जयशंकर गुप्त
कोरोनाकाल में अपने ब्लॉग पर अनुपस्थित रहने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं. पिछले दिनों तमाम मित्रों के आग्रह पर हमने यू ट्यूब पर सात रंग न्यूज और फिर अपने देशबंधु अखबार के यू ट्यूब चैनल, डीबी लाइव पर 'हाल फिलहाल' के नाम से वीडियो अपलोड करना शुरू किया है. देश के ताजा तरीन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक घटनाक्रमों पर आधारित गंभीर विवेचन का हमारा 'हाल फिलहाल' हर सप्ताह शनिवार शाम को देखने सुनने को मिल सकेगा. दो दिन बाद सोमवार को थोड़ा और विस्तार के साथ देशबंधु के पाठकों के लिए यह संपादकीय पृष्ठ पर तथा हमारे ब्लॉग पर भी उपलब्ध रहेगा. उम्मीद है कि हमारे पाठकों, मित्रों और शुभचिंतकों का समर्थन सहयोग हमें पूर्ववत मिलते रहेगा.
महंगाई डायन खाए जात है!
'हाल फिलहाल' में इस बार चर्चा हम एक ऐसे विषय के बारे में कर रहे हैं जो न सिर्फ हमारी सरकार बल्कि हमारे राजनीतिक दलों और मुख्य धारा की मीडिया के एजेंडे से भी गायब सा है. आम आदमी इस समस्या से बेतरह परेशान और हलाकान है लेकिन इसको लेकर वह भी आंदोलित नहीं होता. कसमसा कर रह जाता है. कारण चाहे कोरोना प्रोटोकोल के मद्देनजर बड़े जनसमूह के साथ सड़कों पर उतरकर आंदोलित होने की संभावनाओं का सीमित हो जाना हो या कुछ और, हमारे विपक्षी दल भी इस विषय को मौजूदा सरकार के विरुद्ध अपना मुख्य राजनीतिक एजेंडा नहीं बना पा रहे हैं. वैसी आक्रामकता नहीं बना पा रहे हैं जितनी हमें यूपीए शासन के दूसरे कार्यकाल में तत्कालीन विपक्ष यानी भाजपा के जरिए देखने को मिलती थी. वे इस मसले पर ट्वीट करने भर से अपने दायित्वों की इति मान लेते हैं.
महंगाई डायन खाए जात है!
'हाल फिलहाल' में इस बार चर्चा हम एक ऐसे विषय के बारे में कर रहे हैं जो न सिर्फ हमारी सरकार बल्कि हमारे राजनीतिक दलों और मुख्य धारा की मीडिया के एजेंडे से भी गायब सा है. आम आदमी इस समस्या से बेतरह परेशान और हलाकान है लेकिन इसको लेकर वह भी आंदोलित नहीं होता. कसमसा कर रह जाता है. कारण चाहे कोरोना प्रोटोकोल के मद्देनजर बड़े जनसमूह के साथ सड़कों पर उतरकर आंदोलित होने की संभावनाओं का सीमित हो जाना हो या कुछ और, हमारे विपक्षी दल भी इस विषय को मौजूदा सरकार के विरुद्ध अपना मुख्य राजनीतिक एजेंडा नहीं बना पा रहे हैं. वैसी आक्रामकता नहीं बना पा रहे हैं जितनी हमें यूपीए शासन के दूसरे कार्यकाल में तत्कालीन विपक्ष यानी भाजपा के जरिए देखने को मिलती थी. वे इस मसले पर ट्वीट करने भर से अपने दायित्वों की इति मान लेते हैं.
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राम देवः मोदी राज में 35 रु. पेट्रोल दिलाने का 'दावा' |
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यूपीए शासन में पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि के खिलाफ भाजपा का प्रदर्शन |
2014 के लोकसभा चुनाव में महंगाई डायनवाला गाना काफी हिट हुआ था. उस समय भाजपा का एक चुनावी पोस्टर भी काफी चर्चित हुआ था, ‘बहुत हुई जनता पर महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार.’ अन्य कारणों के अलावा महंगाई ने भी मई 2014 में हुए सत्ता परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. अभी पिछले सवा सात साल से केंद्र में भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राजग की सरकार है. प्रधानमंत्री हैं, नरेंद्र मोदी. लेकिन तबकी परिस्थिति और आज के हालात का तुलनात्मक अध्ययन करें तो हालात तकरीबन वैसे ही हैं, बल्कि उससे भी बदतर हुए हैं, जैसे 2010 से लेकर मई 2014 तक थे. फर्क बस इतना ही हुआ है कि नोट बंदी और अभी कोरोना महामारी के कारण पिछले वर्षों में बेरोजगारी बढ़ी है, लोगों की नौकरियां गई हैं, वेतन मिलना बंद या कहें कम हो गया है. लोगों की आमदनी कम हुई है लेकिन खर्चों में कोई कमी नहीं हो रही. इस सबके साथ ही चरम को छूती महंगाई कहर ढा रही है. आज उस गाने में थोड़ा संशोधन कर हम कह सकते हैं, “सखी सैंयां तो कम ही कमात हैं, महंगाई सबकुछ खाए जात है.”
