Thursday, 1 November 2018

राम जी फिर एक बार करेंगे बेड़ापार ?

सुप्रीम कोर्ट से झटका मिलने के बाद अध्यादेश - कानून के लिए दबाव 

जयशंकर गुप्त
पांच राज्यों और खासतौर से हिंदी पट्टी के तीन राज्यों-राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के आगामी चुनाव में रामलला और अयोध्या में उनके कथित जन्म स्थान पर मंदिर निर्माण का मुद्दा भी भाजपा के लिए खास मददगार साबित होते नहीं दिख रहा है. 29 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने उसमें फच्चर लगा दिया है. उससे पहले भाजपा और उसे संचालित करनेवाले संघ परिवार और मीडिया के एक बड़े तबके ने ऐसा माहौल बना दिया था कि जैसे सुप्रीम कोर्ट 29 अक्टूबर को ही एक बेंच गठित कर इस सुदीर्घ काल, तकरीबन 123 साल से चले आ रहे कानूनी विवाद के लिए एक बेंच गठित कर इसकी रोजाना सुनवाई कर यथाशीघ्र कोई फैसला सुनाएगा. भाजपा के कुछ वरिष्ठतम नेताओं, सरकार के कुछ मंत्रियों ने सुनवाई शुरू होने से पहले धौंस देने के अंदाज में सुप्रीम कोर्ट पर एक तरह का राजनीतिक दबाव भी बनाना शुरू कर दिया था कि सुप्रीम कोर्ट को जन आस्था का सम्मान करना चाहिए और ऐसा कोई फैसला नहीं करना चाहिए जिससे जन आस्था को चोट लगे और उस पर अमल मुश्किल हो.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट की सेहत पर इस तरह के बयानों का खास असर नहीं पड़ा. मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल एवं न्यायमूर्ति के एम जोसफ की पीठ ने अयोध्या की विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि को तीन भागों में बांटने वाले 2010 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर महज दो मिनट की सुनवाई के बाद ही आदेश सुना दिया कि अब अगली सुनवाई के समय का फैसला अगले साल जनवरी में सर्वोच्च अदालत की उपयुक्त पीठ करेगी. उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने मामले की गंभीरता और लंबे समय से लंबित होने का हवाला देकर दिवाली की छुट्टी के बाद सुनवाई का अनुरोध किया. वहीं, रामलला विराजमान के वकील सीएस वैद्यनाथन ने नवंबर में सुनवाई की गुहार लगाई. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए इसे ठुकरा दिया कि ‘‘हमारी अपनी प्राथमिकताएं हैं. हमें नहीं पता कि तारीख क्या होगी. यह जनवरी, मार्च अथवा अप्रैल में भी हो सकती है. जस्टिस गोगोई ने कहा कि मुख्य न्यायाधीश की इस पीठ को यह तय करना था कि इस मामले की कब से सुनवाई की जाए और रोजाना सुनवाई की जाए या नहीं.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद से ही भाजपा और संघ परिवार के साथ ही साधू संतों का भी इस मामले में जमीन अधिग्रहण, अध्यादेश अथवा संसद से कानून बनाकर अयोध्या मे कथित राम जन्मस्थान पर भव्य मंदिर बनाने का दबाव बढ़ गया है. इस आदेश से पहले तक हिंदुओं के सब्र का बांध टूटने और दिसंबर के आगे और इंतजार नहीं करने जैसे बयान देनेवाले भाजपा के बड़बोले नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कहा, ‘‘अयोध्या मामले में केंद्र सरकार को कानून बनाने का अधिकार है. जिस विवादित भूमि की बात हो रही है, वहां पर भगवान राम का मंदिर था. सुप्रीम कोर्ट संसद से ऊपर नहीं हो सकती है. सर्वोच्च अदालत की अपनी कुछ सीमाएं होती हैं. उन्हें उसी के तहत फैसला करने का अधिकार होता है.’’
