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Tuesday, 7 September 2021

Hal Filhal : PM MATERIAL NITISH KUMAR !

तो क्या नीतीश कुमार हैं पीएम मटीरियल !


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/xXi2Ze03CuQ

तो क्या नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल यानी प्रधानमंत्री पद के काबिल बताया जाना एक राजनीतिक शिगूफा भर है! क्या इसका राजनीतिक मकसद अपने राजनीतिक सहयोगी भाजपा पर दबाव बनाना, जनता दल (यू) को राष्ट्रीय दल की पहिचान दिलाना भर है या नीतीश कुमार एक बार फिर पलटी मारकर 2024 के संसदीय चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को चुनौती देने के इरादे से विपक्ष का चेहरा बनने की संभावनाओं पर काम कर रहे हैं! या फिर यह जद (यू)  के अंदरूनी मतभेदों को दबाने और खबरों में बने रहने की कवायद भर है!

    इन दिनों बिहार की राजनीति में पीएम यानी प्रधानमंत्री मटीरियल की चर्चा बहुत जोरों पर है. बिहार में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का रिकार्ड बनानेवाले नीतीश कुमार को उनकी पार्टी के लोग एक अरसे से पी एम मटीरियल मानते और बताते रहे हैं लेकिन इस बार जब 29 अगस्त को जनता दल (यू) की राष्ट्रीय परिषद ने इस आशय का एक राजनीतिक प्रस्ताव भी पास कर दिया तो बात में गंभीरता नजर आने लगी है. पक्ष और विपक्ष में भी तर्क कुतर्क दिए जाने लगे हैं. यह बात और है कि अभी प्रधानमंत्री पद के लिए कोई रिक्ति नजर नहीं आ रही है.

नीतीश कुमारः राजनीतिक विश्वसनीयता का सवाल !
    जाहिरा तौर पर नीतीश कुमार पहले भी इससे इनकार करते रहे हैं और इस बार भी उन्होंने यही कहा है कि वह इन बातों पर ध्यान नहीं देते. पार्टी में लोग इस तरह की बातें करते रहते हैं. लेकिन उनकी मौजूदगी में उनकी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में इस तरह का राजनीतिक प्रस्ताव कैसे पास हो गया ! ऐसा तो संभव ही नहीं है कि उनकी जानकारी और सहमति के बिना यह प्रस्ताव तैयार और पास भी हो गया हो ! हालांकि इस प्रस्ताव को पास करते समय भी उनकी पार्टी के नेताओं ने यह साफ नहीं किया कि वह प्रधानमंत्री कब और कैसे बनेंगे. लोकसभा के चुनाव पौने तीन साल बाद होने हैं और अभी वह जिस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में शामिल हैं, उसमें प्रधानमंत्री का पद और भविष्य की दावेदारी भी खाली नहीं है. उनके समर्थक और उन्हें प्रधानमंत्री पद के काबिल बताने वाले उनकी पार्टी के नेता क्या यह सोचते हैं कि 2024 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी भाजपा में उम्र के पैमाने के मद्देनजर प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं रहेंगे और भाजपानीत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा संचालित राजग बिहार की बादशाहत की तरह ही लोकसभा में 15-20 सांसद की राजनीतिक ताकतवाले नीतीश कुमार को नेतृत्व की दावेदारी सौंप देगा! फिलहाल तो यह द्विवा स्वप्न से अधिक कुछ और नहीं लगता.
 

कैसे बनेंगे वैकल्पिक चेहरा !


