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Tuesday, 7 September 2021

Hal Filhal : PM MATERIAL NITISH KUMAR !

तो क्या नीतीश कुमार हैं पीएम मटीरियल !


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/xXi2Ze03CuQ

तो क्या नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल यानी प्रधानमंत्री पद के काबिल बताया जाना एक राजनीतिक शिगूफा भर है! क्या इसका राजनीतिक मकसद अपने राजनीतिक सहयोगी भाजपा पर दबाव बनाना, जनता दल (यू) को राष्ट्रीय दल की पहिचान दिलाना भर है या नीतीश कुमार एक बार फिर पलटी मारकर 2024 के संसदीय चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को चुनौती देने के इरादे से विपक्ष का चेहरा बनने की संभावनाओं पर काम कर रहे हैं! या फिर यह जद (यू)  के अंदरूनी मतभेदों को दबाने और खबरों में बने रहने की कवायद भर है!

    इन दिनों बिहार की राजनीति में पीएम यानी प्रधानमंत्री मटीरियल की चर्चा बहुत जोरों पर है. बिहार में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का रिकार्ड बनानेवाले नीतीश कुमार को उनकी पार्टी के लोग एक अरसे से पी एम मटीरियल मानते और बताते रहे हैं लेकिन इस बार जब 29 अगस्त को जनता दल (यू) की राष्ट्रीय परिषद ने इस आशय का एक राजनीतिक प्रस्ताव भी पास कर दिया तो बात में गंभीरता नजर आने लगी है. पक्ष और विपक्ष में भी तर्क कुतर्क दिए जाने लगे हैं. यह बात और है कि अभी प्रधानमंत्री पद के लिए कोई रिक्ति नजर नहीं आ रही है.

नीतीश कुमारः राजनीतिक विश्वसनीयता का सवाल !
    जाहिरा तौर पर नीतीश कुमार पहले भी इससे इनकार करते रहे हैं और इस बार भी उन्होंने यही कहा है कि वह इन बातों पर ध्यान नहीं देते. पार्टी में लोग इस तरह की बातें करते रहते हैं. लेकिन उनकी मौजूदगी में उनकी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में इस तरह का राजनीतिक प्रस्ताव कैसे पास हो गया ! ऐसा तो संभव ही नहीं है कि उनकी जानकारी और सहमति के बिना यह प्रस्ताव तैयार और पास भी हो गया हो ! हालांकि इस प्रस्ताव को पास करते समय भी उनकी पार्टी के नेताओं ने यह साफ नहीं किया कि वह प्रधानमंत्री कब और कैसे बनेंगे. लोकसभा के चुनाव पौने तीन साल बाद होने हैं और अभी वह जिस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में शामिल हैं, उसमें प्रधानमंत्री का पद और भविष्य की दावेदारी भी खाली नहीं है. उनके समर्थक और उन्हें प्रधानमंत्री पद के काबिल बताने वाले उनकी पार्टी के नेता क्या यह सोचते हैं कि 2024 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी भाजपा में उम्र के पैमाने के मद्देनजर प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं रहेंगे और भाजपानीत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा संचालित राजग बिहार की बादशाहत की तरह ही लोकसभा में 15-20 सांसद की राजनीतिक ताकतवाले नीतीश कुमार को नेतृत्व की दावेदारी सौंप देगा! फिलहाल तो यह द्विवा स्वप्न से अधिक कुछ और नहीं लगता.
 

कैसे बनेंगे वैकल्पिक चेहरा !


    इसके लिए दूसरा विकल्प 2024 में संयुक्त विपक्ष उन्हें अपना वैकल्पिक चेहरा मानकर चुनाव लड़े. तो क्या उनकी निगाह एक बार फिर से पलटी मार कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के विरोध में बननेवाले किसी संभावित राजनीतिक गठबंधन का नेतृत्व करने की ओर लगी है. एक अरसे से उन्हें विपक्षी गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध सर्वमान्य विकल्प के बतौर देखा जाते रहा है. संभव है कि मौजूदा विपक्ष में कांग्रेस के अंदरूनी झगड़ों, वैकल्पिक नेतृत्व पर सहमति के अभाव, ममता बनर्जी और कुछ अन्य क्षेत्रीय नेताओं की संभावित दावेदारी के मद्देनजर उनके भीतर भी एक बार फिर से प्रधानमंत्री बनने की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हिलोर मारने लगी हों. उनके करीबी लोगों को लगता है कि वह विपक्ष का चेहरा बन सकते हैं. जेल से बाहर आने के बाद से ही हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला गैर कांग्रेसी, गैर भाजपा दलों को जोड़कर तीसरा मोर्चा फिर से खड़ा करने की कवायद में लगे हैं. वह नीतीश कुमार तथा कुछ अन्य नेताओं से मिल भी चुके हैं. अगले 25 सितंबर को उन्होंने अपने पिता, पूर्व उप प्रंधानमंत्री चौधरी देवीलाल की जयंती के अवसर पर हरियाणा के जींद में एक बड़ा समारोह (मिलन समारोह) आयोजित कर उसमें नीतीश कुमार, समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव, जनता दल (एस) के नेता, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा, अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल, तेलुगु देशम पार्टीप के चंद्रबाबू नायडू, रालोद के जयंत चौधरी, एनसीपी के शरद पवार, नेशनल कान्फ्रेंस के डा. फारुख अब्दुल्ला और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी को भी बुलाया है. इनमें से कौन कौन वहां जुटता है और आगे की रणनीति क्या बनती है, यह देखने की बात होगी. हालांकि ओमप्रकाश चौटाला इन दिनों स्वयं हरियाणा में अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनका राजनीतिक कुनबा बिखर चुका है. उनके पुत्र अजय चौटाला और पौत्र दुष्यंत चौटाला हरियाणा में भाजपा के साथ मिलकर साझा सरकार चला रहे हैं.  

राजीव रंजन उर्फ ललन सिंहः जद (यू) को राष्ट्रीय पहिचान दिलाना है
    नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री मटीरियल बताने के पीछे उनकी और उनके जद (यू) की राष्ट्रीय पहिचान बनाने की कवायद भी हो सकती है. जद (यू) नेताओं की कोशिश उत्तर प्रदेश और मणिपुर विधानसभा के चुनाव में भी अगर भाजपा से बात बन जाती है तो उसके साथ मिलकर और सम्मानजनक सीटें नहीं मिलने पर अपने बूते भी तकरीबन आधी सीटों पर चुनाव लड़ने की लगती है. इसके लिए अभी उनके पास प्रचुर समय भी है. भाजपा के साथ उनकी बात भी हो रही है. अगले साल ही जम्मू-कश्मीर और गुजरात विधानसभा के चुनाव भी होने हैं. जद (यू) की कोशिश इन राज्य विधानसभाओं के चुनाव में कुछ सीटें और अपेक्षित मत प्रतिशत हासिल कर चुनाव आयोग से राष्ट्रीय दल की मान्यता हासिल करने की हो सकती है. मणिपुर, गुजरात और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में उसकी पहले भी मौजूदगी रही है. राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह ने कश्मीर यात्रा कर वहां भी पार्टी के पांव पसारने और चुनाव लड़ने के संकेत दिए हैं. केंद्र सरकार में कृषि, भूतल परिवहन एवं रेल जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाल चुके नीतीश कुमार की राष्ट्रीय राजनीति में अपनी अलग तरह की पहिचान भी रही है.

पहले भी मन में उठी थी हूक !

