Thursday, 3 August 2017

बिहार की राजनीति और नीतीश की नैतिकता का डीएनए

नजरिया 

जयशंकर गुप्त 

''उसी को जीने का हक है जो इस जमाने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए.''



ताज़ा घटनाक्रम में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भूमिका पर लिखते हुए मशहूर शायर वसीम बरेलवी का ये शेर याद आ गया.
 तीन-चार दिन पहले तक 'संघ मुक्त भारत' बनाने और 'मिट्टी में मिल जाने मगर भाजपा के साथ हाथ नहीं मिलाने' की बातें करते रहे नीतीश कुमार ने जब 27 जुलाई की शाम अपने महागठबंधन सरकार के बड़े पार्टनर लालू प्रसाद यादव और उनके राजनीतिक कुनबे के 'भ्रष्टाचार' से 'आजिज' आकर कार्यवाहक राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी को अपना त्यागपत्र सौंपा तो लोगों को लगा कि राजनीति में भ्रष्टाचार के विरुद्ध नीतीश कुमार ने बड़ा साहसिक क़दम उठाया है.
नीतीश कुमार पिछले कई दिनों से अपने उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के त्यागपत्र के लिए दबाव बनाए हुए थे क्योंकि पिछले कुछ दिनों से लालू कुनबे की 'बेनामी संपत्ति' पर लगातार छापामारी अभियान में लगी सीबीआई ने तेजस्वी यादव के विरुद्ध भी एक मामले में एफ़आइआर दर्ज की थी. हालांकि नीतीश कुमार ने कभी तेजस्वी के त्यागपत्र की खुली मांग नहीं की थी लेकिन यह कहकर दबाव जरूर बनाया कि उनकी सरकार में भ्रष्टाचार का कोई आरोपी कैसे रह सकता है. इसके साथ ही उन्होंने तेजस्वी से बिंदुवार स्पष्टीकरण देने की माँग भी की.

नीतीश के त्यागपत्र देकर राजभवन से बाहर आते ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट करके उन्हें बधाई दी, कुछ ही घंटों में नीतीश कुमार को न सिर्फ भाजपानीत एनडीए का समर्थन मिला बल्कि उनके साथ सरकार साझा करने की घोषणा भी हो गयी, इससे नीतीश के 'साहसिक क़दम' की हवा निकल गई. उनके निवास पर जेडीयू और बीजेपी विधायकों के रात्रिभोज ने भी यही संकेत दिया कि 'साहसिक क़दम' की घोषणा भले ही 27 जुलाई की शाम को की गई हो, इसकी पटकथा पहले से ही लिखी जा चुकी थी.

चाहे सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी का समर्थन हो या फिर दिल्ली में बिना किसी जनाधार के सिर्फ भाजपा को राजनीतिक लाभ पहुंचाने की गरज से नगर निगमों के चुनाव लड़ने की घोषणा, अपने  प्रवक्ता के सी त्यागी से यह बयान दिलवाकर कि भाजपा के साथ वे ज्यादा सहज महसूस करते हैं और फिर राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन कर वह लगातार इस बात के संकेत दे रहे थे कि उनके मन में क्या चल रहा है.

हालांकि इसके साथ ही विपक्षी एकता और सांप्रदायिक ताक़तों के साथ संघर्ष की अपनी प्रतिबद्धता के इजहार, कांग्रेस के नेताओं से मुलाकात और उप राष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार गोपालकृष्ण गांधी के समर्थन की बात कर वह विपक्ष को भी लगातार झांसे में रखे हुए थे. इस सबके बावजूद नीतीश कुमार की राजनीति में मूल्य, नैतिकता और ईमानदारी के तत्व देखनेवाले राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि अगर वह अपने त्यागपत्र के साथ ही विधानसभा भंग करवाकर नए चुनाव कराने की सिफ़ारिश करते तो कुछ और बात होती. भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनकी प्रतिबद्धता भी कुछ ज्यादा निखर कर सामने आती. लेकिन ऐसा उनकी पहले से ही तैयार पटकथा में लिखा ही नहीं था और उन्होंने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी प्रतिबद्धता के नाम पर उनसे हाथ मिला लिया जिन्हें वह मनुवादी, सांप्रदायिक, फ़ासिस्ट करार देते हुए 'संघ मुक्त भारत' की बातें करते थे.  ौंके साथ सर्कार साझा करने को राजी हो गए जिन्होंने न सिर्फ उनके बल्कि उनके बहाने पुरे बिहार के डी एन ए  पर सवाल उठाये थे. 

