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Tuesday, 17 August 2021

Hal Filhal: Criminalisation of Politics

राजनीति के अपराधीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का तमाचा


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/pdxZu1ANxLc
    
रा
जनीति का तेजी से हो रहा अपराधीकरण पिछले कई दशकों से भारतीय राजनीति और हमारे संसदीय लोकतंत्र को भी डंसे जा रहा है. बार-बार की चेतावनियों और घोषणाओं के बेअसर रहने के बाद अभी एक बार फिर हमारी सर्वोच्च अदालत ने राजनीति के अपराधीकरण या कहें अपराध के राजनीतिकरण पर गहरी चिंता व्यक्त की है. सुप्रीम कोर्ट की राय में “राजनीतिक व्यवस्था की शुद्धता के लिए आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को कानून निर्माता बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.’’

    वाकई, हाल के दशकों में भारतीय राजनीति और हमारी चुनाव प्रणाली में जाति, धर्म, धन बल और बाहुबल का इस्तेमाल बढ़ा है. यह हमारी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के लिए अशुभ संकेत है. सबसे अधिक चिंता इस बात की है कि कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो यह किसी भी राजनीतिक दल और आम जनता के लिए भी विशेष चिंता का विषय नहीं रह गया है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जानेवाले भारत में चुनाव सुधारों की बात तो लंबे समय से होती रही है. लेकिन, आजादी के 74 साल बाद भी यहां 'राजनीति के अपराधीकरण' पर रोक नहीं लग सकी है. भारतीय स्वतंत्रता के 75वें दिवस का जश्न मनाते समय क्या यह हमारी सामूहिक चिंता का विषय नहीं होना चाहिए कि सत्रहवीं लोकसभा के तकरीबन 43 प्रतिशत सदस्यों पर आपराधिक और इन में से 29 प्रतिशत सांसदों पर गंभीर अपराधों के मामले दर्ज हैं.
 
    पिछले लोकसभा चुनावों के आंकड़ों पर गौर करें तो अपराधी पृष्ठभूमि के सांसदों की संख्या लगातार बढ़ती गई है. 2004 के लोकसभा चुनाव में जीतनेवाले अपराधी पृष्ठभूमि के सांसदों की संख्या 128 थी जो वर्ष 2009 में 162, 2014 में 185 और 2019 के लोकसभा में बढ़कर 233 हो गई. नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2009 में गंभीर आपराधिक मामलों के आरोपी सांसदों की संख्या 76 थी, जो 2019 में बढ़कर 159 हो गई. इस तरह से देखें तो 2009-19 के बीच बलात्कार, हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध जैसे गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या में 109 फीसदी का इजाफा हुआ. कई राज्यों की विधानसभाओं में तो हालत और भी बदतर है. बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में विभिन्न दलों के तकरीबन 70 प्रतिशत उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे चल रहे थे.

मोदी से जगी थी उम्मीद !


     प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद उम्मीद बढ़ी थी कि अब राजनीति अपराधियों से मुक्त हो सकेगी. हालांकि गुजरात में मुख्यमंत्री रहते ऐसा कुछ भी लहीं किया था जिससे अपराधी राजनीतिक प्रक्रिया से बाहर हो सकें. लेकिन उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ रही भाजपा ने जब 7 अप्रैल 2014 को लोकसभा चुनाव के लिए जारी अपने चुनाव घोषणापत्र या कहें संकल्प पत्र में अपराधियों को राजनीति से बाहर करने के लिए कटिबद्धता जाहिर की, तो आस जगी थी. यही नहीं मोदी जी ने खुद भी राजस्थान में अपने चुनावी भाषणों में कहा था, ‘‘आजकल यह चर्चा जोरों पर है कि अपराधियों को राजनीति में घुसने से कैसे रोका जाए. मेरे पास इसका एक ठोस इलाज है. मैंने भारतीय राजनीति को साफ करने का फैसला कर लिया है. मैं इस बात को लेकर आशान्वित हूं कि हमारे शासन के पांच सालों बाद पूरी राजनीतिक व्यवस्था साफ-सुधरी हो जाएगी और सभी अपराधी जेल में होंगे. इस मामले में कोई भेदभाव नहीं होगा और मैं अपनी पार्टी के दोषियों को भी सजा दिलाने में संकोच नहीं करूंगा.’’

नरेंद्र मोदीः राजनीति के अपराधीकरण का इलाज है, मेरे पास!
    प्रधानमंत्री बनने के बाद 11 जून 2014 को संसद में अपने पहले भाषण में भी मोदी जी ने चुनावी प्रक्रिया से अपराधी छवि के जन प्रतिनिधियों को बाहर करने की प्रतिबद्धता को दोहराते हुए कहा था कि उनकी सरकार ऐसे नेताओं के खिलाफ मुकदमों के तेजी से निपटारे की प्रक्रिया बनाएगी. 2015 में बिहार विधानसभा के चुनाव के समय मोदी जी ने मुजफ्फरपुर की सभा में कहा था कि जन प्रतिनिधियों के विरुद्ध लंबित आपराधिक मामलों की त्वरित अदालतों में सुनावाई के जरिए वह पहले संसद से और फिर विधानमंडलों से भी अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों को बाहर करेंगे.

    लेकिन प्रधामंत्री मोदी की इन घोषणाओं का हुआ क्या ! इसे भी देखें. 2014 के लोकसभा चुनाव में जीते भाजपा के 282 सांसदों में से 35 फीसदी (98) सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे. इनमें से 22 फीसदी सांसदों के खिलाफ तो गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे. इन्हें उम्मीदवार किसने और क्यों बनाया था ! यह भी क्या कोई पूछने की बात है ! यही नहीं, मोदी जी की मंत्रिपरिषद में भी 31 फीसदी सदस्यों के विरुद्ध आपराधिक और इनमें से 18 फीसदी यानी 14 मंत्रियों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे. इन्हें ठोक बजाकर मंत्री भी तो मोदी जी ने ही बनाया होगा ! 14 दिसंबर 2017 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर बताया था कि उस समय 1581 सांसद व विधायकों पर करीब 13500 आपराधिक मामले लंबित हैं और इन मामलों के निपटारे के लिए 12 विशेष अदालतों का गठन होगा. इसके तीन महीने बाद, 12 मार्च 2018 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि देश के 1,765 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. जाहिर सी बात है कि भाजपा और मोदी जी ने भी राजनीति को अपराध मुक्त बनाने के जो वादे और दावे किए थे, वह भी उनके सत्ता संभालने के सवा सात साल बाद भी पूरा होने के बजाय कोरा जुमला ही साबित हुए. इस दौरान उनकी पार्टी के कई सांसदों, मंत्रियों और विधायकों पर भी कई तरह के अपराध कर्म में शामिल होने के गंभीर आरोप लगे लेकिन उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने की बात तो दूर, उन्होंने सामान्य नैतिकता के आधार पर किसी का इस्तीफ़ा तक नहीं लिया.

