Wednesday, 30 December 2020

चीन भ्रमण, 2017 (China Visit 2017)

डोकलाम विवाद के साए में चीन की यात्रा

जयशंकर गुप्त

     
चीन की ऐतिहासिक दीवार (तस्वीर इंटरनेट से)
    बात 2017 के अगस्त महीने की है. चीन के साथ डोकलाम या कहें ‘डोंगलांग’ को लेकर भारत का सीमा विवाद चरम पर था. दक्षिण पूर्व एशिया के आसमान में दोनों देशों के बीच आशंकित युद्ध के बादल मंडरा रहे थे. 'आल चाइना जर्नलिस्ट एसोसिएशन' का तकरीबन एक सप्ताह की चीन यात्रा का निमंत्रण मिला. मन में चीन भ्रमण की इच्छा तो वर्षों से हिलोरें मार रही थी लेकिन ऐसे माहौल में चीन की यात्रा! मन में कई तरह के सवाल भी खड़े कर रही थी. पता चला कि चीन साल में एक-दो बार भारत सहित दुनिया के अन्य देशों के पत्रकारों को भी अपने देश के विभिन्न हिस्सों की यात्रा करवाने के साथ ही संवाद का आदान-प्रदान भी करता है. यह आमंत्रण उसी क्रम में था. आधिकारिक तौर पर गैर सरकारी संगठन कहलानेवाला आल चाइना जर्नलिस्ट एसोसिएशन परोक्ष रूप से चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के प्रचार विभाग से जुड़ा है और चीन के पत्रकारों का यह सबसे बड़ा संगठन पार्टी, चीन सरकार और चीनी मीडिया-प्रेस के बीच सेतु का काम करता है. समय-समय पर विभिन्न सामयिक एवं ज्वलंत मुद्दों पर देश-विदेश में मीडिया टु मीडिया संवाद भी करता, करवाता है. संबद्ध देशों के पत्रकारों को चीन में बुलवाता, सामयिक विषयों पर चीन सरकार के विभिन्न मंत्रालयों, अधिकारियों, रणनीतिकारों से उन्हें मिलवाता, चीन के प्रमुख शहरों में उन्हें घुमाता है. चीन के पत्रकारों को भी अपने बैनर तले संबद्ध देशों की यात्रा पर भेजता है. 

    हमारी यात्रा डोकलाम विवाद पर भारतीय पत्रकारों को चीन के दृष्टिकोण से अवगत कराने के मकसद से भी आयोजित की गई लगती थी. हमारे साथ दिल्ली से चीन की राजधानी बीजिंग और इसके बंदरगाह शहर झानझियांग जानेवाले की सूची में टाइम्स ऑफ इंडिया के डिप्लोमेटिक एडिटर रहे वरिष्ठ पत्रकार मनोज जोशी, पीटीआई के अनिल के जोसेफ, चंडीगढ़ में दि ट्रिब्यून के वरिष्ठ पत्रकार संदीप दीक्षित के नाम भी थे. इनमें अकेले हम ही किसी हिंदी अखबार के पत्रकार थे. हमने इस यात्रा के आमंत्रण को ज्यादा माथा पच्ची करने के बजाय सहज स्वीकार कर लिया. विश्व की पांच-छह महा शक्तियों में से रूस और अमेरिका के बाद चीन को देखने, समझने और उसकी महान दीवार के दीदार का सपना पूरा होने जा रहा था. निमंत्रण चूंकि चीन की तरफ से ही था, लिहाजा वीसा आदि को लेकर किसी तरह की दिक्कत नहीं हुई. 

बीजिंग के कैपिटल इंटरनेशनल एयरपोर्ट के बाहर
वरिष्ठ पत्रकार मनोज जोशी के साथ
    छह अगस्त को चीन की राजधानी बीजिंग के लिए एयर चाइना की हमारी उड़ान संख्या सी ए 948 अल्ल सुबह 2.50 बजे की थी जो उसी दिन सुबह के 9 बजे (भारतीय समय के अनुसार और चीन के समय के अनुसार सुबह के ही 11.25 बजे बीजिंग के कैपिटल इंटरनेशनल एयरपोर्ट के टर्मिनल 3 पर पहुंच गई. तकरीबन छह घंटे की सीधी उड़ान को किसी भी लिहाज से बहुत आरामदायक तो नहीं कहा जा सकता था. ईकोनामी क्लास में सीटों के बीच जगह बहुत संकरी होने के कारण ठीक से पांव पसारने में भी दिक्कत हो रही थी. संयोग से या कहें हमारे सौभाग्य से बगल की सीटें खाली होने का लाभ हमें तीन सीटों पर पैर फैलाकर लेट जाने के रूप में मिला. 

    हवाई अड्डे पर अपने सामान पाने के लिए हमें एक मेट्रोरेलनुमा शटल ट्रेन ‘कैपिटल एक्सप्रेस’ से निर्धारित जगह, टर्मिनल 2 पर पहुंचना पड़ा. आप्रवासन की औपचारिकताओं आदि से फारिग होने में दिन के एक-डेढ़ बज गए. हवाई अड्डे से बाहर निकलने पर हमारे स्वागत के लिए चीन के आए श्री रोंग मिले जो न सिर्फ हमारे लिए दुभाषिए के बतौर बल्कि मित्रवत गाइड के रूप में भी पूरी यात्रा में हमारे साथ रहे. समय के सदुपयोग को ध्यान में रखते हुए हमारी बीजिंग यात्रा का कार्यक्रम कुछ इस तरह से बना था कि हवाई अड्डे से सीधे हम लोग एक सुविधाजनक, वातानुकूलित मिनी बस में हुएरो जिले के मुतियान्यु सेक्टर में चीन की महान दीवार (ग्रेट वॉल ऑफ चाइना) देखने चले गए.

चीन की महान दीवार के दीदार


     चीन की ऐतिहासिक और दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक, सबसे लंबी (21 हजार 196 किमी), मिट्टी और पत्थर से बनी किलेनुमा दीवार का निर्माण चीन के विभिन्न शासकों के द्वारा सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक उत्तरी सीमा पर यूरेशिया से आनेवाले घूमंतू, खानाबदोश लुटेरे, हमलावरों से सुरक्षा के साथ ही सीमा निर्धारण, सिल्क रोड से परिवहन और सामान को एक जगह से दूसरी जगह पर पहुंचाने से लेकर कराधान की गरज से करवाया गया. इसे दुनिया में इंसानों के द्वारा बनाई गई सबसे बड़ी संरचना भी कहा जाता है. चीनी भाषा में इस दीवार को ‘वान ली छांग छंग’ कहा जाता है जिसका मतलब होता है ‘चीन की विशाल दीवार’. यूनेस्को ने इसे 1987 में विश्व धरोहर सूची में शामिल किया था. तकरीबन एक करोड़ पयर्टक हर साल इस दीवार को देखने के लिए दुनिया भर से आते हैं.

    इस दीवार का निर्माण किसी एक सम्राट या राजा के द्वारा नहीं बल्कि कई सम्राटों और राजाओं द्वारा कराया गया था. इसकी परिकल्पना चीन के पूर्व सम्राट किन शी हुआंग ने पांचवीं शताब्दी में की थी लेकिन इस पर काम बाद में शुरू हुआ. दीवार का महत्वपूर्ण और बहुचर्चित हिस्सा सोलहवीं शताब्दी में मिंग साम्राज्य के जमाने में पूरा हुआ था. चीन की इस किलेनुमा विशाल दीवार के विभिन्न सेक्टरों पर कुछ खास जगहों पर वॉच टॉवर्स बनाए गए हैं. इस दीवार को 1970 में आम दर्शकों-पयर्टकों के लिए खोला गया था. हमें बताया गया कि यह पूरी एक दीवार नहीं है बल्कि छोटे-छोटे हिस्‍सों से मिलकर बनी है. इस दीवार की चौड़ाई इतनी है कि पांच घुड़सवार या 10 पैदल सैनिक एक साथ इस पर गश्त कर सकते हैं. दीवार की ऊंचाई एक समान नहीं है, किसी जगह यह 9 फुट ऊंची है तो कहीं पर 35 फुट ऊंची भी है. इस दीवार को उत्तर की दिशा में चीन की रक्षा के लिए बनाया गया था लेकिन यह दीवार अजेय न रह सकी क्योंकि चंगेज खान ने 1211 में इसे पार करके ही चीन पर हमला किया था.

    बीजिंग के उत्तर पूर्व में बीजिंग अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से तकरीबन 60 किमी दूर मुतियान्यु स्थित चीन की दीवार के इस खंड तक पहुंचने में हमारी बस को डेढ़ घंटे का समय लगा. हम लोगों ने वहां हरी-भरी पहाड़ियों पर बनी चीन की दीवार पर तकरीबन डेढ़ घंटे का समय वहां गुजारा. ऊपर तक गए. वहां बहुत सारे पर्यटक भी थे. कुछ तो हमारी उड़ान में साथ आए लोग भी लगते थे. हुएरो जिले में स्थित मुतियान्यु खंड की चीन की दीवार चीन और खासतौर से बीजिंग के सर्वाधिक पसंदीदा पर्यटक केंद्रों में से एक है. वहां कुछ दुकानें और रेस्तरां भी थे लेकिन सब कुछ बहुत महंगा था, अमीर पर्यटकों के हिसाब से ! पर्यटकों के लिए चीन की दीवार सुबह के 7.30 बजे खुलती और शाम को ठीक 5.30 बजे बंद हो जाती है. हम लोग वहां पांच बजे तक रहे और वहां से सीधे बीजिंग वांगफुजिंग स्ट्रीट, सिटी सेंटर के करीब पांच सितारा होटल ‘नोवोटेल बीजिंग पीस’ पहुंचे जहां हमारे ठहरने का इंतजाम किया गया गया था. होटल ठीक ठाक था. 

इसी होटल नोवोटेल बीजिंग पीस में
हमारे ठहरने का इंतजाम था
    सबसे अच्छी बात यह थी कि इस होटल के पास ही पैदल दूरी पर शापिंग माल्स, स्ट्रीट फूड्स और शापिंग स्ट्रीट थी, जिसे शाम के बाद वाहनों की आवाजाही के लिए बंद कर दिया जाता था. थोड़ी दूर और आगे चलने पर, 15-20 मिनट की पैदल दूरी पर ‘निषिद्ध शहर’ (फारबिडेन सिटी), मिंग साम्राज्य का विशाल शाही महल और विश्व प्रसिद्ध ‘तियानमेन चौराहा’ भी है जहां कभी, एक अक्टूबर 1949 को चेयरमैन माओ ने कम्युनिस्टों के नेतृत्व में जनवादी गणराज्य चीन की घोषणा के साथ ही सत्ता संभालने की घोषणा की थी. वहीं पर माओ का भव्य मुसोलियन (समाधिस्थल) भी बना है जो पर्यटकों के अतिरिक्त आकर्षण का केंद्र रहता है. इस तियानमेन चौक की (कु) ख्याति एक कारण से और भी है. जून 1989 के पहले सप्ताह में चीन में लोकतंत्र समर्थक लाखों छात्र-युवाओं ने यहां भारी प्रदर्शन किया था. चीन की तत्कालीन सरकार ने लोकतंत्र समर्थक छात्र-युवाओं पर सेना की गोलियां बरसाकर, उन्हें टैंकों से रौंदवाकर उस आंदोलन का दमन किया था. बताया जाता है कि उस समय तकरीबन तीन हजार लोकतंत्र समर्थक छात्र युवा मारे गए थे हालांकि पश्चिमी मीडिया मृतकों की संख्या दस हजार के करीब बताता है जबकि चीन सरकार के अनुसार मारे गए छात्र-युवाओं की संख्या तीन सौ से अधिक नहीं थी, अलबत्ता हजारों लोग घायल हुए थे. जो भी हो, पूरी दुनिया में इस मामले पर चीन की थू थू हुई थी. इसे पश्चिमी देशों की तरफ से कई तरह के प्रतिबंध भी झेलने पड़े थे. 
बीजिंग शहर के बीच ऐतिहासिक तियानमेन चौक


चीन का इतिहास- भूगोल


    पूर्वी एशिया में स्थित चीनी जनवादी गणराज्य में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की एक दलीय शासन व्यवस्था है. तकरीबन 139 करोड़ की आबादी (2017 में) के साथ चीन को विश्व का सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश भी कहा जाता है. तकरीबन 96 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ यह रूस, कनाडा और अमेरिका के बाद विश्व का चौथा सबसे बड़ा क्षेत्रफल वाला देश है. इसकी तकरीबन 22117 किमी लंबी सीमाएं 14 देशों-पूर्वी एशिया में विएतनाम, लाओस, और म्यांमार, दक्षिण पूर्व एशिया में भारत, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान और अफगानिस्तान, दक्षिण एशिया में ताजिकिस्तान और किर्गिस्तान, मध्य एशिया में कज़ाकिस्तान, रूस, मंगोलिया, उत्तर कोरिया से लगती हैं. इसकी समुद्री सीमाएं दक्षिण कोरिया, जापान, विएतनाम तथा फिलीपींस के साथ लगती हैं. चीन के पश्चिम में हिमालय पर्वत श्रृंखला है जो चीन की भारत, भूटान और नेपाल के साथ प्राकृतिक सीमा बनाती है.

