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Tuesday, 7 September 2021

Hal Filhal : PM MATERIAL NITISH KUMAR !

तो क्या नीतीश कुमार हैं पीएम मटीरियल !


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/xXi2Ze03CuQ

तो क्या नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल यानी प्रधानमंत्री पद के काबिल बताया जाना एक राजनीतिक शिगूफा भर है! क्या इसका राजनीतिक मकसद अपने राजनीतिक सहयोगी भाजपा पर दबाव बनाना, जनता दल (यू) को राष्ट्रीय दल की पहिचान दिलाना भर है या नीतीश कुमार एक बार फिर पलटी मारकर 2024 के संसदीय चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को चुनौती देने के इरादे से विपक्ष का चेहरा बनने की संभावनाओं पर काम कर रहे हैं! या फिर यह जद (यू)  के अंदरूनी मतभेदों को दबाने और खबरों में बने रहने की कवायद भर है!

    इन दिनों बिहार की राजनीति में पीएम यानी प्रधानमंत्री मटीरियल की चर्चा बहुत जोरों पर है. बिहार में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का रिकार्ड बनानेवाले नीतीश कुमार को उनकी पार्टी के लोग एक अरसे से पी एम मटीरियल मानते और बताते रहे हैं लेकिन इस बार जब 29 अगस्त को जनता दल (यू) की राष्ट्रीय परिषद ने इस आशय का एक राजनीतिक प्रस्ताव भी पास कर दिया तो बात में गंभीरता नजर आने लगी है. पक्ष और विपक्ष में भी तर्क कुतर्क दिए जाने लगे हैं. यह बात और है कि अभी प्रधानमंत्री पद के लिए कोई रिक्ति नजर नहीं आ रही है.

नीतीश कुमारः राजनीतिक विश्वसनीयता का सवाल !
    जाहिरा तौर पर नीतीश कुमार पहले भी इससे इनकार करते रहे हैं और इस बार भी उन्होंने यही कहा है कि वह इन बातों पर ध्यान नहीं देते. पार्टी में लोग इस तरह की बातें करते रहते हैं. लेकिन उनकी मौजूदगी में उनकी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में इस तरह का राजनीतिक प्रस्ताव कैसे पास हो गया ! ऐसा तो संभव ही नहीं है कि उनकी जानकारी और सहमति के बिना यह प्रस्ताव तैयार और पास भी हो गया हो ! हालांकि इस प्रस्ताव को पास करते समय भी उनकी पार्टी के नेताओं ने यह साफ नहीं किया कि वह प्रधानमंत्री कब और कैसे बनेंगे. लोकसभा के चुनाव पौने तीन साल बाद होने हैं और अभी वह जिस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में शामिल हैं, उसमें प्रधानमंत्री का पद और भविष्य की दावेदारी भी खाली नहीं है. उनके समर्थक और उन्हें प्रधानमंत्री पद के काबिल बताने वाले उनकी पार्टी के नेता क्या यह सोचते हैं कि 2024 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी भाजपा में उम्र के पैमाने के मद्देनजर प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं रहेंगे और भाजपानीत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा संचालित राजग बिहार की बादशाहत की तरह ही लोकसभा में 15-20 सांसद की राजनीतिक ताकतवाले नीतीश कुमार को नेतृत्व की दावेदारी सौंप देगा! फिलहाल तो यह द्विवा स्वप्न से अधिक कुछ और नहीं लगता.
 

कैसे बनेंगे वैकल्पिक चेहरा !


    इसके लिए दूसरा विकल्प 2024 में संयुक्त विपक्ष उन्हें अपना वैकल्पिक चेहरा मानकर चुनाव लड़े. तो क्या उनकी निगाह एक बार फिर से पलटी मार कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के विरोध में बननेवाले किसी संभावित राजनीतिक गठबंधन का नेतृत्व करने की ओर लगी है. एक अरसे से उन्हें विपक्षी गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध सर्वमान्य विकल्प के बतौर देखा जाते रहा है. संभव है कि मौजूदा विपक्ष में कांग्रेस के अंदरूनी झगड़ों, वैकल्पिक नेतृत्व पर सहमति के अभाव, ममता बनर्जी और कुछ अन्य क्षेत्रीय नेताओं की संभावित दावेदारी के मद्देनजर उनके भीतर भी एक बार फिर से प्रधानमंत्री बनने की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हिलोर मारने लगी हों. उनके करीबी लोगों को लगता है कि वह विपक्ष का चेहरा बन सकते हैं. जेल से बाहर आने के बाद से ही हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला गैर कांग्रेसी, गैर भाजपा दलों को जोड़कर तीसरा मोर्चा फिर से खड़ा करने की कवायद में लगे हैं. वह नीतीश कुमार तथा कुछ अन्य नेताओं से मिल भी चुके हैं. अगले 25 सितंबर को उन्होंने अपने पिता, पूर्व उप प्रंधानमंत्री चौधरी देवीलाल की जयंती के अवसर पर हरियाणा के जींद में एक बड़ा समारोह (मिलन समारोह) आयोजित कर उसमें नीतीश कुमार, समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव, जनता दल (एस) के नेता, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा, अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल, तेलुगु देशम पार्टीप के चंद्रबाबू नायडू, रालोद के जयंत चौधरी, एनसीपी के शरद पवार, नेशनल कान्फ्रेंस के डा. फारुख अब्दुल्ला और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी को भी बुलाया है. इनमें से कौन कौन वहां जुटता है और आगे की रणनीति क्या बनती है, यह देखने की बात होगी. हालांकि ओमप्रकाश चौटाला इन दिनों स्वयं हरियाणा में अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनका राजनीतिक कुनबा बिखर चुका है. उनके पुत्र अजय चौटाला और पौत्र दुष्यंत चौटाला हरियाणा में भाजपा के साथ मिलकर साझा सरकार चला रहे हैं.  

राजीव रंजन उर्फ ललन सिंहः जद (यू) को राष्ट्रीय पहिचान दिलाना है
    नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री मटीरियल बताने के पीछे उनकी और उनके जद (यू) की राष्ट्रीय पहिचान बनाने की कवायद भी हो सकती है. जद (यू) नेताओं की कोशिश उत्तर प्रदेश और मणिपुर विधानसभा के चुनाव में भी अगर भाजपा से बात बन जाती है तो उसके साथ मिलकर और सम्मानजनक सीटें नहीं मिलने पर अपने बूते भी तकरीबन आधी सीटों पर चुनाव लड़ने की लगती है. इसके लिए अभी उनके पास प्रचुर समय भी है. भाजपा के साथ उनकी बात भी हो रही है. अगले साल ही जम्मू-कश्मीर और गुजरात विधानसभा के चुनाव भी होने हैं. जद (यू) की कोशिश इन राज्य विधानसभाओं के चुनाव में कुछ सीटें और अपेक्षित मत प्रतिशत हासिल कर चुनाव आयोग से राष्ट्रीय दल की मान्यता हासिल करने की हो सकती है. मणिपुर, गुजरात और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में उसकी पहले भी मौजूदगी रही है. राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह ने कश्मीर यात्रा कर वहां भी पार्टी के पांव पसारने और चुनाव लड़ने के संकेत दिए हैं. केंद्र सरकार में कृषि, भूतल परिवहन एवं रेल जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाल चुके नीतीश कुमार की राष्ट्रीय राजनीति में अपनी अलग तरह की पहिचान भी रही है.

पहले भी मन में उठी थी हूक !

    
    नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री मटीरियल वाली राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं इससे पहले भी कई बार हिलोर मार चुकी हैं. 2014 के संसदीय चुनाव के समय भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किए जाने के विरोध में उनकी पार्टी ने भाजपा और राजग से अलग होकर चुनाव लड़ा था. उनकी कोशिश कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ने की थी लेकिन बात नहीं बनी और लोकसभा चुनाव में उनके हिस्से में केवल दो ही सीटें आई थीं. भाजपा, लोजपा ओर रालोसपा का गठबंधन बिहार में तीन चौथाई सीटें जीतने में कामयाब हुआ था. लेकिन इसके बाद 2015 में बिहार विधानसभा का चुनाव उन्होंने कांग्रेस और अपने राजनीतिक विरोधी लालू प्रसाद यादव के राजद के साथ मिलकर लड़ा और शानदार जीत हासिल कर एक बार फिर वह बिहार के मुख्यमंत्री बने. हालांकि विधानसभा में उनकी पार्टी के पास राजद से कुछ कम सीटें थीं और इसको लेकर वह कुछ दबाव भी महसूस करते थे. उस समय भी, 2019 के संसदीय चुनाव में कुछ विपक्षी दलों की ओर से उन्हें मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने की कवायद शुरू हुई. कुछ समाजवादी बौद्धिकों ने भी उनके पक्ष में दिल्ली से माहौल बनान शुरू किया था. लेकिन नीतीश कुमार चाहते थे कि उन्हें यूपीए में संयोजक जैसा कोई पद देकर यूपीए उनके नेतृत्व में ही लोकसभा का चुनाव लड़े. लेकिन यह कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाले यूपीए को मंजूर नहीं था. और भी कुछ बातें थीं जिनसे उनका कांग्रेस और राजद के साथ मोहभंग सा होता गया. और इसी क्रम में विधानसभा के भीतर यह कहने के बावजूद कि रहें या मिट्टी में मिल जाएं, अब कभी भाजपा से हाथ नहीं मिलाएंगे, उन्होंने 2017 में दोबारा भाजपा से हाथ मिलाते हुए 2015 के जनादेश को दरकिनार कर भाजपा के साथ साझा सरकार बना ली. इससे विपक्षी खेमे में उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता संदिग्ध हुई. अभी भी कोई यकीनी तौर पर नहीं कह सकता कि उनका अगला राजनीतिक कदम क्या होगा!
 

