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Monday, 9 August 2021

Hal Filhal : AGGRESSIVE OPPOSITION AND ARROGANT GOVERNMENT

आक्रामक विपक्ष और बौखलाती सरकार


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/2MXvfVUG-6E
    
    पेगासस जासूसी प्रकरण को लेकर मोदी सरकार की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रहीं. बिना किसी चर्चा और बहस के पास हुए कुछ विधेयकों को छोड़ दें तो पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा और इसकी स्वतंत्र जांच की मांग को लेकर विपक्ष के हल्ला-हंगामे के कारण संसद के मानसून सत्र का तीसरा सप्ताह भी बाधित ही रहा. विधिवत विधायी कार्य नहीं हो सके. इस बीच मामले की स्वतंत्र जांच से संबंधित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य ऩ्याधीश एन वी रमण ने मीडिया रिपोर्ट्स के मद्देनजर पेगासस जासूसी मामले को अत्यंत गंभीर मामला बताया है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है.

    दूसरी तरफ, संसद से लेकर सड़क तक पेगासस जासूसी प्रकरण के साथ ही किसान आंदोलन, महंगाई और बेरोजगारी के सवाल पर आक्रामक विपक्ष की एकजुटता के प्रयास तेज हो रहे हैं. विपक्ष की आक्रामकता और एकजुटता की कवायद को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी, उनकी सरकार के मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता इन मुद्दों पर संसद में चर्चा कराने के बजाए संसद नहीं चलने देने के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराते हुए उसे ही कोस रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष पर संसदीय गतिरोध के जरिए देश हित विरोधी राजनीति तथा संसद का अपमान करने का आरोप भी लगाया है. ओलंपिक खेलों का संदर्भ लेकर उन्होंने कहा है कि एक तरफ देश जीत के गोल पर गोल कर रहा है, वहीं कुछ लोग ‘सेल्फ गोल’ करने में लगे हैं.
 
    
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी: विपक्ष 'सेल्फ गोल' कर रहा है!
    जब देश के प्रधानमंत्री विपक्ष के बारे में इस तरह की भाषा बोल रहे हों तो भला उनके मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता पीछे कैसे रह सकते हैं. कल तक केंद्र सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि कांग्रेस के डीएनए में संसद के सम्मान के संस्कार ही नहीं हैं. ऐसा कहते हुए वे और उनके नेता भूल जा रहे हैं कि उनकी पार्टी ने संप्रग सरकार के जमाने में किस तरह से संसद के सत्र दर सत्र बाधित किए थे. तब उन्हें संसद में हल्ला-हंगामा विपक्ष का संसदीय दायित्व और लोकतांत्रिक अधिकार लगता था लेकिन अब विपक्ष की वही, संसद में विपक्ष में रहते भाजपावाली भूमिका उन्हें देश हित के विरुद्ध और संसद का अपमान नजर आ रही है.

    लेकिन सत्ता पक्ष के इस अहंकार और बौखलाहट का विपक्ष की आक्रामकता पर खास असर नहीं पड़ रहा है. तकरीबन एकजुट विपक्ष पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा होने तक 13 अगस्त तक के लिए निर्धारित मालसून सत्र के दौरान संसद के दोनों सदनों को बाधित करने पर अडिग है. और अब तो विपक्ष महंगाई और बेरोजगारी के सवाल को इसके साथ जोड़ते हुए सड़क पर भी उतरने लगा है. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की चाय-नाश्ते पर आयोजित बैठक के बाद इन दलों के नेता-सांसद संसद भवन तक साइकिल यात्रा लेकर गए. जासूसी प्रकरण से लेकर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के प्रतीकात्मक विरोध के रूप में हुई इस साइकिल यात्रा में शामिल राहुल गांधी से लेकर विपक्ष के अन्य सांसदों के पास प्लेकार्ड्स थे जिन पर पेगासस जासूसी प्रकरण से लेकर महंगाई और बेरोजगारी के विरोध में नारे लिखे थे.

राहुल गांधी का सड़क से संसद तक का साइकिल मार्च

    इससे पहले वह ट्रैक्टर पर सवार होकर भी संसद गए थे. साइकिल मार्च के दो दिन बाद इन्हीं मांगों के साथ युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने नई दिल्ली में संसद भवन के पास पुलिस की तरफ से तेज धार पानी की बौछारों के बीच भारी विरोध प्रदर्शन किया. अगले दिन राहुल गांधी के साथ इन दलों के नेता और सांसद किसानों के धरने में भी शामिल हुए. देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि के विरोध में और किसान आंदोलन के समर्थन में साइकिल ट्रैक्टर मार्च किया.


    ममता की जीत से विपक्ष को मिली ताकत ! 


    दरअसल, एक अरसे तक पस्तहाल लग रहे विपक्षी दलों के लिए बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों ने एक तरह के राजनीतिक आक्सीजन का काम किया है. उनके भीतर यह एहसास भरने लगा है कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी अपराजेय नहीं रह गई है. बिहार में तो बहुत कम अंतर से विपक्ष सरकार बनाने से चूक गया लेकिन पश्चिम बंगाल में एक बार फिर खुद के बूते विजेता के रूप में उभर कर आई ममता बनर्जी में विपक्ष को एकजुटता के लिए एक सीमेंटिंग फोर्स के अलावा प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती दे सकनेवाली जुझारू नेता भी नजर आने लगी है. ममता बनर्जी ने खुद भी बंगाल से बाहर निकल कर राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के संकेत देने शुरू कर दिए हैं. उनके लिए चुनावी रणनीतिकार की भूमिका निभानेवाले प्रशांत किशोर अलग से सक्रिय हैं. उन्होंने शरद पवार से लेकर विपक्ष के अन्य प्रमुख नेताओं से मिलना जुलना और उनकी नब्ज टटोलना शुरू कर दिया है. शरद पवार और ममता बनर्जी ने भी विपक्ष के नेताओं से अलग अलग मुलाकातों में भाजपा को मजबूत चुनौती देने की गरज से विपक्ष की एकजुटता और मोर्चा बनाने पर बल दिया है. ममता बनर्जी ने अपनी हाल की दिल्ली यात्रा में अन्य नेताओं के साथ ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और निवर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी मुलाकात की.

सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ ममता बनर्जी: 
 विपक्ष को एकजुट करने की कवायद
    विपक्ष को एकजुट करने की इस मुहिम के कुछ गलत अर्थ नहीं निकलें, इसके लिए शरद पवार से लेकर ममता बनर्जी ने भी यह साफ करने की कोशिश की है कि कांग्रेस को परे रखकर विपक्ष की कोई एकजुटता कारगर नहीं हो सकेगी. लोकसभा की तकरीबन आधी सीटें ऐसी हैं जिन पर भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से ही है. इस सबसे उत्साहित होकर ही राहुल गांधी ने नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में 16 विपक्षी दलों के नेताओं को चाय नाश्ते पर बुलाया. इनमें से विपक्ष की छोटी-बड़ी 14 पार्टियों के नेता तो बैठक में आए लेकिन बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी के नेता-प्रतिनिधि इस बैठक से दूर ही रहे. इनके बैठक में शामिल नहीं होने के अन्य कारणों के साथ एक कारण यह भी है कि ये लोग उत्तर प्रदेश और दिल्ली तथा पंजाब में विपक्ष की एकजुटता के स्वरूप को लेकर संशय में दिखते हैं. कभी विपक्षी एकता या कहें तीसरे मोर्चे की धुरी रहे चंद्र बाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी के नेता भी इस बैठक में नहीं दिखे. ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति और वाय एस आर कांग्रेस ने भी फिलहाल विपक्षी एकजुटता की इस कवायद से दूरी बनाकर रखी है. ये दल अभी भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाए रखने की नीति पर ही चल रहे हैं.

