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Monday, 11 September 2017

पटना में राजद की रैली : संकेत और समीकरण

पटना से हुई गैर भाजपा महागठबंधन की शुरुआत !

जयशंकर गुप्त

टना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में राष्ट्रीय जनता दल की ‘भाजपा हटाओ, देश बचाओ’ रैली में कितने लोग आए, इसको लेकर विवाद हो सकता है. राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के पूर्व उप मुख्यमंत्री पुत्र तेजस्वी यादव ने कहा कि रैली में 25 लाख से अधिक लोग जुटे, लालू प्रसाद को यह अतिशयाक्ति शायद कुछ कम लगी, सो उन्होंने कहा कि रैली में 30 लाख लोगों का जन सैलाब उमड़ा था. दूसरी तरफ, कल तक लालू प्रसाद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन चलाते रहे और अभी भाजपा के सहयोग से राजग की साझा सरकार का नेतृत्व कर रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दल-यू-ने इस महा रैली को फ्लाप करार दिया. लेकिन इतना तो सच है कि हाल के वर्षों में पटना और गांधी मैदान में होनेवाली रैलियों में यह सफलतम और रेस्पांसिव रैली थी. पूरा पटना शहर राजद और महागठबंधन के नेताओं-कार्यकर्ताओं, उनके पोस्टर-बैनरों और कटाउटों से अटा पड़ा था. जितने लोग मैदान में जमा थे, उसी अनुपात में लोग गांधी मैदान के चारों तरफ सड़कों पर, रेलवे स्टेशन और बस अड्डों के आसपास भी राजद के झंडे डंडों के साथ दिख रहे थे. वह भी ऐसे समय में जबकि आधा बिहार बाढ़ की चपेट में है. 

यह रैली कहने को तो भाजपा बचाओ, देश बचाओ के नारे पर हुई लेकिन निशाने पर मुख्य रूप से महागठबंधन के ‘विश्वासघाती’ नीतीश कुमार ही थे. लालू प्रसाद और उनके पुत्रों के साथ ही राजद के तमाम नेताओं और अन्य विपक्षी दलों के नेताओं ने भी ‘संघ मुक्त भारत’ का नारा देने वाले नीतीश कुमार पर महागठबंधन तोड़कर संघ के शरणागत होने और भाजपा से मिलकर सरकार बना लेने का आरोप लगाया. नीतीश कुमार के महागठबंधन तोड़ने के बाद यह लालू प्रसाद और उनके राजद के साथ ही नीतीश कुमार के साथ नहीं गए जद यू के पूर्व अध्यक्ष, सांसद शरद यादव एवं कांग्रेस के लिए भी बड़ा शक्ति प्रदर्शन था जिसमें ये लोग सफल रहे. 
इस महा रैली के आयोजन की घोषणा लालू प्रसाद ने काफी पहले तब की थी जब नीतीश कुमार महागठबंधन की सरकार चला रहे थे, हालांकि अंदरखाने वह लालू प्रसाद को गच्चा देकर भाजपा के साथ नए सिरे से जुगलबंदी की जुगत भिड़ाने में लगे थे. लालू प्रसाद पटना से भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन खड़ा करने की कार्ययोजना पर काम कर रहे थे लेकिन नीतीश कुमार ने उसमें फच्चर लगाने की कोशिश की. वे खुद तो भाजपा के साथ गए ही, उन्होंने यह कोशिश की कि शरद यादव और उनके साथी भी उनका अनुसरण करें. उन्हें केंद्र सरकार में मंत्री पद के प्रलोभन दिए गए. उनके मना कर देने और नीतीश कुमार के पलट जाने के बाद विपक्ष की धुरी बनने की सोच के तहत महागठबंधन के साथ ही बने रहने के राजनीतिक रुख के साफ हो जाने के बाद कोशिशें इस बात की हुईं कि वह इस रैली में नहीं जा सकें. कभी उनके सिपहसालार कहे जाते रहे जद यू के महासचिव के सी त्यागी ने दो दिन पहले उन्हें पत्र भेजकर आगाह किया कि राजद की रैली में उनका भाग लेना अनुशासन की लक्ष्मण रेखा को लांघने जैसा होगा. रैली के बाद भी त्यागी ने कहा कि शरद दूसरे खेमे में चले गए हैं. अब जद यू के साथ उनका रिश्ता नहीं रह गया है. हालांकि जद यू से उनका औपचारिक निलंबन अथवा निष्कासन अभी बाकी है. त्यागी ने कहा है कि उनका मामला अनुशासन समिति के हवाले है लेकिन शरद यादव और उनके साथियों पर इस तरह की घुड़कियों का असर नहीं पड़ा. दो दिन पहले उन्होंने कहा भी कि महागठबंधन की रैली का फैसला काफी पहले हुआ था जिसमें नीतीश कुमार के भी शामिल होने की बात थी. नीतीश पलट गए लेकिन हम पलटनेवाले नहीं क्योंकि हम ही असली जद यू हैं जिसके साथ हमारी अधिकतर प्रदेश इकाइयां हैं. मंच पर उनके साथ राज्यसभा के एक और सदस्य अली अनवर और जद यू के वरिष्ठ नेता, राज्य सरकार में पूर्व मंत्री रमई राम भी थे. मंच से ही शरद यादव ने राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपाई महागठबंधन खड़ा करने की घोषणा की जिसका समर्थन मंच पर मौजूद विपक्ष के तमाम नेताओं ने भी किया. 

