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Tuesday, 7 September 2021

Hal Filhal : PM MATERIAL NITISH KUMAR !

तो क्या नीतीश कुमार हैं पीएम मटीरियल !


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/xXi2Ze03CuQ

तो क्या नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल यानी प्रधानमंत्री पद के काबिल बताया जाना एक राजनीतिक शिगूफा भर है! क्या इसका राजनीतिक मकसद अपने राजनीतिक सहयोगी भाजपा पर दबाव बनाना, जनता दल (यू) को राष्ट्रीय दल की पहिचान दिलाना भर है या नीतीश कुमार एक बार फिर पलटी मारकर 2024 के संसदीय चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को चुनौती देने के इरादे से विपक्ष का चेहरा बनने की संभावनाओं पर काम कर रहे हैं! या फिर यह जद (यू)  के अंदरूनी मतभेदों को दबाने और खबरों में बने रहने की कवायद भर है!

    इन दिनों बिहार की राजनीति में पीएम यानी प्रधानमंत्री मटीरियल की चर्चा बहुत जोरों पर है. बिहार में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का रिकार्ड बनानेवाले नीतीश कुमार को उनकी पार्टी के लोग एक अरसे से पी एम मटीरियल मानते और बताते रहे हैं लेकिन इस बार जब 29 अगस्त को जनता दल (यू) की राष्ट्रीय परिषद ने इस आशय का एक राजनीतिक प्रस्ताव भी पास कर दिया तो बात में गंभीरता नजर आने लगी है. पक्ष और विपक्ष में भी तर्क कुतर्क दिए जाने लगे हैं. यह बात और है कि अभी प्रधानमंत्री पद के लिए कोई रिक्ति नजर नहीं आ रही है.

नीतीश कुमारः राजनीतिक विश्वसनीयता का सवाल !
    जाहिरा तौर पर नीतीश कुमार पहले भी इससे इनकार करते रहे हैं और इस बार भी उन्होंने यही कहा है कि वह इन बातों पर ध्यान नहीं देते. पार्टी में लोग इस तरह की बातें करते रहते हैं. लेकिन उनकी मौजूदगी में उनकी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में इस तरह का राजनीतिक प्रस्ताव कैसे पास हो गया ! ऐसा तो संभव ही नहीं है कि उनकी जानकारी और सहमति के बिना यह प्रस्ताव तैयार और पास भी हो गया हो ! हालांकि इस प्रस्ताव को पास करते समय भी उनकी पार्टी के नेताओं ने यह साफ नहीं किया कि वह प्रधानमंत्री कब और कैसे बनेंगे. लोकसभा के चुनाव पौने तीन साल बाद होने हैं और अभी वह जिस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में शामिल हैं, उसमें प्रधानमंत्री का पद और भविष्य की दावेदारी भी खाली नहीं है. उनके समर्थक और उन्हें प्रधानमंत्री पद के काबिल बताने वाले उनकी पार्टी के नेता क्या यह सोचते हैं कि 2024 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी भाजपा में उम्र के पैमाने के मद्देनजर प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं रहेंगे और भाजपानीत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा संचालित राजग बिहार की बादशाहत की तरह ही लोकसभा में 15-20 सांसद की राजनीतिक ताकतवाले नीतीश कुमार को नेतृत्व की दावेदारी सौंप देगा! फिलहाल तो यह द्विवा स्वप्न से अधिक कुछ और नहीं लगता.
 

कैसे बनेंगे वैकल्पिक चेहरा !


