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Tuesday, 25 December 2018

संसदीय गतिरोध ( Parliamentry Disruptions) और हमारे राजनीतिक दल

संसद के सुचारु संचालन में किसकी रूचि है  

जयशंकर गुप्त 

संसद के देर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र के दौरान दोनों सदनों-लोकसभा और राज्यसभा में प्रायः प्रत्येक दिन एक ही तरह के दृश्य नजर आ रहे हैं. एक तरफ विपक्ष और खासतौर से कांग्रेस के सांसद राफेल युद्धक विमानों की खरीद में कथित घपले की जांच जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति से करवाने की मांग को लेकर हल्ला-हंगामा कर रहे होते हैं तो वहीं दूसरी तरफ हाथों में प्लेकार्ड लिए सत्तारूढ़ भाजपा के सदस्य कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से राफेल खरीद के संबंध में अपने बयान के लिए माफी मांगने के नारे लगाते हैं. आसंदी के पास ही हाथों में प्लेकार्ड लिए सत्तापक्ष के ही सहयोगी अन्ना द्रमुक के सांसद कावेरी जल विवाद में तमिलनाडु के साथ ‘न्याय’ की मांग को लेकर हंगामा करते हैं. बीच बीच में तेलुगु देशम के सदस्य आंध्र प्रदेश को विशेष आर्थिक पैकेज की मांग पर हंगामा करते हैं. इस तरह के शोरगुल और हंगामे के बीच लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति या अन्य पीठासीन अधिकारी कुछ जरूरी संसदीय दस्तावेज सदन पटल पर रखवाते हैं, कुछ विधेयक भी विपक्ष की पर्दे के पीछे की ‘रजामंदी’ से बिना किसी चर्चा और बहस के पास कराए जाते हैं और फिर दोनों सदनों की कार्यवाही पहले टुकड़ों में और फिर अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दी जाती है. 

इस तरह 11 दिसंबर से शुरू हुए संसद के शीतकालीन सत्र के सात दिन सम्मानित सांसदों के शोर गुल, आसंदी के पास आकर किए जानेवाले हल्ला-हंगामे की भेंट चढ़ गये. और जिस तरह की सूचनाएं मिल रही हैं, अगले साल आठ जनवरी तक के लिए निर्धारित इस सत्र के बाकी दिनों में भी इसी तरह के दृश्य नजर आ सकते हैं. संसद का यह शीतकालीन सत्र राजधानी में ठंड के लगातार बढ़ते जाने के बावजूद सदन के भीतर हल्ला हंगामे और नारेबाजी से पैदा हो रही राजनीतिक गरमी की भेंट चढ़ने के लिए अभिशप्त लग रहा है.
राफेल युद्धक विमानों की खरीद के मामले में मोदी सरकार जिस तरह से घिरते नजर आ रही है, खासतौर से राफेल खरीद के मामले में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले में सरकार की सर्वोच्च अदालत को गुमराह करने के इरादे से की गई जालसाजी का खुलासा होने के बाद छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में जीत से उत्साहित कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इस मुद्दे को आसानी से छोड़ने और इसकी जांच जेपीसी से करवाने से कम पर मानने  के मूड में नहीं दिख रहे. लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खरगे कहते भी हैं, ‘‘राफेल पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला सरकार के उस कथित दस्तावेज पर आधारित है जिसमें कहा गया है कि राफेल सौदे पर सीएजी की रिपोर्ट में खरीद प्रक्रिया में किसी तरह की गलती नहीं मानी गई और सीएजी रिपोर्ट को संसद और उसकी पीएसी यानी लोक लेखा समिति भी देख चुकी है. लेकिन सच तो यह है कि सीएजी ने अभी तक इस तरह की कोई रिपोर्ट संसद अथवा इसकी पीएसी को दी ही नहीं है.’’ इस लिहाज से देखें तो सरकार का सीलबंद लिफाफे में दिए दस्तावेज में ‘स्पेलिंग मिस्टेक’ का तर्क भी बेमानी हो जाता है. वित मंत्री अरुण जेटली खुद कहते हैं, ‘‘राफेल की आडिट जांच सीएजी के पास लंबित है. उसके साथ सभी तथ्य साझा किए गए हैं. जब सीएजी की रिपोर्ट आएगी तो उसे संसद की पीएसी को भेजा जाएगा. इसके बावजूद यदि अदालत के आदेश में किसी तरह की विसंगति है तो कोई भी न्यायालय के समक्ष उसे ठीक करवाने के लिए अपील कर सकता है.’’ सवाल एक ही है कि जब सीएजी ने अपनी रिपोर्ट अभी तक दी ही नही तो सुप्रीम कोर्ट में खरीद प्रक्रिया के बेदाग होने संबंधित दावे किस रिपोर्ट के आधार पर किए गए और किसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया.  खरगे का मानना है कि इस मामले की जेपीसी जांच से ही दूध का दूध और पानी का पानी संभव है. 

