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Tuesday, 17 August 2021

Hal Filhal: Criminalisation of Politics

राजनीति के अपराधीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का तमाचा


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/pdxZu1ANxLc
    
रा
जनीति का तेजी से हो रहा अपराधीकरण पिछले कई दशकों से भारतीय राजनीति और हमारे संसदीय लोकतंत्र को भी डंसे जा रहा है. बार-बार की चेतावनियों और घोषणाओं के बेअसर रहने के बाद अभी एक बार फिर हमारी सर्वोच्च अदालत ने राजनीति के अपराधीकरण या कहें अपराध के राजनीतिकरण पर गहरी चिंता व्यक्त की है. सुप्रीम कोर्ट की राय में “राजनीतिक व्यवस्था की शुद्धता के लिए आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को कानून निर्माता बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.’’

    वाकई, हाल के दशकों में भारतीय राजनीति और हमारी चुनाव प्रणाली में जाति, धर्म, धन बल और बाहुबल का इस्तेमाल बढ़ा है. यह हमारी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के लिए अशुभ संकेत है. सबसे अधिक चिंता इस बात की है कि कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो यह किसी भी राजनीतिक दल और आम जनता के लिए भी विशेष चिंता का विषय नहीं रह गया है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जानेवाले भारत में चुनाव सुधारों की बात तो लंबे समय से होती रही है. लेकिन, आजादी के 74 साल बाद भी यहां 'राजनीति के अपराधीकरण' पर रोक नहीं लग सकी है. भारतीय स्वतंत्रता के 75वें दिवस का जश्न मनाते समय क्या यह हमारी सामूहिक चिंता का विषय नहीं होना चाहिए कि सत्रहवीं लोकसभा के तकरीबन 43 प्रतिशत सदस्यों पर आपराधिक और इन में से 29 प्रतिशत सांसदों पर गंभीर अपराधों के मामले दर्ज हैं.
 
    पिछले लोकसभा चुनावों के आंकड़ों पर गौर करें तो अपराधी पृष्ठभूमि के सांसदों की संख्या लगातार बढ़ती गई है. 2004 के लोकसभा चुनाव में जीतनेवाले अपराधी पृष्ठभूमि के सांसदों की संख्या 128 थी जो वर्ष 2009 में 162, 2014 में 185 और 2019 के लोकसभा में बढ़कर 233 हो गई. नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2009 में गंभीर आपराधिक मामलों के आरोपी सांसदों की संख्या 76 थी, जो 2019 में बढ़कर 159 हो गई. इस तरह से देखें तो 2009-19 के बीच बलात्कार, हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध जैसे गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या में 109 फीसदी का इजाफा हुआ. कई राज्यों की विधानसभाओं में तो हालत और भी बदतर है. बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में विभिन्न दलों के तकरीबन 70 प्रतिशत उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे चल रहे थे.

मोदी से जगी थी उम्मीद !


     प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद उम्मीद बढ़ी थी कि अब राजनीति अपराधियों से मुक्त हो सकेगी. हालांकि गुजरात में मुख्यमंत्री रहते ऐसा कुछ भी लहीं किया था जिससे अपराधी राजनीतिक प्रक्रिया से बाहर हो सकें. लेकिन उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ रही भाजपा ने जब 7 अप्रैल 2014 को लोकसभा चुनाव के लिए जारी अपने चुनाव घोषणापत्र या कहें संकल्प पत्र में अपराधियों को राजनीति से बाहर करने के लिए कटिबद्धता जाहिर की, तो आस जगी थी. यही नहीं मोदी जी ने खुद भी राजस्थान में अपने चुनावी भाषणों में कहा था, ‘‘आजकल यह चर्चा जोरों पर है कि अपराधियों को राजनीति में घुसने से कैसे रोका जाए. मेरे पास इसका एक ठोस इलाज है. मैंने भारतीय राजनीति को साफ करने का फैसला कर लिया है. मैं इस बात को लेकर आशान्वित हूं कि हमारे शासन के पांच सालों बाद पूरी राजनीतिक व्यवस्था साफ-सुधरी हो जाएगी और सभी अपराधी जेल में होंगे. इस मामले में कोई भेदभाव नहीं होगा और मैं अपनी पार्टी के दोषियों को भी सजा दिलाने में संकोच नहीं करूंगा.’’

नरेंद्र मोदीः राजनीति के अपराधीकरण का इलाज है, मेरे पास!
    प्रधानमंत्री बनने के बाद 11 जून 2014 को संसद में अपने पहले भाषण में भी मोदी जी ने चुनावी प्रक्रिया से अपराधी छवि के जन प्रतिनिधियों को बाहर करने की प्रतिबद्धता को दोहराते हुए कहा था कि उनकी सरकार ऐसे नेताओं के खिलाफ मुकदमों के तेजी से निपटारे की प्रक्रिया बनाएगी. 2015 में बिहार विधानसभा के चुनाव के समय मोदी जी ने मुजफ्फरपुर की सभा में कहा था कि जन प्रतिनिधियों के विरुद्ध लंबित आपराधिक मामलों की त्वरित अदालतों में सुनावाई के जरिए वह पहले संसद से और फिर विधानमंडलों से भी अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों को बाहर करेंगे.