    इसके लिए दूसरा विकल्प 2024 में संयुक्त विपक्ष उन्हें अपना वैकल्पिक चेहरा मानकर चुनाव लड़े. तो क्या उनकी निगाह एक बार फिर से पलटी मार कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के विरोध में बननेवाले किसी संभावित राजनीतिक गठबंधन का नेतृत्व करने की ओर लगी है. एक अरसे से उन्हें विपक्षी गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध सर्वमान्य विकल्प के बतौर देखा जाते रहा है. संभव है कि मौजूदा विपक्ष में कांग्रेस के अंदरूनी झगड़ों, वैकल्पिक नेतृत्व पर सहमति के अभाव, ममता बनर्जी और कुछ अन्य क्षेत्रीय नेताओं की संभावित दावेदारी के मद्देनजर उनके भीतर भी एक बार फिर से प्रधानमंत्री बनने की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हिलोर मारने लगी हों. उनके करीबी लोगों को लगता है कि वह विपक्ष का चेहरा बन सकते हैं. जेल से बाहर आने के बाद से ही हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला गैर कांग्रेसी, गैर भाजपा दलों को जोड़कर तीसरा मोर्चा फिर से खड़ा करने की कवायद में लगे हैं. वह नीतीश कुमार तथा कुछ अन्य नेताओं से मिल भी चुके हैं. अगले 25 सितंबर को उन्होंने अपने पिता, पूर्व उप प्रंधानमंत्री चौधरी देवीलाल की जयंती के अवसर पर हरियाणा के जींद में एक बड़ा समारोह (मिलन समारोह) आयोजित कर उसमें नीतीश कुमार, समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव, जनता दल (एस) के नेता, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा, अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल, तेलुगु देशम पार्टीप के चंद्रबाबू नायडू, रालोद के जयंत चौधरी, एनसीपी के शरद पवार, नेशनल कान्फ्रेंस के डा. फारुख अब्दुल्ला और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी को भी बुलाया है. इनमें से कौन कौन वहां जुटता है और आगे की रणनीति क्या बनती है, यह देखने की बात होगी. हालांकि ओमप्रकाश चौटाला इन दिनों स्वयं हरियाणा में अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनका राजनीतिक कुनबा बिखर चुका है. उनके पुत्र अजय चौटाला और पौत्र दुष्यंत चौटाला हरियाणा में भाजपा के साथ मिलकर साझा सरकार चला रहे हैं.  

राजीव रंजन उर्फ ललन सिंहः जद (यू) को राष्ट्रीय पहिचान दिलाना है
    नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री मटीरियल बताने के पीछे उनकी और उनके जद (यू) की राष्ट्रीय पहिचान बनाने की कवायद भी हो सकती है. जद (यू) नेताओं की कोशिश उत्तर प्रदेश और मणिपुर विधानसभा के चुनाव में भी अगर भाजपा से बात बन जाती है तो उसके साथ मिलकर और सम्मानजनक सीटें नहीं मिलने पर अपने बूते भी तकरीबन आधी सीटों पर चुनाव लड़ने की लगती है. इसके लिए अभी उनके पास प्रचुर समय भी है. भाजपा के साथ उनकी बात भी हो रही है. अगले साल ही जम्मू-कश्मीर और गुजरात विधानसभा के चुनाव भी होने हैं. जद (यू) की कोशिश इन राज्य विधानसभाओं के चुनाव में कुछ सीटें और अपेक्षित मत प्रतिशत हासिल कर चुनाव आयोग से राष्ट्रीय दल की मान्यता हासिल करने की हो सकती है. मणिपुर, गुजरात और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में उसकी पहले भी मौजूदगी रही है. राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह ने कश्मीर यात्रा कर वहां भी पार्टी के पांव पसारने और चुनाव लड़ने के संकेत दिए हैं. केंद्र सरकार में कृषि, भूतल परिवहन एवं रेल जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाल चुके नीतीश कुमार की राष्ट्रीय राजनीति में अपनी अलग तरह की पहिचान भी रही है.

पहले भी मन में उठी थी हूक !

