Monday, 27 July 2020

Foreign visits with President Dr. APJ Abdul Kalam (राष्ट्रपति डा. कलाम के साथ विदेश भ्रमण)

डा. कलाम के साथ विदेश भ्रमण (1)

जयशंकर गुप्त

दुनिया भर में 'मिसाइल मैन' के नाम से मशहूर, भारत रत्न, पूर्व
राष्ट्रपति डा. ए पी जे अब्दुल कलाम ने भारत के राष्ट्रपति के रूप में पहली विदेश यात्रा अबू धाबी, दुबई, सूडान और बुल्गारिया की थी. मेरा सौभाग्य था कि इन देशों की यात्रा में मैं उनके साथ था. डा. कलाम के साथ अपनी विदेश यात्रओं के संस्मरणों की पहली किश्त के रूप में हम अबू धाबी और दुबई की उनकी यात्रा और उनसे जुड़े कुछ संस्मरण साझा कर रहे हैं.


पहला पड़ाव अबू धाबी             और दुबई


जयशंकर गुप्त


    जिंदगी में जिन कुछ लोगों ने मुझे अपने विचारों और उससे भी अधिक अपने व्यक्तित्व से बेतरह प्रभावित किया, उनमें देश के पूर्व राष्ट्रपति डा. कलाम भी एक थे. वह कोई राजनीतिज्ञ नहीं थे और न ही राजनीतिक विचारक अथवा समाज विज्ञानी. विज्ञान और तकनीक में मेरी अपनी कुछ समझ और दखल नहीं के बराबर होने के कारण उनके इस गुण से बहुत ज्यादा प्रभावित होने का प्रश्न भी नहीं था. लेकिन राष्ट्रपति के रूप में उनके व्यक्तित्व, उनकी सादगी और साफगोई, देश और समाज के साथ ही गांव और गरीब के लिए हर पल कुछ करने की उनके अंदर की बेचैनी जैसी कुछ बातें ऐसी थीं जिनके कारण मैं उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था. जिस राष्ट्रपति भवन को खाली करते समय देश के एक पूर्व राष्ट्रपति दो बोइंग विमानों में सामान भरकर अपने साथ घर ले गए थे, उसी राष्ट्रपति भवन में डॉक्टर कलाम एक बैग के साथ पहुंचे और लौटते समय भी एक ही बैग उनके साथ गया. राष्ट्रपति भवन से विदा लेने के अगले ही दिन से वह अध्यापन में जुट गये. यह महज संयोग भर नहीं था कि 27 जुलाई 2015 की शाम उनका इंतकाल भी मेघालय की राजधानी शिलांग में भारतीय प्रबंधन संस्थान में 'रहने योग्य ग्रह' जैसे गूढ़ विषय पर व्याख्यान देते समय दिल का दौरा पड़ने के बाद ही हुआ था.

    डा. कलाम के इंतकाल के बाद नई दिल्ली के 10 राजाजी मार्ग पर स्थित उनके सरकारी निवास पर मिली उनकी जमा पूंजी दशकों नहीं बल्कि सदियों तक किसी पूर्व राष्ट्रपति की सादगी और उनके मितव्ययी जीवन के रूप में हमारी आनेवाली पीढियों को प्रेरित करती रहेगी. एक रिपोर्ट के अनुसार डॉक्टर कलाम के पास निजी तौर पर कोई भी चल अचल संपत्ति नहीं थी. उनके पास जो चीजें थी उसमें 2500 किताबें, एक रिस्टवॉच, छह शर्ट, चार पायजामा, तीन सूट और मोजे की कुछ जोड़ियां थी. हैरानी की बात तो यह कि उनके पास टीवी, फ्रिज, कार और एयर कंडीशनर तक भी अपना नहीं था. डॉक्टर कलाम को करीब से जानने का अवसर मुझे उनके साथ हुई दो विदेश यात्राओं के क्रम में मिला. तब मैं दैनिक हिन्दुस्तान में विशेष संवाददाता के पद पर कार्यरत था. उनके या कहें किसी भी राष्ट्रपति के साथ विदेश जाने और उन्हें करीब से देखने-जानने का मेरे लिए पहला सुअवसर 18 से 25 अक्टूबर 2003 तक उनकी संयुक्त अरब अमीरात (अबूधाबी और दुबई), सूडान और बुल्गारिया की विदेश यात्रा पर जाने के रूप में मिला.

    राष्ट्रपति भवन से डा. कलाम के साथ विदेश यात्रा का निमंत्रण हमारे लिए किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं था, शायद इसलिए भी कि राष्ट्रपति के रूप में डा. कलाम की वह पहली विदेश यात्रा थी जिसमें मुझे बतौर पत्रकार शामिल होने का सुअवसर मिल रहा था. राष्ट्रपति बनने के बाद एक बार उन्होंने कहा भी था कि विदेश की तरफ रुख करने से पहले वह हिन्दुस्तान को देख लेना चाहेंगे. और यह सच भी है कि भारत भ्रमण के बाद ही वह अपनी पहली विदेश यात्रा पर निकले. साथ में सूचना तकनीक एवं विनिवेश मंत्री अरुण शौरी, शिवसेना के सांसद सुरेश प्रभु, माकपा की सांसद सरला महेश्वरी, डा. कलाम के सचिव पी एम नायर और मीडिया सलाहकार एस एम खान,पत्रकारों में पीटीआई के श्रीकृष्णा और विजय जोशी, यूएन आई के प्रदीप कश्यप, ए एनआई के वैभव वर्मा, हिंदू की नीना व्यास, हिन्दुस्तान टाइम्स के सौरभ शुक्नला, सकाल के विजय नाईक, एशियन एज की सीमा मुस्तफा, इंडियन एक्सप्रेस के समरहरलंकर, दि टेलीग्राफ के के सुब्रमण्णा, मलयालम मनोरमा के सच्चिदानंद मूर्ति, आकाशवाणी के ए के हांडू, डीडी न्यूज के सेंथिल राजन, दिनमणि के आरएमटी संबंदन, इन्किलाब के फुजैल जाफरी एवं राष्ट्रपति भवन के छायाकार, पत्रकार साथी, राष्ट्रपति कार्यालय, विदेश मंत्रालय के संबद्ध वरिष्ठ अधिकारी एवं आवश्यक सरकारी लवाजमा भी था.

राजधानी अबू धाबी में


    हमारी यात्रा का पहला पड़ाव संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) था. हालांकि सरकारी सूत्र बता रहे थे कि यूएई के राष्ट्रपति शेख जाएद बिन सुल्तान अल नहयान अपने आपरेशन के लिए दो दिन पहले ही लंदन गये थे. प्रधानमंत्री भी देश के बाहर थे. इन्हीं कारणों से इस यात्रा की तिथियों को स्थगित करने के बारे में भी विचार चल रहा था. यह भी एक कारण था कि विदेश मंत्रालय के अधिकारियों द्वारा यात्रा की तिथियों के बारे में हमें अंतिम समय तक असमंजस में रखा गया था. लेकिन अंत में कलाम साहब ने किसी तरह के प्रोटोकोल की चिंता न करते हुए यही निर्देश दिया कि यात्रा की तिथियां बदली न जाएं.

    अबू धाबी के रास्ते में साथ चल रहे पत्रकारों के साथ विमान में बातचीत में उन्होंने अपनी इस यात्रा को अपनी इस यात्रा को voyage of learning (ज्ञान का संधान) कहा था. उन्होंने बता दिया था कि वह तीन देशों की नहीं बल्कि तीन महाद्वीपों-एशिया, अफ्रीका और यूरोप (पूर्वी) की अध्ययन यात्रा पर जा रहे हैं. वह इन देशों और महाद्वीपों में हुए अथवा हो रहे बदलावों को करीब से देखना-समझना चाहते हैं. इन देशों के वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, राजनीतिकों, अर्थशास्त्रियों, अध्यापकों और छात्रों से मिलकर वह उनके देश के आर्थिक आधार के बारे में जानना चाहेंगे और यह पता करेंगे कि कैसे हम एक दूसरे की प्रगति और विकास में सहयोगी भूमिका निभा सकते हैं. उन्होंने कहा, “इन तीनों देशों को मैंने विशेष कारणों से चुना है क्योंकि इन तीनों के साथ हमारे परस्पर सहयोग की अपार संभावनाएं हैं, एक-दूसरे की क्षमताओं और संसाधनों का सही इस्तेमाल करके हम एक-दूसरे के विकास में बहुत मददगार हो सकते हैं.” विकसित भारत, शक्तिशाली भारत, दुनिया में सबके सामने सर ऊंचा करके खड़ा हो सके, ऐसे भारतवर्ष का सपना देखने वाले कलाम साहब की पूरी यात्रा उनके इसी सपने के इर्द-गिर्द बुनी हुई थी.

