भाजपा के लिए अच्छे नहीं हैं रुझान और संकेतजयशंकर गुप्त
दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों के लिए मतदान कल संपन्न हो गए। तमाम टीवी चैनलों के द्वारा कराए गये ओपिनियन पोल्स की तरह एक्जिट पोल्स के रुझान भी यही बता रहे हैं कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी लगातार तीसरी बार और भारी बहुमत से दूसरी बार सरकार बनाने जा रहे हैं। हालांकि हमारे लिए ओपिनियन पोल्स और एक्जिट पोल्स की विश्वसनीयता हमेशा से संदिग्ध रही है। उनमें से कुछ के रुझान जब शत प्रतिशत या थोड़ा कम अधिक सच साबित हुए तब भी और जब पूरी तरह से गलत हुए तब भी। हमारे लिए ओपिनियन पोल्स और एक्जिट पोल्स मनोरंजन का साधन अधिक लगते हैं।
हमने दिसंबर 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय भी तमाम ओपीनियन और एक्जिट पोल्स को खारिज करते हुए सार्वजनिक तौर पर, एक टीवी चैनल पर वरिष्ठ पत्रकारों, संपादकों के साथ चुनावी चर्चा में कहा था कि 'आप' को 30 से कम सीटें नहीं मिलेंगी। तब हमारी बात कोई मानने को तैयार न था। आप के खाते में तब सीटें आई थीं 29।
2015 के विधानसभा चुनाव में भी शुरू से हमारा मानना रहा कि 'आप' को स्पष्ट बहुमत मिल जाएगा, लेकिन जब अरविंद केजरीवाल के बारे में प्रधानमंत्री मोदी जी और उनकी पार्टी के बड़े हो गए बौने नेताओं के मुंह से 'सुभाषित' झरने लगे, बौखलाहट में भाजपा की चुनावी राजनीति के चाणक्य और खासतौर से लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत के सूत्रधार कहे जानेवाले भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने मतदान से दो दिन पहले अपना रणनीतिक ज्ञान बांटा कि विदेश में जमा कालाधन लाकर प्रत्येक भारतीय के बैंक खाते में 15 लाख रु. जमा करने का वादा चुनावी जुमला भर था और यह भी कि दिल्ली का यह चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के कामकाज पर रेफरेंडम नहीं माना जाना चाहिए, हमने कहना शुरू किया कि 'आप' को 50 से अधिक सीटें मिल सकती हैं,शं पता नहीं सीटों का आंकड़ा कहां जाकर फिट बैठेगा। नतीजे आए तो आप के खाते में 67 सीटें आईं और भाजपा को तीन सीटों तथा कांग्रेस को शून्य पर संतोष करना पड़ा था।
इस बार के सभी ओपिनियन और एक्जिट पोल्स के रुझान एक बात पर एक राय रहे हैं कि दिल्ली में केजरीवाल फिर प्रचंड बहुमत से सरकार बना रहे हैं और भाजपा की नफरत के आधार पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और चुनाव में साम दाम दंड भेद का इस्तेमाल कर तकरीबन 22 साल बाद दिल्ली में सत्तारूढ़ होने की रणनीति कारगर होते नहीं दिख रही। किसी ने भी भाजपा को 'आप' पर बढ़त अथवा बहुमत के पास पहुंचने के रुझान भी नहीं बताए हैं। ऐसे में कोई करिश्मा, करामात ही अमित शाह से लेकर मनोज तिवारी के 45 से अधिक सीटें जीतने के दावे को सच साबित कर सकते हैं।
दिल्ली के चुनावी नतीजे 11 फरवरी को सामने आएंगे। संभव है कि वास्तविक नतीजे एक्जिट पोल्स के रुझानों को गलत साबित कर दें। मतदान से दो तीन दिन पहले कच्ची, झुग्गी बस्तियों में भाजपा नेताओं, सांसदों की 'सक्रियता' और हिन्दू-मुसलमान के बीच सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति भाजपा को सत्तारूढ़ बनाने या सत्ता के मुहाने तक पहुंचाने में कारगर साबित हो जाए। और यह भी संभव है कि दिल्ली में 'आप' की एक बार फिर राजनीतिक सुनामी ही देखने को मिले। हर हाल में भाजपा और कांग्रेस को भी आत्म चिंतन, मंथन कर अपनी चुनावी रणनीति पर पुनर्विचार करने का समय आ गया लगता है। कांग्रेस के लिए अभी भी अपने बूते दिल्ली में सत्ता बहुत दूर हो गई लगती है। इस बार तो लगता है कि कांग्रेस के उम्मीदवार भले ही मैदान में डटे रहे हों, अधिकतर सीटों पर भाजपा विरोधी मतों का विभाजन रोकने की अलिखित या अघोषित रणनीति के तहत कांग्रेस ढीली पड़ी ही दिखी।