    विपक्ष की एकजुटता कुछ खास मुद्दों पर मोदी और भाजपा विरोध तक ही सीमित होगी या फिर इसके आगे चुनावी मैदान में भी एक सशक्त वैकल्पिक चेहरे को सामने रखकर सामूहिक रणनीति तैयार करने की दिशा में ठोस कदम भी बढ़ाएगी! क्या वैकल्पिक नीतियों और कार्यक्रमों पर भी विचार होगा. तकरीबन सभी दल किसान आंदोलन का समर्थन तो कर रहे हैं लेकिन कृषि कानूनों के भविष्य पर कोई खुलकर कुछ नहीं बोल रहा है. इस तरह के कई और सवालों पर भी विपक्ष के नेताओं को मिल-बैठकर विचार करना और एकजुट विपक्ष के लिए आम राय पर आधारित एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तौयार करना होगा, जो सिर्फ कागजों पर ही नहीं होगा, सत्तारूढ़ होने पर उस पर अमल का आश्वासन भी होगा. वैसे, 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इस काम के लिए विपक्ष के पास अभी काफी समय है. लेकिन तैयारियां तो अभी से करनी होंगी. ममता बनर्जी ने कहा भी है, "मैं नहीं जानती कि 2024 में क्या होगा? लेकिन इसके लिए अभी से तैयारियाँ करनी होंगी. हम जितना समय नष्ट करेंगे, उतनी ही देरी होगी. बीजेपी के ख़िलाफ़ तमाम दलों को मिल कर एक मोर्चा बनाना होगा." जहां तक एकजुट विपक्ष के नेतृत्व का सवाल है, ममता साफ साफ कुछ कहने के बजाय गोल मोल बातें करती हैं. लेकिन कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने साफ किया है कि उनके लिए विपक्ष की एकजुटता महत्वपूर्ण है, चेहरा नहीं. 

    बदले से नजर आते हैं नीतीश कुमार !

    
ओमप्रकाश चौटाला के साथ नीतीश कुमार (बीच में) और उनकी पार्टी
के महासचिव के सी त्यागी:
 तीसरे मोर्चे की कवायद!

    इस बीच हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की जेल से बाहर आने के बाद बढ़ी राजनीतिक सक्रियता को भी विपक्ष की एकजुटता के प्रयासों की कड़ी में भी देखा जा रहा है. इंडियन नेशनल लोकदल के अध्यक्ष चौटाला ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात के बाद तीसरे मोर्चे के गठन पर बल दिया. इसी कड़ी में उन्होंने जनता दल (एस) के अध्यक्ष, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा और समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता, सांसद मुलायम सिंह यादव से भी मुलाकात की. इन मुलाकातों में भी चर्चा किसान आंदोलन से लेकर तीसरे मोर्चे के पुनर्जीवन को लेकर ही प्रमुख रही.  वहीं सोनिया गांधी के करीबी कहे जानेवाले लालू प्रसाद ने भी पिछले दिनों शरद पवार, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव के साथ लंबी मुलाकातें की. ममता बनर्जी के साथ भी लालू प्रसाद और उनके पुत्र तेजस्वी यादव के करीबी संबंध हैं. तेजस्वी और राजद ने चुनाव में ममता बनर्जी को खुला समर्थन दिया था. लालू प्रसाद की सक्रियता के मद्देनजर बिहार में राजनीतिक उलटफेर के कयास भी लगने लगे हैं. लेकिन  नीतीश कुमार किसी विपक्षी गठबंधन में शामिल होंगे कि नहीं, यह कह पाना किसी के लिए भी अभी दुरूह कार्य हो सकता है. लेकिन यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करते हुए भी वे खुद को पहले की तरह सहज महसूस नहीं कर पा रहे हैं. दूसरी तरफ, भाजपा भी उन्हें राजनीतिक रूप से घेरने और कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही. जद यू के नेताओं का बड़ा तबका बिहार में अपने खराब चुनावी प्रदर्शन के लिए चिराग पासवान के साथ ही परोक्ष रूप से भाजपा को भी जिम्मेदार मानते हैं. वे सवाल करते हैं कि साझा सरकार चलानेवाले दोनों दलों में से एक को विधानसभा की 74 और दूसरे को केवल 43 सीटें कैसे मिल सकीं.

मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के साथ लालू प्रसादः
 पारिवारिक मिलन से आगे भी कुछ और!

    बिहार विधानसभा चुनाव के कुछ ही समय बाद अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक जरूरत नहीं होने के बावजूद भाजपा ने जनता दल यू के सात में से छह विधायकों को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल कर लिया. भाजपा का यह राजनीतिक फैसला भी जद यू नेतृत्व के गले नहीं उतर सका. यही नहीं, गाहे बगाहे भाजपा अपने राजनीतिक मुद्दों को भी बिहार में उछालने-थोपने की कवायद में लगी रहती है. चुनाव से पहले बिहार में राजग की सरकार बनने पर हर हाल में नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने की प्रतिबद्धता जतानेवाली भाजपा के नेता अब खुलकर कहने लगे हैं कि भाजपा की तुलना में आधी से कुछ ही अधिक सीटें जीतनेवाले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना भाजपा का बड़प्पन था. इस सबके संकेत नीतीश कुमार और उनके करीबी लोग भी बखूबी समझ रहे हैं. बीच-बीच में राष्ट्रीय स्तर पर उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने की संभावनाएं भी हिलोर मारने लगती हैं.    
    
उपेंद्र कुशवाहाः पीएम मटीरियल हैं,नीतीश कुमार
    अभी
जद यू के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने उन्हें पीएम मटीरियल बताया है. पार्टी के नये अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह की ताजपोशी के अवसर पर नीतीश कुमार की मौजूदगी में भी जद यू के लोगों ने नारा लगाया, ‘2024 का पीएम कैसा हो, नीतीश कुमार जैसा हो.’ अध्यक्ष बनने के बाद ललन सिंह ने कहा है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भाजपा के साथ सम्मानजनक गठबंधन नहीं होने पर उनकी पार्टी वहां 200 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

    हाल के दिनों में नीतीश कुमार के कुछ राजनीतिक फैसलों और बयानों को भी भाजपा के साथ उनकी मौजूदा असहजता के रूप में ही देखा जा रहा है. उन्होंने भाजपा के जनसंख्या नियंत्रण कानून के खिलाफ सख्त बयान दिया है. भाजपा की राय के विपरीत देश में जाति आधारित जनगणना की पुरजोर वकालत करते हुए उन्होंने इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र भी लिखा है. सबसे बड़ी बात यह है कि जिस पेगासस जासूसी प्रकरण ने प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की नाक में दम करके रखा है, नीतीश कुमार ने इस मामले में विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए उसकी जांच तथा संसद में उस पर चर्चा कराए जाने के पक्ष में बयान दिया है. भाजपा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी के बाद सत्ता पक्ष के एक और बड़े नेता, नीतीश कुमार के इस बयान को लेकर अब भाजपा असहज दिखने लगी है. तो क्या वाकई नीतीश कुमार एक बार फिर भाजपा से अलग होकर विपक्ष की कतार में शामिल होने का मन बना रहे हैं! ऐसा वह तभी सोच सकते हैं जब उन्हें 2024 में विपक्ष का सर्वमान्य चेहरा बताकर पेश किया जाए.

     लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता को लेकर हो सकती है. जिस तरह से उन्होंने विधानसभा के भीतर कहा था कि वह मिट्टी में मिल जाएंगे लेकिन भाजपा से फिर कभी हाथ नहीं मिलाएंगे और इसके कुछ ही दिन बाद उन्होंने न सिर्फ भाजपा से हाथ मिला लिया, जनादेश को ताक पर रखकर उसके साथ सरकार साझा की. 2020 के विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़े और अल्पमत में होने के बावजूद वह भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करने को राजी हो गए, उसे देखते हुए विपक्षी दल उन पर आसानी से भरोसा करने को राजी नहीं. उपेंद्र कुशावाहा के नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल बतानेवाले बयान पर बिहार विधानसभा में विपक्ष (राजद) के नेता तेजस्वी यादव ने कटाक्ष करते हुए कहा भी है कि, वह पीएम (पलटी मार) मटीरियल तो हैं ही. इसका इलहाम नीतीश कुमार को भी तो होगा ही. लेकिन इस सबसे परे राजनीति आवश्यकता, संभावनाओं और परिस्थितियों का खेल भी होती है. इसमें बहुत कुछ तत्कालीन परिस्थिति के मद्देनजर भी तय होता है. कट्टर विरोधी होने के बावजूद 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़े और सरकार बनाए और फिर मिट्टी में मिलना पसंद करने लेकिन भाजपा से फिर हाथ नहीं मिलाने की बात करनेवाले नीतीश कुमार इस समय भाजपा के साथ सरकार साझा कर रहे हैं !

Monday, 11 September 2017

पटना में राजद की रैली : संकेत और समीकरण

पटना से हुई गैर भाजपा महागठबंधन की शुरुआत !

जयशंकर गुप्त

टना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में राष्ट्रीय जनता दल की ‘भाजपा हटाओ, देश बचाओ’ रैली में कितने लोग आए, इसको लेकर विवाद हो सकता है. राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के पूर्व उप मुख्यमंत्री पुत्र तेजस्वी यादव ने कहा कि रैली में 25 लाख से अधिक लोग जुटे, लालू प्रसाद को यह अतिशयाक्ति शायद कुछ कम लगी, सो उन्होंने कहा कि रैली में 30 लाख लोगों का जन सैलाब उमड़ा था. दूसरी तरफ, कल तक लालू प्रसाद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन चलाते रहे और अभी भाजपा के सहयोग से राजग की साझा सरकार का नेतृत्व कर रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दल-यू-ने इस महा रैली को फ्लाप करार दिया. लेकिन इतना तो सच है कि हाल के वर्षों में पटना और गांधी मैदान में होनेवाली रैलियों में यह सफलतम और रेस्पांसिव रैली थी. पूरा पटना शहर राजद और महागठबंधन के नेताओं-कार्यकर्ताओं, उनके पोस्टर-बैनरों और कटाउटों से अटा पड़ा था. जितने लोग मैदान में जमा थे, उसी अनुपात में लोग गांधी मैदान के चारों तरफ सड़कों पर, रेलवे स्टेशन और बस अड्डों के आसपास भी राजद के झंडे डंडों के साथ दिख रहे थे. वह भी ऐसे समय में जबकि आधा बिहार बाढ़ की चपेट में है. 

यह रैली कहने को तो भाजपा बचाओ, देश बचाओ के नारे पर हुई लेकिन निशाने पर मुख्य रूप से महागठबंधन के ‘विश्वासघाती’ नीतीश कुमार ही थे. लालू प्रसाद और उनके पुत्रों के साथ ही राजद के तमाम नेताओं और अन्य विपक्षी दलों के नेताओं ने भी ‘संघ मुक्त भारत’ का नारा देने वाले नीतीश कुमार पर महागठबंधन तोड़कर संघ के शरणागत होने और भाजपा से मिलकर सरकार बना लेने का आरोप लगाया. नीतीश कुमार के महागठबंधन तोड़ने के बाद यह लालू प्रसाद और उनके राजद के साथ ही नीतीश कुमार के साथ नहीं गए जद यू के पूर्व अध्यक्ष, सांसद शरद यादव एवं कांग्रेस के लिए भी बड़ा शक्ति प्रदर्शन था जिसमें ये लोग सफल रहे. 
इस महा रैली के आयोजन की घोषणा लालू प्रसाद ने काफी पहले तब की थी जब नीतीश कुमार महागठबंधन की सरकार चला रहे थे, हालांकि अंदरखाने वह लालू प्रसाद को गच्चा देकर भाजपा के साथ नए सिरे से जुगलबंदी की जुगत भिड़ाने में लगे थे. लालू प्रसाद पटना से भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन खड़ा करने की कार्ययोजना पर काम कर रहे थे लेकिन नीतीश कुमार ने उसमें फच्चर लगाने की कोशिश की. वे खुद तो भाजपा के साथ गए ही, उन्होंने यह कोशिश की कि शरद यादव और उनके साथी भी उनका अनुसरण करें. उन्हें केंद्र सरकार में मंत्री पद के प्रलोभन दिए गए. उनके मना कर देने और नीतीश कुमार के पलट जाने के बाद विपक्ष की धुरी बनने की सोच के तहत महागठबंधन के साथ ही बने रहने के राजनीतिक रुख के साफ हो जाने के बाद कोशिशें इस बात की हुईं कि वह इस रैली में नहीं जा सकें. कभी उनके सिपहसालार कहे जाते रहे जद यू के महासचिव के सी त्यागी ने दो दिन पहले उन्हें पत्र भेजकर आगाह किया कि राजद की रैली में उनका भाग लेना अनुशासन की लक्ष्मण रेखा को लांघने जैसा होगा. रैली के बाद भी त्यागी ने कहा कि शरद दूसरे खेमे में चले गए हैं. अब जद यू के साथ उनका रिश्ता नहीं रह गया है. हालांकि जद यू से उनका औपचारिक निलंबन अथवा निष्कासन अभी बाकी है. त्यागी ने कहा है कि उनका मामला अनुशासन समिति के हवाले है लेकिन शरद यादव और उनके साथियों पर इस तरह की घुड़कियों का असर नहीं पड़ा. दो दिन पहले उन्होंने कहा भी कि महागठबंधन की रैली का फैसला काफी पहले हुआ था जिसमें नीतीश कुमार के भी शामिल होने की बात थी. नीतीश पलट गए लेकिन हम पलटनेवाले नहीं क्योंकि हम ही असली जद यू हैं जिसके साथ हमारी अधिकतर प्रदेश इकाइयां हैं. मंच पर उनके साथ राज्यसभा के एक और सदस्य अली अनवर और जद यू के वरिष्ठ नेता, राज्य सरकार में पूर्व मंत्री रमई राम भी थे. मंच से ही शरद यादव ने राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपाई महागठबंधन खड़ा करने की घोषणा की जिसका समर्थन मंच पर मौजूद विपक्ष के तमाम नेताओं ने भी किया. 