भाजपा के रहमो करम पर मुख्यमंत्री !


    लेकिन उनके भाजपा के साथ एक बार फिर गलबहियां करने के 2017 के राजनीतिक फैसले का उन्हें भरपूर चुनावी लाभ मिला. मोदी लहर एक तरह से बिहार में स्वीप कर गई. 40 में से 30 सीटें राजग के खाते में गई. जद (यू) के भी 16 सांसद जीते. विपक्ष के नाम पर केल कांग्रेस को एक सीट मिल सकी थी. विधानसभा का पिछला, 2020 का चुनाव भी उन्होंने भाजपा के साथ ही मिलकर लड़ा. लेकिन इस बार भाजपा की सीटें तो बढ़कर 74 हो गईं, नीतीश कुमार के जद (यू) के खाते में केवल 43 सीटें ही आ सकीं. नीतीश कुमार के लिए यह एक राजनीतिक झटका था. हालांकि वादे के मुताबिक भाजपा ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही साझा सरकार बनवाई लेकिन क्रमशः इसकी कीमत भी वसूलने लगी. नीतीश कुमार के सामने एक बार फिर 2015 के बाद वाली ही स्थिति उभरकर सामने आने लगी है. भाजपा की तरफ से अपने हितों की पूर्ति और संघ परिवार के एजेंडे पर अमल के लिए दबाव बढ़ने लगा. भाजपा के विभागीय मंत्री अपने हिसाब से काम करने लगे. इसके साथ ही परोक्ष रूप से भाजपा के लोगों की तरफ से उन्हें इस बात का एहसास भी कराया जाने लगा है कि वह भाजपा के रहमो करम पर ही मुख्यमंत्री बने हुए हैं.

लालू प्रसाद यादवः  सरकार पर समाजवादी नेताओं को
विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों से हटाने का आरोप
    पिछले सप्ताह बिहार के छपरा में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम पर बने जेपी विश्वविद्यालय में गुपचुप ढंग से भाजपा का एजेंडा लागू करने की साजिश उजागर हुई. वहां राजनीति शास्त्र के पोस्ट ग्रेजुएट पाठ्यक्रम में समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक और नीतीश कुमार के राजनीतिक आराध्य और आदर्श रहे समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की के व्यक्तित्व और विचारों की जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस, ज्योतिबा फुले और जनसंघ के अध्यक्ष रहे दीन दयाल उपाध्याय को शामिल किया गया. नेताजी और ज्योतिबा फुले और यहां तक कि दीन दयाल उपाध्याय (हालांकि उपाध्याय का राष्ट्रीय आंदोलन अथवा सामाजिक आंदोलनों में भी क्या योगदान है, यह विवाद का विषय भी हो सकता है.) के बारे में भी पढ़ाया जाए तो किसी को आपत्ति नहीं होगी. लेकिन स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक, डा. राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की कीमत पर. जिस जेपी के नाम पर विश्वविद्यालय बना, उन्हें ही पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया! आश्चर्यजनक बात तो यह है कि बिहार में शिक्षामंत्री नीतीश कुमार की पार्टी के ही विजय कुमार चौधरी हैं. चौधरी और नीतीश कुमार की आंख तब खुली जब विपक्ष ने और खासतौर से लालू प्रसाद यादव ने लालू प्रसाद ने ट्वीट कर आरोप लगाया कि संघी मानसिकता की सरकार समाजवादी नेताओं के विचार पाठ्यक्रमों से हटा रही है. बिहार सरकार के जगने एवं कड़े निर्देश जारी करने के बाद अब पाठ्यक्रम में फिर से सुधार हो रहा है. अब इस बात की जांच करने की मांग हो रही है कि ऐसी खुराफात की किसने ? क्या यह करामात शिक्षा मंत्रालय के किसी अफसर की थी या फिर सीधे राजभवन से इसके लिए निर्देश था.
 

    भाजपा के दबाव से मुक्ति की कवायद !


     भाजपा और संघ परिवार के इस तरह के दबावों के कारण बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार चलाते हुए भी नीतीश कुमार खुद को असहज महसूस कर रहे हैं. लेकिन राजनीति के चतुर खिलाड़ी नीतीश कुमार अभी तक इन दबावों को झेलते और भरसक परे करते हैं. उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा को जद (यू) में विलीन करवाने के साथ ही बसपा, लोजपा के इक्का-दुक्का विधायकों को अपने दल में शामिल कर वह एक तरफ तो अपनी राजनीतिक मजबूती के संकेत देते हैं. दूसरी तरफ वह बीच-बीच में अपनी और अपने दल की स्वतंत्र-धर्मनिरपेक्ष छवि के साथ समझौता नहीं करने और भाजपा पर जवाबी दबाव बनाने के संकेत भी देते रहते हैं. भाजपा के जन संख्या नियंत्रण कानून पर उन्होंने साफ कर दिया कि उनकी राय भाजपा से अलग है. इसी तरह से पेगासस जासूसी प्रकरण की जांच कराए जाने की विपक्ष की मांग का समर्थन कर उन्होंने भाजपा और मोदी सरकार पर एक तरह का दबाव ही बनाया. उन्होंने भाजपा के राजनीतिक रुख की परवाह किए बिना जातीय जनगणना पर विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा और सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ उनसे मिलकर इसके लिए दबाव भी बनाया. प्रधानमंत्री के साथ बातचीत में उन्होंने इसके लिए विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव को श्रेय देकर लालू प्रसाद यादव के यहां भी एक खिड़की खुली रखने की कोशिश की. पेट्रोलियम पदार्थों और खासतौर से रसोई गैस की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि का भी उन्होंने खुलकर विरोध किया. देखना यही है कि जातिगत आधार पर जनगणना के मामले में नीतीश कुमार और बिहार के मुख्य विपक्ष के दबाव पर भाजपा और मोदी सरकार का रुख क्या होता है. क्योंकि कुछ ही दिनों में होनेवाले पंचायत चुनावों में बाढ़, पेट्रोल-डीजल और खासतौर से रसोई गैस के बढ़ते दाम के साथ जातीय जनगणना भी एक बड़ा मुद्दा हो सकता है. साथ ही भविष्य में भाजपा से अलग होने के लिए नीतीश कुमार के पास ठोस बहाना भी!

    इस तरह से भाजपा के लोग नीतीश कुमार और उनकी सरकार पर दबाव बनाने में लगे हैं और कसमसाहट महसूस करते हुए नीतीश कुमार भी इससे मुक्त होने के प्रयास में लगे रहते हैं. तो क्या उनके प्रधानमंत्री मटीरियल होने की बात इस समय भाजपा पर जवाबी दबाव बनाने के लिए भी कही जा रही है! इसके साथ ही पिछले दिनों जनता दल यू की अंदरूनी कलह भी खुल कर आने लगी थी. नीतीश कुमार के खासुल खास रहे आरसीपी सिंह के केंद्र में मंत्री बन जाने के बाद उनकी जगह सांसद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष और हाल ही में जद यू में शामिल उपेंद्र कुशवाहा को संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद स्वागत समारोहों के जरिए जनता दल यू की गुटबाजी और नेताओं के अंदरूनी मतभेद खुलकर सामने आने लगे हैं. पूर्व नौकरशाह आरसीपी के करीबी लोग चाहते थे कि वह केंद्र में मंत्री के साथ ही राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने रहें, वहीं आरसीपी सिंह के विरोधियों का कहना है कि मंत्री बनने के बाद से उनका भाजपा के प्रति झुकाव कुछ ज्यादा ही दिख रहा है. जातीय जनगणना पर पार्टी के अधिकृत रुख से अलग वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं. राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते खुद मंत्री बन जाने के मामले पर वह कह रहे हैं कि ऐसा उन्होंने नीतीश कुमार के कहने पर ही किया. प्रधानमंत्री मटीरियल का शिगूफा छेड़कर अंदरूनी मतभेदों पर काबू पाने की कोशिश भी हो सकती है. अब सभी नेता एक स्वर से नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल बताने के काम में जुट गए हैं. कुल मिलाकर नीतीश कुमार के पीएम मटीरियल होने का खेल जारी है. इस खेल में बहुत कुछ अगले साल होनेवाले यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, गोवा और फिर गुजरात और जम्मू कश्मीर विधानसभा के चुनावी नतीजों पर भी निर्भर करेगा.