    इसके लिए दूसरा विकल्प 2024 में संयुक्त विपक्ष उन्हें अपना वैकल्पिक चेहरा मानकर चुनाव लड़े. तो क्या उनकी निगाह एक बार फिर से पलटी मार कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के विरोध में बननेवाले किसी संभावित राजनीतिक गठबंधन का नेतृत्व करने की ओर लगी है. एक अरसे से उन्हें विपक्षी गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध सर्वमान्य विकल्प के बतौर देखा जाते रहा है. संभव है कि मौजूदा विपक्ष में कांग्रेस के अंदरूनी झगड़ों, वैकल्पिक नेतृत्व पर सहमति के अभाव, ममता बनर्जी और कुछ अन्य क्षेत्रीय नेताओं की संभावित दावेदारी के मद्देनजर उनके भीतर भी एक बार फिर से प्रधानमंत्री बनने की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हिलोर मारने लगी हों. उनके करीबी लोगों को लगता है कि वह विपक्ष का चेहरा बन सकते हैं. जेल से बाहर आने के बाद से ही हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला गैर कांग्रेसी, गैर भाजपा दलों को जोड़कर तीसरा मोर्चा फिर से खड़ा करने की कवायद में लगे हैं. वह नीतीश कुमार तथा कुछ अन्य नेताओं से मिल भी चुके हैं. अगले 25 सितंबर को उन्होंने अपने पिता, पूर्व उप प्रंधानमंत्री चौधरी देवीलाल की जयंती के अवसर पर हरियाणा के जींद में एक बड़ा समारोह (मिलन समारोह) आयोजित कर उसमें नीतीश कुमार, समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव, जनता दल (एस) के नेता, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा, अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल, तेलुगु देशम पार्टीप के चंद्रबाबू नायडू, रालोद के जयंत चौधरी, एनसीपी के शरद पवार, नेशनल कान्फ्रेंस के डा. फारुख अब्दुल्ला और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी को भी बुलाया है. इनमें से कौन कौन वहां जुटता है और आगे की रणनीति क्या बनती है, यह देखने की बात होगी. हालांकि ओमप्रकाश चौटाला इन दिनों स्वयं हरियाणा में अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनका राजनीतिक कुनबा बिखर चुका है. उनके पुत्र अजय चौटाला और पौत्र दुष्यंत चौटाला हरियाणा में भाजपा के साथ मिलकर साझा सरकार चला रहे हैं.  

राजीव रंजन उर्फ ललन सिंहः जद (यू) को राष्ट्रीय पहिचान दिलाना है
    नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री मटीरियल बताने के पीछे उनकी और उनके जद (यू) की राष्ट्रीय पहिचान बनाने की कवायद भी हो सकती है. जद (यू) नेताओं की कोशिश उत्तर प्रदेश और मणिपुर विधानसभा के चुनाव में भी अगर भाजपा से बात बन जाती है तो उसके साथ मिलकर और सम्मानजनक सीटें नहीं मिलने पर अपने बूते भी तकरीबन आधी सीटों पर चुनाव लड़ने की लगती है. इसके लिए अभी उनके पास प्रचुर समय भी है. भाजपा के साथ उनकी बात भी हो रही है. अगले साल ही जम्मू-कश्मीर और गुजरात विधानसभा के चुनाव भी होने हैं. जद (यू) की कोशिश इन राज्य विधानसभाओं के चुनाव में कुछ सीटें और अपेक्षित मत प्रतिशत हासिल कर चुनाव आयोग से राष्ट्रीय दल की मान्यता हासिल करने की हो सकती है. मणिपुर, गुजरात और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में उसकी पहले भी मौजूदगी रही है. राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह ने कश्मीर यात्रा कर वहां भी पार्टी के पांव पसारने और चुनाव लड़ने के संकेत दिए हैं. केंद्र सरकार में कृषि, भूतल परिवहन एवं रेल जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाल चुके नीतीश कुमार की राष्ट्रीय राजनीति में अपनी अलग तरह की पहिचान भी रही है.

पहले भी मन में उठी थी हूक !

    
    नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री मटीरियल वाली राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं इससे पहले भी कई बार हिलोर मार चुकी हैं. 2014 के संसदीय चुनाव के समय भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किए जाने के विरोध में उनकी पार्टी ने भाजपा और राजग से अलग होकर चुनाव लड़ा था. उनकी कोशिश कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ने की थी लेकिन बात नहीं बनी और लोकसभा चुनाव में उनके हिस्से में केवल दो ही सीटें आई थीं. भाजपा, लोजपा ओर रालोसपा का गठबंधन बिहार में तीन चौथाई सीटें जीतने में कामयाब हुआ था. लेकिन इसके बाद 2015 में बिहार विधानसभा का चुनाव उन्होंने कांग्रेस और अपने राजनीतिक विरोधी लालू प्रसाद यादव के राजद के साथ मिलकर लड़ा और शानदार जीत हासिल कर एक बार फिर वह बिहार के मुख्यमंत्री बने. हालांकि विधानसभा में उनकी पार्टी के पास राजद से कुछ कम सीटें थीं और इसको लेकर वह कुछ दबाव भी महसूस करते थे. उस समय भी, 2019 के संसदीय चुनाव में कुछ विपक्षी दलों की ओर से उन्हें मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने की कवायद शुरू हुई. कुछ समाजवादी बौद्धिकों ने भी उनके पक्ष में दिल्ली से माहौल बनान शुरू किया था. लेकिन नीतीश कुमार चाहते थे कि उन्हें यूपीए में संयोजक जैसा कोई पद देकर यूपीए उनके नेतृत्व में ही लोकसभा का चुनाव लड़े. लेकिन यह कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाले यूपीए को मंजूर नहीं था. और भी कुछ बातें थीं जिनसे उनका कांग्रेस और राजद के साथ मोहभंग सा होता गया. और इसी क्रम में विधानसभा के भीतर यह कहने के बावजूद कि रहें या मिट्टी में मिल जाएं, अब कभी भाजपा से हाथ नहीं मिलाएंगे, उन्होंने 2017 में दोबारा भाजपा से हाथ मिलाते हुए 2015 के जनादेश को दरकिनार कर भाजपा के साथ साझा सरकार बना ली. इससे विपक्षी खेमे में उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता संदिग्ध हुई. अभी भी कोई यकीनी तौर पर नहीं कह सकता कि उनका अगला राजनीतिक कदम क्या होगा!
 