रैली के आयोजकों के अनुसार दिल्ली के इशारे पर कुछ और दलों और नेताओं को भी इस रैली से विमुख होने के दबाव पड़े. मायावती अथवा उनकी बसपा का एक भी प्रतिनिधि नहीं दिखा. रैली में शामिल होने को लेकर वह लगातार अपना स्टैंड बदलते रहीं. हालांकि 17 अगस्त को दिल्ली में शरद यादव के साझी विरासत बचाओ सम्मेलन में बसपा के सांसद वीर सिंह मौजूद थे. उस सम्मेलन में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी और माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी की मौजूदगी भी थी. सबने एक स्वर से कहा था कि भाजपा शासन में संघ परिवार की देखरेख में साझी विरासत खतरे में है. इसे बचाने के लिए भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाने की बात कही गई थी. स्वयं राहुल गांधी ने कहा था कि बदली परिस्थतियों में अगर सभी विपक्षी दलों का एक महागठबंधन बन जाए तो भाजपा कहीं दिखेगी नहीं. लेकिन जहां साझी विरासत बचाओ सम्मेलन में 17 दलों के नेता और प्रतिनिधि शामिल हुए वहीं महागठबंधन खड़ा करने की अगली कड़ी के रूप में आयोजित राजद की महा रैली में केवल 14 दलों के नेता-प्रतिनिधि ही दिखे. राहुल गांधी स्वयं नहीं आए. उन्होंने  पटना आने और लालू प्रसाद के साथ मंच साझा करने के बजाय नार्वे की राजधानी ओस्लो की यात्रा को मुनासिब समझा. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी नहीं आ सकीं. कांग्रेस का प्रतिनिधित्व राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद और महासचिव सीपी जोशी ने किया. सीताराम येचुरी भी नहीं दिखे. माकपा को संभवतः मंच पर ममता बनर्जी की मौजूदगी नागवार गुजरी होगी. लेकिन भाकपा के महासचिव सुधाकर रेड्डी और सचिव डी राजा वहां दिखे. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तथा राष्ट्रीय लोकदल के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी पूरी ताकत के साथ दिखे. पड़ोसी राज्य झारखंड से झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के साथ ही एक और पूर्व मुख्यमंत्री झाविमो के बाबूलाल मरांडी भी मौजूद थे. एनसीपी के महासचिव और बिहार से लोकसभा सदस्य तारिक अनवर भी थे. हालांकि एनसीपी का प्रतिनिधित्व अगर प्रफुल्ल पटेल अथवा शरद पवार या उनके परिवार का कोई सदस्य करता तो रैली में वजन कुछ और बढ़ जाता क्योंकि शरद पवार के राजग से जुड़ने के कयास गाहे बगाहे लगते रहते हैं. दक्षिण में तमिलनाडु से द्रविड़ मुनेत्र कझगम के लोकसभा सदस्य टी के एस इलेंगोवन और केरल कांग्रेस के प्रतिनिधि आए तो उत्तर पूर्व में असम से एयूडीफ के नेता लोकसभा सदस्य बदरुद्दीन अजमल की मौजूदगी महा रैली को राष्ट्रीय बना रही थी. ओडिसा में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल, दिल्ली से आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और हरियाणा से इंडियन नेशनल लोकदल के किसी प्रतिनिधि की गैर मौजूदगी भी क्षटक रही थी. संभवतः कांग्रेस की नापंसदगी के कारण उन्हें बुलाया ही नहीं गया था.

कुल मिलाकर यह महा रैली लालू प्रसाद और उनके राजद और राजनीतिक कुनबे का शक्ति प्रदर्शन था जिसमें वह पूरी तरह से सफल रहे. एक बार फिर उन्होंने यह साबित किया कि जोड़ तोड़ के खेल से नीतीश कुमार भले ही सरकार चला रहे हों, बिहार में जनाधारवाले वह अकेले नेता हैं. तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोपों और जांच मुकदमों के बावजूद वह भाजपा और उसके नेतृत्व में उभर रही सांप्रदायिक ताकतों के विरुद्ध झुकनेवाले नहीं हैं. उन्होंने और उनके पुत्रों ने भी रैली में साफ किया कि मुकदमे और जेल की दीवारें भी सांप्रदायिक ताकतों से लोहा लेने के उनके संकल्प को कमजोर नहीं कर सकतीं. उनके जनाधार और सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष के उनके कमिटमेंट का लोहा मंच पर मौजूद विपक्ष के तमाम नेताओं ने भी एक स्वर से माना. यह महा रैली नीतीश कुमार और भाजपा गठबंधन सरकार के लिए भी खतरे का संकेत साबित हो सकती है. राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपा और गैर राजग महागठबंधन ने आकार लेना शुरू हो गया है, इससे इतर बिहार में नीतीश कुमार और भाजपा की राजनीति से नाखुस जद यू और राजग में रालोसपा जैसे घटक दलों के नेताओं, विधायकों के बीच इस महा रैली की सफलता एक नई ताकत का संचार कर सकती है. जद यू के विधायकों का एक बड़ा गुट शरद यादव और लालू प्रसाद के साथ सिर्फ एक आश्वासन भर से जुड़ने को तैयार है कि चुनाव हों अथवा उप चुनाव उन्हें टिकट मिलेगा और उनकी चुनावी जीत सुनिश्चित करने के ईमानदार प्रयास होंगे. इसका एहसास सृजन घोटाले और भयावह बाढ़ की विभीषिका का भी सामना कर रहे नीतीश कुमार और उनके सहयोगी भाजपा-राजग के लोगों को भी है. आश्चर्य नहीं होगा कि महागठबंधन के साथ जुड़ रहे दलों, नेताओं और राजनीतिक ताकतों को इससे विमुख करने के प्रयास के बतौर प्रलोभन और दबाव भी नए सिरे से नजर आने लगें. 
   
से राजनीतिक विडंबना भी कह सकते हैं कि कभी 1960 के दशक के मध्य में अपराजेय बनते जा रही कांग्रेस को राज्यों और केंद्र में भी अपदस्थ करने के लिए समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की रणनीति तैयार की थी. इस रणनीति के तहत जनसंघ, सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, भारतीय क्रांति दल, संगठन कांग्रेस, स्वतंत्र पार्टी आदि गैर कांग्रेसी दलों ने चुनावी गठबंधन कर कई राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया था. केंद्र में भी इस तरह का कोई राजनीतिक प्रयोग सफल हो पाता उससे पहले ही एक तो डा. लोहिया का असामयिक निधन हो गया, दूसरे गैर कांग्रेसी, संयुक्त विधायक दल की सरकारें तयशुदा न्यूनतम साझा कार्यक्रमों की अनदेखी और उपेक्षा करते हुए अपने अंतर्विरोधों के बोझ तले चरमरा कर गिर गई थीं. सत्तर के दशक में एक बार फिर समाजवादी-सर्वोदयी नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण के निर्देशन या कहें दबाव में जनता पार्टी के रूप में गैर कांग्रेसी दलों का एका हुआ और उस समय सर्व शक्तिमान कही जानेवाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस को केंद्र में भी राजनीतिक पराभव का सामना करना पड़ा था लेकिन वह प्रयोग भी लंबा नहीं चल सका और 1980 में श्रीमती गांधी एक बार फिर प्रचंड जन समर्थन से सत्तारूढ़ हुई थीं. 1989 में एक बार फिर कांग्रेस से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी दलों का जमावड़ा सत्तारूढ़ हुआ लेकिन यह राजनीतिक प्रयोग भी काल कवलित हो गया. बाद के वर्षों में भाजपा के राजनीतिक रूप से ताकतवर होते जाने और उसके नेतृत्व में आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के अपने सांप्रदायिक एवं फासीवादी स्वरूप में सामने आते जाने के बाद गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी दलों ने कांग्रेस के सहयोग से कभी राष्ट्रीय लोतांत्रिक मोर्चा तो कभी संयुक्त मोर्चा के नाम से तीसरा मोर्चा खड़ा करने की कोशिशें की जो कुछ हद तक कामयाब भी हुईं लेकिन दीर्घकालिक साबित नहीं हो सकीं.  