    मन बहुत प्रफुल्लित था. सुन रखा था कि राष्ट्रपति के साथ विदेश यात्रा काफी आनंददायी यानी ‘प्लेजर ट्रिप’ जैसी ही होती है. लेकिन कलाम साहब के साथ यात्रा में ऐसा कतई नहीं लगा. उनके कार्यक्रम तो सुबह आठ-नौ बजे ही शुरू हो जाते और रात आठ-नौ बजे तक चलते रहते. पूरी यात्रा के दौरान शायद ही कोई कार्यक्रम उन्होंने रद्द किया हो या कहीं देर से पहुंचे हों. पता चला कि वह देर रात बल्कि सुबह के दो-तीन बजे तक जागते और अध्ययन-मनन के अलावा ई मेल पर आए संदेशों, मीडिया-अखबारी खबरों का जायजा लेते, ई मेल संदेशों का जवाब देते. साथ चल रहे विशेषज्ञ सलाहकारों से विभिन्न विषयों, अगले दिन के कार्यक्रमों आदि के बारे में मंत्रणा करते और महज चार-पांच घंटे ही सोते. यात्रा दल में उनके परिवार का कोई सदस्य-रिश्तेदार कभी नहीं रहा. विमान में हों अथवा होटल और अतिथिगृह में, वह बहुत हल्का फुल्का, दक्षिण भारतीय शाकाहारी भोजन ही करते. उनके प्रिय भोजन में शामिल था-दही-भात, इडली, बड़ा और सांभर. वे रोजाना तकरीबन एक घंटे शारीरिक व्यायाम, योग आदि करते. सुबह की सैर उनके दैनंदिन कार्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा होती. शायद इसलिए भी उनके निजी चिकित्सक 73 साल की उम्र में भी उन्हें पूरी तरह से स्वस्थ-निरोगी और फिट बताते. वे छोटी सी छोटी इबारत भी बिना चश्मा लगाए पढ़ लेते थे. इतना फिट और सक्रिय कैसे रह पाते हैं, थकते नहीं? डा. कलाम का जवाब था, “मेरा एक मिशन है. मैं अपने विजन इंडिया 2020 के तहत 2020 तक भारत को विकसित राष्ट्र के रूप में देखना चाहता हूं. इसके साथ ही मैं अपने देश में गरीबी रेखा के नीचे रह रहे 26 करोड़ भारतीयों के चेहरों पर चमक देखना चाहता हूं. जब तक मेरा यह मिशन पूरा नहीं हो जाता, मैं थकनेवाला नहीं हूं. और इस मिशन को पूरा करने के लिए फिट तो रहना ही है.”

18 अक्टूबर 2003 की शाम को हम लोग उनके साथ फारस की खाड़ी यानी पश्चिम एशिया में स्थित सात अमीरातों-राज्यों-दुबई, अबू धाबी, शारजाह, फुजैरा, रस अल खैम, अल आईन, अजमान और उम अल क्वैन-को मिलाकर बने संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबू धाबी पहुंचे. समुद्र, रेगिस्तान और पहाड़ों से घिरा अबू धाबी शाम के समय ऊपर विमान से देखने पर जगमगाते विद्युत प्रकाश में टी शक्ल का सुनहरा टापू नजर आ रहा था. शहर में जल रहे बिजली के बल्ब ऊपर से देखने पर सुनहरी छवि पेश कर रहे थे. डा. कलाम यहां के राष्ट्रपति शेख जाएद बिन सुल्तान अल नहयान के निमंत्रण पर आए थे. इलाज के सिलसिले में उनके लंदन में होने के कारण हवाई अड्डे पर उनके साहबजादे यानी अबू धाबी के शाही राजकुमार और संयुक्त अरब अमीरात के उप प्रधान मंत्री, सेनाओं के सुप्रीम कमांडर शेख खलीफा बिन जाएद अल नहयान पूरे लाव लश्कर के साथ रेड कारपेट बिछाए खड़े थे. औपचारिक स्वागत-सत्कार के बाद हम लोग ठहरने के निर्धारित होटल पहुंच गए. लेकिन डा. कलाम, अरुण शौरी, सुरेश प्रभु और सरला महेश्वरी देर रात लौटे.

    श्रीमती महेश्वरी के अनुसार हवाई अड्डे पर कुछ सामान्य औपचारिकताओं के बाद ही बिना किसी विश्राम के डा. कलाम के साथ हम लोग अबूधाबी में दुनिया के सबसे बड़े 'डिसैलिनेशन प्लांट' को देखने चले गये. समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य बनाने का यह एक विशाल संयत्र था. वहां हम लोग तकरीबन एक घंटे तक रहे. जल शोधन संयंत्र की कार्य प्रणाली, लागत, बिजली उत्पादन आदि के बारे में जानकारी हासिल की. कलाम साहब और हम सबने देखा कि किस तरह अपने संसाधनों का सूझ-बूझ से इस्तेमाल करके इस मरूभूमि की प्यास बुझाई जा रही थी. अबू धाबी जैसी जगह, जो अभी 40 वर्ष पहले तक एक छोटा-सा दीन-दुनिया से कटा हुआ द्वीप जैसा था, जिसे खाड़ी के बाहर कोई जानता भी नहीं था, आज यूएई की राजधानी है तथा गल्फ की गार्डन सिटी और पश्चिम एशिया का मेनहट्टन भी कहा जाता है. कुछ सौ लोगों का यह द्वीप आज 10 लाख से भी अधिक लोगों का आधुनिक जगमगाता शहर बन गया है. सभी जानते हैं कि इस छोटे से देश के पास तेल के रूप में ऊर्जा का अकूत खजाना होने पर भी पीने के पानी का भारी अभाव है. तेल सस्ता लेकिन पीने का पानी महंगा. यहां एक से बढ़कर एक अत्याधुनिक, सुंदर कलात्मक इमारतें, बड़ी-बड़ी चौड़ी सड़कें, पार्क, फव्वारे-वास्तव में यह तो रेगिस्तान में एक नखलिस्तान ही है.”

समुद्र के खारे पानी को पेयजल बनाने का संयंत्र


    अगली सुबह डा. कलाम ने भी मीडिया को बताया कि वह ‘उम्म अल नार डिसैलिनेशन प्लांट’ देखने गए थे जहां समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य बनाया जाता था. डा. कलाम ने बताया कि भारत के कई इलाकों में पेय जल का गंभीर संकट है. देश में समुद्री क्षेत्रफल को देखते हुए इस तरह के प्लांट लग जाएं तो हमारे यहां पेय जल की समस्या सुलझ सकती है. लेकिन, उन्होंने यह भी बताया कि अबू धाबी के प्लांट में 'डिसैलिनेशन' से बननेवाले पेय जल की लागत ज्यादा आ रही है. इसे और सस्ता कैसे बनाया जा सकता है. इस पर वह सोच रहे हैं. उन्होंने बताया कि इस तरह के संयंत्रों को सौर ऊर्जा से संचालित कर इसकी लागत में कमी की जा सकती है. उस रात उन्होंने अबू धाबी में एक भारतीय बी आर शेट्टी द्वारा ढाई करोड़ अमेरिकी डालर की लागत से संयुक्त उपक्रम के रूप में स्थापित अत्याधुनिक औषधि कारखाना ‘नियो फार्मा’ का उद्घाटन भी किया था. दवाइयों पर शोध की इस एक आधुनिक प्रयोगशाला में उनका स्वागत बी आर शेट्टी के अलावा यूएई के उच्च शिक्षा एवं वैज्ञानिक शोध मंत्री एवं नियो फार्मा के चेयरमैन शेख नहयान बिन मुबारक अल नहयान ने किया.

भारतीय मूल के बी आर शेट्टी के संयुक्त उपक्रम 'नियो फार्मा' का उद्घाटन
करते डा. कलाम, सबसे बाएं बीआर शेट्टी
    हमारे लिए यह एक अलग तरह का अनुभव था कि राष्ट्रपति किसी देश में पहुंचने के साथ ही अपने देश की पेयजल समस्या के समाधान के लिए देर रात तक ‘डिसैलिनेशन प्लांट’ देखते रहें. रात में ही डा. कलाम ने खाड़ी के देशों में स्थित भारतीय राजनयिकों के साथ मंत्रणा कर इन देशों के सामाजिक, राजनीतिक माहौल का जायजा लेने के साथ ही इन देशों के साथ विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग की संभावनाओं की जानकारी ले ली थी. अगले दिन अबू धाबी में डा. कलाम ‘इंडियन लेडीज एसोसिएशन’ द्वारा संचालित ‘स्पेशल केयर होम’ गये. यहां विकलांग बच्चों का प्रशिक्षण केंद्र था. कलाम साहब यहां खुद बच्चों के प्रशिक्षक बन गये थे. बच्चों के साथ बैठकर उनको सिखाने की चीजें लेकर खुद ही उनसे प्रश्न-उत्तर कर रहे थे. सरला महेश्वरी बताती हैं, “लगता था कि कलाम साहब राष्ट्रपति के अपने पद का भार कहीं बहुत दूर छोड़ आये थे. इतनी आत्मीयता, इतनी निश्छलता वास्तव में उसी में देखी जा सकती है जहां दिलो-दिमाग में एक बच्चे सी पाक आत्मा बसती हो. उसी दिन हम लोग हायर कालेज ऑफ टेक्नालॉजी एवं नॉलेज पार्क में भी गए. डा. कलाम वहां भी विद्यार्थियों से मिले. उनके बीच उन्होंने न सिर्फ प्रेरणादायक भाषण दिया बल्कि विद्यार्थियों को अपने विचारों का सहभागी भी बनाया." उन्होंने राष्ट्राध्यक्षों के औपचारिक भाषण की परंपरा को तोड़ते हुए कहा, "मेरे पास लिखा हुआ भाषण है लेकिन इसे तो आप लोग मेरे वेबसाइट पर भी देख सकते हैं. मैं यहां आपसे सीधी और खुली बातचीत करना चाहता हूं."
    