    
    नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री मटीरियल वाली राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं इससे पहले भी कई बार हिलोर मार चुकी हैं. 2014 के संसदीय चुनाव के समय भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किए जाने के विरोध में उनकी पार्टी ने भाजपा और राजग से अलग होकर चुनाव लड़ा था. उनकी कोशिश कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ने की थी लेकिन बात नहीं बनी और लोकसभा चुनाव में उनके हिस्से में केवल दो ही सीटें आई थीं. भाजपा, लोजपा ओर रालोसपा का गठबंधन बिहार में तीन चौथाई सीटें जीतने में कामयाब हुआ था. लेकिन इसके बाद 2015 में बिहार विधानसभा का चुनाव उन्होंने कांग्रेस और अपने राजनीतिक विरोधी लालू प्रसाद यादव के राजद के साथ मिलकर लड़ा और शानदार जीत हासिल कर एक बार फिर वह बिहार के मुख्यमंत्री बने. हालांकि विधानसभा में उनकी पार्टी के पास राजद से कुछ कम सीटें थीं और इसको लेकर वह कुछ दबाव भी महसूस करते थे. उस समय भी, 2019 के संसदीय चुनाव में कुछ विपक्षी दलों की ओर से उन्हें मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने की कवायद शुरू हुई. कुछ समाजवादी बौद्धिकों ने भी उनके पक्ष में दिल्ली से माहौल बनान शुरू किया था. लेकिन नीतीश कुमार चाहते थे कि उन्हें यूपीए में संयोजक जैसा कोई पद देकर यूपीए उनके नेतृत्व में ही लोकसभा का चुनाव लड़े. लेकिन यह कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाले यूपीए को मंजूर नहीं था. और भी कुछ बातें थीं जिनसे उनका कांग्रेस और राजद के साथ मोहभंग सा होता गया. और इसी क्रम में विधानसभा के भीतर यह कहने के बावजूद कि रहें या मिट्टी में मिल जाएं, अब कभी भाजपा से हाथ नहीं मिलाएंगे, उन्होंने 2017 में दोबारा भाजपा से हाथ मिलाते हुए 2015 के जनादेश को दरकिनार कर भाजपा के साथ साझा सरकार बना ली. इससे विपक्षी खेमे में उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता संदिग्ध हुई. अभी भी कोई यकीनी तौर पर नहीं कह सकता कि उनका अगला राजनीतिक कदम क्या होगा!
 

भाजपा के रहमो करम पर मुख्यमंत्री !


    लेकिन उनके भाजपा के साथ एक बार फिर गलबहियां करने के 2017 के राजनीतिक फैसले का उन्हें भरपूर चुनावी लाभ मिला. मोदी लहर एक तरह से बिहार में स्वीप कर गई. 40 में से 30 सीटें राजग के खाते में गई. जद (यू) के भी 16 सांसद जीते. विपक्ष के नाम पर केल कांग्रेस को एक सीट मिल सकी थी. विधानसभा का पिछला, 2020 का चुनाव भी उन्होंने भाजपा के साथ ही मिलकर लड़ा. लेकिन इस बार भाजपा की सीटें तो बढ़कर 74 हो गईं, नीतीश कुमार के जद (यू) के खाते में केवल 43 सीटें ही आ सकीं. नीतीश कुमार के लिए यह एक राजनीतिक झटका था. हालांकि वादे के मुताबिक भाजपा ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही साझा सरकार बनवाई लेकिन क्रमशः इसकी कीमत भी वसूलने लगी. नीतीश कुमार के सामने एक बार फिर 2015 के बाद वाली ही स्थिति उभरकर सामने आने लगी है. भाजपा की तरफ से अपने हितों की पूर्ति और संघ परिवार के एजेंडे पर अमल के लिए दबाव बढ़ने लगा. भाजपा के विभागीय मंत्री अपने हिसाब से काम करने लगे. इसके साथ ही परोक्ष रूप से भाजपा के लोगों की तरफ से उन्हें इस बात का एहसास भी कराया जाने लगा है कि वह भाजपा के रहमो करम पर ही मुख्यमंत्री बने हुए हैं.

लालू प्रसाद यादवः  सरकार पर समाजवादी नेताओं को
विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों से हटाने का आरोप
    पिछले सप्ताह बिहार के छपरा में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम पर बने जेपी विश्वविद्यालय में गुपचुप ढंग से भाजपा का एजेंडा लागू करने की साजिश उजागर हुई. वहां राजनीति शास्त्र के पोस्ट ग्रेजुएट पाठ्यक्रम में समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक और नीतीश कुमार के राजनीतिक आराध्य और आदर्श रहे समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की के व्यक्तित्व और विचारों की जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस, ज्योतिबा फुले और जनसंघ के अध्यक्ष रहे दीन दयाल उपाध्याय को शामिल किया गया. नेताजी और ज्योतिबा फुले और यहां तक कि दीन दयाल उपाध्याय (हालांकि उपाध्याय का राष्ट्रीय आंदोलन अथवा सामाजिक आंदोलनों में भी क्या योगदान है, यह विवाद का विषय भी हो सकता है.) के बारे में भी पढ़ाया जाए तो किसी को आपत्ति नहीं होगी. लेकिन स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक, डा. राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की कीमत पर. जिस जेपी के नाम पर विश्वविद्यालय बना, उन्हें ही पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया! आश्चर्यजनक बात तो यह है कि बिहार में शिक्षामंत्री नीतीश कुमार की पार्टी के ही विजय कुमार चौधरी हैं. चौधरी और नीतीश कुमार की आंख तब खुली जब विपक्ष ने और खासतौर से लालू प्रसाद यादव ने लालू प्रसाद ने ट्वीट कर आरोप लगाया कि संघी मानसिकता की सरकार समाजवादी नेताओं के विचार पाठ्यक्रमों से हटा रही है. बिहार सरकार के जगने एवं कड़े निर्देश जारी करने के बाद अब पाठ्यक्रम में फिर से सुधार हो रहा है. अब इस बात की जांच करने की मांग हो रही है कि ऐसी खुराफात की किसने ? क्या यह करामात शिक्षा मंत्रालय के किसी अफसर की थी या फिर सीधे राजभवन से इसके लिए निर्देश था.
 

    भाजपा के दबाव से मुक्ति की कवायद !


     भाजपा और संघ परिवार के इस तरह के दबावों के कारण बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार चलाते हुए भी नीतीश कुमार खुद को असहज महसूस कर रहे हैं. लेकिन राजनीति के चतुर खिलाड़ी नीतीश कुमार अभी तक इन दबावों को झेलते और भरसक परे करते हैं. उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा को जद (यू) में विलीन करवाने के साथ ही बसपा, लोजपा के इक्का-दुक्का विधायकों को अपने दल में शामिल कर वह एक तरफ तो अपनी राजनीतिक मजबूती के संकेत देते हैं. दूसरी तरफ वह बीच-बीच में अपनी और अपने दल की स्वतंत्र-धर्मनिरपेक्ष छवि के साथ समझौता नहीं करने और भाजपा पर जवाबी दबाव बनाने के संकेत भी देते रहते हैं. भाजपा के जन संख्या नियंत्रण कानून पर उन्होंने साफ कर दिया कि उनकी राय भाजपा से अलग है. इसी तरह से पेगासस जासूसी प्रकरण की जांच कराए जाने की विपक्ष की मांग का समर्थन कर उन्होंने भाजपा और मोदी सरकार पर एक तरह का दबाव ही बनाया. उन्होंने भाजपा के राजनीतिक रुख की परवाह किए बिना जातीय जनगणना पर विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा और सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ उनसे मिलकर इसके लिए दबाव भी बनाया. प्रधानमंत्री के साथ बातचीत में उन्होंने इसके लिए विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव को श्रेय देकर लालू प्रसाद यादव के यहां भी एक खिड़की खुली रखने की कोशिश की. पेट्रोलियम पदार्थों और खासतौर से रसोई गैस की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि का भी उन्होंने खुलकर विरोध किया. देखना यही है कि जातिगत आधार पर जनगणना के मामले में नीतीश कुमार और बिहार के मुख्य विपक्ष के दबाव पर भाजपा और मोदी सरकार का रुख क्या होता है. क्योंकि कुछ ही दिनों में होनेवाले पंचायत चुनावों में बाढ़, पेट्रोल-डीजल और खासतौर से रसोई गैस के बढ़ते दाम के साथ जातीय जनगणना भी एक बड़ा मुद्दा हो सकता है. साथ ही भविष्य में भाजपा से अलग होने के लिए नीतीश कुमार के पास ठोस बहाना भी!

