Saturday, 1 July 2017

रायसीना हिल्स पर राम नाथ


दावेदारी: पीएम मोदी और भाजपा नेताओं के साथ रामनाथ कोविंद

जयशंकर गुप्त
सत्रह जुलाई को कुछ असंभव-सा अप्रत्याशित नहीं हुआ तो भाजपा के दलित नेता, बिहार के पूर्व राज्यपाल, पूर्व सांसद रामनाथ कोविंद देश के 14वें राष्ट्रपति बन जाएंगे। सत्तारूढ़ एनडीए के उम्मीदवार कोविंद का रायसीना हिल्स पर आलीशान राष्ट्रपति भवन में बतौर प्रथम नागरिक स्थापित होना अब महज औपचारिकता ही रह गई है। हालांकि विपक्षी कांग्रेस और उसके साथ लामबंद तकरीबन डेढ़ दर्जन छोटे-बड़े दलों ने कोविंद के विरुद्ध एक और दलित नेता मीरा कुमार को खड़ा करके मुकाबले को रोचक बनाने की कोशिश की है। पूर्व उप-प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार केंद्रीय मंत्री और लोकसभाध्यक्ष रह चुकी हैं और उनकी शख्सियत भी वजनदार है। इससे पहले भी के.आर. नारायणन के रूप में दलित नेता देश के राष्ट्रपति बन चुके हैं (हालांकि पूर्व राजनयिक और केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके नारायणन दलित नेता के रूप में पहचान बताए जाने पर शर्ममिंदगी महसूस करते थे। वे कहते थे कि देश के प्रथम नागरिक के रूप में उनका चयन दलित होने के कारण नहीं, बल्कि योग्यता और अनुभव के आधार पर हुआ था) लेकिन संसदीय इतिहास में यह शायद पहली बार है कि सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए दो वरिष्ठ दलित नेता आमने-सामने हैं।
वैसे, कहने को तो सर्वोच्च पद के लिए किसी एक नाम पर आम राय बनाने की बात भी चली थी लेकिन भाजपा ने कोविंद के नाम पर विपक्ष तो क्या अपने सहयोगी दलों को भी भरोसे में लेने की आवश्यकता नहीं समझी। उन्हें उम्मीदवार बनाने की एकतरफा घोषणा करके विपक्ष के सामने चुनौती पेश की कि वह या तो सत्ता पक्ष के उम्मीदवार का समर्थन करे या फिर उसका सामना करे। विपक्ष ने दूसरा विकल्प चुना। वैसे भी, 1977 में नीलम संजीव रेड्डी के चुनाव को छोड़ दें तो तकरीबन सभी राष्ट्रपतियों के चुनाव मतदान के जरिए ही हुए।
दरअसल, इस बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आगामी विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनाव की रणनीति के तहत ही उत्तर प्रदेश के कानपुर में कोरी या कहें कोली समाज से आने वाले दलित नेता कोविंद को अपना उम्मीदवार बनाया है। बिहार में राज्यपाल से पहले दो बार राज्यसभा का सदस्य रह चुके कोविंद भाजपा के प्रवक्ता, अनुसूचित जाति मोर्चा, भारतीय कोली समाज के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश भाजपा के महासचिव रह चुके हैं। वे एक-एक बार लोकसभा और विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। इसी वजह से उन्हें 2014 में लोकसभा का टिकट भी नहीं मिला।
शायद यही कारण है कि 14वें राष्ट्रपति पद के लिए उनकी उम्मीदवारी की घोषणा हुई तो बहुतों को और मीडिया के एक बड़े तबके को भी आश्चर्य हुआ। हालांकि उनके नाम पर विचार तो पहले से ही हो रहा था। कम से कम इस लेखक ने आउटलुक के आठ मई के अंक में भाजपा के राष्ट्रपति पद के संभावित उम्मीदवारों में उनके नाम की चर्चा प्रमुखता से की थी। भाजपा सूत्रों के अनुसार उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में गैर-जाटव दलित और गैर-यादव पिछड़ी जातियों पर केंद्रित भाजपा की चुनावी रणनीति की सफलता को आधार मानकर ही उन्हें एनडीए का उम्मीदवार बनाया गया।
इस चुनावी रणनीति के जनक उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अब राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह बताए जाते हैं। कल्याण सिंह ही कोविंद को पहली बार 1990 में भाजपा की राजनीति में लाए थे। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि आलाकमान की राय में सवर्णों के बीच भाजपा का समर्थन आधार चरम पर पहुंच चुका है। लिहाजा, पार्टी अपनी चुनावी रणनीति दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों पर केंद्रित कर रही है। दलितों में खासतौर से चमार या जाटवों के बीच मायावती और कांग्रेस की पकड़ मजबूत है जबकि पिछड़ी जातियों में यादव आमतौर पर मुलायम सिंह-अखिलेश यादव और लालू प्रसाद तथा कुछेक राज्यों में कांग्रेस तथा अन्य गैर-भाजपा दलों के साथ बताए जाते हैं। लिहाजा, भाजपा ने आदिवासियों के साथ ही गैर-जाटव दलित और गैर-यादव अन्य पिछड़ी जातियों के बीच पैठ बढ़ाने की कवायद तेज कर दी।
