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Wednesday, 1 July 2020

आपातकाल, संघर्ष और सबक


आपातकाल, संघर्ष और सबक

जयशंकर गुप्त
इस 25-26 जून, 2020 को आपातकाल की 45वीं बरसी मनाई जा रही है. इस साल भी पिछले 44 वर्षों की तरह आपातकाल के काले दिनों को याद करने, इस बहाने इंदिरा गांधी के 'अधिनायकवादी रवैए' को कोसने की रस्म निभाने के साथ ही, लोकतंत्र की रक्षा की कसमें खाई जा रही हैं. ऐसा करनेवालों में बहुत सारे वे 'लोकतंत्र प्रहरी' भी हैं जिनमें से कइयों ने और उनके संगठन ने भी आपातकाल में सरकार के सामने घुटने टेक दिए थे या फिर वे जो आज सत्तारूढ़ हो कर अघोषित आपातकाल के जरिए लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं के साथ कमोबेस वही सब कर रहे हैं जिनके लिए हम सब इंदिरा गांधी और उनके आपातकाल को कोसते रहे हैं.
वाकई आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के स्वरों और शब्दों को दबाने के प्रयासों को आज भी न सिर्फ याद रखने बल्कि उनके प्रति चौकस रहने की भी जरूरत है ताकि देश और देशवासियों को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े और भविष्य में भी कोई सत्तारूढ़ दल और उसका नेता वैसी हरकत की हिमाकत नहीं कर सके जैसा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25-26 जून 1975 की दरम्यानी रात में किया था.
उस कालीरात को देश को आपातकाल और सेंसरशिप के हवाले कर नागरिक अधिकार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताएं छीन ली गई थीं. लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित तमाम राजनीतिक विरोधियों को उनके घरों, ठिकानों से उठाकर जेलों में डाल दिया गया था. अभिव्यक्ति की आजादी पर सेंसरशिप का ताला जड़ दिया गया था. पत्र-पत्रिकाओं में वही सब छपता और आकाशवाणी-दूरदर्शन पर वही प्रसारित होता था जो उस समय की सरकार चाहती थी. प्रकाशन-प्रसारण से पहले सामग्री को प्राधिकृत सेंसर अधिकारी के पास भेज कर उसे सेंसर करवाना पड़ता था.

आपातकाल क्यों!

