Tuesday, 9 May 2017

गैर भाजपावाद की परीक्षा होगा राष्ट्रपति चुनाव



गैर भाजपावाद की परीक्षा होगा राष्ट्रपति चुनावकारण चाहे जुलाई महीने में होनेवाला राष्ट्रपति का चुनाव हो अथवा दो साल बाद लोकसभा के आम चुनाव, विपक्षी एकता या कहें तमाम गैर भाजपा-गैर राजग दलों के महागठजोड़ की कवायद नए सिरे से शुरू होती दिख रही है। इस कवायद के केंद्र में हैं कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी। गैर भाजपा दलों के कई कद्दावर नेताओं की उनसे मुलाकात से इस बात के संकेत मिलने लगे हैं कि विपक्ष न सिर्फ राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपानीत सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को मजबूत चुनौती देने की साझा रणनीति की संभावनाएं तलाशने में जुट रहा है बल्कि लोकसभा के अगले चुनाव और उससे पहले होनेवाले कुछ राज्य विधानसभाओं के चुनाव में भी विपक्षी मतों का बंटवारा रोकने और भाजपा के नेतृत्व में मुखर हो रही सांप्रदायिक ताकतों को एकजुट चुनौती पेश करने के लिए विपक्षी महागठबंधन की अनिवार्यता के प्रति भी गंभीर हो रहा है।
इसे राजनीतिक विडंबना भी कह सकते हैं कि कभी 1960 के दशक के मध्य में अपराजेय बनती जा रही कांग्रेस को राज्यों और केंद्र में भी अपदस्थ करने के लिए समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की रणनीति तैयार की थी। अब तमाम गैर कांग्रेसी और गैर भाजपा-राजग दलों के नेता नए सिरे से उसी कांग्रेस को साथ लेकर ‘गैर भाजपावाद’ की रणनीति तैयार करने में लगे हैं। कांग्रेस के भीतर भी एक बड़े तबके या कहें नेतृत्व की राय बन रही है कि मौजूदा परिस्थितियों में पार्टी भाजपा-राजग को सीधे और अकेले शिकस्त दे सकने की स्थिति में नहीं है। इसके लिए किसी न किसी तरह का विपक्षी महागठबंधन खड़ा करना ही होगा। इस बढ़ते सोच के तहत ही अप्रैल के तीसरे-चौथे सप्ताह में जनता दल (यू) के अध्यक्ष, बिहार के मुक्चयमंत्री नीतीश कुमार और माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने एक ही दिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की। उसके बाद भाकपा के सचिव, सांसद डी. राजा, जनता दल (यू) के पूर्व अध्यक्ष, सांसद शरद यादव और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने भी श्रीमती गांधी के साथ अलग-अलग दिनों में मुलाकात की। इससे पहले समाजवादी नेता, लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष रवि राय की अंत्येष्टि के अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि देने भुवनेश्वर गए नीतीश कुमार ने ओडिशा के मुख्यमंत्री एवं बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक से मुलाकात की। येचुरी भी लगातार बीजद नेताओं के संपर्क में हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी पटनायक से मिल चुकी हैं। संसद के बजट सत्र के समापन से पहले सुश्री बनर्जी ने समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और एनसीपी के नेता प्रफुल्ल पटेल से मुलाकात की थी। विपक्ष के कुछ नेता तमिलनाडु में द्रमुक नेतृत्व के साथ लगातार संपर्क में हैं तो कुछ लोग अन्नाद्रमुक को भी विपक्षी खेमे के साथ बने रहने के लिए उसके नेताओं से संपर्क साध रहे हैं। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद भी विपक्षी महागठबंधन के लिए सक्रिय हैं। एक मई को नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में प्रसिद्ध समाजवादी नेता, चिंतक मधु लिमए के 95वें जन्मदिन पर हुए विपक्षी नेताओं के जमावड़े और उसमें उभरे स्वरों से भी लगा कि किसी तरह की एकजुटता अथवा महागठबंधन के लिए विपक्षी खेमे में छटपटाहट बढ़ी है। भाकपा नेता डी. राजा के अनुसार फिलहाल तो विपक्ष के सामने राष्ट्रपति के चुनाव में एकजुट होकर राजग के सामने मजबूत चुनौती पेश करने की बात है। विपक्ष की एकजुटता के लिहाज से राष्ट्रपति का चुनाव पहला ‘एसिड टेस्ट’ होगा जिसमें यह पता लग सकेगा कि कौन से गैर राजग दल संयुक्त विपक्ष के साझा उम्मीदवार के समर्थन में खुलकर सामने आ सकते हैं। गौरतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव के लिए मौजूदा निर्वाचक मंडल में भाजपा और उसके सहयोगी दल बहुमत से कुछ दूर हैं। साथ ही शिवसेना की बदलती भंगिमाएं कब गच्चा दे जाएंगी, इसको लेकर भाजपा नेताओं की बेचैनी कम नहीं हो पा रही है। उसे अपना मनमाफिक राष्ट्रपति चुनवाने के लिए विपक्षी खेमे में सेंध लगाकर कुछ अतिरिक्त मतों का जुगाड़ करना पड़ सकता है। इस राजनीतिक सेंधमारी को रोकने के लिए भी विपक्षी खेमा सक्रिय है। उसकी कोशिश विपक्ष की ओर से ऐसा साझा उक्वमीदवार पेश करने की लगती है जो न सिर्फ सभी गैर भाजपा दलों को एकजुट रख सके बल्कि राजग के अंदर से भी कुछ मतों का जुगाड़ कर सके। माकपा के महासचिव येचुरी कहते हैं, ‘हम नीतियों और कार्यक्रमों के आधार पर फैसला करेंगे। 2019 में सांप्रदायिक शक्तियों की सरकार के विरुद्ध देश में एक वैकल्पिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए काम करेंगे।’
दरअसल, बिहार, दिल्ली और पंजाब विधानसभा के चुनावी नतीजों को अपवाद मान लें तो मई 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए अधिकतर विधानसभा चुनाव, उप चुनाव और नगर निकायों और पंचायत के चुनावों में भी अपराजेय और विजेता बनकर उभरी भाजपा और उसके नेतृत्व वाले राजग की चुनावी सफलता के लिए अन्य कारणों के अलावा विपक्षी मतों के बंटवारे को ही मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है। लोकसभा चुनाव हों अथवा झारखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, असम और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्य विधानसभाओं और महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली के नगर निकायों के चुनाव, भाजपा और उसके सहयोगी दलों को मिले मतों के प्रतिशत के मुकाबले अगर विपक्षी दलों को मिले मतों के प्रतिशत को जोड़कर देखें तो संयुक्त विपक्ष भाजपानीत राजग पर निर्णायक रूप से भारी दिखता है। अगर विपक्षी दल अपने निजी अहंकार, वैमनस्य और अपनी राजनीतिक ताकत के बारे में अपने अतिरेकी आकलन को परे रखकर चुनावी तालमेल कर चुनाव लड़े होते तो नतीजों की शक्ल कुछ और नजर आती।
विपक्ष की इस कमजोरी को सबसे पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और कभी उनके बेहद करीबी और फिर कट्टर राजनीतिक विरोधी रहे राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने महसूस किया। बकौल नीतीश कुमार, उन्होंने लोकसभा चुनावों के नतीजे के बाद ही बिना समय गंवाए लालू प्रसाद से बात की और दोनों इस बात पर सहमत हुए कि बिना विपक्षी एकजुटता के भाजपा और उसके सहयोगी दलों की चुनौती का सामना कर पाना मुश्किल होगा। इसके बाद ही बिहार में जद (यू), राजद और कांग्रेस के बीच चुनावी गठजोड़ हुआ जो कारगर भी साबित हुआ।