    लेकिन प्रधामंत्री मोदी की इन घोषणाओं का हुआ क्या ! इसे भी देखें. 2014 के लोकसभा चुनाव में जीते भाजपा के 282 सांसदों में से 35 फीसदी (98) सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे. इनमें से 22 फीसदी सांसदों के खिलाफ तो गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे. इन्हें उम्मीदवार किसने और क्यों बनाया था ! यह भी क्या कोई पूछने की बात है ! यही नहीं, मोदी जी की मंत्रिपरिषद में भी 31 फीसदी सदस्यों के विरुद्ध आपराधिक और इनमें से 18 फीसदी यानी 14 मंत्रियों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे. इन्हें ठोक बजाकर मंत्री भी तो मोदी जी ने ही बनाया होगा ! 14 दिसंबर 2017 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर बताया था कि उस समय 1581 सांसद व विधायकों पर करीब 13500 आपराधिक मामले लंबित हैं और इन मामलों के निपटारे के लिए 12 विशेष अदालतों का गठन होगा. इसके तीन महीने बाद, 12 मार्च 2018 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि देश के 1,765 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. जाहिर सी बात है कि भाजपा और मोदी जी ने भी राजनीति को अपराध मुक्त बनाने के जो वादे और दावे किए थे, वह भी उनके सत्ता संभालने के सवा सात साल बाद भी पूरा होने के बजाय कोरा जुमला ही साबित हुए. इस दौरान उनकी पार्टी के कई सांसदों, मंत्रियों और विधायकों पर भी कई तरह के अपराध कर्म में शामिल होने के गंभीर आरोप लगे लेकिन उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने की बात तो दूर, उन्होंने सामान्य नैतिकता के आधार पर किसी का इस्तीफ़ा तक नहीं लिया.

    
सुप्रीम कोर्टः राजनीतिक व्यवस्था के अपराधीकरण का खतरा
    सच तो यह है कि राजनीति में तेजी से बढ़ रहे अपराधीकरण को रोकने के लिए कोई भी राजनीतिक दल ठोस कदम उठाने को तैयार नहीं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी और आदेशों के जरिए न सिर्फ सरकार और विपक्ष बल्कि हमारी पूरी राजनीतिक व्यवस्था पर भी करारा तमाचा जड़ा है. सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड सार्वजनिक नहीं करने को अदालत के आदेश की अवमानना मानते हुए बिहार में भाजपा और कांग्रेस समेत आठ राजनीतिक दलों पर एक लाख से लेकर पांच लाख रुपए तक का जुर्माना लगाया. बिहार विधानसभा के चुनाव में विभिन्न दलों के तकरीबन 70 प्रतिशत उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे चल रहे थे. लेकिन अदालती के आदेश के बावजूद  इन पार्टियों ने अपने अपराधी पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों का विवरण सार्वजनिक नहीं किया था. आर्थिक जुर्माना लगाने के साथ ही सख्त निर्देश जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी राजनीतिक दलों को चयन के 48 घंटों के भीतर अपने उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि को अपने वेबसाइट पर सार्वजनिक करना होगा. उम्मीदवार के चयन के 72 घंटे के अंदर इसकी रिपोर्ट चुनाव आयोग को भी सौंपनी होगी. चुनाव आयोग से भी इन सब बातों पर निगरानी रखने के लिए एक अलग प्रकोष्ठ बनाने को कहा गया है. यह प्रकोष्ठ सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के पालन पर निगरानी रखेगा.

हाईकोर्ट की अनुमति के बिना जन प्रतिनिधियों के मुकदमों की वापसी नहीं  ! 