लेकिन यूपीए शासन के दौरान कथित कोयला घोटाले, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच की मांग को लेकर संसद के सत्र दर सत्र बाधित करने ( पिछली लोकसभा का 68 प्रतिशत समय भाजपा के नेतृत्व में  हुए हंगामों के कारण बरबाद हुआ था.) और उसके समर्थन में तर्क देनेवाले भाजपा के नेता  अब राफेल खरीद की जेपीसी जांच को गैर जरूरी बताने के तमाम बहाने पेश करने में लगे हैं. मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाले यूपीए शासन के दौरान सदन में हल्ला हंगामे को भी विपक्ष का महत्वपूर्ण संसदीय दायित्व परिभाषित करनेवाले जेटली अब जेपीसी की जांच को गैर जरूरी बता रहे हैं, ‘‘बोफोर्स तोप सौदे की जेपीसी जांच का क्या अनुभव रहा. सिर्फ वही एक उदाहरण है जब किसी रक्षा सौदे की जांच जेपीसी ने की थी. जेपीसी के सदस्य दलीय निष्ठा के आधार पर बंटे होते हैं.’’ लेकिन इस ज्ञान के बावजूद जेटली, लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज के नेतृत्व में तत्कालीन विपक्ष यूपीए शासन में कथित घोटालों की मांग पर क्यों जिद ठाने और संसद के सत्र दर सत्र बाधित करने में लगा रहा? इस बात का जवाब भाजपा के नेताओं के पास अभी नहीं है. उनके ही तर्क को मान लें कि जेपीसी में सत्ता पक्ष का बहुमत होता है और उसके सदस्य दलीय निष्ठा के आधार पर बंटे रहते हैं तो सरकार राफेल की जेपीसी जांच से भाग क्यों रही है?
लेकिन इस बार तो एक और मजेदार दृश्य सामने आ रहा है जब सत्तारूढ़ दल खुद ही इस बात के लिए इच्छुक नहीं दिख रहा है कि संसद सुचारु ढंग से चले. शायद यह पहली बार है कि संसद चलाने के लिए गंभीर और सकारात्मक प्रयास करने के बजाय सत्तारूढ़ भाजपा अपने सदस्यों के हाथों में ‘राहुल गांधी माफी मांगें’ के प्लेकार्ड थमाकर और कभी अपने सहयोगी, क्षेत्रीय दलों के जरिए सदन में आसंदी के पास हल्ला हंगामा करवाकर दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित करने में लगी हुई है. एक तरफ संसदीय कार्य मंत्री विजय गोयल कहते हैं कि सरकार राफेल पर भी चर्चा के लिए तैयार है, दूसरी तरफ जब मंगलवार को राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि उन्होंने राफेल विमान सौदे पर सुप्रीम कोर्ट को कथित तौर पर गुमराह किए जाने पर चर्चा के लिए नोटिस दिया है, राज्यसभा के सभापति ने कहा कि यह मुद्दा फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. बुधवार, १९ दिसंबर को भी गृह मंत्री राजनाथ सिंह और संसदीय कार्य मंत्री नरेंद्रसिंह तोमर ने कहा कि सरकार राफेल पर चर्चा के लिए तैयार है लेकिन विपक्ष का दबाव जेपीसी जांच की घोषणा और उसके कार्यस्थगन प्रस्ताव पर चर्चा कराए जाने के लिए ही है. जाहिर है कि सरकार इसके लिए आसानी से तैयार होनेवाली नहीं है क्योंकि विपक्ष का मानना है कि सरकार खुद संसद के भीतर सार्थक और सकारात्मक चर्चा और विपक्ष के संसदीय अधिकारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. विपक्ष के नेता आरोप लगाते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री रहते अपने गुजरात के विधायी अनुभवों को यहां भी दोहराना चाहते हैं. वहां दो तरह से विधानसभा के सत्र चलते थे. जब उन्हें कोई महत्वपूर्ण विधेयक पास कराने होते थे तो वह किसी न किसी बहाने विपक्ष के विधायकों को एक खास अवधि के लिए निलंबित करवा देते थे या फिर हल्ला हंगामे के बीच अपना विधायी कार्य संपन्न करवाते थे. कमोबेस वही तरीका प्रधानमंत्री बनने के बाद वह यहां संसद में भी अपनाना चाहते हैं. इसकी बानगी 2015 में लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी नियम 374ए के तहत कांग्रेस के 44 में से 25 सदस्यों को सदन से निष्कासित करने के रूप में पेश की थी. लेकिन उनके इस फैसले के खिलाफ सात विपक्षी पार्टियों ने लोकसभा के बायकाट में कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की तो फैसला वापस लेना पड़ा था. लेकिन उसके बाद उन्होंने दूसरा तरीका अपनाना शुरू कर दिया कि महत्वपूर्ण विधायी कार्य सदन में चल रहे हल्ला हंगामे के बीच ही निपटाए जाएं. ऐसे कई अवसर आए जबकि अध्यक्ष ने अत्यंत महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विधेयक तो बिना चर्चा के ही पारित कराए जबकि कई बार अनेक महत्वपूर्ण विषयों मसलन विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए वह इसलिए तैयार नहीं हुईं क्योंकि सदन व्यवस्थित नहीं था. 
हालांकि भाजपा के वरिष्ठ सांसद, लोकसभा के पीठासीन अधिकारियों में से एक हुकुमदेव नारायण यादव विपक्ष के इस आरोप को गलत बताते हैं कि सरकार और प्रधानमंत्री मोदी नहीं चाहते हैं कि संसद सुचारु रूप से चले. वह कहते हैं, ‘‘मोदी जी जितना संसद में मौजूद रहते हैं, यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उसका आधा समय भी संसद को नहीं देते थे.’’ लेकिन तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद सौगत राय के अनुसार ताजा प्रकरण में तो साफ है कि सरकार सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलने देना नहीं चाहती. संसदीय गतिरोध के चलते राफेल खरीद के साथ ही किसानों की समस्या-आत्महत्या, बेराजगारी, प्राकृतिक आपदा, संवैधानिक संस्थाओं के ‘ब्रेक डाउन’ आदि जन सरोकार के महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी संसद में चर्चा नहीं हो पा रही. दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद और विधानमंडलों में भी वास्तविक मुद्दों पर चर्चा का समय नहीं मिल पाता. संसद और विधानमंडलों की कार्यअवधि भी लगातार कम होती जा रही है.’’ 

हुकुमदेव नारायण यादव के अनुसार, संसद की नियमावली के तहत सदन में चर्चा के कई प्रावधान हैं. लेकिन विपक्ष का उन प्रावधानों का उपयोग नहीं करना और अपनी मर्जी के मुताबिक बहस के नियम तय करने पर जोर देना सदन की कार्य संचालन नियमावली के विरुद्ध है. इसके लिए वह क्षेत्रीय दलों को भी जिम्मेदार मानते हैं, ‘‘क्षेत्रीय दल अपने क्षेत्रीय हितों के लिए संसद का दुरुपयोग करते हैं. ‘प्लेकार्ड’ के साथ हल्ला हंगामा करके वे अपने क्षेत्र और राज्य के लोगों को संदेश देना चाहते हैं कि वे संसद के भीतर अपने लोगों के लिए लड़ रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार उनकी अनदेखी कर रही है. तकरीबन सभी क्षेत्रीय दलों की यही मानसिकता है, उनकी दृष्टि राष्ट्रीय न होकर क्षेत्रीय होती है. यह समग्रता में राष्ट्र और राजनीति दोनों के लिए दुखद है.’’ 