    
सुप्रीम कोर्टः राजनीतिक व्यवस्था के अपराधीकरण का खतरा
    सच तो यह है कि राजनीति में तेजी से बढ़ रहे अपराधीकरण को रोकने के लिए कोई भी राजनीतिक दल ठोस कदम उठाने को तैयार नहीं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी और आदेशों के जरिए न सिर्फ सरकार और विपक्ष बल्कि हमारी पूरी राजनीतिक व्यवस्था पर भी करारा तमाचा जड़ा है. सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड सार्वजनिक नहीं करने को अदालत के आदेश की अवमानना मानते हुए बिहार में भाजपा और कांग्रेस समेत आठ राजनीतिक दलों पर एक लाख से लेकर पांच लाख रुपए तक का जुर्माना लगाया. बिहार विधानसभा के चुनाव में विभिन्न दलों के तकरीबन 70 प्रतिशत उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे चल रहे थे. लेकिन अदालती के आदेश के बावजूद  इन पार्टियों ने अपने अपराधी पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों का विवरण सार्वजनिक नहीं किया था. आर्थिक जुर्माना लगाने के साथ ही सख्त निर्देश जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी राजनीतिक दलों को चयन के 48 घंटों के भीतर अपने उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि को अपने वेबसाइट पर सार्वजनिक करना होगा. उम्मीदवार के चयन के 72 घंटे के अंदर इसकी रिपोर्ट चुनाव आयोग को भी सौंपनी होगी. चुनाव आयोग से भी इन सब बातों पर निगरानी रखने के लिए एक अलग प्रकोष्ठ बनाने को कहा गया है. यह प्रकोष्ठ सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के पालन पर निगरानी रखेगा.

हाईकोर्ट की अनुमति के बिना जन प्रतिनिधियों के मुकदमों की वापसी नहीं  ! 


    
चीफ जस्टिस एन वी रमनः माननीयों पर मुकदमों की
वापसी के लिए हाईकोर्ट की अनुमति जरूरी
    सुप्रीम कोर्ट ने एक और मामले में महत्वपूर्ण आदेश जारी करते हुए कहा है कि राज्य सरकारें अब आपराधिक मामलों का सामना कर रहे जन प्रतिनिधियों के खिलाफ दर्ज मुकदमों को उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना वापस नहीं ले सकेंगी. अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्याधीश एन वी रमन, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस विनीत सरन की पीठ ने सितंबर 2020 के बाद सांसदों-विधायकों के विरुद्ध वापस लिए गए मुकदमों को दोबारा खोलने का आदेश भी दिया. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह बड़ा कदम एमिकस क्यूरी (न्याय मित्र) अधिवक्ता विजय हंसारिया की रिपोर्ट के मद्देनजर उठाया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश सरकार मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी बीजेपी विधायकों तथा कुछ अन्य लोगों के खिलाफ 76 तथा कर्नाटक सरकार अपने विधायकों के खिलाफ 62 मामलों को वापस ले चुकी है. उत्तराखंड, महाराष्ट्र और कुछ अन्य राज्य सरकारें भी इसी तरह अपने लोगों पर चल रहे आपराधिक मामले वापस लेने में लगी हैं. इससे पहले भी राज्य सरकारें अपने करीबी नेताओं पर चल रहे आपराधिक मुकदमों को जनिहत के नाम पर वापस लेती रही हैं. सरकारें अपनी पार्टी के नेताओं, सांसदों- विधायकों के खिलाफ अदालतों में लंबित आपराधिक मामले वापस ले लेती हैं, इसलिए भी नेता, जन प्रतिनिधि बेखौफ होकर अपराध करते हैं. उत्तर प्रदेश सरकार ने तो सत्ता संभालते ही मुख्यमंत्री आदित्यनाथ पर चल रहे मुकदमों को वापस लेने के साथ ही भाजपा नेता, पूर्व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री स्वामी चिन्मयानंद पर चल रहे बलात्कार के मामले को वापस ले लिया था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस ताजा आदेश से नेताओं, पार्टियों ओर सरकार के कान कस दिए हैं.

    सुप्रीम कोर्ट के इन आदेशों के बाद कहा जा सकता है कि अपराधी छवि वाले नेताओं के लिए चुनाव लड़ने और राजनीतिक दलों को उन्हें उम्मीदवार बनाने में मुश्किलें होंगी. लेकिन क्या इससे राजनीति में अपराधीकरण पर रोक भी लग सकेगी! दरअसल, दशकों पहले से राजनीति के अपराधीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, उसमें अपराधियों का राजनीतिकरण अब आम बात हो गई है. पांच दशक पहले तक राजनीतिक दल और उनके नेता चुनाव जीतने के लिए अपराधियों, बाहुबलियों और धनबलियों का इस्तेमाल करते थे. बाद में जब इन लोगों को लगा कि वे किसी को चुनाव जिता सकते हैं तो खुद भी तो जीत सकते हैं. इसी सोच के तहत 1980 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में तकरीबन डेढ़ दर्जन दुर्दांत अपराधी निर्दलीय चुनाव जीत कर आए. बाद में तकरीबन सभी उस समय के सत्तारूढ़ दल, कांग्रेस में शामिल हो गए. बिहार प्रवास के दौरान मुझे उस समय का एक मजेदार किस्सा सुनने को मिला. एक चुनावबाज नेता जी ने अपने सहयोगी रहे एक बड़े अपराधी को पत्र लिखा कि इस बार फिर वह चुनाव लड़ रहे हैं. पिछली बार की तरह इस बार भी चुनाव में उनकी जरूरत पड़ेगी. लिहाजा, हरबा- हथियार और गुर्गे लेकर उनके चुनाव क्षेत्र में पहुंच जाएं. उधर से जवाब आया, भाई जी, इस बार तो हम खुद ही चुनाव लड़ रहे हैं. नतीजा ! अपराधी जीत गया और नेता जी चुनाव हार गए.

    एक समय था जब भ्रष्ट, सांप्रदायिक और अपराधी छवि के लोगों का समाज में हेय या कहें नफरत की निगाह से देखा जाता था. उनके चुनाव लड़ने की बात तो दूर, उनके साथ जुड़ाव भी शर्मिंदगी का कारण बनता था. लेकिन हाल के दशकों में इस तरह के लोगों की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ी है. भ्रष्ट और अपराधी छवि के लोगों-नेताओं को उनकी जाति और धर्म के लोगों का भरपूर साथ मिलने लगा है. अब इसे उनका डर कहें या उनके पैसों और बाहुबल का प्रभाव, ये लोग किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होकर या निर्दलीय चुनाव लड़कर भी आसानी से जीत जाते हैं. इस दौरान इन पर लगे आपराधिक मामलों के बारे में लोग कतई नहीं सोचते हैं. राजनीति में वोटों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में सियासी दलों के बीच आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को अपने पाले में लाने की होड़ सी लगी रहती है. राजनीतिक दलों में इस बात की प्रतिस्पर्धा रहती है कि किस दल में कितने उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, क्योंकि इससे उनके चुनाव जीतने की संभावना बढ़ जाती है. यह भी एक कारण है कि भारत के बड़े हिस्सों में चुनावी राजनीति के मुद्दे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, मूलभूत सुविधाएं न होकर जाति और धर्म होने लगे हैं. इसकी वजह से इन भ्रष्ट और आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं की जीत आसान हो जाती है. चुनाव जीतने के बाद ये लोग अपने समर्थकों और विरोधियों का 'ध्यान' भी रखते हैं.

    इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए फैसले और टिप्पणियां करते रहा है. 2002 में सभी तरह के चुनाव में उम्मीदवारों को उनकी आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक पृष्ठभूमि की घोषणा को अनिवार्य बनाया गया. 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने दो साल से ज्यादा कारावास की सजा पाने वाले सांसदों और विधायकों के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी थी. 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दोषी ठहराए गए, सांसदों और विधायकों को उनके पद पर बने रहने की अनुमति के खिलाफ फैसला सुनाया था. इसी साल सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ईवीएम में नोटा का बटन भी जोड़ा गया था. ताकि मतदाताओं को अगर एक भी उम्मीदवार पसंद नहीं हों तो वे नोटा (यानी कोई नहीं) का बटन दबाकर अपनी नपसंदगी जाहिर कर सकते हैं. लेकिन यह उपाय भी ठोस और कारगर साबित नहीं हो सका क्योंकि इसके जरिए मतदाता अपना आक्रोश और नापंसदगी तो व्यक्त कर सकते हैं लेकिन चुनावी नतीजे को प्रभावित नहीं कर सकते. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों से गंभीर अपराध के आरोपों वाले नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करने की सिफारिश की थी. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने जन-प्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों के तेजी से निपटारे के लिए विशेष अदालतों के गठन का आदेश दिया था. कुछ राज्यों में त्वरित अदालतें गठित भी हुईं लेकिन नतीजा क्इया निकला! 

    दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की भी अपनी कुछ सीमाएं हैं. वह राज्य की विधायिका के कार्यों पर सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकता है. दागी उम्मीदवारों को उम्मीदवार बनाने या उन्हें टिकट नहीं देने का निर्णय राजनीतिक दलों को और उन्हें जिताने-हराने का काम मतदाताओं को करना होता है. अगर राजनीतिक दल इस मामले में अपनी ओर से कोई पहल नहीं करें तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है ! लिहाजा हमारे राजनीतिक दलों को ही एक राय से गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को राजनीति से परे रखने के लिए इस दिशा में ठोस पहल करने के साथ ही संसद से कड़ा कानून भी बनाना होगा. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि संसद से कानून बनाकर आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को राजनीति में आने से रोका जाना चाहिए. अभी जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 दोषी और दो वर्ष या उससे अधिक की सजा प्राप्त राजनेताओं को चुनाव लड़ने से रोकती है. लेकिन ऐसे नेता जिन पर कई आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, वे चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र हैं. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन पर लगे आरोप कितने गंभीर हैं. लेकिन कई बार बहुत सारे राजनीतिक दलों के नेता-कार्यकर्ताओं पर राजनीतिक विरोध, धरना, प्रदर्शन और आंदोलन के क्रम में तथा आंदोलन के दौरान यदा-कदा हुई हिंसक घटनाओं को लेकर भी मुकदमे दर्ज होते रहते हैं. उनका क्या होगा. इस पर भी हमारी सर्वोच्च अदालत, संसद और अन्य संबद्ध संस्थाओं को विचार करने की आवश्यकता है. आजादी के 74 साल बाद भी हमारी राजनीतिक व्यवस्था गंभीर प्रवृत्ति के अपराधियों और राजनीतिक आंदोलनों में निरुद्ध होनेवाले लोगों में फर्क नहीं कर सकी है. अंग्रेजों के जमाने से ही राजनीतिक धरना, प्रदर्शन और आंदोलन में शामिल लोगों को भी अपराध की उन्हीं धाराओं में निरुद्ध किया जाता है जिनके तहत गंभीर किस्म के अपराधियों पर मुकदमें दर्ज होते हैं. राजनीतिक विरोध, धरना, प्रदर्शन और आंदोलन से जुड़े मामलों को अपराध की सामान्य परिभाषा से अलग करने पर विचार करना होगा.

    बहरहाल, क्या हमारी सरकार और हमारे राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देशों के अनुरूप इस मामले में कोई ठोस पहल करेंगे ! दरअसल, सभी दल चुनाव सुधारों की बात तो जोर शोर से करते हैं लेकिन मौका मिलते ही अपनी चुनावी जीत सुनिश्चित करने के लिए उन सभी बुराइयों का लाभ लेने में जुट जाते हैं जिनका चुनाव सुधारों के क्रम में निषेध आवश्यक है. यह आश्चर्यजनक नहीं है कि डेढ़ साल पहले भाजपा और मोदी जी अपने घोषणापत्र से लेकर भाषणों में भी राजनीति को अपराधमुक्त करने का जो नारा देते थे, 2019 के लोकसभा चुनाव के समय उसे वे भूल ही गए. मोदी जी के चुनावी भाषणों और भाजपा के घोषणापत्र से भी राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाने की बात गायब हो गई.



Monday, 11 September 2017

पटना में राजद की रैली : संकेत और समीकरण

पटना से हुई गैर भाजपा महागठबंधन की शुरुआत !

जयशंकर गुप्त

टना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में राष्ट्रीय जनता दल की ‘भाजपा हटाओ, देश बचाओ’ रैली में कितने लोग आए, इसको लेकर विवाद हो सकता है. राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के पूर्व उप मुख्यमंत्री पुत्र तेजस्वी यादव ने कहा कि रैली में 25 लाख से अधिक लोग जुटे, लालू प्रसाद को यह अतिशयाक्ति शायद कुछ कम लगी, सो उन्होंने कहा कि रैली में 30 लाख लोगों का जन सैलाब उमड़ा था. दूसरी तरफ, कल तक लालू प्रसाद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन चलाते रहे और अभी भाजपा के सहयोग से राजग की साझा सरकार का नेतृत्व कर रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दल-यू-ने इस महा रैली को फ्लाप करार दिया. लेकिन इतना तो सच है कि हाल के वर्षों में पटना और गांधी मैदान में होनेवाली रैलियों में यह सफलतम और रेस्पांसिव रैली थी. पूरा पटना शहर राजद और महागठबंधन के नेताओं-कार्यकर्ताओं, उनके पोस्टर-बैनरों और कटाउटों से अटा पड़ा था. जितने लोग मैदान में जमा थे, उसी अनुपात में लोग गांधी मैदान के चारों तरफ सड़कों पर, रेलवे स्टेशन और बस अड्डों के आसपास भी राजद के झंडे डंडों के साथ दिख रहे थे. वह भी ऐसे समय में जबकि आधा बिहार बाढ़ की चपेट में है. 

यह रैली कहने को तो भाजपा बचाओ, देश बचाओ के नारे पर हुई लेकिन निशाने पर मुख्य रूप से महागठबंधन के ‘विश्वासघाती’ नीतीश कुमार ही थे. लालू प्रसाद और उनके पुत्रों के साथ ही राजद के तमाम नेताओं और अन्य विपक्षी दलों के नेताओं ने भी ‘संघ मुक्त भारत’ का नारा देने वाले नीतीश कुमार पर महागठबंधन तोड़कर संघ के शरणागत होने और भाजपा से मिलकर सरकार बना लेने का आरोप लगाया. नीतीश कुमार के महागठबंधन तोड़ने के बाद यह लालू प्रसाद और उनके राजद के साथ ही नीतीश कुमार के साथ नहीं गए जद यू के पूर्व अध्यक्ष, सांसद शरद यादव एवं कांग्रेस के लिए भी बड़ा शक्ति प्रदर्शन था जिसमें ये लोग सफल रहे. 
इस महा रैली के आयोजन की घोषणा लालू प्रसाद ने काफी पहले तब की थी जब नीतीश कुमार महागठबंधन की सरकार चला रहे थे, हालांकि अंदरखाने वह लालू प्रसाद को गच्चा देकर भाजपा के साथ नए सिरे से जुगलबंदी की जुगत भिड़ाने में लगे थे. लालू प्रसाद पटना से भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन खड़ा करने की कार्ययोजना पर काम कर रहे थे लेकिन नीतीश कुमार ने उसमें फच्चर लगाने की कोशिश की. वे खुद तो भाजपा के साथ गए ही, उन्होंने यह कोशिश की कि शरद यादव और उनके साथी भी उनका अनुसरण करें. उन्हें केंद्र सरकार में मंत्री पद के प्रलोभन दिए गए. उनके मना कर देने और नीतीश कुमार के पलट जाने के बाद विपक्ष की धुरी बनने की सोच के तहत महागठबंधन के साथ ही बने रहने के राजनीतिक रुख के साफ हो जाने के बाद कोशिशें इस बात की हुईं कि वह इस रैली में नहीं जा सकें. कभी उनके सिपहसालार कहे जाते रहे जद यू के महासचिव के सी त्यागी ने दो दिन पहले उन्हें पत्र भेजकर आगाह किया कि राजद की रैली में उनका भाग लेना अनुशासन की लक्ष्मण रेखा को लांघने जैसा होगा. रैली के बाद भी त्यागी ने कहा कि शरद दूसरे खेमे में चले गए हैं. अब जद यू के साथ उनका रिश्ता नहीं रह गया है. हालांकि जद यू से उनका औपचारिक निलंबन अथवा निष्कासन अभी बाकी है. त्यागी ने कहा है कि उनका मामला अनुशासन समिति के हवाले है लेकिन शरद यादव और उनके साथियों पर इस तरह की घुड़कियों का असर नहीं पड़ा. दो दिन पहले उन्होंने कहा भी कि महागठबंधन की रैली का फैसला काफी पहले हुआ था जिसमें नीतीश कुमार के भी शामिल होने की बात थी. नीतीश पलट गए लेकिन हम पलटनेवाले नहीं क्योंकि हम ही असली जद यू हैं जिसके साथ हमारी अधिकतर प्रदेश इकाइयां हैं. मंच पर उनके साथ राज्यसभा के एक और सदस्य अली अनवर और जद यू के वरिष्ठ नेता, राज्य सरकार में पूर्व मंत्री रमई राम भी थे. मंच से ही शरद यादव ने राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपाई महागठबंधन खड़ा करने की घोषणा की जिसका समर्थन मंच पर मौजूद विपक्ष के तमाम नेताओं ने भी किया. 