नोटः तस्वीरें इंटरनेट के सौजन्य से.  

Monday, 23 August 2021

Hal Filhal : Ugly Face of Family and Individualistic Politics in Bihar


बिहार की राजनीति में बवाल !


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/snt96f2eTxY

     
    बिहार
की राजनीति और खासतौर से जनता परिवार (अविभाजित जनता पार्टी और जनता दल) के घटक रहे दलों में और इनके नेताओं के परिवार में बवाल सा मचा है. बिहार आंदोलन और जनता परिवार से जुड़े रहे तीन कद्दावर नेताओं-रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के परिवार और पार्टियों की अंदरूनी कलह खुलकर सामने आ गई है. ‘घर को आग लग गई घर के चिराग से’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए कुछ महीनों पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और परिवार उनके अपने ‘चिराग’ को लेकर दो हिस्सों में बिखर गया. और अब पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का राजनीतिक कुनबा भी उनके बड़े बेटे तेज प्रताप यादव को लेकर उसी राह पर चलते दिख रहा है. वहीं, भाजपा के साथ सरकार साझा कर रहे जनता दल (यू) में भी अंदरखाने शीर्ष पर बैठे नेताओं के बीच रस्साकशी और एक-दूसरे को नीचा दिखाने का राजनीतिक खेल खुलकर सामने आने लगा है.

परिवारवाद और व्यक्तिवाद का विद्रूप चेहरा ! 


    
नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और रामविलास पासवान: सामने आ रहा है
व्यक्तिवाद और परिवारवादी राजनीति का विद्रूप चेहरा
दरअसल, बिहार के जनता परिवार में जो कुछ हो रहा है, उसे व्यक्तिवादी और परिवारवादी राजनीति का विद्रूप चेहरा भी कहा जा सकता है. जब किसी बड़े नेता के परिवार के कई सदस्य राजनीति में सक्रिय हो जाते हैं तो आगे चलकर ‘उत्तराधिकार’ को लेकर उनके बीच राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हिलोर मारने लगती हैं. उनमें कोई आगे निकल जाता है तो बाकियों को लगता है कि ऐसा उसकी ही कीमत पर हो रहा है. इसके बाद शुरू हो जाता है राजनीतिक साजिशों और एक दूसरे को उठाने, गिराने का राजनीतिक खेल. यह बात स्व. राम विलास पासवान के राजनीतिक कुनबे में भी दिखी जहां उनके लक्ष्मण सरीखे अनुज पशुपति कुमार पारस ने केंद्र सरकार में मंत्री पद पाने के लिए अपने भतीजे चिराग पासवान को हाशिए पर डालने में जरा भी संकोच और लिहाज नहीं किया. उन्होंने पार्टी पर भी एक तरह से कब्जा जमा लिया. सांसद चिराग अब अपने राजनीतिक वर्चस्व और पिता की राजनीतिक विरासत के लिए अपने चाचा पारस और चचेरे भाई, सांसद प्रिंस राज से बिहार के राजनीतिक मैदान में जाकर लड़ रहे हैं.
चिराग ः पिता की राजनीतिक विरासत की जंग!

     अब यही खेल लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक कुनबे में भी शुरू हो गया है. इसे विडम्बना ही कहेंगे कि एक तरफ जहां लालू प्रसाद बिहार से लेकर दिल्ली में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा को मजबूत चुनौती और शिकस्त देने के लिए विपक्ष को एकजुट करने की कवायद में जुटे हैं, वहीं बिहार में उनके बड़े बेटे और पार्टी के विधायक तेज प्रताप यादव उनके और उनके दूसरे बेटे, विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी राजद के लिए भी मुसीबत का कारण बन रहे हैं. उन्होंने लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव के भी भरोसेमंद प्रदेश राजद के अध्यक्ष जगदानंद सिंह और परोक्ष रूप से तेजस्वी के विरुद्ध भी ‘राजनीतिक युद्ध’ सा छेड़ दिया है. तेज प्रताप को लगता है कि बड़ा होने के बावजूद एक साजिश के तहत पार्टी और परिवार में उनका कद छोटा किया जा रहा है. इस बीच उनके कुछ हालिया बयानों को लेकर उनके ऊपर अनुशासनहीनता की तलवार अलग से लटक रही है. उनके लिए सुधर जाने अथवा पार्टी और परिवार से भी बाहर होने का खतरा साफ दिखने लगा है. इस बात के संकेत लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव ने भी देना शुरू कर दिया है. हालांकि राजद के कुछ नताओं को लगता है कि लालू प्रसाद ने शुरू से ही तेजप्रताप को अनुशासित किया होता तो शायद आज यह दिन नहीं देखने पड़ते. 

लालू के लाल का अपनों के खिलाफ मोर्चा
    
    लालू प्रसाद यादव के चारा घोटाले में पहली बार जेल जाने के बाद जब उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनीं, उस समय उनके सभी बच्चे छोटे थे. उनके वयस्क होने के बाद उन्हें भी राजनीति का चस्का लगा या कहें उन्हें भी राजनीति में सक्रिय किया गया. बड़ी बेटी मीसा भारती को लोकसभा के दो चुनाव हारने के बाद 2016 में राज्यसभा में भेजा गया. जबकि 2015 के विधानसभा चुनाव में जब नीतीश कुमार के जद (यू) , कांग्रेस और राजद के गठबंधन ने मिलकर चुनाव लड़ा और सरकार भी बनाई तो उसमें उनके छोटे बेटे तेजस्वी यादव को उप मुख्यमंत्री और बड़े बेटे तेजप्रताप यादव को भी स्वास्थ्य मंत्री बनाया. आगे चलकर और खासतौर से दोबारा जेल चले जाने के बाद भी लालू प्रसाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने रहे लेकिन व्यावहारिक तौर पर उन्होंने पार्टी की कमान तेजस्वी यादव को सौंपकर उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया. 

    2020 के बिहार विधानसभा के चुनाव में तेजस्वी को ही भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया गया. उनके राजनीतिक मार्गदर्शन के लिए पुराने भरोसेमंद, समाजवादी एवं सामाजिक न्याय के प्रति समर्पित नेता जगदानंद सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. हरियाणा के युवा नेता संजय यादव तेजस्वी के साथ राजनीतिक सलाहकार के रूप में जुड़ गए. इस तिकड़ी ने अपेक्षित नतीजे भी दिए. तेजस्वी ने लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के साए से अलग एक नये राजद को खड़ा करने की कोशिश की. लालू प्रसाद की गैर हाजिरी में भी राजद को सबसे बड़ी पार्टी के रूप में बिहार की सत्ता के करीब पहुंचा कर तेजस्वी ने अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया.

तेजस्वी यादवः साबित की नेतृत्व क्षमता
     उधर जगदानंद सिंह ने भी पार्टी और पटना में इसके मुख्यालय को व्यवस्थित और अनुशासित करना शुरू किया. प्रदेश मुख्यालय को समाजवादी एवं सामाजिक न्याय के प्रतीक नेताओं की तस्वीरों और पुस्तकों से सजाया गया. वहां अनावश्यक भीड़-भाड़ के बजाए काम से काम रखनेवालों को तरजीह मिलनी शुरू हुई. बड़ा सभागार तथा मीडिया कक्ष भी बना. पदाधिकारियों को समय पर कार्यालय आने और दिए कार्य पूरा करने की जवाबदेही तय होने लगी. जगदानंद खुद भी पटना में रहने पर रोजाना 11 बजे कार्यालय आते और शाम को ही घर जाते. नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए चापलूसी, चाटुकारिता के बजाए पठन पाठन में ध्यान लगाने का निर्देश था. लेकिन इस प्रक्रिया में तेजप्रताप और मीसा भारती पार्टी में खुद को उपेक्षित और पिछड़ते महसूस करने लगे. हालांकि लालू प्रसाद और राबड़ी देवी ने भी अपनी संतानों के बीच राजनीतिक संतुलन बनाए रखने में कोई कभी कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन वह अपने बड़े बेटे तेजप्रताप की महत्वाकांक्षाओं और उल जलूल हरकतों पर नियंत्रण कर उन्हें अनुशासित नहीं रख सके. वह कभी कृष्ण तो कभी शिव की शक्ल धारण करने लगे तो कभी वृंदावन के चक्कर लगाने लगे. गाहे बगाहे वह खुद को दूसरा लालू भी कहने लगे. इस सबके बीच उनका वैवाहिक जीवन भी विवाद का विषय बना और पत्नी से न सिर्फ तलाक हो गया बल्कि उनके पिता, पूर्व विधायक चंद्रिका राय के साथ लालू प्रसाद का दशकों पुराना पारिवारिक संबंध भी टूट गया.