इस बार फिर शुरू से ही लग रहा था कि केजरीवाल के 'काम बोलता है' के मुकाबले मोदी, शाह जी की शिगूफे-जुमलेबाजी टिकनेवाली नहीं है। केजरीवाल के आम जन को दिखने और आकर्षित करने वाले कामों की काट करने, उन्हें काम और विकास के मामले में घेरने और अपने ( केंद्र सरकार, दिल्ली पुलिस, डीडीए, भाजपा के वर्चस्ववाले तीनों नगर निगमों, नई दिल्ली नगरपालिका और सात सांसदों) के कामों, उपलब्धियों को जनता के सामने तुलनात्मक ढंग से रखने के बजाय भाजपा नेतृत्व और उसके रणनीतिकारों ने चुनाव को हिन्दू-मुसलमान के बीच नफरत की दीवार को चौड़ी कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करवाने पर जोर दिया। सीएए और एनआरसी के विरोध में शाहीनबाग और देश के विभिन्न हिस्सों में भारतीय संविधान, गांधी और अंबेडकर की तस्वीरों, तिरंगे और राष्ट्रगान के साथ शांतिपूर्ण और अहिंसक धरना-प्रदर्शन कर रहे लोगों की बात सुनने, उनकी समस्या, आशंकाओं का समाधान करने अथवा समाधान का आश्वासन देने के बजाय सरकार और भाजपा ने उनके दमन-उत्पीड़न के साथ ही उन्हें 'देश द्रोही', गद्दार साबित कर उनके विरुद्ध चुनाव लड़ने की रणनीति अपनाई। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के साथ ही उनके तमाम नेताओं, मंत्रियों, सांसदों और मुख्यमंत्रियों ने इसी रणनीति के तहत सांप्रदायिकता के जहर बुझे नारे और भाषणों को अपने चुनाव अभियान का आधार बनाया। एक आधी, अधूरी दिल्ली सरकार पर काबिज होने के लिए साम-दाम, दंड-भेद की रणनीति पर अमल करते हुए भाजपा और बचे खुचे 'राजग' की पूरी राजनीतिक ताकत दिल्ली में झोंक दी, खुद को चुनावी रणनीति का आधुनिक 'चाणक्य' के रूप में प्रचारित करनेवाले गृहमंत्री अमित शाह स्वयं गली-गली घूमते हुए वोट मांगते और पर्चे बांटते नजर आए। बड़े नेताओं, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों ने गली-मोहल्लों मे चुनावी रैलियां, सभाएं और रोड शो किए। प्रधानमंत्री मोदी ने भी दो चुनावी रैलियों को संबोधित किया। मतदान के दो-तीन दिन पहले आलाकमान ने अपने सांसदों से अपनी चुनावी रातें, गरीबों की कच्ची, झुग्गी बस्तियों में गुजारने का फरमान जारी किया।
हमेशा अपने जहरीले बयानों के कारण विवादित सुर्खियों में रहनेवाले एक केंद्रीय मंत्री भारी नकदी के साथ दूर दराज के रिठाला पहुंच गये। आप समर्थकों ने उन्हें एक जौहरी की दुकान में कैमरे में कैद कर उन पर पैसे बांटने के आरोप लगाए। कायदे से चुनाव प्रचार बंद हो जाने के बाद किसी बाहरी व्यक्ति को, चाहे वह केंद्रीय मंत्री ही क्यों न हो, किसी चुनाव क्षेत्र में घूमने की इजाजत नहीं होती। लेकिन मंत्री जी मतदान की पूर्व संध्या पर रिठाला के बुद्ध विहार पहुंच गये। उन्होंने वहां एक जौहरी की दुकान से अंगूठी खरीदने की बात की है। बिल भी पेश किया है। गोया, बेगूसराय, पटना अथवा दिल्ली के कनाट प्लेस, चांदनी चौक, करोलबाग या फिर और महत्वपूर्ण इलाकों में बड़े नामी गिरामी जौहरियों की दुकान पर उनकी पसंदीदा अंगूठी नहीं मिल सकती थी। उन्होंने बिल का नकद भुगतान कर प्रधानमंत्री के डिजिटल इंडिया को भी अंगूठा ही दिखाया।
