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Monday, 9 August 2021

Hal Filhal : AGGRESSIVE OPPOSITION AND ARROGANT GOVERNMENT

आक्रामक विपक्ष और बौखलाती सरकार


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/2MXvfVUG-6E
    
    पेगासस जासूसी प्रकरण को लेकर मोदी सरकार की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रहीं. बिना किसी चर्चा और बहस के पास हुए कुछ विधेयकों को छोड़ दें तो पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा और इसकी स्वतंत्र जांच की मांग को लेकर विपक्ष के हल्ला-हंगामे के कारण संसद के मानसून सत्र का तीसरा सप्ताह भी बाधित ही रहा. विधिवत विधायी कार्य नहीं हो सके. इस बीच मामले की स्वतंत्र जांच से संबंधित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य ऩ्याधीश एन वी रमण ने मीडिया रिपोर्ट्स के मद्देनजर पेगासस जासूसी मामले को अत्यंत गंभीर मामला बताया है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है.

    दूसरी तरफ, संसद से लेकर सड़क तक पेगासस जासूसी प्रकरण के साथ ही किसान आंदोलन, महंगाई और बेरोजगारी के सवाल पर आक्रामक विपक्ष की एकजुटता के प्रयास तेज हो रहे हैं. विपक्ष की आक्रामकता और एकजुटता की कवायद को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी, उनकी सरकार के मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता इन मुद्दों पर संसद में चर्चा कराने के बजाए संसद नहीं चलने देने के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराते हुए उसे ही कोस रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष पर संसदीय गतिरोध के जरिए देश हित विरोधी राजनीति तथा संसद का अपमान करने का आरोप भी लगाया है. ओलंपिक खेलों का संदर्भ लेकर उन्होंने कहा है कि एक तरफ देश जीत के गोल पर गोल कर रहा है, वहीं कुछ लोग ‘सेल्फ गोल’ करने में लगे हैं.
 
    
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी: विपक्ष 'सेल्फ गोल' कर रहा है!
    जब देश के प्रधानमंत्री विपक्ष के बारे में इस तरह की भाषा बोल रहे हों तो भला उनके मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता पीछे कैसे रह सकते हैं. कल तक केंद्र सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि कांग्रेस के डीएनए में संसद के सम्मान के संस्कार ही नहीं हैं. ऐसा कहते हुए वे और उनके नेता भूल जा रहे हैं कि उनकी पार्टी ने संप्रग सरकार के जमाने में किस तरह से संसद के सत्र दर सत्र बाधित किए थे. तब उन्हें संसद में हल्ला-हंगामा विपक्ष का संसदीय दायित्व और लोकतांत्रिक अधिकार लगता था लेकिन अब विपक्ष की वही, संसद में विपक्ष में रहते भाजपावाली भूमिका उन्हें देश हित के विरुद्ध और संसद का अपमान नजर आ रही है.

    लेकिन सत्ता पक्ष के इस अहंकार और बौखलाहट का विपक्ष की आक्रामकता पर खास असर नहीं पड़ रहा है. तकरीबन एकजुट विपक्ष पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा होने तक 13 अगस्त तक के लिए निर्धारित मालसून सत्र के दौरान संसद के दोनों सदनों को बाधित करने पर अडिग है. और अब तो विपक्ष महंगाई और बेरोजगारी के सवाल को इसके साथ जोड़ते हुए सड़क पर भी उतरने लगा है. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की चाय-नाश्ते पर आयोजित बैठक के बाद इन दलों के नेता-सांसद संसद भवन तक साइकिल यात्रा लेकर गए. जासूसी प्रकरण से लेकर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के प्रतीकात्मक विरोध के रूप में हुई इस साइकिल यात्रा में शामिल राहुल गांधी से लेकर विपक्ष के अन्य सांसदों के पास प्लेकार्ड्स थे जिन पर पेगासस जासूसी प्रकरण से लेकर महंगाई और बेरोजगारी के विरोध में नारे लिखे थे.

राहुल गांधी का सड़क से संसद तक का साइकिल मार्च

    इससे पहले वह ट्रैक्टर पर सवार होकर भी संसद गए थे. साइकिल मार्च के दो दिन बाद इन्हीं मांगों के साथ युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने नई दिल्ली में संसद भवन के पास पुलिस की तरफ से तेज धार पानी की बौछारों के बीच भारी विरोध प्रदर्शन किया. अगले दिन राहुल गांधी के साथ इन दलों के नेता और सांसद किसानों के धरने में भी शामिल हुए. देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि के विरोध में और किसान आंदोलन के समर्थन में साइकिल ट्रैक्टर मार्च किया.