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव से पहले वहां भी नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने विपक्षी महागठबंधन की पहल की थी लेकिन खुद के बूते चुनाव जीतने के अति विश्वास के कारण राज्य में भाजपा विरोधी दो महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकतें-मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम-अखिलेश की समाजवादी पार्टी एक साथ नहीं आ सकी। बाद में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन हुआ भी तो उसमें चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल, जनता दल (यू) और राजद को जगह नहीं मिली। इससे पहले असम में कांग्रेस नेतृत्व की हठधर्मिता के कारण असम गण परिषद और सांसद बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के साथ चुनावी तालमेल नहीं हो सका था। नतीजतन, असम और उîार प्रदेश में भाजपा पहली बार अपने बूते भारी बहुमत से सरकार बनाने में सफल हो सकी। हालांकि वोटों का प्रतिशत देखें तो भाजपा और इसके सहयोगी दलों को यूपी में तकरीबन 40 प्रतिशत मत मिले जबकि बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल को तकरीबन 51 प्रतिशत मत मिले हैं। उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों के बाद अखिलेश यादव और मायावती ने भी साथ आने और भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाने की बात करनी शुरू कर दी है। इसका स्वागत करते हुए शरद यादव कहते हैं कि राष्ट्रपति के चुनाव में गैर भाजपा दलों को गोलबंद करने के प्रयास काफी सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। इस एकजुटता से 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन खड़ा करने की प्रक्रिया को बल मिलेगा। 2019 में गैर भाजपा दलों का महागठबंधन सांप्रदायिक ताकतों को मजबूत चुनौती देगा, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।
लेकिन इस तरह के किसी महागठबंधन को लेकर कई सवाल और आशंकाएं भी हैं। मसलन महागठबंधन का नेता कौन होगा? राहुल गांधी, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल समेत कई दावेदार दिख रहे हैं। नीतीश-ममता समेत क्षेत्रीय दलों का कोई भी ऐसा नेता नहीं है जिसका एक राज्य के बाहर संगठन और जनाधार हो। कांग्रेस की उपस्थिति जरूर कई राज्यों में है लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व पर कितने दल और नेता राजी होंगे, यह भी एक सवाल है। वैसे महागठबंधन का नेता कौन होगा, इस तरह के सवालों के जवाब के लिए विपक्ष के पास अभी बहुत समय है। विपक्ष के एक वरिष्ठ नेता की मानें तो जब कट्टïर विरोधी जनता दल (यू), राजद और कांग्रेस आपस में गठबंधन कर सकते हैं तो मायावती-अखिलेश और अजित सिंह, ममता बनर्जी-वाम दल और कांग्रेस, बीजू जनता दल और कांग्रेस, कांग्रेस और एनसीपी, कांग्रेस और आप तथा द्रमुक और अन्ना द्रमुक सांप्रदायिक ताकतों को वैकल्पिक नीतियों, न्यूनतम साझा कार्यक्रमों के साथ मजबूत चुनौती देने के नाम पर एक साथ क्यों नहीं हो सकते। अगर एकजुट हुए तो चुनावी नतीजे बिहार की तरह के होंगे और अगर अलग-अलग लड़े तो उत्तर प्रदेश में विधानसभा के हालिया चुनाव में हुई राजनीतिक दुर्गति को प्राप्त कर सकते हैं।

कौन बनेगा राष्ट्रपति

कौन बनेगा राष्ट्रपति

राष्ट्रपत‌ि भवन