रैली के आयोजकों के अनुसार दिल्ली के इशारे पर कुछ और दलों और नेताओं को भी इस रैली से विमुख होने के दबाव पड़े. मायावती अथवा उनकी बसपा का एक भी प्रतिनिधि नहीं दिखा. रैली में शामिल होने को लेकर वह लगातार अपना स्टैंड बदलते रहीं. हालांकि 17 अगस्त को दिल्ली में शरद यादव के साझी विरासत बचाओ सम्मेलन में बसपा के सांसद वीर सिंह मौजूद थे. उस सम्मेलन में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी और माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी की मौजूदगी भी थी. सबने एक स्वर से कहा था कि भाजपा शासन में संघ परिवार की देखरेख में साझी विरासत खतरे में है. इसे बचाने के लिए भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाने की बात कही गई थी. स्वयं राहुल गांधी ने कहा था कि बदली परिस्थतियों में अगर सभी विपक्षी दलों का एक महागठबंधन बन जाए तो भाजपा कहीं दिखेगी नहीं. लेकिन जहां साझी विरासत बचाओ सम्मेलन में 17 दलों के नेता और प्रतिनिधि शामिल हुए वहीं महागठबंधन खड़ा करने की अगली कड़ी के रूप में आयोजित राजद की महा रैली में केवल 14 दलों के नेता-प्रतिनिधि ही दिखे. राहुल गांधी स्वयं नहीं आए. उन्होंने  पटना आने और लालू प्रसाद के साथ मंच साझा करने के बजाय नार्वे की राजधानी ओस्लो की यात्रा को मुनासिब समझा. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी नहीं आ सकीं. कांग्रेस का प्रतिनिधित्व राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद और महासचिव सीपी जोशी ने किया. सीताराम येचुरी भी नहीं दिखे. माकपा को संभवतः मंच पर ममता बनर्जी की मौजूदगी नागवार गुजरी होगी. लेकिन भाकपा के महासचिव सुधाकर रेड्डी और सचिव डी राजा वहां दिखे. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तथा राष्ट्रीय लोकदल के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी पूरी ताकत के साथ दिखे. पड़ोसी राज्य झारखंड से झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के साथ ही एक और पूर्व मुख्यमंत्री झाविमो के बाबूलाल मरांडी भी मौजूद थे. एनसीपी के महासचिव और बिहार से लोकसभा सदस्य तारिक अनवर भी थे. हालांकि एनसीपी का प्रतिनिधित्व अगर प्रफुल्ल पटेल अथवा शरद पवार या उनके परिवार का कोई सदस्य करता तो रैली में वजन कुछ और बढ़ जाता क्योंकि शरद पवार के राजग से जुड़ने के कयास गाहे बगाहे लगते रहते हैं. दक्षिण में तमिलनाडु से द्रविड़ मुनेत्र कझगम के लोकसभा सदस्य टी के एस इलेंगोवन और केरल कांग्रेस के प्रतिनिधि आए तो उत्तर पूर्व में असम से एयूडीफ के नेता लोकसभा सदस्य बदरुद्दीन अजमल की मौजूदगी महा रैली को राष्ट्रीय बना रही थी. ओडिसा में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल, दिल्ली से आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और हरियाणा से इंडियन नेशनल लोकदल के किसी प्रतिनिधि की गैर मौजूदगी भी क्षटक रही थी. संभवतः कांग्रेस की नापंसदगी के कारण उन्हें बुलाया ही नहीं गया था.