भाजपा के भीतर एक अरसे से राजनीतिक बनवास भुगत रहे विनय कटियार जैसे नेताओं ने भी कहना शुरू कर दिया है कि सुप्रीम कोर्ट के इस मामले की सुनवाई अगले साल जनवरी में शुरू करने के पीछे कांग्रेस का दबाव है जो नहीं चाहते कि शीघ्र कोई फैसला हो. कटियार ने कहा, ‘‘कांग्रेस के दबाव में लेट किया जा रहा है. कपिल सिब्बल और प्रशांत भूषण समेत कांग्रेस के जो वकील हैं, वे नहीं चाहते कि 2019 से पहले इस मामले की सुनवाई हो, वे इसे टालते रहना चाहते हैं. इसी तरह इसे आगे भी टाला जाएगा. ये लोग रामभक्तों के धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं. हम कब तक सब्र करें. या तो सब बता दें कि उन्हें कुछ नहीं करना है तो रामभक्तों को जो निर्णय करना है वो कर लेंगे.’’ मोदी सरकार में स्वतंत्र प्रभारवाले एक बड़बोले मंत्री गिरिराज सिंह भी धमकानेवाले अंदाज में ही बोले, ‘‘अब हिंदुओं का सब्र टूट रहा है. मुझे भय है कि अगर हिंदुओं का सब्र टूटा तो क्या होगा.’’ सवाल एक ही है जिसका जवाब किसी नेता और मंत्री के पास नहीं है कि हिंदुओं का ठेका और उनके सब्र का पैमाना तय करने के लिए उन्हें किसने अधिकृत किया. क्या इसके लिए कोई व्याकपक जन्मर संग्रह हुआ है? अगर जन समर्थन और जनादेश के जरिए 2014 में भाजपानीत राजग के सत्तारूढ़ होने को ही पैमाना मान लिया जाए तो उन्हें देश के केवल 31 फीसदी मतदाताओं का ही समर्थन मिला था. बाकी 69 फीसदी मतदाताओं ने उन्हें खारिज ही किया था. विपक्ष के मतों का बिखराव ही उन्हें सत्तारूढ़ बनाने में कारगर हुआ था.
लेकिन अस्सी-नब्बे के दशक से ही अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण को हवा देते आ रही भाजपा सरकार पर रणनीतिक तौर पर ही सही, इस मामले में भी एससी, एसटी ऐक्ट की तरह अध्यादेश लाने का दबाव बढ़ा है. आरएसएस के प्रवक्ता अरुण कुूमार ने कहा है, ‘' केंद्र राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के मार्ग में आनेवाली हर बाधा को दूर करने के लिए कानून लाए.’’ जवाब में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, पूर्व गृह और वित्त मंत्री पी चिदंबरम कहते हैंै, ‘‘सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की गरज से भाजपा राम मंदिर का इस्तेमाल करती रही है. राम मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश की मांग करनेवालों को इस बाबत पीएम से पूछना चाहिए. हालांकि वह इस तरह के मामलों पर आमतौर पर चुप ही रहते हैं.’’
लेकिन संसद के मौजूदा स्वरूप, सत्ता पक्ष और विपक्ष के संख्या बल और राजग में भाजपा के कई प्रमुख सहयोगी दलों के रुख को देखते हुए यह विकल्प भी बहुत आसान और व्यावहारिक नजर नहीं आ रहा. इस मुद्दे पर जनता दल (यू) के प्रवक्ता केसी त्यागी ने कहा है कि कोर्ट के फैसले को मानने के अलावा इस समस्या का कोई और समाधान नहीं है. राजग में भाजपा के कई और सहयोगी दल भी इस मामले में अध्यादेश अथवा कानून की पहल का विरोध कर सकते हैं.