रअसल, समाजवादी नेता और विचारक डा. राममनोहर लोहिया के नाम पर राजनीति करनेवाले तमाम कथित समाजवादियों की यह आदत रही है कि अपनी सुविधा के हिसाब से कभी गैर-कांग्रेसवाद और भ्रष्टाचार के विरोध के नाम पर जनसंघ और भाजपा के साथ हो लेते हैं और जब किसी वजह से असुविधा महसूस हुई तो सांप्रदायिकता और मनुवाद के विरोध के नाम पर कांग्रेस के साथ हाथ मिला लेने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ. नीतीश कुमार के साथ भी कुछ ऐसा ही है. लोहिया- जेपी के आंदोलन में लालू प्रसाद के साथ रहे नीतीश 1990 में बिहार में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनने के समय उनके बेहद करीबी सहयोगी रहे.उस समय लालू-नीतीश की जुगल जोड़ी बहुत मशहूर थी लेकिन कुछ ही वर्षों में निजी अहंकारों के टकराव के बाद दोनों के रास्ते अलग हो गए. उधर जनता दल की राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर धकेले जाने से तेज तर्रार समाजवादी नेता जार्ज फ़र्नांडिस भी ख़ासे परेशान थे. दोनों ने जनता दल से अलग होकर समता पार्टी बना ली. 1995 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार पहली बार आमने सामने थे.

मीडिया ने और बिहार के सवर्ण समाज ने उस समय नीतीश कुमार की राजनीति में ख़ूब हवा भरी थी लेकिन जब चुनावी नतीजे सामने आए तो नीतीश कुमार की समता पार्टी सीटों के हिसाब से दहाई का आंकड़ा भी नहीं पार कर सकी. आगे चलकर नीतीश कुमार ने जार्ज फ़र्नांडिस पर दबाव बनाकर उन्हें भाजपा के साथ चुनावी गठबंधन के लिए राजी किया. हालांकि उन्हें बिहार में लालू प्रसाद को अपदस्थ करने और  भाजपा के साथ साझेदारी कर खुद सत्तारूढ़ होने का अवसर 2005 में ही मिला लेकिन वह 1998 से लेकर 2004 तक एनडीए का हिस्सा बनकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों में रेल, भूतल परिवहन और कृषि मंत्री जरूर बनते रहे.

भाजपा के साथ उनका राजनीतिक हनीमून 2013 तक बख़ूबी चलता रहा. यहां तक कि 2002 के गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद भी उन्होंने भाजपा और एनडीए से अलग होने की ज़रूरत नहीं समझी. हालांकि इस दौरान उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से अपनी अलग तरह की दूरी जरूर बना रखी थी. अपने उस समय के डिप्टी और संयोग से इस बार भी डिप्टी ही बने सुशील मोदी के
ज़रिए दबाव बनाकर नरेंद्र मोदी को बिहार से बाहर ही रखा. यहां तक कि 2010 के विधानसभा चुनाव में भी मोदी को बिहार में अपनी पार्टी के चुनाव अभियान में भी शामिल नहीं होने दिया गया.
गुस्से से लाल-पीले हुए नीतीश 
लेकिन इस बीच भाजपा पर नरेंद्र  मोदी का दबदबा बढ़ने लगा था और अंदरखाने बिहार में भी जेडीयू और भाजपा गठबंधन के बीच कटुता और अविश्वास की खाई भी बढ़ने लगी थी. भाजपा ने बड़ी चालाकी से पटना में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक आयोजित की और उस बहाने नरेंद्र मोदी भी वहां गए. यही नहीं भाजपा के कुछ उत्साही लोगों ने मोदी के साथ अमृतसर के किसी कार्यक्रम में ली गई नीतीश कुमार की तस्वीर के साथ कुछ अख़बारों में बड़े-बड़े विज्ञापन प्रकाशित करवा दिए. ग़ुस्से से लाल पीले हुए नीतीश कुमार ने जवाब में नरेंद्र मोदी सहित भाजपा के नेताओं के लिए दिए जानेवाले अपने रात्रिभोज को रद्द करवा दिया. यही नहीं बिहार के बाढ़ पीड़ितों को दी गई गुजरात सरकार की मदद के बारे में किए गए प्रचार से क्षुब्ध नीतीश कुमार ने पूरी रकम गुजरात सरकार को वापस कर दी थी. उस समय नीतीश कुमार के मन मस्तिष्क में सांप्रदायिकता के विरोध का ज्वार तेज़ी से उमड़ने लगा और भाजपा के द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अपना उम्मीदवार घोषित करने के बाद तो जैसे नीतीश कुमार ने आपा ही खो दिया. उन्होंने एक झटके में अपनी सरकार से भाजपा के सभी मंत्रियों को बर्ख़ास्त कर दिया था.