रैली के आयोजकों के अनुसार दिल्ली के इशारे पर कुछ और दलों और नेताओं को भी इस रैली से विमुख होने के दबाव पड़े. मायावती अथवा उनकी बसपा का एक भी प्रतिनिधि नहीं दिखा. रैली में शामिल होने को लेकर वह लगातार अपना स्टैंड बदलते रहीं. हालांकि 17 अगस्त को दिल्ली में शरद यादव के साझी विरासत बचाओ सम्मेलन में बसपा के सांसद वीर सिंह मौजूद थे. उस सम्मेलन में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी और माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी की मौजूदगी भी थी. सबने एक स्वर से कहा था कि भाजपा शासन में संघ परिवार की देखरेख में साझी विरासत खतरे में है. इसे बचाने के लिए भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाने की बात कही गई थी. स्वयं राहुल गांधी ने कहा था कि बदली परिस्थतियों में अगर सभी विपक्षी दलों का एक महागठबंधन बन जाए तो भाजपा कहीं दिखेगी नहीं. लेकिन जहां साझी विरासत बचाओ सम्मेलन में 17 दलों के नेता और प्रतिनिधि शामिल हुए वहीं महागठबंधन खड़ा करने की अगली कड़ी के रूप में आयोजित राजद की महा रैली में केवल 14 दलों के नेता-प्रतिनिधि ही दिखे. राहुल गांधी स्वयं नहीं आए. उन्होंने  पटना आने और लालू प्रसाद के साथ मंच साझा करने के बजाय नार्वे की राजधानी ओस्लो की यात्रा को मुनासिब समझा. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी नहीं आ सकीं. कांग्रेस का प्रतिनिधित्व राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद और महासचिव सीपी जोशी ने किया. सीताराम येचुरी भी नहीं दिखे. माकपा को संभवतः मंच पर ममता बनर्जी की मौजूदगी नागवार गुजरी होगी. लेकिन भाकपा के महासचिव सुधाकर रेड्डी और सचिव डी राजा वहां दिखे. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तथा राष्ट्रीय लोकदल के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी पूरी ताकत के साथ दिखे. पड़ोसी राज्य झारखंड से झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के साथ ही एक और पूर्व मुख्यमंत्री झाविमो के बाबूलाल मरांडी भी मौजूद थे. एनसीपी के महासचिव और बिहार से लोकसभा सदस्य तारिक अनवर भी थे. हालांकि एनसीपी का प्रतिनिधित्व अगर प्रफुल्ल पटेल अथवा शरद पवार या उनके परिवार का कोई सदस्य करता तो रैली में वजन कुछ और बढ़ जाता क्योंकि शरद पवार के राजग से जुड़ने के कयास गाहे बगाहे लगते रहते हैं. दक्षिण में तमिलनाडु से द्रविड़ मुनेत्र कझगम के लोकसभा सदस्य टी के एस इलेंगोवन और केरल कांग्रेस के प्रतिनिधि आए तो उत्तर पूर्व में असम से एयूडीफ के नेता लोकसभा सदस्य बदरुद्दीन अजमल की मौजूदगी महा रैली को राष्ट्रीय बना रही थी. ओडिसा में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल, दिल्ली से आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और हरियाणा से इंडियन नेशनल लोकदल के किसी प्रतिनिधि की गैर मौजूदगी भी क्षटक रही थी. संभवतः कांग्रेस की नापंसदगी के कारण उन्हें बुलाया ही नहीं गया था.

कुल मिलाकर यह महा रैली लालू प्रसाद और उनके राजद और राजनीतिक कुनबे का शक्ति प्रदर्शन था जिसमें वह पूरी तरह से सफल रहे. एक बार फिर उन्होंने यह साबित किया कि जोड़ तोड़ के खेल से नीतीश कुमार भले ही सरकार चला रहे हों, बिहार में जनाधारवाले वह अकेले नेता हैं. तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोपों और जांच मुकदमों के बावजूद वह भाजपा और उसके नेतृत्व में उभर रही सांप्रदायिक ताकतों के विरुद्ध झुकनेवाले नहीं हैं. उन्होंने और उनके पुत्रों ने भी रैली में साफ किया कि मुकदमे और जेल की दीवारें भी सांप्रदायिक ताकतों से लोहा लेने के उनके संकल्प को कमजोर नहीं कर सकतीं. उनके जनाधार और सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष के उनके कमिटमेंट का लोहा मंच पर मौजूद विपक्ष के तमाम नेताओं ने भी एक स्वर से माना. यह महा रैली नीतीश कुमार और भाजपा गठबंधन सरकार के लिए भी खतरे का संकेत साबित हो सकती है. राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपा और गैर राजग महागठबंधन ने आकार लेना शुरू हो गया है, इससे इतर बिहार में नीतीश कुमार और भाजपा की राजनीति से नाखुस जद यू और राजग में रालोसपा जैसे घटक दलों के नेताओं, विधायकों के बीच इस महा रैली की सफलता एक नई ताकत का संचार कर सकती है. जद यू के विधायकों का एक बड़ा गुट शरद यादव और लालू प्रसाद के साथ सिर्फ एक आश्वासन भर से जुड़ने को तैयार है कि चुनाव हों अथवा उप चुनाव उन्हें टिकट मिलेगा और उनकी चुनावी जीत सुनिश्चित करने के ईमानदार प्रयास होंगे. इसका एहसास सृजन घोटाले और भयावह बाढ़ की विभीषिका का भी सामना कर रहे नीतीश कुमार और उनके सहयोगी भाजपा-राजग के लोगों को भी है. आश्चर्य नहीं होगा कि महागठबंधन के साथ जुड़ रहे दलों, नेताओं और राजनीतिक ताकतों को इससे विमुख करने के प्रयास के बतौर प्रलोभन और दबाव भी नए सिरे से नजर आने लगें. 
   