लेकिन आल इंडिया मजलिसे मुत्ताहिदा मुसलमीन के नेता, सांसद असदुद्दीन ओवैसी जैसे मुस्लिम समाज के कुछ नेता इस तरह के मामलों पर जहरीले बयान देकर भाजपा और संघ परिवार को राजनीतिक लाभ पहुंचाने के लिए तत्पर रहते हैं. ओवैसी ने फैसले के बाद चुनौती के अंदाज में कहा, ‘‘वे राम मंदिर पर अध्यादेश क्यों नहीं लाते? हर बार वे धमकी देतेे हैं कि वे अध्यादेश लाएंगे. भाजपा, आरएसएस, वीएचपी के हर टॉम, डिक और हैरी इस तरह की बातें कहते रहते हैं. वे सत्ता में हैं, उन्हें ऐसा करने दो. मैं उन्हें, 56 इंच का सीनावाले को ऐसा करने की चुनौती देता हूं. करें, हम भी देखते हैं. मुद्दे को हिंदू-मुस्लिम न बनाएं. देश संविधान से चलेगा.’’ लेकिन मुस्लिम समाज में भी ओवैसी जैसे स्वयंभू प्रवक्ताओं को लेकर विरोध शुरू हो गया है. लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता ओबैद नासिर कहते हैं, ‘‘ओवैसी साहब, ऐसी बचकानी बातें कर के आप मुसलमानों से कौन सी दुश्मनी निकाल रहे हैं ? खुदा के लिए इस मसले पर खामोशी अख्तियार कीजिये और अदालत को अपना काम करने दीजिए. ऐसी बचकाना, गैर जिम्मेदाराना और भड़काऊ बातें संघ परिवार के लिए ऑक्सीजन का काम करती हैं.’’ दरअसल, मीडिया और खासतौर से सोशल मीडिया पर भी संघ परिवार के उत्तेजक और भड़काऊ बयानों पर भी मुस्लिम समाज और खासतौर से युवा पीढ़ी का उत्तेजित होकर उसी तरह की भाषा में जवाब नहीं देना भी संघ परिवार और भाजपा की विफलता का कारण बनते जा रहा है.
 लेकिन भाजपा और संघ परिवार में मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश लाने अथवा संसद से कानून बनवाने के पक्षधर नेताओं का तर्क है कि संसद में सत्तापक्ष का कमजोर संख्या बल इस मार्ग में बड़ी बाधा नहीं बन सकता क्योंकि विपक्ष के लिए खुलकर इसका विरोध करना सहज नहीं होगा. कांग्रेस के लिए यह आसान नहीं होगा कि वह राम मंदिर पर सरकार के प्रस्ताव का खुला विरोध करके अपनी सॉफ्ट हिंदुत्व की छवि पेश करने अपनी पूरी कोशिशों को मिट्टी में मिला दे. इससे विपक्ष में बिखराव भी होगा और सपा, बसपा और राजद जैसी पार्टियों के वोट बैंक में भी सेंध लगेगी.
