Sunday, 27 September 2020

In Iceland With Dr. APJ Abdul Kalam (डा. कलाम के साथ आइसलैंड में)

कलाम के साथ विदेश भ्रमण (8)


आधी रात के सूरज वाले देश आइसलैंड में


जयशंकर गुप्त


 मने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि आइसलैंड जैसे अल्पज्ञात लेकिन बहुत ही महत्वपूर्ण देश आइसलैंड को देखने जानने का मौका कभी मिलेगा. साधन और सामर्थ्य को देखते हुए तो अपने तई इस देश की यात्रा कम से कम हमारे जैसे लोगों के लिए तो नामुमकिन ही कही जा सकती थी. लेकिन भारत रत्न, देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डा. एपी जे अब्दुल कलाम के सौजन्य से हमें आइसलैंड जाने, करीब से देखने समझने का अवसर भी मिल गया. स्विट्जरलैंड की यात्रा पूरी होने के बाद राष्ट्रपति डा. कलाम के साथ हमारा अगला पड़ाव उत्तर पश्चिमी यूरोप-उत्तरी अटलांटिक में ग्रीनलैंड, फरो द्वीप समूह और नार्वे के मध्य बसा आइसलैंड ही था, जहां साल के छह महीने अधिकतर समय दिन होता है और बाकी के छह महीने अधिकतर समय रात होती है. नाम ‘आइसलैंड’ से लगता है कि पानी और बर्फ से घिरा कोई बहुत ही ठंडा द्वीप होगा. लेकिन हम जिस आइसलैंड की बात कर रहे हैं, वहां समुद्र भी है और पहाड़ भी. बर्फ के ग्लेशियर हैं, झीलें, जमीन से निकलते गर्म पानी के फव्वारे और जल प्रपात हैं तो धधकते ज्वालामुखी और बुझे हुए ज्वालामुखी के लावा के मैदान भी. तापमान भी अन्य यूरोपीय देशों की तरह ही, सर्दियों में सर्द एवं बर्फीली हवाओं के साथ बहुत ठंडा और गर्मी के दिनों में खुशनुमा. 

  हमने बहुत सुन रखा था कि आइसलैंड सहित पांच-छह स्कैंडेवियन देशों में एक समय ऐसा भी होता है जब सूर्य वहां डूबता ही नहीं. आधी रात में भी वहां सूर्य अपनी चटख रोशनी के साथ प्रकाशमान रहता है. आधी रात के सूर्य को देखने की हमारी तमन्ना पूरी होने जा रही थी. 29 मई 2005 को आइसलैंड की राजधानी रेक्याविक पहुंचनेवाले डा. कलाम भारत के पहले राष्ट्रपति थे. इससे पहले किसी और भारतीय राष्ट्रपति ने शायद आइसलैंड आने की जरूरत नहीं समझी थी. डा. कलाम की इस यात्रा की पृष्ठभूमि इसी साल, 2005 के फरवरी महीने में आइसलैंड के राष्ट्रपति ओलाफर रेग्नर ग्रिम्सन की भारत की यात्रा के दौरान तैयार हुई थी. ग्रिम्सन ने डा. कलाम को आइसलैंड आने का न्यौता दिया था जिसे उन्होंने सहजभाव से स्वीकार कर लिया था.
रेक्याविक में डा. कलाम का स्वागत, पीछे खड़े आइसलैंड के
राष्ट्रपति ओलाफुर रेग्नर ग्रिम्सन

  स्विट्जरलैंड से आइसलैंड की यात्रा के दौरान विमान में डा. कलाम ने हम लोगों को बता दिया था कि वह आबादी के लिहाज से बहुत छोटे लेकिन भारत की जरूरतों के हिसाब से बेहद महत्वपूर्ण देश आइसलैंड की यात्रा को लेकर बहुत आशान्वित हैं. वह यहां अपनी राजनीतिक मुलाकातों के साथ ही वैज्ञानिकों, खासतौर से भूकंप के पूर्वानुमान के बारे में शोधरत वैज्ञानिकों से मिलेंगे. यहां भूकंप के पूर्वानुमान लगाने, भूगर्भीय परिवर्तनों और गहरे समुद्र में मछली पकड़ने की आइसलैंड के लोगों की तकनीक और प्रसंस्करण के बारे में जानकारी हासिल करेंगे और सोचेंगे कि भारत को इसका लाभ कैसे मिल सकता है. उत्तरी ध्रुव के करीब समुद्र, बर्फ से ढके पहाड़ों, लंबे चौड़े हिमनदों-ग्लेशियरों-झीलों और धधकते ज्वालामुखी से घिरे आइसलैंड में भूकंप के झटके आते रहते हैं. यह भी एक कारण है कि यहां के वैज्ञानिकों को भूकंप एवं सुनामी की भविष्यवाणी के मामले में विशेषज्ञता हासिल है. उनके मकान भूकंप रोधी तकनीक से बने होते हैं. शायद इसलिए भी 17 जून और 21 जून 2000 को दक्षिणी आइसलैंड में आए तीव्र क्षमता (रिक्टर पैमाने पर 6.5) के भूकंप के बावजूद वहां कोई मरा नहीं था. डा. कलाम ने बताया कि भारत और आइसलैंड के द्विपक्षीय रिश्ते हमेशा से प्रगाढ़ और मैत्रीपूर्ण रहे हैं. 29 अक्तूबर से 3 नवंबर 2000 की यात्रा पर आइसलैंड के किसी राष्ट्राध्यक्ष के रूप में ग्रिमसन पहली बार भारत आए थे, तभी से दोनों देशों के बीच उच्चस्तरीय द्विपक्षीय संबंधों की औपचारिक शुरुआत हुई थी. उसके कुछ महीनों बाद जून 2001 के तीसरे सप्ताह में कांग्रेस की अध्यक्ष एवं तत्कालीन नेता विपक्ष सोनिया गांधी आइसलैंड गई थीं. आइसलैंड विभिन्न मसलों पर संयुक्त राष्ट्र में भारत का समर्थन करता है. इसी साल डा. कलाम से एक मुलाकात के दौरान आइसलैंड के राष्ट्रपति ग्रिमसन ने संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी का पुरजोर समर्थन करने की बात कही थी.

  29 मई, रविवार को स्विट्जरलैंड के जिनेवा से आइसलैंड के केफ्लाविक स्थित ‘लीफर एरिक्सन अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे’ तक का हवाई सफर तकरीबन चार घंटे में पूरा हुआ. रास्ते में विमान में दोपहर के भोजन के बाद डा. कलाम मीडिया के लोगों से मुखातिब हुए. रूस और स्विट्जरलैंड की अपनी यात्राओं के अनुभव और उपलब्ध्यिों पर बातचीत से पहले उन्होंने पत्रकारों का कुशलक्षेम जानने की गरज से पूछा, आप लोगों का ‘खाना-पीना’ कैसा चल रहा है. यह बताने पर कि एयर इंडिया के ‘महाराजा’ का आतिथ्य शानदार है, उन्होंने पूछ लिया, ‘ऐंड ह्वाट एबाउट अदरथिंग्स.’ यह सुन प्रायः सभी हंस पड़े. डा. कलाम ने फिर कहा, ‘मेरा मतलब ‘साफ्ट ड्रिंक्स’ आदि से था.’ डा. कलाम खुद तो खाने-पीने के मामले में विशुद्ध शाकाहारी हैं, लेकिन पत्रकार! उनकी पसंद का थोड़ा इल्म तो उन्हें भी था ही. एक बार स्विट्जरलैंड की संसद में जब दोनों राष्ट्राध्यक्ष (डा. कलाम एवं श्मिड) मेज पर एक साथ बैठे तो वहां ‘ड्रिंक’ सर्व हुआ था. श्मिड ने तो वाईन का प्याला हाथ में लिया लेकिन डा. कलाम ने पानी का गिलास हाथ में लेते हुए कहा कि अपना काम तो इस (पानी) से ही चल जाता है.