    
चीफ जस्टिस एन वी रमनः माननीयों पर मुकदमों की
वापसी के लिए हाईकोर्ट की अनुमति जरूरी
    सुप्रीम कोर्ट ने एक और मामले में महत्वपूर्ण आदेश जारी करते हुए कहा है कि राज्य सरकारें अब आपराधिक मामलों का सामना कर रहे जन प्रतिनिधियों के खिलाफ दर्ज मुकदमों को उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना वापस नहीं ले सकेंगी. अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्याधीश एन वी रमन, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस विनीत सरन की पीठ ने सितंबर 2020 के बाद सांसदों-विधायकों के विरुद्ध वापस लिए गए मुकदमों को दोबारा खोलने का आदेश भी दिया. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह बड़ा कदम एमिकस क्यूरी (न्याय मित्र) अधिवक्ता विजय हंसारिया की रिपोर्ट के मद्देनजर उठाया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश सरकार मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी बीजेपी विधायकों तथा कुछ अन्य लोगों के खिलाफ 76 तथा कर्नाटक सरकार अपने विधायकों के खिलाफ 62 मामलों को वापस ले चुकी है. उत्तराखंड, महाराष्ट्र और कुछ अन्य राज्य सरकारें भी इसी तरह अपने लोगों पर चल रहे आपराधिक मामले वापस लेने में लगी हैं. इससे पहले भी राज्य सरकारें अपने करीबी नेताओं पर चल रहे आपराधिक मुकदमों को जनिहत के नाम पर वापस लेती रही हैं. सरकारें अपनी पार्टी के नेताओं, सांसदों- विधायकों के खिलाफ अदालतों में लंबित आपराधिक मामले वापस ले लेती हैं, इसलिए भी नेता, जन प्रतिनिधि बेखौफ होकर अपराध करते हैं. उत्तर प्रदेश सरकार ने तो सत्ता संभालते ही मुख्यमंत्री आदित्यनाथ पर चल रहे मुकदमों को वापस लेने के साथ ही भाजपा नेता, पूर्व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री स्वामी चिन्मयानंद पर चल रहे बलात्कार के मामले को वापस ले लिया था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस ताजा आदेश से नेताओं, पार्टियों ओर सरकार के कान कस दिए हैं.

    सुप्रीम कोर्ट के इन आदेशों के बाद कहा जा सकता है कि अपराधी छवि वाले नेताओं के लिए चुनाव लड़ने और राजनीतिक दलों को उन्हें उम्मीदवार बनाने में मुश्किलें होंगी. लेकिन क्या इससे राजनीति में अपराधीकरण पर रोक भी लग सकेगी! दरअसल, दशकों पहले से राजनीति के अपराधीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, उसमें अपराधियों का राजनीतिकरण अब आम बात हो गई है. पांच दशक पहले तक राजनीतिक दल और उनके नेता चुनाव जीतने के लिए अपराधियों, बाहुबलियों और धनबलियों का इस्तेमाल करते थे. बाद में जब इन लोगों को लगा कि वे किसी को चुनाव जिता सकते हैं तो खुद भी तो जीत सकते हैं. इसी सोच के तहत 1980 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में तकरीबन डेढ़ दर्जन दुर्दांत अपराधी निर्दलीय चुनाव जीत कर आए. बाद में तकरीबन सभी उस समय के सत्तारूढ़ दल, कांग्रेस में शामिल हो गए. बिहार प्रवास के दौरान मुझे उस समय का एक मजेदार किस्सा सुनने को मिला. एक चुनावबाज नेता जी ने अपने सहयोगी रहे एक बड़े अपराधी को पत्र लिखा कि इस बार फिर वह चुनाव लड़ रहे हैं. पिछली बार की तरह इस बार भी चुनाव में उनकी जरूरत पड़ेगी. लिहाजा, हरबा- हथियार और गुर्गे लेकर उनके चुनाव क्षेत्र में पहुंच जाएं. उधर से जवाब आया, भाई जी, इस बार तो हम खुद ही चुनाव लड़ रहे हैं. नतीजा ! अपराधी जीत गया और नेता जी चुनाव हार गए.

    एक समय था जब भ्रष्ट, सांप्रदायिक और अपराधी छवि के लोगों का समाज में हेय या कहें नफरत की निगाह से देखा जाता था. उनके चुनाव लड़ने की बात तो दूर, उनके साथ जुड़ाव भी शर्मिंदगी का कारण बनता था. लेकिन हाल के दशकों में इस तरह के लोगों की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ी है. भ्रष्ट और अपराधी छवि के लोगों-नेताओं को उनकी जाति और धर्म के लोगों का भरपूर साथ मिलने लगा है. अब इसे उनका डर कहें या उनके पैसों और बाहुबल का प्रभाव, ये लोग किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होकर या निर्दलीय चुनाव लड़कर भी आसानी से जीत जाते हैं. इस दौरान इन पर लगे आपराधिक मामलों के बारे में लोग कतई नहीं सोचते हैं. राजनीति में वोटों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में सियासी दलों के बीच आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को अपने पाले में लाने की होड़ सी लगी रहती है. राजनीतिक दलों में इस बात की प्रतिस्पर्धा रहती है कि किस दल में कितने उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, क्योंकि इससे उनके चुनाव जीतने की संभावना बढ़ जाती है. यह भी एक कारण है कि भारत के बड़े हिस्सों में चुनावी राजनीति के मुद्दे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, मूलभूत सुविधाएं न होकर जाति और धर्म होने लगे हैं. इसकी वजह से इन भ्रष्ट और आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं की जीत आसान हो जाती है. चुनाव जीतने के बाद ये लोग अपने समर्थकों और विरोधियों का 'ध्यान' भी रखते हैं.

    इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए फैसले और टिप्पणियां करते रहा है. 2002 में सभी तरह के चुनाव में उम्मीदवारों को उनकी आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक पृष्ठभूमि की घोषणा को अनिवार्य बनाया गया. 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने दो साल से ज्यादा कारावास की सजा पाने वाले सांसदों और विधायकों के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी थी. 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दोषी ठहराए गए, सांसदों और विधायकों को उनके पद पर बने रहने की अनुमति के खिलाफ फैसला सुनाया था. इसी साल सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ईवीएम में नोटा का बटन भी जोड़ा गया था. ताकि मतदाताओं को अगर एक भी उम्मीदवार पसंद नहीं हों तो वे नोटा (यानी कोई नहीं) का बटन दबाकर अपनी नपसंदगी जाहिर कर सकते हैं. लेकिन यह उपाय भी ठोस और कारगर साबित नहीं हो सका क्योंकि इसके जरिए मतदाता अपना आक्रोश और नापंसदगी तो व्यक्त कर सकते हैं लेकिन चुनावी नतीजे को प्रभावित नहीं कर सकते. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों से गंभीर अपराध के आरोपों वाले नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करने की सिफारिश की थी. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने जन-प्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों के तेजी से निपटारे के लिए विशेष अदालतों के गठन का आदेश दिया था. कुछ राज्यों में त्वरित अदालतें गठित भी हुईं लेकिन नतीजा क्इया निकला! 

    दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की भी अपनी कुछ सीमाएं हैं. वह राज्य की विधायिका के कार्यों पर सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकता है. दागी उम्मीदवारों को उम्मीदवार बनाने या उन्हें टिकट नहीं देने का निर्णय राजनीतिक दलों को और उन्हें जिताने-हराने का काम मतदाताओं को करना होता है. अगर राजनीतिक दल इस मामले में अपनी ओर से कोई पहल नहीं करें तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है ! लिहाजा हमारे राजनीतिक दलों को ही एक राय से गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को राजनीति से परे रखने के लिए इस दिशा में ठोस पहल करने के साथ ही संसद से कड़ा कानून भी बनाना होगा. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि संसद से कानून बनाकर आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को राजनीति में आने से रोका जाना चाहिए. अभी जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 दोषी और दो वर्ष या उससे अधिक की सजा प्राप्त राजनेताओं को चुनाव लड़ने से रोकती है. लेकिन ऐसे नेता जिन पर कई आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, वे चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र हैं. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन पर लगे आरोप कितने गंभीर हैं. लेकिन कई बार बहुत सारे राजनीतिक दलों के नेता-कार्यकर्ताओं पर राजनीतिक विरोध, धरना, प्रदर्शन और आंदोलन के क्रम में तथा आंदोलन के दौरान यदा-कदा हुई हिंसक घटनाओं को लेकर भी मुकदमे दर्ज होते रहते हैं. उनका क्या होगा. इस पर भी हमारी सर्वोच्च अदालत, संसद और अन्य संबद्ध संस्थाओं को विचार करने की आवश्यकता है. आजादी के 74 साल बाद भी हमारी राजनीतिक व्यवस्था गंभीर प्रवृत्ति के अपराधियों और राजनीतिक आंदोलनों में निरुद्ध होनेवाले लोगों में फर्क नहीं कर सकी है. अंग्रेजों के जमाने से ही राजनीतिक धरना, प्रदर्शन और आंदोलन में शामिल लोगों को भी अपराध की उन्हीं धाराओं में निरुद्ध किया जाता है जिनके तहत गंभीर किस्म के अपराधियों पर मुकदमें दर्ज होते हैं. राजनीतिक विरोध, धरना, प्रदर्शन और आंदोलन से जुड़े मामलों को अपराध की सामान्य परिभाषा से अलग करने पर विचार करना होगा.

    बहरहाल, क्या हमारी सरकार और हमारे राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देशों के अनुरूप इस मामले में कोई ठोस पहल करेंगे ! दरअसल, सभी दल चुनाव सुधारों की बात तो जोर शोर से करते हैं लेकिन मौका मिलते ही अपनी चुनावी जीत सुनिश्चित करने के लिए उन सभी बुराइयों का लाभ लेने में जुट जाते हैं जिनका चुनाव सुधारों के क्रम में निषेध आवश्यक है. यह आश्चर्यजनक नहीं है कि डेढ़ साल पहले भाजपा और मोदी जी अपने घोषणापत्र से लेकर भाषणों में भी राजनीति को अपराधमुक्त करने का जो नारा देते थे, 2019 के लोकसभा चुनाव के समय उसे वे भूल ही गए. मोदी जी के चुनावी भाषणों और भाजपा के घोषणापत्र से भी राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाने की बात गायब हो गई.