भाजपा के रहमो करम पर मुख्यमंत्री !


    लेकिन उनके भाजपा के साथ एक बार फिर गलबहियां करने के 2017 के राजनीतिक फैसले का उन्हें भरपूर चुनावी लाभ मिला. मोदी लहर एक तरह से बिहार में स्वीप कर गई. 40 में से 30 सीटें राजग के खाते में गई. जद (यू) के भी 16 सांसद जीते. विपक्ष के नाम पर केल कांग्रेस को एक सीट मिल सकी थी. विधानसभा का पिछला, 2020 का चुनाव भी उन्होंने भाजपा के साथ ही मिलकर लड़ा. लेकिन इस बार भाजपा की सीटें तो बढ़कर 74 हो गईं, नीतीश कुमार के जद (यू) के खाते में केवल 43 सीटें ही आ सकीं. नीतीश कुमार के लिए यह एक राजनीतिक झटका था. हालांकि वादे के मुताबिक भाजपा ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही साझा सरकार बनवाई लेकिन क्रमशः इसकी कीमत भी वसूलने लगी. नीतीश कुमार के सामने एक बार फिर 2015 के बाद वाली ही स्थिति उभरकर सामने आने लगी है. भाजपा की तरफ से अपने हितों की पूर्ति और संघ परिवार के एजेंडे पर अमल के लिए दबाव बढ़ने लगा. भाजपा के विभागीय मंत्री अपने हिसाब से काम करने लगे. इसके साथ ही परोक्ष रूप से भाजपा के लोगों की तरफ से उन्हें इस बात का एहसास भी कराया जाने लगा है कि वह भाजपा के रहमो करम पर ही मुख्यमंत्री बने हुए हैं.

लालू प्रसाद यादवः  सरकार पर समाजवादी नेताओं को
विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों से हटाने का आरोप
    पिछले सप्ताह बिहार के छपरा में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम पर बने जेपी विश्वविद्यालय में गुपचुप ढंग से भाजपा का एजेंडा लागू करने की साजिश उजागर हुई. वहां राजनीति शास्त्र के पोस्ट ग्रेजुएट पाठ्यक्रम में समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक और नीतीश कुमार के राजनीतिक आराध्य और आदर्श रहे समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की के व्यक्तित्व और विचारों की जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस, ज्योतिबा फुले और जनसंघ के अध्यक्ष रहे दीन दयाल उपाध्याय को शामिल किया गया. नेताजी और ज्योतिबा फुले और यहां तक कि दीन दयाल उपाध्याय (हालांकि उपाध्याय का राष्ट्रीय आंदोलन अथवा सामाजिक आंदोलनों में भी क्या योगदान है, यह विवाद का विषय भी हो सकता है.) के बारे में भी पढ़ाया जाए तो किसी को आपत्ति नहीं होगी. लेकिन स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक, डा. राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की कीमत पर. जिस जेपी के नाम पर विश्वविद्यालय बना, उन्हें ही पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया! आश्चर्यजनक बात तो यह है कि बिहार में शिक्षामंत्री नीतीश कुमार की पार्टी के ही विजय कुमार चौधरी हैं. चौधरी और नीतीश कुमार की आंख तब खुली जब विपक्ष ने और खासतौर से लालू प्रसाद यादव ने लालू प्रसाद ने ट्वीट कर आरोप लगाया कि संघी मानसिकता की सरकार समाजवादी नेताओं के विचार पाठ्यक्रमों से हटा रही है. बिहार सरकार के जगने एवं कड़े निर्देश जारी करने के बाद अब पाठ्यक्रम में फिर से सुधार हो रहा है. अब इस बात की जांच करने की मांग हो रही है कि ऐसी खुराफात की किसने ? क्या यह करामात शिक्षा मंत्रालय के किसी अफसर की थी या फिर सीधे राजभवन से इसके लिए निर्देश था.
 