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कौन नसीबवाला है और कौन है बदनसीब! |
ऐसा नहीं है कि मोदी जी के सवा सात साल के शासन में पेट्रोल-डीजल के दाम कभी कम ही नहीं हुए. 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव के समय पेट्रोल और डीजल के दाम कम हुए थे. तब इसका श्रेय और वाहवाही लेते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि वह नसीबवाला हैं, इसलिए पेट्रोल-डीजल के दाम कम हुए. उन्होंने एक फरवरी 2015 को दिल्ली में हुई एक चुनावी रैली में कहा था, “पेट्रोल-डीजल के दाम कम हुए कि नहीं. आपकी जेब में पैसा बचने लगा है कि नहीं... अब हमारे विरोधी कहते हैं कि मोदी तो नसीबवाला है...तो भाई अगर मोदी का नसीब जनता के काम आता है तो इससे बढ़िया नसीब की बात और क्या हो सकती है....आपको नसीबवाला चाहिए या बदनसीब! उनका कटाक्ष दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर था. हालांकि दिल्लीवाले मोदी जी के झांसे में नहीं आए. दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया.
इन दिनों राजधानी दिल्ली में पेट्रोल एक सौ और डीजल नब्बे रुपए प्रति लीटर के पार चला गया है. रसोई गैस का सिलेंडर 834.50 रुपए, पीएनजी (पाइप्ड नेचुरल गैस) 29.61 रु. प्रति घन मीटर तथा सीएनजी 44.30 रु. प्रति किलोग्राम के भाव बिक रहा है. इस सबके चलते खाने-पीने की वस्तुओं-नमक, खाद्य तेल, दूध, दाल और अंडे से लेकर सब्जियों के भाव आसमान छूने लगे हैं. अमूल के बाद अब मदर डेयरी ने भी दूध के दाम में तकरीबन दो रु. की वृद्धि कर दी है. दिल्ली और आसपास के इलाकों में गर्मी के दिनों में 120 रु. प्रति क्रेट (30 अंडों का एक क्रेट) मिलनेवाला अंडा 180 से 200 रु. की दर से मिल रहा है. पेट्रोल-डीजल और सीएनजी की दरें लगातार बढ़ते जाने के कारण न सिर्फ निजी बल्कि सार्वजनिक परिवहन भी प्रभावित हुआ है. इसकी दरों में वृद्धि भी अवश्यंभावी है. उसके बाद आम आदमी की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं. पता नहीं मोदी जी को अपना नसीबवाला जुमला याद है कि नहीं. उन्हें खुद ही तय कर लेना चाहिए कि वह नसीबवाला हैं या बदनसीब!
इन दिनों राजधानी दिल्ली में पेट्रोल एक सौ और डीजल नब्बे रुपए प्रति लीटर के पार चला गया है. रसोई गैस का सिलेंडर 834.50 रुपए, पीएनजी (पाइप्ड नेचुरल गैस) 29.61 रु. प्रति घन मीटर तथा सीएनजी 44.30 रु. प्रति किलोग्राम के भाव बिक रहा है. इस सबके चलते खाने-पीने की वस्तुओं-नमक, खाद्य तेल, दूध, दाल और अंडे से लेकर सब्जियों के भाव आसमान छूने लगे हैं. अमूल के बाद अब मदर डेयरी ने भी दूध के दाम में तकरीबन दो रु. की वृद्धि कर दी है. दिल्ली और आसपास के इलाकों में गर्मी के दिनों में 120 रु. प्रति क्रेट (30 अंडों का एक क्रेट) मिलनेवाला अंडा 180 से 200 रु. की दर से मिल रहा है. पेट्रोल-डीजल और सीएनजी की दरें लगातार बढ़ते जाने के कारण न सिर्फ निजी बल्कि सार्वजनिक परिवहन भी प्रभावित हुआ है. इसकी दरों में वृद्धि भी अवश्यंभावी है. उसके बाद आम आदमी की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं. पता नहीं मोदी जी को अपना नसीबवाला जुमला याद है कि नहीं. उन्हें खुद ही तय कर लेना चाहिए कि वह नसीबवाला हैं या बदनसीब!