से राजनीतिक विडंबना भी कह सकते हैं कि कभी 1960 के दशक के मध्य में अपराजेय बनते जा रही कांग्रेस को राज्यों और केंद्र में भी अपदस्थ करने के लिए समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की रणनीति तैयार की थी. इस रणनीति के तहत जनसंघ, सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, भारतीय क्रांति दल, संगठन कांग्रेस, स्वतंत्र पार्टी आदि गैर कांग्रेसी दलों ने चुनावी गठबंधन कर कई राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया था. केंद्र में भी इस तरह का कोई राजनीतिक प्रयोग सफल हो पाता उससे पहले ही एक तो डा. लोहिया का असामयिक निधन हो गया, दूसरे गैर कांग्रेसी, संयुक्त विधायक दल की सरकारें तयशुदा न्यूनतम साझा कार्यक्रमों की अनदेखी और उपेक्षा करते हुए अपने अंतर्विरोधों के बोझ तले चरमरा कर गिर गई थीं. सत्तर के दशक में एक बार फिर समाजवादी-सर्वोदयी नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण के निर्देशन या कहें दबाव में जनता पार्टी के रूप में गैर कांग्रेसी दलों का एका हुआ और उस समय सर्व शक्तिमान कही जानेवाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस को केंद्र में भी राजनीतिक पराभव का सामना करना पड़ा था लेकिन वह प्रयोग भी लंबा नहीं चल सका और 1980 में श्रीमती गांधी एक बार फिर प्रचंड जन समर्थन से सत्तारूढ़ हुई थीं. 1989 में एक बार फिर कांग्रेस से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी दलों का जमावड़ा सत्तारूढ़ हुआ लेकिन यह राजनीतिक प्रयोग भी काल कवलित हो गया. बाद के वर्षों में भाजपा के राजनीतिक रूप से ताकतवर होते जाने और उसके नेतृत्व में आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के अपने सांप्रदायिक एवं फासीवादी स्वरूप में सामने आते जाने के बाद गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी दलों ने कांग्रेस के सहयोग से कभी राष्ट्रीय लोतांत्रिक मोर्चा तो कभी संयुक्त मोर्चा के नाम से तीसरा मोर्चा खड़ा करने की कोशिशें की जो कुछ हद तक कामयाब भी हुईं लेकिन दीर्घकालिक साबित नहीं हो सकीं.  

अब एक बार फिर तमाम गैर भाजपा-गैर राजग दलों के नेता नए सिरे से उसी कांग्रेस को साथ लेकर ’गैर भाजपावाद’ की रणनीति तैयार करने में लगे हैं जिसके विरुद्ध गैर कांग्रेसवाद की रणनीति बनी थी. कांग्रेस के भीतर भी एक बड़े तबके या कहें नेतृत्व की राय भी बन रही है कि मौजूदा परिस्थितियों में कांग्रेस भाजपा- राजग को सीधे और अकेले शिकस्त दे सकने की स्थिति में नहीं है. इसके लिए किसी न किसी तरह का विपक्षी महागठबंधन खड़ा करना ही होगा. 

दरअसल, बिहार, दिल्ली और पंजाब विधानसभा के चुनावी नतीजों को अपवाद मान लें तो मई 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए अधिकतर राज्यों में विधानसभा चुनाव, उप चुनाव और कुछ राज्यों में नगर निकायों और पंचायत के चुनावों में भी अपराजेय और विजेता बनकर उभरी भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राजग की चुनावी सफलता के लिए अन्य कारणों के अलावा विपक्षी मतों के बंटवारे को ही मुख्यरूप से जिम्मेदार माना जा रहा है. लोकसभा चुनाव हों अथवा झारखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर, असम और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्य विधानसभाओं और महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली के नगर निकायों के चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को मिले मतों के प्रतिशत के मुकाबले अगर अलग अलग होकर लड़े विपक्षी दलों को मिले मतों के प्रतिशत को जोड़कर देखें तो संयुक्त विपक्ष सत्तारूढ़ भाजपानीत राजग पर निर्णायक रूप से भारी दिखता है. अगर विपक्षी दल अपने निजी अहंकार, वैमनस्य और अपनी राजनीतिक ताकत के बारे में अपने अतिरेकी आकलन को परे रखकर मिलकर अथवा किसी तरह का चुनावी तालमेल कर चुनाव लड़े होते तो नतीजों की शक्ल कुछ और नजर आती. 

लेकिन इस तरह के किसी महागठबंधन को लेकर कई सवाल और आशंकाएं भी हैं. मसलन  महागठबंधन का नेता कौन होगा! राहुल गांधी, शरद यादव, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल समेत कई दावेदार दिख रहे हैं. राहुल गांधी से इतर क्षेत्रीय दलों का कोई भी ऐसा नेता नहीं है जिसका एक राज्य के बाहर संगठन और जनाधार हो. कांग्रेस की उपस्थिति जरूर कई राज्यों में है लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व में कितने दल और नेता राजी होंगे, यह भी एक सवाल है. इसके साथ ही सबसे बड़ी मुश्किल उन राज्यों में होगी जहां कभी कांग्रेस का राजनीतिक वर्चस्व रहा है लेकिन हाल के वर्षों में वहां कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई है. उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिसा, दिल्ली, आंध्र-तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कोई न कोई क्षेत्रीय दल मजबूत राजनीतिक ताकत के रूप में उभरा है. केरल और ओडिसा जैसे राज्यों में कांग्रेस का मुख्य मुकाबला वाम दलों और बीजद से है लेकिन तीसरी ताकत के रूप में वहां जड़ें जमा और फैला रही भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस-वाम दलों और बीजद को भी किसी न किसी तरह का राजनीतिक तालमेल करना होगा जिससे गैर भाजपा दलों का जनाधार बंटने और बिखरने नहीं पाए. इसी तरह से पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस, वाम दलों और कांग्रेस के बीच किस तरह की एकजुटता बन सकेगी. उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा, कांग्रेस आौर आरएलडी क्या एक साथ आ सकेंगे. यह महागठबंधन क्या सिर्फ मोदी और भाजपा विरोध तक ही सीमित रहेगा या फिर उसे आगे ले जाने के लिए सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी बनेगा. इन जटिल सवालों के जवाब मुश्किल हैं लेकिन असंभव नहीं. महागठबंधन का नेता कौन होगा, इस तरह के सवालों के जवाब के लिए विपक्ष के पास अभी बहुत समय है. 
नोट :  इस लेख के सम्पादित अंश 27अगस्त ,2017 को बीबीसी हिंदी.कॉम पर प्रकाशित 

Thursday, 3 August 2017

बिहार की राजनीति और नीतीश की नैतिकता का डीएनए

नजरिया 

जयशंकर गुप्त 

''उसी को जीने का हक है जो इस जमाने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए.''



ताज़ा घटनाक्रम में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भूमिका पर लिखते हुए मशहूर शायर वसीम बरेलवी का ये शेर याद आ गया.
 तीन-चार दिन पहले तक 'संघ मुक्त भारत' बनाने और 'मिट्टी में मिल जाने मगर भाजपा के साथ हाथ नहीं मिलाने' की बातें करते रहे नीतीश कुमार ने जब 27 जुलाई की शाम अपने महागठबंधन सरकार के बड़े पार्टनर लालू प्रसाद यादव और उनके राजनीतिक कुनबे के 'भ्रष्टाचार' से 'आजिज' आकर कार्यवाहक राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी को अपना त्यागपत्र सौंपा तो लोगों को लगा कि राजनीति में भ्रष्टाचार के विरुद्ध नीतीश कुमार ने बड़ा साहसिक क़दम उठाया है.
नीतीश कुमार पिछले कई दिनों से अपने उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के त्यागपत्र के लिए दबाव बनाए हुए थे क्योंकि पिछले कुछ दिनों से लालू कुनबे की 'बेनामी संपत्ति' पर लगातार छापामारी अभियान में लगी सीबीआई ने तेजस्वी यादव के विरुद्ध भी एक मामले में एफ़आइआर दर्ज की थी. हालांकि नीतीश कुमार ने कभी तेजस्वी के त्यागपत्र की खुली मांग नहीं की थी लेकिन यह कहकर दबाव जरूर बनाया कि उनकी सरकार में भ्रष्टाचार का कोई आरोपी कैसे रह सकता है. इसके साथ ही उन्होंने तेजस्वी से बिंदुवार स्पष्टीकरण देने की माँग भी की.