 बहरहाल, जिम्मेदार चाहे सत्ता पक्ष हो अथवा विपक्ष और क्षेत्रीय दल, सच यही है कि संसद के दोनों सदनों का समय हल्ला हंगामे की भेंट चढ़ रहा है. संसदीय विशेषज्ञों का मानना है कि संसद मुख्य रूप से विपक्ष का फोरम होता है जहां वह विभिन्न नियम प्रावधानों के जरिए सरकार की नाकामियों और गलतियों को सामने लाकर उसे कठघरे में खड़ा करता है. अपनी बात पर जोर देने के लिए यदा कदा वह सदन में हल्ला हंगामे और सदन की कार्यवाही बाधित करने के अपने संसदीय अस्त्र का सहारा भी लेता है. सरकार अपने जवाबों से विपक्ष को संतुष्ट करने और अपनी उपलब्धियों को सामने लाने के प्रयास करती है. उसका संसदीय कौशल उत्तेजित विपक्ष को शांत करने और सहमति के बिंदुओं को सामने लेकर सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से संचालित करने के काम आता है. इस काम में सदन में उसका बहुमत भी सहायक भूमिका निभाता है. लेकिन हाल के वर्षों में सरकारें विपक्ष की इस भूमिका को स्वीकार करने के बजाय उसकी आवाज को दबाने की कोशिशें ही करते नजर आती हैं. मजेदार बात यह है कि आज जिस संसदीय गतिरोध के लिए सत्ता पक्ष यानी भाजपा कांग्रेस और विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रहा है, विपक्ष में रहते उसे ही विपक्ष का संसदीय दायित्व और अधिकार मानता था. 

पिछले दिनों विधायिकाओं के महत्व समझाते हुए उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडु ने कहा कि सदन के सभापति के मंच के पास जाने वाले विधायकों को तुरंत निलंबित करने की व्यवस्था होनी चाहिए. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी शुक्रवार, 21 दिसंबर को सदन को बाधित करनेवाले सांसदों को नियंत्रित और अनुशासित करने की गरज से सदन की ‘रूल्स कमेटी’ की बैठक बुलाई. उन्होंने साफ किया कि वह नियम के विपरीत सदन की कार्यवाही नहीं चला सकती हैं. कमिटी ने आसंदी के पास आकर हल्ला हंगामा करनेवालों के स्वतः निलंबन का प्रस्ताव किया है. 

विडंबना इसी बात की है की आज सदन के बीच में प्लेकार्ड के साथ हल्ला हंगामा कर रहे सांसदों को नसीहत देने, उन्हें स्कूली बच्चों से भी बदतर बताने, उन्हें संसदीय अनुशासन का पाठ पढ़ाने के साथ ही ऐसा करनेवाले सांसदों के विरुद्ध कार्रवाई के नियम उपाय तलाशने में लगी लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू स्वयं यूपीए शासन के दौरान हल्ला हंगामा करनेवाले भाजपा सांसदों के साथ खड़े दिखते और संसदीय गतिरोध को जायज ठहराते थे. कोल गेट और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच के लिए जबरदस्त हंगामा कर संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित करने के पक्ष में राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता अरुण जेटली का बयान काबिले गौर है, ‘‘हम लोगों ने जिस मुद्दे पर इस सत्र में हंगामा शुरू किया है उसे हम जनता के बीच ले जाएंगे, जब तक कि निष्पक्षता और जवाबदेही बहाल नहीं हो जाती. अगर संसद के प्रति जवाबदेही का पालन नहीं किया जाता है और बहस सिर्फ इसे समाप्त करने के लिए रखी जाती है, तब विपक्ष के लिए यह रणनीति वैध हो जाती है कि वह उन सभी संसदीय उपायों से सरकार का भंडाफोड़ करे, जिन्हें इस्तेमाल करना उसके हाथ में है.’’ उस समय वह संसदीय गतिरोध को जायज ठहरा रहे थे. उन्होंने कहा, ‘‘बाधा पहुंचाने का अर्थ यह नहीं है कि काम मत करो. हम तो वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं.’’ यह पूछे जाने पर कि क्या संसद का उपयोग बाधा पहुंचाने के बजाय चर्चा के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जेटली का सीधा जवाब था, ‘‘राष्ट्रीय बहस तो जारी है. हर पहलू पर चर्चा हो रही है, भले ही संसद में नहीं हो रही है. यह बहस दूसरी जगह जारी है. हमारी रणनीति यह है कि संसद में इस पर बहस मत होने दो, बस.’’ लोकसभा में विपक्ष की नेता रहीं सुषमा स्वराज से उस समय जब पूछा गया कि क्या वह नहीं जानतीं कि संसद के कामकाज में बाधा पहुंचाने से राष्ट्रीय खजाने को कितना नुकसान होता है, उन्होंने सहमति जताते हुए कहा था, ‘‘संसद सत्र का अगर इस तरह समापन होता है तो आलोचना होती है. हमसे कहा जाता है कि संसद को चलने नहीं दिया गया इसलिए नुकसान हुआ. अगर संसद की कार्यवाही नहीं चलने के कारण 10-20 करोड़ का नुकसान हुआ और हम सरकार पर दबाव बना सके तो यह स्वीकार्य है.’’ यही नहीं उस समय लालकृष्ण आडवाणी ने भी कहा था कि विधायी कार्य में बाधा पहुंचाने से भी ‘नतीजे मिलते हैं’. उस समय विपक्षी भाजपा के एक अन्य बड़े नेता यशवंत सिन्हां ने भी तब इसमें जोड़ा था, ‘‘चूंकि सरकार इस मसले पर चुप है इसलिए हमने इसे उठाने का फैसला किया. मैं पूरी ताकत से मांग करूंगा कि सरकार तुरंत जांच करवाने की घोषणा करे. इसकी घोषणा नहीं होने तक हम सदन को कैसे चलने दे सकते हैं?’’ यही नहीं चार साल पहले विपक्ष में खडे़ भाजपा के नेता वेंकैया नायडु से जब यह पूछा गया था कि सदन में हंगामा कर रहे भाजपा के सांसदों का यह तरीका असंसदीय नहीं है? उन्होंने कहा था, ‘‘हम नए तरीके ईजाद करें ताकि जवाबदेही के सिद्धांत की बलि न चढ़े. हम चुप नहीं रहेंगे. हम लड़ाई को जनता के बीच ले जाएंगे.’’

