Tuesday, 9 May 2017

कौन बनेगा राष्ट्रपति

कौन बनेगा राष्ट्रपति

राष्ट्रपत‌ि भवन
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कौन बनेगा, देश का अगला यानी 14वां राष्ट्रपति! मौजूदा राष्ट्रपति, 81 वर्षीय प्रणब मुखर्जी को दूसरा कार्यकाल मिलेगा या फिर अगले जुलाई महीने में उनके उत्तराधिकारी का चुनाव होगा। इस छोटे लेकिन जटिल सवाल का सटीक जवाब फिलहाल किसी के पास अभी नहीं दिख रहा है। अटकलों के बाजार में रोज कुछ नाम तेजी से उभरते हैं और फिर कई कारणों से दब भी जाते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पिछली गुजरात (सोमनाथ) यात्रा के दौरान उनका एक कथित बयान मीडिया की सुर्खियां बना जिसमें उन्होंने अपने सिपहसालार कहे जानेवाले भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की मौजूदगी में कहा था कि आडवाणी जी को राष्ट्रपति बनवाना उनके लिए गुरु दक्षिणा देने जैसा होगा। लेकिन उनके इस कथित बयान के 20 दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में आडवाणी के साथ ही भाजपा के मार्गदर्शक बना दिए गए पार्टी के एक और पूर्व अध्यक्ष मुरली मनेाहर जोशी तथा केंद्रीय मंत्री उमा भारती के खिलाफ साजिश का मुकदमा चलाए जाने से संबंधित याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए कहा कि मामले की सुनवाई त्वरित गति से होनी चाहिए। देश की सर्वोच्च अदालत के इस रुख के बाद आडवाणी जी को राष्ट्रपति बनाने की मुहिम कुछ मद्धिम सी पड़ गई लगती है। हालांकि कई बार राजनीतिक फैसले अदालती रुख पर भारी भी पड़ सकते हैं।
आडवाणी हों या कोई और, खासतौर से उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधानसभाओं के चुनाव में भाजपा को मिली प्रचंड जीत और मणिपुर और गोवा में येन-केन प्रकारेण भाजपा की सरकारें बन जाने के कारण अगले राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा और इसके नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का पलड़ा पहले से कुछ भारी हो गया है। यह भी तय-सा हो गया है कि अगला राष्ट्रपति भाजपा का और वह भी प्रधानमंत्री मोदी और उनके सिपहसालार अमित शाह की पसंद का ही होगा। इस लिहाज से भी कभी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन, झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू, बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद जैसे बहुतेरे नाम हवा में उछल रहे हैं। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता की मानें तो सभी लोग मोदी जी का मूड भांपने में लगे हैं और मोदी जी हैं कि इस बारे में अपने पत्ते नहीं खोल रहे। यहां तक कि करीबी होने का दावा करने वाले नेताओं को भी इस संबंध में कोई भनक नहीं लगने दे रहे।
मोदी की कार्यशैली पर गहरी नजर रखने वाले राजनीति विज्ञानियों का मानना है कि मोदी इस मामले में भी कोई 'सरप्राइज’ दे सकते हैं। वह रायसीना हिल पर स्थित राष्ट्रपति भवन के लिए ऐसा नाम तय कर सकते हैं जिसके व्यक्तित्व से एक खास तरह का सामाजिक संदेश जाए और जो उनकी भावी राजनीति के हिसाब से भी फिट बैठता हो। ऐसे में झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू का नाम प्रमुखता से सामने आता है। वह आदिवासी महिला हैं और ओडिशा की रहनेवाली हैं। प्रतिभा पाटिल के रूप में देश को महिला राष्ट्रपति तो मिल चुका है लेकिन द्रौपदी अगला राष्ट्रपति बनती हैं तो उन्हें पहली आदिवासी 'महिला’ राष्ट्रपति बनने का गौरव हासिल हो सकेगा। उन्हें राष्ट्रपति बनवाने का राजनीतिक लाभ मोदी ओडिशा विधानसभा के चुनाव में भी ले सकेंगे।
उम्मीदवार चाहे कोई भी हो नरेन्द्र मोदी और भाजपा किसी भी कीमत पर अपना राष्ट्रपति बनवाना चाहते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार इसके लिए अगर किसी स्वतंत्र और गैर विवादित नाम पर विपक्ष के साथ आम राय बनाने की जरूरत पड़ती है तो वह इसके लिए भी तैयार हो सकते हैं। इसकी कवायद उन्होंने अभी से शुरू भी कर दी है। पिछले दिनों इस कवायद के तहत ही उन्होंने राजग के तमाम छोटे-बड़े 33 घटक एवं समर्थक दलों की बैठक बुलाई थी। इसमें उन्होंने राष्ट्रपति के चुनाव के मद्देनजर संसद और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचक मंडल में राजग की स्थिति का आकलन किया था कि कौन-कौन साथ आ सकता है और कौन विरोध में जा सकता है। राजग के सबसे पुराने सहयोगी, केंद्र और महाराष्ट्र सरकार में भी साझीदार शिवसेना के राजनीतिक रुख को लेकर प्रधानमंत्री मोदी और उनके रणनीतिकार अक्सर सशंकित रहते हैं। महाराष्ट्र विधानसभा और फिर मुंबई नगर महापालिका के साथ ही राज्य के अन्य स्थानीय निकायों के चुनाव में शिवसेना ने भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा। शिवसेना का राष्ट्रपति के दो चुनावों में भी भाजपा से अलग रुख रहा है। एक बार महाराष्ट्र गौरव के नाम पर शिवसेना कांग्रेस की प्रतिभा पाटिल का समर्थन कर चुकी है तो पिछले चुनाव में उसने कांग्रेस के ही प्रणब मुखर्जी को खुलेआम समर्थन दिया था। इस बार भी शिवसेना ने अगले राष्ट्रपति के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत का नाम उछालकर भाजपा और मोदी को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है। ऐसे में जबकि भाजपा राष्ट्रपति के चुनाव के लिए एक-एक वोट के जुगाड़ में लगी है, शिवसेना की राजनीतिक पैंतरेबाजियां उसे परेशान कर रही हैं। भाजपा ने राष्ट्रपति के चुनाव के मद्देनजर ही अपने दो नव निर्वाचित मुख्यमंत्रियों योगी आदित्यनाथ और मनोहर पर्रीकर तथा उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को सांसद भी बने रहने को कहा है क्योंकि राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में एक सांसद के वोट की कीमत 708 की होती है और चुनावी गणित को देखते हुए मोदी और भाजपा किसी तरह का जोखिम लेने की स्थिति में नहीं हैं।
दरअसल, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी भाजपा की प्रचंड विजय के बावजूद राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में भाजपा और इसके सहयोगी-समर्थक दलों का समर्थन आधार 49 फीसदी से कुछ कम ही बन पा रहा है। यानी भाजपा को अपनी खांटी पसंद का राष्ट्रपति बनवाने के लिए तकरीबन 25 हजार अतिरिक्त मतों का जुगाड़ करना पड़ सकता है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के साथ ही राज्य विधानसभाओं (विधान परिषद नहीं) के निर्वाचित सदस्य ही मतदान कर सकते हैं। चुनावी गणित के मद्देनजर मोदी और भाजपा की नजर शिवसेना को अपने पाले में रखने के साथ ही बीजू जनता दल और अन्ना द्रमुक के दोनों धड़ों पर टिकी है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी से भाजपा ओडिशा और झारखंड से भी कुछ अतिरिक्त वोट बटोर सकती है। लेकिन इससे भी बात नहीं बनते देख मोदी आम राय बनाने के नाम पर किसी स्वतंत्र और तटस्थ नाम को भी आगे बढ़ा सकते हैं।
दूसरी तरफ, गैर-भाजपाई विपक्ष राष्ट्रपति के चुनावी गणित में भाजपा की कमजोरी को अवसर के रूप में इस्तेमाल करने की जुगत में लगा है। विपक्ष के रणनीतिकार एक तरफ तो प्रधानमंत्री मोदी और भाजपानीत राजग के साथ भावी राष्ट्रपति के नाम पर आम राय कायम करने की प्रक्रिया में अपनी राय को अहमियत दिलाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं, दूसरी तरफ सत्तारूढ़ पक्ष के साथ बात नहीं बन पाने की स्थिति में उनकी रणनीति एक ऐसे उम्मीदवार को मैदान में उतारने की लगती है जो न सिर्फ तमाम गैर-भाजपा दलों को इस चुनाव में एकजुट रखने में कामयाब हो सके बल्कि चुनाव की स्थिति में भाजपा और राजग के मतदाताओं में भी सेंध लगा सके। विपक्ष के खेमे में ऐसे दो नाम हवा में हैं। एक, एनसीपी के अध्यक्ष और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके पूर्व रक्षा मंत्री शरद पवार का है और दूसरा जनता दल यू के पूर्व अध्यक्ष और कभी राजग के संयोजक रहे शरद यादव का। यह दोनों न सिर्फ विपक्ष के अंतर्विरोधों पर काबू पा सकते हैं बल्कि सत्ता पक्ष के मतदाता वर्ग में सेंध भी लगा सकते हैं। पिछले दिनों मोदी सरकार द्वारा पद्म विभूषण से अलंकृत शरद पवार की उम्मीदवारी के बाद राजग में शिवसेना के सामने एक बार फिर मराठा गौरव के नाम पर उनका समर्थन करने का दबाव और तर्क बढ़ सकता है, वहीं अपने जोड़तोड़ के राजनीतिक कौशल का इस्तेमाल कर वह राजग के मतदाता वर्ग में से कुछ को अपनी ओर खींच सकते हैं। शरद यादव के बारे में कहा जा रहा है कि मंडल राजनीति का पुरोधा होने की उनकी राजनीतिक छवि राजग के सांसदों और विधायकों को आकर्षित करने में कारगर साबित हो सकती है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी और उनके रणनीतिकारों की रणनीति थोड़ी अलग तरह की हो सकती है। फिलहाल तो दोनों पक्ष इस संबंध में एक-दूसरे की राजनीतिक चाल और पहल का इंतजार करते ही नजर आ रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से साथ भाजपा अध्यक्ष अम‌ित शाह
उपराष्ट्रपति तो भाजपा का ही
सात अगस्त को देश के उपराष्ट्रपति का चुनाव भी होने जा रहा है। लोकसभा में भाजपानीत राजग के प्रचंड बहुमत को देखते हुए साफ है कि उपराष्ट्रपति भाजपा का ही होगा। उपराष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों के सभी सदस्य मतदान करते हैं। भाजपा सूत्रों की मानें तो प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रपति के चुनाव में भले ही विपक्ष के साथ किसी तरह की आम राय पर सहमत हो सकें, उपराष्ट्रपति के नाम पर वह किसी भी तरह की आम राय या दबाव में नहीं आने वाले हैं। अगले उपराष्ट्रपति के रूप में भाजपा खेमे से एक बार फिर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, सूचना प्रसारण एवं शहरी विकास मंत्री एम वेंकैया नायडू, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन तथा समाजवादी पृष्ठभूमि के वरिष्ठ सांसद हुकुमदेव नारायण यादव के नाम लिए जा रहे हैं।