नीतीश के त्यागपत्र देकर राजभवन से बाहर आते ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट करके उन्हें बधाई दी, कुछ ही घंटों में नीतीश कुमार को न सिर्फ भाजपानीत एनडीए का समर्थन मिला बल्कि उनके साथ सरकार साझा करने की घोषणा भी हो गयी, इससे नीतीश के 'साहसिक क़दम' की हवा निकल गई. उनके निवास पर जेडीयू और बीजेपी विधायकों के रात्रिभोज ने भी यही संकेत दिया कि 'साहसिक क़दम' की घोषणा भले ही 27 जुलाई की शाम को की गई हो, इसकी पटकथा पहले से ही लिखी जा चुकी थी.

चाहे सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी का समर्थन हो या फिर दिल्ली में बिना किसी जनाधार के सिर्फ भाजपा को राजनीतिक लाभ पहुंचाने की गरज से नगर निगमों के चुनाव लड़ने की घोषणा, अपने  प्रवक्ता के सी त्यागी से यह बयान दिलवाकर कि भाजपा के साथ वे ज्यादा सहज महसूस करते हैं और फिर राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन कर वह लगातार इस बात के संकेत दे रहे थे कि उनके मन में क्या चल रहा है.

हालांकि इसके साथ ही विपक्षी एकता और सांप्रदायिक ताक़तों के साथ संघर्ष की अपनी प्रतिबद्धता के इजहार, कांग्रेस के नेताओं से मुलाकात और उप राष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार गोपालकृष्ण गांधी के समर्थन की बात कर वह विपक्ष को भी लगातार झांसे में रखे हुए थे. इस सबके बावजूद नीतीश कुमार की राजनीति में मूल्य, नैतिकता और ईमानदारी के तत्व देखनेवाले राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि अगर वह अपने त्यागपत्र के साथ ही विधानसभा भंग करवाकर नए चुनाव कराने की सिफ़ारिश करते तो कुछ और बात होती. भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनकी प्रतिबद्धता भी कुछ ज्यादा निखर कर सामने आती. लेकिन ऐसा उनकी पहले से ही तैयार पटकथा में लिखा ही नहीं था और उन्होंने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी प्रतिबद्धता के नाम पर उनसे हाथ मिला लिया जिन्हें वह मनुवादी, सांप्रदायिक, फ़ासिस्ट करार देते हुए 'संघ मुक्त भारत' की बातें करते थे.  ौंके साथ सर्कार साझा करने को राजी हो गए जिन्होंने न सिर्फ उनके बल्कि उनके बहाने पुरे बिहार के डी एन ए  पर सवाल उठाये थे. 

रअसल, समाजवादी नेता और विचारक डा. राममनोहर लोहिया के नाम पर राजनीति करनेवाले तमाम कथित समाजवादियों की यह आदत रही है कि अपनी सुविधा के हिसाब से कभी गैर-कांग्रेसवाद और भ्रष्टाचार के विरोध के नाम पर जनसंघ और भाजपा के साथ हो लेते हैं और जब किसी वजह से असुविधा महसूस हुई तो सांप्रदायिकता और मनुवाद के विरोध के नाम पर कांग्रेस के साथ हाथ मिला लेने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ. नीतीश कुमार के साथ भी कुछ ऐसा ही है. लोहिया- जेपी के आंदोलन में लालू प्रसाद के साथ रहे नीतीश 1990 में बिहार में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनने के समय उनके बेहद करीबी सहयोगी रहे.उस समय लालू-नीतीश की जुगल जोड़ी बहुत मशहूर थी लेकिन कुछ ही वर्षों में निजी अहंकारों के टकराव के बाद दोनों के रास्ते अलग हो गए. उधर जनता दल की राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर धकेले जाने से तेज तर्रार समाजवादी नेता जार्ज फ़र्नांडिस भी ख़ासे परेशान थे. दोनों ने जनता दल से अलग होकर समता पार्टी बना ली. 1995 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार पहली बार आमने सामने थे.

मीडिया ने और बिहार के सवर्ण समाज ने उस समय नीतीश कुमार की राजनीति में ख़ूब हवा भरी थी लेकिन जब चुनावी नतीजे सामने आए तो नीतीश कुमार की समता पार्टी सीटों के हिसाब से दहाई का आंकड़ा भी नहीं पार कर सकी. आगे चलकर नीतीश कुमार ने जार्ज फ़र्नांडिस पर दबाव बनाकर उन्हें भाजपा के साथ चुनावी गठबंधन के लिए राजी किया. हालांकि उन्हें बिहार में लालू प्रसाद को अपदस्थ करने और  भाजपा के साथ साझेदारी कर खुद सत्तारूढ़ होने का अवसर 2005 में ही मिला लेकिन वह 1998 से लेकर 2004 तक एनडीए का हिस्सा बनकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों में रेल, भूतल परिवहन और कृषि मंत्री जरूर बनते रहे.

भाजपा के साथ उनका राजनीतिक हनीमून 2013 तक बख़ूबी चलता रहा. यहां तक कि 2002 के गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद भी उन्होंने भाजपा और एनडीए से अलग होने की ज़रूरत नहीं समझी. हालांकि इस दौरान उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से अपनी अलग तरह की दूरी जरूर बना रखी थी. अपने उस समय के डिप्टी और संयोग से इस बार भी डिप्टी ही बने सुशील मोदी के
ज़रिए दबाव बनाकर नरेंद्र मोदी को बिहार से बाहर ही रखा. यहां तक कि 2010 के विधानसभा चुनाव में भी मोदी को बिहार में अपनी पार्टी के चुनाव अभियान में भी शामिल नहीं होने दिया गया.
गुस्से से लाल-पीले हुए नीतीश 
लेकिन इस बीच भाजपा पर नरेंद्र  मोदी का दबदबा बढ़ने लगा था और अंदरखाने बिहार में भी जेडीयू और भाजपा गठबंधन के बीच कटुता और अविश्वास की खाई भी बढ़ने लगी थी. भाजपा ने बड़ी चालाकी से पटना में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक आयोजित की और उस बहाने नरेंद्र मोदी भी वहां गए. यही नहीं भाजपा के कुछ उत्साही लोगों ने मोदी के साथ अमृतसर के किसी कार्यक्रम में ली गई नीतीश कुमार की तस्वीर के साथ कुछ अख़बारों में बड़े-बड़े विज्ञापन प्रकाशित करवा दिए. ग़ुस्से से लाल पीले हुए नीतीश कुमार ने जवाब में नरेंद्र मोदी सहित भाजपा के नेताओं के लिए दिए जानेवाले अपने रात्रिभोज को रद्द करवा दिया. यही नहीं बिहार के बाढ़ पीड़ितों को दी गई गुजरात सरकार की मदद के बारे में किए गए प्रचार से क्षुब्ध नीतीश कुमार ने पूरी रकम गुजरात सरकार को वापस कर दी थी. उस समय नीतीश कुमार के मन मस्तिष्क में सांप्रदायिकता के विरोध का ज्वार तेज़ी से उमड़ने लगा और भाजपा के द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अपना उम्मीदवार घोषित करने के बाद तो जैसे नीतीश कुमार ने आपा ही खो दिया. उन्होंने एक झटके में अपनी सरकार से भाजपा के सभी मंत्रियों को बर्ख़ास्त कर दिया था.