दरअसल, हर बड़े चुनाव से पहले अयोध्या विवाद और वहां राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का मुद्दा गरम करने और इस मामले में बढ़ चढ़ कर दावे करने की आदी रही भाजपा पर इस मामले में उसका अब तक का ढुलमुल रुख उस पर भारी पड़ते दिख रहा है. चाहे केंद्र में हो या राज्य में, चुनाव से पहले ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ जैसे नारे और मंदिर निर्माण के लिए तमाम तरह की प्रतिबद्धताएं जतानेवाली भाजपा सत्तारूढ़ हो जाने के बाद मंदिर निर्माण की दिशा में एक भी कदम आगे नहीं बढ़ा पाने के लिए नए नए बहाने ढूंढने लग जाती है. मुझे याद है कि अतीत में जब भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने पूछे जाने पर कहा था कि राम जन्मभूमि मंदिर का मुद्दा तो बैंक के एक बेयरर चेक की तरह था जिसे बार बार नहीं भुनाया जा सकता. यही नहीं भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष स्व. कुशाभाऊ ठाकरे ने दैनिक हिन्दुस्ताने के लिए इस लेखक को दिए साक्षात्कार में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के बारे में पूछे जाने पर कहा था कि ‘‘नदी पार करने के लिए नाव की आश्यकता होती है. नदी पार कर लेने के बाद आवश्यक तो नहीं कि नाव को कंधे पर लाद कर निकला जाए.'' और तो और दिसंबर 2000 के अंतिम दिनों में चेन्नई में हुई भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भाजपा के तत्कालीन संगठन प्रभारी महासचिव और आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक प्रस्ताव पेश करते हुए कहा था कि ‘‘अब भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं के एक हाथ में पार्टी का झंडा और दूसरे हाथ में एनडीए का एजेंडा होना चाहिए. हमें अयोध्याा में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण, कामन सिविल कोड और संविधान से कश्मीर को विशेष अधिकार देनेवाली धारा 370 को हटाने जैसे अपने विवादित मुद्दों को ठंडे बस्ते में रख देने चाहिए''.
हालांकि उसके बाद भी विभिन्न चुनावों से पहले भाजपा और संघ परिवार ने इन मुद्दों को गरमाने की भरपूर कोशिशें की. इस बार भी पांच राज्यों में अगले नवंबर-दिसंबर महीनों में होनेवाले विधानसभा और उसके कुछ ही महीनों बाद लोकसभा के आमचुनाव से पहले आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी नागपुर में संघ के विजय दशमी पर आयोजित होनेवाले विजय पर्व कार्यक्रम में अपने संबोधन में कहा था कि राम मंदिर के लिए कानून बनाना चाहिए. यह सीधे तौर पर इशारा था कि संघ और भाजपा के समर्थकों और राम मंदिर के प्रति आस्था रखने वालों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार को अध्यादेश लाने से लेकर सदन में राम मंदिर के लिए कानून बनाने के विकल्प पर अमल करना चाहिए.
वैसे भी, मोदी सरकार के पास अपने पिछले साढ़े चार साल के शासन की उपलब्धियां बताने के लिए कुछ ठोस नहीं है. उसके 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले मतदाताओं से किए गए अधिकतर चुनावी वादे हवाई अथवा जुमले साबित हो चुके हैं. दूसरी तरफ, बेरोजगारी, महंगाई, रफायेल, पेट्रोलियम पदार्थों के आसमान छूते दाम, अमेरिकी डालर के मुकाबले भारतीय रुपये की लगातार गोता लगाती कीमत, किसानों की आत्महत्याओं में कमी नहीं आने, महिलाओं, अबोध बच्चियों के उत्पीड़न, बर्बर बलात्कार और नृशंस हत्या की बढ़ती घटनाएं, दलितों और अल्पसंख्यकों पर बढ़ रहे हमले, बेरोक टोक माॅब लिंचिंग आदि तमाम मुद्दों पर मोदी सरकार लगातार घिरती और कठघरे में नजर आ रही है.

ऊपर से मंदिर निर्माण के लिए इसी तरह के दबाव अब उन तमाम साधु संतों और हिंदू संगठनों की तरफ से भी बन रहे हैं जिनकी भावनाओं को अपने राजनीतिक लाभ के मद्देनजर हवा देने में भाजपा ने कभी कोताही नहीं की थी. अब इन संतों ने भी सरकार को इस मुद्दे पर घेरना शुरू कर दिया है कि मंदिर निर्माण में देरी वे बर्दाश्त नहीं करेंगे. संतों का कहना है कि क्या भाजपा मंदिर निर्माण का अपना वादा भूल गई है और क्यों सुप्रीम कोर्ट के फैसले के इंतजार का बयान पार्टी की ओर से बार-बार दिया जा रहा है. सुनवाई टलने के बाद अयोध्या के संतों ने भी पूछा कि बार-बार क्यों सुनवाई टल रही है. ध्यान रहे कि संतों के एक बड़े वर्ग और राम मंदिर आंदोलन से जुड़े महंतों ने इस वर्ष 6 दिसंबर से अयोध्या में मंदिर निर्माण की घोषणा कर दी है. संत समाज का कहना है कि वे मंदिर निर्माण का काम शुरू कर देंगे, सरकार रोकना चाहती है तो रोके.ध्यान रहे कि संतों और मतदाताओं के बीच संदेश देने के लिए चुनाव से ठीक पहले मोदी सरकार के सामने यह एक अहम और अंतिम मौका है. जनवरी से प्रयाग में शुरू हो रहे कुंभ के दौरान भी सरकार को संत समाज के सामने मंदिर के प्रति अपनी जवाबदेही स्पष्ट करनी होगी.