डा. कलाम के साथ भारतीय मूल के उद्यमी यूसुफ अली
    रात को होटल में भारत के राजदूत सुधीर व्यास की ओर से रात्रि भोज था जिसमें बहुत बड़ी संख्या में वहां रहने वाले भारतीयों को आमंत्रित किया गया था. यहां भी कलाम साहब ने सबको संबोधित किया और श्रोताओं के प्रश्नों का जवाब दिया. अबू धाबी में हमें एम के ग्रुप के भारतीय मूल के प्रबंध निदेशक, बड़े उद्योगपति-व्यवसाई यूसुफ अली एम.ए. से मिलने का अवसर भी मिला. उन्होंने डा.कलाम के साथ चल रहे लोगों, मीडिया कर्मियों को काफी उपहार दिए. हमें इस बात का अनुभव नहीं था, शायद इसलिए भी हमने कोई बड़ा सूटकेस साथ नहीं रखा था लेकिन हमारे कुछ साथियों को इसका खासा अनुभव था. दिल्ली में हवाई अड्डे पर एक साथी पत्रकार ने हमारे छोटे सूटकेस को देख कर कटाक्ष भी किया. विमान में खाने और पीने के हर तरह के इंतजाम के साथ हम जहां जहां
गए, दूतावास के लोगों ने ‘जॉनी वाकर’ की ‘ब्लैक लेबल’ या ‘रेड लेबल’ का इंतजाम अलग से किया था. हमारे लिए वह भी एक अतिरिक्त बोझ ही साबित हो रहा था जिसे हम अपने सामान के साथ ठूंस कर भर रहे थे. अबू धाबी के प्रिंस ने यात्री दल को काफी बेसकीमती उपहार दिए थे. मीडिया के लोगों के हिस्से में एक-एक घड़ी आई थी. उस घड़ी की दिल्ली में कीमत सुनकर हमारे तो होश ही उड़ गए. उस समय उसकी कीमत एक लाख रु. से अधिक थी हालांकि हमारे लिए उसका खास महत्व नहीं रहा. घर में रखे रखे कब वह बंद हो गई, पता ही नहीं चला. बैटरी बदलने में ही 500 रु. की चपत लग गई.

व्यावसायिक राजधानी दुबई में


    हमारा अगला पड़ाव संयुक्त अरब अमीरात की व्यावसायिक राजधानी दुबई में था. संयुक्त अरब अमीरात की शासन व्यवस्था में राष्ट्रपति और उप प्रधानमंत्री अबू धाबी के शाही परिवार का और प्रधानमंत्री तथा उप राष्ट्रपति दुबई के शाही परिवार से होता है. दुबई और शारजाह हम पहले भी जा चुके थे. लेकिन इस बार की बात कुछ और थी. अबू धाबी से दुबई की तकरीबन 150 किलोमीटर की यात्रा सड़क मार्ग से तय की गई. क्या सड़कें थीं. उन पर हवा से बातें करती कारों का काफिला कब दुबई पहुंच गया, कुछ पता ही नहीं चला. वहां डा. कलाम का स्वागत प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन राशिद अल मकतूम ने किया.

दुबई में डा. कलाम अपने काफिले के साथ सीधे इंडियन हाई स्कूल पहुंचे. वहां उन्होंने छात्रों और अध्यापकों के साथ सीधा संवाद किया. उन्होंने किशोर वय के छात्रों को सपने देखने की आवश्यकता समझाते हुए बताया कि वैज्ञानिकों और इंजीनियरों जैसे हजारों स्वप्नदर्शियों के अथक प्रयासों की मदद से ही भारत विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में आगे बढ़ सका और अंतरिक्ष में अपना यान भेजने में सफल रहा है. उन्होंने कहा कि ज्ञान इतना शक्तिशाली है कि यह न केवल आपके दिमाग को तीक्ष्ण बनाता है बल्कि सही गलत का भेद समझने का विवेक और चारित्रिक दृढ़ता भी प्रदान करता है जो कि जीवन में बहुत महत्व रखती है. उन्होंने विद्यालय में अध्ययनरत छात्रों से अध्ययन के बल पर श्रेष्ठता हासिल करने और भारत लौटने पर अपने अनुभवों को साझा करने को कहा.

  
होटल, बुर्ज अल अरब (तस्वीर इंटरनेट से)
 
डा. कलाम ने दुबई में अन्य कार्यक्रमों के अलावा विश्व प्रसिद्ध बुर्ज अल अरब होटल में, जिसकी कुछ मंजिलें गहरे समुद्र में भी हैं, ‘दुबई चैंबर्स ऑफ कामर्स’ के प्रतिनिधियों को भी संबोधित किया. इस होटल के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था. करीब से देखने समझने के बाद यह होटल किसी बड़े आश्चर्य से कम नहीं लगा. किसी समय दुनिया का इकलौता सात सितारा होटल कहे जाने वाले बुर्ज अल अरब का निर्माण जुमैरा बीच के पास समुद्र के बीच में बने कृत्रिम आईलैंड पर किया गया है. समुद्री नौका या कहें जहाज की शक्ल में बने इस होटल में 270 मीटर की ऊंचाई पर हेलीपैड भी बना है, जहां कोई सीधे हेलीकॉप्टर से उतर सकता है. 56 मंजिला इस होटल को इस समय दुनिया में तीसरा सबसे ऊंचा होटल कहा जाता है.

अरब शेखों को बताई ज्ञान की ताकत

    होटल अल बुर्ज के भव्य सभागार में डा. कलाम ने ‘दुबई चैंबर्स ऑफ कामर्स’ के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए भारत और संयुक्त अरब अमीरात के बीच के प्रगाढ़ संबंधों का हवाला दिया और कहा कि एक समय (30-40 साल पहले) ऐसा भी था, जब यहां तपते रेगिस्तान और समुद्र के खारे पानी के अलावा कुछ भी नहीं था. अबू धाबी को पहले समुद्र से निकलनेवाले मोतियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार केंद्र के रूप में जाना जाता था. लेकिन अबू धाबी और दुबई के दो शेखों-शेख जाएद अल नहयान एवं शेख राशिद अल मकतूम के विजन ने इन इलाकों में तेल और प्राकृतिक गैस के अकूत भंडारों की खोज और उसके उत्पादन, विपणन और निर्यात के जरिए इन बंजर और रेगिस्तानी इलाकों का काया पलट ही कर दिया. खाड़ी के देश पेट्रो डालर कमानेवाले देश बन गए. डा. कलाम ने अरब शेखों और उनकी नयी पीढ़ी से मुखातिब होकर कहा, “आज आपके पास पेट्रोल है, गैस है, सोना और डालर भी है. लेकिन इसके भरोसे आप कब तक रहेंगे. यह नवीकरणीय (रिन्यूवेबल) नहीं है. यह एक दिन खत्म हो जाएगा. तब क्या होगा.” उन्होंने ऊपर आसमान की ओर दिखाते हुए कहा, “हमें सूर्य के प्रकाश और उसकी ऊर्जा के उपयोग के बारे में सोचना होगा जिसे कहते हैं कि यह दस अरब वर्षों तक सुरक्षित रहेगी. हालांकि यह भी अक्षुण्ण नहीं है. इसका भी आधा समय बीत चुका है.” फिर अक्षुण्ण और रिन्यूवेबल क्या है, पूछते हुए उन्होंने खुद ही जवाब दिया था, ‘ज्ञान. आपको ज्ञान की खोज और विकास की तरफ देखना होगा.’ उन्होंने बताया कि भारत ने 2020 तक विकसित राष्ट्र बनने के लिए विजन 2020 बनाया है. आप (अरब के शेखों) के पास दौलत है और हमारे (भारत) पास ज्ञान और विजन. दोनों मिलकर, एक दूसरे से सहयोग कर एक नया और खुशहाल जहां (विश्व) बना सकते हैं. उनके इतना भर कहते ही पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. कई मिनट तक तालियां बजती ही रहीं. उस समय मुझे लगा कि प्रेसीडेंट डा. कलाम के मायने क्या हैं.

    वहां से हम लोग ‘नालेज विलेज’ गये, छात्रों से मुलाकात की. सूचना तकनीक के क्षेत्र में क्या-क्या हो रहा है, किस तरह दोनों देशों के बीच इस तकनीक को लेकर आपसी सहयोग बढ़ाया जा सकता है, यही उनकी चिंता के केंद्र में रहा. यहां पर उन्होंने ‘साइबर यूनिवर्सिटी’ की अपनी परिकल्पना भी रखी. दुबई में एक अन्य एकेडेमिक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि जिस तरह से कंप्यूटर का विकास हो रहा है, वर्ष 2009 तक कंप्यूटर मानव मस्तिष्क से आगे निकल जाएगा. लेकिन तब भी एक फर्क रहेगा. कंप्यूटर श्रृजन नहीं कर सकता जबकि मनुष्य श्रृजन कर सकता है. उन्होंने कहा कि शांति और विकास को अलग-अलग नहीं कर सकते. दोनों को साथ-साथ चलना होगा.

    डा. कलाम ने कंप्यूटर स्लाइडों और लेजर प्वाइंट प्रेजेंटेशन के जरिए छात्रों को ज्ञान और विकास के बारे में समझाया. शिक्षक की भूमिका में उन्होंने छात्रों एवं वहां बैठे लोगों से खुद को जोड़ते हुए कहा, ‘जो मैं कहूंगा उसे आप सब दोहराएंगे?’ सबके हामी भरने पर उन्होंने कहा, ‘‘ड्रीम, ड्रीम, ड्रीम. ट्रांस्फार्म योर ड्रीम इनटू थाट्स एवं ट्रांस्फार्म योर थाट्स इनटू ऐक्शन.” यानी सपने देखिए. सपने को विचार में और विचार को क्रियान्वयन में बदलिए. उन्होंने छात्रों से कहा कि वे खुद से सवाल पूछें कि वे अपने देश और समाज के लिए ऐसा क्या कर सकते हैं जिसके लिए उन्हें भविष्य में याद किया जाएगा. सवाल-जवाब के क्रम में एक सवाल के जवाब में उन्होंने अपने स्कूली जीवन को याद करते हुए बताया कि कैसे उनके गुरु ने स्कूल से बाहर समुद्र किनारे पक्षियों की उड़ान के बारे में ज्ञान दिया था. इस ज्ञान को आधार बनाकर अपनी शिक्षा के क्रम से लेकर ‘राकेट और मिसाइल मैन’ बनने तक की सफलता के बारे में समझाते हुए उन्होंने बताया, ‘उस ज्ञान की बदौलत ही मैं इस (राष्ट्रपति) रूप में उड़ते हुए आपके बीच आ सका हूं.’ दुबई में हमने एक और ब्रीफ केस खरीद लिया लेकिन बाद में वह भी छोटा ही साबित होने लगा. फिर हमारे एक पत्रकार मित्र का कटाक्ष सुनने को मिला, " कभी बड़ा भी सोचो." अब उन्हें हम यह कैसे बताते कि बड़ा रखने और सोचने की अपनी कभी हैसियत ही नहीं रही.