अब एक बार फिर तमाम गैर भाजपा-गैर राजग दलों के नेता नए सिरे से उसी कांग्रेस को साथ लेकर ’गैर भाजपावाद’ की रणनीति तैयार करने में लगे हैं जिसके विरुद्ध गैर कांग्रेसवाद की रणनीति बनी थी. कांग्रेस के भीतर भी एक बड़े तबके या कहें नेतृत्व की राय भी बन रही है कि मौजूदा परिस्थितियों में कांग्रेस भाजपा- राजग को सीधे और अकेले शिकस्त दे सकने की स्थिति में नहीं है. इसके लिए किसी न किसी तरह का विपक्षी महागठबंधन खड़ा करना ही होगा. 

दरअसल, बिहार, दिल्ली और पंजाब विधानसभा के चुनावी नतीजों को अपवाद मान लें तो मई 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए अधिकतर राज्यों में विधानसभा चुनाव, उप चुनाव और कुछ राज्यों में नगर निकायों और पंचायत के चुनावों में भी अपराजेय और विजेता बनकर उभरी भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राजग की चुनावी सफलता के लिए अन्य कारणों के अलावा विपक्षी मतों के बंटवारे को ही मुख्यरूप से जिम्मेदार माना जा रहा है. लोकसभा चुनाव हों अथवा झारखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर, असम और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्य विधानसभाओं और महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली के नगर निकायों के चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को मिले मतों के प्रतिशत के मुकाबले अगर अलग अलग होकर लड़े विपक्षी दलों को मिले मतों के प्रतिशत को जोड़कर देखें तो संयुक्त विपक्ष सत्तारूढ़ भाजपानीत राजग पर निर्णायक रूप से भारी दिखता है. अगर विपक्षी दल अपने निजी अहंकार, वैमनस्य और अपनी राजनीतिक ताकत के बारे में अपने अतिरेकी आकलन को परे रखकर मिलकर अथवा किसी तरह का चुनावी तालमेल कर चुनाव लड़े होते तो नतीजों की शक्ल कुछ और नजर आती. 

लेकिन इस तरह के किसी महागठबंधन को लेकर कई सवाल और आशंकाएं भी हैं. मसलन  महागठबंधन का नेता कौन होगा! राहुल गांधी, शरद यादव, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल समेत कई दावेदार दिख रहे हैं. राहुल गांधी से इतर क्षेत्रीय दलों का कोई भी ऐसा नेता नहीं है जिसका एक राज्य के बाहर संगठन और जनाधार हो. कांग्रेस की उपस्थिति जरूर कई राज्यों में है लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व में कितने दल और नेता राजी होंगे, यह भी एक सवाल है. इसके साथ ही सबसे बड़ी मुश्किल उन राज्यों में होगी जहां कभी कांग्रेस का राजनीतिक वर्चस्व रहा है लेकिन हाल के वर्षों में वहां कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई है. उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिसा, दिल्ली, आंध्र-तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कोई न कोई क्षेत्रीय दल मजबूत राजनीतिक ताकत के रूप में उभरा है. केरल और ओडिसा जैसे राज्यों में कांग्रेस का मुख्य मुकाबला वाम दलों और बीजद से है लेकिन तीसरी ताकत के रूप में वहां जड़ें जमा और फैला रही भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस-वाम दलों और बीजद को भी किसी न किसी तरह का राजनीतिक तालमेल करना होगा जिससे गैर भाजपा दलों का जनाधार बंटने और बिखरने नहीं पाए. इसी तरह से पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस, वाम दलों और कांग्रेस के बीच किस तरह की एकजुटता बन सकेगी. उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा, कांग्रेस आौर आरएलडी क्या एक साथ आ सकेंगे. यह महागठबंधन क्या सिर्फ मोदी और भाजपा विरोध तक ही सीमित रहेगा या फिर उसे आगे ले जाने के लिए सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी बनेगा. इन जटिल सवालों के जवाब मुश्किल हैं लेकिन असंभव नहीं. महागठबंधन का नेता कौन होगा, इस तरह के सवालों के जवाब के लिए विपक्ष के पास अभी बहुत समय है. 
नोट :  इस लेख के सम्पादित अंश 27अगस्त ,2017 को बीबीसी हिंदी.कॉम पर प्रकाशित 

Thursday, 3 August 2017

बिहार की राजनीति और नीतीश की नैतिकता का डीएनए

नजरिया 

जयशंकर गुप्त 

''उसी को जीने का हक है जो इस जमाने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए.''



ताज़ा घटनाक्रम में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भूमिका पर लिखते हुए मशहूर शायर वसीम बरेलवी का ये शेर याद आ गया.
 तीन-चार दिन पहले तक 'संघ मुक्त भारत' बनाने और 'मिट्टी में मिल जाने मगर भाजपा के साथ हाथ नहीं मिलाने' की बातें करते रहे नीतीश कुमार ने जब 27 जुलाई की शाम अपने महागठबंधन सरकार के बड़े पार्टनर लालू प्रसाद यादव और उनके राजनीतिक कुनबे के 'भ्रष्टाचार' से 'आजिज' आकर कार्यवाहक राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी को अपना त्यागपत्र सौंपा तो लोगों को लगा कि राजनीति में भ्रष्टाचार के विरुद्ध नीतीश कुमार ने बड़ा साहसिक क़दम उठाया है.
नीतीश कुमार पिछले कई दिनों से अपने उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के त्यागपत्र के लिए दबाव बनाए हुए थे क्योंकि पिछले कुछ दिनों से लालू कुनबे की 'बेनामी संपत्ति' पर लगातार छापामारी अभियान में लगी सीबीआई ने तेजस्वी यादव के विरुद्ध भी एक मामले में एफ़आइआर दर्ज की थी. हालांकि नीतीश कुमार ने कभी तेजस्वी के त्यागपत्र की खुली मांग नहीं की थी लेकिन यह कहकर दबाव जरूर बनाया कि उनकी सरकार में भ्रष्टाचार का कोई आरोपी कैसे रह सकता है. इसके साथ ही उन्होंने तेजस्वी से बिंदुवार स्पष्टीकरण देने की माँग भी की.