लोकपाल से कौन डरता है

लोकपाल से कौन डरता हैकेंद्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए ओंबुड्समैन यानी अपने बहुचर्चित लोकपाल के गठन के लिए कुछ महीने और इंतजार करना पड़ सकता है। वह भी तब, जब इसके गठन को लेकर सरकार की मंशा साफ हो। भ्रष्टाचार के खिलाफ  जन लोकपाल के गठन की मांग को लेकर समाजसेवी अन्ना हजारे, योग गुरु (व्यवसायी) रामदेव और उनके सहयोगियों के आंदोलन का पुरजोर समर्थन करने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाली राजग सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि लोकसभा में विपक्ष का नेता नहीं होने के कारण लोकपाल की नियुक्ति में विलंब हो रहा है। गौरतलब है कि तमाम अनशन-आंदोलनों, विवादों और संसदीय बहसों के बाद दिसंबर 2013 में पास हुए लोकपाल अधिनियम के तहत लोकपाल की खोज या चयन के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित होने वाली पांच सदस्यीय समिति में लोकसभाध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष के नेता, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अथवा उनके प्रतिनिधि और राष्ट्रपति द्वारा नामित एक कानूनविद् को शामिल किया जाना है। बाकी सब तो ठीक है लेकिन लोकसभा में मान्यता प्राप्त विपक्ष और उसका नेता नहीं होने से चयन समिति का गठन ही नहीं हो पा रहा है। लोकपाल की नियुक्ति तो उसके बाद ही संभव हो सकेगी।

