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Monday, 12 July 2021

Haal Filhal 'Mahangaee Dayan Khaye jaat hai'

हाल फिलहाल

जयशंकर गुप्त

   
     
कोरोनाकाल में अपने ब्लॉग पर अनुपस्थित रहने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं. पिछले दिनों तमाम मित्रों के आग्रह पर हमने यू ट्यूब पर सात रंग न्यूज और फिर अपने देशबंधु अखबार के यू ट्यूब चैनल, डीबी लाइव पर 'हाल फिलहाल' के नाम से वीडियो अपलोड करना शुरू किया है. देश के ताजा तरीन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक घटनाक्रमों पर आधारित गंभीर विवेचन का हमारा 'हाल फिलहाल' हर सप्ताह शनिवार शाम को देखने सुनने को मिल सकेगा. दो दिन बाद सोमवार को  थोड़ा और विस्तार के साथ देशबंधु के पाठकों के लिए यह संपादकीय पृष्ठ पर तथा हमारे ब्लॉग पर भी उपलब्ध रहेगा. उम्मीद है कि हमारे पाठकों, मित्रों और शुभचिंतकों का समर्थन सहयोग हमें पूर्ववत मिलते रहेगा.

महंगाई डायन खाए जात है!

        'हाल फिलहाल' में इस बार चर्चा हम एक ऐसे विषय के बारे में कर रहे हैं जो न सिर्फ हमारी सरकार बल्कि हमारे राजनीतिक दलों और मुख्य धारा की मीडिया के एजेंडे से भी गायब सा है. आम आदमी इस समस्या से बेतरह परेशान और हलाकान है लेकिन इसको लेकर वह भी आंदोलित नहीं होता. कसमसा कर रह जाता है. कारण चाहे कोरोना प्रोटोकोल के मद्देनजर बड़े जनसमूह के साथ सड़कों पर उतरकर आंदोलित होने की संभावनाओं का सीमित हो जाना हो या कुछ और, हमारे विपक्षी दल भी इस विषय को मौजूदा सरकार के विरुद्ध अपना मुख्य राजनीतिक एजेंडा नहीं बना पा रहे हैं. वैसी आक्रामकता नहीं बना पा रहे हैं जितनी हमें यूपीए शासन के दूसरे कार्यकाल में तत्कालीन विपक्ष यानी भाजपा के जरिए देखने को मिलती थी. वे इस मसले पर ट्वीट करने भर से अपने दायित्वों की इति मान लेते हैं.

        
राम देवः मोदी राज में 35 रु. पेट्रोल दिलाने का 'दावा'
हम बात कर रहे हैं, पेट्रोलियम पदार्थों के दाम लगातार बढ़ते जाने और उससे जुड़ी बेतहाशा महंगाई की. आपको याद है, आज से 11 साल पहले एक फिल्म आई थी, ‘पीपली लाइव.’ उसका एक गाना बहुत चर्चित और लोकप्रिय हुआ था, “सखी सैयां तो खूब ही कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है.” उस समय केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्ववाले यूपीए की सरकार थी और भाजपा विपक्ष में थी. भाजपा ने इस गाने को मनमोहन सरकार के विरुद्ध अपने राजनीतिक अभियान का मुख्य अस्त्र बनाया था. उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी महंगाई और खासतौर से पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि को लेकर बहुत उद्वेलित थे. उन्होंने कहा था कि पेट्रोल और डीजल के दाम में वृद्धि सरकार की नाकामी का प्रतीक है. सरकार कसाईखानों को तो सबसिडी देती है लेकिन डीजल के दाम बढ़ाती है. उस समय भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह, प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर, स्मृति ईरानी, रविशंकर प्रसाद और शाहनवाज हुसेन से लेकर तमाम नेताओं ने पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि को आम आदमी पर करारी चोट करार देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से बढ़ी हुई कीमतें वापस लेने और पेट्रोलियम पदार्थों पर एक्साइज ड्यूटी कम करने की मांग भी की थी. श्री जावडेकर ने तो दावे के साथ कहा था, “हम चुनौती के साथ कह सकते हैं कि पूरी तरह से रिफाइंड पेट्रोल दिल्ली में 34 रु. और मुंबई में 36 रु. प्रति लीटर मिल सकता है.” इसी तरह के दावे के साथ उस समय खुद को अर्थशास्त्री बतानेवाले योग गुरु या कहें योग के व्यवसाई बाबा रामदेव ने भी एक टीवी शो में 35 रु. लीटर के भाव पेट्रोल और 300 रु. प्रति सिलेंडर रसोई गैस देनेवाली मोदी जी की सरकार बनवाने का न सिर्फ आग्रह किया था बल्कि उस कार्यक्रम में बैठे युवाओं से इसके समर्थन में ताली भी बजवाई थी.
    