  हरहाल, हम लोग ‘लीफर एरिक्सन अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे’ पर वहां के स्थानीय समय के हिसाब से तीन बजे (भारतीय समय के मुताबिक रात के 8.30 बजे) पहुंचे. बहुत छोटा और कम आबादीवाला देश होने के बावजूद आइसलैंड में चार हवाईअड्डे हैं. दूर दराज के इलाकों में आवागमन या तो नौकाओं से या फिर विमानों से ही संभव है. केफ्लाविक स्थित अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे को आइसलैंड के लोगों के दावे के अनुसार सबसे पहले अमेरिका की खोज करनेवाले लीफर एरिक्सन का नाम दिया गया है. दूसरा बड़ा घरेलू विमानन का हवाई अड्डा रेक्याविक में है. इसके अलावा दो घरेलू हवाई अड्डे एगिलस्सतोएर तथा अकुरेरि में हैं. आइसलैंड में भारत के साथ सप्ताह में कम से कम एक सीधी उड़ान शुरू करने का विमानन समझौता होनेवाला था, शायद इसीलिए तत्कालीन नागर विमानन मंत्री प्रफुल्ल पटेल भी विशेष रूप से रेक्याविक आ गये थे.

  जिस समय हम लोग आइसलैंड पहुंचे, बताया गया कि दिन और रात के 24 घंटों में वहां उस समय अधिकतर समय दिन ही रहता है. 10 मई से जुलाई के अंत तक सूर्य वहां आधी रात के बाद ही डूबता और एक दो घंटे बाद ही अपनी पूर्ण ऊष्मा और लालिमा के साथ प्रकट हो जाता है. 22-23 जून को ग्रीष्म संक्रांति के दिन सूर्य डूबता ही नहीं. इसी तरह से दिसंबर के तीसरे सप्ताह में सूर्योदय दिन के 11.30 बजे होता है और चार घंटे बाद दोपहर 3.30 बजे अस्ताचल में डूब जाता है. एक समय, शीत संक्रांति के समय सूर्य के दर्शन होते ही नहीं. चहुंओर बिछी बर्फ की चादरों के बीच अंधेरा छाया रहता है.

प्राचीनतम संसद (अल्थिंगी) !

 
 
थिंगवेल्लिर में लावा चट्टानों के पास इसी जगह बनी
थी आइसलैंड की पहली संसद, 'अल्थिंगी'
करीबन दो लाख 80 हजार की कुल आबादी (2005 में) के हिसाब से बहुत छोटा (हमारे करोल बाग से भी छोटा) देश होने के बावजूद आइसलैंड भी भारत की तरह ही प्राचीन सभ्यता-संस्कृति एवं प्राचीन लोकतांत्रिक परंपराओं का देश है. वहां 930 में ही आइसलैंड के शासकों ने संविधान रचा था. इसके साथ ही थिंगवेल्लिर के पास खुले मैदान में ‘अल्थिंगी’ (एक तरह की संसद) के गठन के साथ संसदीय लोकतंत्र ने वहां काम करना शुरू कर दिया था. वह विश्व की शायद सबसे पहली संसद थी जो आज भी चलन में है.


अमेरिका की खोज वाइकिंग्स ने की थी !


  आबादी भले ही बहुत कम हो, लेकिन एक लाख तीन हजार वर्ग किमी. क्षेत्रफल के साथ आइसलैंड यूरोप में ब्रिटेन के बाद दूसरा और विश्व में अठारहवां सबसे बड़ा द्वीप है. हम अभी तक यही जानते रहे हैं कि अमेरिका की खोज क्रिस्टोफर कोलम्बस ने 1492 में की थी लेकिन आइसलैंड के लोग अपनी दस्तावेजी दंतकथाओं के आधार पर दावा करते हैं कि कोलम्बस के अमेरिका पहुंचने से पांच सौ साल पहले आइसलैंड के वाइकिंग (कबीलाई मछुआरे) वहां पहुंच गए थे. उन्होंने ही अमेरिका की खोज की थी. बताया गया कि 985 ईस्वी में एरिक, द रेड नामक एक व्यक्ति को किसी की हत्या के आरोप में आइसलैंड से निकाल दिया गया. उसने पश्चिम की ओर यात्रा की और ग्रीनलैंड की खोज कर डाली. ‘सागास ऑफ़ आइस्लैंडर्स’ के अनुसार, सन् 970 में पैदा हुए एरिक के पुत्र लीफर एरिक्सन ने 1000 ईस्वी में उत्तरी अमेरिकी महाद्वीप (कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका) की खोज की थी. उसने इसे विन्लैंड कहा था. यही नहीं वाइकिंग्स धुर दक्षिण की ओर तुर्की, अफ्रीकी कोस्ट एवं कैनरी द्वीप भी गये थे. वे लोग रूस और युक्रेन भी गए थे.

  आइसलैंड की भाषा और लिपि नोर्डिक-आइसलैंडिक है जो प्राचीनकाल से चली आ रही है. शायद इसलिए भी यहां के लोगों को अपने प्राचीनतम ग्रंथों और अभिलेखों को पढ़ने-समझने में किसी तरह की कठिनाई नहीं हुई. उनके प्राचीन ग्रंथों-अभिलेखों से पता चलता है कि सर्वप्रथम आयरलैंड के भिक्षु 800 ईस्वी में यहां, आइसलैंड आए थे. नौवीं शताब्दी में, नॉर्स (नार्वे) लोग यहां रहने के लिए आए. आइसलैंड में बसावट 874 ईस्वी में नोर्डिक लोगों के द्वारा ही आरंभ की गई थी. पहला निवासी नॉर्स वाइकिंग (मछुआरा) इंगोल्फर अनर्सन था जिसने रेक्याविक में घर बनाया था. उसीने इस इलाके को आइसलैंड का नाम दिया. नार्वे के एक सेनापति ने, जो आइसलैंड के दक्षिण पश्चिम में रहता था, रेक्याविक कस्बे की स्थापना की थी.

  यद्यपि इससे पहले भी कई लोग इस देश में अस्थाई रूप से आए और रुके थे. उसके बाद भी आने वाले कई दशकों और शताब्दियों में अन्य बहुत से लोग आइसलैंड में आए. 1262-1264 में आइसलैंड, नार्वे के साम्राज्य, ओल्ड कोवेनेन्ट के अधीन हुआ और 1380 में जब नार्वे और स्वीडेन डेनमार्क के अधीन हुए तो आइसलैंड भी स्वतः डेनमार्क के राजा के अधीन हो गया. 1918 में डेनमार्क के साथ स्वशासी संप्रभु राज्य का दर्जा मिलने तक यह नार्वे और डेनमार्क द्वारा शासित रहा. डेनमार्क और आइसलैंड के बीच हुई एक संधि के अनुसार आइसलैंड की विदेश नीति का नियमन डेनमार्क के द्वारा किया जाना तय हुआ. 1944 में स्वतंत्र आइसलैंड गणराज्य की स्थापना होने तक दोनों देशों का राजा एक ही था.