    भाजपा के दबाव से मुक्ति की कवायद !


     भाजपा और संघ परिवार के इस तरह के दबावों के कारण बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार चलाते हुए भी नीतीश कुमार खुद को असहज महसूस कर रहे हैं. लेकिन राजनीति के चतुर खिलाड़ी नीतीश कुमार अभी तक इन दबावों को झेलते और भरसक परे करते हैं. उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा को जद (यू) में विलीन करवाने के साथ ही बसपा, लोजपा के इक्का-दुक्का विधायकों को अपने दल में शामिल कर वह एक तरफ तो अपनी राजनीतिक मजबूती के संकेत देते हैं. दूसरी तरफ वह बीच-बीच में अपनी और अपने दल की स्वतंत्र-धर्मनिरपेक्ष छवि के साथ समझौता नहीं करने और भाजपा पर जवाबी दबाव बनाने के संकेत भी देते रहते हैं. भाजपा के जन संख्या नियंत्रण कानून पर उन्होंने साफ कर दिया कि उनकी राय भाजपा से अलग है. इसी तरह से पेगासस जासूसी प्रकरण की जांच कराए जाने की विपक्ष की मांग का समर्थन कर उन्होंने भाजपा और मोदी सरकार पर एक तरह का दबाव ही बनाया. उन्होंने भाजपा के राजनीतिक रुख की परवाह किए बिना जातीय जनगणना पर विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा और सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ उनसे मिलकर इसके लिए दबाव भी बनाया. प्रधानमंत्री के साथ बातचीत में उन्होंने इसके लिए विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव को श्रेय देकर लालू प्रसाद यादव के यहां भी एक खिड़की खुली रखने की कोशिश की. पेट्रोलियम पदार्थों और खासतौर से रसोई गैस की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि का भी उन्होंने खुलकर विरोध किया. देखना यही है कि जातिगत आधार पर जनगणना के मामले में नीतीश कुमार और बिहार के मुख्य विपक्ष के दबाव पर भाजपा और मोदी सरकार का रुख क्या होता है. क्योंकि कुछ ही दिनों में होनेवाले पंचायत चुनावों में बाढ़, पेट्रोल-डीजल और खासतौर से रसोई गैस के बढ़ते दाम के साथ जातीय जनगणना भी एक बड़ा मुद्दा हो सकता है. साथ ही भविष्य में भाजपा से अलग होने के लिए नीतीश कुमार के पास ठोस बहाना भी!

    इस तरह से भाजपा के लोग नीतीश कुमार और उनकी सरकार पर दबाव बनाने में लगे हैं और कसमसाहट महसूस करते हुए नीतीश कुमार भी इससे मुक्त होने के प्रयास में लगे रहते हैं. तो क्या उनके प्रधानमंत्री मटीरियल होने की बात इस समय भाजपा पर जवाबी दबाव बनाने के लिए भी कही जा रही है! इसके साथ ही पिछले दिनों जनता दल यू की अंदरूनी कलह भी खुल कर आने लगी थी. नीतीश कुमार के खासुल खास रहे आरसीपी सिंह के केंद्र में मंत्री बन जाने के बाद उनकी जगह सांसद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष और हाल ही में जद यू में शामिल उपेंद्र कुशवाहा को संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद स्वागत समारोहों के जरिए जनता दल यू की गुटबाजी और नेताओं के अंदरूनी मतभेद खुलकर सामने आने लगे हैं. पूर्व नौकरशाह आरसीपी के करीबी लोग चाहते थे कि वह केंद्र में मंत्री के साथ ही राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने रहें, वहीं आरसीपी सिंह के विरोधियों का कहना है कि मंत्री बनने के बाद से उनका भाजपा के प्रति झुकाव कुछ ज्यादा ही दिख रहा है. जातीय जनगणना पर पार्टी के अधिकृत रुख से अलग वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं. राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते खुद मंत्री बन जाने के मामले पर वह कह रहे हैं कि ऐसा उन्होंने नीतीश कुमार के कहने पर ही किया. प्रधानमंत्री मटीरियल का शिगूफा छेड़कर अंदरूनी मतभेदों पर काबू पाने की कोशिश भी हो सकती है. अब सभी नेता एक स्वर से नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल बताने के काम में जुट गए हैं. कुल मिलाकर नीतीश कुमार के पीएम मटीरियल होने का खेल जारी है. इस खेल में बहुत कुछ अगले साल होनेवाले यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, गोवा और फिर गुजरात और जम्मू कश्मीर विधानसभा के चुनावी नतीजों पर भी निर्भर करेगा.