नीतीश के त्यागपत्र देकर राजभवन से बाहर आते ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट करके उन्हें बधाई दी, कुछ ही घंटों में नीतीश कुमार को न सिर्फ भाजपानीत एनडीए का समर्थन मिला बल्कि उनके साथ सरकार साझा करने की घोषणा भी हो गयी, इससे नीतीश के 'साहसिक क़दम' की हवा निकल गई. उनके निवास पर जेडीयू और बीजेपी विधायकों के रात्रिभोज ने भी यही संकेत दिया कि 'साहसिक क़दम' की घोषणा भले ही 27 जुलाई की शाम को की गई हो, इसकी पटकथा पहले से ही लिखी जा चुकी थी.

चाहे सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी का समर्थन हो या फिर दिल्ली में बिना किसी जनाधार के सिर्फ भाजपा को राजनीतिक लाभ पहुंचाने की गरज से नगर निगमों के चुनाव लड़ने की घोषणा, अपने  प्रवक्ता के सी त्यागी से यह बयान दिलवाकर कि भाजपा के साथ वे ज्यादा सहज महसूस करते हैं और फिर राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन कर वह लगातार इस बात के संकेत दे रहे थे कि उनके मन में क्या चल रहा है.

हालांकि इसके साथ ही विपक्षी एकता और सांप्रदायिक ताक़तों के साथ संघर्ष की अपनी प्रतिबद्धता के इजहार, कांग्रेस के नेताओं से मुलाकात और उप राष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार गोपालकृष्ण गांधी के समर्थन की बात कर वह विपक्ष को भी लगातार झांसे में रखे हुए थे. इस सबके बावजूद नीतीश कुमार की राजनीति में मूल्य, नैतिकता और ईमानदारी के तत्व देखनेवाले राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि अगर वह अपने त्यागपत्र के साथ ही विधानसभा भंग करवाकर नए चुनाव कराने की सिफ़ारिश करते तो कुछ और बात होती. भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनकी प्रतिबद्धता भी कुछ ज्यादा निखर कर सामने आती. लेकिन ऐसा उनकी पहले से ही तैयार पटकथा में लिखा ही नहीं था और उन्होंने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी प्रतिबद्धता के नाम पर उनसे हाथ मिला लिया जिन्हें वह मनुवादी, सांप्रदायिक, फ़ासिस्ट करार देते हुए 'संघ मुक्त भारत' की बातें करते थे.  ौंके साथ सर्कार साझा करने को राजी हो गए जिन्होंने न सिर्फ उनके बल्कि उनके बहाने पुरे बिहार के डी एन ए  पर सवाल उठाये थे. 

रअसल, समाजवादी नेता और विचारक डा. राममनोहर लोहिया के नाम पर राजनीति करनेवाले तमाम कथित समाजवादियों की यह आदत रही है कि अपनी सुविधा के हिसाब से कभी गैर-कांग्रेसवाद और भ्रष्टाचार के विरोध के नाम पर जनसंघ और भाजपा के साथ हो लेते हैं और जब किसी वजह से असुविधा महसूस हुई तो सांप्रदायिकता और मनुवाद के विरोध के नाम पर कांग्रेस के साथ हाथ मिला लेने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ. नीतीश कुमार के साथ भी कुछ ऐसा ही है. लोहिया- जेपी के आंदोलन में लालू प्रसाद के साथ रहे नीतीश 1990 में बिहार में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनने के समय उनके बेहद करीबी सहयोगी रहे.उस समय लालू-नीतीश की जुगल जोड़ी बहुत मशहूर थी लेकिन कुछ ही वर्षों में निजी अहंकारों के टकराव के बाद दोनों के रास्ते अलग हो गए. उधर जनता दल की राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर धकेले जाने से तेज तर्रार समाजवादी नेता जार्ज फ़र्नांडिस भी ख़ासे परेशान थे. दोनों ने जनता दल से अलग होकर समता पार्टी बना ली. 1995 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार पहली बार आमने सामने थे.

मीडिया ने और बिहार के सवर्ण समाज ने उस समय नीतीश कुमार की राजनीति में ख़ूब हवा भरी थी लेकिन जब चुनावी नतीजे सामने आए तो नीतीश कुमार की समता पार्टी सीटों के हिसाब से दहाई का आंकड़ा भी नहीं पार कर सकी. आगे चलकर नीतीश कुमार ने जार्ज फ़र्नांडिस पर दबाव बनाकर उन्हें भाजपा के साथ चुनावी गठबंधन के लिए राजी किया. हालांकि उन्हें बिहार में लालू प्रसाद को अपदस्थ करने और  भाजपा के साथ साझेदारी कर खुद सत्तारूढ़ होने का अवसर 2005 में ही मिला लेकिन वह 1998 से लेकर 2004 तक एनडीए का हिस्सा बनकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों में रेल, भूतल परिवहन और कृषि मंत्री जरूर बनते रहे.

भाजपा के साथ उनका राजनीतिक हनीमून 2013 तक बख़ूबी चलता रहा. यहां तक कि 2002 के गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद भी उन्होंने भाजपा और एनडीए से अलग होने की ज़रूरत नहीं समझी. हालांकि इस दौरान उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से अपनी अलग तरह की दूरी जरूर बना रखी थी. अपने उस समय के डिप्टी और संयोग से इस बार भी डिप्टी ही बने सुशील मोदी के
ज़रिए दबाव बनाकर नरेंद्र मोदी को बिहार से बाहर ही रखा. यहां तक कि 2010 के विधानसभा चुनाव में भी मोदी को बिहार में अपनी पार्टी के चुनाव अभियान में भी शामिल नहीं होने दिया गया.
गुस्से से लाल-पीले हुए नीतीश 
लेकिन इस बीच भाजपा पर नरेंद्र  मोदी का दबदबा बढ़ने लगा था और अंदरखाने बिहार में भी जेडीयू और भाजपा गठबंधन के बीच कटुता और अविश्वास की खाई भी बढ़ने लगी थी. भाजपा ने बड़ी चालाकी से पटना में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक आयोजित की और उस बहाने नरेंद्र मोदी भी वहां गए. यही नहीं भाजपा के कुछ उत्साही लोगों ने मोदी के साथ अमृतसर के किसी कार्यक्रम में ली गई नीतीश कुमार की तस्वीर के साथ कुछ अख़बारों में बड़े-बड़े विज्ञापन प्रकाशित करवा दिए. ग़ुस्से से लाल पीले हुए नीतीश कुमार ने जवाब में नरेंद्र मोदी सहित भाजपा के नेताओं के लिए दिए जानेवाले अपने रात्रिभोज को रद्द करवा दिया. यही नहीं बिहार के बाढ़ पीड़ितों को दी गई गुजरात सरकार की मदद के बारे में किए गए प्रचार से क्षुब्ध नीतीश कुमार ने पूरी रकम गुजरात सरकार को वापस कर दी थी. उस समय नीतीश कुमार के मन मस्तिष्क में सांप्रदायिकता के विरोध का ज्वार तेज़ी से उमड़ने लगा और भाजपा के द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अपना उम्मीदवार घोषित करने के बाद तो जैसे नीतीश कुमार ने आपा ही खो दिया. उन्होंने एक झटके में अपनी सरकार से भाजपा के सभी मंत्रियों को बर्ख़ास्त कर दिया था.