नोटः यात्रा के इस क्रम में अब अगले पड़ाव, सूडान के बारे में चर्चा होगी. अगले सप्ताह किसी और दिन!

Saturday, 18 July 2020

Political Crisis in Rajsthan


राजस्थान में राजनीतिक शह और मात का खेल

पहली बाजी गहलोत के हाथ

जयशंकर गुप्त

राजस्थान का सत्ता संघर्ष अब पुलिस और अदालत के पास पहुंच गया है. मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह ही राजस्थान में भी कांग्रेस के बागी तेवर अपनाए नेता सचिन पायलट के सहारे सत्ता में आने के भारतीय जनता पार्टी के मंशूबे फिलहाल तो धराशायी होते साफ दिख रहे हैं. सचिन पायलट कांग्रेस और इसकी सरकार को समर्थन दे रहे सहयोगी दल तथा निर्दलीय विधायकों की अपेक्षित संख्या अपने साथ ला पाने में विफल साबित होने के बाद एक बार फिर से भाजपा में नहीं जाने और कांग्रेस में ही बने होने का राग अलापने लगे हैं. लेकिन अभी भी उनके डेढ़ दर्जन समर्थक विधायकों के साथ हरियाणा में भाजपा की खट्टर सरकार की सुरक्षा और आतिथ्य में मानेसर के पास एक 'पांच सितारा रेजार्ट' में डेरा जमाए बैठे हैं. बाजी पलटते देख इन विधायकों का मनोबल भी जवाब देने लगा है. 
 इस बीच पायलट के सहयोगी,

कांग्रेस के बुजुर्ग विधायक भंवरलाल शर्मा और गहलोत सरकार में कल तक मंत्री रहे विश्वेंद्र सिंह के साथ भाजपा के वरिष्ठ नेता, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत और संजय जैन के बीच कांग्रेस के विधायकों की खरीद-फरोख्त की कथित बातचीत का आडियो जारी हो जाने और पुलिस के द्वारा संबद्ध व्यक्तियों के विरुद्ध राजद्रोह का मामला दर्ज कर पूछताछ शुरू कर देने से इस पूरे प्रकरण में एक नया मोड़ आ गया है. संजय जैन गिरफ्तार हो चुके हैं जबकि कांग्रेस ने अपने दो विधायकों-भंवरलाल शर्मा और विश्वेंद्र सिंह को निलंबित कर दिया है. पुलिस बाकी लोगों के पीछे पड़ी है.

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राज्यसभा के पिछले चुनाव के समय से ही उनकी पार्टी के विधायकों की खरीद-फरोख्त और उनकी सरकार को गिराने के षडयंत्र का आरोप भाजपा पर लगाते रहे हैं. इसके लिए उन्होंने एसओजी बनाकर जांच भी शुरू करवाई थी जिसमें पूछताछ के लिए अन्य लोगों के साथ ही प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री रहे युवा नेता सचिन पायलट को भी नोटिस भेजा गया था. सचिन की तात्कालिक नाराजगी इस बात को लेकर ही ज्यादा बताई जा रही है. 

लेकिन इस नाराजगी की अभिव्यक्ति का समय, स्थान और जो तरीका उन्होंने चुना, वह किसी और बात के संकेत दे रहा था. ऐसे समय में जबकि केंद्र से लेकर अन्य राज्य सरकारें भी कोरोना जैसी महामारी से जूझ रही हैं, वह अपने समर्थक विधायकों के साथ दिल्ली, हरियाणा चले गये. वहां से उन्होंने 12 जुलाई को बगावती तेवर में कहा, ''हमारे पास 30 विधायक हैं. अल्पमत में आ गई गहलोत सरकार को विधानसभा में अपना बहुमत साबित करना चाहिए.'' इस तरह की बात कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री के पद पर रहते कोई कैसे कर सकता है. अगर उन्हें गहलोत और उनके नेतृत्व से किसी तरह की शिकायत थी तो उसे उन्हें कांग्रेस के उचित मंच पर उठाना चाहिए था और अगर गहलोत सरकार से विश्वास मत प्राप्त करने को ही कहना था तो इसके पहले उन्हें अपने समर्थक विधायकों के सरकार से समर्थन वापस लेनेवाले स्व हस्ताक्षरित पत्र के साथ पूरी सूची राज्यपाल को देनी चाहिए थी और उनसे मांग करनी चाहिए थी कि वे गहलोत सरकार से विश्वासमत हासिल करने को कहें. लेकिन ऐसा करते ही सभी विधायकों की सदस्यता जाने का खतरा था क्योंकि दलबदल विरोधी कानून के तहत अलग दल अथवा गुट बनाने के लिए विधायक दल के दो तिहाई सदस्यों का साथ होना जरूरी है. लेकिन यहां तो उनके साथ एक तिहाई विधायक भी नहीं थे. उन्हें और उनके समर्थकों को उम्मीद थी कि केंद्र सरकार और भाजपा उनकी मदद के लिए खुलकर सामने आएगी और बाकी विधायकों का जुगाड़ करने में मदद करेगी. लेकिन सचिन के दावे के विपरीत कांग्रेस के 30 विधायक भी उनके साथ नहीं दिखे. मानेसर के पास रेजॉर्ट में उनके साथ कांग्रेस के 18 और तीन अन्य निर्दलीय विधायक ही बताए गये. राजस्थान के सत्ता संघर्ष में बाजी पलटते देख इनमें से भी कुछ वापस जयपुर लौटने के मूड में दिख रहे हैं. 

इस बीच समर्थकों के साथ सचिन के खुली बगावत के तेवर देख कांग्रेस आलाकमान का रुख भी उनके विरुद्ध हो गया. उनके सरपरस्त कहे जानेवाले कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी उन्हें प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री तथा उनके दो अन्य समर्थकों को भी मंत्री पद से हटाने, भंवरलाल शर्मा और विश्वेंद्र सिंह को पार्टी से निलंबित करने के फैसले पर हामी भर दी. यहां तक कि सचिन पायलट और उनके समर्थकों की कांग्रेस की मुख्यधारा में वापसी की चर्चाओं और प्रयासों के बीच राहुल गांधी ने एनएसयूआई के एक कार्यक्रम में कहा कि 'जिसे पार्टी छोड़कर जाना है, वह तो जाएगा ही.' 


वैसे, कांग्रेस आलाकमान ने अपने बागी नेताओं, विधायकों को लौटने के मौके भी कम नहीं दिए. 13 जुलाई को सभी विधायकों को 'ह्विप' जारी कर जयपुर में कांग्रेस विधायक दल की बैठक में शामिल होने को कहा गया. पहले दिन उनके नहीं आने पर विधायक दल की बैठक दूसरे दिन भी बुलाई गई. दूसरे दिन 14 जुलाई को एक घंटे का अतिरिक्त इंतजार भी किया गया तब भी वे नहीं आए तो पायलट को प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री के पद से तथा उनके समर्थक विश्वेंद्र सिंह और रमेश मीणा को मंत्री पद से बर्खास्त कर दिया गया. अगले दिन कांग्रेस ने 'ह्विप' के उल्लंघन का आरोप लगाकर विधानसभाध्यक्ष सीपी जोशी के कार्यालय से सचिन सहित पार्टी के 19 विधायकों की सदस्यता समाप्त करने से संबंधित नोटिस भिजवा दिया. 

हालांकि संसद अथवा विधानमंडल के बाहर भी पार्टी के 'ह्विप' के उल्लंघन पर सांसद अथवा विधायक की सदस्यता जा सकती है, इसके बारे में दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि ह्विप संसद अथवा विधानमंडल के भीतर ही प्रभावी होता है. शायद इसी तर्क का सहारा लेकर सचिन पायलट और उनके समर्थक राजस्थान हाईकोर्ट की शरण में चले गये. हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई 20 जुलाई तक के लिए टालते हुए अपने अंतरिम आदेश में विधानसभाध्यक्ष से 21 जुलाई तक इस मामले में 19 विधायकों के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लेने को कहा है.   

म.प्र. में सिंधिया प्रकरण के बाद जिस जोर शोर से सचिन भाजपा के साथ नहीं जाने की कसमें खा रहे थे, उसी समय लग रहा था कि वह राजनीतिक सौदेबाजी बढ़ा रहे हैं और आज नहीं तो कल वह अपने मित्र ज्योतिरादित्य के राजनीतिक हम सफर ही बनेंगे. अब बाजी पलटते देख वह कह रहे हैं कि भाजपा में कतई नहीं जानेवाले हैं. उन्हें भाजपा के साथ जोड़कर बदनाम किया जा रहा है. उनके विरुद्ध कांग्रेस की कार्रवाई पर उनकी प्रतिक्रया थी, 'सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं.' ज्योतिरादित्य की तरह वह भी कांग्रेस में और सरकार में भी गहलोत के द्वारा अपनी उपेक्षा के आरोप लगाते रहे हैं.