    इस तरह से भाजपा के लोग नीतीश कुमार और उनकी सरकार पर दबाव बनाने में लगे हैं और कसमसाहट महसूस करते हुए नीतीश कुमार भी इससे मुक्त होने के प्रयास में लगे रहते हैं. तो क्या उनके प्रधानमंत्री मटीरियल होने की बात इस समय भाजपा पर जवाबी दबाव बनाने के लिए भी कही जा रही है! इसके साथ ही पिछले दिनों जनता दल यू की अंदरूनी कलह भी खुल कर आने लगी थी. नीतीश कुमार के खासुल खास रहे आरसीपी सिंह के केंद्र में मंत्री बन जाने के बाद उनकी जगह सांसद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष और हाल ही में जद यू में शामिल उपेंद्र कुशवाहा को संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद स्वागत समारोहों के जरिए जनता दल यू की गुटबाजी और नेताओं के अंदरूनी मतभेद खुलकर सामने आने लगे हैं. पूर्व नौकरशाह आरसीपी के करीबी लोग चाहते थे कि वह केंद्र में मंत्री के साथ ही राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने रहें, वहीं आरसीपी सिंह के विरोधियों का कहना है कि मंत्री बनने के बाद से उनका भाजपा के प्रति झुकाव कुछ ज्यादा ही दिख रहा है. जातीय जनगणना पर पार्टी के अधिकृत रुख से अलग वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं. राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते खुद मंत्री बन जाने के मामले पर वह कह रहे हैं कि ऐसा उन्होंने नीतीश कुमार के कहने पर ही किया. प्रधानमंत्री मटीरियल का शिगूफा छेड़कर अंदरूनी मतभेदों पर काबू पाने की कोशिश भी हो सकती है. अब सभी नेता एक स्वर से नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल बताने के काम में जुट गए हैं. कुल मिलाकर नीतीश कुमार के पीएम मटीरियल होने का खेल जारी है. इस खेल में बहुत कुछ अगले साल होनेवाले यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, गोवा और फिर गुजरात और जम्मू कश्मीर विधानसभा के चुनावी नतीजों पर भी निर्भर करेगा.

नोटः तस्वीरें इंटरनेट के सौजन्य से.  

Monday, 23 August 2021

Hal Filhal : Ugly Face of Family and Individualistic Politics in Bihar


बिहार की राजनीति में बवाल !


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/snt96f2eTxY

     
    बिहार
की राजनीति और खासतौर से जनता परिवार (अविभाजित जनता पार्टी और जनता दल) के घटक रहे दलों में और इनके नेताओं के परिवार में बवाल सा मचा है. बिहार आंदोलन और जनता परिवार से जुड़े रहे तीन कद्दावर नेताओं-रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के परिवार और पार्टियों की अंदरूनी कलह खुलकर सामने आ गई है. ‘घर को आग लग गई घर के चिराग से’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए कुछ महीनों पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और परिवार उनके अपने ‘चिराग’ को लेकर दो हिस्सों में बिखर गया. और अब पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का राजनीतिक कुनबा भी उनके बड़े बेटे तेज प्रताप यादव को लेकर उसी राह पर चलते दिख रहा है. वहीं, भाजपा के साथ सरकार साझा कर रहे जनता दल (यू) में भी अंदरखाने शीर्ष पर बैठे नेताओं के बीच रस्साकशी और एक-दूसरे को नीचा दिखाने का राजनीतिक खेल खुलकर सामने आने लगा है.

परिवारवाद और व्यक्तिवाद का विद्रूप चेहरा ! 


    
नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और रामविलास पासवान: सामने आ रहा है
व्यक्तिवाद और परिवारवादी राजनीति का विद्रूप चेहरा
दरअसल, बिहार के जनता परिवार में जो कुछ हो रहा है, उसे व्यक्तिवादी और परिवारवादी राजनीति का विद्रूप चेहरा भी कहा जा सकता है. जब किसी बड़े नेता के परिवार के कई सदस्य राजनीति में सक्रिय हो जाते हैं तो आगे चलकर ‘उत्तराधिकार’ को लेकर उनके बीच राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हिलोर मारने लगती हैं. उनमें कोई आगे निकल जाता है तो बाकियों को लगता है कि ऐसा उसकी ही कीमत पर हो रहा है. इसके बाद शुरू हो जाता है राजनीतिक साजिशों और एक दूसरे को उठाने, गिराने का राजनीतिक खेल. यह बात स्व. राम विलास पासवान के राजनीतिक कुनबे में भी दिखी जहां उनके लक्ष्मण सरीखे अनुज पशुपति कुमार पारस ने केंद्र सरकार में मंत्री पद पाने के लिए अपने भतीजे चिराग पासवान को हाशिए पर डालने में जरा भी संकोच और लिहाज नहीं किया. उन्होंने पार्टी पर भी एक तरह से कब्जा जमा लिया. सांसद चिराग अब अपने राजनीतिक वर्चस्व और पिता की राजनीतिक विरासत के लिए अपने चाचा पारस और चचेरे भाई, सांसद प्रिंस राज से बिहार के राजनीतिक मैदान में जाकर लड़ रहे हैं.
चिराग ः पिता की राजनीतिक विरासत की जंग!

     अब यही खेल लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक कुनबे में भी शुरू हो गया है. इसे विडम्बना ही कहेंगे कि एक तरफ जहां लालू प्रसाद बिहार से लेकर दिल्ली में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा को मजबूत चुनौती और शिकस्त देने के लिए विपक्ष को एकजुट करने की कवायद में जुटे हैं, वहीं बिहार में उनके बड़े बेटे और पार्टी के विधायक तेज प्रताप यादव उनके और उनके दूसरे बेटे, विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी राजद के लिए भी मुसीबत का कारण बन रहे हैं. उन्होंने लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव के भी भरोसेमंद प्रदेश राजद के अध्यक्ष जगदानंद सिंह और परोक्ष रूप से तेजस्वी के विरुद्ध भी ‘राजनीतिक युद्ध’ सा छेड़ दिया है. तेज प्रताप को लगता है कि बड़ा होने के बावजूद एक साजिश के तहत पार्टी और परिवार में उनका कद छोटा किया जा रहा है. इस बीच उनके कुछ हालिया बयानों को लेकर उनके ऊपर अनुशासनहीनता की तलवार अलग से लटक रही है. उनके लिए सुधर जाने अथवा पार्टी और परिवार से भी बाहर होने का खतरा साफ दिखने लगा है. इस बात के संकेत लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव ने भी देना शुरू कर दिया है. हालांकि राजद के कुछ नताओं को लगता है कि लालू प्रसाद ने शुरू से ही तेजप्रताप को अनुशासित किया होता तो शायद आज यह दिन नहीं देखने पड़ते. 

लालू के लाल का अपनों के खिलाफ मोर्चा
    
    लालू प्रसाद यादव के चारा घोटाले में पहली बार जेल जाने के बाद जब उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनीं, उस समय उनके सभी बच्चे छोटे थे. उनके वयस्क होने के बाद उन्हें भी राजनीति का चस्का लगा या कहें उन्हें भी राजनीति में सक्रिय किया गया. बड़ी बेटी मीसा भारती को लोकसभा के दो चुनाव हारने के बाद 2016 में राज्यसभा में भेजा गया. जबकि 2015 के विधानसभा चुनाव में जब नीतीश कुमार के जद (यू) , कांग्रेस और राजद के गठबंधन ने मिलकर चुनाव लड़ा और सरकार भी बनाई तो उसमें उनके छोटे बेटे तेजस्वी यादव को उप मुख्यमंत्री और बड़े बेटे तेजप्रताप यादव को भी स्वास्थ्य मंत्री बनाया. आगे चलकर और खासतौर से दोबारा जेल चले जाने के बाद भी लालू प्रसाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने रहे लेकिन व्यावहारिक तौर पर उन्होंने पार्टी की कमान तेजस्वी यादव को सौंपकर उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया. 