  जब 9 अप्रैल, 1940 को जर्मनी ने डेनमार्क पर अधिकार कर लिया तो आइसलैंड की संसद, अल्थिंगी ने यह निर्णय लिया कि आइसलैंडवासियों को अपने देश का शासन स्वयं करना चाहिए, लेकिन उन्होंने अभी तक अपनी स्वतंत्रता की घोषणा नहीं की थी. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान पहले ब्रिटिश और बाद में अमेरिकी सैनिकों ने आइसलैंड का अधिकरण कर लिया ताकि जर्मन नाजी उस पर हमला न कर सकें. अंततः 17 जून 1944 को बिना किसी तरह के रक्तपात के  आइसलैंड एक पूर्ण स्वतंत्र, संप्रभु गणराज्य बना. तब से ही आइसलैंड के लोग 17 जून को अपना राष्ट्रीय दिवस मनाते हैं. द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद आइसलैंड उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) का सदस्य बना, लेकिन यूरोपीय संघ का नहीं. 1958 और 1976 के बीच आइसलैंड और ब्रिटेन के बीच ऐतिहासिक और बेसकीमती ‘कोड मछलियों’ को पकड़ने को लेकर तीन बार वार्ता हुई. इसे ‘कोड युद्ध’ कहा गया. मछली उद्योग पर निर्भरता ही एक ऐसा कारण है जो आइसलैंड को यूरोपीय संघ में सम्मिलित होने से रोके हुए है. उन्हें यह चिंता है कि यूरोपीय संघ का सदस्य बनने से देश के ऊपर कई तरह के नियामक लागू होंगे जिसके कारण मछली के कच्चे माल के प्रबंधन और प्रसंस्करण से उनका नियंत्रण समाप्त हो जाएगा.

  आइसलैंड के कई पहाड़, ज्वालामुखी, गरम चश्मे (हॉट स्प्रिंग्स), नदियां, छोटी झीलें, झरने, जल प्रपात, हिमनद और गीसिर इसे आकर्षक बनाते हैं. अंग्रेजी का ‘गीजर’ शब्द भी गीसिर नामक एक प्रसिद्ध गीजर से बना बताते हैं जो आइसलैंड के दक्षिणी भाग में स्थित है.
जमीन से निकलता गर्म पानी का फव्वारा, गीसिर 
या कहें गीजर (तस्वीर इंटरनेट के सौजन्य से)

वहां कुछ जगहों पर हर 20-25 मिनट के बाद जमीन से गरम पानी के फव्वारे निकलते रहते हैं. हिमनद इस द्वीपीय देश के 11 फीसदी भूभाग को ढके हुए हैं. सबसे बड़ा वात्नाजोकुल लगभग एक किमी मोटा है और यूरोप का सबसे बड़ा हिमनद है. जमीन का बड़ा हिस्सा बंजर है. केवल 1.3 प्रतिशत भूभाग पर खेती-बारी होती है. घास के बड़े मैदान और उनमें विचरण करते खूबसूरत घोड़े भी दिखते हैं. आइसलैंड के पास कृषि, मछली और भूतापीय ऊर्जा के अतिरिक्त अन्य कोई संसाधन नहीं है. इसलिए यहां की अर्थव्यवस्था पर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मछली उत्पादों और उनके प्रसंस्करण मूल्यों पर होने वाले बदलावों का प्रभाव पड़ता है. शायद यह भी एक कारण है कि आइसलैंड के लोग अब पर्यटन उद्योग और आधुनिक प्रौद्योगिकी उद्योग (मुख्यतः सॉ़फ्टवेयर और जैव प्रौद्योगिकी) पर फोकस कर रहे हैं. बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आइसलैंडवासियों ने देश के आधारभूत ढांचे को सुधारने और अन्य कई कल्याणकारी कामों पर ध्यान दिया जिसके परिणामस्वरूप आइसलैंड, संयुक्त राष्ट्र के जीवन गुणवत्ता सूचकांक के आधार पर विश्व का सर्वाधिक रहने योग्य देश बन गया. एक समय आइसलैंड की प्रति व्यक्ति आमदनी भी सबसे ज्यादा थी. गौरतलब है कि विश्व शतरंज के महानतम ग्रैंड मास्टर रहे अमेरिकी खिलाड़ी बाबी फिशर ने अमेरिका छोड़ने के बाद आइसलैंड की राजधानी रेक्याविक में ही घर बनाया था.


  आइसलैंड में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आवास एवं सेवानिवृत्ति के बाद नागरिकों का जीवन यापन सरकार की जिम्मेदारी है. वहां चार विश्वविद्यालय हैं. अधिकतर पुरुष और स्त्रियां नौकरी-रोजगार में लगे रहते हैं. अधिकतर पुरुष यदि मछली पकड़ने के रोजगार में हैं तो महिलाएं मछली प्रसंस्करण में लगी होती हैं. देश का पर्यटन काल आधिकारिक रूप से 31 मई से आरंभ होकर 1 सितंबर को समाप्त होता है. जून के आरंभिक महीनों में भी कई क्षेत्र और मार्ग बर्फ से ढके होते हैं. दुनिया भर से अधिकतर पर्यटक जून की समाप्ति और जुलाई के महीनों में आते हैं. अगस्त के महीने में प्रवासी पक्षी भी आते हैं. आइसलैंड का राष्ट्रीय पक्षी ‘पफिंस’ अगस्त के अंत होने तक कम दिखने लगता है. अगस्त पर्यटन के मौसम का आधिकारिक अंतिम महीना होता है. इसके बाद से दिन छोटे होने लगते हैं और लंबी रातों के साथ बर्फबारी का मौसम आरंभ हो जाता है. पर्यटन के दो-तीन महीनों के दौरान ही आइसलैंड में लगभग 10 लाख पर्यटक आते हैं.

आइसलैंड की शासन व्यवस्था में सर्वोपरि, संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति का चुनाव चार साल के कार्यकाल के लिए होता है. वह औपचारिक राष्ट्राध्यक्ष होता है. वह संसद यानी अल्थिंगी द्वारा पारित किसी भी कानून को रोक सकता है और उसे राष्ट्रीय जनमत संग्रह के लिए रख सकता है. विग्डिस फिन्बोगाडोटिर के रूप में 1980 में विश्व में पहली महिला राष्ट्रपति चुनने का कीर्तिमान आइसलैंड के पास ही है.
रेक्याविक स्थित आइसलैंड की मौजूदा संसद, अल्थिंगी

‘अल्थिंगी’ में 63 सदस्य होते हैं, उन्हें भी चार वर्षीय कार्यकाल के लिए ही चुना जाता है. वहां चुनाव उम्मीदवारों के नहीं बल्कि दलों के बीच होता है. दलों को मिले मत प्रतिशत के आधार पर अल्थिंगी के लिए सीटों का बंटवारा होता है. बहुमत प्राप्त दल अथवा दलों के गठबंधन को सरकार बनाने का अवसर मिलता है. सरकार का व्यावहारिक प्रमुख प्रधानमंत्री होता है, जो अपनी मंत्रिपरिषद के साथ अल्थिंगी के प्रति उत्तरदाई होता है. मंत्री पदों और मंत्रालयों का बंटवारा भी दलों को मिले मत प्रतिशत और फिर अल्थिंगी में उनकी सदस्य संख्या के आधार पर ही होती है. मंत्रिपरिषद की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा आम चुनाव के बाद की जाती है. लेकिन, नियुक्ति पर आम तौर पर राजनीतिक दलों के नेताओं में विचार-विमर्श होता है कि कौन से दल मंत्रिपरिषद में सम्मिलित हो सकते हैं और उनके बीच सीटों का बंटवारा कैसे होगा, लेकिन इस शर्त पर कि उस मंत्रिपरिषद को अल्थिंगी में बहुमत प्राप्त होगा. जब दलों के नेता अपने आप एक निर्धारित अवधि में किसी निष्कर्ष तक पहुंचने में असमर्थ होते हैं तो राष्ट्रपति अपनी शक्ति का प्रयोग करके मंत्रिपरिषद की नियुक्ति स्वयं करता या करती हैं. यद्यपि 1944 में गणतंत्र बनने के बाद से यहां अभी तक ऐसी नौबत नहीं आई है.