बहरहाल, ओपिनियन और एक्जिट पोल्स के रुझानों से ऐसा नहीं लगता कि दिल्ली में भाजपा की चुनावी रणनीति कारगर हुई। हालांकि उसके नेतृत्व और रणनीतिकारों को हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावी नतीजों और उसके बाद के चुनावी परिदृश्य से सबक लेना चाहिए था क्योंकि इन राज्यों में सावरकर को भारत रत्न देने, जम्मू कश्मीर से संविधान की धारा 370 को हटाने, राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले, और फिर सीएए और एनआरसी जैसे भावनात्मक मुद्दों को भुनाने का अपेक्षित राजनीतिक लाभ भाजपा को नहीं मिला। दिल्ली में एक्जिट पोल्स के रुझान भी यही बता रहे हैं कि जन सरोकारों, महंगाई, बेरोजगारी, महिलाओं के साथ जुल्म ज्यादती, भ्रष्टाचार, लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था पर ध्यान देने के बजाय आप अगर हिन्दुत्व, हिन्दू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान के भावनात्मक मुद्दों को उछालकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीतिक रणनीति में ही उलझे रहे तो आनेवाले दिनों में आपके लिए संकेत अच्छे नहीं कहे जा सकते। इसी साल आपको बिहार विधानसभा और फिर आगे पश्चिम बंगाल, असम और तमिलनाडु विधानसभाओं के चुनावों का सामना भी करना पड़ेगा!
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Sunday, 9 February 2020
Tuesday, 9 May 2017
लोकपाल से कौन डरता है
लोकपाल से कौन डरता है: केंद्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए ओंबुड्समैन यानी अपने बहुचर्चित लोकपाल के गठन के लिए कुछ महीने और इंतजार करना पड़ सकता है। वह भी तब, जब इसके गठन को लेकर सरकार की मंशा साफ हो। भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल के गठन की मांग को लेकर समाजसेवी अन्ना हजारे, योग गुरु (व्यवसायी) रामदेव और उनके सहयोगियों के आंदोलन का पुरजोर समर्थन करने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाली राजग सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि लोकसभा में विपक्ष का नेता नहीं होने के कारण लोकपाल की नियुक्ति में विलंब हो रहा है। गौरतलब है कि तमाम अनशन-आंदोलनों, विवादों और संसदीय बहसों के बाद दिसंबर 2013 में पास हुए लोकपाल अधिनियम के तहत लोकपाल की खोज या चयन के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित होने वाली पांच सदस्यीय समिति में लोकसभाध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष के नेता, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अथवा उनके प्रतिनिधि और राष्ट्रपति द्वारा नामित एक कानूनविद् को शामिल किया जाना है। बाकी सब तो ठीक है लेकिन लोकसभा में मान्यता प्राप्त विपक्ष और उसका नेता नहीं होने से चयन समिति का गठन ही नहीं हो पा रहा है। लोकपाल की नियुक्ति तो उसके बाद ही संभव हो सकेगी।