इंदिरा गांधी ने देश को आपातकाल के हवाले क्यों किया था ! 1971 के आम चुनाव में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध में भारतीय सेना के हाथों पाकिस्तान की शर्मनाक शिकस्त और पाकिस्तान से अलग बांग्लादेश के निर्माण के साथ ही बैंकों के राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रिवी पर्स की समाप्ति जैसे अपने लोकलुभावन फैसलों पर आधारित गरीबी हटाओ के नारे के साथ लोकप्रियता के चरम पर पहुंच कर प्रचंड बहुमत के साथ सत्तारूढ़ हुईं श्रीमती गांधी ने अपने सरकारी प्रचारतंत्र और मीडिया का सहारा लेकर आम जनता के बीच अपनी गरीब हितैषी और अमीर विरोधी छवि बनाई थी. लेकिन आगे चलकर गुजरात के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रावास में बढ़ी फीस और घटिया भोजन की आपूर्ति के विरुद्ध शुरू हुए छात्र आंदोलन ने गुजरात में नव निर्माण आंदोलन का व्यापक रूप धर लिया था. इस आंदोलन की परिणति राज्य में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर बाबूभाई जसु भाई पटेल के नेतृत्व में जनता मोर्चे की सरकार के गठन के रूप में हुई थी.
गुजरात के नव निर्माण आंदोलन का विस्तार बिहार आंदोलन के रूप में हुआ जिसने आगे चलकर देश भर में संपूर्ण क्रांति आंदोलन का रूप धर लिया था. महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के चरम पर पहुंचने से क्रुद्ध देश भर के छात्र-युवा और आम जन भी 72 साल के बुजुर्ग समाजवादी-सर्वोदयी नेता, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के पीछे अहिंसक और अनुशासित तरीके से लामबंद होने लगे थे. गुजरात और बिहार की परिधि को लांघते हुए सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन देश के अन्य हिस्सों में भी जंगल की आग की तरह फैलने लगा. इस आंदोलन ने न सिर्फ राज्य की कांग्रेसी सरकारों बल्कि केंद्र में सर्व शक्तिमान इंदिरा गांधी की सरकार को भी भीतर से झकझोर दिया था. इस आंदोलन को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर प्रायः सभी गैर कांग्रेसी दलों का सहयोग-समर्थन था. असंतोष के स्वर कांग्रेस के भीतर चंद्रशेखर, मोहन धारिया, रामधन और कृष्णकांत जैसे पूर्व समाजवादी युवा तुर्क नेताओं की ओर से भी उभरने लगे थे. तभी 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हां का ऐतिहासिक फैसला और उसके साथ ही शाम को गुजरात में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करनेवाला विधानसभा के चुनाव का नतीजा भी आ गया. जस्टिस सिन्हां ने अपने ऐतिहासिक फैसले में रायबरेली से श्रीमती गांधी के लोकसभा चुनाव को चुनौती देनेवाली समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर फैसला सुनाते हुए श्रीमती गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया. उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द करने के साथ ही उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया था. 24 जून को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भी इस फैसले पर मुहर लगा दी गयी थी. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की आंशिक राहत दे दी थी. वह लोकसभा में जा सकती थीं लेकिन वोट नहीं कर सकती थीं. उधर उनके पद त्याग नहीं करने की स्थिति में अगले दिन 25 जून को दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में संपूर्ण क्रांति आंदोलन का नेतृत्व कर रहे समाजवादी-सर्वोदयी नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण एवं सम्पूर्ण विपक्ष ने अनिश्चितकालीन देशव्यापी आंदोलन का आह्वान किया था. मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में लोक संघर्ष समिति गठित कर 28 जून से इंदिरा गांधी के त्यागपत्र देने तक देश व्यापी आंदोलन-सत्याग्रह शुरू करने का फैसला हुआ था. इसी मैदान में जेपी ने राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर कविता की पंक्ति-‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है,’ का उद्घोष किया था. जेपी ने अपने भाषण में कहा था, ‘‘मेरे मित्र बता रहे हैं कि मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है क्योंकि हमने सेना और पुलिस को सरकार के गलत आदेश नहीं मानने का आह्वान किया है. मुझे इसका डर नहीं है और मैं आज इस ऐतिहासिक रैली में भी अपने उस आह्वान को दोहराता हूं ताकि कुछ दूर, संसद में बैठे लोग भी सुन लें. मैं आज फिर सभी पुलिस कर्मियों और जवानों का आह्वान करता हूं कि इस सरकार के आदेश नहीं मानें क्योंकि इस सरकार ने शासन करने की अपनी वैधता खो दी है.’’ लेकिन बाहर और अंदर से भी बढ़ रहे राजनीतिक विरोध और दबाव से निबटने के नाम पर श्रीमती गांधी ने पदत्याग के लोकतांत्रिक रास्ते को चुनने के बजाय अपने छोटे बेटे संजय गांधी, और वरिष्ठ अधिवक्ता एवं पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कुछ खास सलाहकारों से मंत्रणा के बाद ‘आंतरिक उपद्रव’ की आशंका के मद्देनजर संविधान की धारा 352 का इस्तेमाल करते हुए आधी रात को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से देश में ‘आंतरिक आपातकाल’ लागू करने की अधिसूचना जारी करवा दी थी. कैबिनेट की मंजूरी अगली सुबह छह बजे ली गई थी. उसके तुरंत बाद आकाशवाणी पर श्रीमती गांधी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कहा, ‘‘भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. इससे आतंकित होने की जरूरत नहीं है.’’ उन्होंने आपातकाल को जायज ठहराने के इरादे से विपक्ष पर साजिश कर उन्हें सत्ता से हटाने और देश में अव्यवस्था और आंतरिक उपद्रव की स्थिति पैदा करने का आरोप लगाया और कहा कि सेना और पुलिस को भी विद्रोह के लिए उकसाया जा रहा था. उन्होंने कहा, ‘‘जबसे मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं, तभी से मेरे खिलाफ गहरी राजनीतिक साजिश रची जा रही थी.’’

आपातकाल के विरुद्ध हमारा संघर्ष

आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे. तब हम पत्रकार नहीं, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज में कला स्नातक के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और जेपी आंदोलन में भी सक्रिय थे. आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे. लेकिन पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा. जार्ज फर्नांडिस के साप्ताहिक अखबार 'प्रतिपक्ष' के साथ जुलाई के पहले सप्ताह में हमें गिरफ्तार कर लिया गया. हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित 'प्रतिपक्ष' बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे. पुलिस की चार्जशीट के मुताबिक यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे. डी आई आर और 120 बी के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए. सवा महीने बाद, 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए. हम पिता-पुत्र आजमगढ़ जेल की एक ही बैरक में महीनों आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे.