नोटः तस्वीरें इंटरनेट के सौजन्य से.  

Monday, 9 August 2021

Hal Filhal : AGGRESSIVE OPPOSITION AND ARROGANT GOVERNMENT

आक्रामक विपक्ष और बौखलाती सरकार


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/2MXvfVUG-6E
    
    पेगासस जासूसी प्रकरण को लेकर मोदी सरकार की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रहीं. बिना किसी चर्चा और बहस के पास हुए कुछ विधेयकों को छोड़ दें तो पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा और इसकी स्वतंत्र जांच की मांग को लेकर विपक्ष के हल्ला-हंगामे के कारण संसद के मानसून सत्र का तीसरा सप्ताह भी बाधित ही रहा. विधिवत विधायी कार्य नहीं हो सके. इस बीच मामले की स्वतंत्र जांच से संबंधित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य ऩ्याधीश एन वी रमण ने मीडिया रिपोर्ट्स के मद्देनजर पेगासस जासूसी मामले को अत्यंत गंभीर मामला बताया है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है.

    दूसरी तरफ, संसद से लेकर सड़क तक पेगासस जासूसी प्रकरण के साथ ही किसान आंदोलन, महंगाई और बेरोजगारी के सवाल पर आक्रामक विपक्ष की एकजुटता के प्रयास तेज हो रहे हैं. विपक्ष की आक्रामकता और एकजुटता की कवायद को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी, उनकी सरकार के मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता इन मुद्दों पर संसद में चर्चा कराने के बजाए संसद नहीं चलने देने के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराते हुए उसे ही कोस रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष पर संसदीय गतिरोध के जरिए देश हित विरोधी राजनीति तथा संसद का अपमान करने का आरोप भी लगाया है. ओलंपिक खेलों का संदर्भ लेकर उन्होंने कहा है कि एक तरफ देश जीत के गोल पर गोल कर रहा है, वहीं कुछ लोग ‘सेल्फ गोल’ करने में लगे हैं.
 
    
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी: विपक्ष 'सेल्फ गोल' कर रहा है!
    जब देश के प्रधानमंत्री विपक्ष के बारे में इस तरह की भाषा बोल रहे हों तो भला उनके मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता पीछे कैसे रह सकते हैं. कल तक केंद्र सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि कांग्रेस के डीएनए में संसद के सम्मान के संस्कार ही नहीं हैं. ऐसा कहते हुए वे और उनके नेता भूल जा रहे हैं कि उनकी पार्टी ने संप्रग सरकार के जमाने में किस तरह से संसद के सत्र दर सत्र बाधित किए थे. तब उन्हें संसद में हल्ला-हंगामा विपक्ष का संसदीय दायित्व और लोकतांत्रिक अधिकार लगता था लेकिन अब विपक्ष की वही, संसद में विपक्ष में रहते भाजपावाली भूमिका उन्हें देश हित के विरुद्ध और संसद का अपमान नजर आ रही है.

    लेकिन सत्ता पक्ष के इस अहंकार और बौखलाहट का विपक्ष की आक्रामकता पर खास असर नहीं पड़ रहा है. तकरीबन एकजुट विपक्ष पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा होने तक 13 अगस्त तक के लिए निर्धारित मालसून सत्र के दौरान संसद के दोनों सदनों को बाधित करने पर अडिग है. और अब तो विपक्ष महंगाई और बेरोजगारी के सवाल को इसके साथ जोड़ते हुए सड़क पर भी उतरने लगा है. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की चाय-नाश्ते पर आयोजित बैठक के बाद इन दलों के नेता-सांसद संसद भवन तक साइकिल यात्रा लेकर गए. जासूसी प्रकरण से लेकर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के प्रतीकात्मक विरोध के रूप में हुई इस साइकिल यात्रा में शामिल राहुल गांधी से लेकर विपक्ष के अन्य सांसदों के पास प्लेकार्ड्स थे जिन पर पेगासस जासूसी प्रकरण से लेकर महंगाई और बेरोजगारी के विरोध में नारे लिखे थे.