    2020 के बिहार विधानसभा के चुनाव में तेजस्वी को ही भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया गया. उनके राजनीतिक मार्गदर्शन के लिए पुराने भरोसेमंद, समाजवादी एवं सामाजिक न्याय के प्रति समर्पित नेता जगदानंद सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. हरियाणा के युवा नेता संजय यादव तेजस्वी के साथ राजनीतिक सलाहकार के रूप में जुड़ गए. इस तिकड़ी ने अपेक्षित नतीजे भी दिए. तेजस्वी ने लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के साए से अलग एक नये राजद को खड़ा करने की कोशिश की. लालू प्रसाद की गैर हाजिरी में भी राजद को सबसे बड़ी पार्टी के रूप में बिहार की सत्ता के करीब पहुंचा कर तेजस्वी ने अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया.

तेजस्वी यादवः साबित की नेतृत्व क्षमता
     उधर जगदानंद सिंह ने भी पार्टी और पटना में इसके मुख्यालय को व्यवस्थित और अनुशासित करना शुरू किया. प्रदेश मुख्यालय को समाजवादी एवं सामाजिक न्याय के प्रतीक नेताओं की तस्वीरों और पुस्तकों से सजाया गया. वहां अनावश्यक भीड़-भाड़ के बजाए काम से काम रखनेवालों को तरजीह मिलनी शुरू हुई. बड़ा सभागार तथा मीडिया कक्ष भी बना. पदाधिकारियों को समय पर कार्यालय आने और दिए कार्य पूरा करने की जवाबदेही तय होने लगी. जगदानंद खुद भी पटना में रहने पर रोजाना 11 बजे कार्यालय आते और शाम को ही घर जाते. नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए चापलूसी, चाटुकारिता के बजाए पठन पाठन में ध्यान लगाने का निर्देश था. लेकिन इस प्रक्रिया में तेजप्रताप और मीसा भारती पार्टी में खुद को उपेक्षित और पिछड़ते महसूस करने लगे. हालांकि लालू प्रसाद और राबड़ी देवी ने भी अपनी संतानों के बीच राजनीतिक संतुलन बनाए रखने में कोई कभी कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन वह अपने बड़े बेटे तेजप्रताप की महत्वाकांक्षाओं और उल जलूल हरकतों पर नियंत्रण कर उन्हें अनुशासित नहीं रख सके. वह कभी कृष्ण तो कभी शिव की शक्ल धारण करने लगे तो कभी वृंदावन के चक्कर लगाने लगे. गाहे बगाहे वह खुद को दूसरा लालू भी कहने लगे. इस सबके बीच उनका वैवाहिक जीवन भी विवाद का विषय बना और पत्नी से न सिर्फ तलाक हो गया बल्कि उनके पिता, पूर्व विधायक चंद्रिका राय के साथ लालू प्रसाद का दशकों पुराना पारिवारिक संबंध भी टूट गया.

महाभारत के पात्र !


    
तेजस्वी को ताज पहनाते तेजप्रतापः 'कृष्ण' की भूमिका !
    तेज प्रताप सार्वजनिक तौर पर खुद को कृष्ण और छोटे भाई तेजस्वी यादव को अर्जुन बताते हुए यह कहते नहीं थकते कि तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाना ही उनका राजनीतिक मकसद है. लेकिन अपने आचरण से वह लगातार तेजस्वी और राजद को कमजोर ही करते रहे. पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भी टिकट से वंचित अपने करीबी लोगों को बागी उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़वाकर उन्होंने कई चुनाव क्षेत्रों में राजद की हार में योगदान ही किया. अपनी उल जलूल हरकतों और विवादित बयानबाजियों के कारण पहले भी सुर्खियों में रहे तेज प्रताप ने हाल के दिनों में राजद के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह और तेजस्वी यादव के राजनीतिक सलाहकार संजय यादव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. संजय यादव को प्रवासी सलाहकार कह कर वह उन पर परवार में फूट डालने के आरोप लगा रहे हैं तो राजद की स्थापना के समय से ही लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और इधर तेजस्वी यादव के भी भरोसेमंद रहे जगदानंद सिंह को वह हिटलर और नागपुरी राजनीति का ‘स्लीपर सेल’ तक करार दे रहे हैं. यहां तक कि किसी को शिशुपाल तो किसी को दुर्योधन करार देकर वह उनके ‘वध’ की बात भी करने लगे हैं. यह बात और है कि राजद और लालू प्रसाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पराकाष्ठा का परिचय देते हुए 2015 के विधानसभा चुनाव में जगदानंद सिंह ने राजद का टिकट नहीं मिलने पर भाजपा का उम्मीदवार बन गए अपने पुत्र सुधाकर सिंह की हार सुनिश्चित करवाई थी.

    इससे पहले भी तेज प्रताप तेज प्रताप लालू प्रसाद यादव के दो और वरिष्ठ और भरोसेमंद नेताओं-पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह और पूर्व सांसद, शिवानंद तिवारी के विरुद्ध भी इस तरह की अपमानजनक टिप्पणियां करते रहे हैं. रघुवंश प्रसाद सिंह को तो उन्होंने पार्टी रूपी समुद्र में एक लोटा जल भर कहकर अपमानित किया था. अब तेज प्रताप अपने आलाकमान से जगदानंद के खिलाफ कार्रवाई की मांग पर अड़े हैं और कह रहे हैं कि ऐसा होने तक वह राजद के किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं होंगे. इसके लिए उन्होंने तेजस्वी से बात करने की कोशिश की लेकिन उनका आरोप है कि संजय यादव के हस्तक्षेप से बातचीत बीच में ही छोड़कर तेजस्वी अपने कमरे में चले गए. अब तेजप्रताप अपने पिता लालू प्रसाद से मिलने दिल्ली में हैं. संयोगवश तेजस्वी यादव भी दिल्ली में ही हैं. दोनों भाई रक्षाबंधन के पर्व पर बहनों से राखी बंधवाने दिल्ली आए हैं. 

    
जगदानंद सिंह लालू प्रसाद और तेजस्वी के भरोसेमंद
लेकिन तेज प्रताप के लिए 'हिटलर' और 'शिशुपाल' !
जगदानंद सिंह के खिलाफ तेजप्रताप की ताजा खुन्नस अपने खासुलखास आकाश यादव की जगह गगन यादव को प्रदेश छात्र राजद का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर है. विवाद की शुरुआत 8 अगस्त को छात्र राजद के सम्मेलन में हुई. इस सम्मेलन के लिए लगे पोस्टरों-बैनरों और होर्डिंग्स में तेजस्वी यादव की तस्वीर गायब थी. यही नहीं तेज प्रताप ने इस सम्मेलन में जगदानंद सिंह की तुलना हिटलर से कर दी. इससे क्षुब्ध और क्रुद्ध जगदानंद ने राजद कार्यालय जाना ही छोड़ दिया. यहां तक कि 15 अगस्त को वह पार्टी मुख्यालय में झंडा फहराने भी नहीं गए. काफी मान मनौवल और लालू प्रसाद तथा तेजस्वी यादव के साथ बातचीत के बाद वह कार्यालय पहुंचे और और सबसे पहले तकनीकी आधार पर तेज प्रताप के करीबी आकाश यादव की जगह गगन यादव को प्रदेश छात्र राजद का अध्यक्ष बनाया. इससे भड़के तेज प्रताप ने जगदानंद सिंह पर नियम और पार्टी के संविधान की अवहेलना का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि ऐसा करने से पहले उन्हें उनसे बात करनी चाहिए थी क्योंकि छात्र राजद के संरक्षक की हैसियत से उन्होंने ही आकाश को छात्र राजद का अध्यक्ष बनाया था. लेकिन जगदानंद सिंह ने साफ किया कि पार्टी में छात्र राजद के संरक्षक का कोई पद ही नहीं है तो कैसे कोई किसी को प्रदेश छात्र राजद का अध्यक्ष नियुक्त कर सकता है. प्रदेश राजद के आमुख संगठनों के पदाधिकारियों की नियुक्ति प्रदेश अध्यक्ष ही करता है. और उन्होंने अध्यक्ष की हैसियत से किसी को इस पद पर नियुक्त ही नहीं किया था तो किसी को हटाने की बात कहां से आती है. उन्होंने तो प्रदेश छात्र राजद अध्यक्ष के रिक्त पद पर गगन यादव को नियुक्त किया है.