संतों का यह आह्वान सरकार के लिए गले की फांस बनते दिख रहा है. केंद्र की मोदी सरकार और राज्य में योगी सरकार के लिए यह बहुत मुश्किल होगा कि संतों को रोकने के लिए वे किसी भी प्रकार का बल प्रयोग करें. इससे भाजपा को अपने समर्थकों के बीच खासा नुकसान झेलना पड़ सकता है. दिसंबर के बाद ही जनवरी से इलाहाबाद, माफ कीजिए प्रयागराज में कुंभ भी लगने जा रहा है.
कुल मिलाकर अब गेंद पूरी तरह से सरकार के पाले में है. भाजपा के भीतर एक बड़ा तबका इस राय का भी है कि जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के रुख का इंतजार करना चाहिए क्योंकि जनवरी में भी अयोध्या विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट के रुख को कुछ महीनों बाद ही होनेवाले लोकसभा चुनाव में अपने ढंग से भुनाया जा सकता है. इस बीच शुरू होनेवाले सर्दियों के मौसम में भी मंदिर मुद्दे को गरमाने के प्रयास किए जा सकते हैं. लेकिन भाजपा के भीतर एक तबका ऐसा भी है जो मानता है कि सरकार के पास लोकसभा चुनाव से पहले संसद का केवल शीत सत्र ही बचा है जिसमें कानून बनाने की कवायद अथवा दिखावा भी किया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट के ताजा रुख के मद्देनजर उन्हें नहीं लगता कि सर्वोच्च अदालत से उन्हें किसी तरह की उपयोगी मदद मिल सकती है. हालांकि इससे पहले शीर्ष अदालत के 27 सितंबर के मस्जिद और नमाज के इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं मानने के फैसले के बाद मंदिर समर्थकों को लगा था कि मूल मुकदमे में भी सर्वोच्च अदाालत इसी तरह जल्द ही उनके पक्ष में कोई फैसला सुना सकती है.

यह मुद्दा उस वक्त उठा जब तीन न्यायाधीशों की पीठ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर सुनवाई कर रही थी. उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने 30 सितंबर, 2010 को 2-1 के बहुमत वाले फैसले में कहा था कि अयोध्या की 2.77 एकड़ विवादित जमीन को तीनों पक्षों-सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला विराजमान में बराबर-बराबर बांट दिया जाये. इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 13 याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान मई 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए कोई फैसला होने तक अयोध्या में यथास्थिति बनाए रखने को कहा था.

शीर्षासन या संघ का वैचारिक कायापलट!