बहरहाल, केफ्लाविक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर डा. कलाम के भव्य स्वागत के बाद हम लोग तकरीबन 50 किमी दूर आइसलैंड की राजधानी रेक्याविक पहुंचे. पूरे रास्ते में जीव जंतु, पेड़ पौधों के निशान नहीं. धधकते- बुझे ज्वालामुखी की चट्टानें, लावा के ढेर भर नजर आ रहे थे. लेकिन रेक्याविक पहुंचने के बाद हमारा स्वागत एक बहुत ही खूबसूरत, साफ-सुथरे और व्यवस्थित शहर ने किया. हमारे ठहरने की व्यवस्था होटल रेडिसन ब्ल्यू सागा में थी. 29 मई को आधिकारिक तौर पर कोई कार्यक्रम नहीं था. शाम को हम अगल-बगल टहलते रहे. एक दुकान पर भी गये और उसकी सहृदय मालकिन से मिले. आइसलैंड के लंबे, तगड़े, नीली आंकों और सफेद-भूरे और पीले बालोंवाले स्त्री-पुरुष बहुत मिलनसार, मित्रवत, पढ़े-लिखे, सोफिस्टिकेटेड, ईमानदार और आधुनिक होते हैं. उक्त महिला में भी यह सारी खूबियां थीं. भाषा यहां आइसलैंडिक, नोर्डिक है लेकिन अंग्रेजी में काम चल जाता है. खासतौर से युवा तो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं. दुकान में सामान बहुत महंगे थे. लेकिन उस महिला से हमें आइसलैंड और रेक्याविक के बारे में बहुत सारी जानकारियां मिलीं. देर शाम हम समुद्र किनारे घूमने चले गये. रात के 10-11 बजे भी सूर्य सिर पर चमक रहा था. उसके बाद ही हमने लिखा था, ‘आधी रात का सूरज.’ बहुत ही सुंदर और नयनाभिराम दृश्य था, कल्पना से परे. होटल लौटे तो सवाल था कि रात के उजाले में सो कैसे सकेंगे. इसका इंतजाम भी हो गया. खिड़कियों पर लगे काले पर्दों को खोलकर रात के अंधेरे का एहसास कराया गया.
रेक्याविक में समुद्र किनारे


  30 मई की सुबह जल्दी ही जगना पड़ा था. रेक्याविक में होटल नोर्डिका में आइसलैंडिक-भारतीय व्यापार परिषद के द्वारा 'सिनर्जी ऐंड स्ट्रेंथ्स आफ ईस्ट ऐंड वेस्ट' पर आयोजित कार्यशाला में शामिल होना था. कार्यशाला में डा. कलाम का स्वागत करते हुए आइसलैंड के राष्ट्रपति ग्रिम्सन ने अपने देश को एक छोटी लेकिन महत्वपूर्ण प्रयोगशाला करार देते हुए कहा कि राष्ट्रपति डाक्टर कलाम का एक महान वैज्ञानिक के रूप में भी इस प्रयोगशाला में स्वागत है. उन्होंने कहा, "कलाम जैसे महान वैज्ञानिक के लिए हम जितनी भी प्रयोगशालाएं उपलब्ध करा पाएं, कम होंगी. लेकिन क्या करें, हमारा देश बहुत छोटा है." हाजिर जवाब डॉ. कलाम भी कहां चूकनेवाले थे, उन्होंने अपने भाषण में कहा, "हीरा छोटा होता है लेकिन उसका महत्व सभी जानते हैं." उन्होंने विज्ञान की भाषा का भी पुट जोड़ा और कहा, “नैनो प्रौद्योगिकी का प्रभाव अत्यंत व्यापक है. हमारे यहां छोटे को जितना स्नेह-सम्मान दिया जाता है, उतना किसी और को नहीं.’’ पूरा माहौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.
क्रमशः

नोटः आइसलैंड की यात्रा से जुड़े रोचक एवं ज्ञानवर्धक संस्मरणों की अगली कड़ी में बताएंगे कि कैसे यहां के लोगों के आधा-तिहाई बच्चे होते हैं. कैसी है आइसलैंड के राष्ट्रपति की सुरक्षा व्यवस्था. राजधानी रेक्याविक में किसने किया डा. कलाम के लिए इडली-बड़ा, सांभर का इंतजाम और कैसा है आइसलैंड का 'ब्ल्यू लगून'. इसके अलावा भी और बहुत कुछ हमारे इस ब्लाग में आपको देखने-पढ़ने को मिलेगा. 

Saturday, 19 September 2020

In Switzerland ( Interlaken) With President Dr, Kalam (राष्ट्रपति डा. कलाम के साथ इंटरलॉकेन, स्विट्जरलैंड में )

डा. कलाम के साथ विदेश भ्रमण (7)


पर्यटकों के स्वर्ग स्विट्जरलैंड में (दूसरी किश्त)


महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के घर में


जयशंकर गुप्त

  

28 मई, शनिवार की सुबह डा. कलाम के साथ हम लोग स्विट्जरलैंड के राजधानी शहर बर्न के डाउन टाउन (ओल्ड टाउन) में स्थित उस अपार्टमेंट में भी गए, जहां रहते हुए कभी विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने अपने महान शोध के बाद सापेक्षता (रिलेटिविटी) के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था. इसके लिए ही उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला था. इस घर को आइंस्टीन के नाम से संग्रहालय बना दिया गया है. उनके दो कमरों के फ्लैट में आइंस्टीन द्वारा इस्तेमाल की जानेवाली वस्तुओं को करीने से सजाकर यथावत रखा गया है. इस संग्रहालय की देखरेख करनेवाली ‘आइंस्टीन सोसाइटी’ ने इस फ्लैट को किराए पर लिया है.
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन की गली में  


इस पूरे इलाके को यूनेस्को ने संरक्षित क्षेत्र घोषित किया है. डा. कलाम वहां एक घंटा रहे. घर में संकरी सीढ़ियों पर तेजी से चढ़ते हुए वह पहली मंजिल पर उस कमरे में पहुंचे जिसमें रहकर आइंस्टीन ने अपने प्रसिद्ध ‘सापेक्षता के सिद्धांत’ पर काम किया था. उन्होंने आइंस्टीन से जुड़ी स्मृतियों को यादगार बनाए रखने के लिए पहली मंजिल के कमरों में रखे एक-एक सामान को बड़ी बारीकी से देखा. कमरे में महात्मा गांधी के बारे में आइंस्टीन का प्रसिद्ध उद्धरण भी एक फ्रेम में टंगा था जिसमें उन्होंने कहा था, “आनेवाली पीढ़ियां शायद ही यकीन कर पाएं कि इस धरती पर महात्मा गांधी जैसा हाड़-मांस का कोई पुतला भी रहता था.” डा. कलाम ने उस सूट को बड़े गौर से देखा जिसे महान वैज्ञानिक आइंस्टीन पहनते थे. इस महान वैज्ञानिक की स्मृतियों को सलाम करते हुए डा. कलाम ने विजिटर बुक में लिखा कि उस घर में जाना उनके लिए ‘तीर्थाटन’ जैसा था.