    ममता की जीत से विपक्ष को मिली ताकत ! 


    दरअसल, एक अरसे तक पस्तहाल लग रहे विपक्षी दलों के लिए बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों ने एक तरह के राजनीतिक आक्सीजन का काम किया है. उनके भीतर यह एहसास भरने लगा है कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी अपराजेय नहीं रह गई है. बिहार में तो बहुत कम अंतर से विपक्ष सरकार बनाने से चूक गया लेकिन पश्चिम बंगाल में एक बार फिर खुद के बूते विजेता के रूप में उभर कर आई ममता बनर्जी में विपक्ष को एकजुटता के लिए एक सीमेंटिंग फोर्स के अलावा प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती दे सकनेवाली जुझारू नेता भी नजर आने लगी है. ममता बनर्जी ने खुद भी बंगाल से बाहर निकल कर राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के संकेत देने शुरू कर दिए हैं. उनके लिए चुनावी रणनीतिकार की भूमिका निभानेवाले प्रशांत किशोर अलग से सक्रिय हैं. उन्होंने शरद पवार से लेकर विपक्ष के अन्य प्रमुख नेताओं से मिलना जुलना और उनकी नब्ज टटोलना शुरू कर दिया है. शरद पवार और ममता बनर्जी ने भी विपक्ष के नेताओं से अलग अलग मुलाकातों में भाजपा को मजबूत चुनौती देने की गरज से विपक्ष की एकजुटता और मोर्चा बनाने पर बल दिया है. ममता बनर्जी ने अपनी हाल की दिल्ली यात्रा में अन्य नेताओं के साथ ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और निवर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी मुलाकात की.

सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ ममता बनर्जी: 
 विपक्ष को एकजुट करने की कवायद
    विपक्ष को एकजुट करने की इस मुहिम के कुछ गलत अर्थ नहीं निकलें, इसके लिए शरद पवार से लेकर ममता बनर्जी ने भी यह साफ करने की कोशिश की है कि कांग्रेस को परे रखकर विपक्ष की कोई एकजुटता कारगर नहीं हो सकेगी. लोकसभा की तकरीबन आधी सीटें ऐसी हैं जिन पर भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से ही है. इस सबसे उत्साहित होकर ही राहुल गांधी ने नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में 16 विपक्षी दलों के नेताओं को चाय नाश्ते पर बुलाया. इनमें से विपक्ष की छोटी-बड़ी 14 पार्टियों के नेता तो बैठक में आए लेकिन बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी के नेता-प्रतिनिधि इस बैठक से दूर ही रहे. इनके बैठक में शामिल नहीं होने के अन्य कारणों के साथ एक कारण यह भी है कि ये लोग उत्तर प्रदेश और दिल्ली तथा पंजाब में विपक्ष की एकजुटता के स्वरूप को लेकर संशय में दिखते हैं. कभी विपक्षी एकता या कहें तीसरे मोर्चे की धुरी रहे चंद्र बाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी के नेता भी इस बैठक में नहीं दिखे. ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति और वाय एस आर कांग्रेस ने भी फिलहाल विपक्षी एकजुटता की इस कवायद से दूरी बनाकर रखी है. ये दल अभी भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाए रखने की नीति पर ही चल रहे हैं.