हैरानी की बात है कि जिन लोगों को मई 2014 से पहले महंगाई 'डायन' लगती थी, अब उन्हें वह 'डार्लिंग' लगने लगी है. जो लोग पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि के खिलाफ सड़कों पर रसोई गैस के सिलेंडर और अन्य प्रतीक चिन्हों के साथ धरना प्रदर्शन करते थे. सायकिल और बैलगाड़ी पर चलने की बातें करते थे, अब महंगाई की चर्चा करने से भी कतराते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने ‘मन की बात’ में भी इसका जिक्र नहीं करते. अलबत्ता उनकी पार्टी के नेता और मंत्री और रामदेव भी महंगाई और पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बेतहाशा बढ़ने का औचित्य साबित करने के लिए तरह-तरह के तर्क-कुतर्क देते हैं. छत्तीसगढ़ सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे भाजपा के वरिष्ठ नेता बृजमोहन अग्रवाल तो कहते हैं कि “जिन्हें महंगाई राष्ट्रीय आपदा लगती है, वे लोग खाना-पीना बंद कर दें, अन्न त्याग दें, पेट्रोल का इस्तेमाल करना बंद कर दें और मुझे लगता है कि अगर कांग्रेसी और कांग्रेस को वोट देनेवाले लोग ही ऐसा कर दें तो महंगाई कम हो जाएगी.”
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भाजपा नेता अग्रवाल अन्न त्याग देने से महंगाई कम हो जाएगी |
कुछ दिनों पहले तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि अभी सरकार की आमदनी काफी कम हो गई है और इसके 2021-22 में भी कम ही रहने के आसार हैं. सरकार की आमदनी कम हुई है जबकि खर्चे बढ़ गए हैं. उनकी यह बात सच हो सकती है लेकिन उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इस कोरोनाकाल में क्या आम आदमी की आमदनी बढ़ गई है, जिससे उस पर करों का बोझ लगातार बढ़ते जा रहा है. सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि कोरोनाकाल में महंगाई से पीड़ित लोगों ने घर में पड़े सोने और उसके जेवर गिरवी रखकर कर्ज लिए जबकि सबसे अधिक कर्ज महिलाओं ने अपने मंगलसूत्र गिरवी रखकर लिए हैं.
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सरकार की आमदनी कम हो गई हैः धर्मेंद्र प्रधान |
दरअसल पेट्रोलियम पदार्थों की इस मूल्यवृद्धि का कारण इस पर लगने वाले केंद्र सरकार के उत्पाद शुल्क और राज्य सरकारों के वैट हैं. 2014 में पेट्रोल पर 9.48 रु. तथा डीजल पर 3-56 रु. केंद्रीय उत्पाद शुल्क लगता था जो अब बढ़कर क्रमशः तकरीबन 33 रु. और 32 रु. हो गया है. इस पर तकरीबन 20-22 रु. राज्य सरकारों का वैट भी लगता है. यही कारण है कि जब अप्रैल 2020 में अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमत न्यूनतम 20 डालर प्रति बैरल के आसपास आ गई थी तब भी पेट्रोल और डीजल के दाम कम नहीं हुए थे. सरकार चाहती तो कच्चे तेल की कीमतों में ऐतिहासिक कमी का फायदा आम आदमी को पेट्रोल-डीजल की कीमतें कम करके दे सकती थी. आर्थिक रूप से कंगाली के कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने उस समय एक महीने के भीतर पेट्रोल और डीजल की कीमतों में क्रमशः 30 और 42 रु. की कमी करते हुए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में हुई भारी कमी का लाभ अपने उपभोक्ताओं को दिया था. लेकिन हमारी सरकार ने ऐसा करने के बजाए अपना खजाना भरना जरूरी समझा. 5 मई 2020 को पेट्रोल पर 10 और डीजल पर 13 रु. का उत्पाद शुल्क और बढ़ा दिया गया. इससे दो महीने पहले भी सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क में तीन-तीन रु. की वृद्धि की थी.