जाहिर है कि अब भूमिकाएं बदल चुकी हैं. सत्तारूढ़ हो गए भाजपा के नेताओं की भाषा बदली हुई है. लेकिन विपक्ष की भूमिका में आ गई कांग्रेस और इसके सहयोगी दल भी अब अतीत में भाजपा की विपक्षवाली भूमिका का अनुसरण करते हुए भाजपानीत सरकार को घेरने में लगे हैं. राफेल युद्धक विमानों की खरीद मामले में सरकार को संसद के भीतर घेरने से लेकर विपक्ष की रणनीति इसे सड़कों पर ले जाने और 2019 के आम चुनाव में अन्य बातों के साथ ही इसे मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने की लगती है. जाहिर सी बात है कि दोनों पक्षों के अपनी जिद पर अड़े रहने के कारण संसद के सुचारु ढंग से चल पाने की सम्भावना बहुत कम ही रह जाती है. 

Monday, 11 September 2017

मोदी मंत्रिपरिषद का तीसरा फेरबदल

मर्जी की मोदी मंत्रिपरिषद!
चुनौतियां बड़ी हैं


जयशंकर गुप्त

खिरकार देश के लिए एक पूर्णकालिक रक्षा मंत्री का इंतजाम हो गया. अपनी मर्जी के चौंकानेवाले फैसलों के लिए चर्चित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाणिज्य राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) निर्मला सीतारमण को देश की सीमाओं की सुरक्षा की कमान सौंपकर एक बार फिर न सिर्फ बाहर बल्कि अंदर अपनी पार्टी के लोगों को भी चौंका दिया. अपनी करीब सवा तीन साल पुरानी मंत्रिपरिषद के तीसरे, बहुप्रतीक्षित और बहुचर्चित पुनर्गठन के बाद मोदी ने सीतारमण को केवल दूसरी महिला रक्षा मंत्री होने का गौरव ही प्रदान नहीं किया बल्कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (कुछ कथित राष्ट्रभक्तों की निगाह में देशद्रोहियों का अड्डा) से अर्थशास्त्र की स्नातकोत्तर भाजपा की इस अपेक्षाकृत नई नेता को विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के साथ ही देश की सुरक्षा मामलों पर मंत्रिमंडल की अत्यंत महत्वपूर्ण समिति की दूसरी महिला सदस्य होने का मान सम्मान भी दे दिया. हालांकि भाजपा के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि मोदी और भाजपा के उनके खासुलखास अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी ने तो उन्हें सरकार से बाहर करने का फैसला कर लिया था, उनसे त्यागपत्र भी ले लिया गया था लेकिन संघ और भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेताओं के दबाव में उनका मंत्री पद बचा और ऐसा बचा कि मोदी ने उन्हें रक्षा मंत्री बना दिया.
मोदी मंत्रिमंडल की एक अन्य प्रमुख सदस्य स्मृति ईरानी को भी पदोन्नत कर उनके साथ अतिरिक्त प्रभार के रूप में जुड़े सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को पूर्णकालिक तौर पर उनके नाम कर दिया. वह कपड़ा मंत्री भी बनी रहेंगी. अब मोदी मंत्रिमंडल में महिला सदस्यों की संख्या छह और राज्य मंत्रियों की संख्या तीन हो गई है. हालांकि महिला सशक्तीकरण और संसद तथा विधायिकाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की वकालत करनेवाली भाजपा की सरकार के ताजा फेरबदल के बाद कुल 76 मंत्रियों में महिलाओं की संख्या महज 9 ही हो पाई है.

कहने को तो यह फेरबदल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘न्यू इंडिया मिशन’ और 2019 के लोकसभा चुनाव और उससे पहले होनेवाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर किया गया और इसमें मंत्रियों और नेताओं की प्रतिभा, कार्यक्षमता और संगठन तथा सरकार के कामकाज में उनके योगदान को आधार माना गया लेकिन सही मायने में इस पूरी कवायद में मोदी और अमित शाह की मन मर्जी और उनकी राजनीतिक आवश्यकताओं को ही तरजीह दिखती है. हालांकि कुछ मामलों में मोदी और शाह की मर्जी पर संघ और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं का दबाव भी भारी पड़ा.