    
    नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री मटीरियल वाली राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं इससे पहले भी कई बार हिलोर मार चुकी हैं. 2014 के संसदीय चुनाव के समय भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किए जाने के विरोध में उनकी पार्टी ने भाजपा और राजग से अलग होकर चुनाव लड़ा था. उनकी कोशिश कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ने की थी लेकिन बात नहीं बनी और लोकसभा चुनाव में उनके हिस्से में केवल दो ही सीटें आई थीं. भाजपा, लोजपा ओर रालोसपा का गठबंधन बिहार में तीन चौथाई सीटें जीतने में कामयाब हुआ था. लेकिन इसके बाद 2015 में बिहार विधानसभा का चुनाव उन्होंने कांग्रेस और अपने राजनीतिक विरोधी लालू प्रसाद यादव के राजद के साथ मिलकर लड़ा और शानदार जीत हासिल कर एक बार फिर वह बिहार के मुख्यमंत्री बने. हालांकि विधानसभा में उनकी पार्टी के पास राजद से कुछ कम सीटें थीं और इसको लेकर वह कुछ दबाव भी महसूस करते थे. उस समय भी, 2019 के संसदीय चुनाव में कुछ विपक्षी दलों की ओर से उन्हें मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने की कवायद शुरू हुई. कुछ समाजवादी बौद्धिकों ने भी उनके पक्ष में दिल्ली से माहौल बनान शुरू किया था. लेकिन नीतीश कुमार चाहते थे कि उन्हें यूपीए में संयोजक जैसा कोई पद देकर यूपीए उनके नेतृत्व में ही लोकसभा का चुनाव लड़े. लेकिन यह कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाले यूपीए को मंजूर नहीं था. और भी कुछ बातें थीं जिनसे उनका कांग्रेस और राजद के साथ मोहभंग सा होता गया. और इसी क्रम में विधानसभा के भीतर यह कहने के बावजूद कि रहें या मिट्टी में मिल जाएं, अब कभी भाजपा से हाथ नहीं मिलाएंगे, उन्होंने 2017 में दोबारा भाजपा से हाथ मिलाते हुए 2015 के जनादेश को दरकिनार कर भाजपा के साथ साझा सरकार बना ली. इससे विपक्षी खेमे में उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता संदिग्ध हुई. अभी भी कोई यकीनी तौर पर नहीं कह सकता कि उनका अगला राजनीतिक कदम क्या होगा!
 

भाजपा के रहमो करम पर मुख्यमंत्री !


    लेकिन उनके भाजपा के साथ एक बार फिर गलबहियां करने के 2017 के राजनीतिक फैसले का उन्हें भरपूर चुनावी लाभ मिला. मोदी लहर एक तरह से बिहार में स्वीप कर गई. 40 में से 30 सीटें राजग के खाते में गई. जद (यू) के भी 16 सांसद जीते. विपक्ष के नाम पर केल कांग्रेस को एक सीट मिल सकी थी. विधानसभा का पिछला, 2020 का चुनाव भी उन्होंने भाजपा के साथ ही मिलकर लड़ा. लेकिन इस बार भाजपा की सीटें तो बढ़कर 74 हो गईं, नीतीश कुमार के जद (यू) के खाते में केवल 43 सीटें ही आ सकीं. नीतीश कुमार के लिए यह एक राजनीतिक झटका था. हालांकि वादे के मुताबिक भाजपा ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही साझा सरकार बनवाई लेकिन क्रमशः इसकी कीमत भी वसूलने लगी. नीतीश कुमार के सामने एक बार फिर 2015 के बाद वाली ही स्थिति उभरकर सामने आने लगी है. भाजपा की तरफ से अपने हितों की पूर्ति और संघ परिवार के एजेंडे पर अमल के लिए दबाव बढ़ने लगा. भाजपा के विभागीय मंत्री अपने हिसाब से काम करने लगे. इसके साथ ही परोक्ष रूप से भाजपा के लोगों की तरफ से उन्हें इस बात का एहसास भी कराया जाने लगा है कि वह भाजपा के रहमो करम पर ही मुख्यमंत्री बने हुए हैं.