महाभारत के पात्र !


    
तेजस्वी को ताज पहनाते तेजप्रतापः 'कृष्ण' की भूमिका !
    तेज प्रताप सार्वजनिक तौर पर खुद को कृष्ण और छोटे भाई तेजस्वी यादव को अर्जुन बताते हुए यह कहते नहीं थकते कि तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाना ही उनका राजनीतिक मकसद है. लेकिन अपने आचरण से वह लगातार तेजस्वी और राजद को कमजोर ही करते रहे. पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भी टिकट से वंचित अपने करीबी लोगों को बागी उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़वाकर उन्होंने कई चुनाव क्षेत्रों में राजद की हार में योगदान ही किया. अपनी उल जलूल हरकतों और विवादित बयानबाजियों के कारण पहले भी सुर्खियों में रहे तेज प्रताप ने हाल के दिनों में राजद के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह और तेजस्वी यादव के राजनीतिक सलाहकार संजय यादव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. संजय यादव को प्रवासी सलाहकार कह कर वह उन पर परवार में फूट डालने के आरोप लगा रहे हैं तो राजद की स्थापना के समय से ही लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और इधर तेजस्वी यादव के भी भरोसेमंद रहे जगदानंद सिंह को वह हिटलर और नागपुरी राजनीति का ‘स्लीपर सेल’ तक करार दे रहे हैं. यहां तक कि किसी को शिशुपाल तो किसी को दुर्योधन करार देकर वह उनके ‘वध’ की बात भी करने लगे हैं. यह बात और है कि राजद और लालू प्रसाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पराकाष्ठा का परिचय देते हुए 2015 के विधानसभा चुनाव में जगदानंद सिंह ने राजद का टिकट नहीं मिलने पर भाजपा का उम्मीदवार बन गए अपने पुत्र सुधाकर सिंह की हार सुनिश्चित करवाई थी.

    इससे पहले भी तेज प्रताप तेज प्रताप लालू प्रसाद यादव के दो और वरिष्ठ और भरोसेमंद नेताओं-पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह और पूर्व सांसद, शिवानंद तिवारी के विरुद्ध भी इस तरह की अपमानजनक टिप्पणियां करते रहे हैं. रघुवंश प्रसाद सिंह को तो उन्होंने पार्टी रूपी समुद्र में एक लोटा जल भर कहकर अपमानित किया था. अब तेज प्रताप अपने आलाकमान से जगदानंद के खिलाफ कार्रवाई की मांग पर अड़े हैं और कह रहे हैं कि ऐसा होने तक वह राजद के किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं होंगे. इसके लिए उन्होंने तेजस्वी से बात करने की कोशिश की लेकिन उनका आरोप है कि संजय यादव के हस्तक्षेप से बातचीत बीच में ही छोड़कर तेजस्वी अपने कमरे में चले गए. अब तेजप्रताप अपने पिता लालू प्रसाद से मिलने दिल्ली में हैं. संयोगवश तेजस्वी यादव भी दिल्ली में ही हैं. दोनों भाई रक्षाबंधन के पर्व पर बहनों से राखी बंधवाने दिल्ली आए हैं. 

    
जगदानंद सिंह लालू प्रसाद और तेजस्वी के भरोसेमंद
लेकिन तेज प्रताप के लिए 'हिटलर' और 'शिशुपाल' !
जगदानंद सिंह के खिलाफ तेजप्रताप की ताजा खुन्नस अपने खासुलखास आकाश यादव की जगह गगन यादव को प्रदेश छात्र राजद का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर है. विवाद की शुरुआत 8 अगस्त को छात्र राजद के सम्मेलन में हुई. इस सम्मेलन के लिए लगे पोस्टरों-बैनरों और होर्डिंग्स में तेजस्वी यादव की तस्वीर गायब थी. यही नहीं तेज प्रताप ने इस सम्मेलन में जगदानंद सिंह की तुलना हिटलर से कर दी. इससे क्षुब्ध और क्रुद्ध जगदानंद ने राजद कार्यालय जाना ही छोड़ दिया. यहां तक कि 15 अगस्त को वह पार्टी मुख्यालय में झंडा फहराने भी नहीं गए. काफी मान मनौवल और लालू प्रसाद तथा तेजस्वी यादव के साथ बातचीत के बाद वह कार्यालय पहुंचे और और सबसे पहले तकनीकी आधार पर तेज प्रताप के करीबी आकाश यादव की जगह गगन यादव को प्रदेश छात्र राजद का अध्यक्ष बनाया. इससे भड़के तेज प्रताप ने जगदानंद सिंह पर नियम और पार्टी के संविधान की अवहेलना का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि ऐसा करने से पहले उन्हें उनसे बात करनी चाहिए थी क्योंकि छात्र राजद के संरक्षक की हैसियत से उन्होंने ही आकाश को छात्र राजद का अध्यक्ष बनाया था. लेकिन जगदानंद सिंह ने साफ किया कि पार्टी में छात्र राजद के संरक्षक का कोई पद ही नहीं है तो कैसे कोई किसी को प्रदेश छात्र राजद का अध्यक्ष नियुक्त कर सकता है. प्रदेश राजद के आमुख संगठनों के पदाधिकारियों की नियुक्ति प्रदेश अध्यक्ष ही करता है. और उन्होंने अध्यक्ष की हैसियत से किसी को इस पद पर नियुक्त ही नहीं किया था तो किसी को हटाने की बात कहां से आती है. उन्होंने तो प्रदेश छात्र राजद अध्यक्ष के रिक्त पद पर गगन यादव को नियुक्त किया है.

     जगदानंद के खिलाफ तेज प्रताप की खुन्नस पुरानी है. उन्हें लगता है कि वह उनका राजनीतिक कद छोटा करने में लगे रहने के साथ ही उनकी उपेक्षा करते हैं. उन्हें उस तरह का भाव नहीं देते जैसा वह तेजस्वी को देते हैं. मसलन, जब वह यानी तेज प्रताप पार्टी मुख्यालय में आते हैं तो प्रदेश अध्यक्ष उनका उस तरह से स्वागत नहीं करते जैसा वह तेजस्वी का करते हैं. वह उनसे फोन पर बात भी नहीं करते और न ही सार्वजनिक कार्यक्रमों में उनकी बातों पर वह ताली ही बजाते हैं. जगदानंद का कहना है कि तेजस्वी यादव संवैधानिक पद पर, नेता विपक्ष हैं और तेजप्रताप केवल विधायक. हम तो प्रोटोकॉल का अनुसरण करते हैं.

    इस बीच उनके हालिया बयानों ने तेजप्रताप के सिर पर अनुशासनहीनता के आरोप में कार्रवाई की तलवार लटका दी है. वह यह समझने में भूल कर बैठे कि जगदानंद सिंह जो भी कर या कह रहे हैं, उसके लिए उन्हें लालू प्रसाद और तेजस्वी से हरी झंडी मिली हुई है. शायद इसलिए भी लालू प्रसाद और तेजस्वी उनके विरुद्ध कुछ नहीं बोल रहे बल्कि संकेतों के जरिए तेजप्रताप को संयमित और अनुशासित रहने की सलाह दे रहे हैं. तेजस्वी यादव ने कहा भी है कि तेजप्रताप उनके बड़े भाई हैं लेकिन हमारे माता पिता ने हमें अनुशासित रहने और बड़ों का सम्मान करने की सीख दी है. तेजस्वी ने यह भी कहा है कि जगदानंद जी बड़े बुजुर्ग और सम्मानित नेता के साथ ही प्रदेश राजद के अध्यक्ष भी हैं, उन्हें प्रदेश संगठन में सभी फैसले लेने का अधिकार है. ऐसे मे अगर उन्होंने छात्र राजद के प्रदेश अध्यक्ष के पद पर कोई नियुक्ति की है तो यह उनका अधिकार है. कहा तो यह भी जा रहा है कि अगर तेजप्रताप अपनी सीमा और अनुशासन में नहीं रहे और इसी तरह के उल जलूल और अपमानजनक बयान देते रहे तो उनके विरुद्ध कार्रवाई भी हो सकती है. लेकिन इसका राजनीतिक नफा-नुसान किसे होगा! राजद के विरोधी मौके का लाभ लेने की ताक में हैं. भाजपा और जद (यू) के नेताओं ने अपने बयानों के जरिए अभी से इसका मजा लेना शुरू कर दिया है. राजद के एक नेता ने गुमनामी की शर्त पर कहा है कि इन दिनों तेज प्रताप जो कुछ कर और बोल रहे हैं, उनकी पीठ पर लालू प्रसाद के  किसी राजनीतिक विरोधी का हाथ लगता है.यह बात राजद नेतृत्व और लालू प्रसाद को भी तो पता होगी ही! इस बात का आकलन भी हो रहा होगा कि तेजप्रताप के विरुद्ध कार्रवाई होने और नहीं होने का राजद और परिवार की राजनीतिक सेहत पर क्या असर पड़ेगा!