    विपक्ष की एकजुटता कुछ खास मुद्दों पर मोदी और भाजपा विरोध तक ही सीमित होगी या फिर इसके आगे चुनावी मैदान में भी एक सशक्त वैकल्पिक चेहरे को सामने रखकर सामूहिक रणनीति तैयार करने की दिशा में ठोस कदम भी बढ़ाएगी! क्या वैकल्पिक नीतियों और कार्यक्रमों पर भी विचार होगा. तकरीबन सभी दल किसान आंदोलन का समर्थन तो कर रहे हैं लेकिन कृषि कानूनों के भविष्य पर कोई खुलकर कुछ नहीं बोल रहा है. इस तरह के कई और सवालों पर भी विपक्ष के नेताओं को मिल-बैठकर विचार करना और एकजुट विपक्ष के लिए आम राय पर आधारित एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तौयार करना होगा, जो सिर्फ कागजों पर ही नहीं होगा, सत्तारूढ़ होने पर उस पर अमल का आश्वासन भी होगा. वैसे, 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इस काम के लिए विपक्ष के पास अभी काफी समय है. लेकिन तैयारियां तो अभी से करनी होंगी. ममता बनर्जी ने कहा भी है, "मैं नहीं जानती कि 2024 में क्या होगा? लेकिन इसके लिए अभी से तैयारियाँ करनी होंगी. हम जितना समय नष्ट करेंगे, उतनी ही देरी होगी. बीजेपी के ख़िलाफ़ तमाम दलों को मिल कर एक मोर्चा बनाना होगा." जहां तक एकजुट विपक्ष के नेतृत्व का सवाल है, ममता साफ साफ कुछ कहने के बजाय गोल मोल बातें करती हैं. लेकिन कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने साफ किया है कि उनके लिए विपक्ष की एकजुटता महत्वपूर्ण है, चेहरा नहीं. 

    बदले से नजर आते हैं नीतीश कुमार !

    
ओमप्रकाश चौटाला के साथ नीतीश कुमार (बीच में) और उनकी पार्टी
के महासचिव के सी त्यागी:
 तीसरे मोर्चे की कवायद!

    इस बीच हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की जेल से बाहर आने के बाद बढ़ी राजनीतिक सक्रियता को भी विपक्ष की एकजुटता के प्रयासों की कड़ी में भी देखा जा रहा है. इंडियन नेशनल लोकदल के अध्यक्ष चौटाला ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात के बाद तीसरे मोर्चे के गठन पर बल दिया. इसी कड़ी में उन्होंने जनता दल (एस) के अध्यक्ष, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा और समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता, सांसद मुलायम सिंह यादव से भी मुलाकात की. इन मुलाकातों में भी चर्चा किसान आंदोलन से लेकर तीसरे मोर्चे के पुनर्जीवन को लेकर ही प्रमुख रही.  वहीं सोनिया गांधी के करीबी कहे जानेवाले लालू प्रसाद ने भी पिछले दिनों शरद पवार, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव के साथ लंबी मुलाकातें की. ममता बनर्जी के साथ भी लालू प्रसाद और उनके पुत्र तेजस्वी यादव के करीबी संबंध हैं. तेजस्वी और राजद ने चुनाव में ममता बनर्जी को खुला समर्थन दिया था. लालू प्रसाद की सक्रियता के मद्देनजर बिहार में राजनीतिक उलटफेर के कयास भी लगने लगे हैं. लेकिन  नीतीश कुमार किसी विपक्षी गठबंधन में शामिल होंगे कि नहीं, यह कह पाना किसी के लिए भी अभी दुरूह कार्य हो सकता है. लेकिन यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करते हुए भी वे खुद को पहले की तरह सहज महसूस नहीं कर पा रहे हैं. दूसरी तरफ, भाजपा भी उन्हें राजनीतिक रूप से घेरने और कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही. जद यू के नेताओं का बड़ा तबका बिहार में अपने खराब चुनावी प्रदर्शन के लिए चिराग पासवान के साथ ही परोक्ष रूप से भाजपा को भी जिम्मेदार मानते हैं. वे सवाल करते हैं कि साझा सरकार चलानेवाले दोनों दलों में से एक को विधानसभा की 74 और दूसरे को केवल 43 सीटें कैसे मिल सकीं.

मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के साथ लालू प्रसादः
 पारिवारिक मिलन से आगे भी कुछ और!

    बिहार विधानसभा चुनाव के कुछ ही समय बाद अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक जरूरत नहीं होने के बावजूद भाजपा ने जनता दल यू के सात में से छह विधायकों को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल कर लिया. भाजपा का यह राजनीतिक फैसला भी जद यू नेतृत्व के गले नहीं उतर सका. यही नहीं, गाहे बगाहे भाजपा अपने राजनीतिक मुद्दों को भी बिहार में उछालने-थोपने की कवायद में लगी रहती है. चुनाव से पहले बिहार में राजग की सरकार बनने पर हर हाल में नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने की प्रतिबद्धता जतानेवाली भाजपा के नेता अब खुलकर कहने लगे हैं कि भाजपा की तुलना में आधी से कुछ ही अधिक सीटें जीतनेवाले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना भाजपा का बड़प्पन था. इस सबके संकेत नीतीश कुमार और उनके करीबी लोग भी बखूबी समझ रहे हैं. बीच-बीच में राष्ट्रीय स्तर पर उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने की संभावनाएं भी हिलोर मारने लगती हैं.    
    