Tuesday, 25 December 2018

संसदीय गतिरोध ( Parliamentry Disruptions) और हमारे राजनीतिक दल

संसद के सुचारु संचालन में किसकी रूचि है  

जयशंकर गुप्त 

संसद के देर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र के दौरान दोनों सदनों-लोकसभा और राज्यसभा में प्रायः प्रत्येक दिन एक ही तरह के दृश्य नजर आ रहे हैं. एक तरफ विपक्ष और खासतौर से कांग्रेस के सांसद राफेल युद्धक विमानों की खरीद में कथित घपले की जांच जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति से करवाने की मांग को लेकर हल्ला-हंगामा कर रहे होते हैं तो वहीं दूसरी तरफ हाथों में प्लेकार्ड लिए सत्तारूढ़ भाजपा के सदस्य कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से राफेल खरीद के संबंध में अपने बयान के लिए माफी मांगने के नारे लगाते हैं. आसंदी के पास ही हाथों में प्लेकार्ड लिए सत्तापक्ष के ही सहयोगी अन्ना द्रमुक के सांसद कावेरी जल विवाद में तमिलनाडु के साथ ‘न्याय’ की मांग को लेकर हंगामा करते हैं. बीच बीच में तेलुगु देशम के सदस्य आंध्र प्रदेश को विशेष आर्थिक पैकेज की मांग पर हंगामा करते हैं. इस तरह के शोरगुल और हंगामे के बीच लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति या अन्य पीठासीन अधिकारी कुछ जरूरी संसदीय दस्तावेज सदन पटल पर रखवाते हैं, कुछ विधेयक भी विपक्ष की पर्दे के पीछे की ‘रजामंदी’ से बिना किसी चर्चा और बहस के पास कराए जाते हैं और फिर दोनों सदनों की कार्यवाही पहले टुकड़ों में और फिर अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दी जाती है. 

इस तरह 11 दिसंबर से शुरू हुए संसद के शीतकालीन सत्र के सात दिन सम्मानित सांसदों के शोर गुल, आसंदी के पास आकर किए जानेवाले हल्ला-हंगामे की भेंट चढ़ गये. और जिस तरह की सूचनाएं मिल रही हैं, अगले साल आठ जनवरी तक के लिए निर्धारित इस सत्र के बाकी दिनों में भी इसी तरह के दृश्य नजर आ सकते हैं. संसद का यह शीतकालीन सत्र राजधानी में ठंड के लगातार बढ़ते जाने के बावजूद सदन के भीतर हल्ला हंगामे और नारेबाजी से पैदा हो रही राजनीतिक गरमी की भेंट चढ़ने के लिए अभिशप्त लग रहा है.
राफेल युद्धक विमानों की खरीद के मामले में मोदी सरकार जिस तरह से घिरते नजर आ रही है, खासतौर से राफेल खरीद के मामले में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले में सरकार की सर्वोच्च अदालत को गुमराह करने के इरादे से की गई जालसाजी का खुलासा होने के बाद छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में जीत से उत्साहित कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इस मुद्दे को आसानी से छोड़ने और इसकी जांच जेपीसी से करवाने से कम पर मानने  के मूड में नहीं दिख रहे. लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खरगे कहते भी हैं, ‘‘राफेल पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला सरकार के उस कथित दस्तावेज पर आधारित है जिसमें कहा गया है कि राफेल सौदे पर सीएजी की रिपोर्ट में खरीद प्रक्रिया में किसी तरह की गलती नहीं मानी गई और सीएजी रिपोर्ट को संसद और उसकी पीएसी यानी लोक लेखा समिति भी देख चुकी है. लेकिन सच तो यह है कि सीएजी ने अभी तक इस तरह की कोई रिपोर्ट संसद अथवा इसकी पीएसी को दी ही नहीं है.’’ इस लिहाज से देखें तो सरकार का सीलबंद लिफाफे में दिए दस्तावेज में ‘स्पेलिंग मिस्टेक’ का तर्क भी बेमानी हो जाता है. वित मंत्री अरुण जेटली खुद कहते हैं, ‘‘राफेल की आडिट जांच सीएजी के पास लंबित है. उसके साथ सभी तथ्य साझा किए गए हैं. जब सीएजी की रिपोर्ट आएगी तो उसे संसद की पीएसी को भेजा जाएगा. इसके बावजूद यदि अदालत के आदेश में किसी तरह की विसंगति है तो कोई भी न्यायालय के समक्ष उसे ठीक करवाने के लिए अपील कर सकता है.’’ सवाल एक ही है कि जब सीएजी ने अपनी रिपोर्ट अभी तक दी ही नही तो सुप्रीम कोर्ट में खरीद प्रक्रिया के बेदाग होने संबंधित दावे किस रिपोर्ट के आधार पर किए गए और किसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया.  खरगे का मानना है कि इस मामले की जेपीसी जांच से ही दूध का दूध और पानी का पानी संभव है. 