भाजपा सूत्रों के अनुसार मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन से एक दो दिन पहले पार्टी के अंदर काफी राजनीतिक उठापटक हुई. यह भी एक कारण था कि मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन की तिथि एक दिन आगे बढाई गई. बताते हैं कि मोदी-शाह की जोड़ी सरकार से बाहर किए गए छह मंत्रियों के साथ ही निर्मला सीतारमण, उमा भारती, जयंत सिन्हां, गिरिराज सिंह और सुदर्शन भगत को भी हटाना चाहती थी. राजनाथ सिंह का विभाग बदले जाने की बात थी. सुषमा स्वराज रक्षा ंमत्री बनने की इच्छुक थीं लेकिन संघ और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के दबाव के कारण ऐसा नहीं हो सका. अमित शाह ने तो उमा भारती का त्यागपत्र भी ले लिया था लेकिन अंतिम समय पर संघ के शिखर नेतृत्व के हस्तक्षेप से उनका मंत्री पद बच गया. इन सूत्रों के अनुसार झांसी में बागी तेवर अपना चुकीं भगवावेशधारी उमा के दबाव पर संघ नेतृत्व ने वृंदावन में चल रही अपनी उच्च स्तरीय बैठक में शामिल अमित शाह को समझाया कि उमा को मंत्रिमंडल से बाहर रखना संघ और भाजपा की भविष्य की योजनाओं के मद्देनजर ठीक नहीं रहेगा. बाहर रह कर वह सरकार और संगठन के लिए भी परेशानियां खड़ी करती रहेंगी. हालांकि मंत्रिमंडल में हैसियत घटाए जाने के विरोध में शपथग्रहण समारोह का बहिष्कार कर उमा भारती ने अपने इरादे जाहिर कर दिए. फेरबदल में अपने विभागों में छेड़छाड़ की आशंका को भांपकर ऐन वक्त पर राजनाथ, सुषमा, अरुण जेटली और नितिन गडकरी जैसे भाजपा के वरिष्ठ नेताओं-मंत्रियों की बैठक में उनके विभागों में किसी तरह का हेर फेर नहीं किए जाने का दबाव बनाया गया. राजनाथ ने साफ कह दिया था कि अगर उनका विभाग बदलने की बात हुई तो वह संगठन का काम करना पसंद करेंगे. उनके विभागों में किसी तरह की छेड़-छाड़ नहीं हुई. इसमें भी संघ की भूमिका निर्णायक रही.

निर्मला सीतारमण के पक्ष में यह दलील दी गई कि उन्हें मंत्री बनाए रखकर एक तो महिला सशक्तीकरण की बात हो सकती है, दूसरे वेंकैया नायडू के उप राष्ट्रपति बन जाने के बाद दक्षिण भारत में पार्टी और सरकार में आए खालीपन को भी वह भर सकती हैं. निर्मला तमिलनाडु में पैदा हुई हैं जबकि उनकी ससुराल आंध्र प्रदेश में है, कर्नाटक से भी उनका जुड़ाव रहा है. इस तरह का दबाव बनने पर मोदी ने न सिर्फ निर्मला को मंत्री बनाए रखा बल्कि उन्हें रक्षा मंत्री बनाकर प्रोटोकोल के हिसाब से उन्हें सुषमा स्वराज और अरुण जेटली से ऊपर कर दिया.
संघ के दबाव की काट के लिए उन्होंने पूर्व चार नौकरशाहों-आर के सिंह, सत्यपाल सिंह, हरदीपसिंह पुरी और के जे अल्फांस को अंतिम समय पर मंत्री बनाने का फैसला किया. वे मंत्री बन रहे हैं, इस बात का सूचना भी उन्हें शनिवार की रात को ही दी गई. ईमानदार और कर्मठ छवि के पूर्व नौकरशाह आर के सिंह अक्टूबर 1990 में समस्तीपुर में जिलाधिकारी रहते भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को उनकी रथ यात्रा के दौरान गिरफ्तार करने और फिर जनवरी 2013 में केंद्र सरकार में गृह सचिव रहते अपने एक बयान के लिए चर्चित हुए थे. उन्होंने कहा था कि मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस में हुए आतंकी धमाकों में आरएसएस के दस लोगों के शामिल होने के पुख्ता प्रमाण हैं. डीडीए में ‘डिमालिशन मैन’ के नाम से चर्चित रहे के जे अल्फांस केरल में माकपा समर्थित निर्दलीय विधायक रह चुके हैं. मंत्री बनने के अगले दिन ही पदभार ग्रहण करने के बाद उन्होंने संघ के गोरक्षा अभियान की चिंता किए बगैर कहा, ‘‘मोदी सरकार समावेशी है. इसे केरल और गोवा जैसे राज्यों में लोगों के गोमांस खाने से किसी तरह की समस्या नहीं होगी.’’
कई मामलों में तो मंत्रिपरिषद से बाहर किए गए मंत्रियों की भरपाई उनके जातीय विकल्पों के द्वारा की गई. मसलन बिहार से राजीव प्रताप रूडी को हटाकर उनकी जगह उनके सजातीय, राजकुमार सिंह को लिया गया. उत्तर प्रदेश में 75 साल की उम्र सीमा पार कर चुके कलराज मिश्र और प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बने महेंद्रनाथ पांडेय के त्यागपत्र की भरपाई की गरज से गोरखपुर के राज्यसभा सदस्य शिवप्रताप शुक्ल को वित राज्य मंत्री बनाया गया है. शुक्ल और गोरखपुर से ही राज्य के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के बीच राजनीतिक अनबन के मद्देनजर माना जा रहा है कि शुक्ल के जरिए आदित्यनाथ पर एक तरह का अंकुश लगाने की कोशिश हो सकती है. ब्राह्मणों को बांधे रखने की गरज से ही बिहार में राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के कट्टर विरोधी अश्विनी चौबे भी राज्य मंत्री बनाए गए. बिहार सरकार में मंत्री रहे चौबे की चर्चा उनकी तीखी जुबान के लिए भी होती रही है. उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को ‘पूतना’ तथा राहुल गांधी को ‘विदेशी तोता’ कहा था. उत्तर प्रदेश से एक और राज्य मंत्री संजीव कुमार बाल्यान की जगह उनके ही सजातीय, मुंबई, नागपुर और पुणे के पुलिस आयुक्त रहे सत्यपाल सिंह को राज्यमंत्री बनाया गया. राजस्थान में जोधपुर के राजपूत सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत को राज्यमंत्री बनाने के पीछे पिछले दिनों राज्य के एक बड़े गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने के विरुद्ध आंदोलित राजपूतों की नाराजगी कम करने की कोशिश भी हो सकती है. राज्य से एक और राजपूत, पूर्व ओलंपियन राज्यवर्धनसिंह राठौर को प्रोन्नत कर उन्हें सूचना प्रसारण राज्यमंत्री के साथ ही स्वतंत्र प्रभार के साथ खेलकूद मंत्रालय में राज्य मंत्री बनाया गया है.