भूमिगत जीवन और मधुलिमये से संपर्क

कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पैरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा लौटने के बजाय आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए. उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों-जेल में और जेल के बाहर भी-से समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह-जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था. वाराणसी में हम जेल में निरुद्ध साथी, समाजवादी युवजन सभा के नेता (अभी कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव) मोहन प्रकाश से मिले. उनसे कुछ पते लेकर वाराणसी में ही समाजवादी युवजन सभा, लोहिया विचार मंच और छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के साथियों अशोक मिश्र, योगेंद्र नारायण, नचिकेता, कुंवर सुरेश सिंह, देवाशीष भट्टाचार्य, चंचल मुखर्जी, मदन मोहन लाल श्रीवास्तव आदि से लगातार संपर्क में रहा. वाराणसी प्रवास के दौरान अशोक मिश्र जी का चेतगंज के पास हबीबपुरा स्थित निवास हमारा ठिकाना होता.
इलाहाबाद में हमारा परिवार था. वहीं रहते नरसिंह गढ़ और बाद में भोपाल जेल में बंद रहे समाजवादी नेता मधु लिमये से पत्र संपर्क हुआ. वह हमें पुत्रवत स्नेह देते थे. उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए. मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था. मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला.’ पत्र में अन्य ब्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी.’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमये का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे. एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए’. यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया.’
जब इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी उनके साथ जेल में बंद आरएसएस पलट समाजवादी अध्येता विनोद कोचर की खूबसूरत स्तलिखित प्रति हमारे पास भी भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके. इसके साथ उन्होंने पत्र लिखा कि अगर हस्तलिपि मिल जाये तो लिखना की ‘दमा की दवा मिल गयी है.’ उस समय हमारे सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी. मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र’ जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है. इसकी हर संभव मदद करें.’ इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे. उनके घरों में छिप कर रहना, खाना और मौके बे मौके भाभियों से भी कुछ आर्थिक मदद मिलनी आम बात थी.
मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे. हम लोग चौधरी साहब के एक राजनीतिक फैसले से सख्त नाराज थे. उन्होंने आपातकाल में विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी. हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं, लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था. हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था. जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार की बात करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं. हमारा आक्रोश समझा जा सकता था. लेकिन मधु जी का आदेश था, सो हम चौधरी साहब से मिलने गए. उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि चुनाव का बहिष्कार बचे-खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा. हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनेवाली थीं. हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था.
मधु जी का पत्र आया कि तुम लोग चौधरी साहेब के पीछे बेमतलब पड़े हो, यहां जेलों में संघ के लोग जिस तरह से माफीनामे लिखने में लगे हैं, उस पर चिंता करनी चाहिए. गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय उर्फ बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को एक नहीं कई 'माफीनामानुमा' पत्र लिखकर आपातकाल में हुए संविधान संशोधन पर आधारित सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्याधीश अजितनाथ रे की अध्यक्षतावाली संविधान पीठ के द्वारा श्रीमती गांधी के रायबरेली के संसदीय चुनाव को वैध ठहरानवाले फैसले पर बधाई देने के साथ ही उनकी सरकार के साथ संघ के प्रचारकों और स्वयंसेवकों के सहयोग करने की इच्छा जताई थी. यहां तक कि उन्होंने कहा था कि बिहार आंदोलन और जेपी आंदोलन से संघ का कुछ भी लेना-देना नहीं है. उन्होंने संघ पर से प्रतिबंध हटाने और उसके प्रचारकों-स्वयंसेवकों को जेल से रिहा करने का अनुरोध भी किया था ताकि वे सरकार के विकास कार्यों में सक्रिय भूमिका निभा सकें. इससे पहले भी उन्होंने 15 अगस्त को लालकिला की प्राचीर से श्रीमती गांधी के भाषण की भरपूर सराहना की थी. लेकिन इंदिरा गांधी ने उनके पत्रों पर नोटिस नहीं लिया था और ना ही कोई जवाब दिया था. बाद में श्री देवरस ने इस मामले पर आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' कहनेवाले सर्वोदयी नेता विनोवा भावे को पत्र लिखकर उनसे श्रीमती गांधी के साथ अपने करीबी संबंधों का इस्तेमाल करते हुए संघ पर लगे प्रतिबंध को हटाने और प्रचारकों-स्वयंसेवकों की रिहाई सुनिश्चित करवाने के लिए हस्तक्षेप करने का आग्रह किया था. लेकिन उन्होंने भी कोई जवाब नहीं दिया था. महाराष्ट्र विधानसभा के पटल पर रखे गये आपातकालीन दस्तावेजों के अनुसार श्री देवरस ने राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकरराव चह्वाण को भी इसी तरह का पत्र जुलाई 1975 में लिखा था.
बाद में अनौपचारिक तौर पर तय हुआ था कि सामूहिक माफी तो संभव नहीं, अलबत्ता माफीनामे निजी और स्थानीय स्तर पर अलग अलग भरे जाएं तो सरकार उन पर विचार कर सकती है. एक बिना शर्त वचन पत्र (अन्क्वालिफाईड अंडरटेकिंग) भरने की बात तय हुई थी जिसके लिए एक प्रोफार्मा भेजा गया था. इसके बाद से जेलों में माफीनामे भरने का क्रम शुरु हो गया था. जिनके पास प्रोफार्मा नहीं पहुंच सका, वे लोग एक पंक्ति के माफीनामे निजी और स्थानीय स्तर पर भर-भर कर जमा करने लगे. इसमें लिखा होता था, "हम सरकार के बीस सूत्री कार्यक्रमों का समर्थन करते हैं."
बहरहाल, इलाहाबाद से हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे. अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे. एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र रविशंकर के नाम से ही भेज दिया. उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिये से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया. हमने मधु जी को लिखा कि ‘‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी. आप जैसे मनीषी इसे बेहतर समझ सकते हैं.’’ इसके बाद मधु जी के पत्र दिए पते पर जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए. आपातकाल की समाप्ति के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे. वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे, कई बार अपनी पत्नी चम्पा लिमये जी के हाथों भी.
आपातकाल में जब लोकसभा की मियाद पांच से बढ़ाकर छह वर्ष कर दी गयी तो विरोधस्वरूप मधु जी और शरद यादव ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था. त्यागपत्र तो समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र जी ने भी दिया था लेकिन उन्होंने अपना त्यागपत्र लोकसभाध्यक्ष के पास भेजने के बजाय चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था. मधु जी ने मुझे पत्र लिखकर कहा कि नैनी जेल में जाकर जनेश्वर से मिलो और पूछो कि क्या उन्हें लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम! मैं उनके पत्र के साथ किसी तरह मुलाकाती बनकर नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिला और उन्हें मधु जी का सन्देश दिया. जनेश्वर जी कुछ उखड़ से गए और बोले, मधु जी अपनी पार्टी के नेता हैं लेकिन हमारी पार्टी (लोकदल) के नेता, अध्यक्ष चरण सिंह हैं. लिहाजा, हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा.
इस तरह के तमाम प्रसंग हैं जो आपातकाल पर हमारी आनेवाली पुस्तक में देखने को मिल सकते हैं. (पुस्तक का लेखन अपने अंतिम चरण में है.)