लेकिन यूपीए शासन के दौरान कथित कोयला घोटाले, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच की मांग को लेकर संसद के सत्र दर सत्र बाधित करने ( पिछली लोकसभा का 68 प्रतिशत समय भाजपा के नेतृत्व में  हुए हंगामों के कारण बरबाद हुआ था.) और उसके समर्थन में तर्क देनेवाले भाजपा के नेता  अब राफेल खरीद की जेपीसी जांच को गैर जरूरी बताने के तमाम बहाने पेश करने में लगे हैं. मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाले यूपीए शासन के दौरान सदन में हल्ला हंगामे को भी विपक्ष का महत्वपूर्ण संसदीय दायित्व परिभाषित करनेवाले जेटली अब जेपीसी की जांच को गैर जरूरी बता रहे हैं, ‘‘बोफोर्स तोप सौदे की जेपीसी जांच का क्या अनुभव रहा. सिर्फ वही एक उदाहरण है जब किसी रक्षा सौदे की जांच जेपीसी ने की थी. जेपीसी के सदस्य दलीय निष्ठा के आधार पर बंटे होते हैं.’’ लेकिन इस ज्ञान के बावजूद जेटली, लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज के नेतृत्व में तत्कालीन विपक्ष यूपीए शासन में कथित घोटालों की मांग पर क्यों जिद ठाने और संसद के सत्र दर सत्र बाधित करने में लगा रहा? इस बात का जवाब भाजपा के नेताओं के पास अभी नहीं है. उनके ही तर्क को मान लें कि जेपीसी में सत्ता पक्ष का बहुमत होता है और उसके सदस्य दलीय निष्ठा के आधार पर बंटे रहते हैं तो सरकार राफेल की जेपीसी जांच से भाग क्यों रही है?
लेकिन इस बार तो एक और मजेदार दृश्य सामने आ रहा है जब सत्तारूढ़ दल खुद ही इस बात के लिए इच्छुक नहीं दिख रहा है कि संसद सुचारु ढंग से चले. शायद यह पहली बार है कि संसद चलाने के लिए गंभीर और सकारात्मक प्रयास करने के बजाय सत्तारूढ़ भाजपा अपने सदस्यों के हाथों में ‘राहुल गांधी माफी मांगें’ के प्लेकार्ड थमाकर और कभी अपने सहयोगी, क्षेत्रीय दलों के जरिए सदन में आसंदी के पास हल्ला हंगामा करवाकर दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित करने में लगी हुई है. एक तरफ संसदीय कार्य मंत्री विजय गोयल कहते हैं कि सरकार राफेल पर भी चर्चा के लिए तैयार है, दूसरी तरफ जब मंगलवार को राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि उन्होंने राफेल विमान सौदे पर सुप्रीम कोर्ट को कथित तौर पर गुमराह किए जाने पर चर्चा के लिए नोटिस दिया है, राज्यसभा के सभापति ने कहा कि यह मुद्दा फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. बुधवार, १९ दिसंबर को भी गृह मंत्री राजनाथ सिंह और संसदीय कार्य मंत्री नरेंद्रसिंह तोमर ने कहा कि सरकार राफेल पर चर्चा के लिए तैयार है लेकिन विपक्ष का दबाव जेपीसी जांच की घोषणा और उसके कार्यस्थगन प्रस्ताव पर चर्चा कराए जाने के लिए ही है. जाहिर है कि सरकार इसके लिए आसानी से तैयार होनेवाली नहीं है क्योंकि विपक्ष का मानना है कि सरकार खुद संसद के भीतर सार्थक और सकारात्मक चर्चा और विपक्ष के संसदीय अधिकारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. विपक्ष के नेता आरोप लगाते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री रहते अपने गुजरात के विधायी अनुभवों को यहां भी दोहराना चाहते हैं. वहां दो तरह से विधानसभा के सत्र चलते थे. जब उन्हें कोई महत्वपूर्ण विधेयक पास कराने होते थे तो वह किसी न किसी बहाने विपक्ष के विधायकों को एक खास अवधि के लिए निलंबित करवा देते थे या फिर हल्ला हंगामे के बीच अपना विधायी कार्य संपन्न करवाते थे. कमोबेस वही तरीका प्रधानमंत्री बनने के बाद वह यहां संसद में भी अपनाना चाहते हैं. इसकी बानगी 2015 में लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी नियम 374ए के तहत कांग्रेस के 44 में से 25 सदस्यों को सदन से निष्कासित करने के रूप में पेश की थी. लेकिन उनके इस फैसले के खिलाफ सात विपक्षी पार्टियों ने लोकसभा के बायकाट में कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की तो फैसला वापस लेना पड़ा था. लेकिन उसके बाद उन्होंने दूसरा तरीका अपनाना शुरू कर दिया कि महत्वपूर्ण विधायी कार्य सदन में चल रहे हल्ला हंगामे के बीच ही निपटाए जाएं. ऐसे कई अवसर आए जबकि अध्यक्ष ने अत्यंत महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विधेयक तो बिना चर्चा के ही पारित कराए जबकि कई बार अनेक महत्वपूर्ण विषयों मसलन विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए वह इसलिए तैयार नहीं हुईं क्योंकि सदन व्यवस्थित नहीं था. 
हालांकि भाजपा के वरिष्ठ सांसद, लोकसभा के पीठासीन अधिकारियों में से एक हुकुमदेव नारायण यादव विपक्ष के इस आरोप को गलत बताते हैं कि सरकार और प्रधानमंत्री मोदी नहीं चाहते हैं कि संसद सुचारु रूप से चले. वह कहते हैं, ‘‘मोदी जी जितना संसद में मौजूद रहते हैं, यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उसका आधा समय भी संसद को नहीं देते थे.’’ लेकिन तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद सौगत राय के अनुसार ताजा प्रकरण में तो साफ है कि सरकार सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलने देना नहीं चाहती. संसदीय गतिरोध के चलते राफेल खरीद के साथ ही किसानों की समस्या-आत्महत्या, बेराजगारी, प्राकृतिक आपदा, संवैधानिक संस्थाओं के ‘ब्रेक डाउन’ आदि जन सरोकार के महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी संसद में चर्चा नहीं हो पा रही. दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद और विधानमंडलों में भी वास्तविक मुद्दों पर चर्चा का समय नहीं मिल पाता. संसद और विधानमंडलों की कार्यअवधि भी लगातार कम होती जा रही है.’’ 