राहुल गांधी का सड़क से संसद तक का साइकिल मार्च

    इससे पहले वह ट्रैक्टर पर सवार होकर भी संसद गए थे. साइकिल मार्च के दो दिन बाद इन्हीं मांगों के साथ युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने नई दिल्ली में संसद भवन के पास पुलिस की तरफ से तेज धार पानी की बौछारों के बीच भारी विरोध प्रदर्शन किया. अगले दिन राहुल गांधी के साथ इन दलों के नेता और सांसद किसानों के धरने में भी शामिल हुए. देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि के विरोध में और किसान आंदोलन के समर्थन में साइकिल ट्रैक्टर मार्च किया.


    ममता की जीत से विपक्ष को मिली ताकत ! 


    दरअसल, एक अरसे तक पस्तहाल लग रहे विपक्षी दलों के लिए बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों ने एक तरह के राजनीतिक आक्सीजन का काम किया है. उनके भीतर यह एहसास भरने लगा है कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी अपराजेय नहीं रह गई है. बिहार में तो बहुत कम अंतर से विपक्ष सरकार बनाने से चूक गया लेकिन पश्चिम बंगाल में एक बार फिर खुद के बूते विजेता के रूप में उभर कर आई ममता बनर्जी में विपक्ष को एकजुटता के लिए एक सीमेंटिंग फोर्स के अलावा प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती दे सकनेवाली जुझारू नेता भी नजर आने लगी है. ममता बनर्जी ने खुद भी बंगाल से बाहर निकल कर राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के संकेत देने शुरू कर दिए हैं. उनके लिए चुनावी रणनीतिकार की भूमिका निभानेवाले प्रशांत किशोर अलग से सक्रिय हैं. उन्होंने शरद पवार से लेकर विपक्ष के अन्य प्रमुख नेताओं से मिलना जुलना और उनकी नब्ज टटोलना शुरू कर दिया है. शरद पवार और ममता बनर्जी ने भी विपक्ष के नेताओं से अलग अलग मुलाकातों में भाजपा को मजबूत चुनौती देने की गरज से विपक्ष की एकजुटता और मोर्चा बनाने पर बल दिया है. ममता बनर्जी ने अपनी हाल की दिल्ली यात्रा में अन्य नेताओं के साथ ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और निवर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी मुलाकात की.

सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ ममता बनर्जी: 
 विपक्ष को एकजुट करने की कवायद
    विपक्ष को एकजुट करने की इस मुहिम के कुछ गलत अर्थ नहीं निकलें, इसके लिए शरद पवार से लेकर ममता बनर्जी ने भी यह साफ करने की कोशिश की है कि कांग्रेस को परे रखकर विपक्ष की कोई एकजुटता कारगर नहीं हो सकेगी. लोकसभा की तकरीबन आधी सीटें ऐसी हैं जिन पर भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से ही है. इस सबसे उत्साहित होकर ही राहुल गांधी ने नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में 16 विपक्षी दलों के नेताओं को चाय नाश्ते पर बुलाया. इनमें से विपक्ष की छोटी-बड़ी 14 पार्टियों के नेता तो बैठक में आए लेकिन बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी के नेता-प्रतिनिधि इस बैठक से दूर ही रहे. इनके बैठक में शामिल नहीं होने के अन्य कारणों के साथ एक कारण यह भी है कि ये लोग उत्तर प्रदेश और दिल्ली तथा पंजाब में विपक्ष की एकजुटता के स्वरूप को लेकर संशय में दिखते हैं. कभी विपक्षी एकता या कहें तीसरे मोर्चे की धुरी रहे चंद्र बाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी के नेता भी इस बैठक में नहीं दिखे. ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति और वाय एस आर कांग्रेस ने भी फिलहाल विपक्षी एकजुटता की इस कवायद से दूरी बनाकर रखी है. ये दल अभी भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाए रखने की नीति पर ही चल रहे हैं.