लालू प्रसाद यादवः  सरकार पर समाजवादी नेताओं को
विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों से हटाने का आरोप
    पिछले सप्ताह बिहार के छपरा में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम पर बने जेपी विश्वविद्यालय में गुपचुप ढंग से भाजपा का एजेंडा लागू करने की साजिश उजागर हुई. वहां राजनीति शास्त्र के पोस्ट ग्रेजुएट पाठ्यक्रम में समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक और नीतीश कुमार के राजनीतिक आराध्य और आदर्श रहे समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की के व्यक्तित्व और विचारों की जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस, ज्योतिबा फुले और जनसंघ के अध्यक्ष रहे दीन दयाल उपाध्याय को शामिल किया गया. नेताजी और ज्योतिबा फुले और यहां तक कि दीन दयाल उपाध्याय (हालांकि उपाध्याय का राष्ट्रीय आंदोलन अथवा सामाजिक आंदोलनों में भी क्या योगदान है, यह विवाद का विषय भी हो सकता है.) के बारे में भी पढ़ाया जाए तो किसी को आपत्ति नहीं होगी. लेकिन स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक, डा. राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की कीमत पर. जिस जेपी के नाम पर विश्वविद्यालय बना, उन्हें ही पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया! आश्चर्यजनक बात तो यह है कि बिहार में शिक्षामंत्री नीतीश कुमार की पार्टी के ही विजय कुमार चौधरी हैं. चौधरी और नीतीश कुमार की आंख तब खुली जब विपक्ष ने और खासतौर से लालू प्रसाद यादव ने लालू प्रसाद ने ट्वीट कर आरोप लगाया कि संघी मानसिकता की सरकार समाजवादी नेताओं के विचार पाठ्यक्रमों से हटा रही है. बिहार सरकार के जगने एवं कड़े निर्देश जारी करने के बाद अब पाठ्यक्रम में फिर से सुधार हो रहा है. अब इस बात की जांच करने की मांग हो रही है कि ऐसी खुराफात की किसने ? क्या यह करामात शिक्षा मंत्रालय के किसी अफसर की थी या फिर सीधे राजभवन से इसके लिए निर्देश था.
 

    भाजपा के दबाव से मुक्ति की कवायद !


     भाजपा और संघ परिवार के इस तरह के दबावों के कारण बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार चलाते हुए भी नीतीश कुमार खुद को असहज महसूस कर रहे हैं. लेकिन राजनीति के चतुर खिलाड़ी नीतीश कुमार अभी तक इन दबावों को झेलते और भरसक परे करते हैं. उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा को जद (यू) में विलीन करवाने के साथ ही बसपा, लोजपा के इक्का-दुक्का विधायकों को अपने दल में शामिल कर वह एक तरफ तो अपनी राजनीतिक मजबूती के संकेत देते हैं. दूसरी तरफ वह बीच-बीच में अपनी और अपने दल की स्वतंत्र-धर्मनिरपेक्ष छवि के साथ समझौता नहीं करने और भाजपा पर जवाबी दबाव बनाने के संकेत भी देते रहते हैं. भाजपा के जन संख्या नियंत्रण कानून पर उन्होंने साफ कर दिया कि उनकी राय भाजपा से अलग है. इसी तरह से पेगासस जासूसी प्रकरण की जांच कराए जाने की विपक्ष की मांग का समर्थन कर उन्होंने भाजपा और मोदी सरकार पर एक तरह का दबाव ही बनाया. उन्होंने भाजपा के राजनीतिक रुख की परवाह किए बिना जातीय जनगणना पर विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा और सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ उनसे मिलकर इसके लिए दबाव भी बनाया. प्रधानमंत्री के साथ बातचीत में उन्होंने इसके लिए विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव को श्रेय देकर लालू प्रसाद यादव के यहां भी एक खिड़की खुली रखने की कोशिश की. पेट्रोलियम पदार्थों और खासतौर से रसोई गैस की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि का भी उन्होंने खुलकर विरोध किया. देखना यही है कि जातिगत आधार पर जनगणना के मामले में नीतीश कुमार और बिहार के मुख्य विपक्ष के दबाव पर भाजपा और मोदी सरकार का रुख क्या होता है. क्योंकि कुछ ही दिनों में होनेवाले पंचायत चुनावों में बाढ़, पेट्रोल-डीजल और खासतौर से रसोई गैस के बढ़ते दाम के साथ जातीय जनगणना भी एक बड़ा मुद्दा हो सकता है. साथ ही भविष्य में भाजपा से अलग होने के लिए नीतीश कुमार के पास ठोस बहाना भी!