इस लिहाज से प्रधानमंत्री मोदी के रूप में अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व पहले से ही होने के बाद अब सर्वोच्च संवैधानिक पद पर किसी आदिवासी या दलित को बिठाने की रणनीति पर विचार किया गया। दिखावे के लिए लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू और श्रीधरन के नाम भी चर्चा में लाए गए थे। आडवाणी की दावेदारी तो खुद मोदी ने सोमनाथ यात्रा के दौरान अमित शाह और पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की मौजूदगी में यह कहकर बढ़ा दी थी कि आडवाणी जी को राष्ट्रपति बनवाना उनके लिए गुरु दक्षिणा होगी। ठगे-से महसूस कर रहे आडवाणी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उन्हें ऐसी गुरु दक्षिणा मिलेगी!
दरअसल, भाजपा और संघ परिवार के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार अंतिम क्षणों में चर्चा सिर्फ दो नामों-झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू और बिहार के राज्यपाल कोविंद पर ही सिमट गई थी। ओडिशा की द्रौपदी मुर्मू के लिए अंग्रेजी तथा हिंदी भाषा की अज्ञानता संभवत: उनकी उक्वमीदवारी पर भारी पड़ गई। उनके समर्थन में यह तर्क था कि उनके चयन का लाभ ओडिशा में सत्तारूढ़ बीजद का समर्थन और कई राज्यों में आदिवासियों के बीच आधार मजबूत करने में मिल सकता है। हालांकि बीजद ने तो पहले ही एनडीए के उम्मीदवार को समर्थन देने की घोषणा कर दी थी।
कोविंद के पक्ष में तर्क दिए गए कि करीबी संबंधों के चलते सिर्फ नीतीश कुमार और जदयू का ही समर्थन नहीं मिलेगा, बल्कि उत्तर प्रदेश का होने के नाते मायावती और उनकी बसपा को भी समर्थन पर मजबूर होना पड़ेगा। यह नहीं भी होता है तो उत्तर प्रदेश में दलितों का बड़ा तबका भाजपा के साथ हो जाएगा और फिर गुजरात, राजस्थान तथा मध्यप्रदेश में कोली समाज को भाजपा से जोड़ने में सफलता मिलेगी।
हालांकि गुजरात में तेजी से उभरे युवा दलित नेता जिग्नेश मेवानी नहीं मानते कि सिर्फ दलित और कोली होने के कारण गुजरात में और देश के अन्य हिस्सों में भी दलित भाजपा का साथ देंगे। वे कहते हैं, ''भाजपा वाले समझते हैं कि दलित समाज में पैदा हुए रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति के पद के लिए नॉमिनेट करके उन्होंने 'मास्टर स्ट्रोक’ मारा है। लेकिन अब दलित ऐसे पैंतरों के झांसे में आने वाले नहीं।’
अगले चुनाव में दलितों को अपने पाले में लाने का फायदा मिले न मिले फौरी तौर पर भाजपा को इस रणनीति में कामयाबी मिलती साफ दिख रही है। विपक्ष की एकजुटता के पक्षधर नीतीश कुमार ने राज्यपाल के रूप में कोविंद की तटस्थ भूमिका के आधार पर समर्थन की घोषणा कर विपक्षी दलों में खलबली मचा दी। बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, अन्ना द्रमुक के दोनों धड़ों और वाईएसआर कांग्रेस ने पहले ही एनडीए उम्मीदवार के समर्थन की घोषणा कर दी थी। नीतीश कुमार का एक तर्क यह भी था कि कोविंद की राजनैतिक पृष्ठभूमि आरएसएस से जुड़ी नहीं है। वे 1977 से 1979 के दौरान तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार के समय केंद्र सरकार के वकील और तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री कार्यालय में निजी सहायक थे। हालांकि विपक्ष के अन्य नेता यह समझाने में लगे हैं कि संघ से जुड़े नहीं होने का मतलब कोविंद का धर्मनिरपेक्ष होना नहीं है।
जनवरी 2016 में गांधीनगर में गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में कोविंद के एक भाषण की चर्चा भी हो रही है। उसमें उन्होंने कहा था कि गांधी और नेहरू का लक्ष्य सत्ता प्राप्त करना था। भाजपा प्रवक्ता के बतौर उनके एक कथन को भी उछाला जा रहा है, जिसमें उन्होंने ईसाइयों और मुसलमानों को एलियन यानी बाहरी करार दिया था।
दूसरी तरफ, कोविंद की उम्मीदवारी और नीतीश कुमार के पलटे रुख से बौखलाई कांग्रेस और उसके साथ खड़े बाकी विपक्ष ने भाजपा की राजनैतिक चाल की काट के लिए और उससे भी अधिक विपक्ष के बिखराव को रोकने के तहत मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया है। सोचा यह गया था कि बिहार की बेटी के नाम पर नीतीश फैसले पर पुनर्विचार करेंगे लेकिन यह सब बेअसर रहा। नीतीश ने साफ किया है कि कोविंद को उनका समर्थन जारी रहेगा, अलबत्ता वे 2019 में विपक्ष की एकता के पक्ष में हैं और राजग के साथ नहीं जाने वाले। सूत्र बताते हैं कि नीतीश विपक्ष के प्रत्याशी के रूप में महात्मा गांधी के पौत्र गोपाल कृष्ण गांधी के नाम की घोषणा करवाना चाहते थे। लेकिन मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाने का एक फायदा विपक्ष को इस रूप में जरूर मिला कि कोविंद की उम्मीदवारी से पसोपेश में पड़ गई मायावती को वापस विपक्ष के पाले में आने का बहाना मिल गया। हालांकि राजनैतिक प्रेक्षकों का मानना है कि विपक्ष की एकजुटता के लिए कांग्रेस ज्यादा गंभीर नहीं दिख रही है। वरना, समय रहते आम आदमी पार्टी, बीजद, तेलंगाना राष्ट्र समिति, वाईएसआर कांग्रेस और इनेलो को भी साधने की पहल क्यों नहीं की गई।