मध्यप्रदेश से आदिवासी फग्गन सिंह कुलस्ते का त्यागपत्र लेकर उनकी जगह टीकमगढ़ से छह बार से लोकसभा सदस्य चुने जाते रहे दलित समाज के वीरेंद्र कुमार खटिक को राज्य मंत्री बनाया गया. दक्षिण भारत में तेलंगाना से बंडारू दत्तात्रेय का त्यागपत्र लेकर कर्नाटक से संघ के समर्पित नेता एवं उत्तरी कन्नडा से सांसद अनंत हेगड़े को राज्यमंत्री बनाते समय कर्नाटक विधानसभा के अगले चुनाव को ध्यान में रखा गया. तेजतर्रार और आक्रामक छवि के हेगड़े भी अपनी बदजुबानी के लिए चर्चित रहे हैं. कुछ दिन पहले सिरसी के एक निजी अस्पताल में उनकी मां के इलाज में हो रही देरी से क्रुद्ध हेगड़े ने वहां डाक्टरों की पिटाई कर दी थी. उनके विरुद्ध मुकदमा भी दर्ज हुआ. इससे पहले उनकी बदजुबानी के कारण उनके खिलाफ सिरसी में ही ‘हेट स्पीच’ का मुकदमा भी कायम हुआ था. उन्होंने इस्लाम धर्म को आतंकवाद से जोड़ते हुए कहा था कि ‘‘जब तक इस्लाम रहेगा, दुनिया में शांति संभव नहीं.’’

मंत्रिपरिषद के इस फेरबदल के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस’ की वह उक्ति भी ‘जुमला’ भर रह गई जो उन्होंने तकरीबन सवा तीन साल पहले, 26 मई 2014 को 45 सदस्यों की अपनी मंत्रिपरिषद के शपथ ग्रहण के बाद कही थी. अब तीसरे फेरबदल के बाद उनकी मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या 76 हो गई है जिसमें 27 कैबिनेट, 11 राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) और 36 राज्यमंत्री शामिल हैं. अभी भाजपा के सहयोगी एवं उसके नेतृत्ववाले राजग के कई घटक दल सरकार में ‘प्रतिनिधित्व’ नहीं मिल पाने को लेकर मुंह फुलाए हैं. राजग में भाजपा के सबसे पुराने सहयोगी शिवसेना ने तो अपने एक मात्र मंत्री अनंत गीते के साथ शपथग्रहण समारोह का बहिष्कार कर अपना विरोध भी जता दिया है. जनता दल यू और अन्ना द्रमुक जैसे नए सहयोगी दल भी मंत्रिपरिषद में अपना उचित हिस्सा चाहेंगे. नियमतः अभी पांच मंत्री और बनाए जा सकते हैं. अगर सहयोगी दलों को सरकार में हिस्सेदारी देनी है तो इसके लिए एक और फेरबदल करना होगा.  
आधिकारिकतौर पर तो यही कहा जा रहा है कि निर्मला सीतारमण के साथ ही स्वतंत्र प्रभारवाले तीन अन्य राज्य मंत्रियों -पीयूष गोयल, धर्मेंद्र प्रधान और मुख्तार अब्बास नकवी को भी उनके बेहतर कामकाज के आधार पर प्रोन्नत कर कैबिनेट मंत्री बनाया गया. पीयूष गोयल को गांव गांव तक बिजली पहुंचाने और धर्मेंद्र प्रधान को घर घर रसोई गैस पहुंचाने की प्रधानमंत्री मोदी की महत्वाकांक्षी उज्वला योजना पर बेहतर अमल का पुरस्कार मिला. मुख्तार अब्बास नकवी को संगठन और सरकार की बात ढंग से रखने तथा संसद में विपक्षी दलों के साथ अच्छा समन्वय बनाए रखने का लाभ मिला. वह अब मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री के रूप में अल्पसंख्यक मुसलमानों का चेहरा होंगे. उन्हें अल्पसंख्यक मामलों का मंत्री बनाया गया है.