उपेंद्र कुशवाहाः पीएम मटीरियल हैं,नीतीश कुमार
    अभी
जद यू के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने उन्हें पीएम मटीरियल बताया है. पार्टी के नये अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह की ताजपोशी के अवसर पर नीतीश कुमार की मौजूदगी में भी जद यू के लोगों ने नारा लगाया, ‘2024 का पीएम कैसा हो, नीतीश कुमार जैसा हो.’ अध्यक्ष बनने के बाद ललन सिंह ने कहा है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भाजपा के साथ सम्मानजनक गठबंधन नहीं होने पर उनकी पार्टी वहां 200 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

    हाल के दिनों में नीतीश कुमार के कुछ राजनीतिक फैसलों और बयानों को भी भाजपा के साथ उनकी मौजूदा असहजता के रूप में ही देखा जा रहा है. उन्होंने भाजपा के जनसंख्या नियंत्रण कानून के खिलाफ सख्त बयान दिया है. भाजपा की राय के विपरीत देश में जाति आधारित जनगणना की पुरजोर वकालत करते हुए उन्होंने इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र भी लिखा है. सबसे बड़ी बात यह है कि जिस पेगासस जासूसी प्रकरण ने प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की नाक में दम करके रखा है, नीतीश कुमार ने इस मामले में विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए उसकी जांच तथा संसद में उस पर चर्चा कराए जाने के पक्ष में बयान दिया है. भाजपा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी के बाद सत्ता पक्ष के एक और बड़े नेता, नीतीश कुमार के इस बयान को लेकर अब भाजपा असहज दिखने लगी है. तो क्या वाकई नीतीश कुमार एक बार फिर भाजपा से अलग होकर विपक्ष की कतार में शामिल होने का मन बना रहे हैं! ऐसा वह तभी सोच सकते हैं जब उन्हें 2024 में विपक्ष का सर्वमान्य चेहरा बताकर पेश किया जाए.

     लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता को लेकर हो सकती है. जिस तरह से उन्होंने विधानसभा के भीतर कहा था कि वह मिट्टी में मिल जाएंगे लेकिन भाजपा से फिर कभी हाथ नहीं मिलाएंगे और इसके कुछ ही दिन बाद उन्होंने न सिर्फ भाजपा से हाथ मिला लिया, जनादेश को ताक पर रखकर उसके साथ सरकार साझा की. 2020 के विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़े और अल्पमत में होने के बावजूद वह भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करने को राजी हो गए, उसे देखते हुए विपक्षी दल उन पर आसानी से भरोसा करने को राजी नहीं. उपेंद्र कुशावाहा के नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल बतानेवाले बयान पर बिहार विधानसभा में विपक्ष (राजद) के नेता तेजस्वी यादव ने कटाक्ष करते हुए कहा भी है कि, वह पीएम (पलटी मार) मटीरियल तो हैं ही. इसका इलहाम नीतीश कुमार को भी तो होगा ही. लेकिन इस सबसे परे राजनीति आवश्यकता, संभावनाओं और परिस्थितियों का खेल भी होती है. इसमें बहुत कुछ तत्कालीन परिस्थिति के मद्देनजर भी तय होता है. कट्टर विरोधी होने के बावजूद 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़े और सरकार बनाए और फिर मिट्टी में मिलना पसंद करने लेकिन भाजपा से फिर हाथ नहीं मिलाने की बात करनेवाले नीतीश कुमार इस समय भाजपा के साथ सरकार साझा कर रहे हैं !