     जगदानंद के खिलाफ तेज प्रताप की खुन्नस पुरानी है. उन्हें लगता है कि वह उनका राजनीतिक कद छोटा करने में लगे रहने के साथ ही उनकी उपेक्षा करते हैं. उन्हें उस तरह का भाव नहीं देते जैसा वह तेजस्वी को देते हैं. मसलन, जब वह यानी तेज प्रताप पार्टी मुख्यालय में आते हैं तो प्रदेश अध्यक्ष उनका उस तरह से स्वागत नहीं करते जैसा वह तेजस्वी का करते हैं. वह उनसे फोन पर बात भी नहीं करते और न ही सार्वजनिक कार्यक्रमों में उनकी बातों पर वह ताली ही बजाते हैं. जगदानंद का कहना है कि तेजस्वी यादव संवैधानिक पद पर, नेता विपक्ष हैं और तेजप्रताप केवल विधायक. हम तो प्रोटोकॉल का अनुसरण करते हैं.

    इस बीच उनके हालिया बयानों ने तेजप्रताप के सिर पर अनुशासनहीनता के आरोप में कार्रवाई की तलवार लटका दी है. वह यह समझने में भूल कर बैठे कि जगदानंद सिंह जो भी कर या कह रहे हैं, उसके लिए उन्हें लालू प्रसाद और तेजस्वी से हरी झंडी मिली हुई है. शायद इसलिए भी लालू प्रसाद और तेजस्वी उनके विरुद्ध कुछ नहीं बोल रहे बल्कि संकेतों के जरिए तेजप्रताप को संयमित और अनुशासित रहने की सलाह दे रहे हैं. तेजस्वी यादव ने कहा भी है कि तेजप्रताप उनके बड़े भाई हैं लेकिन हमारे माता पिता ने हमें अनुशासित रहने और बड़ों का सम्मान करने की सीख दी है. तेजस्वी ने यह भी कहा है कि जगदानंद जी बड़े बुजुर्ग और सम्मानित नेता के साथ ही प्रदेश राजद के अध्यक्ष भी हैं, उन्हें प्रदेश संगठन में सभी फैसले लेने का अधिकार है. ऐसे मे अगर उन्होंने छात्र राजद के प्रदेश अध्यक्ष के पद पर कोई नियुक्ति की है तो यह उनका अधिकार है. कहा तो यह भी जा रहा है कि अगर तेजप्रताप अपनी सीमा और अनुशासन में नहीं रहे और इसी तरह के उल जलूल और अपमानजनक बयान देते रहे तो उनके विरुद्ध कार्रवाई भी हो सकती है. लेकिन इसका राजनीतिक नफा-नुसान किसे होगा! राजद के विरोधी मौके का लाभ लेने की ताक में हैं. भाजपा और जद (यू) के नेताओं ने अपने बयानों के जरिए अभी से इसका मजा लेना शुरू कर दिया है. राजद के एक नेता ने गुमनामी की शर्त पर कहा है कि इन दिनों तेज प्रताप जो कुछ कर और बोल रहे हैं, उनकी पीठ पर लालू प्रसाद के  किसी राजनीतिक विरोधी का हाथ लगता है.यह बात राजद नेतृत्व और लालू प्रसाद को भी तो पता होगी ही! इस बात का आकलन भी हो रहा होगा कि तेजप्रताप के विरुद्ध कार्रवाई होने और नहीं होने का राजद और परिवार की राजनीतिक सेहत पर क्या असर पड़ेगा!

जनता दल (यू) में भी रस्साकशी !


    
नीतीश कुमारः ये सब क्या हो रहा है, समय पर बोलेंगे

    दूसरी तरफ, बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करते हुए भी खुद को असहज महसूस कर रहे जनता दल यू की अंदरूनी कलह भी खुल कर आने लगी है. कुछ समय पहले जद (यू) में वापसी करनेवाले उपेंद्र कुशवाहा नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री मटीरियल बता रहे हैं तो उनके समर्थक अपने पोस्टर, बैनर और होर्डिंगों में उपेंद्र कुशवाहा को भावी मुख्यमंत्री बताने लगे हैं.नीतीश कुमार के खासुल खास रहे आरसीपी सिंह के केंद्र में मंत्री बन जाने के बाद नाराजगी बढ़ी तो उनकी जगह एक और खासुल खास रहे सांसद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया. इसके बाद स्वागत समारोहों के जरिए जनता दल (यू) की गुटबाजी और नेताओं के अंदरूनी मतभेद और खुलकर सामने आने लगे हैं. पूर्व नौकरशाह आरसीपी के करीबी लोग चाहते थे कि वह केंद्र में मंत्री के साथ ही राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने रहें. आरसीपी ने अपने स्वागत समारोहों में कहा भी है कि केंद्र में मंत्री बन जाने के बावजूद पार्टी संगठन में उनकी भूमिका और सक्रियता बनी रहेगी. वहीं आरसीपी सिंह के विरोधियों का कहना है कि मंत्री बनने के बाद से उनका भाजपा के प्रति झुकाव कुछ ज्यादा ही दिख रहा है. जातीय जनगणना पर पार्टी के अधिकृत रुख से अलग वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं. राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते खुद मंत्री बन जाने के मामले पर वह कह रहे हैं कि ऐसा उन्होंने नेता, नीतीश कुमार के कहने पर ही किया.अभी तक नीतीश कुमार इससे इनकार करते रहे हैं. लेकिन अपने स्वागत समारोहों के क्रम में कई दिन बिहार-पटना में रहने के बावजूद वह नीतीश कुमार से मिलने का समय नहीं निकाल सके, इस तरह की चर्चाएं जोर पकड़ने के बाद वह वह शनिवार, 21 अगस्त को मुख्यमंत्री निवास पर जाकर नीतीश कुमार से मिले. दो घंटे साथ रहे, बातें बहुत ज्यादा नहीं हुई. पार्टी की तरफ से कहा जा रहा है कि सब कुछ ठीक-ठाक है. नीतीश कुमार अभी खामोश हैं. कहा जा रहा है कि इन सब पर 29 अगस्त को जद यू की राष्ट्रीय परिषद में कुछ बोल सकते हैं.

नोटः तस्वीरें इंटरनेट से

Thursday, 3 August 2017

बिहार की राजनीति और नीतीश की नैतिकता का डीएनए

नजरिया 

जयशंकर गुप्त 

''उसी को जीने का हक है जो इस जमाने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए.''