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कौन बनेगा, देश का अगला यानी 14वां राष्ट्रपति! मौजूदा राष्ट्रपति, 81 वर्षीय प्रणब मुखर्जी को दूसरा कार्यकाल मिलेगा या फिर अगले जुलाई महीने में उनके उत्तराधिकारी का चुनाव होगा। इस छोटे लेकिन जटिल सवाल का सटीक जवाब फिलहाल किसी के पास अभी नहीं दिख रहा है। अटकलों के बाजार में रोज कुछ नाम तेजी से उभरते हैं और फिर कई कारणों से दब भी जाते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पिछली गुजरात (सोमनाथ) यात्रा के दौरान उनका एक कथित बयान मीडिया की सुर्खियां बना जिसमें उन्होंने अपने सिपहसालार कहे जानेवाले भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की मौजूदगी में कहा था कि आडवाणी जी को राष्ट्रपति बनवाना उनके लिए गुरु दक्षिणा देने जैसा होगा। लेकिन उनके इस कथित बयान के 20 दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में आडवाणी के साथ ही भाजपा के मार्गदर्शक बना दिए गए पार्टी के एक और पूर्व अध्यक्ष मुरली मनेाहर जोशी तथा केंद्रीय मंत्री उमा भारती के खिलाफ साजिश का मुकदमा चलाए जाने से संबंधित याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए कहा कि मामले की सुनवाई त्वरित गति से होनी चाहिए। देश की सर्वोच्च अदालत के इस रुख के बाद आडवाणी जी को राष्ट्रपति बनाने की मुहिम कुछ मद्धिम सी पड़ गई लगती है। हालांकि कई बार राजनीतिक फैसले अदालती रुख पर भारी भी पड़ सकते हैं।
आडवाणी हों या कोई और, खासतौर से उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधानसभाओं के चुनाव में भाजपा को मिली प्रचंड जीत और मणिपुर और गोवा में येन-केन प्रकारेण भाजपा की सरकारें बन जाने के कारण अगले राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा और इसके नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का पलड़ा पहले से कुछ भारी हो गया है। यह भी तय-सा हो गया है कि अगला राष्ट्रपति भाजपा का और वह भी प्रधानमंत्री मोदी और उनके सिपहसालार अमित शाह की पसंद का ही होगा। इस लिहाज से भी कभी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन, झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू, बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद जैसे बहुतेरे नाम हवा में उछल रहे हैं। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता की मानें तो सभी लोग मोदी जी का मूड भांपने में लगे हैं और मोदी जी हैं कि इस बारे में अपने पत्ते नहीं खोल रहे। यहां तक कि करीबी होने का दावा करने वाले नेताओं को भी इस संबंध में कोई भनक नहीं लगने दे रहे।
मोदी की कार्यशैली पर गहरी नजर रखने वाले राजनीति विज्ञानियों का मानना है कि मोदी इस मामले में भी कोई 'सरप्राइज’ दे सकते हैं। वह रायसीना हिल पर स्थित राष्ट्रपति भवन के लिए ऐसा नाम तय कर सकते हैं जिसके व्यक्तित्व से एक खास तरह का सामाजिक संदेश जाए और जो उनकी भावी राजनीति के हिसाब से भी फिट बैठता हो। ऐसे में झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू का नाम प्रमुखता से सामने आता है। वह आदिवासी महिला हैं और ओडिशा की रहनेवाली हैं। प्रतिभा पाटिल के रूप में देश को महिला राष्ट्रपति तो मिल चुका है लेकिन द्रौपदी अगला राष्ट्रपति बनती हैं तो उन्हें पहली आदिवासी 'महिला’ राष्ट्रपति बनने का गौरव हासिल हो सकेगा। उन्हें राष्ट्रपति बनवाने का राजनीतिक लाभ मोदी ओडिशा विधानसभा के चुनाव में भी ले सकेंगे।