Monday, 2 August 2021

Pegasus Snoopgate and Parliamentry Disruptions in India

पेगासस जासूसी प्रकरण और संसदीय गतिरोध


जयशंकर गुप्त


https://youtu.be/QZlM_UHarlM

    पेगासस जासूसी प्रकरण मोदी सरकार के गले की हड्डी बन गया दिखता है जिसे सरकार न तो उगल पा रही है और ना ही निगल पा रही. इस सवाल पर 19 जुलाई को शुरू हुए मानसून सत्र के दो सप्ताह संसद के दोनों सदनों में नारेबाजी, शोरगुल और हंगामे की भेंट चढ़ गए. प्रश्नकाल और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव से लेकर कोई भी विधायी कार्य विधिवत संपन्न नहीं कराया जा सका है. सरकार और विपक्ष के बीच किसी तरह के सम्मानजनक समझौता होने तक इस गतिरोध के टूटने के आसार भी कम ही दिख रहे हैं. मानसून सत्र के तीसरे सप्ताह के पहले दिन यानी सोमवार को भी संसद बाधित ही नजर आई. इस बीच सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में भाजपा के सबसे पुराने और महत्वपूर्ण घटक जनता दल (यू) के वरिष्ठ नेता एवं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी पेगासस जासूसी प्रकरण की जांच कराए जाने की मांग का समर्थन कर मोदी सरकार की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं.

   इस बीच, सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही इस संसदीय गतिरोध के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. विपक्ष पेगासस जासूसी प्रकरण की जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति अथवा सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में स्वतंत्र जांच करवाने और दोनों सदनों में कार्यस्थगन प्रस्ताव के तहत चर्चा कराने की मांग पर अड़ा है. दूसरी ओर, इसके लिए राजी नहीं हो रही मोदी सरकार संसदीय गतिरोध का ठीकरा विपक्ष के सिर फोड़ते हुए कह रही है कि विपक्ष जन सरोकार से जुड़े महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा नहीं होने दे रहा है. संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कहा है कि विपक्ष बेवजह पेगासस जासूसी प्रकरण जैसे गैर जरूरी मुद्दे को तूल दे रहा है जबकि सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव इस मुद्दे पर संसद के दोनों सदनों में जवाब दे चुके हैं.

    
पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा के लिए
 राज्यसभा में हंगामा
    वैसे, भारतीय संसद में हंगामे और शोर-शराबे के कारण गतिरोध कोई नई बात नहीं है. सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच नोक-झोंक, बहसबाज़ी, परस्पर दोषारोपण या फिर यदा-कदा सदन में हंगामा और बहिर्गमन तो पहले भी होता रहा है. लेकिन हाल के दशकों में उत्तेजित सदस्यों के सदन के बीच में आकर शोरगुल और नारेबाजी करना आम बात हो गई है. और अब तो पीठासीन अधिकारियों की चेतावनी के बावजूद सदन में मंत्री से सरकारी कागज छीनकर उसे फाड़ देने, सदन के बीच में खड़े होकर नारेबाजी, पर्चे और कागज हवा में और यदा कदा आसंदी की तरफ भी उछाल देने का चलन भी शुरू हो गया है. इसे स्वस्थ और पारदर्शी संसदीय लोकतंत्र के लिए कतई जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन इसके लिए किसी एक पक्ष को जिम्मेदार भी तो नहीं ठहराया जा सकता. जिस पेगासस जासूसी मामले को सरकार गैर जरूरी बता रही है, उसे एकजुट विपक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दा मानते हुए उस पर संसद में चर्चा की मांग को लेकर दोनों सदनों में हंगामा कर रहा है.

  
सुप्रीम कोर्टः पेगासस स्पाईवेयर की स्वतंत्र जांच
की मांग पर होगी सुनवाई
    सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे एक गंभीर मामला मानते हुए इसकी स्वतंत्र जांच कराने से संबंधित वरिष्ठ पत्रकार एन राम तथा अन्य की याचिका पर इसी सप्ताह, 5 अगस्त से सुनवाई की मंजूरी दे दी है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी सीमित दायरे में इस मामले की जांच की जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर और कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ज्योतिर्मय भट्टाचार्य को सौंपी है.

    इस बीच फ्रांस सरकार की साइबर सुरक्षा एजेंसी ने अपनी जांच के बाद पेगासस स्पाईवेयर के जरिए पेरिस के मीडिया संगठन ‘मीडिया पॉर्ट’ के दो पत्रकारों लीनैग ब्रेडॉक्स और एडवी प्लेनेल के टेलीफोन हैक किए जाने की पुष्टि कर मामले को और गंभीर बना दिया है. गौरतलब बात यह भी है कि इसी मीडिया पॉर्ट ने राफेल युद्धक विमानों की खरीद में हुए कथित भ्रष्टाचार का रहस्योद्घाटन किया है. फ्रांस की सरकार इन रहस्योद्घाटनों के मद्देनजर ही इस मामले की जांच नए सिरे से करवा रही है.
 