आपातकाल के सबक!

लेकिन यहां हमारी चिंता का विषय कुछ और है. दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था. जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था, लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी, अधिनायकवादी प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है. भाजपा के वरिष्ठ और बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी ने पांच साल पहले एक अंग्रेजी अखबार से बातचीत में हमारी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में ही इन प्रवृत्तियों के मौजूद रहने और आपातकाल के भविष्य में भी लागू किये जाने की आशंकाएं बरकार रहने का संकेत दिया था. आज स्थितियां ठीक उसी दिशा में जाते हुए दिख रही हैं. देश आज धार्मिक कट्टरपंथ और 'उग्र राष्ट्रवाद' के सहारे एक अराजक माहौल और अघोषित आपातकाल की ओर ही बढ़ रहा है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ी साफ दिख रही है. प्रेस और मीडिया पर भी सरकारी विज्ञापनों, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग जैसी सरकारी एजेंसियों और यहां तक कि अदालतों का भी इस्तेमाल कर असहमति के स्वरों को दबाने के जरिए एक अलग तरह तरह की ‘अघोषित सेंसरशिप’ के अक्स साफ दिख रहे हैं. राजनीतिक विरोधियों के विरुद्ध बदले या कहें बैर भाव से प्रेरित कार्रवाइयां हो रही हैं. मणिपुर में सत्ता पक्ष के कई विधायकों के सरकार से समर्थन वापस ले लेने के बाद राज्य में वैकल्पिक सरकार बनाने का दावा करने वाले कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के घर अगले ही दिन सीबीआई की टीम पहुंच गई.
वैसे, आपातकाल की समाप्ति के बाद उसके गर्भ से निकली जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद हमारे ‘लोकतंत्र प्रेमियों’ ने सम्भवतः पहला अलोकतांत्रिक काम कांग्रेस की नौ राज्यों की चुनी हुई राज्य सरकारों को बर्खास्त करवाकर किया. और नहीं तो मीसा के विरोध में सत्तारूढ़ हुए लोगों को देश में मिनी मीसा लगाने का प्रस्ताव करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ. यह बताने में कोई हर्ज नहीं कि हमारी अंतिम गिरफ्तारी जनता पार्टी के शासन में ही हुई थी और उसी के साथ सक्रिय राजनीति से एक तरह का मोहभंग भी. बाद के दिनों में भी इस तरह के कई प्रसंग आये जब आपातकाल के गर्भ से निकले हमारे इस तरह के तमाम प्रसंग हैं जब ‘लोकतंत्र प्रेमियों’ ने अपनी सत्ता को मिलनेवाली चुनौतियों से निबटने के लिए और ज्यादा घातक और खूंखार कानूनों की खुलेआम वकालत की. उन पर अमल भी किया. अभी सीएए और एनआरसी का विरोध करनेवालों को यूएपीए जैसे कठोर कानून के तहत निरुद्ध किया गया. कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को राजद्रोह जैसे खतरनाक कानूनों के तहत जेल में कैद किया गया. जेल में उन्हें यातनाएं दिए जाने की सूचनाएं भी मिल रही हैं. इसलिए भी 25-26 जून को हमें आपातकाल की बरसी मनाते समय आमजन को न सिर्फ आपातकाल बल्कि उन खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्तियों के बारे में भी आगाह करना होगा जो गरीबी हटाओ के नारे के साथ भारी बहुमत लेकर सत्तारूढ़ हुई इंदिरागांधी जैसी नेता को 'तानाशाह' बना देती हैं और आज भी कुछ लोगों के भीतर एकाधिकारवादी ‘एको अहं द्वितीयो नास्ति’ का एहसास भर देती हैं. ये प्रवृत्तियां भी अमीर बनाम गरीब की लड़ाई का झांसा देकर, धार्मिक कट्टरपंथ पर आधारित अंध राष्ट्रवाद को सामने रखकर अपने विरोधियों और असहमति के स्वरों को दबाने के रास्ते पर चल रही हैं. इन लोगों और इन प्रवृत्तियों से न सिर्फ सावधान रहने की बल्कि उनका मुकाबला करने के लिए आमजन को जागरूक और तैयार करने की जरूरत है.