उम्मीदवार चाहे कोई भी हो नरेन्द्र मोदी और भाजपा किसी भी कीमत पर अपना राष्ट्रपति बनवाना चाहते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार इसके लिए अगर किसी स्वतंत्र और गैर विवादित नाम पर विपक्ष के साथ आम राय बनाने की जरूरत पड़ती है तो वह इसके लिए भी तैयार हो सकते हैं। इसकी कवायद उन्होंने अभी से शुरू भी कर दी है। पिछले दिनों इस कवायद के तहत ही उन्होंने राजग के तमाम छोटे-बड़े 33 घटक एवं समर्थक दलों की बैठक बुलाई थी। इसमें उन्होंने राष्ट्रपति के चुनाव के मद्देनजर संसद और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचक मंडल में राजग की स्थिति का आकलन किया था कि कौन-कौन साथ आ सकता है और कौन विरोध में जा सकता है। राजग के सबसे पुराने सहयोगी, केंद्र और महाराष्ट्र सरकार में भी साझीदार शिवसेना के राजनीतिक रुख को लेकर प्रधानमंत्री मोदी और उनके रणनीतिकार अक्सर सशंकित रहते हैं। महाराष्ट्र विधानसभा और फिर मुंबई नगर महापालिका के साथ ही राज्य के अन्य स्थानीय निकायों के चुनाव में शिवसेना ने भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा। शिवसेना का राष्ट्रपति के दो चुनावों में भी भाजपा से अलग रुख रहा है। एक बार महाराष्ट्र गौरव के नाम पर शिवसेना कांग्रेस की प्रतिभा पाटिल का समर्थन कर चुकी है तो पिछले चुनाव में उसने कांग्रेस के ही प्रणब मुखर्जी को खुलेआम समर्थन दिया था। इस बार भी शिवसेना ने अगले राष्ट्रपति के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत का नाम उछालकर भाजपा और मोदी को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है। ऐसे में जबकि भाजपा राष्ट्रपति के चुनाव के लिए एक-एक वोट के जुगाड़ में लगी है, शिवसेना की राजनीतिक पैंतरेबाजियां उसे परेशान कर रही हैं। भाजपा ने राष्ट्रपति के चुनाव के मद्देनजर ही अपने दो नव निर्वाचित मुख्यमंत्रियों योगी आदित्यनाथ और मनोहर पर्रीकर तथा उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को सांसद भी बने रहने को कहा है क्योंकि राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में एक सांसद के वोट की कीमत 708 की होती है और चुनावी गणित को देखते हुए मोदी और भाजपा किसी तरह का जोखिम लेने की स्थिति में नहीं हैं।
दरअसल, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी भाजपा की प्रचंड विजय के बावजूद राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में भाजपा और इसके सहयोगी-समर्थक दलों का समर्थन आधार 49 फीसदी से कुछ कम ही बन पा रहा है। यानी भाजपा को अपनी खांटी पसंद का राष्ट्रपति बनवाने के लिए तकरीबन 25 हजार अतिरिक्त मतों का जुगाड़ करना पड़ सकता है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के साथ ही राज्य विधानसभाओं (विधान परिषद नहीं) के निर्वाचित सदस्य ही मतदान कर सकते हैं। चुनावी गणित के मद्देनजर मोदी और भाजपा की नजर शिवसेना को अपने पाले में रखने के साथ ही बीजू जनता दल और अन्ना द्रमुक के दोनों धड़ों पर टिकी है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी से भाजपा ओडिशा और झारखंड से भी कुछ अतिरिक्त वोट बटोर सकती है। लेकिन इससे भी बात नहीं बनते देख मोदी आम राय बनाने के नाम पर किसी स्वतंत्र और तटस्थ नाम को भी आगे बढ़ा सकते हैं।
दूसरी तरफ, गैर-भाजपाई विपक्ष राष्ट्रपति के चुनावी गणित में भाजपा की कमजोरी को अवसर के रूप में इस्तेमाल करने की जुगत में लगा है। विपक्ष के रणनीतिकार एक तरफ तो प्रधानमंत्री मोदी और भाजपानीत राजग के साथ भावी राष्ट्रपति के नाम पर आम राय कायम करने की प्रक्रिया में अपनी राय को अहमियत दिलाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं, दूसरी तरफ सत्तारूढ़ पक्ष के साथ बात नहीं बन पाने की स्थिति में उनकी रणनीति एक ऐसे उम्मीदवार को मैदान में उतारने की लगती है जो न सिर्फ तमाम गैर-भाजपा दलों को इस चुनाव में एकजुट रखने में कामयाब हो सके बल्कि चुनाव की स्थिति में भाजपा और राजग के मतदाताओं में भी सेंध लगा सके। विपक्ष के खेमे में