वैसे, कांग्रेस में उनकी तथा अन्य युवा नेताओं की उपेक्षा आदि की बातें बेमानी लगती हैं. सच तो यह है कि आज की सत्तारूढ़ राजनीति में नेता खासतौर से बड़े बाप की संतानें, जिन्हें राजनीति में बहुत कम समय में बहुत ज्यादा मिल गया हो, किसी दल के साथ विचारधारा और जन कल्याण के लिए अपनी प्रतिबद्धता के कारण नहीं बल्कि सत्ता की बंदरबांट में अपनी मोटी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए ही जुड़ते हैं. ज्योतिरादित्य और सचिन जैसे लोगों को इतने कम समय में इतना ज्यादा कुछ इसलिए ही मिला क्योंकि वे कांग्रेस में बड़े और दिवंगत नेताओं के बेटे हैं. सचिन 26 साल की उम्र में सांसद, 32 साल में केंद्र सरकार में मंत्री, 36 साल की उम्र में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और 40 साल की उम्र में उप मुख्यमंत्री बन गये थे. इतने कम समय (17 साल के राजनीतिक जीवन) में इतनी राजनीतिक उपलब्धियां पार्टी में उनकी उपेक्षा नहीं बल्कि आलाकमान तक उनकी पहुंच का प्रतीक ही कही जा सकती हैं. तकरीबन इसी तरह की उपलब्धियां ज्योतिरादित्य सिंधिया के खाते में भी थीं. लेकिन जिस तरह भाजपा में शामिल होने से पहले सिंधिया भाजपा में हरगिज नहीं जाने की कसमें खाते थे, उनके वहां पहुंच जाने के बाद, उसी तरह की बल्कि उससे ज्यादा बढ़चढ़कर कसमें सचिन भी खा रहे थे. उन्होंने तो अपनी वल्दियत की कसमें भी खाई. लेकिन राजनीति में कसमों और वादों का अर्थ शायद दूसरे ही अर्थों में लिया जाना चाहिए, कम से कम इन दो प्रकरणों ने तो यही साबित किया है.

और फिर कांग्रेस में उपेक्षा के आरोप लगाकर भाजपा में जानेवालों की फेहरिश्त लंबी है. आज वे किस हाल में हैं! हरियाणा में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्रसिंह हुड्डा से राजनीतिक मार-खार खाए, भाजपा में गये हरियाणा के चौधरी वीरेंद्र सिंह, राव इंद्रजीत सिंह, अशोक तंवर, असम में तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई से त्रस्त हिमंत विश्व सरमा, उत्तराखंड में विजय बहुगुणा, उनकी बहन रीता जोशी, हरक सिंह रावत, सतपाल महाराज, यूपी में जगदंबिका पाल, कर्नाटक में एसएम कृष्णा जैसे कितने ही लोग इसी तरह कांग्रेस में उपेक्षा और सम्मान नहीं मिलने के आरोप लगाते हुए और यह सोचते हुए भाजपा में गये कि वहां जाकर वह राज्य में नंबर एक नेता, मुख्यमंत्री, केंद्र में मंत्री बनेंगे! आज भाजपा में उनकी दशा-दुर्दशा देखने लायक है. मेनका और उनके पुत्र वरुण गांधी को भाजपा में मिला शुरुआती सम्मान अब न जाने कहां चला गया. आगे चलकर यही हश्र ज्योतिरादित्य और अगर उनकी राह ही चले तो सचिन का भी तो हो सकता है! लेकिन सत्ता के 'सबसे बड़े जाम' की चाहत में 'राजनीतिक शराबी' को यह नहीं दिखता कि सत्तारूढ़ राजनीति के 'मयखाने' में उसके कितने पूर्ववर्ती किस-किस कोने में गिरे पड़े, किस हाल में हैं.

 राजस्थान के सत्ता संघर्ष में फिलहाल तो सचिन पायलट और नेपथ्य में रहकर उनके कंधे पर बंदूक रखकर राजनीतिक शिकार की फिराक में रही भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है. इसका एक कारण तो सचिन के 30 अथवा इससे अधिक कांग्रेसी विधायक साथ रहने के दावे में दम नहीं था, दूसरे राजस्थान में भाजपा की अंदरूनी गुटबाजी ने भी उनका खेल बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. केंद्रीय नेतृत्व के न चाहने के बावजूद राजस्थान भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा बनी हुई पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इस पूरे प्रकरण में निर्लिप्त सी रहीं. भाजपा की सहयोगी रालोपा के सांसद हनुमान बेनीवाल ने तो उन पर गहलोत के परोक्ष समर्थन का आरोप भी लगाया है. हालांकि इसके ठोस सबूत सामने नहीं हैं लेकिन यह तो सच है कि सत्ता पलटने के इस खेल के सफल होने पर अगला मुख्यमंत्री वसुंधरा के दो कट्टर विरोधियों-कांग्रेस के बागी सचिन पायलट अथवा भाजपा में उनके कट्टर विरोधी गजेंद्र सिंह शेखावत में से ही कोई बनता. मुख्यमंत्री रहते शेखावत को प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष भी कबूल नहीं करनेवाली धौलपुर की महारानी को यह कैसे कबूल होता! उधर अशोक गहलोत ने विधायकों की कथित खरीद-फरोख्त की जांच का जिम्मा उनके करीबी पुलिस अफसर शशांक राठोड को देकर भी उन्हें एक तरह से खुश ही किया है.


                                                    केंद्रीय जल संसाधन मंत्री गजेंद्रसिंह शेखावत

इस बीच भाजपा के दिग्गज दलित नेता, विधायक और पूर्व विधानसभाध्यक्ष कैलाश मेघवाल ने अपनी ही पार्टी पर कांग्रेस के विधायकों की खरीद-फरोख्त से गहलोत सरकार गिराने की साजिश रचने का आरोप लगाकर भाजपा नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर दिया है. उन्होंने अशोक गहलोत के आरोपों को विश्वसनीयता प्रदान कर भाजपा की मुश्किलें बढ़ा दी हैं.

 जहां तक विधायकों की संख्या का सवाल है. अगर कांग्रेस के 30 विधायक विधानसभा से त्यागपतत्र दे देते, और कांग्रेस का साथ दे रहे दस निर्दलीय विधायकों में से अधिकतर तथा सहयोगी दल-भारतीय ट्राइबल पार्टी, और रालोद के चार विधायक भी सचिन के साथ खड़े होते तो शायद सरकार पर किसी तरह का खतरा भी होता क्योंकि 200 सदस्यों की विधानसभा में 30 विधायकों के त्यागपत्र के बाद बाकी बचे 170 विधायकों में से बहुमत के लिए 86 विधायकों का समर्थन आवश्यक होता. अभी कांग्रेस के पास कुल 107 विधायक हैं. 30 विधायकों के त्यागपत्र के बाद उसके पास 77 विधायक बचते जबकि 13 निर्दलीयों में से 10, भारतीय ट्राइबल पार्टी के दो और रालोद के एक विधायक का समर्थन भी गहलोत सरकार के साथ है. माकपा के विधायक भी उसके साथ ही हैं. भाजपा के पास अभी कुल 72 विधायक हैं जबकि उसे तीन निर्दलीय विधायकों तथा हनुमान बेनीवाल की रालोपा के तीन विधायकों का समर्थन भी है. इस तरह से भी गहलोत सरकार के सामने ऐसा संकट नहीं नजर आ रहा था जिससे सरकार गिर जाती और फिर सचिन पायलट विधायकी छोड़ सकनेवाले कांग्रेस के 30 विधायक भी तो नहीं जुटा सके.

बहरहाल, अब सचिन की बगावत का 'राजनीतिक गर्भापात' हो जाने के बाद उनके और उनके समर्थकों के पास भविष्य की राजनीति के लिए विकल्प बहुत सीमित रह गये लगते हैं. अब या तो वह मन मारकर अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस में लौटकर भविष्य की रणनीति पर काम करें, कांग्रेस और विधानसभा की सदस्यता त्यागकर भाजपा में शामिल हो जाएं अथवा एक अलग क्षेत्रीय पार्टी का गठन कर सरकार गिराने के खेल में नये सिरे से सक्रिय हो जाएं. राजस्थान के राजनीतिक इतिहास के मद्देनजर राज्य में तीसरी राजनीतिक ताकत के नंबरवन बनने का प्रयोग अभी तक तो सफल होते नहीं दिखा है. और बिना कुछ ठोस मिले विधानसभा की सदस्यता गंवाकर इसके लिए उनके समर्थक विधायकों के तैयार होने के बारे में भी यकीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता. सत्ता परिवर्तन हुए बगैर भाजपा में जाने की बात भी समझ से परे की ही लगती है. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि राजस्थान के राजनीतिक झंझावातों में कहीं फंस गया पायलट के राजनीतिक विमान की लैंडिंग कहां होनेवाली है. लेकिन यह सब लिखने का मतलब यह कतई नहीं कि हम ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट के मुकाबले कमलनाथ अथवा अशोक गहलौत और उनकी सरकारों के कामकाज, उनकी राजनीतिक कार्यशैली के पक्षधर हैं. कमलनाथ और गहलौत ने भी पार्टी में अपने विरोधियों को बौना बनाने, अपने बेटों को आगे बढ़ाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी. शासन- प्रशासन में पूर्ववर्ती भाजपाई सरकारों और इनकी सरकारों के बीच बहुत ज्यादा गुणात्मक फर्क मुझे तो नजर नहीं आया. उन्नीस-बीस का फर्क हो सकता है, इक्कीस का फर्क तो कतई नहीं लगा. सत्ता में भाजपा के लुटेरों की जगह राज्य में कांग्रेस के पॉवर ब्रोकर और लुटेरे सक्रिय हो गये. विधायकों की 'जोड़-तोड़' का सहारा इन दोनों ने भी लिया. कमलनाथ और गहलोत ने भी संबद्ध राज्यों में सपा, बसपा के समर्थक विधायकों को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल करवाया. लेकिन केंद्र में भाजपा के सत्तारूढ़ रहते उनकी सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी.