तकनीकी तौर पर लोकसभा के एक दहाई सदस्य होने पर ही किसी दल को विपक्ष और उसके नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा प्राप्त हो सकता है। कांग्रेस ने कुछ अन्य विपक्षी दलों के समर्थन पत्र के सहारे लोकसभा में अपने नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को विपक्ष का नेता घोषित करने का आग्रह किया था, लेकिन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इसे पहली लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा बनाई गई व्यवस्था का हवाला देते हुए अमान्य कर दिया। हालांकि इसी आधार पर देखें तो दिल्ली की 70 सदस्यों की विधानसभा में केवल तीन विधायक होने के कारण भाजपा को मान्यता प्राप्त विपक्ष का दर्जा नहीं मिल सकता था, लेकिन जब आम आदमी पार्टी की सरकार ने भाजपा विधायक दल के नेता विजेंद्र गुप्ता को नेता विपक्ष बनाने का प्रस्ताव किया तो भाजपा को इसे स्वीकार करने में जरा भी झिझक नहीं हुई। यही नहीं, संख्या बल नहीं होने के बावजूद नेता विपक्ष बने विजेंद्र गुप्ता इसी हैसियत से दिल्ली में लोकायुक्त के चुनाव की प्रक्रिया में शामिल भी हुए, लेकिन लोकसभा में भाजपा इस तरह की सदाशयता नहीं दिखा सकी।
बहरहाल, लोकपाल के गठन को लेकर संसद से सडक़ और न्यायपालिका तक बनाए गए विपक्ष एवं सामाजिक संगठनों के दबाव के बाद केंद्र सरकार लोकपाल-लोकायुक्त अधिनियम 2013 में संशोधन कर लोकपाल के लिए चयन समिति में लोकसभा में नेता विपक्ष की जगह सदन में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को शामिल करने पर राजी हो गई। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस आशय का एक प्रस्ताव पारित कर इसके आधार पर संसद में संशोधन विधेयक भी पेश कर दिया, लेकिन उसे पास करने का शुभ मुहुर्त है कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा है।
लोकपाल की नियुक्ति से संबंधित जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करने वाली सर्वोच्च अदालत में न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और नवीन सिन्हा की पीठ के समक्ष सरकार का पक्ष रखते हुए महान्यायवादी मुकुल रोहतगी ने कहा कि लोकपाल की चयन समिति में नेता विपक्ष की जगह लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को शामिल करने का संशोधन विधेयक संसद में विचाराधीन है, उसके फिलहाल, संसद के मौजूदा बजट सत्र में पास होने की संभावना नहीं है क्योंकि सरकार के पास अन्य बहुत सारे विधायी कार्य पड़े हैं। उन्होंने संबंधित संशोधन विधेयक के अगले मानसून सत्र में अथवा उसके बाद ही पास हो पाने की संभावना जताई। हालांकि याचिका दायर करने वाले गैर सरकारी संगठन 'कॉमन कॉज’ की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण ने कहा कि संसद ने लोकपाल विधेयक दिसंबर 2013 में पारित कर दिया और वह वर्ष 2014 से प्रभावी भी हो गया, लेकिन सरकार जान- बूझकर लोकपाल की नियुक्ति नहीं कर रही है। उन्होंने कहा कि लोकपाल कानून यह अनिवार्य करता है कि लोकपाल की नियुक्ति जल्दी से जल्दी हो। दोनों पक्षों की सुनवाई पूरी करने के बाद न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले में फैसला सुरक्षित रखने की बात कही। हालांकि महान्यायवादी रोहतगी की दलील थी कि सर्वोच्च अदालत को संसद के कामकाज में दखल नहीं देना चाहिए क्योंकि लोकपाल कानून के तहत विपक्ष के नेता की परिभाषा से संबंधित संशोधन संसद में अभी लंबित है।