    इस तरह से भाजपा के लोग नीतीश कुमार और उनकी सरकार पर दबाव बनाने में लगे हैं और कसमसाहट महसूस करते हुए नीतीश कुमार भी इससे मुक्त होने के प्रयास में लगे रहते हैं. तो क्या उनके प्रधानमंत्री मटीरियल होने की बात इस समय भाजपा पर जवाबी दबाव बनाने के लिए भी कही जा रही है! इसके साथ ही पिछले दिनों जनता दल यू की अंदरूनी कलह भी खुल कर आने लगी थी. नीतीश कुमार के खासुल खास रहे आरसीपी सिंह के केंद्र में मंत्री बन जाने के बाद उनकी जगह सांसद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष और हाल ही में जद यू में शामिल उपेंद्र कुशवाहा को संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद स्वागत समारोहों के जरिए जनता दल यू की गुटबाजी और नेताओं के अंदरूनी मतभेद खुलकर सामने आने लगे हैं. पूर्व नौकरशाह आरसीपी के करीबी लोग चाहते थे कि वह केंद्र में मंत्री के साथ ही राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने रहें, वहीं आरसीपी सिंह के विरोधियों का कहना है कि मंत्री बनने के बाद से उनका भाजपा के प्रति झुकाव कुछ ज्यादा ही दिख रहा है. जातीय जनगणना पर पार्टी के अधिकृत रुख से अलग वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं. राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते खुद मंत्री बन जाने के मामले पर वह कह रहे हैं कि ऐसा उन्होंने नीतीश कुमार के कहने पर ही किया. प्रधानमंत्री मटीरियल का शिगूफा छेड़कर अंदरूनी मतभेदों पर काबू पाने की कोशिश भी हो सकती है. अब सभी नेता एक स्वर से नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल बताने के काम में जुट गए हैं. कुल मिलाकर नीतीश कुमार के पीएम मटीरियल होने का खेल जारी है. इस खेल में बहुत कुछ अगले साल होनेवाले यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, गोवा और फिर गुजरात और जम्मू कश्मीर विधानसभा के चुनावी नतीजों पर भी निर्भर करेगा.

नोटः तस्वीरें इंटरनेट के सौजन्य से.  