पर्यटकों और बालीवुड की पसंद इंटरलॉकेन में


  28 मई को हमारा अगला पड़ाव स्विट्जरलैंड में खूबसूरत स्विस आल्प्स पहाड़ियों के नीचे बर्नीज हाईलैंड में नयनाभिराम ब्रींज झील में नौकायन करते हुए इंटरलॉकेन में था.
इंटरलॉकेन के लिए खूबसूरत ब्रींज झील में नौकायन 
इंटरलॉकेन को पर्यटकों का स्वर्ग भी कहा जाता है. पूरब में ब्रींज और पश्चिम में थुन झीलों के बीच बसे इंटरलाकेन कस्बे के बीचोबीच आएर नदी बहती है. हॉलीवुड और बॉलीवुड की फिल्मों की शूटिंग के लिए भी यह एक प्रिय और पसंदीदा जगह के रूप में जाना जाता है. यश चोपड़ा जैसे फिल्म निर्माता-निर्देशकों के लिए तो यह एक बेहद पसंसदीदा जगह बताई गई. अमिताभ बच्चन और रेखा अभिनीत ‘सिलसिला’, श्रीदेवी और अनिल कपूर की ‘चांदनी’ से लेकर शाहरुख खान और काजोल की ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ जैसी बालीवुड की सफलतम फिल्मों के अधिकतर और खासतौर से रोमांटिक दृश्य यहीं और आसपास शूट किए गए थे. इससे पहले भी यश चोपड़ा की बहुत सारी फिल्मों की शूटिंग यहां हो चुकी थी. शायद यह भी एक कारण था कि यहां और पूरे स्विट्जरलैंड में यश चोपड़ा बहुत लोकप्रिय थे. उन्हें यहां सम्मानित भी किया जा चुका है. इंटरलाकेन में पांच सितारा होटल 'विक्टोरिया जंगंगफ्राऊ' अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के आकर्षण का महत्पूवर्ण केंद्र है. दोपहर का भोजन हम सबने इस होटल में ही किया. कुछ ही दूरी लेकिन काफी ऊंचाई पर विश्व प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र जंग फ्राऊ भी है. जहां रेल गाड़ी से जाने की सुविधा भी है.
 
आइजेल्टवॉाल्ड में डा. कलाम के स्वागत में खडे बच्चे
 इंटरलाकेन वाकई बहुत सुंदर और मनोहारी था. वहां पहुंचने से पहले डा. कलाम के साथ हम लोग ऑल्प्स पर्वतमालाओं के नीचे खूबसूरत ब्रींज झील के किनारे बसे गांव ‘आइजेल्टवॉल्ड’ पहुंचे. लगता था कि पूरा गांव डा. कलाम के स्वागत में सड़क पर उतर आया था. हाथों में स्विट्जरलैंड के राष्ट्रध्वज के साथ ही भारतीय राष्ट्रध्वज, तिरंगे को उठाए लोग गाजे-बाजे के साथ दोनों राष्ट्राध्यक्षों के स्वागत में कतारबद्ध खड़े थे. कुछ लोगों के हाथों में प्लेकार्ड्स भी थे. एक प्लेकार्ड पर हिंदी में लिखा था, ‘स्वागत राष्ट्रपति जी’ जबकि एक दूसरे पर लिखा था, ‘विदाई राष्ट्रपति जी’. 

  इंटरलाकेन से महज पांच-छह किमी. दूर आइजेल्टवॉल्ड में भी दुनिया भर और खासतौर से भारतीय पर्यटकों और बालीवुड को आकर्षित करने योग्य सब कुछ है. लेकिन गांव के लोगों की शिकायत है कि अधिकतर अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक और फिल्मकार इंटरलाकेन में ही अटक जाते हैं और वहीं से वापस लौट जाते हैं. आइजेल्टवॉल्ड में डा. कलाम और स्विस राष्ट्रपति श्मिड सड़क पर तकरीबन आधा किमी पैदल चलते और उनके स्वागत में कतारबद्ध खड़े ग्रामीणों-बच्चों से मिलते हुए झील के किनारे पहुंचे. वहां बच्चों ने डा. कलाम के स्वागत में गीत भी गाए. एक बच्ची के मुंह से ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ सुनकर डा. कलाम भी अभिभूत हो गए. यह बच्ची, जासमीन अपने हैदराबादी व्यवसाई माता-पिता और छोटी बहन खुशबू के साथ चार दिन के लिए स्विट्जरलैंड की यात्रा पर आई थी. जब पता चला कि डा. कलाम आइजेल्टवाल्ड में आ रहे हैं तो वह भी अपने परिवार के साथ यहां उनसे मिलने आ गई थी. डा. कलाम ने उससे हाथ मिलाया और उसके नोट बुक में संदेश भी लिखा. डा. कलाम से मिलकर पूरा परिवार धन्य था. 

  जासमीन के पिता जयंत कुमार भंसाली ने बताया कि डा. कलाम से मिलने की उसकी जिद के कारण ही उन्होंने स्विट्जरलैंड में अपना प्रवास चार दिन और बढ़ा लिया. भंसाली ने बताया कि धरती पर स्वर्ग कहे जानेवाला स्विट्जरलैंड और इंटरलॉकेन दुनिया भर के पर्यटकों और खासतौर से भारतीय पर्यटकों का सबसे पसंदीदा पर्यटन केंद्र है. हर साल यहां भारत से भी तकरीबन 70-80 हजार पर्यटक आते हैं. हर जगह भारतीय व्यंजन उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में उन्होंने बताया कि खाने-पीने को लेकर तो कुछ परेशानी जरूर होती है लेकिन जो लोग आर्थिक रूप से सक्षम हैं, वे लोग मन पसंद व्यंजन तैयार करने के लिए अपने साथ ‘महाराज’ यानी रसोइया भी लेकर चलते हैं. उन्होंने बताया कि छह-सात लोग साथ हों तो होटल में महंगे कमरे लेने के बजाय पांच-छह दिन के लिए किराए पर एपार्टमेंट लेना फायदेमंद होता है. वहां अपने पसंद का भोजन तैयार किया जा सकता है. 

स्विस प्रेसीडेंट श्मिड की पीठ बन गई 'टेबल'


   जासमीन की नोट बुक में संदेश लिखने से पहले डा. कलाम ने इधर उधर देखा. और किसी ने समझा हो पता हीं, लेकिन स्विट्जरलैंड के राष्ट्रपति श्मिड समझ गये. डा. कलाम को किसी तरह की परेशानी नहीं हो, इसके लिए वह वहां पीठ के बल झुक गए. यह एक अनहोनी जैसी बात थी , लेकिन डा. कलाम ने मुस्कराते हुए उनकी पीठ पर नोट बुक रख कर अपना संदेश लिखा. ऐसा होते देख श्मिड भी मुस्कराए बिना नहीं रह सके. जासमीन की नोट बुक पर संदेश लिखते समय एक बुजुर्ग महिला ने डा. कलाम के सामने एक फोटो कार्ड बढ़ाकर उस पर उनसे अपना हस्ताक्षर करने को कहा. डा. कलाम के पूछने पर महिला ने बताया कि तस्वीर उनकी पुत्री और दामाद की है, जो भारत में चंडीगढ़ में रहते हैं.

