स्वयंसेवकों को एक दूसरे की जाति का पता भी नहीं था. गांधी जी इससे बहुत प्रभावित हुए थे.’’ यह बात गांधी ने कभी खुद  कही हो इसका उल्लेख उनके साहित्य में और ना ही उनके किसी करीबी ने अपने किसी संस्मरण में ही किया है. यही नहीं गांधी जी के निजी सचिव रहे प्यारे लाल अपनी पुस्तक ‘‘महात्मा गांधी द लास्ट फेज, भाग 2 के पृष्ठ 400 पर लिखते हैं कि गांधी जी की टोली के एक सदस्य ने एक बार उनसे कहा कि संघ के लोगों ने शरणार्थी शिविर में बहुत अच्छा काम किया है. उन्होंने अनुशासन, साहस और कठिन श्रम की क्षमता प्रकट की है. इस पर गांधी जी ने कहा कि मत भूलो कि हिटलर के नाजी और मुसोलिनी के फासिस्ट भी ऐसे ही थे. इसका जिक्र संघ के लोग कभी नहीं करते.
संघ अपनी वैधता साबित करने के लिए, हालांकि आज जिस तरह से उनका विस्तार हुआ या हो रहा है, उसे देखेते हुए, इसकी उन्हें खास जरूरत भी नहीं होनी चाहिए, अतीत में लोकनायक जयप्रकाश नारायाण, वामपंथी सोच के कृष्णा अय्यर, पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम आदि तमाम लोगों को अपने कार्यक्रमों में ले जाते रहे हैं और उनके वहां कहे की अपने तरह की व्याख्या पेश कर अपने को महिमामंडित करते रहे हैं. समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया कभी उनके मुख्यालय या किसी शिविर में नहीं गए लेकिन अब तो संघ के लोग यह बताने में संकोच भी नहीं करते कि वे भी उनके कार्यक्रम में आए थे. 7 जून के टीवी शो में भी विहिप से जुड़े सज्जन बड़े दावे के साथ ऐसा कह रहे थे.
टीवी शो में संघ और भाजपा के लोग जोर शोर से यह दावा कर रहे थे कि संघ में जाति मायने नहीं रखती. लेकिन जब हमने यह जानना चाहा कि 94 साल के संघ के इतिहास में अब तक कोई दलित, पिछड़ी जाति का सदस्य अथवा किसी भी जाति की महिला संघ के सर संघचालक क्यों नहीं बन सके. अभी तक सर संघचालक बने लोगों में इक्का दुक्का अपवाद का छोड़कर प्रायः सभी महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण ही क्यों रहे. और यह भी कि इस समय की संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नब्बे फसदी लोग ब्राह्मण और बाकी सदस्य भी सवर्ण क्यों हैं. सीधे जवाब देने के बजाय कहा गया कि संघ पुरुषों का संगठन है और महिलाओं के लिए संघ ने राष्ट्र सेविका समिति बनाई है. लेकिन यह समिति कब बनी. सीधी सी बात है कि संघ मनुवादी संगठन है जिसकी संविधान में आस्था नहीं और वह मनु संहिता की वकालत करता है जिसमें औरत और शूद्रों को गोस्वामी तुलसी दास की एक उक्ति ‘‘ढोर गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ की तर्ज पर प्रताड़ना के विषय बताए गए हैं. तिलमिलाहट स्वाभाविक है. लेकिन ठंडे दिमाग से संघ के और बड़े नेता इसका जवाब दें तो आभार मानूंगा.
चर्चा में संघ पर लगे प्रतिबंधों और स्वयंसेवकों-प्रचारकों के अनुशासन और बहादुरी की चर्चा भी हुई. हमने समझाने की कोशिश की कि आपातकाल में हम भी अपने पिता जी के साथ जेल गए थे. किस तरह आपातकाल में संघ के तत्कालीन सर संघचालक बाला साहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर माफी मांगी थी और कहा था कि उनका सामाजिक सांस्कृतिक संगठन आरएसएस उनके बीस सूत्री कार्यक्रमों के प्रचार प्रसार का इच्छुक है. इंदिरा गांधी ने उनके माफीनामे को अस्वीकार करते हुए संघ के नेताओं, प्रचारकों और स्वयंसेवकों से निजी और स्थानीय तौर पर माफीनामा भरने को कहा था. जेलों में माफीनामे की कतारें लग गई थीं. संघ और उसके नेतृत्व के सामने ये सवाल अक्सर मुंह बाए खड़े रहते हैं. यह भी कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में शिरकत के बजाय उसका विरोध क्यों किया था. क्यों इसके तत्कालीन सर संघचाललक गुरू गोलवलकर ने अंग्रेजों से लड़ने के बजाय अल्पसंख्यक मुसलमानों और कम्युनिस्टों से लड़ने को संघ की प्राथमिकता बताई थी. इसके सहयोगी हिंदू महासभा के नेता और बाद में जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने देश विभाजन के लिए जिम्मेदार मुस्लिम लीग के नेतृत्ववाली पश्चिम बंगाल सरकार में साझा किया और वरिष्ठ मंत्री का पद स्वीकार किया था.
ऐसे तमाम सवाल हैं जो संघ के अतीत और वर्तमान को लेकर उठते रहते है, जिनपर स्पष्टीकरण की आवश्यकता है. संघ के नेतृत्व को यह भी बताना चाहा कि वह प्रणब मुखर्जी के भाषण और सुझावों पर अमल करने के लिए तैयार है क्या!