Tuesday, 9 May 2017

गैर भाजपावाद की परीक्षा होगा राष्ट्रपति चुनाव



गैर भाजपावाद की परीक्षा होगा राष्ट्रपति चुनावकारण चाहे जुलाई महीने में होनेवाला राष्ट्रपति का चुनाव हो अथवा दो साल बाद लोकसभा के आम चुनाव, विपक्षी एकता या कहें तमाम गैर भाजपा-गैर राजग दलों के महागठजोड़ की कवायद नए सिरे से शुरू होती दिख रही है। इस कवायद के केंद्र में हैं कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी। गैर भाजपा दलों के कई कद्दावर नेताओं की उनसे मुलाकात से इस बात के संकेत मिलने लगे हैं कि विपक्ष न सिर्फ राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपानीत सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को मजबूत चुनौती देने की साझा रणनीति की संभावनाएं तलाशने में जुट रहा है बल्कि लोकसभा के अगले चुनाव और उससे पहले होनेवाले कुछ राज्य विधानसभाओं के चुनाव में भी विपक्षी मतों का बंटवारा रोकने और भाजपा के नेतृत्व में मुखर हो रही सांप्रदायिक ताकतों को एकजुट चुनौती पेश करने के लिए विपक्षी महागठबंधन की अनिवार्यता के प्रति भी गंभीर हो रहा है।
इसे राजनीतिक विडंबना भी कह सकते हैं कि कभी 1960 के दशक के मध्य में अपराजेय बनती जा रही कांग्रेस को राज्यों और केंद्र में भी अपदस्थ करने के लिए समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की रणनीति तैयार की थी। अब तमाम गैर कांग्रेसी और गैर भाजपा-राजग दलों के नेता नए सिरे से उसी कांग्रेस को साथ लेकर ‘गैर भाजपावाद’ की रणनीति तैयार करने में लगे हैं। कांग्रेस के भीतर भी एक बड़े तबके या कहें नेतृत्व की राय बन रही है कि मौजूदा परिस्थितियों में पार्टी भाजपा-राजग को सीधे और अकेले शिकस्त दे सकने की स्थिति में नहीं है। इसके लिए किसी न किसी तरह का विपक्षी महागठबंधन खड़ा करना ही होगा। इस बढ़ते सोच के तहत ही अप्रैल के तीसरे-चौथे सप्ताह में जनता दल (यू) के अध्यक्ष, बिहार के मुक्चयमंत्री नीतीश कुमार और माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने एक ही दिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की। उसके बाद भाकपा के सचिव, सांसद डी. राजा, जनता दल (यू) के पूर्व अध्यक्ष, सांसद शरद यादव और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने भी श्रीमती गांधी के साथ अलग-अलग दिनों में मुलाकात की। इससे पहले समाजवादी नेता, लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष रवि राय की अंत्येष्टि के अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि देने भुवनेश्वर गए नीतीश कुमार ने ओडिशा के मुख्यमंत्री एवं बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक से मुलाकात की। येचुरी भी लगातार बीजद नेताओं के संपर्क में हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी पटनायक से मिल चुकी हैं। संसद के बजट सत्र के समापन से पहले सुश्री बनर्जी ने समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और एनसीपी के नेता प्रफुल्ल पटेल से मुलाकात की थी। विपक्ष के कुछ नेता तमिलनाडु में द्रमुक नेतृत्व के साथ लगातार संपर्क में हैं तो कुछ लोग अन्नाद्रमुक को भी विपक्षी खेमे के साथ बने रहने के लिए उसके नेताओं से संपर्क साध रहे हैं। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद भी विपक्षी महागठबंधन के लिए सक्रिय हैं। एक मई को नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में प्रसिद्ध समाजवादी नेता, चिंतक मधु लिमए के 95वें जन्मदिन पर हुए विपक्षी नेताओं के जमावड़े और उसमें उभरे स्वरों से भी लगा कि किसी तरह की एकजुटता अथवा महागठबंधन के लिए विपक्षी खेमे में छटपटाहट बढ़ी है। भाकपा नेता डी. राजा के अनुसार फिलहाल तो विपक्ष के सामने राष्ट्रपति के चुनाव में एकजुट होकर राजग के सामने मजबूत चुनौती पेश करने की बात है। विपक्ष की एकजुटता के लिहाज से राष्ट्रपति का चुनाव पहला ‘एसिड टेस्ट’ होगा जिसमें यह पता लग सकेगा कि कौन से गैर राजग दल संयुक्त विपक्ष के साझा उम्मीदवार के समर्थन में खुलकर सामने आ सकते हैं। गौरतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव के लिए मौजूदा निर्वाचक मंडल में भाजपा और उसके सहयोगी दल बहुमत से कुछ दूर हैं। साथ ही शिवसेना की बदलती भंगिमाएं कब गच्चा दे जाएंगी, इसको लेकर भाजपा नेताओं की बेचैनी कम नहीं हो पा रही है। उसे अपना मनमाफिक राष्ट्रपति चुनवाने के लिए विपक्षी खेमे में सेंध लगाकर कुछ अतिरिक्त मतों का जुगाड़ करना पड़ सकता है। इस राजनीतिक सेंधमारी को रोकने के लिए भी विपक्षी खेमा सक्रिय है। उसकी कोशिश विपक्ष की ओर से ऐसा साझा उक्वमीदवार पेश करने की लगती है जो न सिर्फ सभी गैर भाजपा दलों को एकजुट रख सके बल्कि राजग के अंदर से भी कुछ मतों का जुगाड़ कर सके। माकपा के महासचिव येचुरी कहते हैं, ‘हम नीतियों और कार्यक्रमों के आधार पर फैसला करेंगे। 2019 में सांप्रदायिक शक्तियों की सरकार के विरुद्ध देश में एक वैकल्पिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए काम करेंगे।’