कुल मिलाकर यह महा रैली लालू प्रसाद और उनके राजद और राजनीतिक कुनबे का शक्ति प्रदर्शन था जिसमें वह पूरी तरह से सफल रहे. एक बार फिर उन्होंने यह साबित किया कि जोड़ तोड़ के खेल से नीतीश कुमार भले ही सरकार चला रहे हों, बिहार में जनाधारवाले वह अकेले नेता हैं. तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोपों और जांच मुकदमों के बावजूद वह भाजपा और उसके नेतृत्व में उभर रही सांप्रदायिक ताकतों के विरुद्ध झुकनेवाले नहीं हैं. उन्होंने और उनके पुत्रों ने भी रैली में साफ किया कि मुकदमे और जेल की दीवारें भी सांप्रदायिक ताकतों से लोहा लेने के उनके संकल्प को कमजोर नहीं कर सकतीं. उनके जनाधार और सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष के उनके कमिटमेंट का लोहा मंच पर मौजूद विपक्ष के तमाम नेताओं ने भी एक स्वर से माना. यह महा रैली नीतीश कुमार और भाजपा गठबंधन सरकार के लिए भी खतरे का संकेत साबित हो सकती है. राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपा और गैर राजग महागठबंधन ने आकार लेना शुरू हो गया है, इससे इतर बिहार में नीतीश कुमार और भाजपा की राजनीति से नाखुस जद यू और राजग में रालोसपा जैसे घटक दलों के नेताओं, विधायकों के बीच इस महा रैली की सफलता एक नई ताकत का संचार कर सकती है. जद यू के विधायकों का एक बड़ा गुट शरद यादव और लालू प्रसाद के साथ सिर्फ एक आश्वासन भर से जुड़ने को तैयार है कि चुनाव हों अथवा उप चुनाव उन्हें टिकट मिलेगा और उनकी चुनावी जीत सुनिश्चित करने के ईमानदार प्रयास होंगे. इसका एहसास सृजन घोटाले और भयावह बाढ़ की विभीषिका का भी सामना कर रहे नीतीश कुमार और उनके सहयोगी भाजपा-राजग के लोगों को भी है. आश्चर्य नहीं होगा कि महागठबंधन के साथ जुड़ रहे दलों, नेताओं और राजनीतिक ताकतों को इससे विमुख करने के प्रयास के बतौर प्रलोभन और दबाव भी नए सिरे से नजर आने लगें. 
   