  भाजपा के इरादे स्पष्ट हैं. उसे हर हाल में हर जगह अपनी सरकार चाहिए, जनादेश की ऐसी तैसी! अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, कर्नाटक, गोवा, मेघालय, मणिपुर, मध्यप्रदेश में वह इस तरह के प्रयोग कर चुकी है. राजस्थान में उसका यह खेल सफल हो जाता ते उसका अगला पड़ाव झारखंड, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में भी होता ही. राजस्थान में एक बार मुंह की खाने के बावजूद वह शांत होकर बैठने और कांग्रेस की सरकार को अपना कार्यकाल पूरा करने देने के मूड में कतई नहीं रहेगी. निर्णायक स्थिति के इंतजार में दिखावे के लिए वह बगुला भगत बने, मछली के और करीब आने का इंतजार करेगी. राजस्थान में ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स जैसे उसके 'कारिंदे' सक्रिय हो गये हैं. कांग्रेस के लोगों के यहां छापे पड़ने शुरू हो गये हैं. सरकार पलटने-बचाने का खेल अभी चालू रहनेवाला है. 

 कोरोना से बचने की जंग आप खुद लड़िए. 'कांग्रेस मुक्त' राज्य के नाम पर 'कांग्रेस युक्त' सरकारें भी हाथ में रहें तो कोरोना जैसी महामारी की चुनौतियों से भाजपा की राजनीतिक सेहत पर खास असर नहीं पड़ने वाला! आखिरकार, वोट उसे कोरोना, महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी और अव्यवस्था से लड़ने नाम पर तो मिलते नहीं! इसलिए मस्त रहिए. कोरोना, महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी के साथ जीने की आदत डाल लीजिए. हमारे प्रधानमंत्री जी भी तो ऐसा ही चाहते-कहते हैं, 'कोरोना संग जीने की आदत डाल लेनी चाहिए.'


Wednesday, 1 July 2020

आपातकाल बनाम अघोषित आपातकाल

पीटीआई को प्रसार भारती की धमकी
आपातकाल बनाम अघोषित आपातकाल

जयशंकर गुप्त

अभी आपातकाल की 45वीं बरसी को एक-दो दिन भी नहीं बीते थे जब आपातकाल के असली-नकली 'योद्धाओं' (माफीवीरों) ने आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का काला अध्याय करार दिया था. आपातकाल की ज्यादतियों, प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटे जाने को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कांग्रेस को जमकर कोसा था. लानत मलामतें भेजी गई थीं और फिर ऐसा दोबारा नहीं होने देने की कसमें भी खाई गई थीं. लेकिन एक दिन बाद ही हमारे 'नेशनल ब्राडकास्टर' प्रसार भारती ने इस देश की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी पीटीआई (प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया) को राष्ट्र विरोधी करार देते हुए धमकी भरा पत्र भेजकर 'अघोषित आपातकाल' का व्यावहारिक एहसास करा दिया है.

पीटीआई का 'गुनाह' सिर्फ इतना भर है कि उसने लद्दाख में चीन की घुसपैठ, गलवान घाटी और आसपास के इलाकों में वास्तविक नियंत्रण रेखा के भारतीय हिस्से की तरफ उसके कब्जा जमाने और वहां भारतीय सेना की बिहार रेजीमेंट के 20 जवानों की शहादत आदि की पृष्ठभूमि में अपने पत्रकारीय दायित्वों का निर्वाह करते हुए नई दिल्ली में चीन के राजदूत सुन वेईडोंग (Sun Weidong) और चीन की राजधानी बीजिंग में भारत के राजदूत विक्रम मिस्री के इंटरव्यू प्रसारित कर दिए. इसमें कुछ भी गलत नहीं था लेकिन दोनों इंटरव्यूज से लद्दाख में चीन की घुसपैठ को लेकर भारत सरकार और खासतौर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दावे खंडित हो रहे थे.

इसको लेकर सत्ता के गलियारों में खलबली मची और पीटीआई के दुनिया भर में 400 से अधिक बड़े ग्राहकों में से सबसे बड़ा कहे जानेवाले प्रसार भारती ने शनिवार, 27 जून को पीटीआई के मार्केटिंग विभाग को पत्र लिखकर कहा कि लद्दाख प्रकरण में पीटीआई की रिपोर्टिंग और खासतौर से उसके इंटरव्यूज देश द्रोह की तरह के हैं. पीटीआई की देश विरोधी रिपोर्टिंग के कारण उसके साथ अपने संबंध जारी रखने पर पुनर्विचार किया जाएगा.
गौरतलब है कि भारत सरकार से वित्त पोषित प्रसार भारती से गैर लाभकारी समाचार एजेंसी, पीटीआई को प्रति वर्ष करोड़ों रुपये का भुगतान होता है. पीटीआई की ख्याति समाचारों, लेखों, तस्वीरों और इंटरव्यूज को ठोंक बजाकर अधिकृत रुख जानने के बाद प्रसारित करनेवाली समाचार एजेंसी की रही है. लेकिन जाहिर सी बात है कि प्रसार भारती और उसके पीठ पीछे सक्रिय लोग थोड़ा और आगे बढ़कर पीटीआई से प्रसारित होनेवाले समाचारों को मनमुआफिक ही देखना चाहते हैं.

इसी तरह की कोशिश तो आपातकाल में इंदिरा गांधी और उनकी सरकार ने भी की थी. सत्तर के दशक के मध्यार्ध में खासतौर से 1974 के जेपी आंदोलन, इलाहाबाद हाईकोर्ट के श्रीमती गांधी के चुनाव को रद्द करने के फैसले के बाद मीडिया, समाचार एजेंसियों की कवरेज, श्रीमती गांधी को पद त्याग करने के सुझावस्वरूप लिखे गये संपादकीय आदि को लेकर श्रीमती गांधी और उनके दरबारी बहुत नाखुश थे. उनके पुत्र संजय गांधी तब पीटीआई और यूएनआई से इस बात पर नाराज थे कि इन दोनों प्रमुख एजेंसियों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा के फैसले को हूबहू क्यों प्रसारित कर दिया था. उसे ट्विस्ट कर इस तरह से क्यों नहीं जारी किया था जो श्रीमती गांधी के हित में हो, उनके प्रति जन सहानुभूति पैदा करे.

उस समय देश में चार बड़ी समाचार एजेंसियां थीं- पीटीआई, यूएनआई, हिन्दुस्तान समाचार और समाचार भारती. चारों एजेंसियां एक दूसरे से होड़ में अलग अलग सूत्रों से प्राप्त अलग समाचार जारी करती थीं. तत्कालीन सत्ता को लगा कि चारों एजेंसियों को एक में विलीन कर देने से सूचना-संवाद के प्रवाह को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है. शुरू में किसी भी समाचार एजेंसी का प्रबंधन इसके लिए तैयार नहीं हुआ. तब इसके लिए समाचार एजेंसियों पर सरकारी दबाव बनाया गया. उस समय प्रसार भारती तो था नहीं लेकिन तब भी आकाशवाणी और दूरदर्शन तथा सरकारी विभाग समाचार एजेंसियों के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण ग्राहक (सब्सक्राइबर) थे. सरकार की तरफ से उसका प्रस्ताव नहीं मानने पर न सिर्फ एजेंसियों की सेवा लेना बंद करने बल्कि उनके पुराने बकायों का भुगतान रोक कर उन्हें आर्थिक रूप से पंगु बना देने की धमकियां दी गईं. और कोई विकल्प नहीं होने के कारण समाचार एजेंसियों के प्रबंधन ने घुटने टेक दिए. उसके बाद ही चारों एजेंसियों को आपस में विलीन कर एक नई एजेंसी 'समाचार' बनाई गई थी. इसके साथ ही पूरे आपातकाल के दौरान प्रेस पर सेंसरशिप के जरिए अंकुश लगाने आदि की बातें हुई थीं जिस पर अलग से लिखा जा सकता है.

मीडिया के साथ अभी भी तो यही हो रहा है ! यानी कहने को तो देश में आपातकाल नहीं है लेकिन काम सारे वही हो रहे हैं! अखबार, पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर आमतौर पर सरकार की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं छपता, नही प्रसारित होता है. जो कोई इस तरह की 'गुस्ताखी' करता है, उसे धमकियां मिलती हैं, उसकी नौकरी पर बन आती है, उसके विरुद्ध मुकदमें होते हैं, उसके पीछे सोशल मीडिया पर सक्रिय ट्रोल्स गालियों और अपशब्दों की बौछार शुरू कर देते हैं. इसी क्रम में पीटीआई (यूएनआई और हिन्दुस्तान समाचार का हाल पहले से बुरा है) को आर्थिक रूप से पंगु बनाने की धमकी देकर एक तरफ तो उसे भी 'हिज मास्टर्स वायस' बनाने की कोशिश की जा रही है, दूसरी तरफ, उसकी जगह एएनआइ जैसी सरकार की किसी और 'हिज मास्टर्स वायस' समाचार एजेंसी को प्रोमोट कर मजबूत बनाने और पीटीआई के मुकाबले खड़ा करने की कोशिश हो सकती है.

लेकिन ताजा संदर्भ में प्रसार भारती की धमकी से यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या अब यह सरकार या उसके द्वारा वित्त पोषित प्रसार भारती के लोग तय करेंगे कि अखबार, समाचार एजेंसी और टीवी चैनल किसका इंटरव्यू करेंगे और किसका नहीं. इसके आगे क्या अब यह भी ये लोग ही तय करेंगे कि कौन सा समाचार छपेगा या प्रसारित होगा और कौन नहीं! इसे अघोषित आपातकाल नहीं तो और क्या कहेंगे!