इस तरह से भाजपा के साथ नीतीश कुमार का 15-16 साल पुराना राजनीतिक गठबंधन टूट गया. किसी तरह वह अपनी सरकार बचा पाने में वे सफल रहे. 2014 का लोकसभा चुनाव वह अकेले दम पर 'सुशासन बाबू' की अपनी छवि के सहारे लड़े लेकिन उनकी यह छवि किसी काम नहीं आई और बिहार की 40 में से केवल दो लोकसभा सीटें ही उनके जेडीयू के खाते में आ सकीं. '

लालू प्रसाद के साथ हुए
लोकसभा का चुनाव बुरी तरह से हारने के तुरंत बाद ही उन्हें इलहाम हुआ कि भाजपा और आरएसएस की चुनौतियों का जवाब वह अकेले नहीं दे सकते. और बिना समय गंवाए वह एक कुशल पैंतरेबाज की तरह लालू प्रसाद के पास पहुंच गए जिनके साथ उनका दो दशकों से छत्तीस का आंकड़ा था. लालू प्रसाद उस समय भी चारा घोटाले में सज़ायाफ्ता थे और आज भी हैं लेकिन तब शायद सांप्रदायिकता के जवाब में नीतीश कुमार के लिए लालू यादव का भ्रष्टाचार और परिवारवाद गौण हो गया. उन्होंने लालू प्रसाद को समझाया (लालू प्रसाद के शब्दों में कहें तो गिड़गिड़ाया) कि दोनों के एकजुट हुए बगैर भाजपा को बिहार में शिकस्त नहीं दी जा सकती. बाद में अपनी चुनौती को और मज़बूत बनाने की गरज से कांग्रेस को भी साथ लेकर महागठबंधन तैयार कर लिया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि बिहार के दलितों, महादलितों, पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों ने एकजुट होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में देश भर में चल रहे भाजपा  के विजय रथ को रोक कर अपने डीएनए को दिखा  दिया.

तीन चौथाई बहुमत के साथ नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार बन गई बावजूद इसके कि ज़्यादा (80) विधायक राजद के जीत कर आए थे और जद-यू के केवल 71  विधायक ही जीत सके थे. कांग्रेस के खाते में 27 विधायक आए थे. सरकार के गठन में भी नीतीश कुमार ने बड़ी चालाकी से मुख्यमंत्री पद के साथ ही विधानसभाध्यक्ष का पद भी अपने पास रख लिया ताकि गाढ़े समय में काम आ सके-आए भी.

कसमसाहट में थे नीतीश !

लेकिन कभी नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के बेहद करीबी रहे समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी के अनुसार अपने से सीनियर लालू प्रसाद की छाया में और इस बात के एहसास से भी कि आरजेडी के पास ज़्यादा विधायक हैं, नीतीश कुमार महागठबंधन में एक अजीब तरह की कसमसाहट महसूस कर रहे थे. वह ख़ुद को उस तरह सहज महसूस नहीं कर पा रहे थे जैसा कभी वह भाजपा और सुशील मोदी के साथ महसूस कर रहे थे. गाहे बगाहे राजद के लोगों की तरफ से इस तरह की बयानबाजी भी सामने आती रहती थी कि राजद के पास ज़्यादा विधायक हैं. ये बातें भी खुसुरपुसुर के ज़रिए सामने आती थीं कि अब नीतीश सरकार में उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के राज्यारोहण का समय आने लगा है.

इस बीच और ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के बाद से ही नीतीश कुमार को यह लगने लगा कि 2019 में भी नरेंद्र मोदी को शिकस्त दे पाना मुश्किल है. इसके साथ ही उन्हें यह भी समझ में आया कि 2019 में उन्हें विपक्ष के तथाकथित महागठबंधन की धुरी और चेहरा बनाने की बातें जितनी भी की जा रही हों, बिहार में अपने दल के महज दर्जन भर सांसद जिता पाने की अपनी राजनीतिक ताक़त के मद्देनज़र देश के शीर्ष नेतृत्व को पाने की उनकी महत्वाकांक्षा पूरी होनी मुश्किल है. कांग्रेस का नेतृत्व तत्काल उन्हें मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने को भी तैयार नहीं था. ऐसे में सुशील मोदी और अरुण जेटली के ज़रिए वह भाजपा आलाकमान यानी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ भी अपने राजनीतिक तार जोड़े हुए थे. कभी जेटली के करीबी रहे संजय झा, नीतीश कुमार के भी बेहद करीबी और जेडीयू के विधानपार्षद भी हैं.
दूसरी तरफ, नीतीश कुमार का अपने राजनीतिक भविष्य के बारे में चाहे जो भी आकलन रहा हो, नरेंद्र मोदी उन्हें अपने लिए भविष्य की मजबूत चुनौती ही मानते थे. इसलिए उन्होंने अतीत की सारी कड़वाहटों को भुलाकर नीतीश कुमार को अपनी शरण में लेने के लिए हामी भर दी. हालांकि नरेंद्र मोदी की राजनीतिक कार्यशैली को बारीकी से जानने और समझानेवाले लोग जानते हैं कि उन्हें कभी आंख दिखानेवाले उनके राजनीतिक विरोधियों को वह आसानी से माफ़ नहीं कर पाते. और अब तो कभी उन्हें आंख ही नहीं दिखाने बल्कि अपमानित करनेवाले नीतीश कुमार उनके शरणागत भी हैं.