  
 
 नैग ब्रेडॉक्स और एड्वी प्लेनेल (दाएं)
पेगासस स्पाईवेयर का राफेल कनेक्शन!


    इजराइल की कंपनी एनएसओ ग्रुप के पेगासस स्पाईवेयर को लेकर न सिर्फ दुनिया के कई और देशों बल्कि इजराइल में भी विरोध के स्वर तेज हो रहे हैं. इजराइल की सरकार ने उसके ठिकानों पर छापेमारी भी की है. अब तो एनएसओ की तरफ से भी कहा जा रहा है कि उसके जासूसी उपकरण के दुरुपयोग के मद्देनजर कुछ सरकारी एजेंसियों को पेगासस स्पाईवेयर के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई है. ऐसे में भारत सरकार यह कह कर नहीं निकल सकती कि यह एक गैर जरूरी या अगंभीर मुद्दा है. जाहिर सी बात है कि महंगाई, बेरोजगारी, सीमाओं की सुरक्षा, कोरोना महामारी से निबटने में कथित लापरवाही जैसे जन सरोकार से जुड़े कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर संसद में चर्चा होनी ही चाहिए लेकिन इसके बहाने पेगासस जासूसी मामले पर चर्चा नहीं कराने की सरकार की बात आसानी से हजम नहीं होती. अगर इस मामले में मोदी सरकार का दामन पाक-साफ है तो वह इसकी स्वतंत्र जांच और सदन में उचित नियम के तहत चर्चा करवाने को राजी क्यों नहीं हो रही !

    विपक्ष भी इसके जरिए मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करने का अवसर हाथ से जाने देना नहीं चाहता. विपक्ष के रणनीतिकारों को लगता है कि संसदीय गतिरोध के जरिए वे देशवासियों को बताने में सफल हो रहे हैं कि जासूसी मामले में घिर गई सरकार के पास कुछ बताने को नहीं है और वह इसकी जांच इसलिए भी नहीं करवाना चाहती है क्योंकि इससे जासूसी प्रकरण और राफेल युद्धक विमानों की खरीद में कथित भ्रष्टाचार का सच सामने आ सकता है. आम जन को भी लगने लगा है कि सरकार कहीं न कहीं इस मामले में गलत है तभी तो जांच और चर्चा से भाग रही है. उसे यह बताने में क्या हर्ज है कि उसने एनएसओ ग्रुप से पेगासस स्पाईवेयर खरीदा है कि नहीं. और अगर खरीदा है तो इसके जरिए वह किसकी जासूसी करवा रही थी. यही मांग तो भाजपा के वरिष्ठ नेता, सांसद सुब्रह्मणयम स्वामी भी कर रहे हैं. मीडिया रिपोर्टों में पेगासस स्पाईवेयर के जरिए भारत में जिन तकरीबन 300 लोगों के फोन हैककर उनकी जासूसी करने की बात सामने आ रही है, उनमें न सिर्फ विपक्ष के बड़े नेता, केंद्र सरकार में मंत्री, पत्रकार, वकील, सामाजिक-मानवाधिकार कार्यकर्ता बल्कि कुछ उद्यमी और वरिष्ठ अधिकारी भी हैं. राज्यसभा में कांग्रेस यानी विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खरगे के अनुसार पेगासस जासूसी प्रकरण बहुत गंभीर मामला है. इस पर चर्चा के बाद ही संसद में हंगामा थमेगा और दूसरे विषयों पर चर्चा हो सकेगी.

मल्लिकार्जुन खरगेः पेगासस जासूसी प्रकरण पर
चर्चा होने तक जाम रहेगी संसद !
 
  बदली भूमिका में विपक्ष

    दरअसल, संसद में हल्ला हंगामा और गतिरोध हमारे राजनीतिक तंत्र का अनिवार्य अंग बन गया है. कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने भाजपा के नेतृत्ववाली राजग सरकार के खिलाफ संसद में गतिरोध पैदा करने की जो रणनीति अभी अपनाई है, यही रणनीति 2004 से लेकर 2014 तक यूपीए सरकार के जमाने में भाजपा और उसके सहयोगी दल अपनाते रहे हैं. उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाले यूपीए शासन के दौरान कोयला ब्लॉक आवंटन और 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में हुए कथित घोटाले और मुंबई के आदर्श हाउसिंग घोटाले की जेपीसी जांच की मांग को लेकर भाजपा के नेतृत्व में हुए हंगामों के कारण संसद के सत्र दर सत्र बाधित हो रहे थे. इसके चलते पंद्रहवीं लोकसभा और राज्यसभा का भी अधिकतर समय भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सांसदों के शोरगुल, नारेबाजी और हंगामे की भेंट चढ़ गया था. आज जिस संसदीय गतिरोध के लिए सत्ता पक्ष यानी भाजपा के लोग कांग्रेस और विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, तब, संप्रग सरकार के जमाने में उसे ही विपक्ष का संसदीय दायित्व और लोकतांत्रिक अधिकार मानते थे.

राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडूः
 सरकार बदली, भाषा भी बदली !
 

     राजग शासन में सदन के बीच में प्लेकार्ड के साथ हल्ला हंगामा कर रहे सांसदों को नसीहत देने, उन्हें संसदीय अनुशासन का पाठ पढ़ाने के साथ ही ऐसा करनेवाले सांसदों के विरुद्ध कार्रवाई की चेतावनी देने में लगे राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडु यूपीए शासन के दौरान खुद हल्ला हंगामा करनेवाले भाजपा सांसदों के साथ खड़े दिखते थे. उस समय जब उनसे यह पूछा गया था कि सदन में हंगामा कर रहे भाजपा के सांसदों का यह तरीका असंसदीय नहीं है? उन्होंने कहा था कि हम नए तरीके ईजाद करेंगे ताकि सरकार की जवाबदेही के सिद्धांत की बलि न चढ़े. हम चुप नहीं रहेंगे. इस लड़ाई को संसद से बाहर जनता के बीच भी ले जाएंगे.
    कोल गेट और 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में कथित घोटाले की जेपीसी जांच के लिए जबरदस्त हंगामा कर संसद के दोनों सदनों को जाम करने के पक्ष में राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता अरुण जेटली कह रहे थे कि ‘‘हम लोगों ने जिस मुद्दे पर संसद में हंगामा शुरू किया है, उसे निष्पक्षता और जवाबदेही बहाल होने तक जनता के बीच ले जाएंगे. अगर संसद के प्रति जवाबदेही का पालन नहीं किया जाता है और बहस सिर्फ इस मुद्दे को समाप्त करने के लिए की जाती है, तब विपक्ष के लिए यह रणनीति वैध हो जाती है कि वह उन सभी संसदीय उपायों से सरकार का भंडाफोड़ करे, जिन्हें इस्तेमाल करना उसके हाथ में है.’’ उस समय वह संसदीय गतिरोध को जायज ठहराते हुए इसे अत्यंत महत्वपूर्ण संसदीय कार्य बता रहे थे. यह पूछे जाने पर कि क्या संसद का उपयोग बाधा पहुंचाने के बजाय चर्चा के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जेटली का सीधा जवाब था, ‘‘राष्ट्रीय बहस तो जारी है. हर पहलू पर चर्चा हो रही है, भले ही संसद में नहीं हो रही है. यह बहस दूसरी जगह जारी है. हमारी रणनीति यह है कि संसद में इस पर बहस मत होने दो, बस.’’ अभी लोकसभाध्यक्ष ओम बिरला से लेकर सत्तापक्ष के अन्य नेता भी संसदीय गतिरोध से देश को हो रहे करोड़ों रु. के नुकसान का विवरण दे रहे हैं लेकिन संप्रग सरकार के जमाने में संसद जॉम होने पर राजकोष को हो रहे आर्थिक नुकसान के बारे में जब लोकसभा में तत्कालीन विपक्ष (भाजपा) की नेता सुषमा स्वराज से पूछा गया कि क्या वह नहीं जानतीं कि संसद के कामकाज में बाधा पहुंचाने से राष्ट्रीय खजाने को कितना नुकसान होता है, उन्होंने कहा था, ‘‘अगर संसद की कार्यवाही नहीं चलने के कारण 10-20 करोड़ रु. का नुकसान हुआ और हम सरकार पर अपनी मांग के पक्ष में दबाव बना सके तो यह हमें स्वीकार्य है.’’ यही नहीं उस समय लालकृष्ण आडवाणी ने भी कहा था कि विधायी कार्य में बाधा पहुंचाने से भी ‘नतीजे मिलते हैं’.