जनता दल (यू) में भी रस्साकशी !


    
नीतीश कुमारः ये सब क्या हो रहा है, समय पर बोलेंगे

    दूसरी तरफ, बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करते हुए भी खुद को असहज महसूस कर रहे जनता दल यू की अंदरूनी कलह भी खुल कर आने लगी है. कुछ समय पहले जद (यू) में वापसी करनेवाले उपेंद्र कुशवाहा नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री मटीरियल बता रहे हैं तो उनके समर्थक अपने पोस्टर, बैनर और होर्डिंगों में उपेंद्र कुशवाहा को भावी मुख्यमंत्री बताने लगे हैं.नीतीश कुमार के खासुल खास रहे आरसीपी सिंह के केंद्र में मंत्री बन जाने के बाद नाराजगी बढ़ी तो उनकी जगह एक और खासुल खास रहे सांसद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया. इसके बाद स्वागत समारोहों के जरिए जनता दल (यू) की गुटबाजी और नेताओं के अंदरूनी मतभेद और खुलकर सामने आने लगे हैं. पूर्व नौकरशाह आरसीपी के करीबी लोग चाहते थे कि वह केंद्र में मंत्री के साथ ही राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने रहें. आरसीपी ने अपने स्वागत समारोहों में कहा भी है कि केंद्र में मंत्री बन जाने के बावजूद पार्टी संगठन में उनकी भूमिका और सक्रियता बनी रहेगी. वहीं आरसीपी सिंह के विरोधियों का कहना है कि मंत्री बनने के बाद से उनका भाजपा के प्रति झुकाव कुछ ज्यादा ही दिख रहा है. जातीय जनगणना पर पार्टी के अधिकृत रुख से अलग वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं. राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते खुद मंत्री बन जाने के मामले पर वह कह रहे हैं कि ऐसा उन्होंने नेता, नीतीश कुमार के कहने पर ही किया.अभी तक नीतीश कुमार इससे इनकार करते रहे हैं. लेकिन अपने स्वागत समारोहों के क्रम में कई दिन बिहार-पटना में रहने के बावजूद वह नीतीश कुमार से मिलने का समय नहीं निकाल सके, इस तरह की चर्चाएं जोर पकड़ने के बाद वह वह शनिवार, 21 अगस्त को मुख्यमंत्री निवास पर जाकर नीतीश कुमार से मिले. दो घंटे साथ रहे, बातें बहुत ज्यादा नहीं हुई. पार्टी की तरफ से कहा जा रहा है कि सब कुछ ठीक-ठाक है. नीतीश कुमार अभी खामोश हैं. कहा जा रहा है कि इन सब पर 29 अगस्त को जद यू की राष्ट्रीय परिषद में कुछ बोल सकते हैं.

नोटः तस्वीरें इंटरनेट से

Monday, 9 August 2021

Hal Filhal : AGGRESSIVE OPPOSITION AND ARROGANT GOVERNMENT

आक्रामक विपक्ष और बौखलाती सरकार


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/2MXvfVUG-6E
    
    पेगासस जासूसी प्रकरण को लेकर मोदी सरकार की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रहीं. बिना किसी चर्चा और बहस के पास हुए कुछ विधेयकों को छोड़ दें तो पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा और इसकी स्वतंत्र जांच की मांग को लेकर विपक्ष के हल्ला-हंगामे के कारण संसद के मानसून सत्र का तीसरा सप्ताह भी बाधित ही रहा. विधिवत विधायी कार्य नहीं हो सके. इस बीच मामले की स्वतंत्र जांच से संबंधित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य ऩ्याधीश एन वी रमण ने मीडिया रिपोर्ट्स के मद्देनजर पेगासस जासूसी मामले को अत्यंत गंभीर मामला बताया है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है.

    दूसरी तरफ, संसद से लेकर सड़क तक पेगासस जासूसी प्रकरण के साथ ही किसान आंदोलन, महंगाई और बेरोजगारी के सवाल पर आक्रामक विपक्ष की एकजुटता के प्रयास तेज हो रहे हैं. विपक्ष की आक्रामकता और एकजुटता की कवायद को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी, उनकी सरकार के मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता इन मुद्दों पर संसद में चर्चा कराने के बजाए संसद नहीं चलने देने के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराते हुए उसे ही कोस रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष पर संसदीय गतिरोध के जरिए देश हित विरोधी राजनीति तथा संसद का अपमान करने का आरोप भी लगाया है. ओलंपिक खेलों का संदर्भ लेकर उन्होंने कहा है कि एक तरफ देश जीत के गोल पर गोल कर रहा है, वहीं कुछ लोग ‘सेल्फ गोल’ करने में लगे हैं.
 
    
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी: विपक्ष 'सेल्फ गोल' कर रहा है!
    जब देश के प्रधानमंत्री विपक्ष के बारे में इस तरह की भाषा बोल रहे हों तो भला उनके मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता पीछे कैसे रह सकते हैं. कल तक केंद्र सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि कांग्रेस के डीएनए में संसद के सम्मान के संस्कार ही नहीं हैं. ऐसा कहते हुए वे और उनके नेता भूल जा रहे हैं कि उनकी पार्टी ने संप्रग सरकार के जमाने में किस तरह से संसद के सत्र दर सत्र बाधित किए थे. तब उन्हें संसद में हल्ला-हंगामा विपक्ष का संसदीय दायित्व और लोकतांत्रिक अधिकार लगता था लेकिन अब विपक्ष की वही, संसद में विपक्ष में रहते भाजपावाली भूमिका उन्हें देश हित के विरुद्ध और संसद का अपमान नजर आ रही है.

    लेकिन सत्ता पक्ष के इस अहंकार और बौखलाहट का विपक्ष की आक्रामकता पर खास असर नहीं पड़ रहा है. तकरीबन एकजुट विपक्ष पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा होने तक 13 अगस्त तक के लिए निर्धारित मालसून सत्र के दौरान संसद के दोनों सदनों को बाधित करने पर अडिग है. और अब तो विपक्ष महंगाई और बेरोजगारी के सवाल को इसके साथ जोड़ते हुए सड़क पर भी उतरने लगा है. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की चाय-नाश्ते पर आयोजित बैठक के बाद इन दलों के नेता-सांसद संसद भवन तक साइकिल यात्रा लेकर गए. जासूसी प्रकरण से लेकर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के प्रतीकात्मक विरोध के रूप में हुई इस साइकिल यात्रा में शामिल राहुल गांधी से लेकर विपक्ष के अन्य सांसदों के पास प्लेकार्ड्स थे जिन पर पेगासस जासूसी प्रकरण से लेकर महंगाई और बेरोजगारी के विरोध में नारे लिखे थे.

राहुल गांधी का सड़क से संसद तक का साइकिल मार्च

    इससे पहले वह ट्रैक्टर पर सवार होकर भी संसद गए थे. साइकिल मार्च के दो दिन बाद इन्हीं मांगों के साथ युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने नई दिल्ली में संसद भवन के पास पुलिस की तरफ से तेज धार पानी की बौछारों के बीच भारी विरोध प्रदर्शन किया. अगले दिन राहुल गांधी के साथ इन दलों के नेता और सांसद किसानों के धरने में भी शामिल हुए. देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि के विरोध में और किसान आंदोलन के समर्थन में साइकिल ट्रैक्टर मार्च किया.


    ममता की जीत से विपक्ष को मिली ताकत ! 


    दरअसल, एक अरसे तक पस्तहाल लग रहे विपक्षी दलों के लिए बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों ने एक तरह के राजनीतिक आक्सीजन का काम किया है. उनके भीतर यह एहसास भरने लगा है कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी अपराजेय नहीं रह गई है. बिहार में तो बहुत कम अंतर से विपक्ष सरकार बनाने से चूक गया लेकिन पश्चिम बंगाल में एक बार फिर खुद के बूते विजेता के रूप में उभर कर आई ममता बनर्जी में विपक्ष को एकजुटता के लिए एक सीमेंटिंग फोर्स के अलावा प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती दे सकनेवाली जुझारू नेता भी नजर आने लगी है. ममता बनर्जी ने खुद भी बंगाल से बाहर निकल कर राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के संकेत देने शुरू कर दिए हैं. उनके लिए चुनावी रणनीतिकार की भूमिका निभानेवाले प्रशांत किशोर अलग से सक्रिय हैं. उन्होंने शरद पवार से लेकर विपक्ष के अन्य प्रमुख नेताओं से मिलना जुलना और उनकी नब्ज टटोलना शुरू कर दिया है. शरद पवार और ममता बनर्जी ने भी विपक्ष के नेताओं से अलग अलग मुलाकातों में भाजपा को मजबूत चुनौती देने की गरज से विपक्ष की एकजुटता और मोर्चा बनाने पर बल दिया है. ममता बनर्जी ने अपनी हाल की दिल्ली यात्रा में अन्य नेताओं के साथ ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और निवर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी मुलाकात की.

सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ ममता बनर्जी: 
 विपक्ष को एकजुट करने की कवायद
    विपक्ष को एकजुट करने की इस मुहिम के कुछ गलत अर्थ नहीं निकलें, इसके लिए शरद पवार से लेकर ममता बनर्जी ने भी यह साफ करने की कोशिश की है कि कांग्रेस को परे रखकर विपक्ष की कोई एकजुटता कारगर नहीं हो सकेगी. लोकसभा की तकरीबन आधी सीटें ऐसी हैं जिन पर भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से ही है. इस सबसे उत्साहित होकर ही राहुल गांधी ने नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में 16 विपक्षी दलों के नेताओं को चाय नाश्ते पर बुलाया. इनमें से विपक्ष की छोटी-बड़ी 14 पार्टियों के नेता तो बैठक में आए लेकिन बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी के नेता-प्रतिनिधि इस बैठक से दूर ही रहे. इनके बैठक में शामिल नहीं होने के अन्य कारणों के साथ एक कारण यह भी है कि ये लोग उत्तर प्रदेश और दिल्ली तथा पंजाब में विपक्ष की एकजुटता के स्वरूप को लेकर संशय में दिखते हैं. कभी विपक्षी एकता या कहें तीसरे मोर्चे की धुरी रहे चंद्र बाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी के नेता भी इस बैठक में नहीं दिखे. ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति और वाय एस आर कांग्रेस ने भी फिलहाल विपक्षी एकजुटता की इस कवायद से दूरी बनाकर रखी है. ये दल अभी भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाए रखने की नीति पर ही चल रहे हैं.

    विपक्ष की एकजुटता कुछ खास मुद्दों पर मोदी और भाजपा विरोध तक ही सीमित होगी या फिर इसके आगे चुनावी मैदान में भी एक सशक्त वैकल्पिक चेहरे को सामने रखकर सामूहिक रणनीति तैयार करने की दिशा में ठोस कदम भी बढ़ाएगी! क्या वैकल्पिक नीतियों और कार्यक्रमों पर भी विचार होगा. तकरीबन सभी दल किसान आंदोलन का समर्थन तो कर रहे हैं लेकिन कृषि कानूनों के भविष्य पर कोई खुलकर कुछ नहीं बोल रहा है. इस तरह के कई और सवालों पर भी विपक्ष के नेताओं को मिल-बैठकर विचार करना और एकजुट विपक्ष के लिए आम राय पर आधारित एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तौयार करना होगा, जो सिर्फ कागजों पर ही नहीं होगा, सत्तारूढ़ होने पर उस पर अमल का आश्वासन भी होगा. वैसे, 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इस काम के लिए विपक्ष के पास अभी काफी समय है. लेकिन तैयारियां तो अभी से करनी होंगी. ममता बनर्जी ने कहा भी है, "मैं नहीं जानती कि 2024 में क्या होगा? लेकिन इसके लिए अभी से तैयारियाँ करनी होंगी. हम जितना समय नष्ट करेंगे, उतनी ही देरी होगी. बीजेपी के ख़िलाफ़ तमाम दलों को मिल कर एक मोर्चा बनाना होगा." जहां तक एकजुट विपक्ष के नेतृत्व का सवाल है, ममता साफ साफ कुछ कहने के बजाय गोल मोल बातें करती हैं. लेकिन कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने साफ किया है कि उनके लिए विपक्ष की एकजुटता महत्वपूर्ण है, चेहरा नहीं. 

    बदले से नजर आते हैं नीतीश कुमार !

    
ओमप्रकाश चौटाला के साथ नीतीश कुमार (बीच में) और उनकी पार्टी
के महासचिव के सी त्यागी:
 तीसरे मोर्चे की कवायद!

    इस बीच हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की जेल से बाहर आने के बाद बढ़ी राजनीतिक सक्रियता को भी विपक्ष की एकजुटता के प्रयासों की कड़ी में भी देखा जा रहा है. इंडियन नेशनल लोकदल के अध्यक्ष चौटाला ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात के बाद तीसरे मोर्चे के गठन पर बल दिया. इसी कड़ी में उन्होंने जनता दल (एस) के अध्यक्ष, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा और समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता, सांसद मुलायम सिंह यादव से भी मुलाकात की. इन मुलाकातों में भी चर्चा किसान आंदोलन से लेकर तीसरे मोर्चे के पुनर्जीवन को लेकर ही प्रमुख रही.  वहीं सोनिया गांधी के करीबी कहे जानेवाले लालू प्रसाद ने भी पिछले दिनों शरद पवार, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव के साथ लंबी मुलाकातें की. ममता बनर्जी के साथ भी लालू प्रसाद और उनके पुत्र तेजस्वी यादव के करीबी संबंध हैं. तेजस्वी और राजद ने चुनाव में ममता बनर्जी को खुला समर्थन दिया था. लालू प्रसाद की सक्रियता के मद्देनजर बिहार में राजनीतिक उलटफेर के कयास भी लगने लगे हैं. लेकिन  नीतीश कुमार किसी विपक्षी गठबंधन में शामिल होंगे कि नहीं, यह कह पाना किसी के लिए भी अभी दुरूह कार्य हो सकता है. लेकिन यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करते हुए भी वे खुद को पहले की तरह सहज महसूस नहीं कर पा रहे हैं. दूसरी तरफ, भाजपा भी उन्हें राजनीतिक रूप से घेरने और कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही. जद यू के नेताओं का बड़ा तबका बिहार में अपने खराब चुनावी प्रदर्शन के लिए चिराग पासवान के साथ ही परोक्ष रूप से भाजपा को भी जिम्मेदार मानते हैं. वे सवाल करते हैं कि साझा सरकार चलानेवाले दोनों दलों में से एक को विधानसभा की 74 और दूसरे को केवल 43 सीटें कैसे मिल सकीं.

मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के साथ लालू प्रसादः
 पारिवारिक मिलन से आगे भी कुछ और!

    बिहार विधानसभा चुनाव के कुछ ही समय बाद अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक जरूरत नहीं होने के बावजूद भाजपा ने जनता दल यू के सात में से छह विधायकों को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल कर लिया. भाजपा का यह राजनीतिक फैसला भी जद यू नेतृत्व के गले नहीं उतर सका. यही नहीं, गाहे बगाहे भाजपा अपने राजनीतिक मुद्दों को भी बिहार में उछालने-थोपने की कवायद में लगी रहती है. चुनाव से पहले बिहार में राजग की सरकार बनने पर हर हाल में नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने की प्रतिबद्धता जतानेवाली भाजपा के नेता अब खुलकर कहने लगे हैं कि भाजपा की तुलना में आधी से कुछ ही अधिक सीटें जीतनेवाले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना भाजपा का बड़प्पन था. इस सबके संकेत नीतीश कुमार और उनके करीबी लोग भी बखूबी समझ रहे हैं. बीच-बीच में राष्ट्रीय स्तर पर उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने की संभावनाएं भी हिलोर मारने लगती हैं.    
    
उपेंद्र कुशवाहाः पीएम मटीरियल हैं,नीतीश कुमार
    अभी
जद यू के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने उन्हें पीएम मटीरियल बताया है. पार्टी के नये अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह की ताजपोशी के अवसर पर नीतीश कुमार की मौजूदगी में भी जद यू के लोगों ने नारा लगाया, ‘2024 का पीएम कैसा हो, नीतीश कुमार जैसा हो.’ अध्यक्ष बनने के बाद ललन सिंह ने कहा है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भाजपा के साथ सम्मानजनक गठबंधन नहीं होने पर उनकी पार्टी वहां 200 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

    हाल के दिनों में नीतीश कुमार के कुछ राजनीतिक फैसलों और बयानों को भी भाजपा के साथ उनकी मौजूदा असहजता के रूप में ही देखा जा रहा है. उन्होंने भाजपा के जनसंख्या नियंत्रण कानून के खिलाफ सख्त बयान दिया है. भाजपा की राय के विपरीत देश में जाति आधारित जनगणना की पुरजोर वकालत करते हुए उन्होंने इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र भी लिखा है. सबसे बड़ी बात यह है कि जिस पेगासस जासूसी प्रकरण ने प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की नाक में दम करके रखा है, नीतीश कुमार ने इस मामले में विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए उसकी जांच तथा संसद में उस पर चर्चा कराए जाने के पक्ष में बयान दिया है. भाजपा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी के बाद सत्ता पक्ष के एक और बड़े नेता, नीतीश कुमार के इस बयान को लेकर अब भाजपा असहज दिखने लगी है. तो क्या वाकई नीतीश कुमार एक बार फिर भाजपा से अलग होकर विपक्ष की कतार में शामिल होने का मन बना रहे हैं! ऐसा वह तभी सोच सकते हैं जब उन्हें 2024 में विपक्ष का सर्वमान्य चेहरा बताकर पेश किया जाए.

     लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता को लेकर हो सकती है. जिस तरह से उन्होंने विधानसभा के भीतर कहा था कि वह मिट्टी में मिल जाएंगे लेकिन भाजपा से फिर कभी हाथ नहीं मिलाएंगे और इसके कुछ ही दिन बाद उन्होंने न सिर्फ भाजपा से हाथ मिला लिया, जनादेश को ताक पर रखकर उसके साथ सरकार साझा की. 2020 के विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़े और अल्पमत में होने के बावजूद वह भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करने को राजी हो गए, उसे देखते हुए विपक्षी दल उन पर आसानी से भरोसा करने को राजी नहीं. उपेंद्र कुशावाहा के नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल बतानेवाले बयान पर बिहार विधानसभा में विपक्ष (राजद) के नेता तेजस्वी यादव ने कटाक्ष करते हुए कहा भी है कि, वह पीएम (पलटी मार) मटीरियल तो हैं ही. इसका इलहाम नीतीश कुमार को भी तो होगा ही. लेकिन इस सबसे परे राजनीति आवश्यकता, संभावनाओं और परिस्थितियों का खेल भी होती है. इसमें बहुत कुछ तत्कालीन परिस्थिति के मद्देनजर भी तय होता है. कट्टर विरोधी होने के बावजूद 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़े और सरकार बनाए और फिर मिट्टी में मिलना पसंद करने लेकिन भाजपा से फिर हाथ नहीं मिलाने की बात करनेवाले नीतीश कुमार इस समय भाजपा के साथ सरकार साझा कर रहे हैं !

Monday, 12 July 2021

Haal Filhal 'Mahangaee Dayan Khaye jaat hai'

हाल फिलहाल

जयशंकर गुप्त

   
     
कोरोनाकाल में अपने ब्लॉग पर अनुपस्थित रहने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं. पिछले दिनों तमाम मित्रों के आग्रह पर हमने यू ट्यूब पर सात रंग न्यूज और फिर अपने देशबंधु अखबार के यू ट्यूब चैनल, डीबी लाइव पर 'हाल फिलहाल' के नाम से वीडियो अपलोड करना शुरू किया है. देश के ताजा तरीन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक घटनाक्रमों पर आधारित गंभीर विवेचन का हमारा 'हाल फिलहाल' हर सप्ताह शनिवार शाम को देखने सुनने को मिल सकेगा. दो दिन बाद सोमवार को  थोड़ा और विस्तार के साथ देशबंधु के पाठकों के लिए यह संपादकीय पृष्ठ पर तथा हमारे ब्लॉग पर भी उपलब्ध रहेगा. उम्मीद है कि हमारे पाठकों, मित्रों और शुभचिंतकों का समर्थन सहयोग हमें पूर्ववत मिलते रहेगा.

महंगाई डायन खाए जात है!

        'हाल फिलहाल' में इस बार चर्चा हम एक ऐसे विषय के बारे में कर रहे हैं जो न सिर्फ हमारी सरकार बल्कि हमारे राजनीतिक दलों और मुख्य धारा की मीडिया के एजेंडे से भी गायब सा है. आम आदमी इस समस्या से बेतरह परेशान और हलाकान है लेकिन इसको लेकर वह भी आंदोलित नहीं होता. कसमसा कर रह जाता है. कारण चाहे कोरोना प्रोटोकोल के मद्देनजर बड़े जनसमूह के साथ सड़कों पर उतरकर आंदोलित होने की संभावनाओं का सीमित हो जाना हो या कुछ और, हमारे विपक्षी दल भी इस विषय को मौजूदा सरकार के विरुद्ध अपना मुख्य राजनीतिक एजेंडा नहीं बना पा रहे हैं. वैसी आक्रामकता नहीं बना पा रहे हैं जितनी हमें यूपीए शासन के दूसरे कार्यकाल में तत्कालीन विपक्ष यानी भाजपा के जरिए देखने को मिलती थी. वे इस मसले पर ट्वीट करने भर से अपने दायित्वों की इति मान लेते हैं.

        
राम देवः मोदी राज में 35 रु. पेट्रोल दिलाने का 'दावा'
हम बात कर रहे हैं, पेट्रोलियम पदार्थों के दाम लगातार बढ़ते जाने और उससे जुड़ी बेतहाशा महंगाई की. आपको याद है, आज से 11 साल पहले एक फिल्म आई थी, ‘पीपली लाइव.’ उसका एक गाना बहुत चर्चित और लोकप्रिय हुआ था, “सखी सैयां तो खूब ही कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है.” उस समय केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्ववाले यूपीए की सरकार थी और भाजपा विपक्ष में थी. भाजपा ने इस गाने को मनमोहन सरकार के विरुद्ध अपने राजनीतिक अभियान का मुख्य अस्त्र बनाया था. उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी महंगाई और खासतौर से पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि को लेकर बहुत उद्वेलित थे. उन्होंने कहा था कि पेट्रोल और डीजल के दाम में वृद्धि सरकार की नाकामी का प्रतीक है. सरकार कसाईखानों को तो सबसिडी देती है लेकिन डीजल के दाम बढ़ाती है. उस समय भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह, प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर, स्मृति ईरानी, रविशंकर प्रसाद और शाहनवाज हुसेन से लेकर तमाम नेताओं ने पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि को आम आदमी पर करारी चोट करार देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से बढ़ी हुई कीमतें वापस लेने और पेट्रोलियम पदार्थों पर एक्साइज ड्यूटी कम करने की मांग भी की थी. श्री जावडेकर ने तो दावे के साथ कहा था, “हम चुनौती के साथ कह सकते हैं कि पूरी तरह से रिफाइंड पेट्रोल दिल्ली में 34 रु. और मुंबई में 36 रु. प्रति लीटर मिल सकता है.” इसी तरह के दावे के साथ उस समय खुद को अर्थशास्त्री बतानेवाले योग गुरु या कहें योग के व्यवसाई बाबा रामदेव ने भी एक टीवी शो में 35 रु. लीटर के भाव पेट्रोल और 300 रु. प्रति सिलेंडर रसोई गैस देनेवाली मोदी जी की सरकार बनवाने का न सिर्फ आग्रह किया था बल्कि उस कार्यक्रम में बैठे युवाओं से इसके समर्थन में ताली भी बजवाई थी.
    

यूपीए शासन में पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि के खिलाफ भाजपा का प्रदर्शन

    2014 के लोकसभा चुनाव में महंगाई डायनवाला गाना काफी हिट हुआ था. उस समय भाजपा का एक चुनावी पोस्टर भी काफी चर्चित हुआ था, ‘बहुत हुई जनता पर महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार.’ अन्य कारणों के अलावा महंगाई ने भी मई 2014 में हुए सत्ता परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. अभी पिछले सवा सात साल से केंद्र में भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राजग की सरकार है. प्रधानमंत्री हैं, नरेंद्र मोदी. लेकिन तबकी परिस्थिति और आज के हालात का तुलनात्मक अध्ययन करें तो हालात तकरीबन वैसे ही हैं, बल्कि उससे भी बदतर हुए हैं, जैसे 2010 से लेकर मई 2014 तक थे. फर्क बस इतना ही हुआ है कि नोट बंदी और अभी कोरोना महामारी के कारण पिछले वर्षों में बेरोजगारी बढ़ी है, लोगों की नौकरियां गई हैं, वेतन मिलना बंद या कहें कम हो गया है. लोगों की आमदनी कम हुई है लेकिन खर्चों में कोई कमी नहीं हो रही. इस सबके साथ ही चरम को छूती महंगाई कहर ढा रही है. आज उस गाने में थोड़ा संशोधन कर हम कह सकते हैं, “सखी सैंयां तो कम ही कमात हैं, महंगाई सबकुछ खाए जात है.”

कौन नसीबवाला है और कौन है बदनसीब!

    ऐसा नहीं है कि मोदी जी के सवा सात साल के शासन में पेट्रोल-डीजल के दाम कभी कम ही नहीं हुए. 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव के समय पेट्रोल और डीजल के दाम कम हुए थे. तब इसका श्रेय और वाहवाही लेते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि वह नसीबवाला हैं, इसलिए पेट्रोल-डीजल के दाम कम हुए. उन्होंने एक फरवरी 2015 को दिल्ली में हुई एक चुनावी रैली में कहा था, “पेट्रोल-डीजल के दाम कम हुए कि नहीं. आपकी जेब में पैसा बचने लगा है कि नहीं... अब हमारे विरोधी कहते हैं कि मोदी तो नसीबवाला है...तो भाई अगर मोदी का नसीब जनता के काम आता है तो इससे बढ़िया नसीब की बात और क्या हो सकती है....आपको नसीबवाला चाहिए या बदनसीब! उनका कटाक्ष दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल  पर था. हालांकि दिल्लीवाले मोदी जी के झांसे में नहीं आए. दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया.