तैयार थी योजना

राजनीतिक प्रेक्षकों की सुनें तो यह संयोग मात्र नहीं था कि एक तरफ भाजपा नेता सुशील मोदी ने अचानक लालू प्रसाद के कुनबे के कथित भ्रष्टाचार के मामलों को 'दस्तावेज़ी सबूतों' के आधार पर उजागर करना शुरू कर दिया और उधर सीबीआई, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय जैसी केंद्र सरकार की एजेंसियां लालू प्रसाद के कुनबे के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सक्रिय हो गईं. अब तो लालू प्रसाद और उनके परिवार के लोग यह आरोप भी लगा रहे हैं कि उनके कथित भ्रष्टाचार के मामलों से जुड़ी फाइलें और दस्तावेज़ नीतीश कुमार और उनके करीबी लोग ही मोदी के पास पहुंचाने में लगे थे. दनादन छापे पड़ने लगे. घंटों पूछताछ होने लगी. हालांकि इन छापेमारियों और पूछताछ में ठोस क्या क्या निकला इसे आज तक आधिकारिक तौर पर नहीं बताया गया. सिर्फ़ सूत्रों के हवाले से खबरें बाहर आती रहीं. इस बीच भ्रष्टाचार के एक मामले में तेजस्वी यादव के खिलाफ सीबीआई की प्राथमिकी ने नीतीश कुमार को सुअवसर और मनचाहा राजनीतिक अस्त्र प्रदान कर दिया.

हालांकि महज प्राथमिकी दर्ज होने के आधार पर राजनीतिकों के पद त्याग के उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं. इस आधार पर पदत्याग की मांग भी विरोधी तो करते हैं लेकिन जिनके भरोसे सरकार चल रही हो वे सत्ता के साझीदार इस तरह की मांग कम ही करते हैं. वैसे भी, बीएस मामले में नीतीश कुमार पर तेजस्वी यादव के त्यागपत्र लेने का अथवा महागठबंधन तोड़  दबाव बनाने वाली भाजपा  केंद्रीय मंत्री सहित कई वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ अभियोगपत्र दाखिल होने के बावजूद वे लोग अपने पदों पर  हुए हैं. और तो और मध्यप्रदेश सर्कार में तो एक मंत्री नरोत्तम मिश्रा  विधानसभा चुनाव भ्रष्ट आचरण का आरोप साबित होने के बाद चुनाव आयोग ने रद्द करते हुए उनके तीन साल तक चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दी है. सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रपति के चुनाव में उन्हें मतदान करने की छूट भी नहीं दी. लेकिन वह बड़ी शान मन्त्र बने हुए हैं. ताज्जुब तो इस बात का भी है की स्याम नितीश कुमार और उनके भाजपाई डेपुटी शुशील मोदी पर भी कई मामले दर्ज हैं.

नीतीश कुमार चाहते तो क़ानून को अपना काम करने देने के बहाने तेजस्वी के ख़िलाफ़ अभियोगपत्र दाख़िल होने और उनकी गिरफ़्तारी का इंतज़ार कर सकते थे, वैसी हालत में तेजस्वी को त्यागपत्र देना ही पड़ता. लेकिन उन्होंने इसकी ज़रूरत नहीं समझी. उन्होंने तो अपने लिए कुछ अलग तरह की ही राजनीतिक पटकथा तैयार करवा रखी थी जिसकी भनक अपने कुछेक ख़ास लोगों को छोड़कर अपने दल के सांसदों, विधायकों तथा शरद यादव जैसे वरिष्ठ नेताओं को भी नहीं लगने दी थी.