ऐसे दो नाम हवा में हैं। एक, एनसीपी के अध्यक्ष और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके पूर्व रक्षा मंत्री शरद पवार का है और दूसरा जनता दल यू के पूर्व अध्यक्ष और कभी राजग के संयोजक रहे शरद यादव का। यह दोनों न सिर्फ विपक्ष के अंतर्विरोधों पर काबू पा सकते हैं बल्कि सत्ता पक्ष के मतदाता वर्ग में सेंध भी लगा सकते हैं। पिछले दिनों मोदी सरकार द्वारा पद्म विभूषण से अलंकृत शरद पवार की उम्मीदवारी के बाद राजग में शिवसेना के सामने एक बार फिर मराठा गौरव के नाम पर उनका समर्थन करने का दबाव और तर्क बढ़ सकता है, वहीं अपने जोड़तोड़ के राजनीतिक कौशल का इस्तेमाल कर वह राजग के मतदाता वर्ग में से कुछ को अपनी ओर खींच सकते हैं। शरद यादव के बारे में कहा जा रहा है कि मंडल राजनीति का पुरोधा होने की उनकी राजनीतिक छवि राजग के सांसदों और विधायकों को आकर्षित करने में कारगर साबित हो सकती है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी और उनके रणनीतिकारों की रणनीति थोड़ी अलग तरह की हो सकती है। फिलहाल तो दोनों पक्ष इस संबंध में एक-दूसरे की राजनीतिक चाल और पहल का इंतजार करते ही नजर आ रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से साथ भाजपा अध्यक्ष अम‌ित शाह
उपराष्ट्रपति तो भाजपा का ही
सात अगस्त को देश के उपराष्ट्रपति का चुनाव भी होने जा रहा है। लोकसभा में भाजपानीत राजग के प्रचंड बहुमत को देखते हुए साफ है कि उपराष्ट्रपति भाजपा का ही होगा। उपराष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों के सभी सदस्य मतदान करते हैं। भाजपा सूत्रों की मानें तो प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रपति के चुनाव में भले ही विपक्ष के साथ किसी तरह की आम राय पर सहमत हो सकें, उपराष्ट्रपति के नाम पर वह किसी भी तरह की आम राय या दबाव में नहीं आने वाले हैं। अगले उपराष्ट्रपति के रूप में भाजपा खेमे से एक बार फिर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, सूचना प्रसारण एवं शहरी विकास मंत्री एम वेंकैया नायडू, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन तथा समाजवादी पृष्ठभूमि के वरिष्ठ सांसद हुकुमदेव नारायण यादव के नाम लिए जा रहे हैं।

लोकपाल से कौन डरता है

लोकपाल से कौन डरता हैकेंद्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए ओंबुड्समैन यानी अपने बहुचर्चित लोकपाल के गठन के लिए कुछ महीने और इंतजार करना पड़ सकता है। वह भी तब, जब इसके गठन को लेकर सरकार की मंशा साफ हो। भ्रष्टाचार के खिलाफ  जन लोकपाल के गठन की मांग को लेकर समाजसेवी अन्ना हजारे, योग गुरु (व्यवसायी) रामदेव और उनके सहयोगियों के आंदोलन का पुरजोर समर्थन करने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाली राजग सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि लोकसभा में विपक्ष का नेता नहीं होने के कारण लोकपाल की नियुक्ति में विलंब हो रहा है। गौरतलब है कि तमाम अनशन-आंदोलनों, विवादों और संसदीय बहसों के बाद दिसंबर 2013 में पास हुए लोकपाल अधिनियम के तहत लोकपाल की खोज या चयन के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित होने वाली पांच सदस्यीय समिति में लोकसभाध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष के नेता, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अथवा उनके प्रतिनिधि और राष्ट्रपति द्वारा नामित एक कानूनविद् को शामिल किया जाना है। बाकी सब तो ठीक है लेकिन लोकसभा में मान्यता प्राप्त विपक्ष और उसका नेता नहीं होने से चयन समिति का गठन ही नहीं हो पा रहा है। लोकपाल की नियुक्ति तो उसके बाद ही संभव हो सकेगी।