से राजनीतिक विडंबना भी कह सकते हैं कि कभी 1960 के दशक के मध्य में अपराजेय बनते जा रही कांग्रेस को राज्यों और केंद्र में भी अपदस्थ करने के लिए समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की रणनीति तैयार की थी. इस रणनीति के तहत जनसंघ, सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, भारतीय क्रांति दल, संगठन कांग्रेस, स्वतंत्र पार्टी आदि गैर कांग्रेसी दलों ने चुनावी गठबंधन कर कई राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया था. केंद्र में भी इस तरह का कोई राजनीतिक प्रयोग सफल हो पाता उससे पहले ही एक तो डा. लोहिया का असामयिक निधन हो गया, दूसरे गैर कांग्रेसी, संयुक्त विधायक दल की सरकारें तयशुदा न्यूनतम साझा कार्यक्रमों की अनदेखी और उपेक्षा करते हुए अपने अंतर्विरोधों के बोझ तले चरमरा कर गिर गई थीं. सत्तर के दशक में एक बार फिर समाजवादी-सर्वोदयी नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण के निर्देशन या कहें दबाव में जनता पार्टी के रूप में गैर कांग्रेसी दलों का एका हुआ और उस समय सर्व शक्तिमान कही जानेवाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस को केंद्र में भी राजनीतिक पराभव का सामना करना पड़ा था लेकिन वह प्रयोग भी लंबा नहीं चल सका और 1980 में श्रीमती गांधी एक बार फिर प्रचंड जन समर्थन से सत्तारूढ़ हुई थीं. 1989 में एक बार फिर कांग्रेस से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी दलों का जमावड़ा सत्तारूढ़ हुआ लेकिन यह राजनीतिक प्रयोग भी काल कवलित हो गया. बाद के वर्षों में भाजपा के राजनीतिक रूप से ताकतवर होते जाने और उसके नेतृत्व में आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के अपने सांप्रदायिक एवं फासीवादी स्वरूप में सामने आते जाने के बाद गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी दलों ने कांग्रेस के सहयोग से कभी राष्ट्रीय लोतांत्रिक मोर्चा तो कभी संयुक्त मोर्चा के नाम से तीसरा मोर्चा खड़ा करने की कोशिशें की जो कुछ हद तक कामयाब भी हुईं लेकिन दीर्घकालिक साबित नहीं हो सकीं.  

अब एक बार फिर तमाम गैर भाजपा-गैर राजग दलों के नेता नए सिरे से उसी कांग्रेस को साथ लेकर ’गैर भाजपावाद’ की रणनीति तैयार करने में लगे हैं जिसके विरुद्ध गैर कांग्रेसवाद की रणनीति बनी थी. कांग्रेस के भीतर भी एक बड़े तबके या कहें नेतृत्व की राय भी बन रही है कि मौजूदा परिस्थितियों में कांग्रेस भाजपा- राजग को सीधे और अकेले शिकस्त दे सकने की स्थिति में नहीं है. इसके लिए किसी न किसी तरह का विपक्षी महागठबंधन खड़ा करना ही होगा. 

दरअसल, बिहार, दिल्ली और पंजाब विधानसभा के चुनावी नतीजों को अपवाद मान लें तो मई 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए अधिकतर राज्यों में विधानसभा चुनाव, उप चुनाव और कुछ राज्यों में नगर निकायों और पंचायत के चुनावों में भी अपराजेय और विजेता बनकर उभरी भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राजग की चुनावी सफलता के लिए अन्य कारणों के अलावा विपक्षी मतों के बंटवारे को ही मुख्यरूप से जिम्मेदार माना जा रहा है. लोकसभा चुनाव हों अथवा झारखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर, असम और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्य विधानसभाओं और महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली के नगर निकायों के चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को मिले मतों के प्रतिशत के मुकाबले अगर अलग अलग होकर लड़े विपक्षी दलों को मिले मतों के प्रतिशत को जोड़कर देखें तो संयुक्त विपक्ष सत्तारूढ़ भाजपानीत राजग पर निर्णायक रूप से भारी दिखता है. अगर विपक्षी दल अपने निजी अहंकार, वैमनस्य और अपनी राजनीतिक ताकत के बारे में अपने अतिरेकी आकलन को परे रखकर मिलकर अथवा किसी तरह का चुनावी तालमेल कर चुनाव लड़े होते तो नतीजों की शक्ल कुछ और नजर आती. 