 नौकरशाही में उनके अनुभवों का लाभ लेने के नाम पर जिन चार पूर्व नौकरशाहों को मंत्री बनाया गया, उन्हें ऐसे विभाग दिए गए जो उनके अनुभव, क्षमता से मेल नहीं खाते. पूर्व राजनयिक हरदीप सिंह पुरी को शहरी विकास और आवास विभाग मिला जबकि दिल्ली में डीडीए के चर्चित अधिकारी रह चुके के जे अल्फांस को पर्यटन, इलैक्ट्रानिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बनाया गया है. इसी तरह वर्षां तक गृह मंत्रालय से जुड़े रहे पूर्व नौकरशाह और बिहार में आरा से लोकसभा सदस्य आर के सिंह को स्वतंत्र प्रभार के साथ ऊर्जा एवं नवीकरणीय तथा अक्षय ऊर्जा राज्य मंत्री बनाया गया. अगर अनुभव और क्षमता का ही पैमाना होता तो आर के सिंह और सत्यपाल सिंह गृह मंत्रालय, हरदीप पुरी विदेश और अल्फांस को शहरी विकास और आवास मंत्रालय में भेजा जाता.
प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरनेवाले रेल मंत्री सुरेश प्रभु, उमा भारती, एसएस अहलूवालिया और विजय गोयल की सरकार में हैसियत घटा दी गई. अपने पूरे कार्यकाल में रेल भाडे़ में तरह तरह की वृद्धियों और रेल दुर्घटनाओं के लिए ही चर्चित होते रहे श्री प्रभु की जगह पीयूष गोयल को रेल मंत्री बना दिया गया. निगमित क्षेत्र के दुलारे गोयल को कोयला मंत्रालय की जिम्मेदारी भी संभालते रहेंगे. सुरेश प्रभु अब वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय संभालेंगे. इसी तरह से उमा भारती से जल संसाधन और गंगा संरक्षण मंत्रालय लेकर सड़क परिवहन, राजमार्ग, जहाजरानी और नदी विकास मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल रहे संघ के प्रिय नेता नितिन गडकरी के साथ नत्थी कर दिया गया. अपने मंत्रालयों में बुनियादी ढांचे के विकास में लगे गडकरी एक अरसे से नदियों को साफ और गहरा कर जल परिवहन की बात करते रहे हैं. मंत्रिपरिषद में कद और पद तो विजय गोयलए एसएस अहलूवालिया और महेश शर्मा का भी घटा है, गोयल से खेलकूद मंत्रालय का प्रभार लेकर सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धनसिंह राठौर को तथा शर्मा से पर्यटन मंत्रालय लेकर अल्फांस को दे दिया गया. गोयल के पास अब केवल संसदीय कार्य, सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन विभाग रह गए जबकि महेश शर्मा अब स्वतंत्र प्रभार के साथ संस्कृति, वन पर्यावरण एवं जलवायु परविर्तन का हिसाब रखेंगे. चर्चा तो बिहार के बड़बोले और अक्सर अपने विवादित बयानों के कारण चर्चा में रहनेवाले गिरिराज सिंह को भी सरकार से बाहर करने की होती रही लेकिन राजपूत आर के सिंह को मंत्री बनाने और भूमिहार गिरिराज को सरकार से बाहर करने से बिहार में दबंग भूमिहारों की उपेक्षा भारी पड़ने के डर से प्रधानमंत्री मोदी के करीबी गिरिराज सिंह का कामकाज भी बेहतर माना गया और उन्हें पदोन्नत कर सूख्म, मध्यम एवं लघु उद्यम मंत्रालय का राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बना दिया गया.    

मोदी मंत्रिपरिषद में यह फेरबदल ऐसे समय किया गया है जब 17हवीं लोकसभा के चुनाव में बस डेढ़ साल का समय और शेष रह गया है. भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने इस चुनाव में अकेले भाजपा के 350 सीटें जीतने का लक्ष्य घोषित किया है. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव भी एक साथ ही कराए जाने की चर्चाओं के बीच में 2018 में होनेवाले कई राज्य विधानसभाओं के साथ ही 2019 में निर्धारित लोकसभा चुनाव और कुछ राज्य विधानसभाओं के चुनाव भी करा लिए जाने की बातें जोर मारती रहती हैं. इस लिहाज से देखें तो लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव जीतना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है. औद्योगिक उत्पादन में लगातार दर्ज हो रही गिरावट, नोटबंदी और जीएसटी के कुप्रभावों से चरमराती अर्थव्यवस्था, सकल घरेलू उत्पाद की दर में दो प्रतिशत की गिरावट, महंगाई और बेरोजगारी के चरम पर पहुंचने, रोजगार के अवसरों में लगातार आ रही कमी, दैनंदिन के मामले में केंद्र हो अथवा राज्य, भ्रष्टाचार के मामलों में आम आदमी को राहत नहीं मिलने, कश्मीर में अशांति, सीमाओं पर आतंकवादी घटनाओं के जारी रहने, काले धन की वापसी, हर साल दो करोड़ लोगों के लिए रोजगार के प्रबंध, किसानों की आत्म हत्या जारी रहने, कृषि उपज की लागत का डेढ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने और आम आदमी के लिए अच्छे दिन लाने जैसे वादे मोदी सरकार के सामने सवाल बनकर खड़े होने लगे हैं.

इसके साथ ही कई राज्यों में बदलत-बिगड़ते सामाजिक समीकरण भी भाजपा के 350 लोकसभा सीटें जीतने के चुनावी मिशन पर सवाल खड़े कर रहे हैं. भाजपा के नेता डींगें चाहे जितनी हांक लें, उत्तर भारत और खासतौर से हिंदी पट्टी के राज्य भाजपा के लिए गंभीर चिंता का सबब बन रहे हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ गुजरात, दादरा नगर हवेली, दमन दीव, गोवा और महाराष्ट्र की कुल 324 लोकसभा सीटों में से 288 पर राजग और 257 पर अकेले भाजपा के लोग चुनाव जीते थे. बड़ी तेजी से बदल रहे राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा और राजग के लिए इन राज्यों में सीटों का आंकड़ा बढा पाने की बात तो दूर इस आंकड़े को बरकरार रख पाना भी टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और गोवा में तो सभी लोकसभा सीटों पर और जम्मू-कश्मीर, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार तथा महाराष्ट्र में भी अधिकतम सीटों पर भाजपा और राजग का ही कब्जा है. निजी और अनौपचारिक बातचीत में भाजपा और संघ के कई बड़े नेता भी मानते हैं कि इन राज्यों में पार्टी को काफी सीटें गंवानी पड़ सकती हैं. मंत्रिपरिषद के फेरबदल को इस गिरावट को थामने के लिहाज से भी देखा जा सकता है.