        इन दिनों राजधानी दिल्ली में पेट्रोल एक सौ और डीजल नब्बे रुपए प्रति लीटर के पार चला गया है. रसोई गैस का सिलेंडर 834.50 रुपए, पीएनजी (पाइप्ड नेचुरल गैस) 29.61 रु. प्रति घन मीटर तथा सीएनजी 44.30 रु. प्रति किलोग्राम के भाव बिक रहा है. इस सबके चलते खाने-पीने की वस्तुओं-नमक, खाद्य तेल, दूध, दाल और अंडे से लेकर सब्जियों के भाव आसमान छूने लगे हैं. अमूल के बाद अब मदर डेयरी ने भी दूध के दाम में तकरीबन दो रु. की वृद्धि कर दी है. दिल्ली और आसपास के इलाकों में गर्मी के दिनों में 120 रु. प्रति क्रेट (30 अंडों का एक क्रेट) मिलनेवाला अंडा 180 से 200 रु. की दर से मिल रहा है. पेट्रोल-डीजल और सीएनजी की दरें लगातार बढ़ते जाने के कारण न सिर्फ निजी बल्कि सार्वजनिक परिवहन भी प्रभावित हुआ है. इसकी दरों में वृद्धि भी अवश्यंभावी है. उसके बाद आम आदमी की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं. पता नहीं मोदी जी को अपना नसीबवाला जुमला याद है कि नहीं. उन्हें खुद ही तय कर लेना चाहिए कि वह नसीबवाला हैं या बदनसीब!

    हैरानी की बात है कि जिन लोगों को मई 2014 से पहले महंगाई 'डायन' लगती थी, अब उन्हें वह 'डार्लिंग' लगने लगी है. जो लोग पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि के खिलाफ सड़कों पर रसोई गैस के सिलेंडर और अन्य प्रतीक चिन्हों के साथ धरना प्रदर्शन करते थे. सायकिल और बैलगाड़ी पर चलने की बातें करते थे, अब महंगाई की चर्चा करने से भी कतराते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने ‘मन की बात’ में भी इसका जिक्र नहीं करते. अलबत्ता उनकी पार्टी के नेता और मंत्री और रामदेव भी महंगाई और पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बेतहाशा बढ़ने का औचित्य साबित करने के लिए तरह-तरह के तर्क-कुतर्क देते हैं. छत्तीसगढ़ सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे भाजपा के वरिष्ठ नेता बृजमोहन अग्रवाल तो कहते हैं कि “जिन्हें महंगाई राष्ट्रीय आपदा लगती है, वे लोग खाना-पीना बंद कर दें, अन्न त्याग दें, पेट्रोल का इस्तेमाल करना बंद कर दें और मुझे लगता है कि अगर कांग्रेसी और कांग्रेस को वोट देनेवाले लोग ही ऐसा कर दें तो महंगाई कम हो जाएगी.”

भाजपा नेता अग्रवाल अन्न त्याग देने से महंगाई कम हो जाएगी
    उस समय पेट्रोलियम पदार्थों पर लगनेवाले करों को हटाने अथवा कम करने और आम आदमी को सबसिडी देने की बढ़ चढ़कर मांग करनेवाले लोग अब कह रहे हैं कि देश के विकास के लिए पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने और लगातार बढनेवाले उत्पाद शुल्क यानी एक्साइज ड्यूटी देश के विकास को गति देने के लिए परम आवश्यक है. तो क्या मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के जमाने में पेट्रोलियम पदार्थों पर उत्पाद शुल्क नहीं लगते थे और उससे मिलनेवाला पैसा विकास कार्यों के बजाय कहीं और खर्च होता था! 

    कुछ दिनों पहले तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि अभी सरकार की आमदनी काफी कम हो गई है और इसके 2021-22 में भी कम ही रहने के आसार हैं. सरकार की आमदनी कम हुई है जबकि खर्चे बढ़ गए हैं. उनकी यह बात सच हो सकती है लेकिन उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इस कोरोनाकाल में क्या आम आदमी की आमदनी बढ़ गई है, जिससे उस पर करों का बोझ लगातार बढ़ते जा रहा है. सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि कोरोनाकाल में महंगाई से पीड़ित लोगों ने घर में पड़े सोने और उसके जेवर गिरवी रखकर कर्ज लिए जबकि सबसे अधिक कर्ज महिलाओं ने अपने मंगलसूत्र गिरवी रखकर लिए हैं. 
    
    
सरकार की आमदनी कम हो गई हैः धर्मेंद्र प्रधान
    धर्मेंद्र प्रधान ने पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि को जायज ठहराने के पक्ष में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि का तर्क दिया और कहा कि कच्चे तेल की कीमत 70 डालर प्रति बैरल हो गई है. कमोबेस इसी तरह के तर्क यूपीए सरकार के समय कांग्रेस के नेता और मंत्री भी देते थे. अब इसे भी समझते हैं. 2014 में जब मनमोहन सिंह की सरकार थी, उस समय कच्चे तेल की कीमत 108 डालर प्रति बैरल हो गई थी जबकि उस समय पेट्रोल की अधिकतम कीमत 71.51 रुपए और डीजल 57.27 रुपए प्रति लीटर था. तो फिर क्या कारण है कि आज जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 70 से 75 डालर प्रति बैरल है तो पेट्रोल 100 रु. और डीजल 90 रु. के पार बिक रहा है!

    दरअसल पेट्रोलियम पदार्थों की इस मूल्यवृद्धि का कारण इस पर लगने वाले केंद्र सरकार के उत्पाद शुल्क और राज्य सरकारों के वैट हैं. 2014 में पेट्रोल पर 9.48 रु. तथा डीजल पर 3-56 रु. केंद्रीय उत्पाद शुल्क लगता था जो अब बढ़कर क्रमशः तकरीबन 33 रु. और 32 रु. हो गया है. इस पर तकरीबन 20-22 रु. राज्य सरकारों का वैट भी लगता है. यही कारण है कि जब अप्रैल 2020 में अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमत न्यूनतम 20 डालर प्रति बैरल के आसपास आ गई थी तब भी पेट्रोल और डीजल के दाम कम नहीं हुए थे. सरकार चाहती तो कच्चे तेल की कीमतों में ऐतिहासिक कमी का फायदा आम आदमी को पेट्रोल-डीजल की कीमतें कम करके दे सकती थी. आर्थिक रूप से कंगाली के कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने उस समय एक महीने के भीतर पेट्रोल और डीजल की कीमतों में क्रमशः 30 और 42 रु. की कमी करते हुए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में हुई भारी कमी का लाभ अपने उपभोक्ताओं को दिया था. लेकिन हमारी सरकार ने ऐसा करने के बजाए अपना खजाना भरना जरूरी समझा. 5 मई 2020 को पेट्रोल पर 10 और डीजल पर 13 रु. का उत्पाद शुल्क और बढ़ा दिया गया. इससे दो महीने पहले भी सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क में तीन-तीन रु. की वृद्धि की थी.

    जब भी पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में कमी करने की मांग उठती है भाजपा के नेता इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालते हुए कहते हैं कि राज्य सरकारें चाहें तो वैट में कमी करके पेट्रोल-डीजल के दाम कम कर सकती हैं जबकि राज्य सरकारों और खासतौर से गैर भाजपा दलों के द्वारा शासित राज्यों के प्रतिनिधि इसके उलट कहते हैं कि केंद्र सरकार को एक्साइज ड्यूटी में कमी करके आम आदमी को राहत देना चाहिए. इस तरह दोनों ही अपनी जिम्मेदारी दूसरे पर थोपने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं करते. अभी अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमतें और बढ़ने की आशंका जताई जा रही है. इसका मतलब साफ है कि आम आदमी को फिलहाल महंगाई से राहत मिलने के आसार कम ही हैं. भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने सरकार को सुझाव दिया है कि करों में कटौती कर आम आदमी को कुछ राहत दी जा सकती है लेकिन क्या हमारी सरकार उनकी बात को भी सुनेगी. नए पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी का कहना है कि वह अभी इस मामले को समझने में लगे हैं. इसके बाद ही कुछ कह पाएंगे. तो क्या आम आदमी को सात-आठ महींनों बाद होनेवाले उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड सहित पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव का इंतजार करना होगा क्योंकि चुनाव सामने हों तो हमारी सरकार कीमतों में कमी या फिर कीमतों को स्थिर रखने के जतन करती है. ऐसा ही पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरि विधानसभा के चुनाव के समय देखा गया था. चुनाव संपन्न होने तक पेट्रोलियम पदार्थों के दाम तकरीबन स्थिर ही रहे लेकिन चुनाव संपन्न होने के बाद ही इनमें वृद्धि जो शुरू हुई तो फिर रुकने का नाम ही नहीं ले रही.