    चीन विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक है जो अभी भी अस्तित्व में हैं. खुदाई में प्राप्त जीवाश्मों से पता चलता है कि आज से कोई 16 लाख साल पूर्व ही चीन की भूमि पर मानव ने अपने पदचिन्ह छोड़ दिए थे. चीन का लिखित इतिहास भी पांच हजार साल पुराना बताते हैं. ईसा से 221 वर्ष पूर्व छिन राजवंश की स्थापना हुई, जिसने चीन का एकीकरण किया था. यहां विभिन्न प्रकार के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक ग्रन्थ और पुरातन संस्कृति के अवशेष पाए गए हैं. दुनिया के अन्य कई प्राचीन देशों की तरह चीन भी अपने विकास के दौरान आदिम समाज, दास समाज और सामंती समाज के कालों से गुजरा था. इस दौरान चीन कई युद्धों-गृह युद्धों के साथ ही कई सम्राटों और उनके राजवंशों के शासन, आक्रमण, उत्थान और पतन का भी साक्षी बनता रहा. सन् 618 में थांग राजवंश स्थापित हुआ. उसके शासनकाल में चीन पूर्वी एशिया में सर्वाधिक समृद्धशाली देश था. चीन का अंतिम राजवंश छिंग था. 1911 में चीन में कुओमिन्तांग (केएमटी या नेशनलिस्ट पार्टी) के सुन यात सेन के नेतृत्व में हुई क्रांति ने छिंग राजवंश का तख्ता पलट दिया और एक जनवरी, 1912 को चीन गणराज्य के रूप में दुनिया के सामने आया. सुन यात सेन इसके पहले कार्यवाहक राष्ट्राध्यक्ष बने. लेकिन दो-तीन साल बाद उन्हें अपदस्थ कर छिंग साम्राज्य के पूर्व जनरल युवान शिकाई राष्ट्राध्यक्ष बन गए और 1915 में उन्होंने खुद को चीन का सम्राट घोषित कर लिया. लेकिन 1916 में युवान शिकाई की मृत्यु के बाद शुरू हुए अस्थिरता के दौर में चीन राजनीतिक तौर पर बिखर सा गया. 1920 के दशक के अंत में च्यांग काई शेक के नेतृत्व में कुओमिन्तांग एक बार फिर सत्तारूढ़ हुए. उन्होंने चीन गणराज्य को नये सिरे से एकजुट किया और नान्जिंग में अपनी राजधानी बनाई. 

कम्युनिस्ट क्रांति


    लेकिन कुछ ही वर्षों में चीन के गरीब किसान, मजदूरों के बीच सत्तारुढ़ कुओमिन्तांग पार्टी के ‘कुशासन’ के विरोध में नाराजगी बढ़ने लगी. 1929 में उसके विरूद्ध चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और उसकी ‘जन मुक्ति सेना’ (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) ने सशस्त्र संघर्ष छेड़ दिया था. यह संघर्ष बाद के वर्षों में गृह युद्ध के रूप में बदल गया था. उसी कालखंड (1934-35) में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीन में ऐतिहासिक लांग मार्च हुआ था. उसी बीच, 1936 में जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक समय ऐसा भी आया जब 1937 से 1945 के बीच दूसरे चीन-जापान युद्ध के दौरान च्यांग काई शेक और माओ ने एक दूसरे से हाथ मिला लिया था. लेकिन जापान से युद्ध की समाप्ति के बाद चीन में एक बार फिर से गृह युद्ध शुरू हो गया था जिसकी परिणति कुओमिन्तांग की पराजय और चीन में चेयरमैन माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्ट शासन के रूप में हुई थी. एक अक्टूबर 1949 को माओ ने मशहूर तियानमेन चौक पर बड़े सार्वजनिक समारोह में चीनी जनवादी गणराज्य की स्थापना की घोषणा की थी. धर्म को अफीम की गोली घोषित करनेवाले माओ के नेतृत्व में बाद के वर्षों में सांस्कृतिक क्रांति के दौरान भी वहां बड़े पैमाने पर खून खराबा और नर संहार हुए थे. 

चेयरमैन माओत्सेतुंग
सांस्कृतिक क्रांति के 'अग्रदूत'
    बहरहाल, 1976 में माओत्से तुंग के निधन के बाद सत्तारूढ़ हुए देंग शियाओ पिंग के नेतृत्व में न सिर्फ चीन की कम्युनिस्ट पार्टी बल्कि चीन की राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में भी परिस्थितिजन्य सुधार शुरू हुए और चीन में साम्यवादी अर्थव्यवस्था की जगह मिश्रित अर्थव्यवस्था आकार लेने लगी. अपने आर्थिक सुधारों के कारण आज चीन विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और परमाणु शक्ति संपन्न, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य देश भी है. आज का चीन विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक और दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश भी है. हालांकि चीन अभी भी धर्म के मामले में आधिकारिक तौर पर नास्तिक देश है. सरकार में शामिल लोग और कम्युनिस्ट पार्टी के साधारण सदस्य भी किसी धर्म या धार्मिक संस्था से नहीं जुड़ सकते. लेकिन हाल के कुछ दशकों में चीन में भी धर्म के प्रति आम लोगों की आस्था बढ़ी है. सरकारी स्तर पर भी इस मामले में कुछ उदारता बढ़ी है. चीन का संविधान भी लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है. आम आदमी निजी तौर पर अपनी पसंद के किसी धर्म के प्रति आस्थावान हो सकता है. चीन की सरकार इस समय पांच धर्मों-बौद्ध, ताओ, इस्लाम, प्रोटेस्टेंट और कुछ हद तक कैथोलिक ईसाई धर्म को पहचान देती है. चीन की आधिकारिक भाषा चीनी, मंडारिन है.

राजधानी बीजिंग


चीन की राजधानी बीजिंग आज एक वैश्विक शहर और संस्कृति, कूटनीति-राजनय, राजनीति, व्यापार और अर्थशास्त्र, शिक्षा, भाषा और विज्ञान-प्रौद्योगिकी के लिए दुनिया के अग्रणी केंद्रों में से एक कहा जाता है. सही मायने में तकरीबन दो करोड़ की आबादी के साथ मेगासिटी कहा जानेवाला बीजिंग, शंघाई के बाद शहरी आबादी के हिसाब से चीन का और संभवतः पूरी दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शहर है. आज यहां चीन की सबसे बड़ी राज्य के स्वामित्ववाली कंपनियों के मुख्यालय हैं और दुनिया में फॉर्च्यून ग्लोबल 500 कंपनियों की सबसे बड़ी संख्या के साथ-साथ दुनिया के चार सबसे बड़े वित्तीय संस्थान भी यहीं हैं. बीजिंग को ‘दुनिया की अरबपति राजधानी’ भी कहा जाता है, जहां सबसे अधिक अरबपति रहते हैं.

    आधुनिक और पारंपरिक वास्तुकला दोनों को मिलाकर, बीजिंग दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक है, जिसमें तीन सहस्त्राब्दियों का एक समृद्ध इतिहास संरक्षित है. चीन की चार महान प्राचीन राजधानियों (शी आन, लुओयांग और नानजिंग और बीजिंग) में से अंतिम के रूप में बीजिंग पिछली आठ शताब्दियों से देश का राजनीतिक केंद्र रहा है. पुरानी भीतरी और बाहरी शहर की दीवारों के अलावा, तीन तरफ अंतर्देशीय शहर के आसपास के पहाड़ों के साथ , बीजिंग को रणनीतिक रूप से राजधानी शहर, तत्कालीन सम्राट के निवास के रूप में बनाया गया था. यह शहर अपने भव्य महलों, मंदिरों, पार्कों, उद्यानों, मकबरों, दीवारों और दरवाजों के लिए भी प्रसिद्ध है. यहां यूनेस्को द्वारा संरक्षित सात विश्व धरोहर स्थल हैं- निषिद्ध शहर, स्वर्ग का मंदिर, समर पैलेस, मिंग टॉम्ब, झोउकौडियन और चीन की महान दीवार के कुछ हिस्से और ग्रैंड कैनाल- जहां बड़ी मात्रा में देश विदेश के पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है. बीजिंग में कुल 91 विश्वविद्यालय हैं जिनमें से कई लगातार एशिया प्रशांत और दुनिया में सर्वश्रेष्ठ कहे जाते हैं. इस शहर ने हालिया अतीत में ओलंपिक खेलों के साथ ही कई अन्य अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं की मेजबानी की है.

भारत-चीन संबंध !


    चीन के साथ भारत के संबंध ऐतिहासिक रूप से भी काफी मधुर रहे हैं. अतीत में भी दोनों के बीच आवाजाही, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रदान होता रहा है. सिल्क रूट के जरिए दोनों देशों के बीच व्यापारिक गतिविधियां होती रही हैं. चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार भारत से ही हुआ था. 1949 में नये चीन जनवादी गणराज्य की स्थापना के तुरंत बाद भारत ने चीन के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किए. इस तरह भारत, चीन जनवादी गणराज्य को मान्यता देने वाला पहला गैर कम्युनिस्ट देश कहा जा सकता है. वर्ष 1954 के जून माह में चीन, भारत व म्यांमार द्वारा शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के पांच सिद्धान्त यानी पंचशील प्रवर्तित किये गये. पंचशील चीन व भारत द्वारा दुनिया की शांति व सुरक्षा में किया गया एक महत्वपूर्ण योगदान था, जो आज तक दोनों देशों की जनता की जबान पर है. देशों के संबंधों को लेकर स्थापित इन सिद्धांतों की मुख्य विषयवस्तु है- एक-दूसरे की प्रभुसत्ता व प्रादेशिक अखंडता का सम्मान किया जाये, एक-दूसरे पर आक्रमण न किया जाए, एक-दूसरे के अंदरूनी मामलों में दखल न दी जाए और समानता व आपसी लाभ के आधार पर शांतिपूर्ण सहअस्तित्व बरकारार रखा जाए. उस समय दोनों देशों के बीच ‘हिंदी-चीनी, भाई- भाई’ का नारा बहुत प्रचलित हुआ था.

चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाओ एन लाई के साथ भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति 
 राजेंद्र प्रसाद, उप राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू
    लेकिन 1950 के दशक में तिब्बत पर चीन के कब्जे (चीन तिब्बत को ऐतिहासिक रूप से अपना, अपने साम्राज्य का हिस्सा होने का दावा करता है) और तिब्बत के तत्कालीन राष्ट्राध्यक्ष (टेम्पोरल हेड) बौद्ध गुरु दलाई लामा एवं अन्य बौद्ध धर्म गुरुओं के साथ बड़े पैमाने पर लाखों तिब्बती शरणार्थियों के भारत में आ जाने के बाद भारत के साथ चीन के संबंधों में भारी कटुता पैदा हुई. चीन ने मैत्री संबंधों और पंचशील को ताक पर रख कर अक्टूबर 1962 के तीसरे सप्ताह में सीमा पर तैनात भारतीय सैन्य चौकियों पर औचक आक्रमण कर दिया और भारत की बहुत सारी जमीन पर कब्जा करते हुए 21 नवंबर 1962 को एकपक्षीय युद्धविराम की घोषणा कर दी थी. उस समय से दोनों देशों के सम्बन्ध आज-तक सामान्य नहीं हो पाए. तब से ही दोनों देशों के बीच एक तरह का अविश्वास सा बना रहता है. 

    
अहमदाबाद में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग
 के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, 'झूला राजनय
    तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में अपनी चीन यात्रा के दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति जियांग जेमिन के साथ बातचीत में तिब्बत को एक तरह से चीन का अंग मान लिया था (हालांकि 1998 में भारत में परमाणु परीक्षण के बाद समाजवादी नेता और वाजपेयी सरकार में रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस ने चीन को भारत का ‘दुश्मन नंबर एक’ करार देते हुए भारत के परमाणु परीक्षण का एक कारण चीन भी बताया था.) लेकिन वाजपेयी के तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लेने, मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनय के औपचारिक प्रोटोकोल के धता बताकर भी चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग के स्वागत, उन्हें अहमदाबाद बुलाकर झूला झुलाने, तिब्बत के सवाल को ठंडे बस्ते में ढाल देने और दलाई लामा को मिलने के लिए समय तक नहीं देने आदि के बावजूद चीन और भारत के रिश्तों में एक तरह की परोक्ष-अपरोक्ष खटास सी बनी रहती है. गाहे-बगाहे सीमा विवाद सामने आते और दोनों देशों की सेनाओं के बीच झड़पें, कई बार सशस्त्र झड़पें भी होती रहती हैं. डोकलाम विवाद भी इसी कड़ी में था.

नोट ः अगली कड़ी में डोकलाम विवाद, इसकी पृष्ठभूमि में चीन के रक्षा, विदेश मंत्रालयों के आला अधिकारियों के साथ 'संवाद', बीजिंग शहर और फिर इसके गुआंगडांग प्रांत में  समुद्र किनारे स्थित बंदरगाह शहर झानझियांग के विभिन्न स्थानों पर भ्रमण, मेल-मुलाकात और बातचीत से संबंधित रोचक और रोमांचक संस्मरण.  