और फिर बिहार में द्विज मानसिकता के लोगों, उनसे प्रभावित और संचालित मीडिया का भी नीतीश कुमार पर तेजस्वी यादव के 'भ्रष्टाचार' से समझौता नहीं करने का दबाव था. उनकी सुशासन बाबू की छवि को ललकारा जा रहा था. यह बताने की आवश्यकता नहीं कि लंबे अरसे से बिहार के एक बड़े और मुखर (सवर्ण) तबके की आंखों में लालू यादव और नीतीश कुमार का गठबंधन किरकिरी की तरह से चुभ रहा था.ठीक वैसे ही जैसे कि नब्बे के शुरुआती दशक में चुभ रहा था. वे लोग 1994-95 की तर्ज पर ही इन दोनों को किसी भी कीमत पर अलग करवाने में जुटे थे. इसमें एक बार फिर वे सफल रहे.

नीतीश कुमार की एक ख़ासियत यह भी है कि जब वह सत्ता में होते हैं तो उन्हें अपनी अभिजात्य संस्कृति और उसकी सोहबत पसंद आती है. वह इसी तरह की मीडिया और नौकरशाही से घिरे रहने में खुद को सहज महसूस करते हैं लेकिन जब चुनाव आता है तो उन्हें यह एहसास होने में देर नहीं लगती कि यह तबका उनके पक्ष  माहौल चाहे जितना भी बना दे, उन्हें चुनाव नहीं जिता सकता, इसके लिए उन्हें दलितों, अपने सजातीय कुर्मी जनाधार के साथ ही अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों और बाहुबलियों का समर्थन आवश्यक नजर आने लगता है.

जहां तक भ्रष्टाचार के साथ नीतीश कुमार के कभी समझौता नहीं करने की बात है, शिवानंद तिवारी इसे उनका राजनीतिक ढोंग करार देते हैं. वह सवाल करते हैं, ''यह कैसी नैतिकता और ईमानदारी है जो सज़ायाफ्ता लालू प्रसाद के साथ चुनावी महागठबंधन को तो जायज ठहराती है लेकिन भ्रष्टाचार के पुराने मामले में महज प्राथमिकी दर्ज किए जाने को गठबंधन तोड़ने का आधार बना देती है. जिस समय लालू प्रसाद के दोनों बेटे चुनाव लड़ रहे थे, सरकार में मंत्री बने थे तब क्या नीतीश को इन मामलों की जानकारी नहीं थी? और फिर अगर प्राथमिकी दर्ज़ होना ही किसी के भ्रष्टाचार का सबूत है तो उनके खुद के और सुशील मोदी के ख़िलाफ़ भी तो क्रमशः हत्या और भ्रष्टाचार के आरोप हैं, इस पर नीतीश कुमार क्या कहेंगे.'' 

बिहार की राजनीति को बारीकी से जानने-समझनेवाले पूछते हैं कि नीतीश कुमार ने किस नैतिकता के आधार पर 1980 के बाद से ही, एक दो वर्ष के छोटे अंतराल को छोड़कर किसी न किसी दल के सहारे एक बार लोकसभा और फिर लगातार राज्यसभा का सदस्य बने चले आ रहे महेंद्र प्रसाद उर्फ किंग महेंद्र और अंबानी परिवार के खासमख़ास नौकरशाह रहे एनके सिंह उर्फ नंदू बाबू को राज्यसभा के टिकट दिए थे? उनके पिछले (सुशील मोदी के साथ गलबहियांवाले) कार्यकाल के दौरान अनंत सिंह जैसे अपराधी और बाहुबली छवि के कई विधायकों को मुख्यमंत्री और उनकी सरकार की सरपरस्ती हासिल थी. आज भी अनंत सिंह उनके बेहद करीबी कहे जाते हैं. भ्रष्टाचार के साथ किसी भी क़ीमत पर समझौता नहीं करने का दावा करने वाले नीतीश कुमार क्या बताएंगे कि चुनावों में उनके पास पैसे कहां से आते हैं जिससे वह अपना महंगा चुनाव अभियान और प्रशांत किशोर जैसे महंगे चुनाव प्रबंधक का ख़र्चा भी उठा पाते हैं.

हरहाल, बदले माहौल में  नीतीश कुमार की सरकार तो बची रह सकती है. हालांकि उनके नए गठबंधन में उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी के रुख को देखते हुए दरार अभी से नजर आने लगी है, शारद यादव के नेतृत्व में जेडीयू में भी एक बड़ा तबका उनकी नई राजनीति को अपने गले से नीचे उतार पाने में असहज महसूस कर रहा है. इससे बचने के लिए वह और उनके नए गठबंधन सहयोगी गुजरात और उत्तर प्रदेश की तर्ज पर राजद और कांग्रेस के विधायकों में सेंध लगाने की रणनीति पर अमल कर सकते हैं लेकिन इसके लिए भी नीतीश कुमार को अपनी प्रचारित राजनीतिक छवि के साथ समझौता ही करना पड़ेगा.