इस तरह से भाजपा के साथ नीतीश कुमार का 15-16 साल पुराना राजनीतिक गठबंधन टूट गया. किसी तरह वह अपनी सरकार बचा पाने में वे सफल रहे. 2014 का लोकसभा चुनाव वह अकेले दम पर 'सुशासन बाबू' की अपनी छवि के सहारे लड़े लेकिन उनकी यह छवि किसी काम नहीं आई और बिहार की 40 में से केवल दो लोकसभा सीटें ही उनके जेडीयू के खाते में आ सकीं. '

लालू प्रसाद के साथ हुए
लोकसभा का चुनाव बुरी तरह से हारने के तुरंत बाद ही उन्हें इलहाम हुआ कि भाजपा और आरएसएस की चुनौतियों का जवाब वह अकेले नहीं दे सकते. और बिना समय गंवाए वह एक कुशल पैंतरेबाज की तरह लालू प्रसाद के पास पहुंच गए जिनके साथ उनका दो दशकों से छत्तीस का आंकड़ा था. लालू प्रसाद उस समय भी चारा घोटाले में सज़ायाफ्ता थे और आज भी हैं लेकिन तब शायद सांप्रदायिकता के जवाब में नीतीश कुमार के लिए लालू यादव का भ्रष्टाचार और परिवारवाद गौण हो गया. उन्होंने लालू प्रसाद को समझाया (लालू प्रसाद के शब्दों में कहें तो गिड़गिड़ाया) कि दोनों के एकजुट हुए बगैर भाजपा को बिहार में शिकस्त नहीं दी जा सकती. बाद में अपनी चुनौती को और मज़बूत बनाने की गरज से कांग्रेस को भी साथ लेकर महागठबंधन तैयार कर लिया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि बिहार के दलितों, महादलितों, पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों ने एकजुट होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में देश भर में चल रहे भाजपा  के विजय रथ को रोक कर अपने डीएनए को दिखा  दिया.

तीन चौथाई बहुमत के साथ नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार बन गई बावजूद इसके कि ज़्यादा (80) विधायक राजद के जीत कर आए थे और जद-यू के केवल 71  विधायक ही जीत सके थे. कांग्रेस के खाते में 27 विधायक आए थे. सरकार के गठन में भी नीतीश कुमार ने बड़ी चालाकी से मुख्यमंत्री पद के साथ ही विधानसभाध्यक्ष का पद भी अपने पास रख लिया ताकि गाढ़े समय में काम आ सके-आए भी.

कसमसाहट में थे नीतीश !

लेकिन कभी नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के बेहद करीबी रहे समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी के अनुसार अपने से सीनियर लालू प्रसाद की छाया में और इस बात के एहसास से भी कि आरजेडी के पास ज़्यादा विधायक हैं, नीतीश कुमार महागठबंधन में एक अजीब तरह की कसमसाहट महसूस कर रहे थे. वह ख़ुद को उस तरह सहज महसूस नहीं कर पा रहे थे जैसा कभी वह भाजपा और सुशील मोदी के साथ महसूस कर रहे थे. गाहे बगाहे राजद के लोगों की तरफ से इस तरह की बयानबाजी भी सामने आती रहती थी कि राजद के पास ज़्यादा विधायक हैं. ये बातें भी खुसुरपुसुर के ज़रिए सामने आती थीं कि अब नीतीश सरकार में उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के राज्यारोहण का समय आने लगा है.

इस बीच और ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के बाद से ही नीतीश कुमार को यह लगने लगा कि 2019 में भी नरेंद्र मोदी को शिकस्त दे पाना मुश्किल है. इसके साथ ही उन्हें यह भी समझ में आया कि 2019 में उन्हें विपक्ष के तथाकथित महागठबंधन की धुरी और चेहरा बनाने की बातें जितनी भी की जा रही हों, बिहार में अपने दल के महज दर्जन भर सांसद जिता पाने की अपनी राजनीतिक ताक़त के मद्देनज़र देश के शीर्ष नेतृत्व को पाने की उनकी महत्वाकांक्षा पूरी होनी मुश्किल है. कांग्रेस का नेतृत्व तत्काल उन्हें मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने को भी तैयार नहीं था. ऐसे में सुशील मोदी और अरुण जेटली के ज़रिए वह भाजपा आलाकमान यानी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ भी अपने राजनीतिक तार जोड़े हुए थे. कभी जेटली के करीबी रहे संजय झा, नीतीश कुमार के भी बेहद करीबी और जेडीयू के विधानपार्षद भी हैं.
दूसरी तरफ, नीतीश कुमार का अपने राजनीतिक भविष्य के बारे में चाहे जो भी आकलन रहा हो, नरेंद्र मोदी उन्हें अपने लिए भविष्य की मजबूत चुनौती ही मानते थे. इसलिए उन्होंने अतीत की सारी कड़वाहटों को भुलाकर नीतीश कुमार को अपनी शरण में लेने के लिए हामी भर दी. हालांकि नरेंद्र मोदी की राजनीतिक कार्यशैली को बारीकी से जानने और समझानेवाले लोग जानते हैं कि उन्हें कभी आंख दिखानेवाले उनके राजनीतिक विरोधियों को वह आसानी से माफ़ नहीं कर पाते. और अब तो कभी उन्हें आंख ही नहीं दिखाने बल्कि अपमानित करनेवाले नीतीश कुमार उनके शरणागत भी हैं.

तैयार थी योजना

राजनीतिक प्रेक्षकों की सुनें तो यह संयोग मात्र नहीं था कि एक तरफ भाजपा नेता सुशील मोदी ने अचानक लालू प्रसाद के कुनबे के कथित भ्रष्टाचार के मामलों को 'दस्तावेज़ी सबूतों' के आधार पर उजागर करना शुरू कर दिया और उधर सीबीआई, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय जैसी केंद्र सरकार की एजेंसियां लालू प्रसाद के कुनबे के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सक्रिय हो गईं. अब तो लालू प्रसाद और उनके परिवार के लोग यह आरोप भी लगा रहे हैं कि उनके कथित भ्रष्टाचार के मामलों से जुड़ी फाइलें और दस्तावेज़ नीतीश कुमार और उनके करीबी लोग ही मोदी के पास पहुंचाने में लगे थे. दनादन छापे पड़ने लगे. घंटों पूछताछ होने लगी. हालांकि इन छापेमारियों और पूछताछ में ठोस क्या क्या निकला इसे आज तक आधिकारिक तौर पर नहीं बताया गया. सिर्फ़ सूत्रों के हवाले से खबरें बाहर आती रहीं. इस बीच भ्रष्टाचार के एक मामले में तेजस्वी यादव के खिलाफ सीबीआई की प्राथमिकी ने नीतीश कुमार को सुअवसर और मनचाहा राजनीतिक अस्त्र प्रदान कर दिया.