लेकिन इस तरह के किसी महागठबंधन को लेकर कई सवाल और आशंकाएं भी हैं. मसलन  महागठबंधन का नेता कौन होगा! राहुल गांधी, शरद यादव, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल समेत कई दावेदार दिख रहे हैं. राहुल गांधी से इतर क्षेत्रीय दलों का कोई भी ऐसा नेता नहीं है जिसका एक राज्य के बाहर संगठन और जनाधार हो. कांग्रेस की उपस्थिति जरूर कई राज्यों में है लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व में कितने दल और नेता राजी होंगे, यह भी एक सवाल है. इसके साथ ही सबसे बड़ी मुश्किल उन राज्यों में होगी जहां कभी कांग्रेस का राजनीतिक वर्चस्व रहा है लेकिन हाल के वर्षों में वहां कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई है. उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिसा, दिल्ली, आंध्र-तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कोई न कोई क्षेत्रीय दल मजबूत राजनीतिक ताकत के रूप में उभरा है. केरल और ओडिसा जैसे राज्यों में कांग्रेस का मुख्य मुकाबला वाम दलों और बीजद से है लेकिन तीसरी ताकत के रूप में वहां जड़ें जमा और फैला रही भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस-वाम दलों और बीजद को भी किसी न किसी तरह का राजनीतिक तालमेल करना होगा जिससे गैर भाजपा दलों का जनाधार बंटने और बिखरने नहीं पाए. इसी तरह से पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस, वाम दलों और कांग्रेस के बीच किस तरह की एकजुटता बन सकेगी. उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा, कांग्रेस आौर आरएलडी क्या एक साथ आ सकेंगे. यह महागठबंधन क्या सिर्फ मोदी और भाजपा विरोध तक ही सीमित रहेगा या फिर उसे आगे ले जाने के लिए सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी बनेगा. इन जटिल सवालों के जवाब मुश्किल हैं लेकिन असंभव नहीं. महागठबंधन का नेता कौन होगा, इस तरह के सवालों के जवाब के लिए विपक्ष के पास अभी बहुत समय है. 
नोट :  इस लेख के सम्पादित अंश 27अगस्त ,2017 को बीबीसी हिंदी.कॉम पर प्रकाशित 