तकनीकी तौर पर लोकसभा के एक दहाई सदस्य होने पर ही किसी दल को विपक्ष और उसके नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा प्राप्त हो सकता है। कांग्रेस ने कुछ अन्य विपक्षी दलों के समर्थन पत्र के सहारे लोकसभा में अपने नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को विपक्ष का नेता घोषित करने का आग्रह किया था, लेकिन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इसे पहली लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा बनाई गई व्यवस्था का हवाला देते हुए अमान्य कर दिया। हालांकि इसी आधार पर देखें तो दिल्ली की 70 सदस्यों की विधानसभा में केवल तीन विधायक होने के कारण भाजपा को मान्यता प्राप्त विपक्ष का दर्जा नहीं मिल सकता था, लेकिन जब आम आदमी पार्टी की सरकार ने भाजपा विधायक दल के नेता विजेंद्र गुप्ता को नेता विपक्ष बनाने का प्रस्ताव किया तो भाजपा को इसे स्वीकार करने में जरा भी झिझक नहीं हुई। यही नहीं, संख्या बल नहीं होने के बावजूद नेता विपक्ष बने विजेंद्र गुप्ता इसी हैसियत से दिल्ली में लोकायुक्त के चुनाव की प्रक्रिया में शामिल भी हुए, लेकिन लोकसभा में भाजपा इस तरह की सदाशयता नहीं दिखा सकी।
बहरहाल, लोकपाल के गठन को लेकर संसद से सडक़ और न्यायपालिका तक बनाए गए विपक्ष एवं सामाजिक संगठनों के दबाव के बाद केंद्र सरकार लोकपाल-लोकायुक्त अधिनियम 2013 में संशोधन कर लोकपाल के लिए चयन समिति में लोकसभा में नेता विपक्ष की जगह सदन में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को शामिल करने पर राजी हो गई। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस आशय का एक प्रस्ताव पारित कर इसके आधार पर संसद में संशोधन विधेयक भी पेश कर दिया, लेकिन उसे पास करने का शुभ मुहुर्त है कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा है।
लोकपाल की नियुक्ति से संबंधित जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करने वाली सर्वोच्च अदालत में न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और नवीन सिन्हा की पीठ के समक्ष सरकार का पक्ष रखते हुए महान्यायवादी मुकुल रोहतगी ने कहा कि लोकपाल की चयन समिति में नेता विपक्ष की जगह लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को शामिल करने का संशोधन विधेयक संसद में विचाराधीन है, उसके फिलहाल, संसद के मौजूदा बजट सत्र में पास होने की संभावना नहीं है क्योंकि सरकार के पास अन्य बहुत सारे विधायी कार्य पड़े हैं। उन्होंने संबंधित संशोधन विधेयक के अगले मानसून सत्र में अथवा उसके बाद ही पास हो पाने की संभावना जताई। हालांकि याचिका दायर करने वाले गैर सरकारी संगठन 'कॉमन कॉज’ की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण ने कहा कि संसद ने लोकपाल विधेयक दिसंबर 2013 में पारित कर दिया और वह वर्ष 2014 से प्रभावी भी हो गया, लेकिन सरकार जान- बूझकर लोकपाल की नियुक्ति नहीं कर रही है। उन्होंने कहा कि लोकपाल कानून यह अनिवार्य करता है कि लोकपाल की नियुक्ति जल्दी से जल्दी हो। दोनों पक्षों की सुनवाई पूरी करने के बाद न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले में फैसला सुरक्षित रखने की बात कही। हालांकि महान्यायवादी रोहतगी की दलील थी कि सर्वोच्च अदालत को संसद के कामकाज में दखल नहीं देना चाहिए क्योंकि लोकपाल कानून के तहत विपक्ष के नेता की परिभाषा से संबंधित संशोधन संसद में अभी लंबित है। 
जब तक संसद में यह संशोधन पारित नहीं हो जाता, लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो सकती। लोकपाल पर केंद्र का रुख परेशान करने वाला है। सरकार से पूछा जा सकता है कि जब सरकार और विपक्ष भी राजी है तो यह संशोधन पारित क्यों नहीं हो रहा। मोदी सरकार वित्त विधेयक में विभिन्न प्रकार के 40 संशोधन पास करा सकती है, राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता की वकालत करनेवाले वित्त विधेयक के जरिए राजनीतिक चंदा संबंधी आपत्तिजनक संशोधन पास करवा सकती है। इस संशोधन के बाद कॉरपोरेट घरानों के राजनीतिक दलों को चंदा देने की कोई सीमा नहीं होगी। न ही उन्हें यह जाहिर करने की अनिवार्यता होगी कि उन्होंने किस दल को कितना धन दिया। इसे किसी रूप में भ्रष्टाचार विरोधी कदम भी नहीं कहा जा सकता। अगर यह सब संशोधन बजट सत्र में पास हो सकते हैं तो लोकपाल की चयन प्रक्रिया से संबंधित संशोधन विधेयक पास कराने में ऐसी कौन सी रुकावट है। वैसे भी सरकार ने चाहा तो सीबीआई निदेशक से लेकर सीवीसी की नियुक्ति तक का रास्ता वर्तमान परिस्थितियों में ही ढूंढ़ निकाला गया। ऐसे में यह अर्थ निकालना क्या गलत होगा कि विपक्ष में रहते जन लोकपाल के लिए सडक़ से लेकर संसद तक जोर-शोर से सक्रिय रही भाजपा और उसके सहयोगी दलों की केंद्र सरकार चाहती ही नहीं कि लोकपाल का गठन हो? बहुत मुमकिन है कि सत्ताधारी दल में यह सोच बढ़ रही होगी कि जब चुनावी बहुमत जुटाने की तरकीब उसके पास है, तो सर्वोच्च पदों पर निगरानी करने वाली संस्था का गठन वह क्यों करे।
कहीं ऐसा भी तो नहीं कि लोकपाल की परिधि में प्रधानमंत्री, उनके मंत्री, निगमित घरानों को भी शामिल किए जाने की बात कुछ लोगों को लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने और तेज करने से रोक रही है। हालांकि कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के जमाने में लोकपाल की परिधि में प्रधानमंत्री को भी शामिल कर मजबूत लोकपाल के गठन के लिए लोकसभा और राज्यसभा में भी तत्कालीन विपक्ष यानी भाजपा के नेताओं, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने काफी दबाव बनाया था। समाजसेवी अन्ना हजारे ने दिसंबर 2013 में अपना आमरण अनशन तभी तोड़ा जब मनमोहन सरकार प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के क्षेत्राधिकार में शामिल करने जैसे लोकपाल को और मजबूत बनाने वाले संशोधनों को पारित करने के लिए राजी हो गई। उसके बाद ही लोकपाल अधिनियम अस्तित्व में आया, लेकिन तब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं थे। वैसे भी जबानी तौर पर वह भ्रष्टाचार, कालेधन के विरुद्ध लोकपाल और लोकायुक्त के गठन के पक्ष में जितना भी जोर-शोर से बोलते रहे हों, सत्ता में आने के बाद इसके बारे में उनकी उदासीनता ही सामने आती है। भूलना नहीं चाहिए कि गुजरात में उनके मुख्यमंत्री रहते तकरीबन एक दशक (2003 से दिसंबर 2013) तक लोकायुक्त की नियुक्त‌ि नहीं हो सकी थी, लोकपाल के मामले में तो अभी सवा तीन साल ही बीते हैं! तथाकथित जन लोकपाल अथवा लोकपाल के लिए सडक़ से लेकर संसद तक तूफान खड़ा करने और देश की तमाम समस्याओं, भ्रष्टाचार जैसी तमाम राजनीतिक बुराइयों का समाधान लोकपाल से ढूंढ़ लेने का दावा करनेवाले अन्ना हजारे, रामदेव, अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के लोग कहां खो गए हैं। क्या लोकपाल के नाम पर राजनीतिक तूफान खड़ा करने का मकसद महज सत्ता परिवर्तन तक ही सीमित था!

Wednesday, 24 June 2015

आपातकाल की बरसी पर कुछ विचारणीय सवाल

इस 25 जून की  रात को आपातकाल की 40वीं बरसी पर आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के स्वरों और शब्दों को दबाने के प्रयासों को न सिर्फ याद रखने बल्कि उनके प्रति चौकस रहने की भी जरूरत है ताकि देश और देशवाशियों को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े और भविष्य में भी कोई सत्तारूढ़ दल और उसका नेता वैसी हरकत की हिमाकत नहीं कर सके. दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था. जिसे लागू तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है. एक तरह  देखें तो देश आज एक अघोषित आपातकाल की ओर ही बढ़ रहा है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ी दिख रही है. भाजपा के वरिष्ठ और बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी ने हमारी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में ही इन प्रवृत्तियों के मौजूद रहने और आपातकाल के भविष्य में भी लागू किये जाने की आशंकाएं बरकार रहने का संकेत देकर इस चर्चा को और भी मौजूं बना दिया है.

आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे. तब हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और उस बहाने जेपी आंदोलन में भी शामिल थे. आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे. लेकिन पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा. जार्ज फर्नांडिस के प्रतिपक्ष अखबार के साथ जुलाई के पहले सप्ताह में हमें मंत्री जी के नाम से मशहूर स्थानीय समाजवादी नेता रामाधीन सिंह के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित प्रतिपक्ष अखबार बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे. यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे. डी आई आर (भारत रक्षा कानून ) और 120 बी के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए. सवा महीने बाद 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए. हम पिता-पुत्र आजमगढ़ जेल की एक ही बैरक में महीनों आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे. 
कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पेरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा वापस नहीं गए. आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए. उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों- जेल में और जेल के बाहर भी- से समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह -जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था. वाराणसी में हम जेल में निरुद्ध साथी, समाजवादी युवजन सभा के नेता (अभी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव) मोहन प्रकाश से मिले. उनसे कुछ पते लेकर वाराणसी में ही समाजवादी युवजन सभा और फिर छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के साथियों अशोक मिश्र, योगेंद्र नारायण, नचिकेता, देवाशीष भट्टाचार्य, चंचल मुखर्जी, मदन श्रीवास्तव आदि से लगातार संपर्क में रहा. वाराणसी प्रवास के दौरान अशोक मिश्र जी का चेतगंज के पास हबीबपुरा स्थित निवास हमारा ठिकाना होता. 



इलाहाबाद में हमारा परिवार था. वहीं रहते भोपाल जेल में बंद समाजवादी नेता मधुलिमए से पत्र संपर्क हुआ. उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए. मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था. मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला.’’ पत्र में अन्य व्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी.’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमए का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे. एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए. यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया.’ जब इंदिरा गांधी ने संविधान संविधान में 42वां संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करेते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी हस्तलिखित प्रति हमारे पास भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके. इसके साथ उन्होंने पत्र लिखा की अगर  हस्तलिपि मिल जाये तो लिखना की 'दमा की दवा मिल गयी है.' उस समय हमारे सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी. मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र', जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है. इसकी हर संभव मदद करें.’ सारे पत्र हमारे पते पर ही आए थे. हमने ये सारे पत्र इन लोगों तक पहुंचाए. इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे. बाकी लोगों से भी सहयोग समर्थन मिलने लगा. 

मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे. हम लोग चौधरी साहब के एक फैसले से सख्त नाराज थे. उन्होंने आपातकाल में विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था. हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था. जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं. हमारा आक्रोश समझा जा सकता था. लेकिन मधु जी का आदेश था सो हम चौधरी साहब से मिलने गए. उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि चुनाव का बहिष्कार बचे-खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा. हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनलेवाली थीं. हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था. मधु जी का पत्र आया कि चौधरी के पीछे बेमतलब पड़े हो, यहाँ जेलों में संघ के लोग जिस तरह से माफीनामे लिखने में लगे हैं, उस पर चिंता करनी चाहिए. 

हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे. अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे. एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र रविशंकर के नाम से ही भेज दिया. उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिए से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया. हमने मधु जी को लिखा कि ‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी. आप जैसे मनीषी इसे बेहतर समझ सकते हैं.' इसके बाद मधु जी के पत्र जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए. आपातकाल की समाप्ति के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे. वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह बाहर भिजवाते थे. 
आपातकाल में जब लोकसभा की मियाद बढाकर पांच से छह वर्ष कर दी गयी तो विरोधस्वरूप मधु जी और शरद यादव ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था. त्यागपत्र तो समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्रा ने भी दिया था लेकिन उन्होंने अपना त्यागपत्र लोकसभाध्यक्ष के पास भेजने के बजाय चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था. मधु जी ने मुझे पत्र लिखकर कहा कि नैनी जेल में जाकर जनेश्वर से मिलो और पूछो कि क्या उन्हें लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम. मैं उनके पात्र के साथ किसी तरह मुलाकाती बनकर नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिला और उन्हें मधु जी का सन्देश दिया. जनेश्वर जी कुछ उखड से गए और बोले, मधु जी अपनी पार्टी के नेता हैं लेकिन हमारी पार्टी (लोकदल) के नेता, अध्यक्ष चरण सिंह हैं. लिहाजा, हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा. 
इस तरह के तमाम प्रसंग हैं. जिनपर तफ्सील से लिखा जा सकता है. लेकिन हमारी चिंता का विषय कुछ और है. आपातकाल की समाप्ति और उसके गर्भ से निकली जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद हमारे लोकतंत्र प्रेमियों ने सम्भवतः पहला अलोकतांत्रिक काम नौ राज्यों की चुनी हुई राज्य सरकारों को बर्खास्त करवाकर किया. और नहीं तो मीसा के विरोध में सत्तारूढ़ हुए लोगों को देश में मिनी मीसा लगाने का प्रस्ताव करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ. यह बताने में कोई हर्ज नहीं कि हमारी अंतिम गिरफ़्तारी जनता पार्टी के शासन में ही हुयी थी और उसी के साथ एक तरह का मोहभंग भी. बाद के दिनों में भी इस तरह के कई प्रसंग आये जब आपातकाल के गर्भ से निकले हमारे 'लोकतंत्र प्रेमियों' ने अपनी सत्ता को मिलनेवाली चुनौतियों से निबटने के लिए घातक और खूंखार कानूनों की खुलेआम वकालत की. इसलिए भी 25-26 जून को हमें आपातकाल की 40वीं बरसी मनाते समय आमजन को न सिर्फ आपातकाल बल्कि उन खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्तियों के बारे में भी आगाह करना चाहिए जो गरीबी हटाओ के नारे के साथ  बहुमत लेकर सत्तारूढ़ हुई इंदिरागांधी जैसी नेता को तानाशाह बना देती हैं और आज भी कुछ लोगों के भीतर एकाधिकारवादी 'एको अहं द्वितियो नास्ति' का एहसास भर देती हैं. हमें इन लोगों और इन प्रवृत्तियों से सावधान रहने की जरूरत है.  

Sunday, 18 January 2015

नोबल मिलने के बाद बाल अधिकार आंदोलन को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली है-कैलाश सत्यार्थी

 लोकमत समाचारलोकमत (मराठी) और LOKMAT TIMES 
पुरस्कार और सम्मान तो उन्हें पहले भी बहुत मिलते रहे हैं लेकिन पिछले अक्तूबर महीने में पाकिस्तान की मानवाधिकार कार्यकर्ता मलाला यूसुफ जई के साथ भारत में बाल अधिकार कार्यकर्ता, बचपन बचाओ आंदोलन के अध्यक्ष कैलाश सत्यार्थी के संयुक्त रूप से वर्ष 2014 के शांति के नोबल पुरस्कार के लिए चुने जाने के बाद से उनकी दुनिया ही बदल सी गई है. आज वह भारत के व्यस्ततम लोगों में से हैं. उनसे मिलने, साक्षात्कार मांगने, उन्हें सुनने के लिए अनुरोध-आमंत्रणों की भरमार सी लगने लगी   है. वह खुद बताते हैं कि नोबल पुरस्कार  मिलने के बाद उन्हें पूरी दुनिया से 11 हजार से अधिक आमंत्रण मिल चुके हैं. अपने व्यस्त  कार्यक्रमों के बीच कैलाश सत्यार्थी के साथ नोबल पुरस्कार और बाल दासता के विरुद्ध उनके बाल अधिकार अभियान से जुड़े तमाम मुद्दों पर बातचीत के अंश: 

Kailash Satyarthi interview published in LOKMAT on 16 january 2015




Friday, 27 June 2014

आपातकाल की बरसी पर

( Takreeban ek saal ke antral ke baad Zeero hour par fir se hazir hun. Kitna niymit rah paunga kah nahin sakta.)