तकनीकी तौर पर लोकसभा के एक दहाई सदस्य होने पर ही किसी दल को विपक्ष और उसके नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा प्राप्त हो सकता है। कांग्रेस ने कुछ अन्य विपक्षी दलों के समर्थन पत्र के सहारे लोकसभा में अपने नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को विपक्ष का नेता घोषित करने का आग्रह किया था, लेकिन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इसे पहली लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा बनाई गई व्यवस्था का हवाला देते हुए अमान्य कर दिया। हालांकि इसी आधार पर देखें तो दिल्ली की 70 सदस्यों की विधानसभा में केवल तीन विधायक होने के कारण भाजपा को मान्यता प्राप्त विपक्ष का दर्जा नहीं मिल सकता था, लेकिन जब आम आदमी पार्टी की सरकार ने भाजपा विधायक दल के नेता विजेंद्र गुप्ता को नेता विपक्ष बनाने का प्रस्ताव किया तो भाजपा को इसे स्वीकार करने में जरा भी झिझक नहीं हुई। यही नहीं, संख्या बल नहीं होने के बावजूद नेता विपक्ष बने विजेंद्र गुप्ता इसी हैसियत से दिल्ली में लोकायुक्त के चुनाव की प्रक्रिया में शामिल भी हुए, लेकिन लोकसभा में भाजपा इस तरह की सदाशयता नहीं दिखा सकी।
बहरहाल, लोकपाल के गठन को लेकर संसद से सडक़ और न्यायपालिका तक बनाए गए विपक्ष एवं सामाजिक संगठनों के दबाव के बाद केंद्र सरकार लोकपाल-लोकायुक्त अधिनियम 2013 में संशोधन कर लोकपाल के लिए चयन समिति में लोकसभा में नेता विपक्ष की जगह सदन में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को शामिल करने पर राजी हो गई। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस आशय का एक प्रस्ताव पारित कर इसके आधार पर संसद में संशोधन विधेयक भी पेश कर दिया, लेकिन उसे पास करने का शुभ मुहुर्त है कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा है।
लोकपाल की नियुक्ति से संबंधित जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करने वाली सर्वोच्च अदालत में न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और नवीन सिन्हा की पीठ के समक्ष सरकार का पक्ष रखते हुए महान्यायवादी मुकुल रोहतगी ने कहा कि लोकपाल की चयन समिति में नेता विपक्ष की जगह लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को शामिल करने का संशोधन विधेयक संसद में विचाराधीन है, उसके फिलहाल, संसद के मौजूदा बजट सत्र में पास होने की संभावना नहीं है क्योंकि सरकार के पास अन्य बहुत सारे विधायी कार्य पड़े हैं। उन्होंने संबंधित संशोधन विधेयक के अगले मानसून सत्र में अथवा उसके बाद ही पास हो पाने की संभावना जताई। हालांकि याचिका दायर करने वाले गैर सरकारी संगठन 'कॉमन कॉज’ की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण ने कहा कि संसद ने लोकपाल विधेयक दिसंबर 2013 में पारित कर दिया और वह वर्ष 2014 से प्रभावी भी हो गया, लेकिन सरकार जान- बूझकर लोकपाल की नियुक्ति नहीं कर रही है। उन्होंने कहा कि लोकपाल कानून यह अनिवार्य करता है कि लोकपाल की नियुक्ति जल्दी से जल्दी हो। दोनों पक्षों की सुनवाई पूरी करने के बाद न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले में फैसला सुरक्षित रखने की बात कही। हालांकि महान्यायवादी रोहतगी की दलील थी कि सर्वोच्च अदालत को संसद के कामकाज में दखल नहीं देना चाहिए क्योंकि लोकपाल कानून के तहत विपक्ष के नेता की परिभाषा से संबंधित संशोधन संसद में अभी लंबित है। 