यूपीए शासन में पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि के खिलाफ भाजपा का प्रदर्शन

    2014 के लोकसभा चुनाव में महंगाई डायनवाला गाना काफी हिट हुआ था. उस समय भाजपा का एक चुनावी पोस्टर भी काफी चर्चित हुआ था, ‘बहुत हुई जनता पर महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार.’ अन्य कारणों के अलावा महंगाई ने भी मई 2014 में हुए सत्ता परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. अभी पिछले सवा सात साल से केंद्र में भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राजग की सरकार है. प्रधानमंत्री हैं, नरेंद्र मोदी. लेकिन तबकी परिस्थिति और आज के हालात का तुलनात्मक अध्ययन करें तो हालात तकरीबन वैसे ही हैं, बल्कि उससे भी बदतर हुए हैं, जैसे 2010 से लेकर मई 2014 तक थे. फर्क बस इतना ही हुआ है कि नोट बंदी और अभी कोरोना महामारी के कारण पिछले वर्षों में बेरोजगारी बढ़ी है, लोगों की नौकरियां गई हैं, वेतन मिलना बंद या कहें कम हो गया है. लोगों की आमदनी कम हुई है लेकिन खर्चों में कोई कमी नहीं हो रही. इस सबके साथ ही चरम को छूती महंगाई कहर ढा रही है. आज उस गाने में थोड़ा संशोधन कर हम कह सकते हैं, “सखी सैंयां तो कम ही कमात हैं, महंगाई सबकुछ खाए जात है.”

कौन नसीबवाला है और कौन है बदनसीब!

    ऐसा नहीं है कि मोदी जी के सवा सात साल के शासन में पेट्रोल-डीजल के दाम कभी कम ही नहीं हुए. 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव के समय पेट्रोल और डीजल के दाम कम हुए थे. तब इसका श्रेय और वाहवाही लेते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि वह नसीबवाला हैं, इसलिए पेट्रोल-डीजल के दाम कम हुए. उन्होंने एक फरवरी 2015 को दिल्ली में हुई एक चुनावी रैली में कहा था, “पेट्रोल-डीजल के दाम कम हुए कि नहीं. आपकी जेब में पैसा बचने लगा है कि नहीं... अब हमारे विरोधी कहते हैं कि मोदी तो नसीबवाला है...तो भाई अगर मोदी का नसीब जनता के काम आता है तो इससे बढ़िया नसीब की बात और क्या हो सकती है....आपको नसीबवाला चाहिए या बदनसीब! उनका कटाक्ष दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल  पर था. हालांकि दिल्लीवाले मोदी जी के झांसे में नहीं आए. दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया.