वैसे भी बिहार का मुखर तबका और मीडिया का एक बड़ा तबका भले ही अगले कुछ दिनों तक उनकी नैतिक, मूल्यपरक और ईमानदार राजनीति के कसीदे पढ़ते नजर आए, 2015 के विधानसभा चुनाव में उनके नेतृत्व और गठबंधन के पक्ष में लामबंद हुए और उनमें भविष्य का प्रधानमंत्री देखने लगे पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों के लोग, दलित एवं अल्पसंख्यक तो एक बार फिर छला गया ही महसूस कर रहे हैं. और दोबारा भाजपा के साथ मोहभंग की स्थिति में, जो असंभव नहीं है, उनके सांप्रदायिकता विरोधी नारों पर ये लोग कैसे यक़ीन करेंगे?

नोट : इस लेख का सम्पादित रूप 30 जुलाई  को बी बी सी, हिंदी की वेबसाइट पर प्रकाशित। 

Saturday, 1 July 2017

रायसीना हिल्स पर राम नाथ


दावेदारी: पीएम मोदी और भाजपा नेताओं के साथ रामनाथ कोविंद

जयशंकर गुप्त
सत्रह जुलाई को कुछ असंभव-सा अप्रत्याशित नहीं हुआ तो भाजपा के दलित नेता, बिहार के पूर्व राज्यपाल, पूर्व सांसद रामनाथ कोविंद देश के 14वें राष्ट्रपति बन जाएंगे। सत्तारूढ़ एनडीए के उम्मीदवार कोविंद का रायसीना हिल्स पर आलीशान राष्ट्रपति भवन में बतौर प्रथम नागरिक स्थापित होना अब महज औपचारिकता ही रह गई है। हालांकि विपक्षी कांग्रेस और उसके साथ लामबंद तकरीबन डेढ़ दर्जन छोटे-बड़े दलों ने कोविंद के विरुद्ध एक और दलित नेता मीरा कुमार को खड़ा करके मुकाबले को रोचक बनाने की कोशिश की है। पूर्व उप-प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार केंद्रीय मंत्री और लोकसभाध्यक्ष रह चुकी हैं और उनकी शख्सियत भी वजनदार है। इससे पहले भी के.आर. नारायणन के रूप में दलित नेता देश के राष्ट्रपति बन चुके हैं (हालांकि पूर्व राजनयिक और केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके नारायणन दलित नेता के रूप में पहचान बताए जाने पर शर्ममिंदगी महसूस करते थे। वे कहते थे कि देश के प्रथम नागरिक के रूप में उनका चयन दलित होने के कारण नहीं, बल्कि योग्यता और अनुभव के आधार पर हुआ था) लेकिन संसदीय इतिहास में यह शायद पहली बार है कि सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए दो वरिष्ठ दलित नेता आमने-सामने हैं।
वैसे, कहने को तो सर्वोच्च पद के लिए किसी एक नाम पर आम राय बनाने की बात भी चली थी लेकिन भाजपा ने कोविंद के नाम पर विपक्ष तो क्या अपने सहयोगी दलों को भी भरोसे में लेने की आवश्यकता नहीं समझी। उन्हें उम्मीदवार बनाने की एकतरफा घोषणा करके विपक्ष के सामने चुनौती पेश की कि वह या तो सत्ता पक्ष के उम्मीदवार का समर्थन करे या फिर उसका सामना करे। विपक्ष ने दूसरा विकल्प चुना। वैसे भी, 1977 में नीलम संजीव रेड्डी के चुनाव को छोड़ दें तो तकरीबन सभी राष्ट्रपतियों के चुनाव मतदान के जरिए ही हुए।
दरअसल, इस बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आगामी विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनाव की रणनीति के तहत ही उत्तर प्रदेश के कानपुर में कोरी या कहें कोली समाज से आने वाले दलित नेता कोविंद को अपना उम्मीदवार बनाया है। बिहार में राज्यपाल से पहले दो बार राज्यसभा का सदस्य रह चुके कोविंद भाजपा के प्रवक्ता, अनुसूचित जाति मोर्चा, भारतीय कोली समाज के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश भाजपा के महासचिव रह चुके हैं। वे एक-एक बार लोकसभा और विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। इसी वजह से उन्हें 2014 में लोकसभा का टिकट भी नहीं मिला।
शायद यही कारण है कि 14वें राष्ट्रपति पद के लिए उनकी उम्मीदवारी की घोषणा हुई तो बहुतों को और मीडिया के एक बड़े तबके को भी आश्चर्य हुआ। हालांकि उनके नाम पर विचार तो पहले से ही हो रहा था। कम से कम इस लेखक ने आउटलुक के आठ मई के अंक में भाजपा के राष्ट्रपति पद के संभावित उम्मीदवारों में उनके नाम की चर्चा प्रमुखता से की थी। भाजपा सूत्रों के अनुसार उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में गैर-जाटव दलित और गैर-यादव पिछड़ी जातियों पर केंद्रित भाजपा की चुनावी रणनीति की सफलता को आधार मानकर ही उन्हें एनडीए का उम्मीदवार बनाया गया।