आपातकाल की बरसी पर फेसबुक पर बड़े भाई शिवानंद तिवारी और चंचल कुमार की टिप्पणियां देखने के बाद कुछ लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं. शिवानंद जी की राय से सहमत हूं कि आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के प्रयासों को दबाने के प्रयासों को याद रखने और चौकस रहने की जरूरत है ताकि देश को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े. साथ ही साथ कोई सत्तारूढ़ दल फिर कभी देश में आपातकाल लागू करने जैसी हिमाकत नहीं कर सके. 

दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था. जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है. आपातकाल को याद करते समय हमारी चिंता इस बात को लेकर कुछ ज्यादा है. 

आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे. हालाँकि हमने कभी iस बात का जिक्र खासतौर से लिखत पढ़त में तो नहीं ही किया है. तब हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और उस बहाने जेपी आंदोलन में भी शामिल थे. आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे. लेकिन ख़ुफ़िया पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा. जार्ज फर्नांडिस के प्रतिपक्ष अखबार के साथ जुलाई 1975 के पहले सप्ताह में हमें मंत्री जी के नाम से मशहूर स्थानीय समाजवादी नेता रामाधीन सिंह के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित साप्ताहिक प्रतिपक्ष अखबार बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे. यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे. भारत रक्षा कानून (डीआईआर) के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए. सवा महीने बाद 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह-आंदोलन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए. हम पिता-पुत्र एक ही बैरक में आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे. 

कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पेरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा वापस नहीं गए. आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए. उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों (जेल में और जेल के बाहर भी) के साथ समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह -जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था. वाराणसी में हम जेल में निरुद्ध साथी, समाजवादी युवजन सभा के नेता (अभी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव) मोहन प्रकाश से मिले. उनसे कुछ पते लेकर वाराणसी में ही समाजवादी युजन सभा और फिर छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी, लोहिया विचार मंच के साथियों अशोक मिश्र, योगेंद्र नारायण, नचिकेता, देवाशीष भट्टाचार्य, चंचल मुखर्जी, मदन श्रीवास्तव आदि से लगातार संपर्क में रहा. वाराणसी प्रवास के दौरान अशोक मिश्र जी का चेतगंज के पास हबीबपुरा स्थित निवास हमारा ठिकाना होता. 

इलाहाबाद में हमारा परिवार था. वहीं रहते भोपाल जेल में बंद समाजवादी नेता मधुलिमए से पत्र संपर्क हुआ. उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए. मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था. मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला.’’ पत्र में अन्य व्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी.’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमए का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे. एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए. यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया.’ जब इंदिरा गांधी ने संविधान में 42वां संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करेते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी हस्तलिखित प्रति हमारे पास भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके. उस समय आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी. हमारे आग्रह-अनुरोध पर मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र, जान जोखिम में डालकर  काम कर रहा है. इसकी हर संभव मदद करें.’ सारे पत्र हमारे पते पर ही आए थे. हमने ये सारे पत्र इन लोगों तक पहुंचाए. इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे. बाकी लोगों से भी सहयोग-समर्थन मिलने लगा. 

मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी-कर्मचारी नेता नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे. हम लोग चौधरी साहब के एक फैसले से सख्त नाराज थे. उन्होंने आपातकाल में हो रहे विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था. हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था. जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं. हमारा आक्रोश समझा जा सकता था. लेकिन मधु जी का आदेश था सो हम चौधरी साहब से मिलने गए. उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि उनकी राय में चुनाव का बहिष्कार करने से बचे खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा. हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनलेवाली थीं. हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था. मधु जी  जेल में संघ के लोगों के बढ़ रहे माफीनामों को लेकर परेशान थे. इसका जिक्र उहोंने एक पत्र में भी किया था.  

हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे. अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे. एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र उसी पते पर रविशंकर के नाम से ही भेज दिया. उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिए से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया. हमने मधु जी को लिखा कि ‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी. आप जैसे मनीषी इसे समझ सकते हैं. इसके बाद मधु जी के पत्र जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए. आपातकाल के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे. वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे. आपातकाल में लोकसभा की मियाद पांच से बढ़ाकर छह साल किए जाने के विरोध में मधु जी और शरद जी ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था. लोकसभाध्यक्ष ने उसे स्वीकार भी कर लिया था. त्यागपत्र इलाहाबाद से उपचुनाव जीते जनेश्वर मिश्र जी ने भी दिया था. लेकिन उन्होंने लोकसभाध्यक्ष के बजाय अपना त्यागपत्र अपनी पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था. यह बात मधु जी को बुरी लगी थी. उन्होंने मुझे लिखे पत्र में कहा कि जाकर नैनी जेल में किसी तरह से जनेश्वर से मिलो और पूछो कि उन्हें क्या लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम? अगर त्यागपत्र देना था तो लोकसभाध्यक्ष के पास भेजते. अन्यथा ढोंग करने की आवश्यकता क्या थी? हम किसी तरह से जुगाड़ करके नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिले. वह भी हमारे नेता थे. संकोच करते हुए हमने उन्हें मधु जी के पत्र के बारे में बताया. जनेश्वर जी की प्रतिक्रिया समझने लायक थी. उन्होंने कहा कि मधु जी को बता दो कि वह अपनी पार्टी के नेता हैं, खुद फैसले ले सकते हैं लेकिन हम लोकदल में हैं जिसके अध्यक्ष चरण सिंह हैं, लिहाजा हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा. जाहिर सी बात है कि उनका त्यागपत्र लोकसभा अध्यक्ष तक नहीं पहुंचा था.