Tuesday, 9 May 2017

गैर भाजपावाद की परीक्षा होगा राष्ट्रपति चुनाव



गैर भाजपावाद की परीक्षा होगा राष्ट्रपति चुनावकारण चाहे जुलाई महीने में होनेवाला राष्ट्रपति का चुनाव हो अथवा दो साल बाद लोकसभा के आम चुनाव, विपक्षी एकता या कहें तमाम गैर भाजपा-गैर राजग दलों के महागठजोड़ की कवायद नए सिरे से शुरू होती दिख रही है। इस कवायद के केंद्र में हैं कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी। गैर भाजपा दलों के कई कद्दावर नेताओं की उनसे मुलाकात से इस बात के संकेत मिलने लगे हैं कि विपक्ष न सिर्फ राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपानीत सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को मजबूत चुनौती देने की साझा रणनीति की संभावनाएं तलाशने में जुट रहा है बल्कि लोकसभा के अगले चुनाव और उससे पहले होनेवाले कुछ राज्य विधानसभाओं के चुनाव में भी विपक्षी मतों का बंटवारा रोकने और भाजपा के नेतृत्व में मुखर हो रही सांप्रदायिक ताकतों को एकजुट चुनौती पेश करने के लिए विपक्षी महागठबंधन की अनिवार्यता के प्रति भी गंभीर हो रहा है।
इसे राजनीतिक विडंबना भी कह सकते हैं कि कभी 1960 के दशक के मध्य में अपराजेय बनती जा रही कांग्रेस को राज्यों और केंद्र में भी अपदस्थ करने के लिए समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की रणनीति तैयार की थी। अब तमाम गैर कांग्रेसी और गैर भाजपा-राजग दलों के नेता नए सिरे से उसी कांग्रेस को साथ लेकर ‘गैर भाजपावाद’ की रणनीति तैयार करने में लगे हैं। कांग्रेस के भीतर भी एक बड़े तबके या कहें नेतृत्व की राय बन रही है कि मौजूदा परिस्थितियों में पार्टी भाजपा-राजग को सीधे और अकेले शिकस्त दे सकने की स्थिति में नहीं है। इसके लिए किसी न किसी तरह का विपक्षी महागठबंधन खड़ा करना ही होगा। इस बढ़ते सोच के तहत ही अप्रैल के तीसरे-चौथे सप्ताह में जनता दल (यू) के अध्यक्ष, बिहार के मुक्चयमंत्री नीतीश कुमार और माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने एक ही दिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की। उसके बाद भाकपा के सचिव, सांसद डी. राजा, जनता दल (यू) के पूर्व अध्यक्ष, सांसद शरद यादव और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने भी श्रीमती गांधी के साथ अलग-अलग दिनों में मुलाकात की। इससे पहले समाजवादी नेता, लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष रवि राय की अंत्येष्टि के अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि देने भुवनेश्वर गए नीतीश कुमार ने ओडिशा के मुख्यमंत्री एवं बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक से मुलाकात की। येचुरी भी लगातार बीजद नेताओं के संपर्क में हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी पटनायक से मिल चुकी हैं। संसद के बजट सत्र के समापन से पहले सुश्री बनर्जी ने समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और एनसीपी के नेता प्रफुल्ल पटेल से मुलाकात की थी। विपक्ष के कुछ नेता तमिलनाडु में द्रमुक नेतृत्व के साथ लगातार संपर्क में हैं तो कुछ लोग अन्नाद्रमुक को भी विपक्षी खेमे के साथ बने रहने के लिए उसके नेताओं से संपर्क साध रहे हैं। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद भी विपक्षी महागठबंधन के लिए सक्रिय हैं। एक मई को नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में प्रसिद्ध समाजवादी नेता, चिंतक मधु लिमए के 95वें जन्मदिन पर हुए विपक्षी नेताओं के जमावड़े और उसमें उभरे स्वरों से भी लगा कि किसी तरह की एकजुटता अथवा महागठबंधन के लिए विपक्षी खेमे में छटपटाहट बढ़ी है। भाकपा नेता डी. राजा के अनुसार फिलहाल तो विपक्ष के सामने राष्ट्रपति के चुनाव में एकजुट होकर राजग के सामने मजबूत चुनौती पेश करने की बात है। विपक्ष की एकजुटता के लिहाज से राष्ट्रपति का चुनाव पहला ‘एसिड टेस्ट’ होगा जिसमें यह पता लग सकेगा कि कौन से गैर राजग दल संयुक्त विपक्ष के साझा उम्मीदवार के समर्थन में खुलकर सामने आ सकते हैं। गौरतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव के लिए मौजूदा निर्वाचक मंडल में भाजपा और उसके सहयोगी दल बहुमत से कुछ दूर हैं। साथ ही शिवसेना की बदलती भंगिमाएं कब गच्चा दे जाएंगी, इसको लेकर भाजपा नेताओं की बेचैनी कम नहीं हो पा रही है। उसे अपना मनमाफिक राष्ट्रपति चुनवाने के लिए विपक्षी खेमे में सेंध लगाकर कुछ अतिरिक्त मतों का जुगाड़ करना पड़ सकता है। इस राजनीतिक सेंधमारी को रोकने के लिए भी विपक्षी खेमा सक्रिय है। उसकी कोशिश विपक्ष की ओर से ऐसा साझा उक्वमीदवार पेश करने की लगती है जो न सिर्फ सभी गैर भाजपा दलों को एकजुट रख सके बल्कि राजग के अंदर से भी कुछ मतों का जुगाड़ कर सके। माकपा के महासचिव येचुरी कहते हैं, ‘हम नीतियों और कार्यक्रमों के आधार पर फैसला करेंगे। 2019 में सांप्रदायिक शक्तियों की सरकार के विरुद्ध देश में एक वैकल्पिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए काम करेंगे।’