    विपक्ष की एकजुटता कुछ खास मुद्दों पर मोदी और भाजपा विरोध तक ही सीमित होगी या फिर इसके आगे चुनावी मैदान में भी एक सशक्त वैकल्पिक चेहरे को सामने रखकर सामूहिक रणनीति तैयार करने की दिशा में ठोस कदम भी बढ़ाएगी! क्या वैकल्पिक नीतियों और कार्यक्रमों पर भी विचार होगा. तकरीबन सभी दल किसान आंदोलन का समर्थन तो कर रहे हैं लेकिन कृषि कानूनों के भविष्य पर कोई खुलकर कुछ नहीं बोल रहा है. इस तरह के कई और सवालों पर भी विपक्ष के नेताओं को मिल-बैठकर विचार करना और एकजुट विपक्ष के लिए आम राय पर आधारित एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तौयार करना होगा, जो सिर्फ कागजों पर ही नहीं होगा, सत्तारूढ़ होने पर उस पर अमल का आश्वासन भी होगा. वैसे, 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इस काम के लिए विपक्ष के पास अभी काफी समय है. लेकिन तैयारियां तो अभी से करनी होंगी. ममता बनर्जी ने कहा भी है, "मैं नहीं जानती कि 2024 में क्या होगा? लेकिन इसके लिए अभी से तैयारियाँ करनी होंगी. हम जितना समय नष्ट करेंगे, उतनी ही देरी होगी. बीजेपी के ख़िलाफ़ तमाम दलों को मिल कर एक मोर्चा बनाना होगा." जहां तक एकजुट विपक्ष के नेतृत्व का सवाल है, ममता साफ साफ कुछ कहने के बजाय गोल मोल बातें करती हैं. लेकिन कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने साफ किया है कि उनके लिए विपक्ष की एकजुटता महत्वपूर्ण है, चेहरा नहीं. 

    बदले से नजर आते हैं नीतीश कुमार !

    
ओमप्रकाश चौटाला के साथ नीतीश कुमार (बीच में) और उनकी पार्टी
के महासचिव के सी त्यागी:
 तीसरे मोर्चे की कवायद!

    इस बीच हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की जेल से बाहर आने के बाद बढ़ी राजनीतिक सक्रियता को भी विपक्ष की एकजुटता के प्रयासों की कड़ी में भी देखा जा रहा है. इंडियन नेशनल लोकदल के अध्यक्ष चौटाला ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात के बाद तीसरे मोर्चे के गठन पर बल दिया. इसी कड़ी में उन्होंने जनता दल (एस) के अध्यक्ष, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा और समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता, सांसद मुलायम सिंह यादव से भी मुलाकात की. इन मुलाकातों में भी चर्चा किसान आंदोलन से लेकर तीसरे मोर्चे के पुनर्जीवन को लेकर ही प्रमुख रही.  वहीं सोनिया गांधी के करीबी कहे जानेवाले लालू प्रसाद ने भी पिछले दिनों शरद पवार, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव के साथ लंबी मुलाकातें की. ममता बनर्जी के साथ भी लालू प्रसाद और उनके पुत्र तेजस्वी यादव के करीबी संबंध हैं. तेजस्वी और राजद ने चुनाव में ममता बनर्जी को खुला समर्थन दिया था. लालू प्रसाद की सक्रियता के मद्देनजर बिहार में राजनीतिक उलटफेर के कयास भी लगने लगे हैं. लेकिन  नीतीश कुमार किसी विपक्षी गठबंधन में शामिल होंगे कि नहीं, यह कह पाना किसी के लिए भी अभी दुरूह कार्य हो सकता है. लेकिन यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करते हुए भी वे खुद को पहले की तरह सहज महसूस नहीं कर पा रहे हैं. दूसरी तरफ, भाजपा भी उन्हें राजनीतिक रूप से घेरने और कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही. जद यू के नेताओं का बड़ा तबका बिहार में अपने खराब चुनावी प्रदर्शन के लिए चिराग पासवान के साथ ही परोक्ष रूप से भाजपा को भी जिम्मेदार मानते हैं. वे सवाल करते हैं कि साझा सरकार चलानेवाले दोनों दलों में से एक को विधानसभा की 74 और दूसरे को केवल 43 सीटें कैसे मिल सकीं.

मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के साथ लालू प्रसादः
 पारिवारिक मिलन से आगे भी कुछ और!