        इन दिनों राजधानी दिल्ली में पेट्रोल एक सौ और डीजल नब्बे रुपए प्रति लीटर के पार चला गया है. रसोई गैस का सिलेंडर 834.50 रुपए, पीएनजी (पाइप्ड नेचुरल गैस) 29.61 रु. प्रति घन मीटर तथा सीएनजी 44.30 रु. प्रति किलोग्राम के भाव बिक रहा है. इस सबके चलते खाने-पीने की वस्तुओं-नमक, खाद्य तेल, दूध, दाल और अंडे से लेकर सब्जियों के भाव आसमान छूने लगे हैं. अमूल के बाद अब मदर डेयरी ने भी दूध के दाम में तकरीबन दो रु. की वृद्धि कर दी है. दिल्ली और आसपास के इलाकों में गर्मी के दिनों में 120 रु. प्रति क्रेट (30 अंडों का एक क्रेट) मिलनेवाला अंडा 180 से 200 रु. की दर से मिल रहा है. पेट्रोल-डीजल और सीएनजी की दरें लगातार बढ़ते जाने के कारण न सिर्फ निजी बल्कि सार्वजनिक परिवहन भी प्रभावित हुआ है. इसकी दरों में वृद्धि भी अवश्यंभावी है. उसके बाद आम आदमी की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं. पता नहीं मोदी जी को अपना नसीबवाला जुमला याद है कि नहीं. उन्हें खुद ही तय कर लेना चाहिए कि वह नसीबवाला हैं या बदनसीब!

    हैरानी की बात है कि जिन लोगों को मई 2014 से पहले महंगाई 'डायन' लगती थी, अब उन्हें वह 'डार्लिंग' लगने लगी है. जो लोग पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि के खिलाफ सड़कों पर रसोई गैस के सिलेंडर और अन्य प्रतीक चिन्हों के साथ धरना प्रदर्शन करते थे. सायकिल और बैलगाड़ी पर चलने की बातें करते थे, अब महंगाई की चर्चा करने से भी कतराते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने ‘मन की बात’ में भी इसका जिक्र नहीं करते. अलबत्ता उनकी पार्टी के नेता और मंत्री और रामदेव भी महंगाई और पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बेतहाशा बढ़ने का औचित्य साबित करने के लिए तरह-तरह के तर्क-कुतर्क देते हैं. छत्तीसगढ़ सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे भाजपा के वरिष्ठ नेता बृजमोहन अग्रवाल तो कहते हैं कि “जिन्हें महंगाई राष्ट्रीय आपदा लगती है, वे लोग खाना-पीना बंद कर दें, अन्न त्याग दें, पेट्रोल का इस्तेमाल करना बंद कर दें और मुझे लगता है कि अगर कांग्रेसी और कांग्रेस को वोट देनेवाले लोग ही ऐसा कर दें तो महंगाई कम हो जाएगी.”

भाजपा नेता अग्रवाल अन्न त्याग देने से महंगाई कम हो जाएगी
    उस समय पेट्रोलियम पदार्थों पर लगनेवाले करों को हटाने अथवा कम करने और आम आदमी को सबसिडी देने की बढ़ चढ़कर मांग करनेवाले लोग अब कह रहे हैं कि देश के विकास के लिए पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने और लगातार बढनेवाले उत्पाद शुल्क यानी एक्साइज ड्यूटी देश के विकास को गति देने के लिए परम आवश्यक है. तो क्या मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के जमाने में पेट्रोलियम पदार्थों पर उत्पाद शुल्क नहीं लगते थे और उससे मिलनेवाला पैसा विकास कार्यों के बजाय कहीं और खर्च होता था! 

    कुछ दिनों पहले तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि अभी सरकार की आमदनी काफी कम हो गई है और इसके 2021-22 में भी कम ही रहने के आसार हैं. सरकार की आमदनी कम हुई है जबकि खर्चे बढ़ गए हैं. उनकी यह बात सच हो सकती है लेकिन उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इस कोरोनाकाल में क्या आम आदमी की आमदनी बढ़ गई है, जिससे उस पर करों का बोझ लगातार बढ़ते जा रहा है. सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि कोरोनाकाल में महंगाई से पीड़ित लोगों ने घर में पड़े सोने और उसके जेवर गिरवी रखकर कर्ज लिए जबकि सबसे अधिक कर्ज महिलाओं ने अपने मंगलसूत्र गिरवी रखकर लिए हैं. 
    