इलाहाबाद में हम ऐसे समाजवादियों का एक ग्रुप बन गया था जो जेल से बाहर थे लेकिन आपातकाल के विरुद्ध अपने अपने हिसाब से सक्रिय थे. कुलभास्कर डिग्री कालेज के दो प्राचार्यों-श्रीबल्लभ जी और ललित मोहन गौतम जी, हाइकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता स्वराज प्रकाश, विनय कुमार सिन्हां, सतीश मिश्र, ब्रजभूशण सिंह, छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के साथी भारत भूषण आदि हम लोग अक्सर मिला करते, कभी समूह में और अक्सर अकेले में. संघर्ष समाचार का नियमित प्रकाशन-वितरण करते थे. संघ और जनसंघ के कुछ लोग भी संपर्क में थे. लेकिन उनके साथ अक्सर हमारा वैचारिक विरोध होते रहता था. एक बार मुझे याद है कि इलाहाबाद में छापाखाने की दिक्कत हो जाने पर हम जेल में बंद नेता नरेंद्र गुरु और सिराथू के छोटेलाल यादव से संपर्क सूत्र लेकर बांदा जिले में राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसी दास जी के गांव राजापुर गए थे. इलाहाबाद से एक रिम कागज लिए बस से शाम को राजापुर के इस पार इलाहाबाद जिले की साइड में यमुना नदी के तट पर पहुंचने और मल्लाह से अनुनय-विनय कर नाव से उस पार राजापुर पहुंचने की यात्रा कभी न भूलनेवाली यात्राओं में से एक है. वहां मिले समाजवादी नेता देवनारायण शास्त्री हमारी तरह ही जेल से छूट कर आए थे. उनका अपना छापाखाना था लेकिन वह दोबारा किसी तरह का जोखिम लेने के मूड में नहीं थे. बहुत समझाने पर हमारे ठहरने का इंतजाम तुलसी दास जी के मंदिर में हुआ जहां उस समय भी राम चरित मानस की उनकी हस्तलिखित पांडुलिपि के कुछ पन्ने रखे हुए थे. रात में हम दोनों ने जगकर बुलेटिन तैयार किया. प्रकाशन हुआ और हम अगली सुबह वहां से गायब.
आजमगढ़ जेल से निकलने के बाद दोबारा हम नहीं लौटे. पुलिस और खुफिया विभाग के लोगों को चकमा देते रहे. एक दो बार सामना भी हुआ लेकिन हम किसी तरह बच निकले. एक बार संभवतः नवंबर 1976 में संजय गांधी का इलाहाबाद में कार्यक्रम था, किसी तरह का विघ्न नहीं पहुंचे इसके लिए नए सिरे से धर पकड़ शुरू हुई थी. खुफिया पुलिस को किसी तरह इलाहाबाद में हमारे दारागंजवाले मकान का पता चल गया था. आधी रात को हमारे घर पुलिस का छापा पड़ा लेकिन हम एक बार फिर उन्हें चकमा देकर निकल भागने में कामयाब रहे. पुलिस की गाज हमारे परिवार, दोनों बड़े भाइयों पर गिरी. उन्हें पुलिसिया गालियों का सामना करना पड़ा. रात दारागंज थाने में गुजारनी पड़ी. बाद में उन्हें छोड़ दिया गया लेकिन जब हम लुकते छिपते वापस घर पहुंचे तो भाइयों ने हाथ जोड़ लिया. कहा पिता जी तो जेल में हैं ही, तुम भी जेल से आए हो, लेकिन हम लोग सरकारी मुलाजिम हैं. हम चले गए तो परिवार का क्या होगा? संकेत साफ था. जरूरी कपड़े और कुछ पैसे लेकर हम घर से बाहर हो लिए. मां और भाभी की आंखें में आंसू थे. घर से निकलने के बाद सीडीएपेंशन में कार्यरत समाजवादी साथी सतीश मिश्र के प्रयास से मुट्ठीगंज स्थित हिंदी साहित्य सम्मेलन के बगल की गली में रहने के लिए कमरे का जुगाड़ हो गया. खाना-पीना साथियों-सहयोगियों के घर परिवारों के जिम्मे था.समाजवादी चिंतक-साहित्यकार लक्ष्मीकांत वर्मा का निवास भी हमारे ठिकानों में होता.सम्मेलन में समाजवादी साथी, सम्मेलन के मौजूदा प्रधानमंत्री विभूति मिश्र के कहने पर उनके पिता जी, सम्मेलन के तत्कालीन प्रधानमंत्री प्रभात मिश्र के आशीर्वाद से वहीं हमारे बैठने और दिहाड़ी के हिसाब से कुछ पैसे मिलने की व्यवस्था भी हो गई. लेकिन एक दिन हमें खोजते खुफिया पुलिस सम्मेलन के कार्यालय भी आ धमकी. हमें सम्मेलन भी छोड़ना पड़ा. इस तरह से पुलिस और खुफिया विभाग के लोगों के साथ हमारी लुका-छिपी या कहें आंख मिचैनी का खेल चलता रहा. इस बीच  आपातकाल समाप्त हो गया लोकसभा चुनाव कराए गए और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा या कहें दबाव से सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, संगठन कांग्रेस और भारतीय लोक दल को मिलाकर बनी जनता पार्टी की केंद्र में सरकार बन गई. 

लेकिन शायद सत्ता का चरित्र एक जैसा ही होता है. जनता पार्टी के सत्तारूढ़ नेताओं का चरित्र बदलते देर नहीं लगी. हमारे जैसे लोगों के पास सच पूछें तो कोई काम नहीं था. चुनाव हम लड़ नहीं सकते थे, उस समय हमारी उम्र महज 21 साल की थी. पिता जी ने संसाधनों के अभाव और पूरे संसदीय क्षेत्र में काम नहीं होने की दुहाई देकर लोकसभा का चुनाव लड़ने से मना कर दिया था और विधानसभा चुनाव में उनका टिकट जनता पार्टी के हमारे पड़ोसी अध्यक्ष चंद्रशेखर जी ने काट दिया था. पिता जी बगावत कर चुनाव लड़ गए थे. चंद्रशेखर जी और रामधन जी के हर संभव विरोध के बावजूद बहुत कम मतों से चुनाव हार गए थे. इलाहाबाद में हम युवा जनता के बैनर तले सक्रिय थे. लेकिन अपनी सरकार और अपने नेताओं के रहन सहन व्यवहार और काम काज को लेकर जनता पार्टी या कहें कि राजनीति से भी मन उचटने और झुकाव पत्रकारिता की ओर बढ़ने लगा. सरकार पर दबाव बनाने की गरज से हम लोगों ने इलाहाबाद में ‘बेकारों को काम दो या बेकारी का भत्ता दो’ के नारे के साथ आंदोलन शुरू किया. बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं. हम भी सत्तारूढ़ दल की युवा शाखा के पदाधिकारी रहते हुए भी जेल गए. बहुत जल्दी ही समझ में आने लगा कि सत्ता का चरित्र वाकई एक जैसा ही होता है. आश्चर्य तो तब शुरू हुआ जब जनता पार्टी की सरकार ने, उसमें शामिल समाजवादियों ने एक भी ठोस काम ऐसा नहीं किया, जिससे देश में भविष्य में फिर कभी कोई दल अथवा नेता आपातकाल लागू करने का दुस्साहस नहीं कर सके.

 और नहीं तो लाकतंत्र की दुहाई देकर केंद्र में सत्तारूढ़ हुई जनता पार्टी की सरकार ने कुछ ही महीनों बाद ‘जनादेश’ के नाम पर पहले अलोकतांत्रिक कार्य के रूप में नौ राज्यों की कांग्रेस की चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त कर दिया. आपातकाल के बदनाम मीसा-आंतरिक सुरक्षा कानून-के विरुद्ध संघर्ष कर सत्तारूढ़ हुए लोगों को ‘मिनी मीसा’ की जरूरत महसूस होने में जरा भी लाज नहीं आई. संघ और पुराने कांग्रेसियों के दबाव में जनता पार्टी की सरकार और उसकी राज्य सरकारों ने ऐसे कई काम किए जिन्हें भ्रष्ट एवं स्वस्थ लोकतंत्र पर आघात पहुंचानेवाला ही कहा जा सकता था. जाहिर है जनता पार्टी की सरकार अपने ही अंतर्विरोधों के बोझ तले दबकर अकाल मौत का शिकार हो गई. बाद के वर्षों में भी आपातकाल के विरोध में या कहें जबरन आपातकाल और उसके कानूनों की ज्यादतियों का शिकार हुए लोगों ने मीसा जैसे खतरनाक प्रावधानों वाले टाडा और पोटा जैसे कानूनों की वकालत की. कई नेताओं को तो नागरिक स्वतंत्रताओं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटनेवाले पोटा जैसे कानूनों के प्रावधान भी कमजोर नजर आने लगे. इसलिए जब शिवानंद जी आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के प्रयासों को दबाने के उपायों को याद रखने और चौकस रहने की जरूरत बताते हैं तो सोचने का मन होता है कि क्या आज हमारे प्रायः सभी राजनीतिक दलों और नेताओं की राजनीतिक कार्यशैली को देखकर एक अदृश्य आपातकाल का एहसास नहीं होता. आज कौन दल अथवा नेता अपने आचरण से अपने लोकतांत्रिक होने का दावा कर सकता है. किस दल में आज अंदरूनी लोकतंत्र है जिसके बूते हम उम्मीद कर सकें कि इस देश में दोबारा आपातकाल लागू करने की हिमाकत नहीं होगी. 