ताज़ा घटनाक्रम में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भूमिका पर लिखते हुए मशहूर शायर वसीम बरेलवी का ये शेर याद आ गया.
 तीन-चार दिन पहले तक 'संघ मुक्त भारत' बनाने और 'मिट्टी में मिल जाने मगर भाजपा के साथ हाथ नहीं मिलाने' की बातें करते रहे नीतीश कुमार ने जब 27 जुलाई की शाम अपने महागठबंधन सरकार के बड़े पार्टनर लालू प्रसाद यादव और उनके राजनीतिक कुनबे के 'भ्रष्टाचार' से 'आजिज' आकर कार्यवाहक राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी को अपना त्यागपत्र सौंपा तो लोगों को लगा कि राजनीति में भ्रष्टाचार के विरुद्ध नीतीश कुमार ने बड़ा साहसिक क़दम उठाया है.
नीतीश कुमार पिछले कई दिनों से अपने उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के त्यागपत्र के लिए दबाव बनाए हुए थे क्योंकि पिछले कुछ दिनों से लालू कुनबे की 'बेनामी संपत्ति' पर लगातार छापामारी अभियान में लगी सीबीआई ने तेजस्वी यादव के विरुद्ध भी एक मामले में एफ़आइआर दर्ज की थी. हालांकि नीतीश कुमार ने कभी तेजस्वी के त्यागपत्र की खुली मांग नहीं की थी लेकिन यह कहकर दबाव जरूर बनाया कि उनकी सरकार में भ्रष्टाचार का कोई आरोपी कैसे रह सकता है. इसके साथ ही उन्होंने तेजस्वी से बिंदुवार स्पष्टीकरण देने की माँग भी की.

नीतीश के त्यागपत्र देकर राजभवन से बाहर आते ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट करके उन्हें बधाई दी, कुछ ही घंटों में नीतीश कुमार को न सिर्फ भाजपानीत एनडीए का समर्थन मिला बल्कि उनके साथ सरकार साझा करने की घोषणा भी हो गयी, इससे नीतीश के 'साहसिक क़दम' की हवा निकल गई. उनके निवास पर जेडीयू और बीजेपी विधायकों के रात्रिभोज ने भी यही संकेत दिया कि 'साहसिक क़दम' की घोषणा भले ही 27 जुलाई की शाम को की गई हो, इसकी पटकथा पहले से ही लिखी जा चुकी थी.

चाहे सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी का समर्थन हो या फिर दिल्ली में बिना किसी जनाधार के सिर्फ भाजपा को राजनीतिक लाभ पहुंचाने की गरज से नगर निगमों के चुनाव लड़ने की घोषणा, अपने  प्रवक्ता के सी त्यागी से यह बयान दिलवाकर कि भाजपा के साथ वे ज्यादा सहज महसूस करते हैं और फिर राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन कर वह लगातार इस बात के संकेत दे रहे थे कि उनके मन में क्या चल रहा है.

हालांकि इसके साथ ही विपक्षी एकता और सांप्रदायिक ताक़तों के साथ संघर्ष की अपनी प्रतिबद्धता के इजहार, कांग्रेस के नेताओं से मुलाकात और उप राष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार गोपालकृष्ण गांधी के समर्थन की बात कर वह विपक्ष को भी लगातार झांसे में रखे हुए थे. इस सबके बावजूद नीतीश कुमार की राजनीति में मूल्य, नैतिकता और ईमानदारी के तत्व देखनेवाले राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि अगर वह अपने त्यागपत्र के साथ ही विधानसभा भंग करवाकर नए चुनाव कराने की सिफ़ारिश करते तो कुछ और बात होती. भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनकी प्रतिबद्धता भी कुछ ज्यादा निखर कर सामने आती. लेकिन ऐसा उनकी पहले से ही तैयार पटकथा में लिखा ही नहीं था और उन्होंने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी प्रतिबद्धता के नाम पर उनसे हाथ मिला लिया जिन्हें वह मनुवादी, सांप्रदायिक, फ़ासिस्ट करार देते हुए 'संघ मुक्त भारत' की बातें करते थे.  ौंके साथ सर्कार साझा करने को राजी हो गए जिन्होंने न सिर्फ उनके बल्कि उनके बहाने पुरे बिहार के डी एन ए  पर सवाल उठाये थे. 

रअसल, समाजवादी नेता और विचारक डा. राममनोहर लोहिया के नाम पर राजनीति करनेवाले तमाम कथित समाजवादियों की यह आदत रही है कि अपनी सुविधा के हिसाब से कभी गैर-कांग्रेसवाद और भ्रष्टाचार के विरोध के नाम पर जनसंघ और भाजपा के साथ हो लेते हैं और जब किसी वजह से असुविधा महसूस हुई तो सांप्रदायिकता और मनुवाद के विरोध के नाम पर कांग्रेस के साथ हाथ मिला लेने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ. नीतीश कुमार के साथ भी कुछ ऐसा ही है. लोहिया- जेपी के आंदोलन में लालू प्रसाद के साथ रहे नीतीश 1990 में बिहार में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनने के समय उनके बेहद करीबी सहयोगी रहे.उस समय लालू-नीतीश की जुगल जोड़ी बहुत मशहूर थी लेकिन कुछ ही वर्षों में निजी अहंकारों के टकराव के बाद दोनों के रास्ते अलग हो गए. उधर जनता दल की राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर धकेले जाने से तेज तर्रार समाजवादी नेता जार्ज फ़र्नांडिस भी ख़ासे परेशान थे. दोनों ने जनता दल से अलग होकर समता पार्टी बना ली. 1995 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार पहली बार आमने सामने थे.

मीडिया ने और बिहार के सवर्ण समाज ने उस समय नीतीश कुमार की राजनीति में ख़ूब हवा भरी थी लेकिन जब चुनावी नतीजे सामने आए तो नीतीश कुमार की समता पार्टी सीटों के हिसाब से दहाई का आंकड़ा भी नहीं पार कर सकी. आगे चलकर नीतीश कुमार ने जार्ज फ़र्नांडिस पर दबाव बनाकर उन्हें भाजपा के साथ चुनावी गठबंधन के लिए राजी किया. हालांकि उन्हें बिहार में लालू प्रसाद को अपदस्थ करने और  भाजपा के साथ साझेदारी कर खुद सत्तारूढ़ होने का अवसर 2005 में ही मिला लेकिन वह 1998 से लेकर 2004 तक एनडीए का हिस्सा बनकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों में रेल, भूतल परिवहन और कृषि मंत्री जरूर बनते रहे.

भाजपा के साथ उनका राजनीतिक हनीमून 2013 तक बख़ूबी चलता रहा. यहां तक कि 2002 के गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद भी उन्होंने भाजपा और एनडीए से अलग होने की ज़रूरत नहीं समझी. हालांकि इस दौरान उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से अपनी अलग तरह की दूरी जरूर बना रखी थी. अपने उस समय के डिप्टी और संयोग से इस बार भी डिप्टी ही बने सुशील मोदी के
ज़रिए दबाव बनाकर नरेंद्र मोदी को बिहार से बाहर ही रखा. यहां तक कि 2010 के विधानसभा चुनाव में भी मोदी को बिहार में अपनी पार्टी के चुनाव अभियान में भी शामिल नहीं होने दिया गया.
गुस्से से लाल-पीले हुए नीतीश 
लेकिन इस बीच भाजपा पर नरेंद्र  मोदी का दबदबा बढ़ने लगा था और अंदरखाने बिहार में भी जेडीयू और भाजपा गठबंधन के बीच कटुता और अविश्वास की खाई भी बढ़ने लगी थी. भाजपा ने बड़ी चालाकी से पटना में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक आयोजित की और उस बहाने नरेंद्र मोदी भी वहां गए. यही नहीं भाजपा के कुछ उत्साही लोगों ने मोदी के साथ अमृतसर के किसी कार्यक्रम में ली गई नीतीश कुमार की तस्वीर के साथ कुछ अख़बारों में बड़े-बड़े विज्ञापन प्रकाशित करवा दिए. ग़ुस्से से लाल पीले हुए नीतीश कुमार ने जवाब में नरेंद्र मोदी सहित भाजपा के नेताओं के लिए दिए जानेवाले अपने रात्रिभोज को रद्द करवा दिया. यही नहीं बिहार के बाढ़ पीड़ितों को दी गई गुजरात सरकार की मदद के बारे में किए गए प्रचार से क्षुब्ध नीतीश कुमार ने पूरी रकम गुजरात सरकार को वापस कर दी थी. उस समय नीतीश कुमार के मन मस्तिष्क में सांप्रदायिकता के विरोध का ज्वार तेज़ी से उमड़ने लगा और भाजपा के द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अपना उम्मीदवार घोषित करने के बाद तो जैसे नीतीश कुमार ने आपा ही खो दिया. उन्होंने एक झटके में अपनी सरकार से भाजपा के सभी मंत्रियों को बर्ख़ास्त कर दिया था.