भाजपा की पितृ कहें या मातृ संस्था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने संगठन, विचारधारा और कार्यशैली को लेकर भारी कश्मकश के दौर से गुजर रहा है. खासतौर से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के आरएसएस की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे आतंकी संगठनों के साथ करने, गोहत्या और लव जिहाद के विरोध में माॅब लिंचिंग जैसी घटनाओं में उसके सांप्रदायिक, मनुवादी और फासिस्ट सोच और चरित्र का विद्रूप सामने आने के बाद से परेशान संघ का नेतृत्व अपनी छवि सुधारने और चमकाने और बदलती परिस्थितियों के मद्देनजर खुद को ढालने या कहें कि अपनी एक सकारात्मक छवि पेश करने की कोशिशों में लगा है. आमतौर पर पर्दे के पीछे गोपनीय गतिविधियों में लिप्त रहने वाले संघ ने पिछले दिनों खुलकर सामने आने की कोशिश की. संघ के पुराने तकरीबन सभी सर संघचालक सार्वजनिक तौर पर बहुत कम बोलते रहे हैं लेकिन 2009 में संघ की कमान संभालने के बाद से ही पेशे से मवेशी डाक्टर रहे मोहन भागवत अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही बोल रहे हैं. कई बार उनके बोल विवादों का कारण भी बनते रहे हैं.
लेकिन हाल के वर्षों में संघ के संगठन और संसाधनों के मामले में भी चतुर्दिक विकास होने के बावजूद देश विदेश के बौद्धिक वर्ग के बीच उसकी सर्व सवीकार्यता नहीं बन सकी है. देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के बजाय अंग्रेजों का साथ देने की उसकी भूमिका, हिटलर की नस्ली तानाशाही और मुसोलिनी के फासीवाद के साथ ही देश में मनुस्मृति का समर्थक होने के कारण वह लगातार सवालों के घेरे में आलोचना का पात्र रहा है. संघ के आलोचक इस मामले में इसके दूसरे सर संघचालक माधव सादाशिव गोलवलकर उर्फ गुरु जी की पुस्तक ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ और 'बंच आफ थाट्स’ के उनके विचारों तथा विभिन्न अवसरों पर दिए गए भाषणों को  उद्धृत करते रहे हैं. हालांकि बाद के वर्षों में ‘बंच आफ थाट्स’ के कई नए संस्करण आए जिनमें से उनके द्वारा कही गई कुछ विवादित बातों को गायब किया गया लेकिन आप मूल रूप से उनके विचारों को तो नहीं बदल सकते. और फिर संघ की शाखाओं में प्रचारकों के पास राणा प्रताप बनाम अकबर और शिवाजी बनाम औरंगजेब के अलावा स्वयंसेवकों को गुरु गोलवलकर की बातों की घुट्टी ही तो पिलाई जाती रही है. यह घुट्टी संघ के स्वयंसेवकों के मन मस्तिष्क में इस कदर जम गई है कि इसके आगे कुछ सोचने विचारने और बोलने की उनमें क्षमता ही नहीं विकसित हो सकी. जब कभी आर्थिक, सामाजिक, वैदेशिक, वैज्ञानिक मामलों पर बहस होती है, वे लोग लड़खड़ा से जाते हैं. 
और हाल के वर्षों में खासतौर से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में और तकरीबन डेढ़ दर्जन राज्यों में भी भाजपानीत साझा सरकारों के आने के बाद जिस तरह से संघ परिवार से जुड़े लोगों का गो हत्या, लव जिहाद आदि के विरोध के नाम पर ‘माब लिंचिंग’ के जरिए जो विद्रूप चेहरा सामने आया है, और उस पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं, वह संघ की शिक्षाओं और उसके द्वारा पिलाई गई मुस्लिम, दलित और महिला विद्वेष की घुट्टी की ही देन है लेकिन उसको लेकर संघ और उसके द्वारा संचालित भाजपानीत सरकारों की छीछालेदर के बाद संघ के नेतृत्व को लगने लगा है कि दिखावे के तौर पर ही सही संघ को अपनी पुरानी खोल से बाहर आना ही होगा. इसके लिए एक सुविचारित योजना और तैयारी के साथ मोहन भागवत ने पिछले दिनों चार दिनों के दिल्ली प्रवास के दौरान बदलती परिस्थितियों के मद्देनजर ‘बदलते संघ’ की छवि पेश करने की कोशिश की.  