इस तरह से भाजपा के साथ नीतीश कुमार का 15-16 साल पुराना राजनीतिक गठबंधन टूट गया. किसी तरह वह अपनी सरकार बचा पाने में वे सफल रहे. 2014 का लोकसभा चुनाव वह अकेले दम पर 'सुशासन बाबू' की अपनी छवि के सहारे लड़े लेकिन उनकी यह छवि किसी काम नहीं आई और बिहार की 40 में से केवल दो लोकसभा सीटें ही उनके जेडीयू के खाते में आ सकीं. '

लालू प्रसाद के साथ हुए
लोकसभा का चुनाव बुरी तरह से हारने के तुरंत बाद ही उन्हें इलहाम हुआ कि भाजपा और आरएसएस की चुनौतियों का जवाब वह अकेले नहीं दे सकते. और बिना समय गंवाए वह एक कुशल पैंतरेबाज की तरह लालू प्रसाद के पास पहुंच गए जिनके साथ उनका दो दशकों से छत्तीस का आंकड़ा था. लालू प्रसाद उस समय भी चारा घोटाले में सज़ायाफ्ता थे और आज भी हैं लेकिन तब शायद सांप्रदायिकता के जवाब में नीतीश कुमार के लिए लालू यादव का भ्रष्टाचार और परिवारवाद गौण हो गया. उन्होंने लालू प्रसाद को समझाया (लालू प्रसाद के शब्दों में कहें तो गिड़गिड़ाया) कि दोनों के एकजुट हुए बगैर भाजपा को बिहार में शिकस्त नहीं दी जा सकती. बाद में अपनी चुनौती को और मज़बूत बनाने की गरज से कांग्रेस को भी साथ लेकर महागठबंधन तैयार कर लिया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि बिहार के दलितों, महादलितों, पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों ने एकजुट होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में देश भर में चल रहे भाजपा  के विजय रथ को रोक कर अपने डीएनए को दिखा  दिया.

तीन चौथाई बहुमत के साथ नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार बन गई बावजूद इसके कि ज़्यादा (80) विधायक राजद के जीत कर आए थे और जद-यू के केवल 71  विधायक ही जीत सके थे. कांग्रेस के खाते में 27 विधायक आए थे. सरकार के गठन में भी नीतीश कुमार ने बड़ी चालाकी से मुख्यमंत्री पद के साथ ही विधानसभाध्यक्ष का पद भी अपने पास रख लिया ताकि गाढ़े समय में काम आ सके-आए भी.

कसमसाहट में थे नीतीश !

लेकिन कभी नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के बेहद करीबी रहे समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी के अनुसार अपने से सीनियर लालू प्रसाद की छाया में और इस बात के एहसास से भी कि आरजेडी के पास ज़्यादा विधायक हैं, नीतीश कुमार महागठबंधन में एक अजीब तरह की कसमसाहट महसूस कर रहे थे. वह ख़ुद को उस तरह सहज महसूस नहीं कर पा रहे थे जैसा कभी वह भाजपा और सुशील मोदी के साथ महसूस कर रहे थे. गाहे बगाहे राजद के लोगों की तरफ से इस तरह की बयानबाजी भी सामने आती रहती थी कि राजद के पास ज़्यादा विधायक हैं. ये बातें भी खुसुरपुसुर के ज़रिए सामने आती थीं कि अब नीतीश सरकार में उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के राज्यारोहण का समय आने लगा है.

इस बीच और ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के बाद से ही नीतीश कुमार को यह लगने लगा कि 2019 में भी नरेंद्र मोदी को शिकस्त दे पाना मुश्किल है. इसके साथ ही उन्हें यह भी समझ में आया कि 2019 में उन्हें विपक्ष के तथाकथित महागठबंधन की धुरी और चेहरा बनाने की बातें जितनी भी की जा रही हों, बिहार में अपने दल के महज दर्जन भर सांसद जिता पाने की अपनी राजनीतिक ताक़त के मद्देनज़र देश के शीर्ष नेतृत्व को पाने की उनकी महत्वाकांक्षा पूरी होनी मुश्किल है. कांग्रेस का नेतृत्व तत्काल उन्हें मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने को भी तैयार नहीं था. ऐसे में सुशील मोदी और अरुण जेटली के ज़रिए वह भाजपा आलाकमान यानी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ भी अपने राजनीतिक तार जोड़े हुए थे. कभी जेटली के करीबी रहे संजय झा, नीतीश कुमार के भी बेहद करीबी और जेडीयू के विधानपार्षद भी हैं.
दूसरी तरफ, नीतीश कुमार का अपने राजनीतिक भविष्य के बारे में चाहे जो भी आकलन रहा हो, नरेंद्र मोदी उन्हें अपने लिए भविष्य की मजबूत चुनौती ही मानते थे. इसलिए उन्होंने अतीत की सारी कड़वाहटों को भुलाकर नीतीश कुमार को अपनी शरण में लेने के लिए हामी भर दी. हालांकि नरेंद्र मोदी की राजनीतिक कार्यशैली को बारीकी से जानने और समझानेवाले लोग जानते हैं कि उन्हें कभी आंख दिखानेवाले उनके राजनीतिक विरोधियों को वह आसानी से माफ़ नहीं कर पाते. और अब तो कभी उन्हें आंख ही नहीं दिखाने बल्कि अपमानित करनेवाले नीतीश कुमार उनके शरणागत भी हैं.

तैयार थी योजना

राजनीतिक प्रेक्षकों की सुनें तो यह संयोग मात्र नहीं था कि एक तरफ भाजपा नेता सुशील मोदी ने अचानक लालू प्रसाद के कुनबे के कथित भ्रष्टाचार के मामलों को 'दस्तावेज़ी सबूतों' के आधार पर उजागर करना शुरू कर दिया और उधर सीबीआई, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय जैसी केंद्र सरकार की एजेंसियां लालू प्रसाद के कुनबे के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सक्रिय हो गईं. अब तो लालू प्रसाद और उनके परिवार के लोग यह आरोप भी लगा रहे हैं कि उनके कथित भ्रष्टाचार के मामलों से जुड़ी फाइलें और दस्तावेज़ नीतीश कुमार और उनके करीबी लोग ही मोदी के पास पहुंचाने में लगे थे. दनादन छापे पड़ने लगे. घंटों पूछताछ होने लगी. हालांकि इन छापेमारियों और पूछताछ में ठोस क्या क्या निकला इसे आज तक आधिकारिक तौर पर नहीं बताया गया. सिर्फ़ सूत्रों के हवाले से खबरें बाहर आती रहीं. इस बीच भ्रष्टाचार के एक मामले में तेजस्वी यादव के खिलाफ सीबीआई की प्राथमिकी ने नीतीश कुमार को सुअवसर और मनचाहा राजनीतिक अस्त्र प्रदान कर दिया.