हां, हम इस तरह की किसी भी स्थिति का विरोध करने के लिए खुद को तैयार तो कर ही सकते हैं. इस साल 25-26 जून को आपातकाल की बरसी पर इसका संकल्प तो ले ही सकते हैं क्योंकि हमारे पास और कुछ हो न हो, गांधी लोहिया और जयप्रकाश की वैचारिक थाती और गलत को गलत कहने और उसका विरोध करने की उनकी सीख और प्रेरणा तो है ही. इसे ही संजोकर जिन्दा रखने की जरूरत आज का hamara संकल्प है. यह बात तो हमारे चंचल जी भी मानेंगे ही जो शरीर से भले ही कोंग्रेसी हो गए हों, विचारों से समाजवादी और लोकतान्त्रिक ही हैं.  

Tuesday, 4 June 2013

तपती गर्मी में जैसलमेर 3: हम तो मर मर के जीते हैं




जयशंकर गुप्त


जैसलमेर से बाहर उत्तर पश्चिम की ओर निकलते ही कंकरीली-रेतीली झाड़ियों से भरे मैदान दूर दूर तक दिखाई देते हैं. सड़क सीमा संगठन द्वारा बनाई सड़क सीधे जैसलमेर से 130 किमी दूर पाकिस्तान सीमा के पास स्थित तनोट तक जाती है. कहीं कहीं सड़क पर रेत भर जाने से कठिनाई होती है. थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर बड़े बड़े दैत्याकार पंखों वाले मोटे खंभों की कतार दिखती है. ये खंभे यहां बड़े पैमाने पर पवन ऊर्जा (विंड एनर्जी) के उत्पादन में लगी कंपनियों सुजलान एनर्जी और एनरकान के हैं. जैसलमेर और बाड़मेर जिलों में पवन ऊर्जा के क्षेत्र में बड़े काम हो रहे हैं. सरकारी सूत्रों के अनुसार इससे तकरीबन 500 मेगावाट बिजली पैदा हो रही है. पवन ऊर्जा के उत्पादन में लगी कंपनियों की मानें तो अगर स्थापित क्षमता का संपूर्ण उपयोग हो जाए तो पूरे देश का बिजली संकट इससे दूर हो सकता है. कहीं-कहीं सौर ऊर्जा के संयंत्र भी दिखते हैं.

सड़क किनारे झोंपड़े में लू से बचाव और चाय की तैयारी में चरवाहे 

थोड़ा और आगे सोनु गांव के पास लाइम स्टोन की खदानें एवं लाइम स्टोन क्रशर दिखते हैं. बताते हैं कि यहां उच्च गुणवत्ता वाले चूना पत्थर मिलते हैं जिनका इस्तेमाल इस्पात कारखानों में होता है. जैसलमेर में बड़े पैमाने पर जिप्सम की खदानें भी हैं. कुछ जगहों पर तेल के भंडार भी मिले हैं. रामगढ़ के पास रिफाइनरी भी बन रही है. जैसलमेर और तनोट से समान (65 किमी) दूरी पर स्थित रामगढ़ कस्बेनुमा ग्राम पंचायत है जो आसपास के ग्रामीण इलाकों के लिए हर तरह की सुविधों की आपूर्ति का केंद्र और बाजार भी है. रामगढ़ के थोड़ा आगे बढ़ने पर पानी से भरी नहर मिलती है जिसके चलते आसपास के इलाकों में हरियाली और खेत भी नजर आते हैं. लेकिन उससे 25-30 किमी और आगे रणाऊ की ढाणी तक एक बार फिर रेतीले बंजर में कीकर, खेजरी और जाल घास के अलावा कुछ नहीं दिखता. रास्ते में एक जगह फूस के झोंपड़े में कुछ लोग बैठे हैं. पता चला कि आसपास के गांवों के चरवाहे हैं. मवेशी तो मैदान में चर रहे या पेड़ों, घास के झुरमुटों में छांह खोज रहे हैं जबकि चरवाहे इसी तरह के झोंपड़ों में बैठे आराम कर रहे होते हैं. कई बार ये लोग रात को भी यहीं कहीं सो जाते हैं. झोंपड़े में कुल तीन लोग हैं और साथ में भेड़ का एक मेमना भी. लकड़ी सुलगाकर चाय बन रही है.

 रणाऊ में बेकार खड़ा पवन ऊर्जा का खंभा 
गे दूर से ही रणाऊ गांव नजर आता है जहां सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नजर नहीं आता. सड़क से 300-350 मीटर दूर बसे सोलंकी राजपूतों के इस गांव में प्रवेश करते समय हमारी गाड़ी रेतीले रास्ते में फंस गई. ड्राइवर के लाख जतन करने पर भी रेत में धंसे कार के पहिए आगे-पीछे होने का नाम न लें. तपती रेत पर पैदल ही गांव में जाना पड़ा. रेत पर बसे गांव में एक महिला घर में भर गई रेत निकाल कर बाहर रख रही थी. पूछने पर बताती है कि यह तो आए दिन की बात है. जब भी तेज हवा या आंधी चलती है घरों में रेत भर जाती है. कुछ महिलाएं गांव से नीचे सड़क के पास टैंक से सिर पर घड़ों में पानी भरकर ला रही हैं. पता चला कि ट्यूबवेल में खराबी के कारण सात आठ दिन तक पानी नहीं आया था. रघुनाथ सिंह बताते हैं कि पानी के बिना बड़ी मुश्किल हुई थी. काफी अनुनय-विनय के बाद सीमा सुरक्षा बल के लोगों ने कुछ पानी दिया था. वह बताते हैं कि 70-80 घरों की इस ढाणी को आयल इंडिया ने गोद लिया है. ट्यूबवेल भी उसी ने लगाया है. उसके सौजन्य से कुछ साल पहले पवन ऊर्जा का एक खंभा भी गड़ा था लेकिन उससे बिजली आज तक नहीं मिली. बेकार खड़ा है. गांव में स्कूल है जहां आठवीं तक की पढ़ाई होती है. आसपास कोई अस्पताल नहीं है. न ही कोई डाक्टर-कंपाउंडर या एएनएम कभी इधर का रुख करता है.