जब भी पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में कमी करने की मांग उठती है भाजपा के नेता इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालते हुए कहते हैं कि राज्य सरकारें चाहें तो वैट में कमी करके पेट्रोल-डीजल के दाम कम कर सकती हैं जबकि राज्य सरकारों और खासतौर से गैर भाजपा दलों के द्वारा शासित राज्यों के प्रतिनिधि इसके उलट कहते हैं कि केंद्र सरकार को एक्साइज ड्यूटी में कमी करके आम आदमी को राहत देना चाहिए. इस तरह दोनों ही अपनी जिम्मेदारी दूसरे पर थोपने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं करते. अभी अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमतें और बढ़ने की आशंका जताई जा रही है. इसका मतलब साफ है कि आम आदमी को फिलहाल महंगाई से राहत मिलने के आसार कम ही हैं. भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने सरकार को सुझाव दिया है कि करों में कटौती कर आम आदमी को कुछ राहत दी जा सकती है लेकिन क्या हमारी सरकार उनकी बात को भी सुनेगी. नए पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी का कहना है कि वह अभी इस मामले को समझने में लगे हैं. इसके बाद ही कुछ कह पाएंगे. तो क्या आम आदमी को सात-आठ महींनों बाद होनेवाले उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड सहित पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव का इंतजार करना होगा क्योंकि चुनाव सामने हों तो हमारी सरकार कीमतों में कमी या फिर कीमतों को स्थिर रखने के जतन करती है. ऐसा ही पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरि विधानसभा के चुनाव के समय देखा गया था. चुनाव संपन्न होने तक पेट्रोलियम पदार्थों के दाम तकरीबन स्थिर ही रहे लेकिन चुनाव संपन्न होने के बाद ही इनमें वृद्धि जो शुरू हुई तो फिर रुकने का नाम ही नहीं ले रही.
सटीक विश्लेषण। मोदी शासन-2 में महंगाई एवं बेरोजगारी चरम पर है। यूपीए-2 में इसकी आधी भी नहीं थी। लेकिन उस समय विपक्ष मजबूत और संगठित था। आज विपक्ष कमजोर और बिखरा हुआ है। विपक्ष की कोई मास अपील नहीं है। जनता राहुल गांधी को अभी तक उसी तरह स्वीकार नहीं कर पायी है जैसे उसने 2013 में मोदी को स्वीकार कर लिया था। मोदी के छवि निर्माण में मीडिया का भी बहुत बड़ा योगदान था। पूंजीपतियों की थैलियां तो उनके लिये खुल ही गयी थी। 2013-14 में महंगाई की मार, बढ़ता प्रशासनिक भ्रष्टाचार और युवा वर्ग की अतृप्त आकांक्षाओं ने मिल कर यूपीए-2 विरोधी माहौल बना दिया था। जनता तभी पीछे चल पड़ती है जब उसे किसी नेता,पार्टी और संगठन में अपने सुनहरे भविष्य की आशा दिखाई देती है। मोदी का नारा - 'अच्छे दिन आएंगे'ने आम जनता को मंत्रमुग्ध कर दिया था। इस समय जनता को उद्वेलित करने वाला न कोई नेता है, न पार्टी है, न संगठन है जो सड़कों पर उतर कर आंदोलन करे और उसके कार्यकर्ता जेलें भर दें और न कोई प्रेरणादायक नेता है। भारत की जनता यूरोप की तरह स्वतः स्फूर्त आंदोलित नहीं होती है। वह हमेशा किसी न किसी नेता के पीछे ही चलती है। पं.नेहरू,इंदिराजी,जेपी,वीपी सिंह और बाद में मोदी में जनता को कभी न कभी अपना स्वर्णिम भविष्य दिखाई दिया और वह इन नेताओं के पीछे चल पड़ी। विपक्ष में जब भी कोई ऐसी संभावना वाला नेता प्रकट होगा, जनता उसके पीछे चल जोड़ेगी। अन्यथा जैसा आपने लिखा है वह अपनी बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से कसमसाती रहेगी। लेकिन जब वोट देने की बारी आएगी तब वह धर्म, मजहब, जाति और सम्प्रदाय में बंट जाएगी। मोदी और बीजेपी के पास जनता को लामबंद करने की कुंजी है जिसे विश्लेषक धार्मिक ध्रुवीकरण कहते हैं। यह धार्मिक ध्रुवीकरण बाकी सभी बुनियादी बातों पर भारी पड़ जाता है। बंगाल में वह इसलिये सफल नहीं हो पाया क्योंकि बंगाल की तासीर भिन्न है। दक्षिण में भी बीजेपी का यह हथियार भोथरा ही सिद्ध होता आया है। लेकिन हिंदी पट्टी में यह हमेशा से हावी और प्रभावशील रहा है। दिल्ली की गद्दी का निर्णय भी यही हिंदी पट्टी करती रही है, जिसमें उत्तरप्रदेश,बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, छत्तीसगढ़,शामिल हैं। बाकी का काम महाराष्ट्र और गुजरात कर देते हैं। 2024 में दिल्ली की गद्दी का फैसला यही राज्य करेंगे।
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