इस तरह से भाजपा के साथ नीतीश कुमार का 15-16 साल पुराना राजनीतिक गठबंधन टूट गया. किसी तरह वह अपनी सरकार बचा पाने में वे सफल रहे. 2014 का लोकसभा चुनाव वह अकेले दम पर 'सुशासन बाबू' की अपनी छवि के सहारे लड़े लेकिन उनकी यह छवि किसी काम नहीं आई और बिहार की 40 में से केवल दो लोकसभा सीटें ही उनके जेडीयू के खाते में आ सकीं. '

लालू प्रसाद के साथ हुए
लोकसभा का चुनाव बुरी तरह से हारने के तुरंत बाद ही उन्हें इलहाम हुआ कि भाजपा और आरएसएस की चुनौतियों का जवाब वह अकेले नहीं दे सकते. और बिना समय गंवाए वह एक कुशल पैंतरेबाज की तरह लालू प्रसाद के पास पहुंच गए जिनके साथ उनका दो दशकों से छत्तीस का आंकड़ा था. लालू प्रसाद उस समय भी चारा घोटाले में सज़ायाफ्ता थे और आज भी हैं लेकिन तब शायद सांप्रदायिकता के जवाब में नीतीश कुमार के लिए लालू यादव का भ्रष्टाचार और परिवारवाद गौण हो गया. उन्होंने लालू प्रसाद को समझाया (लालू प्रसाद के शब्दों में कहें तो गिड़गिड़ाया) कि दोनों के एकजुट हुए बगैर भाजपा को बिहार में शिकस्त नहीं दी जा सकती. बाद में अपनी चुनौती को और मज़बूत बनाने की गरज से कांग्रेस को भी साथ लेकर महागठबंधन तैयार कर लिया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि बिहार के दलितों, महादलितों, पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों ने एकजुट होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में देश भर में चल रहे भाजपा  के विजय रथ को रोक कर अपने डीएनए को दिखा  दिया.

तीन चौथाई बहुमत के साथ नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार बन गई बावजूद इसके कि ज़्यादा (80) विधायक राजद के जीत कर आए थे और जद-यू के केवल 71  विधायक ही जीत सके थे. कांग्रेस के खाते में 27 विधायक आए थे. सरकार के गठन में भी नीतीश कुमार ने बड़ी चालाकी से मुख्यमंत्री पद के साथ ही विधानसभाध्यक्ष का पद भी अपने पास रख लिया ताकि गाढ़े समय में काम आ सके-आए भी.

कसमसाहट में थे नीतीश !

लेकिन कभी नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के बेहद करीबी रहे समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी के अनुसार अपने से सीनियर लालू प्रसाद की छाया में और इस बात के एहसास से भी कि आरजेडी के पास ज़्यादा विधायक हैं, नीतीश कुमार महागठबंधन में एक अजीब तरह की कसमसाहट महसूस कर रहे थे. वह ख़ुद को उस तरह सहज महसूस नहीं कर पा रहे थे जैसा कभी वह भाजपा और सुशील मोदी के साथ महसूस कर रहे थे. गाहे बगाहे राजद के लोगों की तरफ से इस तरह की बयानबाजी भी सामने आती रहती थी कि राजद के पास ज़्यादा विधायक हैं. ये बातें भी खुसुरपुसुर के ज़रिए सामने आती थीं कि अब नीतीश सरकार में उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के राज्यारोहण का समय आने लगा है.

इस बीच और ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के बाद से ही नीतीश कुमार को यह लगने लगा कि 2019 में भी नरेंद्र मोदी को शिकस्त दे पाना मुश्किल है. इसके साथ ही उन्हें यह भी समझ में आया कि 2019 में उन्हें विपक्ष के तथाकथित महागठबंधन की धुरी और चेहरा बनाने की बातें जितनी भी की जा रही हों, बिहार में अपने दल के महज दर्जन भर सांसद जिता पाने की अपनी राजनीतिक ताक़त के मद्देनज़र देश के शीर्ष नेतृत्व को पाने की उनकी महत्वाकांक्षा पूरी होनी मुश्किल है. कांग्रेस का नेतृत्व तत्काल उन्हें मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने को भी तैयार नहीं था. ऐसे में सुशील मोदी और अरुण जेटली के ज़रिए वह भाजपा आलाकमान यानी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ भी अपने राजनीतिक तार जोड़े हुए थे. कभी जेटली के करीबी रहे संजय झा, नीतीश कुमार के भी बेहद करीबी और जेडीयू के विधानपार्षद भी हैं.
दूसरी तरफ, नीतीश कुमार का अपने राजनीतिक भविष्य के बारे में चाहे जो भी आकलन रहा हो, नरेंद्र मोदी उन्हें अपने लिए भविष्य की मजबूत चुनौती ही मानते थे. इसलिए उन्होंने अतीत की सारी कड़वाहटों को भुलाकर नीतीश कुमार को अपनी शरण में लेने के लिए हामी भर दी. हालांकि नरेंद्र मोदी की राजनीतिक कार्यशैली को बारीकी से जानने और समझानेवाले लोग जानते हैं कि उन्हें कभी आंख दिखानेवाले उनके राजनीतिक विरोधियों को वह आसानी से माफ़ नहीं कर पाते. और अब तो कभी उन्हें आंख ही नहीं दिखाने बल्कि अपमानित करनेवाले नीतीश कुमार उनके शरणागत भी हैं.

तैयार थी योजना

राजनीतिक प्रेक्षकों की सुनें तो यह संयोग मात्र नहीं था कि एक तरफ भाजपा नेता सुशील मोदी ने अचानक लालू प्रसाद के कुनबे के कथित भ्रष्टाचार के मामलों को 'दस्तावेज़ी सबूतों' के आधार पर उजागर करना शुरू कर दिया और उधर सीबीआई, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय जैसी केंद्र सरकार की एजेंसियां लालू प्रसाद के कुनबे के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सक्रिय हो गईं. अब तो लालू प्रसाद और उनके परिवार के लोग यह आरोप भी लगा रहे हैं कि उनके कथित भ्रष्टाचार के मामलों से जुड़ी फाइलें और दस्तावेज़ नीतीश कुमार और उनके करीबी लोग ही मोदी के पास पहुंचाने में लगे थे. दनादन छापे पड़ने लगे. घंटों पूछताछ होने लगी. हालांकि इन छापेमारियों और पूछताछ में ठोस क्या क्या निकला इसे आज तक आधिकारिक तौर पर नहीं बताया गया. सिर्फ़ सूत्रों के हवाले से खबरें बाहर आती रहीं. इस बीच भ्रष्टाचार के एक मामले में तेजस्वी यादव के खिलाफ सीबीआई की प्राथमिकी ने नीतीश कुमार को सुअवसर और मनचाहा राजनीतिक अस्त्र प्रदान कर दिया.