दरअसल, बिहार, दिल्ली और पंजाब विधानसभा के चुनावी नतीजों को अपवाद मान लें तो मई 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए अधिकतर विधानसभा चुनाव, उप चुनाव और नगर निकायों और पंचायत के चुनावों में भी अपराजेय और विजेता बनकर उभरी भाजपा और उसके नेतृत्व वाले राजग की चुनावी सफलता के लिए अन्य कारणों के अलावा विपक्षी मतों के बंटवारे को ही मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है। लोकसभा चुनाव हों अथवा झारखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, असम और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्य विधानसभाओं और महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली के नगर निकायों के चुनाव, भाजपा और उसके सहयोगी दलों को मिले मतों के प्रतिशत के मुकाबले अगर विपक्षी दलों को मिले मतों के प्रतिशत को जोड़कर देखें तो संयुक्त विपक्ष भाजपानीत राजग पर निर्णायक रूप से भारी दिखता है। अगर विपक्षी दल अपने निजी अहंकार, वैमनस्य और अपनी राजनीतिक ताकत के बारे में अपने अतिरेकी आकलन को परे रखकर चुनावी तालमेल कर चुनाव लड़े होते तो नतीजों की शक्ल कुछ और नजर आती।
विपक्ष की इस कमजोरी को सबसे पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और कभी उनके बेहद करीबी और फिर कट्टर राजनीतिक विरोधी रहे राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने महसूस किया। बकौल नीतीश कुमार, उन्होंने लोकसभा चुनावों के नतीजे के बाद ही बिना समय गंवाए लालू प्रसाद से बात की और दोनों इस बात पर सहमत हुए कि बिना विपक्षी एकजुटता के भाजपा और उसके सहयोगी दलों की चुनौती का सामना कर पाना मुश्किल होगा। इसके बाद ही बिहार में जद (यू), राजद और कांग्रेस के बीच चुनावी गठजोड़ हुआ जो कारगर भी साबित हुआ।
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव से पहले वहां भी नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने विपक्षी महागठबंधन की पहल की थी लेकिन खुद के बूते चुनाव जीतने के अति विश्वास के कारण राज्य में भाजपा विरोधी दो महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकतें-मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम-अखिलेश की समाजवादी पार्टी एक साथ नहीं आ सकी। बाद में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन हुआ भी तो उसमें चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल, जनता दल (यू) और राजद को जगह नहीं मिली। इससे पहले असम में कांग्रेस नेतृत्व की हठधर्मिता के कारण असम गण परिषद और सांसद बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के साथ चुनावी तालमेल नहीं हो सका था। नतीजतन, असम और उîार प्रदेश में भाजपा पहली बार अपने बूते भारी बहुमत से सरकार बनाने में सफल हो सकी। हालांकि वोटों का प्रतिशत देखें तो भाजपा और इसके सहयोगी दलों को यूपी में तकरीबन 40 प्रतिशत मत मिले जबकि बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल को तकरीबन 51 प्रतिशत मत मिले हैं। उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों के बाद अखिलेश यादव और मायावती ने भी साथ आने और भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाने की बात करनी शुरू कर दी है। इसका स्वागत करते हुए शरद यादव कहते हैं कि राष्ट्रपति के चुनाव में गैर भाजपा दलों को गोलबंद करने के प्रयास काफी सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। इस एकजुटता से 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन खड़ा करने की प्रक्रिया को बल मिलेगा। 2019 में गैर भाजपा दलों का महागठबंधन सांप्रदायिक ताकतों को मजबूत चुनौती देगा, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।
लेकिन इस तरह के किसी महागठबंधन को लेकर कई सवाल और आशंकाएं भी हैं। मसलन महागठबंधन का नेता कौन होगा? राहुल गांधी, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल समेत कई दावेदार दिख रहे हैं। नीतीश-ममता समेत क्षेत्रीय दलों का कोई भी ऐसा नेता नहीं है जिसका एक राज्य के बाहर संगठन और जनाधार हो। कांग्रेस की उपस्थिति जरूर कई राज्यों में है लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व पर कितने दल और नेता राजी होंगे, यह भी एक सवाल है। वैसे महागठबंधन का नेता कौन होगा, इस तरह के सवालों के जवाब के लिए विपक्ष के पास अभी बहुत समय है। विपक्ष के एक वरिष्ठ नेता की मानें तो जब कट्टïर विरोधी जनता दल (यू), राजद और कांग्रेस आपस में गठबंधन कर सकते हैं तो मायावती-अखिलेश और अजित सिंह, ममता बनर्जी-वाम दल और कांग्रेस, बीजू जनता दल और कांग्रेस, कांग्रेस और एनसीपी, कांग्रेस और आप तथा द्रमुक और अन्ना द्रमुक सांप्रदायिक ताकतों को वैकल्पिक नीतियों, न्यूनतम साझा कार्यक्रमों के साथ मजबूत चुनौती देने के नाम पर एक साथ क्यों नहीं हो सकते। अगर एकजुट हुए तो चुनावी नतीजे बिहार की तरह के होंगे और अगर अलग-अलग लड़े तो उत्तर प्रदेश में विधानसभा के हालिया चुनाव में हुई राजनीतिक दुर्गति को प्राप्त कर सकते हैं।