इस चुनावी रणनीति के जनक उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अब राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह बताए जाते हैं। कल्याण सिंह ही कोविंद को पहली बार 1990 में भाजपा की राजनीति में लाए थे। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि आलाकमान की राय में सवर्णों के बीच भाजपा का समर्थन आधार चरम पर पहुंच चुका है। लिहाजा, पार्टी अपनी चुनावी रणनीति दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों पर केंद्रित कर रही है। दलितों में खासतौर से चमार या जाटवों के बीच मायावती और कांग्रेस की पकड़ मजबूत है जबकि पिछड़ी जातियों में यादव आमतौर पर मुलायम सिंह-अखिलेश यादव और लालू प्रसाद तथा कुछेक राज्यों में कांग्रेस तथा अन्य गैर-भाजपा दलों के साथ बताए जाते हैं। लिहाजा, भाजपा ने आदिवासियों के साथ ही गैर-जाटव दलित और गैर-यादव अन्य पिछड़ी जातियों के बीच पैठ बढ़ाने की कवायद तेज कर दी।
इस लिहाज से प्रधानमंत्री मोदी के रूप में अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व पहले से ही होने के बाद अब सर्वोच्च संवैधानिक पद पर किसी आदिवासी या दलित को बिठाने की रणनीति पर विचार किया गया। दिखावे के लिए लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू और श्रीधरन के नाम भी चर्चा में लाए गए थे। आडवाणी की दावेदारी तो खुद मोदी ने सोमनाथ यात्रा के दौरान अमित शाह और पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की मौजूदगी में यह कहकर बढ़ा दी थी कि आडवाणी जी को राष्ट्रपति बनवाना उनके लिए गुरु दक्षिणा होगी। ठगे-से महसूस कर रहे आडवाणी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उन्हें ऐसी गुरु दक्षिणा मिलेगी!
दरअसल, भाजपा और संघ परिवार के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार अंतिम क्षणों में चर्चा सिर्फ दो नामों-झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू और बिहार के राज्यपाल कोविंद पर ही सिमट गई थी। ओडिशा की द्रौपदी मुर्मू के लिए अंग्रेजी तथा हिंदी भाषा की अज्ञानता संभवत: उनकी उक्वमीदवारी पर भारी पड़ गई। उनके समर्थन में यह तर्क था कि उनके चयन का लाभ ओडिशा में सत्तारूढ़ बीजद का समर्थन और कई राज्यों में आदिवासियों के बीच आधार मजबूत करने में मिल सकता है। हालांकि बीजद ने तो पहले ही एनडीए के उम्मीदवार को समर्थन देने की घोषणा कर दी थी।
कोविंद के पक्ष में तर्क दिए गए कि करीबी संबंधों के चलते सिर्फ नीतीश कुमार और जदयू का ही समर्थन नहीं मिलेगा, बल्कि उत्तर प्रदेश का होने के नाते मायावती और उनकी बसपा को भी समर्थन पर मजबूर होना पड़ेगा। यह नहीं भी होता है तो उत्तर प्रदेश में दलितों का बड़ा तबका भाजपा के साथ हो जाएगा और फिर गुजरात, राजस्थान तथा मध्यप्रदेश में कोली समाज को भाजपा से जोड़ने में सफलता मिलेगी।
हालांकि गुजरात में तेजी से उभरे युवा दलित नेता जिग्नेश मेवानी नहीं मानते कि सिर्फ दलित और कोली होने के कारण गुजरात में और देश के अन्य हिस्सों में भी दलित भाजपा का साथ देंगे। वे कहते हैं, ''भाजपा वाले समझते हैं कि दलित समाज में पैदा हुए रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति के पद के लिए नॉमिनेट करके उन्होंने 'मास्टर स्ट्रोक’ मारा है। लेकिन अब दलित ऐसे पैंतरों के झांसे में आने वाले नहीं।’