दूसरी तरफ कोविंद की जीत के प्रति आश्वस्त भाजपा के रणनीतिकार जीत के मतों का अंतर बढ़ाने की कवायद में लगे हैं। एक रणनीतिकार बताते हैं कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले भाजपा और इसके सहयोगी-समर्थक दलों का समर्थन आधार 49 फीसदी से कुछ कम ही बन पा रहा था। लेकिन अब उसे तकरीबन 60 फीसदी मतों का आश्वासन है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव में लोकसभा और राज्यसभा के साथ विधानसभाओं (विधान परिषद नहीं) के निर्वाचित सदस्य ही मतदान कर सकते हैं।
हालांकि प्रथम नागरिक के चुनाव में आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। मीरा कुमार की जाति को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर उनके पति को ब्राह्मण बताया जा रहा है जबकि वह जन्मना दलित हैं और उनकी शादी पिछड़ी जाति के मंजुल कुमार के साथ हुई है। उन पर दलितों के हित में कभी कुछ खास न करने और अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करते रहने के आरोप लगाए जा रहे हैं। इसी तरह के आरोप कोविंद पर भी लग रहे हैं। उनके बारे में तो सांसद रहते अपने ही मकान को सांसद निधि के खर्चे से 'बारात घर’ में तब्दील करवा लेने के आरोप भी लग रहे हैं। महिलाओं के लिए संसद और विधायिकाओं में 33 फीसदी आरक्षण का विरोध करने के कारण उन पर महिला विरोधी होने के आरोप भी लग रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि चुनाव अभियान के जोर पकड़ने के साथ ही दोनों उम्मीदवारों और उनके समर्थकों के बारे में आरोप-प्रत्यारोपों के और तीखे और तेज होने की आशंका है। लेकिन सच यह भी है कि आरोप-प्रत्यारोप माहौल तो बना-बिगाड़ सकते हैं लेकिन इस चुनाव के नतीजे नहीं बदल सकते।  

आपातकाल की याद, संघर्ष और सबक

आपातकाल की याद, संघर्ष और सबक

JUN 25 , 2017
आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था। जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था, लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है।
इस 25-26 जून को आपातकाल की 42वीं बरसी मनाई जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपानीत राजग की सरकार आपातकाल को आजाद भारत में संवैधानिक लोकतंत्र पर काला धब्बा करार देते हुए दोनों दिन पूरे देश में आपातकाल विरोधी दिवस मनाने जा रही है।सूचना और प्रसारण मंत्री एम वेंकैया नायडू ने केंद्र सरकार के सभी मंत्रियों से विभिन्न राज्यों में मनाए जाने वाले आपातकाल विरोधी समारोहों में उपस्थित रहने को लिखा है। वाकई आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के स्वरों और शब्दों को दबाने के प्रयासों को न सिर्फ याद रखने बल्कि उनके प्रति चौकस रहने की भी जरूरत है ताकि देश और देशवाशियों को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े और भविष्य में भी कोई सत्तारूढ़ दल और उसका नेता वैसी हरकत की हिमाकत नहीं कर सके जैसा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25-26 जून 1975 की दरम्यानी रात में किया था।
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गौरतलब है कि इससे पहले 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हां ने अपने ऐतिहासिक फैसले में रायबरेली से श्रीमती गांधी के लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित कर उनकी सदस्यता रद्द करने के साथ ही उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था। 24 जून को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भी इस फैसले पर मुहर लगा दी गयी थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की छूट दे दी थी। उधर उनके पद त्याग नहीं करने की स्थिति में अगले दिन 25 जून को संपूर्ण क्रांति आंदोलन का नेतृत्व कर रहे समाजवादी-सर्वोदयी नेता लोकनायक जयप्रकश नारायण एवं सम्पूर्ण विपक्ष ने अनिश्चितकालीन देश व्यापी आंदोलन का आह्वान किया था। यहां तक कि सेना से भी सरकार के गलत आदेशों को नहीं मानने का आह्वान किया गया था। स्थिति से निबटने के नाम पर श्रीमती गांधी ने अपने करीबी लोगों, खासतौर से छोटे बेटे संजय गांधी, कानून और न्याय मंत्री हरिराम गोखले और वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थशंकर रे से मंत्रणा के बाद बाद देश में ’आंतरिक उपद्रव’ की आशंका के मद्देनजर संविधान की धारा 352 का इस्तेमाल करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से देश में आंतरिक आपातकाल लागू करवा दिया था। नागरिक अधिकार और स्वतंत्रताएं समाप्त करने के साथ ही प्रेस और मीडिया पर सेंसरशिप लगा दी गयी थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित तत्कालीन विपक्ष के तमाम नेता-कार्यकर्त्ता आंतरिक सुरक्षा कानून (मीसा ) और भारत रक्षा कानून (डी आई आर) के तहत गिरफ्तार कर जेलों में ठूंस दिए गए थे। 
दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था। जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था, लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है। भाजपा के वरिष्ठ और बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी ने दो साल पहले हमारी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में ही इन प्रवृत्तियों के मौजूद रहने और आपातकाल के भविष्य में भी लागू किये जाने की आशंकाएं बरकार रहने का संकेत देकर इस चर्चा को और भी मौजूं बना दिया था। आज दो साल बाद स्थितियां ठीक उसी दिशा में जाते हुए दिख रही हैं। देश आज धार्मिक कटृटरपंथके सहारे एक अराजक माहौल और अघोषित आपातकाल की ओर ही बढ़ रहा है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ी साफ दिख रही है। प्रेस और मीडिया पर भी सरकारी विज्ञापनों, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग जैसी सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल कर असहमति के स्वरों को दबाने के जरिए एक अलग तरह तरह की‘अघोषित सेंसरशिप’ के संकेत साफ दिख रहे हैं। 
आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे. तब हम पत्रकार नहीं बल्कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और उस बहाने जेपी आंदोलन में भी सक्रिय थे। आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे। लेकिन पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा. जार्ज फर्नांडिस के प्रतिपक्ष अखबार के साथ जुलाई के पहले सप्ताह में हमें गिरफ्तार कर लिया गया। हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित प्रतिपक्ष अखबार बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे। यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे। डी आई आर और 120 बी के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए। सवा महीने बाद 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए। हम पिता-पुत्र आजमगढ़ जेल की एक ही बैरक में महीनों आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे। 
कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पेरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा वापस नहीं गए। आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए। उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों- जेल में और जेल के बाहर भी- से समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह -जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था। 
मधु लिमये से संपर्क 
इलाहाबाद में हमारा परिवार था। वहीं रहते भोपाल जेल में बंद समाजवादी नेता मधु लिमये से पत्र संपर्क हुआ। वह हमें पुत्रवत स्नेह देते थे। उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए। मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था। मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला।’’ पत्र में अन्य ब्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी।’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमये का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे। एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए। यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया।’
जब इंदिरा गांधी ने संविधान में 42वां संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी हस्तलिखित प्रति हमारे पास भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके। इसके साथ उन्होंने पत्र लिखा कि अगर हस्तलिपि मिल जाये तो लिखना की ’दमा की दवा मिल गयी है।’ उस समय हमारे सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी। मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र’ जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है। इसकी हर संभव मदद करें।’ इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे। उनके घरों में छिप कर रहना,खाना और मौके बे मौके भाभियों से भी कुछ आर्थिक मदद आम बात थी।
मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे। हम लोग चौधरी साहब के एक राजनीतिक फैसले से सख्त नाराज थे। उन्होंने आपातकाल में विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था। हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था। जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं। हमारा आक्रोश समझा जा सकता था। लेकिन मधु जी का आदेश था, सो हम चौधरी साहब से मिलने गए। उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि चुनाव का बहिष्कार बचे-खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा। हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनलेवाली थीं। हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था। मधु जी का पत्र आया कि चौधरी के पीछे बेमतलब पड़े हो, यहाँ जेलों में संघ के लोग जिस तरह से माफीनामे लिखने में लगे हैं, उस पर चिंता करनी चाहिए। 
हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे। अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे। एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र रविशंकर के नाम से ही भेज दिया। उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिए से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया। हमने मधु जी को लिखा कि ‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी। आप जैसे मनीषी इसे बेहतर समझ सकते हैं।’ इसके बाद मधु जी के पत्र जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए। आपातकाल की समाप्ति के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे। वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे। 
आपातकाल में जब लोकसभा की मियाद बढाकर पांच से छह वर्ष कर दी गयी तो विरोधस्वरूप मधु जी और शरद यादव ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था। त्यागपत्र तो समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र ने भी दिया था लेकिन उन्होंने अपना त्यागपत्र लोकसभाध्यक्ष के पास भेजने के बजाय चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था। मधु जी ने मुझे पत्र लिखकर कहा कि नैनी जेल में जाकर जनेश्वर से मिलो और पूछो कि क्या उन्हें लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम। मैं उनके पत्र के साथ किसी तरह मुलाकाती बनकर नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिला और उन्हें मधु जी का सन्देश दिया। जनेश्वर जी कुछ उखड़ से गए और बोले, मधु जी अपनी पार्टी के नेता हैं लेकिन हमारी पार्टी (लोकदल) के नेता, अध्यक्ष चरण सिंह हैं। लिहाजा, हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा।
इस तरह के तमाम प्रसंग हैं। लेकिन हमारी चिंता का विषय कुछ और है। आपातकाल की समाप्ति और उसके गर्भ से निकली जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद हमारे ‘लोकतंत्र प्रेमियों’ ने सम्भवतः पहला अलोकतांत्रिक काम नौ राज्यों की चुनी हुई राज्य सरकारों को बर्खास्त करवाकर किया। और नहीं तो मीसा के विरोध में सत्तारूढ़ हुए लोगों को देश में मिनी मीसा लगाने का प्रस्ताव करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ। यह बताने में कोई हर्ज नहीं कि हमारी अंतिम गिरफ़्तारी जनता पार्टी के शासन में ही हुई थी और उसी के साथ सक्रिय राजनीति से एक तरह का मोहभंग भी। बाद के दिनों में भी इस तरह के कई प्रसंग आये जब आपातकाल के गर्भ से निकले हमारे ’लोकतंत्र प्रेमियों’ ने अपनी सत्ता को मिलनेवाली चुनौतियों से निबटने के लिए घातक और खूंखार कानूनों की खुलेआम वकालत की। उन पर अमल भी किया। इसलिए भी 25-26 जून को हमें आपातकाल की 42 वीं बरसी मनाते समय आमजन को न सिर्फ आपातकाल बल्कि उन खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्तियों के बारे में भी आगाह करना चाहिए जो गरीबी हटाओ के नारे के साथ भारी बहुमत लेकर सत्तारूढ़ हुई इंदिरागांधी जैसी नेता को तानाशाह बना देती हैं और आज भी कुछ लोगों के भीतर एकाधिकारवादी ’एको अहं द्वितीयो नास्ति’ का एहसास भर देती हैं। ये प्रवृत्तियां भी अमीर बनाम गरीब की लड़ाई का झांसा देकर, धार्मिक कट्टरपंथ पर आधारित अंध राष्ट्रवाद को सामने रखकर अपने विरोधियों और असहति के स्वरों को दबाने के रास्ते पर चल रही हैं। इन लोगों और इन प्रवृत्तियों से न सिर्फ सावधान रहने की बल्कि उनका मुकाबला करने के लिए आमजन का जागरूक और तैयार करने की जरूरत है।