  आइजेल्टवाल्ड गांव में टहलते समय डा. कलाम की निगाह स्थानीय वाद्यतंत्र ‘आल्पहार्न’ बजा रहे लोगों पर पड़ी.
उन्होंने उनके पास जाकर उनके साथ तस्वीरें खिंचवाई और आल्पहार्न में फूंक मारकर उसे बजाया भी. डा. कलाम ने वहां बच्चों के बीच दिल्ली से लाए उपहार भी बांटे. डा. कलाम के पास स्विट्जरलैंड के राष्ट्रपति श्मिड के लिए भी अलग से एक विशेष उपहार था जिसे वह भारत से अपने साथ लाए थे. उनके कहने पर इसरो के चेयरमैन जी माधवन नायर ने इसरो के उपग्रह, कार्टोसेट-1 से आल्प्स पर्वतमालाओं की थ्री डाइमेंसनल तस्वीरें उतरवाई थीं. ट्रांसमिशन के जरिए आई इन तस्वीरों का एक सेट डा. कलाम ने श्मिड को सौंपा तो वह मुस्कराए और आत्मीय धन्यवाद कहे बिना नहीं रह सके.


ब्रींज झील में नौकायन


  ब्रींज झील में क्रूज पर नौकायन करते समय साथ चल रहे छायाकार दोनों राष्ट्राध्यक्षों की तस्वीरें ले रहे थे. डा. कलाम से नहीं रहा गया. उन्होंने एक कैमरामैन से उसका कैमरा लेकर कहा, ‘जरा मैं भी हाथ आजमां लूं!’
स्विस प्रेसीडेंट श्मिड की तस्वीर उतारते डा. कलाम
उन्होंने स्विस राष्ट्रपति श्मिड की तस्वीरें लीं. नौकायन के दौरान पूरे समय हम पत्रकार एवं कुछ अन्य लोग भी नयनाभिराम झील और बर्फ से ढकी आल्प्स की खूबसूरत पहाड़ियों को देखते-निहारते और प्रकृति प्रदत्त सौंदर्य का लुत्फ उठाते रहे लेकिन डा. कलाम अपने समवर्ती स्विस राष्ट्रपति श्मिड के साथ स्विट्जरलैंड की आपदा प्रबंधन एजेंसी के उप निदेशक टोनी फ्रिश द्वारा आपदा प्रबंधन की नई तकनीक पर दिए जा रहे ‘पावर प्रेजेंटेशन’ में खोए रहे. डा. कलाम ने श्मिड से कहा कि भारत में भी इस तकनीक का लाभ उठाया जा सकता है. श्मिड ने सिर हिलाकर जवाब दिया था, क्यों नहीं.
ब्रींज झील में नौकायन में श्मिड के साथ डा. कलाम

अपनी विशेषज्ञता का लाभ प्रदान करते हुए स्विट्जरलैंड भारत में आपदा प्रबंधन के काम में मदद करेगा. गौरतलब है कि गुजरात में जनवरी 2001 के अंतिम सप्ताह में भयावह भूकंप के समय आपदा प्रबंधन में स्विट्जरलैंड की विशेषज्ञ टीमों ने महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय योगदान किया था. शाम को डा. कलाम राजधानी बर्न में स्थित प्रमुख कैथेड्रल में भी गए.

 लेकिन स्विट्जरलैंड ने डा. कलाम को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के लिए समर्थन के मामले में किसी तरह का ठोस आश्वासन नहीं दिया. स्विस राष्ट्रपति श्मिड और डा. कलाम के बीच द्विपक्षीय बातचीत के बाद इस बारे में पूछा गया तो श्मिड ने बड़े ही नपे तुले जवाब में इस मामले में अपने देश की तटस्थ नीति का जिक्र करते हुए कहा कि उनका देश भी मानता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का विस्तार होना चाहिए. लेकिन इससे पहले इस विस्तार से सम्बंधित कुछ औपचारिकताएं भी तय की जानी चाहिए. श्मिड ने कहा कि सुरक्षा परिषद के विस्तार से सम्बंधित प्रक्रिया और औपचारिकताओं के तय होने से पहले उनके देश के लिए यह सवाल विशेष मायने नहीं रखता कि किस देश को स्थायी सदस्यता मिलनी चाहिए और किसे नहीं.


नोटः आपको पता है कि अमेरिका की खोज सबसे पहले किसने की थी! सहज उत्तर होगा, क्रिस्टोफर कोलंबस ने. लेकिन एक बहुत छोटे, तकरीबन न लाख की आबादी वाले देश आइसलैंड के लोग इसका प्रतिवाद करते हैं. क्यों ! अगली कड़ी यानी पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम के साथ दूसरे चरण के विदेश भ्रमण के अगले पड़ाव आइसलैंड की यात्रा के संस्मरण साझा करते हुए इसका भी उत्तर देंगे. आइसलैंड में छह महीने दिन और छह महीने रात होती है ! नाम आइसलैंड है लेकिन वहां धधकते ज्वालामुखी भी दिखते हैं. उनका दावा दुनिया का प्राचीनतम लोकतंत्र होने का भी है. और भी बहुत कुछ आपको देखने-पढ़ने को मिलेगा हमारे ब्लॉग jaishankargupt.blogspot.com पर चल रहे हमारे विदेश यात्राओं के संस्मरण में. जो लोग पीछे की कड़ियां नहीं देख सके हैं और देखना पढ़ना चाहते हैं, इस ब्लॉग पर जाकर देख पढ़ सकते हैं. इस पर आपको हमारे और भी बहुत सारे नये पुराने लेख देखने पढ़ने को मिल सकते हैं.

Saturday, 12 September 2020

In Switzerland with President Dr. Kalam ( राष्ट्रपति डा. कलाम के साथ स्विट्जरलैंड में).

कलाम के साथ विदेश भ्रमण (5)

पर्यटकों के स्वर्ग स्विट्जरलैंड में

जयशंकर गुप्त


सेंट पीटर्सबर्ग से 25 मई को ही हमारी सीधी उड़ान स्विट्जरलैंड के जिनेवा शहर के लिए थी. हमने स्विस घड़ियों, स्विस बैंकों और चाकलेट के लिए मशहूर पर्यटकों के लिए स्वर्ग कहे जानेवाले स्विट्जरलैंड के बारे में पहले से बहुत सुन रखा था. यह भी कि वहां पिछले दो सौ वर्षों में कोई युद्ध नहीं हुआ. यहां तक कि पहले और दूसरे विश्वयुद्ध में भी स्विट्जरलैंड तटस्थ बना रहा. अब यह सब प्रत्यक्ष रूप से देखने-समझने का अवसर मिल रहा था.