Monday, 21 December 2020

पश्चिम एशिया (बेरुत में बीते पल) (In Beirut with Global March to Jerusalem)


लेबनान के लिए समुद्री यात्रा


जयशंकर गुप्त


  
बेरुत बंदरगाह पर वीसा के सवाल पर जहाज,
फर्गुन के डेकपर हंगामा
    फर्गुन जहाज में 13 देशों के हम कुल 137 प्रतिनिधि शामिल थे. जहाज के डेक पर जाकर मेडिटेरियन सी यानी भूमध्य सागर का दृश्य बड़ा ही सुहाना लगता था लेकिन उसे बहुत देर तक नहीं देखा जा सकता था, चारों तरफ नीला पानी ही पानी. हम अंदर जहाज में आ गए. अंदर जहाज में अलग-अलग तरह की चर्चाएं चल रही थीं. चर्चा इस बात को लेकर भी थी कि अगर इजराइल की किसी पनडुब्बी ने हमारे जहाज पर हमला कर दिया तो? इजराइल के लिए कुछ भी असंभव नहीं. 31 मई 2010 के मावी मरमारा नरसंहार की चर्चाएं भी होने लगीं जिसमें फिलीस्तीनियों के लिए राहत सामग्री ले जा रहे ‘गाजा फ्रीडम फ्लोटिला’ में शामिल छह जहाजों के काफिले पर अंतर्राष्ट्रीय समुद्री सीमा में गाजा से 65 किमी दूर हमला कर इजराइली कमांडो दस्ते ने नौ लोगों की जान ले ली थी. वैसे, इस बार भी 23-24 मार्च को इजराइल ने अपनी सीमा से लगने वाले सीरिया, लेबनान, मिश्र और जार्डन की सरकारों को लिखित चेतावनी दे दी थी कि उनके देशों से इजराइल की सीमा (येरूशलम की ओर) में प्रवेश करने वालों का स्वागत गोलियों और तोप के गोलों से किया जाएगा. हालांकि इजराइल की धमकियों का कारवां में शामिल लोगों पर खास असर नहीं था. हम लोग गाते-बजाते जा रहे थे. भाषणबाजी भी हो रही थी. हमारी भी तकरीर हुई. साथियों की आम प्रतिक्रिया यही थी कि ‘जो होगा, देखा जाएगा. जहां मरना बदा होगा, वहीं मरेंगे.’ हमारे मशहूर शायर मिर्जा गालिब ने कहा भी है, ‘‘मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती.’’ इस तरह की चर्चाओं के बीच कब नींद आ गई और रात बीत गई, हम बेरुत या कहें बेयरुत पहुंच गए, कुछ पता ही नहीं चला. 

फर्गुन जहाज के बेरुत बंदरगाह पर पहुंचने के बाद की तस्वीर
पीछे बेरुत शहर की झलक

बेरुत के बुरे अनुभव!


    28 मार्च की सुबह नौ बजे हमारा फर्गुन जहाज बेरुत बंदरगाह पर पहुंच गया था. तकरीबन उसी जगह जहां इस साल (2020) अगस्त के महीने में भारी विस्फोट हुए थे जिनके चलते बेरुत में जान-माल की भारी तबाही हुई थी. मध्य पूर्व (पश्चिम एशिया) का पेरिस कहे जानेवाले बेरुत की रुत वाकई बहुत सुहानी थी. बेरुत के सौन्दर्य और वहां की हूरों के बारे में भी बहुत कुछ सुन रखा था. लेकिन हमारे हिस्से में तो कुछ और ही बदा दिख रहा था. बेरुत पोर्ट पर हमारे साथ जो कुछ घटा, वह किसी दुःस्वप्न से कम नहीं था. लेबनान के कुछ आप्रवासन अधिकारी जहाज के अंदर आए और हमसे वीसा फार्म भरवाकर हमारे पासपोर्ट लेकर चले गए. लेबनान में वीसा आन एराइवल देने की बात थी. इसी आश्वासन के बाद जहाज फर्गुन हमें बेरुत ले जाने को तैयार हुआ और तुर्की के आप्रवासन अधिकारियों ने हमें बेरुत के लिए रवाना किया था.
    

    
बेरुत बंदरगाह पर जहाज में बंधक! पीछे खड़ा संयुक्त राष्ट्र का
 युद्ध विमान अनिष्ट की आशंका को कम कर रहा था!
    कई घंटे बीत जाने के बाद भी जब वीसा नहीं मिला तो चिंता सताने लगी क्योंकि इंडोनेशिया के साथियों को उसी दिन बेरुत से विमान से जार्डन जाना था. इंडोनेशिया के बेरुत स्थित दूतावास के लोग उन्हें लेने भी आ गए थे. हमारा वीसा नहीं आया. अलबत्ता, समुद्र में किनारे जिस जगह हमारा जहाज खड़ा था, उसके चारों तरफ जमीन पर हमारे जहाज की तरफ रुख किए लेबनान के स्वचालित राइफलधारी सुरक्षा बलों के जवान घेरा बंदी कर खड़े हो गए थे, जैसे हमारे जहाज में आतंकवादियों का कोई गिरोह बैठा हो जिनसे उन्हें मुठभेड़ करनी है. हमारे जहाज के कुछ ही दूर समुद्र में संयुक्त राष्ट्र का भी एक युद्धक जहाज खड़ा था जो हमारे अंदर के भय को कुछ कम कर रहा था. वीसा मिलने में अस्वाभाविक देरी होने पर हम लोगों ने जहाज के डेक पर आकर नारेबाजी शुरू की. शाम पांच बजे अचानक लेबनान के कुछ आप्रवासन अधिकारी आए और इंडोनेशिया के प्रतिनिधियों को जहाज से बाहर निकाला गया. दो घंटे बाद तुर्की और फिर ईरान, मलयेशिया, अजरबैजान और ताजिकिस्तान के लोगों को भी बाहर किया गया क्योंकि उन्हें वीसा की जरूरत नहीं थी (तो फिर उन्हें तब तक जहाज पर क्यों रोके रखा गया था. यह किसी के भी समझ से परे की बात थी). बाकी बच गए हम 37 भारतीय, तीन फिलीपीनी और एक इराकी प्रतिनिधि के लिए कहा गया कि एक घंटे में हमें भी वीसा मिल जाएगा. 

    लेकिन जब रात के 11 बजे तक कोई हलचल नहीं दिखी तो एक बार फिर हम लोगों (जहाज पर बचे प्रतिनिधियों) ने आधी रात को जहाज के डेक पर आकर जोर-जोर से हल्ला-हंगामा और नारेबाजी शुरू की. थोड़ी देर में हमारे हंगामे से खुन्नस खाए, बंदरगाह के आप्रवासन अधिकारी अहमद आए. उनके साथ हमारी कुछ कहा-सुनी भी हुई. वह कुछ ऐसा बता रहे थे कि हमारे मेजबानों से उनकी कोई बात नहीं हो पा रही है. वे लोग इनका फोन नहीं उठा रहे, इसलिए वीसा मिलने में हमें दिक्कत हो रही है. बाद में पता चला कि इसके पीछे फिलीस्तीनी संघर्ष में शामिल संगठनों और गुटों की आपस की लड़ाई के चलते कहीं संवादहीनता की स्थिति बनी है. अहमद अगली सुबह नौ बजे तक कुछ होने की बात कह कर चले गए. दाल में कुछ काला भांप कर हम लोगों ने बेरुत स्थित भारतीय दूतावास से संपर्क किया. कारवां में शामिल हम मीडिया कर्मियों ने अपने-अपने तईं नई दिल्ली और हैदराबाद के मीडिया संपर्कों और राजनीतिक हलकों को अपनी आपबीती बतानी शुरू की. नतीजतन, मीडिया, राज्य सभा और लोक सभा के साथ ही आंध्र प्रदेश विधानसभा और विधानपरिषद में भी यह सवाल मजबूती से उठा. हमारी सरकार भी सक्रिय हुई. दुनिया भर में हमारे हवाले से खबर फैल गई कि ‘ग्लोबल मार्च टू येरूशलम’ में शामिल होने जा रहे हम भारतीय प्रतिनिधियों को बेरुत में बंदरगाह पर बेवजह रोक कर रखा गया है जबकि वहां पुहंचते ही वीसा देने का अश्वासन था. 

डिपोर्टेशन की तैयारी !


   
  जहाज पर पहुंचे भारतीय दूतावास में वीसा काउंसिलर ए के शुक्ला ने बताया कि बेरुत के आप्रवासन अधिकारी तो हमें बैरंग दिल्ली डिपोर्ट करने की तैयारी में हैं. मतलब साफ था कि आपको बिना कोई कारण बताए वापस आपके मुल्क भेज दिया जाएगा और आपके पासपोर्ट पर लिख दिया जाएगा, ‘डिपोर्टेड’. हमारा माथा ठनका. हमने जहाज में साथियों से विमर्श किया और शुक्ला जी की बातों का मर्म समझाया कि हमारे पासपोर्ट्स पर 'डिपोर्टेड' लिखकर हमें वापस हमारे देश भेज दिया जाएगा. उस पर डिपोर्टेशन का कारण भी नहीं लिखा होगा. यानी अब हम-आप इस पासपोर्ट को लेकर दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में नहीं जा सकेंगे. हमने तय किया कि अगर लेबनान सरकार ऐसा करती है तो हम गांधी और लोहिया के दिए राजनीतिक अस्त्र 'सिविल नाफरमानी' का इस्तेमाल करते हुए इसकी शालीनता के साथ अवज्ञा करेंगे. इस बात पर सर्वानुमति बनने के बाद हमने जवाब में शुक्ला जी के जरिए बेरुत के आप्रवासन अधिकारियों को कहलवा दिया कि हम लोग यहां तिरंगे और महात्मा गांधी की तस्वीरों को सीने से लगाए शांतिपूर्ण और अहिंसक ढंग से ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ में शामिल होने आए हैं. हम गांधी-लोहिया के लोग ‘मारेंगे नहीं लेकिन मानेंगे भी नहीं.’ बिना कारण बताए अपने पासपोर्ट पर ‘डिपोर्टेशन’ का दाग लगवाने के बजाए हम यहां जेल जाना अथवा लेबनान के सुरक्षाबलों की गोलियों से मरना पसंद करेंगे. लेबनान सरकार बताए तो सही कि ‘आन एराइवल वीसा’ देने के आश्वासन से उसके मुकरने के कारण क्या हैं.

     
बेरुत बंदरगाह पर जहाज से बार निकलने के बाद
    इस बीच हमें तासुकु से बेरुत ले आए जहाज फर्गुन के कर्मचारियों का दबाव भी बढ़ रहा था. जाहिर है कि उन्हें अगले मुकाम पर जाना होगा. 
छोटे से जहाज फर्गुन में खाने-पीने का सीमित सामान समाप्त होने को था. शौचालय भी पानी और सफाई के अभाव में दुर्गंध फैलाने लगे थे. तब तक शायद भारतीय दूतावास को 'नई दिल्ली' का संदेश आ चुका था. और तकरीबन 37 घंटे बेवजह जहाज में ही बिताने के बाद हमें वीसा मिल गया. 29 मार्च की रात दस बजे ही हम बेरुत की धरती पर कदम रखने में सफल हो सके. उसके बाद तो बेरुत प्रशासन और खासतौर से आप्रवासन अधिकारियों का हमसे बातचीत और व्यवहार का लहजा भी बदल सा गया था. हमें सम्मान के साथ होटल या कहें स्टुडिओ अपार्टमेंट, ‘ग्रैंड प्लाजा’ में ले जाया गया. 29 मार्च की रात हमने वहीं बिताई. होटल प्रवास के अनुभव भी कुछ अलग तरह के ही थे.

अरनून की पहाड़ी पर प्रदर्शन



    
प्रदर्शन में नेतृत्व को लेकर खींचातानी केबीच अमेरिका से
आए यहूदी प्रदर्शनकारियों का प्लेकॉर्ड


    अगली सुबह बसों से हमारा कारवां ‘ग्लोबल मार्च टू येरूशलम’ का हिस्सा बनने के लिए रवाना हुआ. लेकिन लेबनान की सेना ने इजराइल की सीमा की ओर जाने से मना कर हमें पहुंचा दिया बेरुत से तकरीबन 60 किमी दूर अरनून गांव की पहाड़ी पर स्थित बेऊफोर्ट कैसल के पास. वहां हमें तारों की बाड़ दिखाई दी. उसके पार हाथों में स्वचालित राइफलें थामे कमांडोनुमा जवान खड़े थे. हमें लगा कि हम लोग इजराइली सीमा पर हैं. बाद में पता चला कि लेबनान की सरकार ने उसके आगे जाने की अनुमति नहीं दी है. अरनून के एक हजार साल पुराने किले के पास दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आए सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों के द्वारा फिलीस्तीन की मुक्ति एवं येरूशलम पर तीनों धर्मों-मुस्लिम, ईसाई और यहूदियों के पवित्र धर्मस्थलों की सम्मानजनक स्थिति बहाली की मांग के साथ ‘ग्लोबल मार्च टू येरूशलम’ का एक और चरण पूरा हो गया. प्रदर्शन में स्थानीय फिलीस्तीनी शराणार्थी स्त्री-पुरुष भी बड़ी मात्रा में वहां आए थे. हम येरूशलम तो नहीं पहुंच सके लेकिन इजराइली सीमा के पास फिलीस्तीनी लैंड डे पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर फिलीस्तीन समस्या पर पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित कर पाने में सफल जरूर रहे. 