जब तक संसद में यह संशोधन पारित नहीं हो जाता, लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो सकती। लोकपाल पर केंद्र का रुख परेशान करने वाला है। सरकार से पूछा जा सकता है कि जब सरकार और विपक्ष भी राजी है तो यह संशोधन पारित क्यों नहीं हो रहा। मोदी सरकार वित्त विधेयक में विभिन्न प्रकार के 40 संशोधन पास करा सकती है, राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता की वकालत करनेवाले वित्त विधेयक के जरिए राजनीतिक चंदा संबंधी आपत्तिजनक संशोधन पास करवा सकती है। इस संशोधन के बाद कॉरपोरेट घरानों के राजनीतिक दलों को चंदा देने की कोई सीमा नहीं होगी। न ही उन्हें यह जाहिर करने की अनिवार्यता होगी कि उन्होंने किस दल को कितना धन दिया। इसे किसी रूप में भ्रष्टाचार विरोधी कदम भी नहीं कहा जा सकता। अगर यह सब संशोधन बजट सत्र में पास हो सकते हैं तो लोकपाल की चयन प्रक्रिया से संबंधित संशोधन विधेयक पास कराने में ऐसी कौन सी रुकावट है। वैसे भी सरकार ने चाहा तो सीबीआई निदेशक से लेकर सीवीसी की नियुक्ति तक का रास्ता वर्तमान परिस्थितियों में ही ढूंढ़ निकाला गया। ऐसे में यह अर्थ निकालना क्या गलत होगा कि विपक्ष में रहते जन लोकपाल के लिए सडक़ से लेकर संसद तक जोर-शोर से सक्रिय रही भाजपा और उसके सहयोगी दलों की केंद्र सरकार चाहती ही नहीं कि लोकपाल का गठन हो? बहुत मुमकिन है कि सत्ताधारी दल में यह सोच बढ़ रही होगी कि जब चुनावी बहुमत जुटाने की तरकीब उसके पास है, तो सर्वोच्च पदों पर निगरानी करने वाली संस्था का गठन वह क्यों करे।
कहीं ऐसा भी तो नहीं कि लोकपाल की परिधि में प्रधानमंत्री, उनके मंत्री, निगमित घरानों को भी शामिल किए जाने की बात कुछ लोगों को लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने और तेज करने से रोक रही है। हालांकि कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के जमाने में लोकपाल की परिधि में प्रधानमंत्री को भी शामिल कर मजबूत लोकपाल के गठन के लिए लोकसभा और राज्यसभा में भी तत्कालीन विपक्ष यानी भाजपा के नेताओं, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने काफी दबाव बनाया था। समाजसेवी अन्ना हजारे ने दिसंबर 2013 में अपना आमरण अनशन तभी तोड़ा जब मनमोहन सरकार प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के क्षेत्राधिकार में शामिल करने जैसे लोकपाल को और मजबूत बनाने वाले संशोधनों को पारित करने के लिए राजी हो गई। उसके बाद ही लोकपाल अधिनियम अस्तित्व में आया, लेकिन तब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं थे। वैसे भी जबानी तौर पर वह भ्रष्टाचार, कालेधन के विरुद्ध लोकपाल और लोकायुक्त के गठन के पक्ष में जितना भी जोर-शोर से बोलते रहे हों, सत्ता में आने के बाद इसके बारे में उनकी उदासीनता ही सामने आती है। भूलना नहीं चाहिए कि गुजरात में उनके मुख्यमंत्री रहते तकरीबन एक दशक (2003 से दिसंबर 2013) तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो सकी थी, लोकपाल के मामले में तो अभी सवा तीन साल ही बीते हैं! तथाकथित जन लोकपाल अथवा लोकपाल के लिए सडक़ से लेकर संसद तक तूफान खड़ा करने और देश की तमाम समस्याओं, भ्रष्टाचार जैसी तमाम राजनीतिक बुराइयों का समाधान लोकपाल से ढूंढ़ लेने का दावा करनेवाले अन्ना हजारे, रामदेव, अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के लोग कहां खो गए हैं। क्या लोकपाल के नाम पर राजनीतिक तूफान खड़ा करने का मकसद महज सत्ता परिवर्तन तक ही सीमित था!
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