पश्चिमी, मध्य और दक्षिणी यूरोप के संगम पर स्थित स्विट्जरलैंड, 26 कैंटनों (राज्यों) को मिलाकर बना संघीय गणराज्य है. इन सभी कैंटनों के अपने संविधान, अदालतें, विधायिका और सरकारें होती हैं. सब मिलकर स्विस परिसंघ बनाते हैं जिनकी राष्ट्रीय राजधानी बर्न में है. चारों तरफ से जमीन से घिरे (लैंड लाक्ड) देश (जहां समुद्र नहीं है), स्विटजरलैंड की सीमाएं दक्षिण में इटली, पश्चिम में फ्रांस, उत्तर में जर्मनी और पूर्व में ऑस्ट्रिया और लिकटेंस्टीन से लगती हैं. यह भौगोलिक रूप से स्विस पठार, आल्प्स और जुरा (पहाड़ियों) के बीच विभाजित है. पुराने स्विस कॉन्फेडेरसी की स्थापना मध्ययुगीन काल के अंत में ऑस्ट्रिया और बरगुंडी के खिलाफ सैन्य सफलताओं के बाद की गई थी. रोमन साम्राज्य से स्विट्जरलैंड की स्वतंत्रता की औपचारिक मान्यता 1648 में दी गई थी. 16 वीं शताब्दी के सुधारों के बाद से, स्विट्जरलैंड ने सशस्त्र तटस्थता की एक मजबूत नीति बनाए रखी है. इसने 1815 से लेकर अब तक एक भी अंतर्राष्ट्रीय युद्ध नहीं लड़ा. यह 2002 तक संयुक्त राष्ट्र में शामिल भी नहीं हुआ था. फिर भी, यह अक्सर दुनिया भर में शांति प्रक्रियाओं में मध्यस्थ के रूप में शामिल होता रहा. दुनिया के सबसे पुराने और सबसे प्रसिद्ध मानवीय संगठनों में से एक रेड क्रॉस का जन्म यहीं हुआ. संयुक्त राष्ट्र का दूसरा सबसे बड़ा मुख्यालय भी यहीं जिनेवा में है.

बहरहाल, डा. कलाम के साथ हम लोग 25 मई की शाम स्विट्जरलैंड के खूबसूरत जिनेवा लेक (झील) पर स्थित जिनेवा शहर पहुंचे. डा. कलाम के आगमन को यादगार बनाने के लिए स्विट्जरलैंड की सरकार ने 26 मई को ‘विज्ञान दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की थी. जिनेवा में डा. कलाम के साथ हम दुनिया की सबसे बड़ी कण (पार्टिकल्स) भौतिकी प्रयोगशाला कही जानेवाली सर्न (यूरोपीयन काउंसिल फार न्यूक्लीयर रिसर्च) लेबोरेटरी में भी गए.
विश्व प्रसिद्ध सर्न लेबोरेटरी में 

स्विट्जरलैंड और फ्रांस की सीमाओं से लगी इस प्रयोगशाला में दुनिया भर के चुनिंदा वैज्ञानिक शोध कार्यों में लगे हैं. वहां वैज्ञानिकों को डा. कलाम के सम्मान में सिर झुकाते देख मन में अजीब तरह के गर्व का एहसास हुआ था. उनके साथ भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष अनिल काकोदकर भी थे. उन्होंने वहां डा. कलाम की मौजूदगी में ‘लेटर ऑफ इंटेंट’ पर हस्ताक्षर किया. काकोदकर ने बताया कि सर्न में भारत को पर्यवेक्षक देश का दर्जा मिलने का मतलब हमारी परमाणु क्षमताओं को मान्यता मिलने जैसा है. उस समय तक सर्न में पर्यवेक्षक का दर्जा केवल अमेरिका, रूस और जापान को ही मिला था.

इस लेबोरेटरी में डा. कलाम के साथ घूमने के क्रम में हमें सिर पर हैल्मेट लगाए जमीन के अंदर कई मंजिल नीचे लिफ्ट से जाना पड़ा था.
सर्न में डा. कलाम. पीछे हैं अनिल काकोदकर
डा. कलाम ने वहां मैग्नेट असेंबली और परीक्षण हालों का भी अवलोकन किया. ‘ग्लास बाक्स’ में उन्होंने कुछ चुनिंदा वैज्ञानिकों से बातें की. प्रयोगशाला में हम लोग घुसे तो थे स्विट्जरलैंड से लेकिन जब बाहर निकले तो पता चला कि हम फ्रांस में हैं. दरअसल, इस लेबोरेटरी का आधा हिस्सा स्विट्जरलैंड में तथा आधा फ्रांस की सीमा में पड़ता है. वापस मोटर गाड़ियों के काफिले में हम जिनेवा लौटे. सर्न जाने से पहले डा. कलाम ने जिनेवा में रहनेवाले भारतीय उद्योगपतियों और छात्रों को भी संबोधित किया था. जिनेवा की एक खासियत और है. यह है तो स्विट्जरलैंड में लेकिन यहां की अधिकतर आबादी फ्रेंच भाषी है.

जिनेवा लेक पर 'मूर्तिवत भिखारी’ !


शाम को जिनेवा लेक के पास किनारे पर घूमते समय अजीब नजारा देखने को मिला. एक व्यक्ति प्रस्तर प्रतिमा की तरह खड़ा था. कोई स्पंदन नहीं. पता चला कि वह भिखारी था. जैसे ही कोई उसके पास रखे कटोरे में भीख के रूप में कुछ सिक्के अथवा नोट डालता, अपने खास अंदाज में झुक कर वह शुक्रिया अदा करता और फिर पहले की तरह ही मूर्तिवत हो जाता. जिनेवा लेक में हमने एक ऐसे फौव्वारे का दीदार किया जिससे निकलनेवाले पानी की धार 150 मीटर (हमारे कुतुबमीनार की ऊंचाई के डेढ़-दो गुना ऊंचा) की ऊंचाई तक ऊपर जाती थी. शाम के समय इस फौव्वारे में रंगों का मिश्रण इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा रहा था.
जिनेवा लेक के किनारे, पीछे है फव्वारा

जिनेवा लेक में नौकायन करते हुए रास्ते में गगन चुंबी अट्टालिकाओं पर नजर पड़ी. पता चला कि वही तथाकथित ‘स्विस बैंक’ हैं जहां कथित तौर पर न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया भर के दौलतमंदों की काली कमाई, काले धन के रूप में जमा है. बताया गया कि अधिकतर मामलों में खातेदार अपने स्विस एकाउंट्स के कोड नंबर आदि डिटेल्स अपने परिवार के निकटस्थ लोगों, यहां तक कि अपनी पत्नी को भी नहीं बताते और असामयिक निधन होने या कहें दुर्घटना का शिकार होकर मरनेवाले खातेदारों के बैंक खातों के बारे में जानकारी के अभाव में वहां जमा रकम बैंक के पास ही जमा रह जाती है. इन बैंकों की समृद्धि का एक बड़ा कारण यह भी बताया गया.

तकरीबन 75 किमी. लंबी खूबसूरत जिनेवा लेक विलनेवा तक जाती है. इसका कुछ हिस्सा फ्रांस में भी पड़ता है. झील के साथ चल रही चार लेन की सड़क पर सरपट भागती गाड़ियां हवा से बातें करती हैं. सड़क के किनारे पाईन फार्म, अंगूर के बाग, खेत और शहरी गांव हैं. गांव सड़क से गुजरनेवालों के लिए ढके से रहते हैं. वाईन यहां चाकलेट और स्विस घड़ियों की तरह ही मुख्य कमाऊ व्यवसाय है. लुसाने के पास हम कुवी (कुल्ली) गांव गए वहां वाईन फार्म के साथ ही जमीन के अंदर बहुत पुराने लंबे सेलर भी देखे, जहां वाईन का भंडारण और संरक्षण भी किया जाता था.
वहां कई-कई दशक पुरानी वाईन भी देखने को मिली. बाहर निकल कर ‘वाइन टेस्टिंग’ में शामिल होकर हमने ‘स्विस वाइन’ के विभिन्न प्रकारों का लुत्फ उठाया.