Tuesday, 9 May 2017

गैर भाजपावाद की परीक्षा होगा राष्ट्रपति चुनाव



गैर भाजपावाद की परीक्षा होगा राष्ट्रपति चुनावकारण चाहे जुलाई महीने में होनेवाला राष्ट्रपति का चुनाव हो अथवा दो साल बाद लोकसभा के आम चुनाव, विपक्षी एकता या कहें तमाम गैर भाजपा-गैर राजग दलों के महागठजोड़ की कवायद नए सिरे से शुरू होती दिख रही है। इस कवायद के केंद्र में हैं कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी। गैर भाजपा दलों के कई कद्दावर नेताओं की उनसे मुलाकात से इस बात के संकेत मिलने लगे हैं कि विपक्ष न सिर्फ राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपानीत सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को मजबूत चुनौती देने की साझा रणनीति की संभावनाएं तलाशने में जुट रहा है बल्कि लोकसभा के अगले चुनाव और उससे पहले होनेवाले कुछ राज्य विधानसभाओं के चुनाव में भी विपक्षी मतों का बंटवारा रोकने और भाजपा के नेतृत्व में मुखर हो रही सांप्रदायिक ताकतों को एकजुट चुनौती पेश करने के लिए विपक्षी महागठबंधन की अनिवार्यता के प्रति भी गंभीर हो रहा है।
इसे राजनीतिक विडंबना भी कह सकते हैं कि कभी 1960 के दशक के मध्य में अपराजेय बनती जा रही कांग्रेस को राज्यों और केंद्र में भी अपदस्थ करने के लिए समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की रणनीति तैयार की थी। अब तमाम गैर कांग्रेसी और गैर भाजपा-राजग दलों के नेता नए सिरे से उसी कांग्रेस को साथ लेकर ‘गैर भाजपावाद’ की रणनीति तैयार करने में लगे हैं। कांग्रेस के भीतर भी एक बड़े तबके या कहें नेतृत्व की राय बन रही है कि मौजूदा परिस्थितियों में पार्टी भाजपा-राजग को सीधे और अकेले शिकस्त दे सकने की स्थिति में नहीं है। इसके लिए किसी न किसी तरह का विपक्षी महागठबंधन खड़ा करना ही होगा। इस बढ़ते सोच के तहत ही अप्रैल के तीसरे-चौथे सप्ताह में जनता दल (यू) के अध्यक्ष, बिहार के मुक्चयमंत्री नीतीश कुमार और माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने एक ही दिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की। उसके बाद भाकपा के सचिव, सांसद डी. राजा, जनता दल (यू) के पूर्व अध्यक्ष, सांसद शरद यादव और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने भी श्रीमती गांधी के साथ अलग-अलग दिनों में मुलाकात की। इससे पहले समाजवादी नेता, लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष रवि राय की अंत्येष्टि के अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि देने भुवनेश्वर गए नीतीश कुमार ने ओडिशा के मुख्यमंत्री एवं बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक से मुलाकात की। येचुरी भी लगातार बीजद नेताओं के संपर्क में हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी पटनायक से मिल चुकी हैं। संसद के बजट सत्र के समापन से पहले सुश्री बनर्जी ने समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और एनसीपी के नेता प्रफुल्ल पटेल से मुलाकात की थी। विपक्ष के कुछ नेता तमिलनाडु में द्रमुक नेतृत्व के साथ लगातार संपर्क में हैं तो कुछ लोग अन्नाद्रमुक को भी विपक्षी खेमे के साथ बने रहने के लिए उसके नेताओं से संपर्क साध रहे हैं। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद भी विपक्षी महागठबंधन के लिए सक्रिय हैं। एक मई को नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में प्रसिद्ध समाजवादी नेता, चिंतक मधु लिमए के 95वें जन्मदिन पर हुए विपक्षी नेताओं के जमावड़े और उसमें उभरे स्वरों से भी लगा कि किसी तरह की एकजुटता अथवा महागठबंधन के लिए विपक्षी खेमे में छटपटाहट बढ़ी है। भाकपा नेता डी. राजा के अनुसार फिलहाल तो विपक्ष के सामने राष्ट्रपति के चुनाव में एकजुट होकर राजग के सामने मजबूत चुनौती पेश करने की बात है। विपक्ष की एकजुटता के लिहाज से राष्ट्रपति का चुनाव पहला ‘एसिड टेस्ट’ होगा जिसमें यह पता लग सकेगा कि कौन से गैर राजग दल संयुक्त विपक्ष के साझा उम्मीदवार के समर्थन में खुलकर सामने आ सकते हैं। गौरतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव के लिए मौजूदा निर्वाचक मंडल में भाजपा और उसके सहयोगी दल बहुमत से कुछ दूर हैं। साथ ही शिवसेना की बदलती भंगिमाएं कब गच्चा दे जाएंगी, इसको लेकर भाजपा नेताओं की बेचैनी कम नहीं हो पा रही है। उसे अपना मनमाफिक राष्ट्रपति चुनवाने के लिए विपक्षी खेमे में सेंध लगाकर कुछ अतिरिक्त मतों का जुगाड़ करना पड़ सकता है। इस राजनीतिक सेंधमारी को रोकने के लिए भी विपक्षी खेमा सक्रिय है। उसकी कोशिश विपक्ष की ओर से ऐसा साझा उक्वमीदवार पेश करने की लगती है जो न सिर्फ सभी गैर भाजपा दलों को एकजुट रख सके बल्कि राजग के अंदर से भी कुछ मतों का जुगाड़ कर सके। माकपा के महासचिव येचुरी कहते हैं, ‘हम नीतियों और कार्यक्रमों के आधार पर फैसला करेंगे। 2019 में सांप्रदायिक शक्तियों की सरकार के विरुद्ध देश में एक वैकल्पिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए काम करेंगे।’