लोकपाल से कौन डरता है

लोकपाल से कौन डरता हैकेंद्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए ओंबुड्समैन यानी अपने बहुचर्चित लोकपाल के गठन के लिए कुछ महीने और इंतजार करना पड़ सकता है। वह भी तब, जब इसके गठन को लेकर सरकार की मंशा साफ हो। भ्रष्टाचार के खिलाफ  जन लोकपाल के गठन की मांग को लेकर समाजसेवी अन्ना हजारे, योग गुरु (व्यवसायी) रामदेव और उनके सहयोगियों के आंदोलन का पुरजोर समर्थन करने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाली राजग सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि लोकसभा में विपक्ष का नेता नहीं होने के कारण लोकपाल की नियुक्ति में विलंब हो रहा है। गौरतलब है कि तमाम अनशन-आंदोलनों, विवादों और संसदीय बहसों के बाद दिसंबर 2013 में पास हुए लोकपाल अधिनियम के तहत लोकपाल की खोज या चयन के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित होने वाली पांच सदस्यीय समिति में लोकसभाध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष के नेता, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अथवा उनके प्रतिनिधि और राष्ट्रपति द्वारा नामित एक कानूनविद् को शामिल किया जाना है। बाकी सब तो ठीक है लेकिन लोकसभा में मान्यता प्राप्त विपक्ष और उसका नेता नहीं होने से चयन समिति का गठन ही नहीं हो पा रहा है। लोकपाल की नियुक्ति तो उसके बाद ही संभव हो सकेगी।