    
अरनून की पहाड़ी पर प्रदर्शन, हाथ में तिरंगा
    हालांकि फिलीस्तीन मुक्ति के नाम पर जमा प्रदर्शनकारियों के बीच के मतभेद वहां भी खुलकर दिखे. यह भी एक कारण था कि वहां अपेक्षाकृत भीड़ नहीं जुटी. ‘फिलीस्तीनी मुक्ति मोर्चा’, ‘हमास’, ‘फतह’ और हिजबुल्ला के बीच कार्यक्रम के आयोजन का श्रेय लेने की होड़ हिंसक झड़प में बदलने से बाल-बाल बची. मंच पर एक तरह से हिजबुल्ला के लोगों का ही कब्जा हो गया था. एशिया, अफ्रीका और अमेरिका के प्रतिनिधियों को बोलने का मौका भी नहीं मिला. प्रदर्शनकारियों में अमेरिका से आए कुछ यहूदी भी थे जो अपनी वेशभूषा और अपने हाथ में लिए बैनरों के कारण सबको आकर्षित कर रहे थे. उनके बैनरों पर लिखा था ‘जुडाइज्म रिजेक्ट्स जुआनिज्म ऐंड स्टेट आफ इजराइल.’ ‘जीव्ज युनाइटेड अगेंस्ट जुआनिज्म’ के नेता रब्बाई के अनुसार येरूशलम पर जुआनिज्म का एक छत्र आधिपत्य हर्गिज स्वीकार्य नहीं है. हम लोग इजराइल के शांतिपूर्ण विखंडन के लिए प्रार्थना करते हैं. लेकिन सबसे अधिक सम्मान तिरंगे के साथ महात्मा गांधी की तस्वीरों को सीने से लगाए भारतीय प्रतिनिधियों का था. तिरंगा और गांधी की तस्वीर देखते ही स्थानीय और बाहर से आए प्रतिनिधियों के साथ ही विभिन्न खबरिया चैनलों, मीडिया संगठनों के प्रतिनिधि साक्षात्कार लेने लग जाते. अरनून की पहाड़ी पर प्रदर्शन के बाद हमारा बेरुत प्रवास भी अपने आप में एक अनुभव रहा.


इजराइल की सीमा से लगे अरनून की पहाड़ी पर प्रदर्शन
महात्मा गांधी की ताकत
     
विश्व के सबसे प्राचीन शहर और सभ्यताओं में से एक कहा जानेवाला लेबनान उत्तर और पूर्व में सीरिया तथा दक्षिण में इजराइल की सीमा से लगा मिश्रित सभ्यता और संस्कृतियों का समुद्र और पहाड़ों से घिरा छोटा सा (क्षेत्रफल तकरीबन 10450 वर्ग किमी) देश है. इसकी समुद्री सीमाएं साइप्रस से भी लगती हैं. तकरीबन 50 लाख की आबादी वाले लेबनान में साक्षरता दर काफी ऊंची, तकरीबन 98 फीसदी है. पूरी दुनिया में लॉ का सबसे पहला स्कूल बेरुत में ही खुला था. पारंपरिक रूप से व्यापार के लिए मशहूर लेबनान और इसके राजधानी शहर बेरुत को मध्यूपर्व यानी पश्चिमी एशिया में व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र कहा जा सकता है. इसकी इन्हीं विशेषताओं ने यूनानी, रोमन, अरब, ओटोमन, तुर्क और फ्रेंच हमलावर-शासकों और मेहमानों को इसकी ओर आकर्षित किया. 1920 से लेकर 1943 में अपनी आजादी से पहले लेबनान फ्रेंच साम्राज्य का उपनिवेश भी रहा. इसके अवशेष आज भी यहां जन जीवन पर साफ दिखते हैं. 
अरनून की पहाड़ी पर भारतीय तिरंगा थामे


    लेबनान और इसका सबसे पुराना (तकरीबन पांच हजार साल पुराना) और विकसित राजधानी शहर बेरुत दशकों तक युद्ध-गृह युद्धों और प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका झेलता रहा है. प्रथम विश्व युद्ध के बाद पड़े सूखा-अकाल में वहां एक लाख लोग मारे गए थे जबकि 1975 से 1990 तक हुए गृह युद्ध में तकरीबन डेढ़ लाख लोगों की जानें गई थीं जबकि 17 हजार लोग लापता हो गए थे. क्षेत्रीय ताकतों, विशेषकर इजराइल, सीरिया और फिलस्तीनी मुक्ति संगठन ने लेबनान को अपने झगड़े सुलझाने के लिए युद्ध के मैदान के तौर पर इस्तेमाल किया. इस लिहाज से देखा जाए तो लेबनान मध्य पूर्व यानी पश्चिम एशिया में सबसे जटिल और बंटे हुए देशों में से एक है. इजराइल के निर्माण के समय और बाद में भी फिलीस्तीन समस्या से जुड़े जो भी विवाद उठे उनमें कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेबनान भी शामिल रहा है. इजराइल के निर्माण और उसके बाद से तकरीबन एक लाख फिलीस्तीनी शरणार्थी लेबनान में आकर बस गए. 1968 में लेबनान में रह रहे एक फिलीस्तीनी मुक्ति गुट के हमले में इजराइल के एक ,यरलाइनर के ध्वस्त होने के जवाब में इजराइल के कमांडोज ने बेरुत हवाई अड्डे पर हमला कर इसके दर्जनभर विमान नष्ट कर दिए थे. लेबनान में गृह युद्ध की शुरुआत के समय सीरियाई सैनिक टुकड़ियां वहां दाखिल हो गईं. इजराइली सेना ने 1978 और फिर 1982 में हमले किए और फिर वे 1985 में एक स्वघोषित सुरक्षा जोन में दाखिल हो गए जहां से वे मई 2000 में ही बाहर निकले.

    सीरिया का लेबनान में अच्छा खासा राजनीतिक दबदबा है. हालांकि दमिश्क ने 2005 में अपनी सैनिक टुकड़ियां वहां से हटा कर 29 साल की अपनी सैन्य मौजूदगी खत्म कर दी. यह कदम लेबनान के तत्कालीन प्रधानमंत्री रफीक हरीरी की हत्या के बाद उठाया गया. लेबनानी विपक्षी गुटों ने इस मामले में सीरिया का हाथ होने का आरोप लगाया जिससे सीरिया ने लगातार इंकार किया. उसके बाद बेरुत में सीरिया समर्थक और सीरिया विरोधी बड़ी-बड़ी रैलियां आयोजित हुईं जिसके बाद सीरिया के सैनिकों को वहां से बाहर निकलना पड़ा.

  
वार मेमोरियल म्युजियम में 2006 के युद्ध में
हिजबुल्ला द्वारा कब्जा किए इजराइली टैंक, हथियारों की नुमाइश

    बेरुत की अरब शिया-सुन्नी मुस्लिम, ईसाई बहुल मिश्रित आबादी में एक बड़ा हिस्सा 1948 में यहां आए फिलीस्तीनी शरणार्थियों का भी है. इस कारण भी वहां अक्सर आपस में और इजराइल से भी हिंसक झड़पें होती रहती हैं. 1982 के युद्ध में इजराइल ने लेबनान और खासतौर से बेरुत शहर को तबाह सा कर दिया था. लेकिन 2006 में हिजबुल्ला के लड़ाकों ने इजराइली सेना को परास्त कर उसे बहुत दूर खदेड़ दिया था. उस युद्ध में विजय और इजराइल की पराजय को यादगार बनाने के लिए बेरुत से कुछ दूर ऊंची पहाड़ी पर ‘वार मेमोरियल’ बनाया गया है जहां इजराइल के साथ युद्ध में हिजबुल्ला की जीत पर आधारित फिल्म दिखाई जाती है जबकि बाहर बने पार्क के विभिन्न हिस्सों में इजराइल से कब्जा किए गए टैंक, तोपों एवं अन्य अस्त्र-शस्त्रों को बिखेरकर रखा गया है.

लेबनान का समावेशी संसदीय लोकतंत्र


    
होटल ग्रैंड प्लाजा के लॉ ओपेरा सुइट के सामने
    लेबनान में अनोखा संसदीय लोकतंत्र है. 15 वर्षों के लंबे गृह युद्ध के बाद हुए 1990 में हुए कन्फेसनल तैफ समझौते के तहत 128 सदस्यीय संसद और सरकार में भी 18 धर्मों एवं संप्रदायों का समानुपातिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की व्यवस्था यहां संविधान में ही कर दी गई है. सरकार किसी भी दल अथवा गठबंधन की हो, राष्ट्रपति मेरोनाइट ईसाई, प्रधानमंत्री सुन्नी मुसलमान और लोकसभाध्यक्ष शिया मुसलमान ही होना चाहिए. इसी तरह से उप प्रधानमंत्री और डिप्टी स्पीकर ग्रीक रोमन ही हो सकता है. संसद के चुनाव में भी विभिन्न धार्मिक समूहों के लिए सीटें आरक्षित कर दी गई हैं.

    लगातार युद्ध, हिंसक झड़पों के साथ ही प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका का सामना करते रहे लेबनान और खासतौर से बेरुत के नए सिरे से खड़ा होने की जिजीविषा अपने आप में एक उदाहरण है. यह अपनी भस्मियों से उठ खड़ा होने वाले पौराणिक फीनिक्स पक्षी जैसा ही है. इजराइली हमलों में पूरी तरह ध्वस्त हो चुका बेरुत का नया हवाई अड्डा आज दुनिया के किसी भी विकसित देश के हवाई अड्डों से होड़ लेने में सक्षम है. बेरुत में मिश्रित जन जीवन और संस्कृति के दर्शन होते हैं. दक्षिण लेबनान के इलाके में हमारी पुरानी दिल्ली का नजारा है तो पश्चिमी बेरुत में सिटी सेंटर और समुद्र किनारे ‘हमरा स्ट्रीट’ पर घूमते समय तमाम ऊंची अट्टालिकाएं, बिजनेस सेंटर, होटल, रेस्तरां, शापिंग माल-प्लाजा, सिनेमा हाल, नाइट क्लब और पब्स मुंबई के नरीमन प्वाइंट और मेरीन ड्राइव की याद दिलाते हैं. अपने थिएटर, शैक्षणिक,सांस्कृतिक और साहित्यिक, पब्लिशिंग और बैंकिंग गतिविधियों के साथ ही पब्स और नाइट क्लबों से सज्जित नाइट लाइफ के कारण भी बेरुत अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों का आकर्षण केंद्र बना हुआ है. यह भी एक वजह है कि न्यूयार्क टाइम्स ने 2009 में बेरुत को पर्यटकों का सबसे पसंदीदा शहर घोषित किया था जबकि ‘लोनली प्लानेट’ ने इसे दुनिया के दस सर्वाधिक जीवंत शहरों में से एक घोषित किया था. 

ग्रैंड प्लाजा में अमेरिका से आए यहूदी नेता के साथ

 'सूरी कामगार' और   बेरुत !

     
    बेरुत को पश्चिम एशिया का पेरिस भी कहा जाता है. यहां की अर्थव्यवस्था मूल रूप से बैंकिंग एवं पर्यटन तथा दुनिया भर में फैले लेबनानी नागरिकों से आने वाली रकम पर आधारित है. लेकिन छोटे-मोटे तमाम कामों के लिए यह शहर 'सूरी कामगारों' पर टिका है. सूरी यानी पड़ोसी देश सीरिया में गरीबी, बेरोजगारी और आतंकवाद तथा उससे त्रस्त होकर यहां आने वाले लोग होटलों में वेटर से लेकर कारपेंटर, मेकेनिक, इलेक्ट्रिशियन, मेसन, खेत मजदूर, आटोमेबाइल उद्योग आदि क्षेत्रों में काम करते नजर आ जाएंगे. एक होटल में रूम ब्वाय इस्माइल ने बताया कि बेरुत में 70-80 फीसदी ‘वर्क फोर्स’ सीरिया से छह-छह महीने के वर्क परमिट पर आकर काम करनेवालों की है. सीरिया से छात्र भी फीस भरने के लिए यहां 'री इंट्री वीसा' लेकर आते, काम करते और लौट जाते हैं. इस्माइल खुद भी स्नातक छात्र है. उसने बताया कि जिस काम के यहां उसे दस हजार लेबनानी लिरा मिलते हैं, उसी काम के सीरिया में आधे या उससे भी कम पैसे ही मिलते हैं. उसके अनुसार ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जहां आपको सूरी कामकाजी नहीं मिलें. अगर सूरी लोग यहां से चले जाएं तो लेबनान और बेरुत का जनजीवन ठप हो जाएगा या फिर बेतरह प्रभावित होगा.

होटल ग्रैंड प्लाजा में अमेरिका से आए यहूदी 
प्रतिनिधि के साथ एशियाई (पाकिस्तानी) प्रतिनिधि


फिलीस्तीनी शरणार्थियों की बदहाली !
 

    
दक्षिण बेरुत में फिलीस्तीनी शरणार्थियों के लिए बने
कब्रिस्तान के बगल में ही उनकी बस्ती है
लेकिन सबसे बुरी हालत तो यहां रहने वाले फिलीस्तीनी शरणार्थियों की है. उनकी बस्तियां अलग-अलग इलाकों में हैं. दक्षिणी बेरुत में हमारे होटल के पास की ऐसी ही एक बस्ती बुर्ज अल बराजनेह में जाने और कुछ शरणार्थियों से मिलने का अवसर मिला. लेबनान में उन्हें किसी तरह के नागरिक अधिकार नहीं हैं. वे मन मुताबिक शिक्षा और रोजगार नहीं पा सकते. पता चला कि 1948 में जब फिलीस्तीन की छाती पर दुनिया भर के यहूदियों के लिए धर्म के आधार पर इजराइल देश बनाया जा रहा था, फिलीस्तीनियों को अपना घर बार, सब कुछ छोड़ जान बचाकर पड़ोसी मुल्कों में भागना पड़ा था. लोग अपने घरों पर ताले लगाकर आए थे कि स्थितियां सुधर जाने के बाद वे अपने घरों को लौट सकेंगे. लेकिन पीढियां गुजर गईं, हालात नहीं बदले. कुछ बुजुर्ग लोगों ने उन चाभियों को दिखाया जिनसे अपने घरों के दरवाजे वे बंद करके आए थे. अब उन घरों पर किन्हीं औरों का कब्जा है. इजराइल इन शरणार्थियों को वापस उनके घरों में लौटने देने को कतई राजी नहीं है. 