विपक्ष में रहते लालकृष्ण आडवाणीः 
संसदीय गतिरोध से भी नतीजे मिलते हैं
    उस समय भाजपा के एक अन्य बड़े नेता यशवंत सिन्हां ने भी इसमें जोड़ा था कि ‘‘मैं पूरी ताकत से मांग करूंगा कि सरकार तुरंत जेपीसी जांच की घोषणा करे. इसकी घोषणा नहीं होने तक हम सदन को कैसे चलने दे सकते हैं?’’ जाहिर है कि अब, पिछले सात वर्षों में हमारे राजनीतिक दलों की भूमिकाएं बदल चुकी हैं. सत्तारूढ़ हो गए भाजपा के नेता अब वही भाषा बोल रहे हैं जो उस समय संप्रग शासन में कांग्रेस के लोग बोलते थे. दूसरी तरफ विपक्ष की भूमिका में आ चुकी कांग्रेस अब एकजुट विपक्ष को साथ लेकर अतीत में भाजपा की विपक्षवाली भूमिका का अनुसरण करते हुए भाजपानीत राजग सरकार को घेरने में लगी है. पेगासस जासूसी प्रकरण की जांच और संसद में इस पर विधिवत चर्चा होने तक गतिरोध जारी रहने की बात कर रही है. विपक्ष का आरोप है कि सरकार खुद संसद के भीतर सार्थक और सकारात्मक चर्चा के लिए तैयार नहीं है. विपक्ष की रणनीति अब पेगासस जासूसी प्रकरण पर संसद को जाम रखने के साथ ही इसे सड़कों पर, जनता के बीच ले जाने की भी लगती है.

    संसद चलाने की जिम्मेदारी किसकी

    
    लेकिन दोनों पक्षों के अपनी जिद पर अड़े रहने के कारण संसद के सुचारु ढंग से चल पाने की सम्भावना बहुत कम ही रह जाती है. दरअसल, सरकार भी संसद को सुचारु रूप से चलने देने में बहुत ज्यादा उत्सुक नहीं लगती. उसकी रणनीति एक तरफ तो संसदीय गतिरोध के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराकर उसे जनता की नजरों में गिराने की लगती है (इसका जिक्र स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा संसदीय दल की बैठक में कर चुके हैं. और दूसरी बात यह भी कि संसद के पिछले कुछ सत्रों की तरह इस बार भी वह शोरगुल और हंगामे के बीच अपने जरूरी विधायी कार्य बिना चर्चा और बहस के ही संपन्न करा सकेगी. ऐसा वह अतीत में करती भी रही है. इस मामले में सरकार मोदी जी के गुजरात में मुख्यमंत्री रहते किए प्रयोगों पर ही अमल कर रही है. गौरतलब है कि मुख्यमंत्री रहते मोदी जी को जब गुजरात विधानसभा में कोई जरूरी विधेयक पास करवाना होता तो किसी न किसी बहाने सदन में हंगामा करवाकर विपक्ष के प्रमुख विधायकों का थोकभाव से निलंबन करवा देते या फिर हल्ला हंगामे के बीच ही बिना किसी चर्चा और बहस के अपने विधेयक पास करवा लेते.
 
    संसदीय विशेषज्ञों का मानना है कि संसद मुख्य रूप से विपक्ष का फोरम होता है जहां वह विभिन्न नियम, प्रावधानों के जरिए सरकार की नाकामियों और गलतियों को सामने लाकर उसे कठघरे में खड़ा करता है. अपनी बात पर जोर देने के लिए यदा कदा वह सदन में हल्ला-हंगामे और सदन की कार्यवाही बाधित करने के अपने संसदीय अस्त्र का सहारा भी लेता है. दूसरी तरफ, संसद को चलाने की मुख्य जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती. इस काम में उसे विपक्ष को अपने साथ लेकर चलना होता है, कभी समझा-बुझाकर, कभी बहला-फुसलाकर, तो कभी थकाकर और कभी नर्म पड़कर भी. सरकार का संसदीय कौशल उत्तेजित विपक्ष को शांत करने और सहमति के बिंदुओं को सामने लाकर सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से संचालित करने के काम आता है. इस काम में सदन में उसका बहुमत भी सहायक भूमिका निभाता है. लेकिन हाल के वर्षों में सरकारें विपक्ष की इस भूमिका और उसके संसदीय अधिकारों को को स्वीकार करने के बजाय उसकी आवाज को दबाने की कोशिश करते ही नजर आ रही हैं. पेगासस जासूसी प्रकरण को लेकर बने गतिरोध के मामले में भी यही दिख रहा है.