आपातकाल, संघर्ष और सबक


आपातकाल, संघर्ष और सबक

जयशंकर गुप्त
इस 25-26 जून, 2020 को आपातकाल की 45वीं बरसी मनाई जा रही है. इस साल भी पिछले 44 वर्षों की तरह आपातकाल के काले दिनों को याद करने, इस बहाने इंदिरा गांधी के 'अधिनायकवादी रवैए' को कोसने की रस्म निभाने के साथ ही, लोकतंत्र की रक्षा की कसमें खाई जा रही हैं. ऐसा करनेवालों में बहुत सारे वे 'लोकतंत्र प्रहरी' भी हैं जिनमें से कइयों ने और उनके संगठन ने भी आपातकाल में सरकार के सामने घुटने टेक दिए थे या फिर वे जो आज सत्तारूढ़ हो कर अघोषित आपातकाल के जरिए लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं के साथ कमोबेस वही सब कर रहे हैं जिनके लिए हम सब इंदिरा गांधी और उनके आपातकाल को कोसते रहे हैं.
वाकई आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के स्वरों और शब्दों को दबाने के प्रयासों को आज भी न सिर्फ याद रखने बल्कि उनके प्रति चौकस रहने की भी जरूरत है ताकि देश और देशवासियों को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े और भविष्य में भी कोई सत्तारूढ़ दल और उसका नेता वैसी हरकत की हिमाकत नहीं कर सके जैसा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25-26 जून 1975 की दरम्यानी रात में किया था.
उस कालीरात को देश को आपातकाल और सेंसरशिप के हवाले कर नागरिक अधिकार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताएं छीन ली गई थीं. लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित तमाम राजनीतिक विरोधियों को उनके घरों, ठिकानों से उठाकर जेलों में डाल दिया गया था. अभिव्यक्ति की आजादी पर सेंसरशिप का ताला जड़ दिया गया था. पत्र-पत्रिकाओं में वही सब छपता और आकाशवाणी-दूरदर्शन पर वही प्रसारित होता था जो उस समय की सरकार चाहती थी. प्रकाशन-प्रसारण से पहले सामग्री को प्राधिकृत सेंसर अधिकारी के पास भेज कर उसे सेंसर करवाना पड़ता था.

आपातकाल क्यों!

इंदिरा गांधी ने देश को आपातकाल के हवाले क्यों किया था ! 1971 के आम चुनाव में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध में भारतीय सेना के हाथों पाकिस्तान की शर्मनाक शिकस्त और पाकिस्तान से अलग बांग्लादेश के निर्माण के साथ ही बैंकों के राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रिवी पर्स की समाप्ति जैसे अपने लोकलुभावन फैसलों पर आधारित गरीबी हटाओ के नारे के साथ लोकप्रियता के चरम पर पहुंच कर प्रचंड बहुमत के साथ सत्तारूढ़ हुईं श्रीमती गांधी ने अपने सरकारी प्रचारतंत्र और मीडिया का सहारा लेकर आम जनता के बीच अपनी गरीब हितैषी और अमीर विरोधी छवि बनाई थी. लेकिन आगे चलकर गुजरात के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रावास में बढ़ी फीस और घटिया भोजन की आपूर्ति के विरुद्ध शुरू हुए छात्र आंदोलन ने गुजरात में नव निर्माण आंदोलन का व्यापक रूप धर लिया था. इस आंदोलन की परिणति राज्य में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर बाबूभाई जसु भाई पटेल के नेतृत्व में जनता मोर्चे की सरकार के गठन के रूप में हुई थी.
गुजरात के नव निर्माण आंदोलन का विस्तार बिहार आंदोलन के रूप में हुआ जिसने आगे चलकर देश भर में संपूर्ण क्रांति आंदोलन का रूप धर लिया था. महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के चरम पर पहुंचने से क्रुद्ध देश भर के छात्र-युवा और आम जन भी 72 साल के बुजुर्ग समाजवादी-सर्वोदयी नेता, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के पीछे अहिंसक और अनुशासित तरीके से लामबंद होने लगे थे. गुजरात और बिहार की परिधि को लांघते हुए सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन देश के अन्य हिस्सों में भी जंगल की आग की तरह फैलने लगा. इस आंदोलन ने न सिर्फ राज्य की कांग्रेसी सरकारों बल्कि केंद्र में सर्व शक्तिमान इंदिरा गांधी की सरकार को भी भीतर से झकझोर दिया था. इस आंदोलन को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर प्रायः सभी गैर कांग्रेसी दलों का सहयोग-समर्थन था. असंतोष के स्वर कांग्रेस के भीतर चंद्रशेखर, मोहन धारिया, रामधन और कृष्णकांत जैसे पूर्व समाजवादी युवा तुर्क नेताओं की ओर से भी उभरने लगे थे. तभी 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हां का ऐतिहासिक फैसला और उसके साथ ही शाम को गुजरात में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करनेवाला विधानसभा के चुनाव का नतीजा भी आ गया. जस्टिस सिन्हां ने अपने ऐतिहासिक फैसले में रायबरेली से श्रीमती गांधी के लोकसभा चुनाव को चुनौती देनेवाली समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर फैसला सुनाते हुए श्रीमती गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया. उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द करने के साथ ही उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया था. 24 जून को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भी इस फैसले पर मुहर लगा दी गयी थी. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की आंशिक राहत दे दी थी. वह लोकसभा में जा सकती थीं लेकिन वोट नहीं कर सकती थीं. उधर उनके पद त्याग नहीं करने की स्थिति में अगले दिन 25 जून को दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में संपूर्ण क्रांति आंदोलन का नेतृत्व कर रहे समाजवादी-सर्वोदयी नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण एवं सम्पूर्ण विपक्ष ने अनिश्चितकालीन देशव्यापी आंदोलन का आह्वान किया था. मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में लोक संघर्ष समिति गठित कर 28 जून से इंदिरा गांधी के त्यागपत्र देने तक देश व्यापी आंदोलन-सत्याग्रह शुरू करने का फैसला हुआ था. इसी मैदान में जेपी ने राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर कविता की पंक्ति-‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है,’ का उद्घोष किया था. जेपी ने अपने भाषण में कहा था, ‘‘मेरे मित्र बता रहे हैं कि मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है क्योंकि हमने सेना और पुलिस को सरकार के गलत आदेश नहीं मानने का आह्वान किया है. मुझे इसका डर नहीं है और मैं आज इस ऐतिहासिक रैली में भी अपने उस आह्वान को दोहराता हूं ताकि कुछ दूर, संसद में बैठे लोग भी सुन लें. मैं आज फिर सभी पुलिस कर्मियों और जवानों का आह्वान करता हूं कि इस सरकार के आदेश नहीं मानें क्योंकि इस सरकार ने शासन करने की अपनी वैधता खो दी है.’’ लेकिन बाहर और अंदर से भी बढ़ रहे राजनीतिक विरोध और दबाव से निबटने के नाम पर श्रीमती गांधी ने पदत्याग के लोकतांत्रिक रास्ते को चुनने के बजाय अपने छोटे बेटे संजय गांधी, और वरिष्ठ अधिवक्ता एवं पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कुछ खास सलाहकारों से मंत्रणा के बाद ‘आंतरिक उपद्रव’ की आशंका के मद्देनजर संविधान की धारा 352 का इस्तेमाल करते हुए आधी रात को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से देश में ‘आंतरिक आपातकाल’ लागू करने की अधिसूचना जारी करवा दी थी. कैबिनेट की मंजूरी अगली सुबह छह बजे ली गई थी. उसके तुरंत बाद आकाशवाणी पर श्रीमती गांधी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कहा, ‘‘भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. इससे आतंकित होने की जरूरत नहीं है.’’ उन्होंने आपातकाल को जायज ठहराने के इरादे से विपक्ष पर साजिश कर उन्हें सत्ता से हटाने और देश में अव्यवस्था और आंतरिक उपद्रव की स्थिति पैदा करने का आरोप लगाया और कहा कि सेना और पुलिस को भी विद्रोह के लिए उकसाया जा रहा था. उन्होंने कहा, ‘‘जबसे मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं, तभी से मेरे खिलाफ गहरी राजनीतिक साजिश रची जा रही थी.’’

आपातकाल के विरुद्ध हमारा संघर्ष

आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे. तब हम पत्रकार नहीं, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज में कला स्नातक के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और जेपी आंदोलन में भी सक्रिय थे. आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे. लेकिन पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा. जार्ज फर्नांडिस के साप्ताहिक अखबार 'प्रतिपक्ष' के साथ जुलाई के पहले सप्ताह में हमें गिरफ्तार कर लिया गया. हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित 'प्रतिपक्ष' बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे. पुलिस की चार्जशीट के मुताबिक यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे. डी आई आर और 120 बी के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए. सवा महीने बाद, 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए. हम पिता-पुत्र आजमगढ़ जेल की एक ही बैरक में महीनों आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे.