    बेरुत में हम दो अप्रैल को वाया दोहा (कतर) दिल्ली के लिए रवाना होने तक रुके रहे. हमारे दो साथियों मुंबई के सईद अहमद और यूपी में बहराइच के मूल निवासी और अभी नई दिल्ली में रह रहे सुजात अली कादरी, को दो दिन और ज्यादा रुकना पड़ा. होटल से उनके पासपोर्ट गायब हो गए थे. होटल में प्रवेश के समय काउंटर पर सभी लोगों के पासपोर्ट ले लिए गए थे. उसके बाद ही हमें कमरे आवंटित कर चाबियां दी गई थीं. लेकिन वापसी के समय जब पासपोर्ट लौटाए जा रहे थे तो दो पासपोर्ट कम थे. होटलवाले यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि ये दो पासपोर्ट उन्होंने अपने पास जमा किए थे. काफी कहा सुनी हुई लेकिन वे लोग अपने रुख से टस से मस होने को तैयार नहीं थे. भारतीय दूतावास के हस्तक्षेप पर भी वे लोग यह मानने को तैयार नहीं हुए कि उनके पास से किसी के पासपोर्ट गुम हुए हैं. वे तो यहां तक कहने लगे कि उनके होटल में यह दोनों लोग ठहरे ही नहीं थे. बाद में किसी तरह भारतीय दूतावास ने उनके लिए अस्थाई पासपोर्ट का प्रबंध किया और तब जाकर दो-तीन दिन बाद वे दोनों स्वदेश लौट सके. 

भारत वापसी 



बेरुत की मशहूर हमरा स्ट्रीट पर दार अल नदवा के कार्यालय में
हिजबुल्ला के करीबी इस्लामी नेता मान बसूर के साथ. समुद्र किनारे
हमरा स्ट्रीट के इलाके की तुलना मुंबई के नरीमन प्वाइंट और
मरीन ड्राइव से की जा सकती है.
    बहरहाल, हम लोगों के लिए दो अप्रैल को दोहा और फिर वहां से दिल्ली तक की उड़ान कतर एयरवेज से थी. हम सुबह ही बेरुत हवाई अड्डे पर पहुंच गए. सामानों की तलाशी के क्रम में हमारे सूटकेस को खुलवाया गया. हमें लगा कि तेहरान के मेयर द्वारा दिया गया मोमेंटो एक बार फिर समस्या बन रहा होगा, लेकिन एक्सरे मशीन पर बैठे अधिकारी ने सूटकेस खुलवाकर उसमें रखी जैतून के तेल की बोतल निकलवा ली. हमारे तमाम अनुनय-विनय को नकारते हुए जैतून के तेल की बोतलें रखवा ली गईं. हालांकि बोतलें चेक इन बैगेज में थीं लेकिन वह भी उन्हें गंवारा नहीं थीं. ईरान की तरह लेबनान में भी जैतून की पैदावार खूब होती है. जैतून और उसका तेल भी वहां काफी सस्ता और शुद्ध मिलता है. हम जब तक वहां रहे जैतून और उसका तेल किसी न किसी बहाने हमारे नाश्ते-भोजन का अंग बनता रहा क्योंकि बताया गया कि यह कोलोस्ट्रल में कमी लाता है. लेकिन हम जैतून का तेल ला पाने में विफल रहे. एयरपोर्ट के अधिकारियों का कहना था कि अगर जैतून के तेल की बातलें ले जानी हैं तो अपने सामान के साथ  बाहर जाइए और पर्याप्त पैकिंग करवाने के बाद ले आइए. उसने समझाया कि अगर सामानों की लदान-उतरान के बीच कोई बोतल लीक हो गई और उससे आपके अथवा किसी और यात्री के भी कपड़े खराब हो गए तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा. जहाज छूटने का समय करीब होने के कारण हम यह जहमत उठाने को राजी नहीं थे लिहाजा जैतून के तेल की बोतलें वहीं छौड़ हम आगे बढ़ गए. 

    कतर एयरवेज की उड़ान काफी अच्छी और सुविधा संपन्न रही. मदिरा सेवन के आदी मित्रों के लिए 15-20 दिनों के बाद अच्छी मदिरा सेवन का अवसर भी मिला. भोजन भी इन दिनों में पहली बार अपने जायके के हिसाब से मिला. दोहा में हवाई अड्डे पर कई घंटे यूं ही गुजारने पड़े, दिल्ली के लिए कतर एयरवेज की उड़ान के इंतजार में. लेकिन पूरा समय दोहा हवाई अड्डे पर उपलब्ध सुविधाओं, ड्यूटी फ्री शापिंग में कैसे गुजर गया किसी को महसूस ही नहीं हुआ. दोहा से तकरीबन साढ़े तीन घंटे की उड़ान भरकर हम तीन अप्रैल की सुबह साढ़े तीन बजे दिल्ली आ गए. और इस तरह से ग्लोबल मार्च टू येरूशलम के बहाने हमारी पश्चिम एशिया के बड़े भूभाग की यात्रा संपन्न हुई. पश्चिम एशिया में संयुक्त अरब अमीरात के दुबई, अबू धाबी, शारजाह की यात्रा हम पहले ही कर चुके थे.

नोटः पश्चिम एशिया में ईरान, तुर्की और लेबनान की यात्रा संपन्न होने के तकरीबन पांच वर्षों बाद, अगस्त 2017 में चीन की राजधानी
मतियान्यु के पास चीन की (हरी भरी) महान दीवार
 (तस्वीर इंटरनेट से) 
बीजिंग और उसके बंदरगाह शहर झानझियांग में एक सप्ताह की यात्रा का अवसर उस समय मिला, जब चीन के साथ डोकलाम को लेकर भारत का सीमा विवाद चरम पर था. यात्रा संस्मरणों की अगली कड़ी चीन यात्रा के बारे में.

Saturday, 12 December 2020

कमाल अता तुर्क के देश तुर्की में (दूसरी किश्त), In Turkey Part II


सूफी संत मौलाना रूमी के शहर कोन्या में 


जयशंकर गुप्त


    
    यह
सच है कि तुर्की पहला मुस्लिम देश था जिसने सबसे पहले इजराइल को मान्यता दी थी. और सरकार के स्तर पर 'ग्लोबल मार्च टु येरूशलम' के एशियाई कारवां को किसी तरह का समर्थन-सहयोग भी नहीं था. तुर्की के मौजूदा राष्ट्रपति रेचेप तैयप एर्दोगन उस समय देश के प्रधानमंत्री थे. लेकिन नागरिकों के स्तर पर यहां के अधिकतर लोग इजराइल के विरोध में और फिलीस्तीनियों के मुक्ति संघर्ष के समर्थक रहे हैं. डेढ़ साल पहले समुद्री रास्ते से गाजा में फिलीस्तीनियों के लिए राहत सामग्री लेकर जा रहे तुर्की के काफिले मावी-मरमारा पर इजराइल के नेवी कमांडो के हमले में नौ तुर्की नागरिकों की हत्या के बाद जनजीवन में इजराइल के खिलाफ आक्रोश और बढ़ा है. इसका एक उदाहरण अंकारा में इजराइली दूतावास के बाहर एशियाई कारवां के प्रदर्शन में स्थानीय लोगों की भागीदारी के रूप में भी देखने को मिला. 
अंकारा में एशियाई कारवां का स्वागत


    अनातोलिया में स्थित अंकारा तुर्की की राजधानी होने के साथ ही एक प्रमुख व्यापारिक और औद्योगिक केंद्र भी है. यहां पर सभी विदेशी दूतावास भी स्थित हैं. तुर्की के राजमार्गों एवं रेलमार्ग के जाल के मध्य में स्थित होने के कारण यह शहर व्यापार का प्रमुख केंद्र है. कभी इसे अंगोरा शहर के नाम से भी जाना जाता था. लम्बे बालों वाली अंगोरा बकरी और उसके कीमती ऊन, अंगोरा खरगोश, नाशपाती और शहद के लिये प्रसिद्ध इस प्राचीन शहर को कमाल पाशा ने 1923 में इसकी भौगोलिक और सामरिक स्थिति को देखते हुए ही देश की राजधानी बनाया था.

    
मुस्तफा कमाल अता तुर्क की प्रतिमा के नीचे, दाएं से 
जलगांव (महाराष्ट्र) के मित्र रागिब बहादुर, 
केरल के पत्रकार अब्दुल नजीर और एक छायाकार मित्र के साथ

    अंकारा में रात हमारे ठहरने का इंतजाम अंकारा-इस्तांबुल राष्ट्रीय राजमार्ग से लगी एक भव्य मस्जिद के निकाह हाल में किया गया था. पता चला कि वहां मस्जिदें केवल इबादत और नमाज अदा करने की जगह ही नहीं बल्कि सामाजिक मेलजोल की जगह भी होती हैं. जिसमें शापिंग कांप्लेक्स के साथ ही शादी-विवाह जैसे सामाजिक समारोह भी होते हैं. मस्जिद में नहाने के लिए गरम पानी के अलावा हर तरह की सुविधा उपलब्ध थी. हां, स्टोरी फाइल करने के लिए हमें उससे कुछ दूर जाना पड़ता था, जहां फैक्स और इंटरनेट की व्यावसायिक सुविधा उपलब्ध थी. खाने-पीने की दिक्कत भी होती थी, हालांकि तमाम तरह के मांसाहार के बीच अंडा, मछली के साथ ही फल, सलाद और कहीं-कहीं शाकाहार भी मिल जाता था. हमें किसी ने शुरू में ही सलाह दी थी कि नाश्ते से लेकर भोजन में भी ताजा फलों के साथ ही ओलिव यानी जैतून के फल, अंचार और तेल का प्रचुर मात्रा में इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए जो पूरे पश्चिमी एशिया में बहुतायत उपलब्ध होता और स्वास्थ्य के लिहाज से बहुत मुफीद होता था. हमने इस सुझाव पर बड़ी गंभीरता से अमल किया. 

   

 एशिया-यूरोप के संगम इस्तांबुल में


    
एरझुरुम के पास सड़क किनारे रेस्तरां में चाय की चुस्की के बाद
इंडोनेशिया के मित्र मोहम्मद मारूफ और दिल्ली के पत्रकार
साथी अब्दुल बारी


    अंकारा से आगे बढ़ते हुए हमारा कारवां तकरीबन 450 किमी दूर इस्तांबुल पहुंचा. पूरी दुनिया में एशिया माइनर के रूप में मशहूर तुर्की की आर्थिक और औद्योगिक राजधानी कहे जाने वाले तकरीबन डेढ़ करोड़ की आबादीवाले इस्तांबुल शहर को दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताओं वाले दस सबसे खूबसूरत शहरों में भी शुमार किया जाता है. इस्तांबुल वर्ष 1923 तक ओटोमन साम्राज्य के जमाने में तुर्की की राजधानी हुआ करता था लेकिन बीसवीं सदी में 29 अक्टूबर 1923 को हुई क्रांति के बाद मुस्तफा कमाल पाशा ने कूटनीति एव युद्धनीति के मद्देनजर राजधानी को यहां से 450 किमी दूर अंकारा में स्थानांतरित कर दिया था. तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा के पश्चिमी सभ्यता पर आधारित सुधारों की छाप भी साफ दिखती है. ईरान के उलट तुर्की में सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव भी साफ नजर आते हैं. ईरान में जहां औरतें बुर्के में और सिर को हिजाब से ढके मिलती थीं, तुर्की में औरतों के बाल खुले भी नजर आए. यहां मस्जिदों में अजान नहीं होती. हालांकि अब यहां के जनजीवन पर भी इस्लामी क्रांति और संस्कृति का दबाव तेजी से बढ़ रहा है. 

    इस्तांबुल पुराना शहर है. समुद्र किनारे स्थित होने के कारण यहां बड़े बंदरगाह हैं जहां बड़े-बड़े जहाजों का आवागमन लगा रहता है. इस कारण भी यह शहर अपने मुंबई जैसा भी लगता है. धार्मिक रूप से भी इस शहर का बड़ा महत्व है. यहां अया सोफिया और सुल्तान अहमद मस्जिद उर्फ विश्व प्रसिद्ध ‘ब्ल्यू मास्क’ पूरी दुनिया में इस शहर की पहिचान बन चुकी हैं. नीले पत्थरों से बनी इस मस्जिद का निर्माण वर्ष 1609 से 1616 के बीच किया गया. इस्तांबुल आनेवाले पर्यटकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण आकर्षण केंद्र है.