दरअसल, बिहार, दिल्ली और पंजाब विधानसभा के चुनावी नतीजों को अपवाद मान लें तो मई 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए अधिकतर विधानसभा चुनाव, उप चुनाव और नगर निकायों और पंचायत के चुनावों में भी अपराजेय और विजेता बनकर उभरी भाजपा और उसके नेतृत्व वाले राजग की चुनावी सफलता के लिए अन्य कारणों के अलावा विपक्षी मतों के बंटवारे को ही मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है। लोकसभा चुनाव हों अथवा झारखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, असम और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्य विधानसभाओं और महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली के नगर निकायों के चुनाव, भाजपा और उसके सहयोगी दलों को मिले मतों के प्रतिशत के मुकाबले अगर विपक्षी दलों को मिले मतों के प्रतिशत को जोड़कर देखें तो संयुक्त विपक्ष भाजपानीत राजग पर निर्णायक रूप से भारी दिखता है। अगर विपक्षी दल अपने निजी अहंकार, वैमनस्य और अपनी राजनीतिक ताकत के बारे में अपने अतिरेकी आकलन को परे रखकर चुनावी तालमेल कर चुनाव लड़े होते तो नतीजों की शक्ल कुछ और नजर आती।
विपक्ष की इस कमजोरी को सबसे पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और कभी उनके बेहद करीबी और फिर कट्टर राजनीतिक विरोधी रहे राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने महसूस किया। बकौल नीतीश कुमार, उन्होंने लोकसभा चुनावों के नतीजे के बाद ही बिना समय गंवाए लालू प्रसाद से बात की और दोनों इस बात पर सहमत हुए कि बिना विपक्षी एकजुटता के भाजपा और उसके सहयोगी दलों की चुनौती का सामना कर पाना मुश्किल होगा। इसके बाद ही बिहार में जद (यू), राजद और कांग्रेस के बीच चुनावी गठजोड़ हुआ जो कारगर भी साबित हुआ।
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव से पहले वहां भी नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने विपक्षी महागठबंधन की पहल की थी लेकिन खुद के बूते चुनाव जीतने के अति विश्वास के कारण राज्य में भाजपा विरोधी दो महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकतें-मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम-अखिलेश की समाजवादी पार्टी एक साथ नहीं आ सकी। बाद में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन हुआ भी तो उसमें चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल, जनता दल (यू) और राजद को जगह नहीं मिली। इससे पहले असम में कांग्रेस नेतृत्व की हठधर्मिता के कारण असम गण परिषद और सांसद बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के साथ चुनावी तालमेल नहीं हो सका था। नतीजतन, असम और उîार प्रदेश में भाजपा पहली बार अपने बूते भारी बहुमत से सरकार बनाने में सफल हो सकी। हालांकि वोटों का प्रतिशत देखें तो भाजपा और इसके सहयोगी दलों को यूपी में तकरीबन 40 प्रतिशत मत मिले जबकि बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल को तकरीबन 51 प्रतिशत मत मिले हैं। उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों के बाद अखिलेश यादव और मायावती ने भी साथ आने और भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाने की बात करनी शुरू कर दी है। इसका स्वागत करते हुए शरद यादव कहते हैं कि राष्ट्रपति के चुनाव में गैर भाजपा दलों को गोलबंद करने के प्रयास काफी सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। इस एकजुटता से 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन खड़ा करने की प्रक्रिया को बल मिलेगा। 2019 में गैर भाजपा दलों का महागठबंधन सांप्रदायिक ताकतों को मजबूत चुनौती देगा, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।
लेकिन इस तरह के किसी महागठबंधन को लेकर कई सवाल और आशंकाएं भी हैं। मसलन महागठबंधन का नेता कौन होगा? राहुल गांधी, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल समेत कई दावेदार दिख रहे हैं। नीतीश-ममता समेत क्षेत्रीय दलों का कोई भी ऐसा नेता नहीं है जिसका एक राज्य के बाहर संगठन और जनाधार हो। कांग्रेस की उपस्थिति जरूर कई राज्यों में है लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व पर कितने दल और नेता राजी होंगे, यह भी एक सवाल है। वैसे महागठबंधन का नेता कौन होगा, इस तरह के सवालों के जवाब के लिए विपक्ष के पास अभी बहुत समय है। विपक्ष के एक वरिष्ठ नेता की मानें तो जब कट्टïर विरोधी जनता दल (यू), राजद और कांग्रेस आपस में गठबंधन कर सकते हैं तो मायावती-अखिलेश और अजित सिंह, ममता बनर्जी-वाम दल और कांग्रेस, बीजू जनता दल और कांग्रेस, कांग्रेस और एनसीपी, कांग्रेस और आप तथा द्रमुक और अन्ना द्रमुक सांप्रदायिक ताकतों को वैकल्पिक नीतियों, न्यूनतम साझा कार्यक्रमों के साथ मजबूत चुनौती देने के नाम पर एक साथ क्यों नहीं हो सकते। अगर एकजुट हुए तो चुनावी नतीजे बिहार की तरह के होंगे और अगर अलग-अलग लड़े तो उत्तर प्रदेश में विधानसभा के हालिया चुनाव में हुई राजनीतिक दुर्गति को प्राप्त कर सकते हैं।