बिहार में विधानसभा के चुनाव में राजद, जद यू और कांग्रेस के महागठबंधन के पक्ष में बने दलित, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों के सामाजिक समीकरण के चलते भाजपा का गठबंधन वहां बुरी तरह से मात खा गया था, उससे सबक लेकर भाजपा ने एक तो उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण, वैश्य एवं अन्य सवर्ण जातियों के बीच अपने परंपरागत जनाधार की नाराजगी का जोखिम मोल लेकर भी अपनी रणनीति गैर यादव और गैर जाटव, अन्य पिछड़ी और अन्य दलित जातियों पर केंद्रित की थी, इसका पोलिटिकल डिविडेंड भी उसे विधानसभा की 400 में से 325 सीटों पर जीत के रूप में मिला. लेकिन राज्य का मुख्यमंत्री गोरखनाथ पीठ के राजपूत महंथ, और 1998 से गोरखपुर से लगातार सांसद योगी आदित्यनाथ को बनाया गया. सवर्ण ब्राह्मणों और अन्य पिछड़ी जातियों को सांत्वना के बतौर दिनेश शर्मा और प्रदेश भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष केशव मौर्य को उपमुख्यमंत्री बना दिया गया. लेकिन प्रदेश में खराब होती जा रही कानून व्यवस्था, गोरखपुर और फर्रुखाबाद में आक्सीजन के अभाव में तकरीबन डेढ़ सौ बच्चों के अकेले एक महीने में दम तोड़ने, शासन पर नौकरशाहों के हावी होने आदि कारणों से भाजपा का राजनीतिक ग्राफ तेजी से गिरने लगा. हालत यह हो गई कि मुख्यमंत्री और उनके दोनों उपमुख्यमंत्रियों के साथ ही दो मंत्रियों को भी विधानसभा के उपचुनाव का सामना करने का साहस जुटा पाने के बजाय विधान परिषद में जाने का आसान रास्ता चुनना पड़ा. मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री बने पांच महीने से अधिक का समय बीतने को आया लेकिन दोनों ने अभी तक लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र नहीं दिया है. ब्राह्मणों की नाराजगी को रोकने के लिए केंद्र सरकार में राज्य मंत्री रहे महेंद्रनाथ पांडेय को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और शिवप्रताप शुक्ल को वित राज्यमंत्री बनाया गया. लेकिन राज्य में सपाए बसपा, रालोद और कांग्रेस के संभावित गठजोड़ भाजपा की बेचैनी बढ़ा सकते हैं.

दूसरी तरफ, बिहार में महागठबंधन की चुनौती का सामना करने के बजाय भाजपा नेतृत्व ने उसे तोड़कर नीतीश कुमार और उनके जद यू को अपने पाले में कर लिया. हालांकि भाजपा के साथ नीतीश कुमार और उनके लोग सहज होने के दावे करते रहे हैं, इस बार उन्हें भाजपा नेतृत्व के हाथों लगातार अपमान के घूंट पीते रहने को बाध्य होना पड़ रहा है. बहु प्रचारित सवा लाख करोड़ रु. के सपेशल पैकेज के नाम पर अभी तक बिहार को फूटी कौड़ी भी नहीं मिली है. इस बार बिहार में हर बार से अधिक भयावह बाढ़ का हेलीकाप्टर से जायजा लेने आए प्रधानमंत्री मोदी ने उनके लिए नीतीश कुमार के द्वारा खास गुजराती रसोइए से तैयार दोपहर के भोजन को ठुकरा कर अतीत में नीतीश कुमार के हाथों हुए अपमान का बदला ले लिया. गौरतलब है कि पटना में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के समय नीतीश कुमार ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी एवं अन्य भाजपा नेताओं के लिए आयोजित भोज को रद्छ करवा दिया था. बाढ़ग्रस्त इलाकों का मुआयना करने के बाद मोदी ने केवल 500 करोड़ रु. की सहायता राशि घोषित करके भी मोदी ने नीतीश कुमार को उनकी हैसियत का एहसास कराने की कोशिश की और अब मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन के बारे में तो उन्हें पूछा-बताया भी नहीं.
इससे पहले पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में राजद के नेतृत्व में ‘भाजपा भगाओ, देश बचाओ’ रैली की भारी सफलता ने भी भाजपा के रणनीतिकारों के कान खड़े कर दिए हैं. गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से मिल रही सूचनाएं भी भाजपा आलाकमान को दिलासा नहीं दे पा रहीं. दिल्ली में बवाना विधानसभा के उप चुनाव में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार के हाथों 24 हजार मतों के भारी अंतर से भाजपा की हार ने भी आलाकमान को चौकन्ना कर दिया है.

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार उत्तर भारत और खासतौर से हिंदी पट्टी के राज्यों में संभावित राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए पार्टी और संघ इस बार पश्चिम बंगाल और ओडिसा जैसे पूर्व और उत्तर पूर्व के राज्यों के साथ ही दक्षिण भारत से करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं. हालांकि उत्तर पूर्व में भी असम की 14 में से सात सीटें पहले से ही भाजपा के पास हैं. इसी तरह से कर्नाटक में भी 28 में से 17 सीटें भाजपा के ही पास हैं. दक्षिण भारत में पैठ बढाने की गरज से भी निर्मला सीतारमण को मोदी मंत्रिमंडल में प्रमुख स्थान दिए जाने के साथ ही केरल से के जे अल्फासं और कर्नाटक से अनंत हेगड़े को मंत्री बनाया गया, ओडिसा में जनाधार मजबूत करना भी धर्मेंद्र प्रधान को उनके पुराने विभाग पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के साथ उद्यमिता और कौशल विकास को भी जोड़कर कैबिनेट मंत्री बनाया गया. लेकिन पश्चिम बंगाल और उत्तर पूर्व के राज्यों से इस बार केंद्रीय मंत्रिपरिषद में किसी को भी शामिल नहीं किया गया.

बहरहाल, मोदी मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन के बाद अब अमित शाह की टीम में भी हेर फेर किए जाने की संभावना बढ़ गई है. भाजपा के केंद्रीय संगठन में भी कई पद एक अरसे से खाली पड़े हैं जबकि कुछ लोगों को हटाकर नए लोगों को जिम्मेदारी दिए जाने की बात है. मंत्रिपरिषद से बाहर किए गए कुछ लोग संगठन के काम में लगाए जा सकते हैं. लेकिन क्या सिर्फ सरकार और संगठन में कुछ पैबंद लगाने से भर से 2018-19 में भाजपा की चुनावी नैया पार हो सकेगी या फिर पिछले लोकसभ चुनाव के समय किए गए वायदों को ‘चुनावी जुमलों’ के मुहावरे से बाहर निकालकर सतह पर भी कुछ काम होंगे?

नोट : इस लेख के सम्पादित अंश  हिंदी पाक्षिक आउटलुक के 25  सितंबर 2017 के अंक में प्रकाशित