हुकुमदेव नारायण यादव के अनुसार, संसद की नियमावली के तहत सदन में चर्चा के कई प्रावधान हैं. लेकिन विपक्ष का उन प्रावधानों का उपयोग नहीं करना और अपनी मर्जी के मुताबिक बहस के नियम तय करने पर जोर देना सदन की कार्य संचालन नियमावली के विरुद्ध है. इसके लिए वह क्षेत्रीय दलों को भी जिम्मेदार मानते हैं, ‘‘क्षेत्रीय दल अपने क्षेत्रीय हितों के लिए संसद का दुरुपयोग करते हैं. ‘प्लेकार्ड’ के साथ हल्ला हंगामा करके वे अपने क्षेत्र और राज्य के लोगों को संदेश देना चाहते हैं कि वे संसद के भीतर अपने लोगों के लिए लड़ रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार उनकी अनदेखी कर रही है. तकरीबन सभी क्षेत्रीय दलों की यही मानसिकता है, उनकी दृष्टि राष्ट्रीय न होकर क्षेत्रीय होती है. यह समग्रता में राष्ट्र और राजनीति दोनों के लिए दुखद है.’’ 

 बहरहाल, जिम्मेदार चाहे सत्ता पक्ष हो अथवा विपक्ष और क्षेत्रीय दल, सच यही है कि संसद के दोनों सदनों का समय हल्ला हंगामे की भेंट चढ़ रहा है. संसदीय विशेषज्ञों का मानना है कि संसद मुख्य रूप से विपक्ष का फोरम होता है जहां वह विभिन्न नियम प्रावधानों के जरिए सरकार की नाकामियों और गलतियों को सामने लाकर उसे कठघरे में खड़ा करता है. अपनी बात पर जोर देने के लिए यदा कदा वह सदन में हल्ला हंगामे और सदन की कार्यवाही बाधित करने के अपने संसदीय अस्त्र का सहारा भी लेता है. सरकार अपने जवाबों से विपक्ष को संतुष्ट करने और अपनी उपलब्धियों को सामने लाने के प्रयास करती है. उसका संसदीय कौशल उत्तेजित विपक्ष को शांत करने और सहमति के बिंदुओं को सामने लेकर सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से संचालित करने के काम आता है. इस काम में सदन में उसका बहुमत भी सहायक भूमिका निभाता है. लेकिन हाल के वर्षों में सरकारें विपक्ष की इस भूमिका को स्वीकार करने के बजाय उसकी आवाज को दबाने की कोशिशें ही करते नजर आती हैं. मजेदार बात यह है कि आज जिस संसदीय गतिरोध के लिए सत्ता पक्ष यानी भाजपा कांग्रेस और विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रहा है, विपक्ष में रहते उसे ही विपक्ष का संसदीय दायित्व और अधिकार मानता था. 

पिछले दिनों विधायिकाओं के महत्व समझाते हुए उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडु ने कहा कि सदन के सभापति के मंच के पास जाने वाले विधायकों को तुरंत निलंबित करने की व्यवस्था होनी चाहिए. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी शुक्रवार, 21 दिसंबर को सदन को बाधित करनेवाले सांसदों को नियंत्रित और अनुशासित करने की गरज से सदन की ‘रूल्स कमेटी’ की बैठक बुलाई. उन्होंने साफ किया कि वह नियम के विपरीत सदन की कार्यवाही नहीं चला सकती हैं. कमिटी ने आसंदी के पास आकर हल्ला हंगामा करनेवालों के स्वतः निलंबन का प्रस्ताव किया है. 