  
यूरोप-एशिया का मिलन स्थल, इस्तांबुल  (तस्वीर इंटरनेट से)
    इस्तांबुल की खाड़ी पर बने 'बोस्फोरस स्ट्रेट' पुल को यूरोप और एशिया का संधि या संगम स्थल भी कहा जाता है. पुल पार करते ही लिखा मिलता है, ‘यूरोप में आपका स्वागत है’ तुर्की में वाकई यूरोप और एशिया की सभ्यता और संस्कृति का मेल नजर आ रहा था. इसे आधुनिकता और रुढ़िवादी पारंपरिकता का संगम भी कह सकते हैं. एक तरफ बुर्के और हिजाब में लिपटी महिलाओं से लेकर स्किन टाइट डेनिम की जींस और उससे मैच करते टॉप्स पहने, बालों में अलग-अलग रंगों की डाई किए हुए महिलाओं का मिला-जुला माहौल देखने को मिला, तो दूसरी तरफ दाढ़ी और पारंपरिक वेशभूषावाले और पाश्चात्य संस्कृति में रंगे पुरुष भी नजर आए. तुर्की के खान-पान और भारत के खान-पान में काफी समानताएं नजर आईं. आलू, प्याज, टमाटर, गोभी की सब्जियां, नमक, मिर्च और मसाले भी यहां खान-पान में शामिल हैं. यहां भी रोटियां घरों में नहीं बनतीं बल्कि बैकरी और सार्वजनिक चूल्हों से खरीदकर लाई-खाई जाती हैं. इस्ताम्बुल पहुंचने के रास्ते में समुद्र किनारे फोर्ड, होंडा, टोयोटा जैसी बहु राष्ट्रीय कंपनियों के साइनबोर्डों के बीच अनिवासी भारतीय उद्योगपति लक्ष्मीनिवास मित्तल की आर्सेलर फैक्ट्री का साइनबोर्ड भी नजर आता है जबकि शहर में गुजरते हुए टाटा की इंडिगो कार का नजर आना आश्चर्य मिश्रित सुखानुभूति पैदा कर रहा था. इस्ताम्बुल में भी हमारे ठहरने का इंतजाम एक भव्य शिया मस्जिद में किया गया था जिसमें तकरीबन सारी सहूलतें-सुविधाएं उपलब्ध थीं. वहां ‘वाय फाय’ के जरिए इंटरनेट की सुविधा भी थी, हालांकि वहां नेट पर काम करना कई तरह के ‘वायरसों’ को आमंत्रित करने जैसा भी था.
इस्तांबुल में मरमारा समुद्र के किनारे

    
    जिस दिन 25 मार्च, रविवार को, हम इस्तांबुल भ्रमण पर निकले, वह दिन वहां सार्वजनिक अवकाश का था ( आम तौर पर मुस्लिम देशों में साप्ताहिक अवकाश शुक्रवार को होता है लेकिन यह कमाल पाशा के सामाजिक-धार्मिक सुधारों का ही असर था कि तुर्की में साप्ताहिक अवकाश रविवार को होता है.) काफी लंबी दूरी तक फैले समुद्र किनारे सूखे पेड़ों के हल्के झुरमुटों के बीच जैसे पूरा इस्तांबुल शहर ही उमड़ा पड़ा था. लोग बाग सपरिवार खाने-पीने और खेलने के सामानों से लैस होकर वहां जमे थे. सड़क किनारे उनकी कारें खड़ी थीं. कुछ लोग साथ लाई अंगीठियों पर कबाब भुनने में मशगूल थे तो कुछ अपने बच्चों और कुत्तों के साथ खेलने में. भीड़ का आलम यह था कि तकरीबन रेंग रहे ट्रैफिक के बीच हमारी बसों को सड़क पर कहीं खड़ा हो सकने यानी पार्क करने की जगह ही नहीं मिल सकी. हम बस में बैठे ही घूमते और शहर का नजारा देखते रहे. इस कारण भी हम बाजार की बात तो छोड़ ही दें, अया सोफिया और ‘ब्ल्यू मास्क’ को भी ठीक से नहीं देख सके. समुद्र किनारे एक जगह हमारे साथ चल रही वाल्वो बसों के ड्राइवरों ने हमें इस ताईद के साथ उतार दिया कि ठीक उनके बताए समय और स्थान पर हमें मिलना है. तब तक वे बसों को इधर उधर घुमाते रहे. तयशुदा समय और स्थान पर हम सभी सभी साथी बस में सवार हो गए लेकिन इस क्रम में एक साथी तो छूट से गए थे. बाद में मोबाइल कनेक्टिविटी का लाभ लेकर फिर से उन्हें बस में साथ लिया गया.
रविवार को छुट्टी के दिन इस्तांबुल में मरमारा समुद्र के किनारे
सपरिवार मौज-मस्ती. सड़कों के किनारे पार्किंग की जगह नहीं



मौलाना रूमी के शहर कोन्या में


     एशियाई कारवां 25 मार्च की रात को इस्तांबुल से तकरीबन 700 किमी दूर कोन्या के लिए रवाना हुआ. अगली सुबह हम कोन्या में थे. सेंट्रल अनातोलिया क्षेत्र में तुर्की की राजधानी अंकारा के दक्षिण में तकरीबन 260 किमी दूर स्थित विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक एतिहासिक शहर कोन्या आबादी के हिसाब से तुर्की का सातवां सबसे बड़ा शहर है. उस समय कोन्या की आबादी तकरीबन 12 लाख बताई गई. कोन्या कभी (1071-1275 तक) सुल्तान रम या कहें रूम के सेल्जुक तुर्क सल्तनत की राजधानी रूमी के नाम से प्रसिद्ध था. बताते हैं कि उसी समय इस शहर का नाम कोन्या रखा गया. यहां ऐतिहासिक किले और स्मारक होने के साथ ही कोन्या कालीन उद्योग, आटा मिलों, अल्युमिनियम के कारखाने आदि के कारण कोन्या को तुर्की का औद्योगिक शहर भी कहा जाता है.
सूफी संत, शायर मौलाना जलालुद्दीन रूमी की मजार पर
लेकिन इस समय दुनिया भर में कोन्या की प्रसिद्धि तेरहवीं सदी के मशहूर सूफी संत-कवि मौलाना जलालुद्दीन रूमी की मजार के लिए ही है. इस्लाम में सूफी संतों अहम मुकाम है. सूफी संत मानते हैं कि सूफी मत का श्रोत खुद पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब हैं. दुनिया भर में अनेक सूफी संत हुए हैं, जिन्होंने लोगों को राहे-हक़ पर चलने का पैगाम दिया. इन्हीं में से एक हैं फारसी के सुप्रसिद्ध कवि जलालुद्दीन रूमी. वह जिंदगी भर इश्के-इलाही में डूबे रहे. उनकी हिकायतें और बानगियां तुर्की से हिंदुस्तान तक छाई रहीं. उनकी शायरी इश्क और फ़ना की गहराइयों में उतर जाती है. उनके अनुसार खुदा से इश्क और इश्क में खुद को मिटा देना ही इश्क की इंतिहा है, खुदा की इबादत है. कोन्या में रूमी साहब की मजार पर आकर लगा कि मेरा जीवन धन्य हो गया. उनकी मजार पर और उसके इर्द गिर्द मीते पल मेरी जिंदगी के सबसे सबसे महत्वपूर्ण पलों में शुमार किए जा सकते हैं.  हम खुशकिस्मत थे कि अपने देश में हजरत निजामुद्दीन चिश्ती, अजमेर के ख्वाजा, गरीब नवाज हजरत मोइनुद्दीन चिश्ती और फतेहपुर सीकरी के शेख सलीम चिश्ती जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के सूफी संतों की दरगाह पर मत्था टेक चुके होने के बाद अब तुर्की के कोन्या में मौलाना रूमी की मजार के सामने सजदा करने के अवसर मिला. 

     
कोन्या में मौलाना रूमी की तस्वीर के नीचे
    फारसी साहित्य के महत्वपूर्ण लेखक जलालुद्दीन रूमी को कई नामों से जाना जाता है. अफगानी उन्हें बलखी के नाम से पुकारते हैं. ईरान में वह मौलवी हैं, तुर्की में मौलाना और हिंदुस्तान सहित अन्य देशों में रूमी. 1207 ईस्वी में 30 सितंबर को उनका जन्म अफगानिस्तान के बलख़ या बेल्ह शहर में हुआ था. लेकिन बाद के दिनों में अपने पिता बहाउद्दीन बेलेद के साथ तुर्की के अनातोलिया और फिर कोन्या चले आए थे. उन्होंने अपना पूरा जीवन कोन्या में बिताया. यहीं रहकर उन्होंने अपनी तमाम महत्वपूर्ण रचनाएं लिखीं और यहीं 17 दिसंबर 1273 को अंतिम सांस भी ली थी. रूम के शहर कोन्या में रिहाइश की वजह से ही मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन, मौलाना-ए-रूम या रूमी कहलाए जाने लगे. उनके सिलसिले के सूफी मुरीद उन्हें खुदावंदगार के नाम से भी पुकारते थे. उनके पुरखों की कड़ी पहले खलीफा अबू बकर तक जाती है. उनके पिता बहाउद्दीन वलेद न सिर्फ एक आलिम मुफ्ती, बल्कि बड़े पहुंचे हुए सूफी संत भी थे. उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी. 
     रूमी का मसनवी में महत्वपूर्ण योगदान है. उन्होंने सूफी परंपरा में नर्तक साधुओं-गिर्दानी दरवेशों-की परंपरा का संवर्धन किया था. कोन्या के बीच शहर में उनका भव्य स्मारक और संग्रहालय बना है, जहां दुनिया भर से लाखों पर्यटक-श्रद्धालु हर साल जमा होते हैं. यहां उनकी हस्तलिखित रचनाओं के अलावा उनके कपड़ों और बरतनों को भी बहुत करीने से सहेज कर रखा गया है. उन्होंने मूलतः फारसी में ही लिखा. उनकी प्रमुख रचनाओं में मसनवी, दीवान ए कबीर, रुबाइलर आदि का समावेश है. जाहिर है कि कोन्या को अब मौलाना रूमी के नाम से भी जाना जाता है. यहां तक कि उनकी मज़ार के बगल में एक होटल का नाम भी उनके ही नाम पर रख दिया गया है. संग्रहालय में उनके नाम के लाकेट और चाबियों के छल्ले भी बिक रहे थे. उनकी मजार पर एक जगह उनका मशहूर उद्धरण भी देखने को मिला. मौलाना रूमी ने लिखा, ‘‘मेरे मरने के बाद मेरे मकबरे को जमीन में मत खोजना, उसे लोगों के दिलों में खोजना.’’ उनके करीबी, समर्थक हर साल 17 दिसंबर को उनकी मौत की सालगिरह का जश्न शादी की सालगिरह के रूप में मनाते हैं. मौत से पहले उन्होंने अपनी मौत को 'पिया (प्रियतम, खुदा, ईश्वर) मिलन (शादी)  की रात करार देते हुए अपने समर्थकों से कहा था कि उनकी मौत पर कोई रोएगा नहीं.  

कोन्या की एक बाजार में तफरीह
    खूबसूरत शहर कोन्या में  हम लोग दिन भर रहे. पास की बाजार में भी गए. विंडो शापिंग भी की. अच्छा लगा. पूरा दिन कोन्या में बिताने के बाद 26 मार्च की रात के नौ बजे हमारा कारवां वाल्वो बसों से कोन्या से  तकरीबन 400 किमी दूर दक्षिण तुर्की में उत्तर पूर्वी भूमध्य सागर के तट पर स्थित बंदरगाह शहर मर्सिन के लिए रवाना हुआ. तकरीबन 9 लाख की आबादीवाले ऐतिहासिक एवं प्राचीन मर्सिन शहर को तुर्की के मर्सिन प्रांत की राजधानी और सबसे बड़ा बंदरगाह तथा भूमध्य सागर के लिए तुर्की का मुख्य प्रवेश द्वार भी कहा जाता है. इस हिसाब से यह तुर्की के व्यावसायिक गतिविधियों वाले प्रमुख शहरों में से भी एक है.

तासुकु बंदर पर जहाज के इंतजार में बीता दिन


    27 मार्च की अल्लसुबह तीन बजे हम मर्सिन शहर से कुछ दूर सिलिफके जिले में स्थित तासुकु या कहें तैसुकु बंदरगाह पहुंच गए. यहीं से हमें पानी के जहाज से लेबनान की राजधानी बेरुत के लिए रवाना होना था. बताया गया था कि हमें सुबह ही वहां तासुकु बंदरगाह से बेरुत के लिए पानी का जहाज पकड़ना है, इसीलिए हम लोग अल्ल सुबह ही यहां पहुंच गए थे. लेकिन जहाज पकड़ने का समय बदलता गया और हम छोटे, तकरीबन दस हजार की आबादी वाले, मगर बहुत खूबसूरत तासुकु बंदर के सुहाने मौसम और रेस्तराओं का लुत्फ उठाते रहे. तासुकु में भी शौचालयों में पेशाब करने के लिए एक से दो तुर्की लिरा (2012 में तुर्की का एक लिरा 31-32 रु. के बराबर होता था. इस समय तो तुर्की के लिरा के अवमूल्यन के कारण उसकी कीमत 9.50 रु. के आसपास रह गई है) अदा करना पड़ता था. एक तो ठंड का मौसम और ऊपर से पैसे लगने की फिक्र, पेशाब कुछ ज्यादा ही लगती थी. ऐसे में हमें लिला नाम का एक रेस्तरां मिल गया जिसकी मालकिन एयलिन और उनके पति बहुत ही मजेदार और मिलनसार थे. उनके रेस्तरां में चाय भी अच्छी और अपेक्षाकृत सस्ती (आधे लिरा में एक गिलास काली चाय) ईरान, तुर्की और लेबनान में कहीं भी, हमें दूध की मलाईदार चाय देखने को नहीं मिलती थी. एयलिन के रेस्तरां में डब्ल्यू सी (अरब देशों में टॉयलेट को लोग डब्ल्यू सी के नाम से अधिक जानते हैं) की सुविधा भी थी और इसके लिए वह कोई अतिरिक्त पैसे भी नहीं लेती थी इसलिए जब कभी जरूरत होती हम चाय के बहाने उनके रेस्तरां में पहुंच जाते और चाय का आर्डर करते. हमारा मकसद भांप कर एक बार तो एयलिन ने मुस्कराते हुए कहा भी, ‘‘टॉयलेट यूज करने के लिए चाय जरूरी नहीं है. आप हमारे मेहमान हैं. बिना चाय पिए भी हमारा टॉयलेट यूज कर सकते हैं.’’ 