अगले चुनाव में दलितों को अपने पाले में लाने का फायदा मिले न मिले फौरी तौर पर भाजपा को इस रणनीति में कामयाबी मिलती साफ दिख रही है। विपक्ष की एकजुटता के पक्षधर नीतीश कुमार ने राज्यपाल के रूप में कोविंद की तटस्थ भूमिका के आधार पर समर्थन की घोषणा कर विपक्षी दलों में खलबली मचा दी। बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, अन्ना द्रमुक के दोनों धड़ों और वाईएसआर कांग्रेस ने पहले ही एनडीए उम्मीदवार के समर्थन की घोषणा कर दी थी। नीतीश कुमार का एक तर्क यह भी था कि कोविंद की राजनैतिक पृष्ठभूमि आरएसएस से जुड़ी नहीं है। वे 1977 से 1979 के दौरान तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार के समय केंद्र सरकार के वकील और तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री कार्यालय में निजी सहायक थे। हालांकि विपक्ष के अन्य नेता यह समझाने में लगे हैं कि संघ से जुड़े नहीं होने का मतलब कोविंद का धर्मनिरपेक्ष होना नहीं है।
जनवरी 2016 में गांधीनगर में गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में कोविंद के एक भाषण की चर्चा भी हो रही है। उसमें उन्होंने कहा था कि गांधी और नेहरू का लक्ष्य सत्ता प्राप्त करना था। भाजपा प्रवक्ता के बतौर उनके एक कथन को भी उछाला जा रहा है, जिसमें उन्होंने ईसाइयों और मुसलमानों को एलियन यानी बाहरी करार दिया था।
दूसरी तरफ, कोविंद की उम्मीदवारी और नीतीश कुमार के पलटे रुख से बौखलाई कांग्रेस और उसके साथ खड़े बाकी विपक्ष ने भाजपा की राजनैतिक चाल की काट के लिए और उससे भी अधिक विपक्ष के बिखराव को रोकने के तहत मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया है। सोचा यह गया था कि बिहार की बेटी के नाम पर नीतीश फैसले पर पुनर्विचार करेंगे लेकिन यह सब बेअसर रहा। नीतीश ने साफ किया है कि कोविंद को उनका समर्थन जारी रहेगा, अलबत्ता वे 2019 में विपक्ष की एकता के पक्ष में हैं और राजग के साथ नहीं जाने वाले। सूत्र बताते हैं कि नीतीश विपक्ष के प्रत्याशी के रूप में महात्मा गांधी के पौत्र गोपाल कृष्ण गांधी के नाम की घोषणा करवाना चाहते थे। लेकिन मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाने का एक फायदा विपक्ष को इस रूप में जरूर मिला कि कोविंद की उम्मीदवारी से पसोपेश में पड़ गई मायावती को वापस विपक्ष के पाले में आने का बहाना मिल गया। हालांकि राजनैतिक प्रेक्षकों का मानना है कि विपक्ष की एकजुटता के लिए कांग्रेस ज्यादा गंभीर नहीं दिख रही है। वरना, समय रहते आम आदमी पार्टी, बीजद, तेलंगाना राष्ट्र समिति, वाईएसआर कांग्रेस और इनेलो को भी साधने की पहल क्यों नहीं की गई।
दूसरी तरफ कोविंद की जीत के प्रति आश्वस्त भाजपा के रणनीतिकार जीत के मतों का अंतर बढ़ाने की कवायद में लगे हैं। एक रणनीतिकार बताते हैं कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले भाजपा और इसके सहयोगी-समर्थक दलों का समर्थन आधार 49 फीसदी से कुछ कम ही बन पा रहा था। लेकिन अब उसे तकरीबन 60 फीसदी मतों का आश्वासन है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव में लोकसभा और राज्यसभा के साथ विधानसभाओं (विधान परिषद नहीं) के निर्वाचित सदस्य ही मतदान कर सकते हैं।
हालांकि प्रथम नागरिक के चुनाव में आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। मीरा कुमार की जाति को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर उनके पति को ब्राह्मण बताया जा रहा है जबकि वह जन्मना दलित हैं और उनकी शादी पिछड़ी जाति के मंजुल कुमार के साथ हुई है। उन पर दलितों के हित में कभी कुछ खास न करने और अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करते रहने के आरोप लगाए जा रहे हैं। इसी तरह के आरोप कोविंद पर भी लग रहे हैं। उनके बारे में तो सांसद रहते अपने ही मकान को सांसद निधि के खर्चे से 'बारात घर’ में तब्दील करवा लेने के आरोप भी लग रहे हैं। महिलाओं के लिए संसद और विधायिकाओं में 33 फीसदी आरक्षण का विरोध करने के कारण उन पर महिला विरोधी होने के आरोप भी लग रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि चुनाव अभियान के जोर पकड़ने के साथ ही दोनों उम्मीदवारों और उनके समर्थकों के बारे में आरोप-प्रत्यारोपों के और तीखे और तेज होने की आशंका है। लेकिन सच यह भी है कि आरोप-प्रत्यारोप माहौल तो बना-बिगाड़ सकते हैं लेकिन इस चुनाव के नतीजे नहीं बदल सकते।