विडंबना इसी बात की है की आज सदन के बीच में प्लेकार्ड के साथ हल्ला हंगामा कर रहे सांसदों को नसीहत देने, उन्हें स्कूली बच्चों से भी बदतर बताने, उन्हें संसदीय अनुशासन का पाठ पढ़ाने के साथ ही ऐसा करनेवाले सांसदों के विरुद्ध कार्रवाई के नियम उपाय तलाशने में लगी लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू स्वयं यूपीए शासन के दौरान हल्ला हंगामा करनेवाले भाजपा सांसदों के साथ खड़े दिखते और संसदीय गतिरोध को जायज ठहराते थे. कोल गेट और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच के लिए जबरदस्त हंगामा कर संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित करने के पक्ष में राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता अरुण जेटली का बयान काबिले गौर है, ‘‘हम लोगों ने जिस मुद्दे पर इस सत्र में हंगामा शुरू किया है उसे हम जनता के बीच ले जाएंगे, जब तक कि निष्पक्षता और जवाबदेही बहाल नहीं हो जाती. अगर संसद के प्रति जवाबदेही का पालन नहीं किया जाता है और बहस सिर्फ इसे समाप्त करने के लिए रखी जाती है, तब विपक्ष के लिए यह रणनीति वैध हो जाती है कि वह उन सभी संसदीय उपायों से सरकार का भंडाफोड़ करे, जिन्हें इस्तेमाल करना उसके हाथ में है.’’ उस समय वह संसदीय गतिरोध को जायज ठहरा रहे थे. उन्होंने कहा, ‘‘बाधा पहुंचाने का अर्थ यह नहीं है कि काम मत करो. हम तो वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं.’’ यह पूछे जाने पर कि क्या संसद का उपयोग बाधा पहुंचाने के बजाय चर्चा के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जेटली का सीधा जवाब था, ‘‘राष्ट्रीय बहस तो जारी है. हर पहलू पर चर्चा हो रही है, भले ही संसद में नहीं हो रही है. यह बहस दूसरी जगह जारी है. हमारी रणनीति यह है कि संसद में इस पर बहस मत होने दो, बस.’’ लोकसभा में विपक्ष की नेता रहीं सुषमा स्वराज से उस समय जब पूछा गया कि क्या वह नहीं जानतीं कि संसद के कामकाज में बाधा पहुंचाने से राष्ट्रीय खजाने को कितना नुकसान होता है, उन्होंने सहमति जताते हुए कहा था, ‘‘संसद सत्र का अगर इस तरह समापन होता है तो आलोचना होती है. हमसे कहा जाता है कि संसद को चलने नहीं दिया गया इसलिए नुकसान हुआ. अगर संसद की कार्यवाही नहीं चलने के कारण 10-20 करोड़ का नुकसान हुआ और हम सरकार पर दबाव बना सके तो यह स्वीकार्य है.’’ यही नहीं उस समय लालकृष्ण आडवाणी ने भी कहा था कि विधायी कार्य में बाधा पहुंचाने से भी ‘नतीजे मिलते हैं’. उस समय विपक्षी भाजपा के एक अन्य बड़े नेता यशवंत सिन्हां ने भी तब इसमें जोड़ा था, ‘‘चूंकि सरकार इस मसले पर चुप है इसलिए हमने इसे उठाने का फैसला किया. मैं पूरी ताकत से मांग करूंगा कि सरकार तुरंत जांच करवाने की घोषणा करे. इसकी घोषणा नहीं होने तक हम सदन को कैसे चलने दे सकते हैं?’’ यही नहीं चार साल पहले विपक्ष में खडे़ भाजपा के नेता वेंकैया नायडु से जब यह पूछा गया था कि सदन में हंगामा कर रहे भाजपा के सांसदों का यह तरीका असंसदीय नहीं है? उन्होंने कहा था, ‘‘हम नए तरीके ईजाद करें ताकि जवाबदेही के सिद्धांत की बलि न चढ़े. हम चुप नहीं रहेंगे. हम लड़ाई को जनता के बीच ले जाएंगे.’’

जाहिर है कि अब भूमिकाएं बदल चुकी हैं. सत्तारूढ़ हो गए भाजपा के नेताओं की भाषा बदली हुई है. लेकिन विपक्ष की भूमिका में आ गई कांग्रेस और इसके सहयोगी दल भी अब अतीत में भाजपा की विपक्षवाली भूमिका का अनुसरण करते हुए भाजपानीत सरकार को घेरने में लगे हैं. राफेल युद्धक विमानों की खरीद मामले में सरकार को संसद के भीतर घेरने से लेकर विपक्ष की रणनीति इसे सड़कों पर ले जाने और 2019 के आम चुनाव में अन्य बातों के साथ ही इसे मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने की लगती है. जाहिर सी बात है कि दोनों पक्षों के अपनी जिद पर अड़े रहने के कारण संसद के सुचारु ढंग से चल पाने की सम्भावना बहुत कम ही रह जाती है.