    तासुकु छोटा सा बंदर शहर है जो आमतौर पर पर्यटकों और बंदरगाह पर लेबनान और साइप्रस आने-जाने वाले जहाजियों-यात्रियों से ही गुलजार रहता है. एयलिन के अनुसार गर्मी के दिनों में यहां रहिवासियों की संख्या 40-50 हजार तक पहुंच जाती है जबकि सर्दियों में कम होकर 10 हजार तक रह जाती है. बातचीत के क्रम में एयलिन ने बताया कि मर्सिन और तासुकु में भी घूमने और देखने के लायक बहुत कुछ है.तासुकु में आधुनिक तुर्की के निर्माता अता तुर्क कमाल पाशा के नाम का एक संग्रहालय भी है. कमाल पाशा मर्सिन और तासुकु की आबोहवा से बहुत प्रभावित थे. अपने अंतिम समय में वह यहां चार बार आए थे और परिवार के साथ कई कई दिन ठहरे थे. सन् 2000 में सरकार ने उस तीन मंजिला मकान को उनके नाम का संग्रहालय घोषित कर दिया जिसमें वह यहां आने पर ठहरते थे. लेकिन हम चाहकर भी अता तुर्क संग्रहालय नहीं जा सके. अगर पता होता कि लेबनान की राजधानी बेरुत के लिए हमारा जहाज काफी देर बाद रवाना होगा तो हम लोग न सिर्फ अता तुर्क संग्रहालय बल्कि मर्सिन में भी घूम कर अपने समय का सदुपयोग कर सकते थे. लेकिन बार-बार यही कहा जाता कि कुछ ही देर में हमारा जहाज पहुंचनेवाला है और हमें तुरंत ही उसमें सवार होना पड़ेगा. असमंजस की स्थिति बने रहने के कारण हम लोग तासुकु में यूं ही वक्त जाया करते रहे. तासुकु में समुद्र किनारे समय बिताते अचानक दिन में पौने दो बजे बंदरगाह के पास से धुएं का गुबार उठते दिखा. हम लोग दौड़ कर गए, पता चला कि जहाज पर लदने जा रहे पेप्सीकोला के रेफ्रिजरेटरों से लदे एक वैन में आग लग गई थी. मिनटों में ही पुलिस और फायर ब्रिगेड की गाड़ियां आ गईं. देखते-देखते ही आग पर काबू पा लिया गया. लेकिन तब तक सारे रेफ्रिजरेटर जलकर खाक हो गए थे.
तासुकु बंदरगाह पर जहां हम जहाज पकड़नेवाले थे,
पेप्सी के रेफ्रिजरेटरों से भरे कंटेनर में आग लग गई 

    
    

बेरुत के लिए  रवानगी          

    हम रात के ग्यारह बजे बेरुत जाने वाले 250 सीटों के फर्गुन यात्री जहाज या कहें बड़े स्टीमर में सवार होने तक तासुकु बंदर पर ही रहे. इमिग्रेशन जांच के दौरान कतार में सबसे पहला व्यक्ति मैं ही था. सामानों की एक्सरे जांच के क्रम में न जाने क्या दिखा कि अधिकारियों ने मुझे रोक लिया और मेरा सूटकेस खोलकर दिखाने को कहा. पता चला कि तेहरान के मेयर के द्वारा दिया गया बुर्ज ए मिलाद टावर का मोमेंटो उन्हें खटक रहा था. इस मोमेंटो में नीचे लगी इलेक्ट्रिक बैट्री से वह जलता-बुझता भी है. उसे बाहर निकालकर देखने के बाद अधिकारी संतुष्ट हो गए. हमने उन्हें बताया कि यह मोमेंटो हमारे साथ बेरुत जा रहे तकरीबन सभी लोगों के बैगेज में मिलेगा. इसके बाद उन्होंने उसकी जांच बंद कर दी और हम लोग पानी के जहाज 'फर्गुन' पर सवार होकर लेबनान की राजधानी बेरुत के लिए निकल पड़े. 


बेरुत बंदरगाह पर जहाज 'फर्गुन' के डेक पर

नोट ः लेबनान की राजधानी बेरुत के  रास्ते में समुद्री जहाज फर्गुन में  इजराइल के आशंकित हमले से लेकर अन्य तमाम तरह की आशंकाओं के बीच बेरुत को लेकर मन में बहुत सारी बातें  दिमाग में तैर  रही थीं. 

बेरुत और उसकी  सुहानी रुत के बारे में बहुत अच्छी -अच्छी बातें सुन रखे थे. लेकिन बेरुत बंदरगाह पर पहुंचने पर जिन परिस्थितियों से सामना हुआ, किसी दुःस्वप्न से कम नहीं था. तकरीबन 40 घंटे हम लोग एक छोटे से जहाज में 'बंधक' से रहे. बेरुत की सरजमीं पर पैर भी नहीं रख सके. इस दुःस्वप्न से लेकर लेबनान की राजधानी बेरुत में बीते रोमांचक पलों से जुड़े संस्मरण अगली किश्त में .





Saturday, 5 December 2020

पश्चिम एशिया ( तुर्की) में बीते दिन ( In West Asia, Turkey )

  कमाल अता तुर्क के देश में


जयशंकर गुप्त

इस्तांबुल में एशिया-यूरोप का संगम सामने दिख रही सुल्तान अहमद मस्जिद

        अता तुर्क (राष्ट्र पिता) के नाम से सम्मानित तुर्की गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति कमाल पाशा के देश में जाने, मुस्लिम देश होने के बावजूद धर्मनिरपेक्ष देश होने, कमाल पाशा के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक सुधारों, ईरान की इस्लामी क्रांति के तुर्की पर पड़ रहे प्रभावों आदि को लेकर मन में उठ रही जिज्ञासा के साथ 22 मार्च की सुबह को हम ईरान के बजरगान से लगनेवाली तुर्की की सीमा में प्रवेश के लिए सीमा आव्रजन (इमिग्रेशन) कार्यालय पर थे. वीसा को लेकर शुरू से ही दिक्कतों का सामना करना पड़ा. तथाकथित ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के बावजूद पाकिस्तान के जत्थे को तुर्की सरकार ने वीसा नहीं दिया. लिहाजा उन्हें तेहरान से सीरिया की राजधानी दमिश्क होकर लेबनान जाना पड़ा. तेहरान में रह कर पढ़ाई कर रहे पाकिस्तानी छात्र मोहतशिम और उनकी लेबनानी बीवी तो हमारे साथ ईरान-तुर्की की सीमा तक आए भी लेकिन उनके पास चूंकि पाकिस्तानी पासपोर्ट था, उन्हें भी लौटा दिया गया. वीसा की समस्या हमारे और फिल्मकार राजकुमारी अस्थाना के सामने भी आई क्योंकि हमारा नाम मार्च में शामिल होने वालों की सूची में बाद में जुड़ा था. लोग तमाम तरह की अटकलें लगा रहे थे. यह भी लगा कि हमें भी वापस हमारे हिन्दुस्तान भेजा जा सकता है. माथे पर पसीने की लकीरें बढ़ रही थीं. हालांकि सुरेश खैरनार जी एवं फीरोज मिठीबोरवाला आश्वस्त कर रहे थे कि हमारे साथ ऐसा नहीं होगा और जरूरत पड़ी तो वे लोग इसका भी इंतजाम करेंगे.

ईरान की सीमा से लगी तुर्की की सीमा पर आव्रजन कार्यालय के बाहर

एशिया और यूरोप का संगम !



    लेकिन इस तरह के उहापोह के बीच सबके साथ हमें भी उस समय घनघोर आश्चर्य हुआ जब हमें हमारा पासपोर्ट देखते ही तत्काल, बिना किसी हीला-हवाली के, वीसा क्लीयरेंस मिल गया. पता चला कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमारे पासपोर्ट पर अमेरिका का वीसा लगा हुआ था. माना गया कि जो अमेरिका हो आया है, वह तुर्की के लिए भी ‘खतरनाक’ नहीं होगा. तुर्की उन मुस्लिम देशों में संभवतः पहला था जिसने सरकार के स्तर पर इजराइल को सबसे पहले मान्यता दी थी. 


तुर्की के आब्रजन कार्यालय के बाहर





    यूरेशिया
में स्थित तुर्की या कहें टर्की को एशिया और यूरोप का संगम भी कहते हैं. इसका कुछ भाग यूरोप में तथा अधिकांश भाग एशिया में पड़ता है, इसलिए इसे यूरोप एवं एशिया के बीच का 'पुल' भी कहा जाता है. इसके वाणिज्यिक राजधानी शहर इस्तांबुल के इजीयन सागर (Aegean sea) के बीच में आ जाने से इस पर बने पुल के दो भाग हो जाते हैं, जिन्हें साधारणतया यूरोपीय टर्की (थ्रेस) तथा एशियाई टर्की (अनातोलिया) कहते हैं. तुर्की के तकरीबन 473896 वर्ग किमी के क्षेत्रफल में यूरोपीय टर्की (पूर्वी थ्रैस) का क्षेत्रफल 14524 वर्ग किमी तथा एशियाई टर्की (अनातोलिया) का क्षेत्रफल 459387 वर्ग किमी बताया जाता है. तुर्की की सीमाएं पूर्व में रूस और ईरान, दक्षिण की ओर इराक, सीरिया तथा भूमध्यसागर, पश्चिम में ग्रीस और बुल्गारिया और उत्तर में कालासागर से लगती हैं. तुर्की की तकरीबन 7.5 करोड़ की आबादी में सर्वाधिक आबादी तुर्कों की है जबकि कुर्द, अर्मेनियाई, अल्बेनियाई, अरब, अजरबैजानी, बुल्गार और अन्य अल्पसंख्यक समूहों के लोग भी बड़ी मात्रा में रहते हैं. आधिकारिक भाषा तुर्की है लेकिन कुर्द, अरबी, अजेरी, आदि भाषाएं भी बोली, लिखी जाती हैं. लेकिन धर्म के मामले में नब्बे फीसदी से अधिक आबादी मुस्लिम होने के बावजूद तुर्की का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है. शासन के स्तर पर धर्मिनरपेक्षता पर अमल होता है. धर्म वहां सरकारी नहीं बल्कि व्यक्तिगत नैतिकता, व्यवहार तथा विश्वास तक सीमित है.

    तुर्की दुनिया के सबसे पुराने बसे हुए क्षेत्रों में से एक माना जाता है. तुर्की के हजारों वर्षों इतिहास में कई सभ्यताओं के बीच टकराव और संघर्ष दर्ज हैं जिनमें से दो प्रमुख थीं-यूनानी, रोमन और तुर्क. ईसा से 1200 वर्ष पूर्व यूनानियों ने यहां अनेक शहर बसाए, जिनमें एक का नाम था बाइजैन्टियम. बाद में यही शहर इस्तांबुल कहलाया. यूनानियों के बाद यहां कोंस्तांतिन प्रथम के नेतृत्व में रोमन साम्राज्य का आधिपत्य हुआ तब बाइजैन्टियम का नाम कोंस्टनटिनोपल या कुस्तुनतुनिया रखा गया, तब तक रोमन साम्राज्य के ईसाई धर्म ने तुर्की में अपनी पकड़ जमा ली थी. 

    समय बीता और इतिहास का चक्र आगे बढ़ा. सन् 900-1,000 के आसपास सेल्जुक तुर्कों ने रोमन साम्राज्य को हराकर तुर्की का तुर्कीकरण और इस्लामीकरण, दोनों प्रारंभ किया. कुछ समय बाद मंगोल आक्रमणकारी तुर्की तक आ पहुंचे. सेल्जुक तुर्क मंगोलों से हार गए. वैसे तो मंगोल योद्धा विजेता बनने के बाद वापस लौट गए. बाद में सेल्जुक साम्राज्य के उस्मान प्रथम ने उस्मानी (ऑटोमन) राजवंश की नींव रखी, जिसने तुर्की पर अगले लगभग 650 वर्ष राज किया. प्रथम विश्व युद्ध में उस्मानियों ने जर्मनी का साथ दिया और युद्ध में हार के बाद विराम संधि के अंतर्गत उस्मानी साम्राज्य के कुछ भाग ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, ग्रीस आदि में बंट गए. 1922 में तुर्की की सेना में फील्ड मार्शल रहे, क्रांतिकारी और प्रगतिशील विचारों वाले राजनेता मुस्तफा कमाल पाशा ने जंगे आजादी का ऐलान किया और तुर्की की आजादी हासिल की. और इस तरह 29 अक्तूबर 1922 को तुर्की स्वतंत्र एवं संप्रभु गणराज्य के रूप में अस्तित्व में आया. अंकारा देश की राजधानी घोषित हुई और आधुनिक तुर्की गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति बने मुस्तफा कमाल पाशा. वह मृत्यु पर्यंत, 1938 तक तुर्की के राष्ट्रपति रहे. बाद में उन्हें अता तुर्क यानी राष्ट्रपिता के सम्मान से नवाजा गया.