 रेत के उपर बने घरों के सामने बात करती कमला देवी-
हम तो मर मर के जीते हैं
भी हमारी बात चल ही रही थी कि एक बुजुर्ग सी महिला कमला देवी सामने आती हैं और हमारा ही इंटरव्यू लेना शुरू कर देती हैं. बाद में कहती हैं, इस तरह के पूछने वाले बहुतेरे आते हैं लेकिन कुछ करते नहीं. लौटने के बाद सब भूल जाते हैं. आप भी भूल जाओगे. हमारी परेशानी ऐसे ही रहेगी. वह कहती हैं, ‘‘हम लोग तो यहां मर-मर के जीते हैं. गर्मी में गर्मी और लू सताती है. बरसात में मिट्टी-गोबर के घर गिरने लग जाते हैं. सर्दियों में ठंड सताती है. सर्दियों में रेत एकदम से ठंडी हो जाती और कई बार तापमान शून्य तक पहुंच जाता है. वह बताती हैं कि सिरदर्द की टिकिया से लेकर बुखार और डिलीवरी तक के लिए रामगढ़ जाना या फिर डाक्टर को फोन करके बुलाना पड़ता है. इस सड़क पर केवल एक बस चलती है. सुबह तनोट से रामगढ़ होकर जैसलमेर जाती है और फिर शाम को वही बस लौटती है. बाकी समय के लिए रामगढ़ से फोन करके टैक्सी बुलानी पड़ती है जो इमरजेंसी में एक हजार रु. भाड़ा लेता है. कई बार मरीज रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं. यहां लैंड लाइन नहीं. मोबाइल फोन की सुविधा भी नहीं के बराबर है. बीएसएनएल का टावर तनोट में है लेकिन कनेक्टिविटी नहीं. ऊपर टीले पर जाने और मौसम साफ होने पर ही बातचीत हो पाती है. राशन से लेकर सब्जी या कोई अन्य सामान रामगढ़ से ही मंगाना पड़ता है. पूरा गांव जीविका के लिए पशुपालन पर ही निर्भर करता है. लेकिन इस गांव में बच्चों में पढ़ने की ललक दिखती है.

गाय दूध रही एक महिला
णाऊ से थोड़ा आगे बढ़ने पर एक रास्ता गुर्दूवाला गांव की तरफ जाता है. तीन किमी के रास्ते में सेना के दस्ते और रेतीली पहाड़ियों पर उनके बंकर भी नजर आते हैं. गुर्दूवाला रेत के टीले पर बसा राजपूतों का गांव है. नीचे प्राइमरी स्कूल के पास खेल रहे बच्चों में स्वरूप सिंह भी है जो सातवीं में पढ़ने के लिए सोनु जाकर रहता है. वह नंगे पावं तपती रेत में दौड़कर गांव वालों को बुलाकर लाता है. सभी लोग स्कूल में जमा होते हैं. एक और युवक भूर सिंह 70 किमी दूर अपनी बहन के गांव हावुर (पूनमनगर) में जाकर दसवीं की पढ़ाई कर रहा है. छुट्टियों में गांव आया है. वह बताता है कि गांव तक सड़क है लेकिन बस नहीं आती. पानी के लिए जल दाय विभाग का ट्यूबवेल है जिसे चलाने की जिम्मेदारी गांव के ही दो युवकों पर है. सरकारी कर्मचारी कभी नहीं आता. इन्हें अपने वेतन से कुछ रु. देकर काम करवाता है. भूर सिंह बताता है कि गांव में रेत उड़ते रहती है. जवान लोग तो मवेशियों के साथ बाहर निकल जाते हैं. रात को जंगल में ही रह जाते, रोटियां सेंकते और बकरी के दूध में मिलाकर पी जाते हैं. कई बार आटे में रेत भी मिल जाती है. ये लोग भी रणाऊ  के लोगों की तरह ही यहां चार पीढियों से रह रहे हैं. गर्मी से बचाव के लिए क्या करते हैं? पूछने पर भूर सिंह बताता है कि भोगोलिक परिस्थितियां सब कुछ सहने के लायक बना देती हैं. लोग अपनी आवश्यकताओं को उपलब्ध संसाधनों के हिसाब से ढाल लेते हैं. ग्रामीण इलाकों में जो पानी मिलता है वह खारा, नमकीन होता है. उसमें फ्लोराइड की मात्रा अधिक होती है लेकिन गांव के लोग उसी का इस्तेमाल नहाने और पीने के लिए भी करते हैं. जिनके पास पैसे हैं वे मीठा पानी खरीदकरमंगाते हैं. गांव के बुजुर्ग कर्ण सिंह इस बात से खफा हैं कि अभी तक गुर्दूवाला को राजस्व गांव का दर्जा नहीं मिल सका है. हर छोटे बड़े काम के लिए रामगढ़ या जैसलमेर के चक्कर लगाने पड़ते हैं. सरकारी योजनाओं का उन्हें पता भी नहीं लगता, लाभ मिलना तो दूर बात है. किसी भी स्कूल में यहां मिड डे मील जैसी योजना का अता-पता नहीं.

माता तनोट राय का मंदिर

 तनोट की देवी का मंदिर
गुर्दूवाला से हम तनोट की तरफ बढ़ते हैं. ग्रामीणों की मदद से कार सड़क पर पहुंच जाती है. तनोट भी एक छोटी सी बस्ती है, दलित मेघवालों की. तनोट की ख्याति 1965 में हुए भारत पाकिस्तान युद्ध के कारण हुई थी. पाकिस्तानी फौज यहां लोंगेवाला होते हुए अंदर तनोट तक आ गई थी. सीमा सुरक्षा बल के लोगों का कहना है कि कम संख्या में मौजूद भारतीय जवान घिर गए थे. तभी वहां प्रकट सी हुई किसी महिला (देवी) ने उनसे मंदिर की ओट में आ जाने को कहा था. बताते हैं कि पाकिस्तानी सैनिकों ने वहां तकरीबन तीन हजार बम गोले बरसाए. 450 गोले मंदिर के पास भी गिरे लेकिन किसी का बाल भी बांका नहीं हुआ. बहुत सारे गोले तो फटे ही नहीं. उन्हें मंदिर प्रांगण में ही सहेजकर रख गया है. इसी तरह 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना की एक टुकड़ी लोंगेवाला पोस्ट तक घुस आई थी लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी और भारतीय सेना ने उन्हें मारते, वापस
 1965 के भारत-पाक युद्ध के समय मंदिर के पास गिराए 
पाकिस्तानी गोले जो फूट नहीं सके थे.
मंदिर में अन्य स्मृति चिह्नों, तस्वीरों के साथ उन्हें भी 
सहेजकर रखा गया है

खदेड़ते हुए उनके टैंक व गाड़ियां कब्जे में ले लिया था. इसे भी सेना और सीमा सुरक्षा बल के लोग देवी के चमत्कार से ही जोड़कर देखते हैं. बताते हैं कि उस समय वहां पोस्ट पर रहे जवान और अफसर साल में एक बार जरूर तनोट की देवी का दर्शन करने यहां आते हैं. अब तो वहां सीमा सुरक्षा बल की देख रेख और प्रबंधन में भव्य मंदिर, धर्मशाला और कार्यालय भी खुल गए हैं. देश भर से श्रद्धालुओं का यहां साल भर आना-जाना लगा रहता है.

नोट से लौटते समय हम लोंगेवाला पोस्ट होकर रामगढ़ आते हैं. लोंगेवाला में उस विजय स्तंभ और भारतीय सैनिकों द्वारा कब्जा किए गए पाकिस्तानी टैंक को देखते हैं. रास्ते में जगह-जगह मुख्य नहर से जोड़ने के नाम पर बनाई गई पक्की नालियां दिखती हैं जो जगह-जगह से टूटी-फटी हैं और सरकारी कामों की गुणवत्ता का बयान करती हैं. नहर का पानी अभी तक इन इलाकों में नहीं पहुंचा है और ना ही आजाद भारत के विकास की कोई किरण. जाहिर सी बात है कि जैसलमेर में दूर दराज के अनेक सीमावर्ती गांव अभी भी पिछड़ेपन का भूगोल बने हैं. चाहे गर्मी हो अथवा सर्दी और बरसात, उन्हें तो मर-मर के ही जीना पड़ता है.


नोट: इस लेख, यात्रा वृतांत के सम्पादित अंश लोकमत, लोकमत समाचार में प्रकाशित.

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