हालांकि महज प्राथमिकी दर्ज होने के आधार पर राजनीतिकों के पद त्याग के उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं. इस आधार पर पदत्याग की मांग भी विरोधी तो करते हैं लेकिन जिनके भरोसे सरकार चल रही हो वे सत्ता के साझीदार इस तरह की मांग कम ही करते हैं. वैसे भी, बीएस मामले में नीतीश कुमार पर तेजस्वी यादव के त्यागपत्र लेने का अथवा महागठबंधन तोड़  दबाव बनाने वाली भाजपा  केंद्रीय मंत्री सहित कई वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ अभियोगपत्र दाखिल होने के बावजूद वे लोग अपने पदों पर  हुए हैं. और तो और मध्यप्रदेश सर्कार में तो एक मंत्री नरोत्तम मिश्रा  विधानसभा चुनाव भ्रष्ट आचरण का आरोप साबित होने के बाद चुनाव आयोग ने रद्द करते हुए उनके तीन साल तक चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दी है. सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रपति के चुनाव में उन्हें मतदान करने की छूट भी नहीं दी. लेकिन वह बड़ी शान मन्त्र बने हुए हैं. ताज्जुब तो इस बात का भी है की स्याम नितीश कुमार और उनके भाजपाई डेपुटी शुशील मोदी पर भी कई मामले दर्ज हैं.

नीतीश कुमार चाहते तो क़ानून को अपना काम करने देने के बहाने तेजस्वी के ख़िलाफ़ अभियोगपत्र दाख़िल होने और उनकी गिरफ़्तारी का इंतज़ार कर सकते थे, वैसी हालत में तेजस्वी को त्यागपत्र देना ही पड़ता. लेकिन उन्होंने इसकी ज़रूरत नहीं समझी. उन्होंने तो अपने लिए कुछ अलग तरह की ही राजनीतिक पटकथा तैयार करवा रखी थी जिसकी भनक अपने कुछेक ख़ास लोगों को छोड़कर अपने दल के सांसदों, विधायकों तथा शरद यादव जैसे वरिष्ठ नेताओं को भी नहीं लगने दी थी.

और फिर बिहार में द्विज मानसिकता के लोगों, उनसे प्रभावित और संचालित मीडिया का भी नीतीश कुमार पर तेजस्वी यादव के 'भ्रष्टाचार' से समझौता नहीं करने का दबाव था. उनकी सुशासन बाबू की छवि को ललकारा जा रहा था. यह बताने की आवश्यकता नहीं कि लंबे अरसे से बिहार के एक बड़े और मुखर (सवर्ण) तबके की आंखों में लालू यादव और नीतीश कुमार का गठबंधन किरकिरी की तरह से चुभ रहा था.ठीक वैसे ही जैसे कि नब्बे के शुरुआती दशक में चुभ रहा था. वे लोग 1994-95 की तर्ज पर ही इन दोनों को किसी भी कीमत पर अलग करवाने में जुटे थे. इसमें एक बार फिर वे सफल रहे.

नीतीश कुमार की एक ख़ासियत यह भी है कि जब वह सत्ता में होते हैं तो उन्हें अपनी अभिजात्य संस्कृति और उसकी सोहबत पसंद आती है. वह इसी तरह की मीडिया और नौकरशाही से घिरे रहने में खुद को सहज महसूस करते हैं लेकिन जब चुनाव आता है तो उन्हें यह एहसास होने में देर नहीं लगती कि यह तबका उनके पक्ष  माहौल चाहे जितना भी बना दे, उन्हें चुनाव नहीं जिता सकता, इसके लिए उन्हें दलितों, अपने सजातीय कुर्मी जनाधार के साथ ही अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों और बाहुबलियों का समर्थन आवश्यक नजर आने लगता है.

जहां तक भ्रष्टाचार के साथ नीतीश कुमार के कभी समझौता नहीं करने की बात है, शिवानंद तिवारी इसे उनका राजनीतिक ढोंग करार देते हैं. वह सवाल करते हैं, ''यह कैसी नैतिकता और ईमानदारी है जो सज़ायाफ्ता लालू प्रसाद के साथ चुनावी महागठबंधन को तो जायज ठहराती है लेकिन भ्रष्टाचार के पुराने मामले में महज प्राथमिकी दर्ज किए जाने को गठबंधन तोड़ने का आधार बना देती है. जिस समय लालू प्रसाद के दोनों बेटे चुनाव लड़ रहे थे, सरकार में मंत्री बने थे तब क्या नीतीश को इन मामलों की जानकारी नहीं थी? और फिर अगर प्राथमिकी दर्ज़ होना ही किसी के भ्रष्टाचार का सबूत है तो उनके खुद के और सुशील मोदी के ख़िलाफ़ भी तो क्रमशः हत्या और भ्रष्टाचार के आरोप हैं, इस पर नीतीश कुमार क्या कहेंगे.'' 

बिहार की राजनीति को बारीकी से जानने-समझनेवाले पूछते हैं कि नीतीश कुमार ने किस नैतिकता के आधार पर 1980 के बाद से ही, एक दो वर्ष के छोटे अंतराल को छोड़कर किसी न किसी दल के सहारे एक बार लोकसभा और फिर लगातार राज्यसभा का सदस्य बने चले आ रहे महेंद्र प्रसाद उर्फ किंग महेंद्र और अंबानी परिवार के खासमख़ास नौकरशाह रहे एनके सिंह उर्फ नंदू बाबू को राज्यसभा के टिकट दिए थे? उनके पिछले (सुशील मोदी के साथ गलबहियांवाले) कार्यकाल के दौरान अनंत सिंह जैसे अपराधी और बाहुबली छवि के कई विधायकों को मुख्यमंत्री और उनकी सरकार की सरपरस्ती हासिल थी. आज भी अनंत सिंह उनके बेहद करीबी कहे जाते हैं. भ्रष्टाचार के साथ किसी भी क़ीमत पर समझौता नहीं करने का दावा करने वाले नीतीश कुमार क्या बताएंगे कि चुनावों में उनके पास पैसे कहां से आते हैं जिससे वह अपना महंगा चुनाव अभियान और प्रशांत किशोर जैसे महंगे चुनाव प्रबंधक का ख़र्चा भी उठा पाते हैं.

हरहाल, बदले माहौल में  नीतीश कुमार की सरकार तो बची रह सकती है. हालांकि उनके नए गठबंधन में उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी के रुख को देखते हुए दरार अभी से नजर आने लगी है, शारद यादव के नेतृत्व में जेडीयू में भी एक बड़ा तबका उनकी नई राजनीति को अपने गले से नीचे उतार पाने में असहज महसूस कर रहा है. इससे बचने के लिए वह और उनके नए गठबंधन सहयोगी गुजरात और उत्तर प्रदेश की तर्ज पर राजद और कांग्रेस के विधायकों में सेंध लगाने की रणनीति पर अमल कर सकते हैं लेकिन इसके लिए भी नीतीश कुमार को अपनी प्रचारित राजनीतिक छवि के साथ समझौता ही करना पड़ेगा.

वैसे भी बिहार का मुखर तबका और मीडिया का एक बड़ा तबका भले ही अगले कुछ दिनों तक उनकी नैतिक, मूल्यपरक और ईमानदार राजनीति के कसीदे पढ़ते नजर आए, 2015 के विधानसभा चुनाव में उनके नेतृत्व और गठबंधन के पक्ष में लामबंद हुए और उनमें भविष्य का प्रधानमंत्री देखने लगे पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों के लोग, दलित एवं अल्पसंख्यक तो एक बार फिर छला गया ही महसूस कर रहे हैं. और दोबारा भाजपा के साथ मोहभंग की स्थिति में, जो असंभव नहीं है, उनके सांप्रदायिकता विरोधी नारों पर ये लोग कैसे यक़ीन करेंगे?

नोट : इस लेख का सम्पादित रूप 30 जुलाई  को बी बी सी, हिंदी की वेबसाइट पर प्रकाशित।