उन्होंने संघ की नजर में ‘भविष्य का भारत’ विषय पर सरकारी विज्ञान भवन में दो दिनों तक एकालाप किया और तीसरे दिन तकरीबन अपने लोगों के द्वारा ही संघ से जुड़े विवादित मुद्दों, जिनको लेकर उसकी आलोचना होती रही है, ऐसे तमाम विषयों पर पूछे गए सवालों के जवाब दिए. उन्होंने गुरु गोलवलकर के बहुत सारे विचारों, खासतौर से देश के लिए आंतरिक दुश्मनों के रूप में कम्युनिस्टों, मुसलमानों और ईसाइयों को परिभाषित करने को उस समय की परिस्थितियों के अनुकूल कह कर खारिज करने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि संघ अब अपने संस्थापक डा. केशव बलिराम हगडेवार और गुरु गोलवलकर के समय से काफी आगे आ चुका है. लेकिन अगर गोलवलकर के विचारों को निकाल बाहर कर दें तो संघ के पास वैचारिक पूंजी के बतौर बचता क्या है. उनके उन्हीं विचारों को लेकर तो संघ के स्वयंसेवक और नए जमाने के भक्त कम्युनिस्टों को देशद्रोही करार देते हैं और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध जहरीली बातें करते हैं. गौरतलब है कि इन आंतरिक दुश्मनों की पहचान भी गोलवलकर ने अंग्रजों के मुकाबले की थी. स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल नहीं होने और अंग्रेजों का साथ देने को तार्किक आधार देते हुए उन्होंने कहा था कि 'हमें अंग्रेजों से नहीं बल्कि अपने इन तीन आंतरिक दुश्मनों से लड़ने की जरूरत है.' 
अब दिखावे के तौर पर ही सही क्या संघ अपना हुलिया बदल सकेगा! संघ मामलों के एक जानकार कहते हैं कि मोहन भागवत का दिमाग खुद बहुत सारे मामलों में साफ नहीं है. वह एक बार तो संघ को संविधान के प्रति निष्ठावान बताते हैं और मनुस्मृति को खारिज नहीं करते और फिर संविधान से  धारा 370 और 35 ए को हटाने की बात भी करते हैं. बिहार विधानसभा के चुनाव के समय वह अपने मुखपत्रों-पांचजन्य और आर्गनाइजर को दिए साक्षात्कार में आरक्षण पर पुनर्विचार करने की बात कहते हैं और फिर राजस्थान, म.प्र., छत्तीसगढ़ और तेलंगाना विधानसभाओं के चुनाव के समय आरक्षण की वकालत करते हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार आरक्षण पर अपने पहले बयान के कारण उन्होंने बिहार में दलितों और पिछड़ों को भाजपा विमुख करने में योगदान किया था और अब वह आरक्षण विरोधी सवर्णों को भाजपा से दूर करने के लिए आग में घी डालने का काम कर रहे हैं. एससी, एसटी ऐक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को उलटने के लिए मोदी सरकार के स्टैंड से जले भुने सवर्णों के घावों पर भागवत के बयान ने नमक छिड़कने का काम ही किया है. इसी तरह संविधान के प्रति निष्ठां जतानेवाले भागवत सबरीमाला और अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का खुला विरोध करते हैं.   
कुछ साल पहले उन्होंने कहा था कि जिस तरह से अमेरिका में रहनेवाले  सभी लोग अमेरिकन होते हैं उसी तरह भारत में रहनेवाले सभी लोग हिंदू हैं. यानी आप संघ के हिंदू राष्ट्र में मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन या अपनी अलग धर्म और पहिचान के साथ समान हैसियत में नहीं रह सकते. लेकिन विज्ञान भवन में उन्होंने कहा कि मुसलमानों के बिना हिंदुत्व की अवधारणा बेमतलब और अधूरी है. 2013-14 से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के अन्य बड़े नेता 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा देते आ रहे हैं. पिछले साढ़े चार वर्षों तक इस पर चुप्पी साढ़े रहे  भागवत ने  पिछले दिनों (17 से 19 सितम्बर 2018) नई दिल्ली के विज्ञान भवन के अपने उद्बोधन में इससे असहमति जताते हुए 'कांग्रेस युक्त भारत' की बात कही.   