तकनीकी तौर पर लोकसभा के एक दहाई सदस्य होने पर ही किसी दल को विपक्ष और उसके नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा प्राप्त हो सकता है। कांग्रेस ने कुछ अन्य विपक्षी दलों के समर्थन पत्र के सहारे लोकसभा में अपने नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को विपक्ष का नेता घोषित करने का आग्रह किया था, लेकिन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इसे पहली लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा बनाई गई व्यवस्था का हवाला देते हुए अमान्य कर दिया। हालांकि इसी आधार पर देखें तो दिल्ली की 70 सदस्यों की विधानसभा में केवल तीन विधायक होने के कारण भाजपा को मान्यता प्राप्त विपक्ष का दर्जा नहीं मिल सकता था, लेकिन जब आम आदमी पार्टी की सरकार ने भाजपा विधायक दल के नेता विजेंद्र गुप्ता को नेता विपक्ष बनाने का प्रस्ताव किया तो भाजपा को इसे स्वीकार करने में जरा भी झिझक नहीं हुई। यही नहीं, संख्या बल नहीं होने के बावजूद नेता विपक्ष बने विजेंद्र गुप्ता इसी हैसियत से दिल्ली में लोकायुक्त के चुनाव की प्रक्रिया में शामिल भी हुए, लेकिन लोकसभा में भाजपा इस तरह की सदाशयता नहीं दिखा सकी।
बहरहाल, लोकपाल के गठन को लेकर संसद से सडक़ और न्यायपालिका तक बनाए गए विपक्ष एवं सामाजिक संगठनों के दबाव के बाद केंद्र सरकार लोकपाल-लोकायुक्त अधिनियम 2013 में संशोधन कर लोकपाल के लिए चयन समिति में लोकसभा में नेता विपक्ष की जगह सदन में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को शामिल करने पर राजी हो गई। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस आशय का एक प्रस्ताव पारित कर इसके आधार पर संसद में संशोधन विधेयक भी पेश कर दिया, लेकिन उसे पास करने का शुभ मुहुर्त है कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा है।
लोकपाल की नियुक्ति से संबंधित जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करने वाली सर्वोच्च अदालत में न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और नवीन सिन्हा की पीठ के समक्ष सरकार का पक्ष रखते हुए महान्यायवादी मुकुल रोहतगी ने कहा कि लोकपाल की चयन समिति में नेता विपक्ष की जगह लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को शामिल करने का संशोधन विधेयक संसद में विचाराधीन है, उसके फिलहाल, संसद के मौजूदा बजट सत्र में पास होने की संभावना नहीं है क्योंकि सरकार के पास अन्य बहुत सारे विधायी कार्य पड़े हैं। उन्होंने संबंधित संशोधन विधेयक के अगले मानसून सत्र में अथवा उसके बाद ही पास हो पाने की संभावना जताई। हालांकि याचिका दायर करने वाले गैर सरकारी संगठन 'कॉमन कॉज’ की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण ने कहा कि संसद ने लोकपाल विधेयक दिसंबर 2013 में पारित कर दिया और वह वर्ष 2014 से प्रभावी भी हो गया, लेकिन सरकार जान- बूझकर लोकपाल की नियुक्ति नहीं कर रही है। उन्होंने कहा कि लोकपाल कानून यह अनिवार्य करता है कि लोकपाल की नियुक्ति जल्दी से जल्दी हो। दोनों पक्षों की सुनवाई पूरी करने के बाद न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले में फैसला सुरक्षित रखने की बात कही। हालांकि महान्यायवादी रोहतगी की दलील थी कि सर्वोच्च अदालत को संसद के कामकाज में दखल नहीं देना चाहिए क्योंकि लोकपाल कानून के तहत विपक्ष के नेता की परिभाषा से संबंधित संशोधन संसद में अभी लंबित है। 
जब तक संसद में यह संशोधन पारित नहीं हो जाता, लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो सकती। लोकपाल पर केंद्र का रुख परेशान करने वाला है। सरकार से पूछा जा सकता है कि जब सरकार और विपक्ष भी राजी है तो यह संशोधन पारित क्यों नहीं हो रहा। मोदी सरकार वित्त विधेयक में विभिन्न प्रकार के 40 संशोधन पास करा सकती है, राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता की वकालत करनेवाले वित्त विधेयक के जरिए राजनीतिक चंदा संबंधी आपत्तिजनक संशोधन पास करवा सकती है। इस संशोधन के बाद कॉरपोरेट घरानों के राजनीतिक दलों को चंदा देने की कोई सीमा नहीं होगी। न ही उन्हें यह जाहिर करने की अनिवार्यता होगी कि उन्होंने किस दल को कितना धन दिया। इसे किसी रूप में भ्रष्टाचार विरोधी कदम भी नहीं कहा जा सकता। अगर यह सब संशोधन बजट सत्र में पास हो सकते हैं तो लोकपाल की चयन प्रक्रिया से संबंधित संशोधन विधेयक पास कराने में ऐसी कौन सी रुकावट है। वैसे भी सरकार ने चाहा तो सीबीआई निदेशक से लेकर सीवीसी की नियुक्ति तक का रास्ता वर्तमान परिस्थितियों में ही ढूंढ़ निकाला गया। ऐसे में यह अर्थ निकालना क्या गलत होगा कि विपक्ष में रहते जन लोकपाल के लिए सडक़ से लेकर संसद तक जोर-शोर से सक्रिय रही भाजपा और उसके सहयोगी दलों की केंद्र सरकार चाहती ही नहीं कि लोकपाल का गठन हो? बहुत मुमकिन है कि सत्ताधारी दल में यह सोच बढ़ रही होगी कि जब चुनावी बहुमत जुटाने की तरकीब उसके पास है, तो सर्वोच्च पदों पर निगरानी करने वाली संस्था का गठन वह क्यों करे।
कहीं ऐसा भी तो नहीं कि लोकपाल की परिधि में प्रधानमंत्री, उनके मंत्री, निगमित घरानों को भी शामिल किए जाने की बात कुछ लोगों को लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने और तेज करने से रोक रही है। हालांकि कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के जमाने में लोकपाल की परिधि में प्रधानमंत्री को भी शामिल कर मजबूत लोकपाल के गठन के लिए लोकसभा और राज्यसभा में भी तत्कालीन विपक्ष यानी भाजपा के नेताओं, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने काफी दबाव बनाया था। समाजसेवी अन्ना हजारे ने दिसंबर 2013 में अपना आमरण अनशन तभी तोड़ा जब मनमोहन सरकार प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के क्षेत्राधिकार में शामिल करने जैसे लोकपाल को और मजबूत बनाने वाले संशोधनों को पारित करने के लिए राजी हो गई। उसके बाद ही लोकपाल अधिनियम अस्तित्व में आया, लेकिन तब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं थे। वैसे भी जबानी तौर पर वह भ्रष्टाचार, कालेधन के विरुद्ध लोकपाल और लोकायुक्त के गठन के पक्ष में जितना भी जोर-शोर से बोलते रहे हों, सत्ता में आने के बाद इसके बारे में उनकी उदासीनता ही सामने आती है। भूलना नहीं चाहिए कि गुजरात में उनके मुख्यमंत्री रहते तकरीबन एक दशक (2003 से दिसंबर 2013) तक लोकायुक्त की नियुक्त‌ि नहीं हो सकी थी, लोकपाल के मामले में तो अभी सवा तीन साल ही बीते हैं! तथाकथित जन लोकपाल अथवा लोकपाल के लिए सडक़ से लेकर संसद तक तूफान खड़ा करने और देश की तमाम समस्याओं, भ्रष्टाचार जैसी तमाम राजनीतिक बुराइयों का समाधान लोकपाल से ढूंढ़ लेने का दावा करनेवाले अन्ना हजारे, रामदेव, अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के लोग कहां खो गए हैं। क्या लोकपाल के नाम पर राजनीतिक तूफान खड़ा करने का मकसद महज सत्ता परिवर्तन तक ही सीमित था!