    
सरकार की आमदनी कम हो गई हैः धर्मेंद्र प्रधान
    धर्मेंद्र प्रधान ने पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि को जायज ठहराने के पक्ष में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि का तर्क दिया और कहा कि कच्चे तेल की कीमत 70 डालर प्रति बैरल हो गई है. कमोबेस इसी तरह के तर्क यूपीए सरकार के समय कांग्रेस के नेता और मंत्री भी देते थे. अब इसे भी समझते हैं. 2014 में जब मनमोहन सिंह की सरकार थी, उस समय कच्चे तेल की कीमत 108 डालर प्रति बैरल हो गई थी जबकि उस समय पेट्रोल की अधिकतम कीमत 71.51 रुपए और डीजल 57.27 रुपए प्रति लीटर था. तो फिर क्या कारण है कि आज जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 70 से 75 डालर प्रति बैरल है तो पेट्रोल 100 रु. और डीजल 90 रु. के पार बिक रहा है!

    दरअसल पेट्रोलियम पदार्थों की इस मूल्यवृद्धि का कारण इस पर लगने वाले केंद्र सरकार के उत्पाद शुल्क और राज्य सरकारों के वैट हैं. 2014 में पेट्रोल पर 9.48 रु. तथा डीजल पर 3-56 रु. केंद्रीय उत्पाद शुल्क लगता था जो अब बढ़कर क्रमशः तकरीबन 33 रु. और 32 रु. हो गया है. इस पर तकरीबन 20-22 रु. राज्य सरकारों का वैट भी लगता है. यही कारण है कि जब अप्रैल 2020 में अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमत न्यूनतम 20 डालर प्रति बैरल के आसपास आ गई थी तब भी पेट्रोल और डीजल के दाम कम नहीं हुए थे. सरकार चाहती तो कच्चे तेल की कीमतों में ऐतिहासिक कमी का फायदा आम आदमी को पेट्रोल-डीजल की कीमतें कम करके दे सकती थी. आर्थिक रूप से कंगाली के कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने उस समय एक महीने के भीतर पेट्रोल और डीजल की कीमतों में क्रमशः 30 और 42 रु. की कमी करते हुए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में हुई भारी कमी का लाभ अपने उपभोक्ताओं को दिया था. लेकिन हमारी सरकार ने ऐसा करने के बजाए अपना खजाना भरना जरूरी समझा. 5 मई 2020 को पेट्रोल पर 10 और डीजल पर 13 रु. का उत्पाद शुल्क और बढ़ा दिया गया. इससे दो महीने पहले भी सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क में तीन-तीन रु. की वृद्धि की थी.

    जब भी पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में कमी करने की मांग उठती है भाजपा के नेता इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालते हुए कहते हैं कि राज्य सरकारें चाहें तो वैट में कमी करके पेट्रोल-डीजल के दाम कम कर सकती हैं जबकि राज्य सरकारों और खासतौर से गैर भाजपा दलों के द्वारा शासित राज्यों के प्रतिनिधि इसके उलट कहते हैं कि केंद्र सरकार को एक्साइज ड्यूटी में कमी करके आम आदमी को राहत देना चाहिए. इस तरह दोनों ही अपनी जिम्मेदारी दूसरे पर थोपने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं करते. अभी अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमतें और बढ़ने की आशंका जताई जा रही है. इसका मतलब साफ है कि आम आदमी को फिलहाल महंगाई से राहत मिलने के आसार कम ही हैं. भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने सरकार को सुझाव दिया है कि करों में कटौती कर आम आदमी को कुछ राहत दी जा सकती है लेकिन क्या हमारी सरकार उनकी बात को भी सुनेगी. नए पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी का कहना है कि वह अभी इस मामले को समझने में लगे हैं. इसके बाद ही कुछ कह पाएंगे. तो क्या आम आदमी को सात-आठ महींनों बाद होनेवाले उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड सहित पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव का इंतजार करना होगा क्योंकि चुनाव सामने हों तो हमारी सरकार कीमतों में कमी या फिर कीमतों को स्थिर रखने के जतन करती है. ऐसा ही पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरि विधानसभा के चुनाव के समय देखा गया था. चुनाव संपन्न होने तक पेट्रोलियम पदार्थों के दाम तकरीबन स्थिर ही रहे लेकिन चुनाव संपन्न होने के बाद ही इनमें वृद्धि जो शुरू हुई तो फिर रुकने का नाम ही नहीं ले रही.