हालांकि महज प्राथमिकी दर्ज होने के आधार पर राजनीतिकों के पद त्याग के उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं. इस आधार पर पदत्याग की मांग भी विरोधी तो करते हैं लेकिन जिनके भरोसे सरकार चल रही हो वे सत्ता के साझीदार इस तरह की मांग कम ही करते हैं. वैसे भी, बीएस मामले में नीतीश कुमार पर तेजस्वी यादव के त्यागपत्र लेने का अथवा महागठबंधन तोड़  दबाव बनाने वाली भाजपा  केंद्रीय मंत्री सहित कई वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ अभियोगपत्र दाखिल होने के बावजूद वे लोग अपने पदों पर  हुए हैं. और तो और मध्यप्रदेश सर्कार में तो एक मंत्री नरोत्तम मिश्रा  विधानसभा चुनाव भ्रष्ट आचरण का आरोप साबित होने के बाद चुनाव आयोग ने रद्द करते हुए उनके तीन साल तक चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दी है. सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रपति के चुनाव में उन्हें मतदान करने की छूट भी नहीं दी. लेकिन वह बड़ी शान मन्त्र बने हुए हैं. ताज्जुब तो इस बात का भी है की स्याम नितीश कुमार और उनके भाजपाई डेपुटी शुशील मोदी पर भी कई मामले दर्ज हैं.

नीतीश कुमार चाहते तो क़ानून को अपना काम करने देने के बहाने तेजस्वी के ख़िलाफ़ अभियोगपत्र दाख़िल होने और उनकी गिरफ़्तारी का इंतज़ार कर सकते थे, वैसी हालत में तेजस्वी को त्यागपत्र देना ही पड़ता. लेकिन उन्होंने इसकी ज़रूरत नहीं समझी. उन्होंने तो अपने लिए कुछ अलग तरह की ही राजनीतिक पटकथा तैयार करवा रखी थी जिसकी भनक अपने कुछेक ख़ास लोगों को छोड़कर अपने दल के सांसदों, विधायकों तथा शरद यादव जैसे वरिष्ठ नेताओं को भी नहीं लगने दी थी.

और फिर बिहार में द्विज मानसिकता के लोगों, उनसे प्रभावित और संचालित मीडिया का भी नीतीश कुमार पर तेजस्वी यादव के 'भ्रष्टाचार' से समझौता नहीं करने का दबाव था. उनकी सुशासन बाबू की छवि को ललकारा जा रहा था. यह बताने की आवश्यकता नहीं कि लंबे अरसे से बिहार के एक बड़े और मुखर (सवर्ण) तबके की आंखों में लालू यादव और नीतीश कुमार का गठबंधन किरकिरी की तरह से चुभ रहा था.ठीक वैसे ही जैसे कि नब्बे के शुरुआती दशक में चुभ रहा था. वे लोग 1994-95 की तर्ज पर ही इन दोनों को किसी भी कीमत पर अलग करवाने में जुटे थे. इसमें एक बार फिर वे सफल रहे.

नीतीश कुमार की एक ख़ासियत यह भी है कि जब वह सत्ता में होते हैं तो उन्हें अपनी अभिजात्य संस्कृति और उसकी सोहबत पसंद आती है. वह इसी तरह की मीडिया और नौकरशाही से घिरे रहने में खुद को सहज महसूस करते हैं लेकिन जब चुनाव आता है तो उन्हें यह एहसास होने में देर नहीं लगती कि यह तबका उनके पक्ष  माहौल चाहे जितना भी बना दे, उन्हें चुनाव नहीं जिता सकता, इसके लिए उन्हें दलितों, अपने सजातीय कुर्मी जनाधार के साथ ही अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों और बाहुबलियों का समर्थन आवश्यक नजर आने लगता है.

जहां तक भ्रष्टाचार के साथ नीतीश कुमार के कभी समझौता नहीं करने की बात है, शिवानंद तिवारी इसे उनका राजनीतिक ढोंग करार देते हैं. वह सवाल करते हैं, ''यह कैसी नैतिकता और ईमानदारी है जो सज़ायाफ्ता लालू प्रसाद के साथ चुनावी महागठबंधन को तो जायज ठहराती है लेकिन भ्रष्टाचार के पुराने मामले में महज प्राथमिकी दर्ज किए जाने को गठबंधन तोड़ने का आधार बना देती है. जिस समय लालू प्रसाद के दोनों बेटे चुनाव लड़ रहे थे, सरकार में मंत्री बने थे तब क्या नीतीश को इन मामलों की जानकारी नहीं थी? और फिर अगर प्राथमिकी दर्ज़ होना ही किसी के भ्रष्टाचार का सबूत है तो उनके खुद के और सुशील मोदी के ख़िलाफ़ भी तो क्रमशः हत्या और भ्रष्टाचार के आरोप हैं, इस पर नीतीश कुमार क्या कहेंगे.'' 

बिहार की राजनीति को बारीकी से जानने-समझनेवाले पूछते हैं कि नीतीश कुमार ने किस नैतिकता के आधार पर 1980 के बाद से ही, एक दो वर्ष के छोटे अंतराल को छोड़कर किसी न किसी दल के सहारे एक बार लोकसभा और फिर लगातार राज्यसभा का सदस्य बने चले आ रहे महेंद्र प्रसाद उर्फ किंग महेंद्र और अंबानी परिवार के खासमख़ास नौकरशाह रहे एनके सिंह उर्फ नंदू बाबू को राज्यसभा के टिकट दिए थे? उनके पिछले (सुशील मोदी के साथ गलबहियांवाले) कार्यकाल के दौरान अनंत सिंह जैसे अपराधी और बाहुबली छवि के कई विधायकों को मुख्यमंत्री और उनकी सरकार की सरपरस्ती हासिल थी. आज भी अनंत सिंह उनके बेहद करीबी कहे जाते हैं. भ्रष्टाचार के साथ किसी भी क़ीमत पर समझौता नहीं करने का दावा करने वाले नीतीश कुमार क्या बताएंगे कि चुनावों में उनके पास पैसे कहां से आते हैं जिससे वह अपना महंगा चुनाव अभियान और प्रशांत किशोर जैसे महंगे चुनाव प्रबंधक का ख़र्चा भी उठा पाते हैं.

हरहाल, बदले माहौल में  नीतीश कुमार की सरकार तो बची रह सकती है. हालांकि उनके नए गठबंधन में उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी के रुख को देखते हुए दरार अभी से नजर आने लगी है, शारद यादव के नेतृत्व में जेडीयू में भी एक बड़ा तबका उनकी नई राजनीति को अपने गले से नीचे उतार पाने में असहज महसूस कर रहा है. इससे बचने के लिए वह और उनके नए गठबंधन सहयोगी गुजरात और उत्तर प्रदेश की तर्ज पर राजद और कांग्रेस के विधायकों में सेंध लगाने की रणनीति पर अमल कर सकते हैं लेकिन इसके लिए भी नीतीश कुमार को अपनी प्रचारित राजनीतिक छवि के साथ समझौता ही करना पड़ेगा.

वैसे भी बिहार का मुखर तबका और मीडिया का एक बड़ा तबका भले ही अगले कुछ दिनों तक उनकी नैतिक, मूल्यपरक और ईमानदार राजनीति के कसीदे पढ़ते नजर आए, 2015 के विधानसभा चुनाव में उनके नेतृत्व और गठबंधन के पक्ष में लामबंद हुए और उनमें भविष्य का प्रधानमंत्री देखने लगे पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों के लोग, दलित एवं अल्पसंख्यक तो एक बार फिर छला गया ही महसूस कर रहे हैं. और दोबारा भाजपा के साथ मोहभंग की स्थिति में, जो असंभव नहीं है, उनके सांप्रदायिकता विरोधी नारों पर ये लोग कैसे यक़ीन करेंगे?

नोट : इस लेख का सम्पादित रूप 30 जुलाई  को बी बी सी, हिंदी की वेबसाइट पर प्रकाशित।