भूमिगत जीवन और मधुलिमये से संपर्क

कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पैरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा लौटने के बजाय आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए. उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों-जेल में और जेल के बाहर भी-से समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह-जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था. वाराणसी में हम जेल में निरुद्ध साथी, समाजवादी युवजन सभा के नेता (अभी कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव) मोहन प्रकाश से मिले. उनसे कुछ पते लेकर वाराणसी में ही समाजवादी युवजन सभा, लोहिया विचार मंच और छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के साथियों अशोक मिश्र, योगेंद्र नारायण, नचिकेता, कुंवर सुरेश सिंह, देवाशीष भट्टाचार्य, चंचल मुखर्जी, मदन मोहन लाल श्रीवास्तव आदि से लगातार संपर्क में रहा. वाराणसी प्रवास के दौरान अशोक मिश्र जी का चेतगंज के पास हबीबपुरा स्थित निवास हमारा ठिकाना होता.
इलाहाबाद में हमारा परिवार था. वहीं रहते नरसिंह गढ़ और बाद में भोपाल जेल में बंद रहे समाजवादी नेता मधु लिमये से पत्र संपर्क हुआ. वह हमें पुत्रवत स्नेह देते थे. उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए. मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था. मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला.’ पत्र में अन्य ब्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी.’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमये का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे. एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए’. यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया.’
जब इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी उनके साथ जेल में बंद आरएसएस पलट समाजवादी अध्येता विनोद कोचर की खूबसूरत स्तलिखित प्रति हमारे पास भी भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके. इसके साथ उन्होंने पत्र लिखा कि अगर हस्तलिपि मिल जाये तो लिखना की ‘दमा की दवा मिल गयी है.’ उस समय हमारे सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी. मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र’ जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है. इसकी हर संभव मदद करें.’ इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे. उनके घरों में छिप कर रहना, खाना और मौके बे मौके भाभियों से भी कुछ आर्थिक मदद मिलनी आम बात थी.
मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे. हम लोग चौधरी साहब के एक राजनीतिक फैसले से सख्त नाराज थे. उन्होंने आपातकाल में विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी. हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं, लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था. हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था. जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार की बात करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं. हमारा आक्रोश समझा जा सकता था. लेकिन मधु जी का आदेश था, सो हम चौधरी साहब से मिलने गए. उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि चुनाव का बहिष्कार बचे-खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा. हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनेवाली थीं. हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था.
मधु जी का पत्र आया कि तुम लोग चौधरी साहेब के पीछे बेमतलब पड़े हो, यहां जेलों में संघ के लोग जिस तरह से माफीनामे लिखने में लगे हैं, उस पर चिंता करनी चाहिए. गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय उर्फ बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को एक नहीं कई 'माफीनामानुमा' पत्र लिखकर आपातकाल में हुए संविधान संशोधन पर आधारित सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्याधीश अजितनाथ रे की अध्यक्षतावाली संविधान पीठ के द्वारा श्रीमती गांधी के रायबरेली के संसदीय चुनाव को वैध ठहरानवाले फैसले पर बधाई देने के साथ ही उनकी सरकार के साथ संघ के प्रचारकों और स्वयंसेवकों के सहयोग करने की इच्छा जताई थी. यहां तक कि उन्होंने कहा था कि बिहार आंदोलन और जेपी आंदोलन से संघ का कुछ भी लेना-देना नहीं है. उन्होंने संघ पर से प्रतिबंध हटाने और उसके प्रचारकों-स्वयंसेवकों को जेल से रिहा करने का अनुरोध भी किया था ताकि वे सरकार के विकास कार्यों में सक्रिय भूमिका निभा सकें. इससे पहले भी उन्होंने 15 अगस्त को लालकिला की प्राचीर से श्रीमती गांधी के भाषण की भरपूर सराहना की थी. लेकिन इंदिरा गांधी ने उनके पत्रों पर नोटिस नहीं लिया था और ना ही कोई जवाब दिया था. बाद में श्री देवरस ने इस मामले पर आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' कहनेवाले सर्वोदयी नेता विनोवा भावे को पत्र लिखकर उनसे श्रीमती गांधी के साथ अपने करीबी संबंधों का इस्तेमाल करते हुए संघ पर लगे प्रतिबंध को हटाने और प्रचारकों-स्वयंसेवकों की रिहाई सुनिश्चित करवाने के लिए हस्तक्षेप करने का आग्रह किया था. लेकिन उन्होंने भी कोई जवाब नहीं दिया था. महाराष्ट्र विधानसभा के पटल पर रखे गये आपातकालीन दस्तावेजों के अनुसार श्री देवरस ने राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकरराव चह्वाण को भी इसी तरह का पत्र जुलाई 1975 में लिखा था.
बाद में अनौपचारिक तौर पर तय हुआ था कि सामूहिक माफी तो संभव नहीं, अलबत्ता माफीनामे निजी और स्थानीय स्तर पर अलग अलग भरे जाएं तो सरकार उन पर विचार कर सकती है. एक बिना शर्त वचन पत्र (अन्क्वालिफाईड अंडरटेकिंग) भरने की बात तय हुई थी जिसके लिए एक प्रोफार्मा भेजा गया था. इसके बाद से जेलों में माफीनामे भरने का क्रम शुरु हो गया था. जिनके पास प्रोफार्मा नहीं पहुंच सका, वे लोग एक पंक्ति के माफीनामे निजी और स्थानीय स्तर पर भर-भर कर जमा करने लगे. इसमें लिखा होता था, "हम सरकार के बीस सूत्री कार्यक्रमों का समर्थन करते हैं."
बहरहाल, इलाहाबाद से हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे. अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे. एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र रविशंकर के नाम से ही भेज दिया. उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिये से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया. हमने मधु जी को लिखा कि ‘‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी. आप जैसे मनीषी इसे बेहतर समझ सकते हैं.’’ इसके बाद मधु जी के पत्र दिए पते पर जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए. आपातकाल की समाप्ति के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे. वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे, कई बार अपनी पत्नी चम्पा लिमये जी के हाथों भी.
आपातकाल में जब लोकसभा की मियाद पांच से बढ़ाकर छह वर्ष कर दी गयी तो विरोधस्वरूप मधु जी और शरद यादव ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था. त्यागपत्र तो समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र जी ने भी दिया था लेकिन उन्होंने अपना त्यागपत्र लोकसभाध्यक्ष के पास भेजने के बजाय चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था. मधु जी ने मुझे पत्र लिखकर कहा कि नैनी जेल में जाकर जनेश्वर से मिलो और पूछो कि क्या उन्हें लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम! मैं उनके पत्र के साथ किसी तरह मुलाकाती बनकर नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिला और उन्हें मधु जी का सन्देश दिया. जनेश्वर जी कुछ उखड़ से गए और बोले, मधु जी अपनी पार्टी के नेता हैं लेकिन हमारी पार्टी (लोकदल) के नेता, अध्यक्ष चरण सिंह हैं. लिहाजा, हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा.
इस तरह के तमाम प्रसंग हैं जो आपातकाल पर हमारी आनेवाली पुस्तक में देखने को मिल सकते हैं. (पुस्तक का लेखन अपने अंतिम चरण में है.)

आपातकाल के सबक!

लेकिन यहां हमारी चिंता का विषय कुछ और है. दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था. जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था, लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी, अधिनायकवादी प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है. भाजपा के वरिष्ठ और बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी ने पांच साल पहले एक अंग्रेजी अखबार से बातचीत में हमारी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में ही इन प्रवृत्तियों के मौजूद रहने और आपातकाल के भविष्य में भी लागू किये जाने की आशंकाएं बरकार रहने का संकेत दिया था. आज स्थितियां ठीक उसी दिशा में जाते हुए दिख रही हैं. देश आज धार्मिक कट्टरपंथ और 'उग्र राष्ट्रवाद' के सहारे एक अराजक माहौल और अघोषित आपातकाल की ओर ही बढ़ रहा है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ी साफ दिख रही है. प्रेस और मीडिया पर भी सरकारी विज्ञापनों, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग जैसी सरकारी एजेंसियों और यहां तक कि अदालतों का भी इस्तेमाल कर असहमति के स्वरों को दबाने के जरिए एक अलग तरह तरह की ‘अघोषित सेंसरशिप’ के अक्स साफ दिख रहे हैं. राजनीतिक विरोधियों के विरुद्ध बदले या कहें बैर भाव से प्रेरित कार्रवाइयां हो रही हैं. मणिपुर में सत्ता पक्ष के कई विधायकों के सरकार से समर्थन वापस ले लेने के बाद राज्य में वैकल्पिक सरकार बनाने का दावा करने वाले कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के घर अगले ही दिन सीबीआई की टीम पहुंच गई.
वैसे, आपातकाल की समाप्ति के बाद उसके गर्भ से निकली जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद हमारे ‘लोकतंत्र प्रेमियों’ ने सम्भवतः पहला अलोकतांत्रिक काम कांग्रेस की नौ राज्यों की चुनी हुई राज्य सरकारों को बर्खास्त करवाकर किया. और नहीं तो मीसा के विरोध में सत्तारूढ़ हुए लोगों को देश में मिनी मीसा लगाने का प्रस्ताव करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ. यह बताने में कोई हर्ज नहीं कि हमारी अंतिम गिरफ्तारी जनता पार्टी के शासन में ही हुई थी और उसी के साथ सक्रिय राजनीति से एक तरह का मोहभंग भी. बाद के दिनों में भी इस तरह के कई प्रसंग आये जब आपातकाल के गर्भ से निकले हमारे इस तरह के तमाम प्रसंग हैं जब ‘लोकतंत्र प्रेमियों’ ने अपनी सत्ता को मिलनेवाली चुनौतियों से निबटने के लिए और ज्यादा घातक और खूंखार कानूनों की खुलेआम वकालत की. उन पर अमल भी किया. अभी सीएए और एनआरसी का विरोध करनेवालों को यूएपीए जैसे कठोर कानून के तहत निरुद्ध किया गया. कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को राजद्रोह जैसे खतरनाक कानूनों के तहत जेल में कैद किया गया. जेल में उन्हें यातनाएं दिए जाने की सूचनाएं भी मिल रही हैं. इसलिए भी 25-26 जून को हमें आपातकाल की बरसी मनाते समय आमजन को न सिर्फ आपातकाल बल्कि उन खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्तियों के बारे में भी आगाह करना होगा जो गरीबी हटाओ के नारे के साथ भारी बहुमत लेकर सत्तारूढ़ हुई इंदिरागांधी जैसी नेता को 'तानाशाह' बना देती हैं और आज भी कुछ लोगों के भीतर एकाधिकारवादी ‘एको अहं द्वितीयो नास्ति’ का एहसास भर देती हैं. ये प्रवृत्तियां भी अमीर बनाम गरीब की लड़ाई का झांसा देकर, धार्मिक कट्टरपंथ पर आधारित अंध राष्ट्रवाद को सामने रखकर अपने विरोधियों और असहमति के स्वरों को दबाने के रास्ते पर चल रही हैं. इन लोगों और इन प्रवृत्तियों से न सिर्फ सावधान रहने की बल्कि उनका मुकाबला करने के लिए आमजन को जागरूक और तैयार करने की जरूरत है.