हालांकि महज प्राथमिकी दर्ज होने के आधार पर राजनीतिकों के पद त्याग के उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं. इस आधार पर पदत्याग की मांग भी विरोधी तो करते हैं लेकिन जिनके भरोसे सरकार चल रही हो वे सत्ता के साझीदार इस तरह की मांग कम ही करते हैं. वैसे भी, बीएस मामले में नीतीश कुमार पर तेजस्वी यादव के त्यागपत्र लेने का अथवा महागठबंधन तोड़  दबाव बनाने वाली भाजपा  केंद्रीय मंत्री सहित कई वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ अभियोगपत्र दाखिल होने के बावजूद वे लोग अपने पदों पर  हुए हैं. और तो और मध्यप्रदेश सर्कार में तो एक मंत्री नरोत्तम मिश्रा  विधानसभा चुनाव भ्रष्ट आचरण का आरोप साबित होने के बाद चुनाव आयोग ने रद्द करते हुए उनके तीन साल तक चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दी है. सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रपति के चुनाव में उन्हें मतदान करने की छूट भी नहीं दी. लेकिन वह बड़ी शान मन्त्र बने हुए हैं. ताज्जुब तो इस बात का भी है की स्याम नितीश कुमार और उनके भाजपाई डेपुटी शुशील मोदी पर भी कई मामले दर्ज हैं.

नीतीश कुमार चाहते तो क़ानून को अपना काम करने देने के बहाने तेजस्वी के ख़िलाफ़ अभियोगपत्र दाख़िल होने और उनकी गिरफ़्तारी का इंतज़ार कर सकते थे, वैसी हालत में तेजस्वी को त्यागपत्र देना ही पड़ता. लेकिन उन्होंने इसकी ज़रूरत नहीं समझी. उन्होंने तो अपने लिए कुछ अलग तरह की ही राजनीतिक पटकथा तैयार करवा रखी थी जिसकी भनक अपने कुछेक ख़ास लोगों को छोड़कर अपने दल के सांसदों, विधायकों तथा शरद यादव जैसे वरिष्ठ नेताओं को भी नहीं लगने दी थी.

और फिर बिहार में द्विज मानसिकता के लोगों, उनसे प्रभावित और संचालित मीडिया का भी नीतीश कुमार पर तेजस्वी यादव के 'भ्रष्टाचार' से समझौता नहीं करने का दबाव था. उनकी सुशासन बाबू की छवि को ललकारा जा रहा था. यह बताने की आवश्यकता नहीं कि लंबे अरसे से बिहार के एक बड़े और मुखर (सवर्ण) तबके की आंखों में लालू यादव और नीतीश कुमार का गठबंधन किरकिरी की तरह से चुभ रहा था.ठीक वैसे ही जैसे कि नब्बे के शुरुआती दशक में चुभ रहा था. वे लोग 1994-95 की तर्ज पर ही इन दोनों को किसी भी कीमत पर अलग करवाने में जुटे थे. इसमें एक बार फिर वे सफल रहे.

नीतीश कुमार की एक ख़ासियत यह भी है कि जब वह सत्ता में होते हैं तो उन्हें अपनी अभिजात्य संस्कृति और उसकी सोहबत पसंद आती है. वह इसी तरह की मीडिया और नौकरशाही से घिरे रहने में खुद को सहज महसूस करते हैं लेकिन जब चुनाव आता है तो उन्हें यह एहसास होने में देर नहीं लगती कि यह तबका उनके पक्ष  माहौल चाहे जितना भी बना दे, उन्हें चुनाव नहीं जिता सकता, इसके लिए उन्हें दलितों, अपने सजातीय कुर्मी जनाधार के साथ ही अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों और बाहुबलियों का समर्थन आवश्यक नजर आने लगता है.

जहां तक भ्रष्टाचार के साथ नीतीश कुमार के कभी समझौता नहीं करने की बात है, शिवानंद तिवारी इसे उनका राजनीतिक ढोंग करार देते हैं. वह सवाल करते हैं, ''यह कैसी नैतिकता और ईमानदारी है जो सज़ायाफ्ता लालू प्रसाद के साथ चुनावी महागठबंधन को तो जायज ठहराती है लेकिन भ्रष्टाचार के पुराने मामले में महज प्राथमिकी दर्ज किए जाने को गठबंधन तोड़ने का आधार बना देती है. जिस समय लालू प्रसाद के दोनों बेटे चुनाव लड़ रहे थे, सरकार में मंत्री बने थे तब क्या नीतीश को इन मामलों की जानकारी नहीं थी? और फिर अगर प्राथमिकी दर्ज़ होना ही किसी के भ्रष्टाचार का सबूत है तो उनके खुद के और सुशील मोदी के ख़िलाफ़ भी तो क्रमशः हत्या और भ्रष्टाचार के आरोप हैं, इस पर नीतीश कुमार क्या कहेंगे.'' 

बिहार की राजनीति को बारीकी से जानने-समझनेवाले पूछते हैं कि नीतीश कुमार ने किस नैतिकता के आधार पर 1980 के बाद से ही, एक दो वर्ष के छोटे अंतराल को छोड़कर किसी न किसी दल के सहारे एक बार लोकसभा और फिर लगातार राज्यसभा का सदस्य बने चले आ रहे महेंद्र प्रसाद उर्फ किंग महेंद्र और अंबानी परिवार के खासमख़ास नौकरशाह रहे एनके सिंह उर्फ नंदू बाबू को राज्यसभा के टिकट दिए थे? उनके पिछले (सुशील मोदी के साथ गलबहियांवाले) कार्यकाल के दौरान अनंत सिंह जैसे अपराधी और बाहुबली छवि के कई विधायकों को मुख्यमंत्री और उनकी सरकार की सरपरस्ती हासिल थी. आज भी अनंत सिंह उनके बेहद करीबी कहे जाते हैं. भ्रष्टाचार के साथ किसी भी क़ीमत पर समझौता नहीं करने का दावा करने वाले नीतीश कुमार क्या बताएंगे कि चुनावों में उनके पास पैसे कहां से आते हैं जिससे वह अपना महंगा चुनाव अभियान और प्रशांत किशोर जैसे महंगे चुनाव प्रबंधक का ख़र्चा भी उठा पाते हैं.

हरहाल, बदले माहौल में  नीतीश कुमार की सरकार तो बची रह सकती है. हालांकि उनके नए गठबंधन में उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी के रुख को देखते हुए दरार अभी से नजर आने लगी है, शारद यादव के नेतृत्व में जेडीयू में भी एक बड़ा तबका उनकी नई राजनीति को अपने गले से नीचे उतार पाने में असहज महसूस कर रहा है. इससे बचने के लिए वह और उनके नए गठबंधन सहयोगी गुजरात और उत्तर प्रदेश की तर्ज पर राजद और कांग्रेस के विधायकों में सेंध लगाने की रणनीति पर अमल कर सकते हैं लेकिन इसके लिए भी नीतीश कुमार को अपनी प्रचारित राजनीतिक छवि के साथ समझौता ही करना पड़ेगा.

वैसे भी बिहार का मुखर तबका और मीडिया का एक बड़ा तबका भले ही अगले कुछ दिनों तक उनकी नैतिक, मूल्यपरक और ईमानदार राजनीति के कसीदे पढ़ते नजर आए, 2015 के विधानसभा चुनाव में उनके नेतृत्व और गठबंधन के पक्ष में लामबंद हुए और उनमें भविष्य का प्रधानमंत्री देखने लगे पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों के लोग, दलित एवं अल्पसंख्यक तो एक बार फिर छला गया ही महसूस कर रहे हैं. और दोबारा भाजपा के साथ मोहभंग की स्थिति में, जो असंभव नहीं है, उनके सांप्रदायिकता विरोधी नारों पर ये लोग कैसे यक़ीन करेंगे?

नोट : इस लेख का सम्पादित रूप 30 जुलाई  को बी बी सी, हिंदी की वेबसाइट पर प्रकाशित।