उन्होंने महिलाओं के सशक्तीकरण पर जोर दिया और कहा कि महिलाओं के प्रति विचार और व्यवहार में जमीन आसमान के अंतर को मिटाना होगा. हर मामले में महिलाओं को बराबरी की हिस्सेदारी दी जानी चाहिए. लेकिन इन्हीं मोहन भागवत ने कुछ साल पहले छह जनवरी 2013 को इंदौर में कहा था, ‘‘ पति की देखभाल के लिए महिला उसके साथ एक करार से बंधी होती है. पति और पत्नी के बीच एक करार होता है, जिसके तहत पति का यह कहना होता है कि तुम्हें मेरे सुख और घर की देखभाल करनी होगी और बदले में मैं तुम्हारी सभी जरूरतों का ध्यान रखूंगा. जब तक पत्नी करार का पालन करती है, पति उसके साथ रहता है. यदि पत्नी करार का उल्लंघन करती है, तो वह उसे त्याग सकता है.’’ इतना ही नहीं इससे कुछ पहले उन्होंने यह कहा था कि बलात्कार जैसी घटनाएं ग्रामीण भारत में नहीं, बल्कि शहरी भारत में होती हैं.
मोहन भागवत ने अपने नए अवतार में स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस के योगदान को सराहा. हालांकि इसके अलावा वह और कह क्या सकते थे. संघ को जनतांत्रिक संगठन बताने की कोशिश की लेकिन यह नहीं बता सके कि सर संघचालक से लेकर नीचे तक के पदों के लिए संघ के इतिहास में कोई चुनाव हुए भी हैं क्या. उन्होंने अपने प्रवचनों और प्रायोजित सवालों के जवाब में संघ को दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और अन्य पिछड़ी जातियों का हिमायती बताया लेकिन यह नहीं बताया कि उनके सभी सर्वोच्च पदों पर केवल द्विज और वह भी ब्राह्मण-इनमें से भी अधिकतर महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण ही क्यों हैं. संघ के राष्ट्रीय पदाधिकारियों और समूची राष्ट्रीय कार्यकारिणी में एक भी दलित, आदिवासी और महिला का नाम क्यों नहीं है. संघ में सूचना के बाद सोचना बंद क्यों हो जाता है, इसके जवाब में उन्होंने समझाने की कोशिश की कि सूचना लंबे विचार विमर्श के बाद दी जाती है इसलिए उसके बाद उस पर सोचने की जरूरत नहीं रह जाती. लेकिन यह तो फासिस्ट समाजों में होता है लोकतांत्रिक समाज में कतई नहीं. 
उन्होंने समलैंगिकता को समर्थन देकर मध्यप्रदेश में अपने भाजपा सरकार में वित मंत्री रहे राघव जी जैसे लोगों का मनोबल जरूर बढ़ाया. 
कुल मिलाकर संघ का जो मूल चरित्र है, उसमें फिलहाल तो बदलाव की कोई संभावना नजर नहीं आती. परिस्थितियों के दबाव में इसके नरम या उदार चेहरा को पेश करने की जितनी भी कोशिशें की जाएं, इसका मूल चरित्र नहीं बदल सकता. कुछ लोग मोहन भागवत के इन विचारों को सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव गोर्वाच्योव के ग्लासनोश्त से करने लगे हैं लेकिन ग्लासनोश्त के बाद पेरेस्त्रोइका भी हुआ था और उसके साथ ही सोवियत संघ का पतन कहें या विखंडन भी. क्या संघ इसके लिए तैयार है !