    बिहार विधानसभा चुनाव के कुछ ही समय बाद अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक जरूरत नहीं होने के बावजूद भाजपा ने जनता दल यू के सात में से छह विधायकों को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल कर लिया. भाजपा का यह राजनीतिक फैसला भी जद यू नेतृत्व के गले नहीं उतर सका. यही नहीं, गाहे बगाहे भाजपा अपने राजनीतिक मुद्दों को भी बिहार में उछालने-थोपने की कवायद में लगी रहती है. चुनाव से पहले बिहार में राजग की सरकार बनने पर हर हाल में नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने की प्रतिबद्धता जतानेवाली भाजपा के नेता अब खुलकर कहने लगे हैं कि भाजपा की तुलना में आधी से कुछ ही अधिक सीटें जीतनेवाले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना भाजपा का बड़प्पन था. इस सबके संकेत नीतीश कुमार और उनके करीबी लोग भी बखूबी समझ रहे हैं. बीच-बीच में राष्ट्रीय स्तर पर उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने की संभावनाएं भी हिलोर मारने लगती हैं.    
    
उपेंद्र कुशवाहाः पीएम मटीरियल हैं,नीतीश कुमार
    अभी
जद यू के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने उन्हें पीएम मटीरियल बताया है. पार्टी के नये अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह की ताजपोशी के अवसर पर नीतीश कुमार की मौजूदगी में भी जद यू के लोगों ने नारा लगाया, ‘2024 का पीएम कैसा हो, नीतीश कुमार जैसा हो.’ अध्यक्ष बनने के बाद ललन सिंह ने कहा है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भाजपा के साथ सम्मानजनक गठबंधन नहीं होने पर उनकी पार्टी वहां 200 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

    हाल के दिनों में नीतीश कुमार के कुछ राजनीतिक फैसलों और बयानों को भी भाजपा के साथ उनकी मौजूदा असहजता के रूप में ही देखा जा रहा है. उन्होंने भाजपा के जनसंख्या नियंत्रण कानून के खिलाफ सख्त बयान दिया है. भाजपा की राय के विपरीत देश में जाति आधारित जनगणना की पुरजोर वकालत करते हुए उन्होंने इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र भी लिखा है. सबसे बड़ी बात यह है कि जिस पेगासस जासूसी प्रकरण ने प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की नाक में दम करके रखा है, नीतीश कुमार ने इस मामले में विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए उसकी जांच तथा संसद में उस पर चर्चा कराए जाने के पक्ष में बयान दिया है. भाजपा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी के बाद सत्ता पक्ष के एक और बड़े नेता, नीतीश कुमार के इस बयान को लेकर अब भाजपा असहज दिखने लगी है. तो क्या वाकई नीतीश कुमार एक बार फिर भाजपा से अलग होकर विपक्ष की कतार में शामिल होने का मन बना रहे हैं! ऐसा वह तभी सोच सकते हैं जब उन्हें 2024 में विपक्ष का सर्वमान्य चेहरा बताकर पेश किया जाए.

     लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता को लेकर हो सकती है. जिस तरह से उन्होंने विधानसभा के भीतर कहा था कि वह मिट्टी में मिल जाएंगे लेकिन भाजपा से फिर कभी हाथ नहीं मिलाएंगे और इसके कुछ ही दिन बाद उन्होंने न सिर्फ भाजपा से हाथ मिला लिया, जनादेश को ताक पर रखकर उसके साथ सरकार साझा की. 2020 के विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़े और अल्पमत में होने के बावजूद वह भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करने को राजी हो गए, उसे देखते हुए विपक्षी दल उन पर आसानी से भरोसा करने को राजी नहीं. उपेंद्र कुशावाहा के नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल बतानेवाले बयान पर बिहार विधानसभा में विपक्ष (राजद) के नेता तेजस्वी यादव ने कटाक्ष करते हुए कहा भी है कि, वह पीएम (पलटी मार) मटीरियल तो हैं ही. इसका इलहाम नीतीश कुमार को भी तो होगा ही. लेकिन इस सबसे परे राजनीति आवश्यकता, संभावनाओं और परिस्थितियों का खेल भी होती है. इसमें बहुत कुछ तत्कालीन परिस्थिति के मद्देनजर भी तय होता है. कट्टर विरोधी होने के बावजूद 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़े और सरकार बनाए और फिर मिट्टी में मिलना पसंद करने लेकिन भाजपा से फिर हाथ नहीं मिलाने की बात करनेवाले नीतीश कुमार इस समय भाजपा के साथ सरकार साझा कर रहे हैं !