जब तक संसद में यह संशोधन पारित नहीं हो जाता, लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो सकती। लोकपाल पर केंद्र का रुख परेशान करने वाला है। सरकार से पूछा जा सकता है कि जब सरकार और विपक्ष भी राजी है तो यह संशोधन पारित क्यों नहीं हो रहा। मोदी सरकार वित्त विधेयक में विभिन्न प्रकार के 40 संशोधन पास करा सकती है, राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता की वकालत करनेवाले वित्त विधेयक के जरिए राजनीतिक चंदा संबंधी आपत्तिजनक संशोधन पास करवा सकती है। इस संशोधन के बाद कॉरपोरेट घरानों के राजनीतिक दलों को चंदा देने की कोई सीमा नहीं होगी। न ही उन्हें यह जाहिर करने की अनिवार्यता होगी कि उन्होंने किस दल को कितना धन दिया। इसे किसी रूप में भ्रष्टाचार विरोधी कदम भी नहीं कहा जा सकता। अगर यह सब संशोधन बजट सत्र में पास हो सकते हैं तो लोकपाल की चयन प्रक्रिया से संबंधित संशोधन विधेयक पास कराने में ऐसी कौन सी रुकावट है। वैसे भी सरकार ने चाहा तो सीबीआई निदेशक से लेकर सीवीसी की नियुक्ति तक का रास्ता वर्तमान परिस्थितियों में ही ढूंढ़ निकाला गया। ऐसे में यह अर्थ निकालना क्या गलत होगा कि विपक्ष में रहते जन लोकपाल के लिए सडक़ से लेकर संसद तक जोर-शोर से सक्रिय रही भाजपा और उसके सहयोगी दलों की केंद्र सरकार चाहती ही नहीं कि लोकपाल का गठन हो? बहुत मुमकिन है कि सत्ताधारी दल में यह सोच बढ़ रही होगी कि जब चुनावी बहुमत जुटाने की तरकीब उसके पास है, तो सर्वोच्च पदों पर निगरानी करने वाली संस्था का गठन वह क्यों करे।
कहीं ऐसा भी तो नहीं कि लोकपाल की परिधि में प्रधानमंत्री, उनके मंत्री, निगमित घरानों को भी शामिल किए जाने की बात कुछ लोगों को लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने और तेज करने से रोक रही है। हालांकि कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के जमाने में लोकपाल की परिधि में प्रधानमंत्री को भी शामिल कर मजबूत लोकपाल के गठन के लिए लोकसभा और राज्यसभा में भी तत्कालीन विपक्ष यानी भाजपा के नेताओं, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने काफी दबाव बनाया था। समाजसेवी अन्ना हजारे ने दिसंबर 2013 में अपना आमरण अनशन तभी तोड़ा जब मनमोहन सरकार प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के क्षेत्राधिकार में शामिल करने जैसे लोकपाल को और मजबूत बनाने वाले संशोधनों को पारित करने के लिए राजी हो गई। उसके बाद ही लोकपाल अधिनियम अस्तित्व में आया, लेकिन तब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं थे। वैसे भी जबानी तौर पर वह भ्रष्टाचार, कालेधन के विरुद्ध लोकपाल और लोकायुक्त के गठन के पक्ष में जितना भी जोर-शोर से बोलते रहे हों, सत्ता में आने के बाद इसके बारे में उनकी उदासीनता ही सामने आती है। भूलना नहीं चाहिए कि गुजरात में उनके मुख्यमंत्री रहते तकरीबन एक दशक (2003 से दिसंबर 2013) तक लोकायुक्त की नियुक्त‌ि नहीं हो सकी थी, लोकपाल के मामले में तो अभी सवा तीन साल ही बीते हैं! तथाकथित जन लोकपाल अथवा लोकपाल के लिए सडक़ से लेकर संसद तक तूफान खड़ा करने और देश की तमाम समस्याओं, भ्रष्टाचार जैसी तमाम राजनीतिक बुराइयों का समाधान लोकपाल से ढूंढ़ लेने का दावा करनेवाले अन्ना हजारे, रामदेव, अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के लोग कहां खो गए हैं। क्या लोकपाल के नाम पर राजनीतिक तूफान खड़ा करने का मकसद महज सत्ता परिवर्तन तक ही सीमित था!