दरअसल, बिहार, दिल्ली और पंजाब विधानसभा के चुनावी नतीजों को अपवाद मान लें तो मई 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए अधिकतर विधानसभा चुनाव, उप चुनाव और नगर निकायों और पंचायत के चुनावों में भी अपराजेय और विजेता बनकर उभरी भाजपा और उसके नेतृत्व वाले राजग की चुनावी सफलता के लिए अन्य कारणों के अलावा विपक्षी मतों के बंटवारे को ही मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है। लोकसभा चुनाव हों अथवा झारखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, असम और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्य विधानसभाओं और महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली के नगर निकायों के चुनाव, भाजपा और उसके सहयोगी दलों को मिले मतों के प्रतिशत के मुकाबले अगर विपक्षी दलों को मिले मतों के प्रतिशत को जोड़कर देखें तो संयुक्त विपक्ष भाजपानीत राजग पर निर्णायक रूप से भारी दिखता है। अगर विपक्षी दल अपने निजी अहंकार, वैमनस्य और अपनी राजनीतिक ताकत के बारे में अपने अतिरेकी आकलन को परे रखकर चुनावी तालमेल कर चुनाव लड़े होते तो नतीजों की शक्ल कुछ और नजर आती।
विपक्ष की इस कमजोरी को सबसे पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और कभी उनके बेहद करीबी और फिर कट्टर राजनीतिक विरोधी रहे राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने महसूस किया। बकौल नीतीश कुमार, उन्होंने लोकसभा चुनावों के नतीजे के बाद ही बिना समय गंवाए लालू प्रसाद से बात की और दोनों इस बात पर सहमत हुए कि बिना विपक्षी एकजुटता के भाजपा और उसके सहयोगी दलों की चुनौती का सामना कर पाना मुश्किल होगा। इसके बाद ही बिहार में जद (यू), राजद और कांग्रेस के बीच चुनावी गठजोड़ हुआ जो कारगर भी साबित हुआ।
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव से पहले वहां भी नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने विपक्षी महागठबंधन की पहल की थी लेकिन खुद के बूते चुनाव जीतने के अति विश्वास के कारण राज्य में भाजपा विरोधी दो महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकतें-मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम-अखिलेश की समाजवादी पार्टी एक साथ नहीं आ सकी। बाद में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन हुआ भी तो उसमें चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल, जनता दल (यू) और राजद को जगह नहीं मिली। इससे पहले असम में कांग्रेस नेतृत्व की हठधर्मिता के कारण असम गण परिषद और सांसद बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के साथ चुनावी तालमेल नहीं हो सका था। नतीजतन, असम और उîार प्रदेश में भाजपा पहली बार अपने बूते भारी बहुमत से सरकार बनाने में सफल हो सकी। हालांकि वोटों का प्रतिशत देखें तो भाजपा और इसके सहयोगी दलों को यूपी में तकरीबन 40 प्रतिशत मत मिले जबकि बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल को तकरीबन 51 प्रतिशत मत मिले हैं। उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों के बाद अखिलेश यादव और मायावती ने भी साथ आने और भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाने की बात करनी शुरू कर दी है। इसका स्वागत करते हुए शरद यादव कहते हैं कि राष्ट्रपति के चुनाव में गैर भाजपा दलों को गोलबंद करने के प्रयास काफी सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। इस एकजुटता से 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन खड़ा करने की प्रक्रिया को बल मिलेगा। 2019 में गैर भाजपा दलों का महागठबंधन सांप्रदायिक ताकतों को मजबूत चुनौती देगा, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।
लेकिन इस तरह के किसी महागठबंधन को लेकर कई सवाल और आशंकाएं भी हैं। मसलन महागठबंधन का नेता कौन होगा? राहुल गांधी, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल समेत कई दावेदार दिख रहे हैं। नीतीश-ममता समेत क्षेत्रीय दलों का कोई भी ऐसा नेता नहीं है जिसका एक राज्य के बाहर संगठन और जनाधार हो। कांग्रेस की उपस्थिति जरूर कई राज्यों में है लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व पर कितने दल और नेता राजी होंगे, यह भी एक सवाल है। वैसे महागठबंधन का नेता कौन होगा, इस तरह के सवालों के जवाब के लिए विपक्ष के पास अभी बहुत समय है। विपक्ष के एक वरिष्ठ नेता की मानें तो जब कट्टïर विरोधी जनता दल (यू), राजद और कांग्रेस आपस में गठबंधन कर सकते हैं तो मायावती-अखिलेश और अजित सिंह, ममता बनर्जी-वाम दल और कांग्रेस, बीजू जनता दल और कांग्रेस, कांग्रेस और एनसीपी, कांग्रेस और आप तथा द्रमुक और अन्ना द्रमुक सांप्रदायिक ताकतों को वैकल्पिक नीतियों, न्यूनतम साझा कार्यक्रमों के साथ मजबूत चुनौती देने के नाम पर एक साथ क्यों नहीं हो सकते। अगर एकजुट हुए तो चुनावी नतीजे बिहार की तरह के होंगे और अगर अलग-अलग लड़े तो उत्तर प्रदेश में विधानसभा के हालिया चुनाव में हुई राजनीतिक दुर्गति को प्राप्त कर सकते हैं।