खास है ‘अया सोफिया’


    
चर्च, मस्जिद और संग्रहालय, मस्जिद का रूप बदलती रही
अया उर्फ हागिया सोफिया
    तुर्की के गौरवशाली लेकिन हमलों और आपसी टकराव के साक्षी रहे इतिहास की गवाह ‘अया या कहें हागिया सोफिया’ भी है, जो विश्व की सर्वश्रेठ स्थापत्य कलावाली इमारतों में से एक है. बताया जाता है कि छठी शताब्दी में बाइजैन्टिन शहंशाह जस्टिनियन प्रथम एक ऐसा गिरजाघर बनाना चाहते थे, जो रोम की इमारतों से भव्य हो और जो स्वर्ग की सुंदरता धरती पर ले आए. उनकी देख रेख में कई वर्षों (532-537) के निरंतर निर्माण के बाद एक ऐसी इमारत बनी, जिसे देख कर शहंशाह मुग्ध हो उठे. ईसाई धर्म के धार्मिक दृष्य दर्शाने वाले कुट्टभि चित्र (मोजेक), ऊंचे स्तंभ, जिन पर टिका है, इस इमारत का विशेष आकर्षण, इसका ऊंचा गुंबद. आज से 1500 साल पहले इस गुंबद की परिकल्पना और निर्माण शायद किसी जादूगर ने ही की होगी! 

    कांस्टेंटिनपोल के तुर्की पर जीत के बाद 1453 में उस्मानी राजवंश ने इस्तांबुल पर कब्जा किया तो यहां के नागरिकों ने ‘अया सोफिया’ में जमकर लूट-पाट की. मेहमूद द्वितीय के आदेश पर इस गिरजाघर को मस्जिद में बदल दिया गया. ईसा मसीह और मरियम के चित्र तोड़े तो नहीं गए, पर प्लास्टर से ढक जरूर दिए गए. दीवारों पर कुरान की आयतों के टाइल लगा दिए गए. मुअज्जिन के लिए स्थान बनाया गया. चार मीनारें बनीं और लगभग 500 वर्ष तक इसे इस्लाम धर्म की प्रमुख मस्जिदों में गिना गया. लेकिन सत्तारूढ़ होने के बाद मुस्तफा कमाल पाशा ने एक क्रांतिकारी निर्णय लिया कि ‘अया सोफिया’ जैसी खूबसूरत इमारत न तो मस्जिद होगी और न ही गिरजाघर. 1935 में उसे सरकारी संग्रहालय घोषित कर दिया गया. अभी पूरी दुनिया से करोड़ों पर्यटक इसे देखने यहां आते हैं. इस खूबसूरत इमारत का आनंद लेते हैं जिसमें ईसाई और इस्लाम धर्म दोनों समाविष्ट हैं. बाद में उसे यूनेस्को संरक्षित विश्व इमारतों में शामिल कर लिया गया. (इधर, जुलाई 2020 में तुर्की के मौजूदा राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोगन ने एक बार फिर से अया सोफिया का रूपांतरण मस्जिद के रूप में करने का विवादित फरमान जारी कर दिया जिसका देश-विदेश में भी भारी विरोध हुआ. दरअसल, एर्दोगन अरब देशों में अपने कट्टरपंथी विचारों के साथ नया खलीफा बनने के प्रयासों में दिख रहे हैं. हालांकि उन्होंने फिलीस्तीन के सवाल पर किसी तरह का समर्थन-सहयोग नहीं किया है).

अया सोफिया के सामने 'ब्ल्यू मास्क'


    हालांकि उस्मानी साम्राज्य के एक सुल्तान अहमद ने इस्तांबुल में एक और मस्जिद बनाने का निर्णय लिया, जबकि उस समय की सबसे बड़ी मस्जिद ‘अया सोफिया’ वहां पहले से मौजूद थी. सुल्तान अहमद ने इसका निर्माण भी ‘अया सोफिया’ के बिल्कुल सामने किया. इसलिए इसे सुल्तान अहमद मस्जिद भी कहा जाता है. सुल्तान इस मस्जिद को स्थापत्य के मामले में अया सोफिया से भी शानदार इमारत बनाना चाहते थे. बना भी बहुत खूब, उस्मानी वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण. पंचमुखी गुंबद, आठ छोटे गुंबद और छह मीनारें. लेकिन जब मक्का के तत्कालीन उलेमाओं ने इस मस्जिद पर छह मीनारें देखीं तो कुपित हो गए क्योंकि मक्का की मस्जिद-अल-हरम में उस समय छह मीनारें ही थीं और अन्य मस्जिदों में चार. उनका तर्क था कि कोई मस्जिद मक्का की मस्जिद-अल-हरम की बराबरी कैसे कर सकती है. उस जमाने में मक्का-मदीना उस्मानी राजवंश के जिम्मे ही था. तत्कालीन सुल्तान ने समस्या के समाधान के लिए एक समझौते के तहत हुक्म देकर मक्का की मस्जिद-अल-हरम में सातवीं मीनार का निर्माण करवाकर उसकी श्रेष्ठता साबित की. तब जाकर समस्या टली!

    सुना था कि अया सोफिया की तरह ही इस विशाल नयनाभिराम मस्जिद की खूबसूरती देखते ही बनती है. कहते हैं कि इसका निर्माण ताजमहल बनाने वाले शिल्पकारों ने किया था. इसे नीली मस्जिद (ब्ल्यू मास्क) भी कहा जाता है. बाहर से तो नीला कुछ भी नहीं हैं, पर अंदर जाने पर नीले रंग के हजारों टाइल्स देखने को मिलते हैं, जिनमें फूल-पौधों की आकृतियां बनी हैं. इसमें अभिरंजित कांच जड़ित खिड़कियों से रोशनी छनकर मस्जिद के अंदर आती है. इस मस्जिद में पर्यटकों को भी जाने की छूट है. सच तो यह है कि दुनिया भर से हर साल 40-50 लाख पर्यटक और श्रद्धालु इस मस्जिद की महत्ता, भव्यता, इसके स्थापत्य को देखने और सजदा करने आते हैं. इसके लिए पर्यटकों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता लेकिन मस्जिद में प्रवेश के लिए उनके लिए निर्धारित वस्त्र धारण करना आवश्यक है. अगर किसी के पास निधार्धारित वस्त्र नहीं हैं तो वहां पर्यटकों के लिए निशुल्क दुपट्टा और लुंगी मिलती है ताकि मस्जिद की पवित्रता का सम्मान हो सके. लेकिन नमाज के समय पर्यटकों को अंदर जाने की अनुमति नहीं है. हम लोग भी ‘ब्ल्यू मास्क’ और अया सोफिया के भीतर नहीं जा सके लेकिन उसके कारण कुछ और थे जिसका जिक्र आगे करेंगे.

कहर ढाती कड़ाके की ठंड


एरझुरुम शहर के बाहर सड़क के किनारे, पीछे बिछी बर्फ की चादरें
    बहरहाल, ठंड तो ईरान और उसके बजरगान इलाके में भी कम नहीं थी लेकिन तुर्की में प्रवेश के समय से ही तापमान तेजी से नीचे गिरने लगा था. दो-तीन दिन पहले ही पूरे इलाके में जबरदस्त बर्फबारी हुई थी. हालांकि मार्च महीने में इन इलाकों में इस तरह की बर्फबारी अनहोनी के रूप में ही देखी जा रही थी. तुर्की में राजधानी अंकारा पहुंचने तक अधिकतर जगहों पर तापमान शून्य और इससे कम ही मिला. बर्फ से ढकी पहाड़ियों के बीच गुजरते हुए हमारे कारवां का पहला पड़ाव तुर्की के पूर्वी अनातोलिया क्षेत्र में इग्दिर प्रांत की राजधानी इग्दिर के पास ‘फाइव स्वर्ड’ नामक स्मारक के पास रुका जहां बड़ी संख्या में आए तुर्की के लोगों ने कारवां का स्वागत बड़े जोश-खरोश के साथ किया. आसमान की तरफ उठी 40 मीटर लंबी पांच तलवारों के साथ बना यह स्मारक 1915 में आरमेनियाई सैनिकों द्वारा मारे गए तुर्की के तीन हजार लोगों की स्मृति में बनाया गया है. इग्दिर से तकरीबन 290 किमी आगे बढ़ने पर रात में एरझुरुम शहर में तापमान शून्य से 9 डिग्री सेल्सियश नीचे तक चला गया था. इसी एरझुरुम शहर में 2010 के ‘विंटर ओलंपिक’ खेलों का आयोजन हुआ था. एरुझुरुम में हम लोग थोड़ी देर रुके. एक पार्क में जमी बर्फ में पांव धंसाकर खड़े हुए, वहां सभा भी हुई. रात का खाना भी हुआ. लगा कि रात्रि विश्राम भी वहीं होगा. लेकिन हम वहां रुके नहीं, रात में ही अंकारा के लिए रवाना हो गए. रात भर वातानुकूलित वाल्वो बस में सफर करते हुए तकरीबन 870 किमी दूर तुर्की की राजधानी अंकारा पहुंचने के बाद ही ठंड में कुछ कमी महसूस की जा सकी. 
इग्दिर में 'फाइव स्वर्ड' के पास कारवां का प्रदर्शन



हर बात के पैसे !


    तुर्की में हर बात के पैसे लगते हैं. यहां तक कि बजरगान से सीमा पार कर तुर्की में प्रवेश के समय आब्रजन कार्यालय से लगी कैफीटेरिया के नीचे तलघर में बने मूत्रालय-शौचालय की सुविधा का इस्तेमाल करने पर दो लिरा (तुर्की की मुद्रा, उस समय भारतीय रु. के हिसाब से देखें तो तकरीबन 60-65 रु.) मांगे गए. हमारे पास लिरा नहीं था तो हमने दो (भारतीय) रु. का सिक्का थमा दिए लेकिन बात नहीं बनी. शौचालय के बाहर बैठे कर्मचारी ने हमें रोक कर लिरा में भुगतान करने को कहा. बाद में बाहरी मुसाफिर और मकसद जानने के बाद हमें यूं ही जाने दिया गया. रास्ते में पेट्रोल पंपों और होटल-रेस्तराओं में भी शौचालय की सुविधा इस्तेमाल करने के लिए एक से दो लिरा देने पड़ते थे. यहां तक कि कैमरे, मोबाइल और लैपटाप आदि इलेक्ट्रानिक उपकरणों की बैटरी चार्ज करने के लिए भी एक लिरा देना पड़ता था. अलबत्ता, सड़क पर मोटेल, रेस्तरां आदि पर नमाज पढ़नेवालों को इस शुल्क का भुगतान नहीं करने की छूट थी. रास्ते में जोर की आने पर भारतीय और पाकिस्तानी प्रतिनिधियों के सड़क किनारे खुले में पेशाब करना, बाकियों के लिए एक अचंभित करनेवाला अनुभव था. कई बार तो मजाक का विषय भी बने.

मुस्तफा कमाल पाशा के सुधार

 और इस्लामी क्रांति का दबाव 

  
आधुिनक तुर्की के निर्माता
 मुस्तफा कमाल पाशा अता तुर्क


 
तुर्की प्रवास के दौरान एक बात महसूस हुई. आधुनिक तुर्की के संस्थापक मुस्तफा कमाल पाशा की क्रांति और सुधारों के कारण भी तुर्की अपनी धर्मनिरपेक्षता के लिए मशहूर रहा है. अता तुर्क (राष्ट्र पिता) कहे जानेवाले कमाल पाशा ने एक धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक राष्ट्र की स्थापना के लिए तुर्की में तमाम सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक सुधार किये थे. उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को बहुत कड़ाई से लागू किया था. स्कार्फ ओढ़ने, टोपी पहनने पर पाबंदी लगाने से लेकर तुर्की भाषा में अजान देने जैसे कदम उठाये गए थे. ज्यादा समय नहीं बीता है जब तुर्की को दूसरे मुस्लिम देशों के लिए एक मिसाल के तौर पर पेश किया जाता था. लेकिन आज तुर्की भी बदलाव के दौर से गुजर रहा है. ईरान की इस्लामिक क्रांति से प्रभावित लोग तुर्की को भी इस्लामिक मुल्क बनाने की राह पर हैं. मजे की बात यह भी कि हमारी सभाओं और कार्यक्रमों में शामिल होने वाले लोगों में से अधिकतर लोग धार्मिक और कट्टर इस्लामी या कहें ईरान की इस्लामी क्रांति से प्रभावित लोग ही थे. जाहिर सी बात है कि तुर्की में क्रांति और सुधारों के जनक कमाल पाशा के बारे में इन लोगों की राय बहुत अच्छी नहीं थी. उसी तरह जैसे हमारे भारत में कट्टरपंथी हिन्दुओं का एक तबका राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में अच्छी राय नहीं रखता. लेकिन तुर्की में आम लोगों के बीच कमाल पाशा आज भी सबसे लोकप्रिय और श्रद्धेय राजनेता हैं, जैसे हमारे यहां गांधी जी. हमारे भारत का होने के बारे में पता चलते ही लोगों में हिन्दुस्तान और महात्मा गांधी की चर्चा शुरू हो जाती. युवाओं में शाहरुख खान और आमिर खान का जिक्र भी होता.

नोट ः अगली किश्त में  तुर्की की राजधानी अंकारा,  व्यावसायिक राजधानी  और एशिया तथा यूरोप का संगम कहे जानेवाले इस्तांबुल शहर, विश्व प्रसिद्ध सूफी संत, शायर मौलाना  जलालुद्दीन  रूमी के शहर कोन्या और भूमध्य सागर के तट पर बसे बंदरगाह शहर मर्सिन और तैसुकु पर  ग्लोबल मार्च यु येरूशलम में शामिल होने जा रहे एशियाई कारवां के साथ बीते रोचक और रोमांचक पलों से जुड़े संस्मरण के साथ और भी बहुत कुछ.