26 मई को हम लोग स्विट्जरलैंड के तकरीबन तीन लाख की आबादीवाले फ्रेंच भाषी लुसाने शहर में थे. इस दिन को स्विट्जरलैंड की सरकार ने डा. कलाम की यात्रा को यादगार मनाने के लिए ‘विज्ञान दिवस’ घोषित किया था तो डा. कलाम ने भी इस पूरे दिन को विज्ञान और वैज्ञानिकों के नाम ही समर्पित किया.

विश्व प्रसिद्ध ओलंपिक म्युजियम


लुसाने के बारे में बताया गया कि वहीं से उस खास स्याही (रोशनाई) की आपूर्ति भारत में होती है जिससे हमारे करेंसी नोटों (रुपयों) की छपाई होती है. इसी शहर में विश्व प्रसिद्ध ओलंपिक म्युजियम में घूमना हमारे लिए किसी बड़े आश्चर्य से कम नहीं था.
ओलंपिक म्युजियम के सामने

ओलंपिक खेलों के इतिहास और इसकी विरासत को सहेजने के लिए इस तरह के म्युजियम के निर्माण की परिकल्पना 1915 में यहां बेरन पियरे दि कबर्टिन के द्वारा इंटरनेशनल ओलंपिक समिति का मुख्यालय लाने के साथ ही तैयार हुई थी. 1982 में अस्थाई ओलंपिक म्युजियम को आम लोगों के लिए खोला गया था. लेकिन यह नाकाफी लगा तो 9 दिसंबर, 1988 को मौजूदा ओलंपिक म्युजियम के निर्माण की शुरुआत हुई. तकरीबन पांच साल में तैयार हुए इस भव्य और आकर्षक म्युजियम को 23 जून 1991 में आम लोगों के लिए खोला गया. म्युजियम के अधिकारियों ने बताया कि अब तक तकरीबन 22 लाख पर्यटक-दर्शक म्युजियम में आकर इसमें पहले ओलंपिक से लेकर उस समय तक के ग्रीष्म एवं शीत ओलंपिक खेलों से जुड़े सभी तरह के विवरण, विजेता खिलाड़ियों की जीवंत तस्वीरें, खेलों में इस्तेमाल हुए उपकरण, ड्रेसेज, पदक, सिक्के, डाक टिकट, खेल-प्रतिस्पर्धाओं की जीवंत तस्वीरें, वीडियो, आडियो-वीडियो कमेंट्री आदि का अवलोकन कर चुके हैं. दुनिया भर से औसतन दो लाख दर्शक इस म्युजियम में हर साल आते हैं. इनमें से एक तिहाई स्कूली बच्चे होते हैं.

यह नई पीढ़ी में खेल कूद और खासतौर से ओलंपिक स्पर्धाओं के प्रति बढ़ रहे आकर्षण और लगाव का द्योतक है. म्युजियम में एक बड़े ओलंपिक पार्क के साथ ही इसके बीच में ओलंपिक अध्ययन केंद्र, आडियो-वीडियो लाइब्रेरी, पांच बैठक कक्ष, एक ऑडिटोरियम, रेस्तरां, और एक दुकान भी है जहां से आप ओलंपिक खेलों से जुड़े प्रतीकों, प्रतिकृतियों, आडियो और वीडियो तथा स्मृति चिह्न आदि खरीद सकते हैं. म्युजियम में पसंदीदा ओलंपिक खेलों और प्रतिस्पर्धाओं को आप भुगतान पर लाइव देख सकते हैं. फ्रेंच, अंग्रेजी, जर्मन, स्पेनिश, इटैलियन, रूसी, जापानी एवं चाइनीज भाषा में रेकार्डेड कमेंट्री की व्यवस्था भी है. बताया गया कि इस म्युजियम में पहले ओलंपिक की टार्च के साथ ही अब तक की ओलंपिक प्रतिस्पर्धाओं में प्रयुक्त ओलंपिक टार्च, मशहूर महिला ओलंपियन जीन-क्लॉड किल्ली के स्की और बूट्स तथा कार्ल लुइस के जूते भी सहेज कर रखे गए हैं. बताया गया कि म्युजियम की फोटो लाइब्रेरी में 517000 डाक्युमेंट रखे गए हैं जबकि इसकी वीडियो लाइब्रेरी और फिल्म अभिलेखागार में 21 हजार 500 घंटों की फुटेज मौजूद है. कुल मिलाकर ओलंपिक स्पर्धाओं के बारे में शोध करनेवालों के लिए यहां सब कुछ मौजूद है.

वैज्ञानिकों के बीच डा. कलाम


लुसाने में डा. कलाम फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (एफआईटी) में गये जहां एक सौ से अधिक भारतीय छात्र अध्ययन-अनुसंधान कार्यों में लगे थे. वहां भी वैज्ञानिकों ने उनका जबरदस्त स्वागत किया.
लुसाने स्थित एफआइटी में डा. कलाम. पीछे खड़े राबर्ट ऐमर
एफआईटी के निदेशक राबर्ट ऐमर ने उनका स्वागत करते हुए कहा कि एक वैज्ञानिक के रूप में डा. कलाम का योगदान विलक्षण है. पूरी दुनिया की विज्ञान बिरादरी के लिए यह गौरव की बात है कि डा. कलाम के रूप में एक वैज्ञानिक राष्ट्राध्यक्ष हमारे बीच हैं. उनके मुंह से यह बातें सुनकर गर्व से हमारा सीना चौड़ा और सिर ऊंचा हो गया. हमें एहसास हुआ कि राष्ट्रपति के रूप में डा. कलाम के होने के मायने क्या हैं. डा. कलाम ने महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन की स्मृति को सलाम किया और महात्मा गांधी तथा विश्व कवि रवींद्रनाथ टैगोर के बारे में उनके द्वारा कही गई बातों को उद्धृत करते हुए कहा कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के रचनात्मक इस्तेमाल के क्षेत्र में दोनों देशों को साझा प्रयास करने चाहिए.

डा. कलाम ने कहा, 'परमाणु ऊर्जा से हम बिजली और बम दोनों बना सकते हैं. एक से प्रकाश मिलेगा और दूसरे से विनाश होगा'. उन्होंने कहा कि प्रौद्योगिकी हानिकारक नहीं है, बशर्ते उसका इस्तेमाल करनेवाले ओर उनके इरादे गलत न हों. उन्होंने कहा, 'परमाणु प्रौद्योगिकी से हम ऊर्जा तैयार कर सकते हैं, उन्नत किस्म के बीज पैदा कर सकते हैं. रेडिएशन से घातक बीमारियों का इलाज भी संभव है. लेकिन यह भी सच है कि इससे विनाशकारी बम भी बनाए जा सकते हैं.' उन्होंने विश्व वैज्ञानिक समुदाय से परमाणु प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल विनाश के लिए नहीं बल्कि रचनात्मक कार्यों के लिए करने का आह्वान किया.

लुसाने स्थित फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में अध्ययन, अनुसंधान और विभिन्न प्रयोगशालाओं, खासतौर से विकलांग बच्चों की बीमारी (ऑटिज्म) से निजात पाने तथा कनवर्जेंस ऑफ टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अनुसंधान कर रही प्रयोगशालाओं को देखने के बाद डा. कलाम के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा, ‘जल्दी ही कुछ अच्छा होने वाला है.’ उनका आशय शायद मानसिक रूप से विकलांग बच्चों की विकलांगता दूर करने तथा कनवर्जेंस आफ टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में किसी नई खोज के सामने आने को लेकर था. लुसाने में अध्ययन और अनुसंधान में लगे दुनिया भर के छात्रों और फैकल्टी मेंबरों के बीच डा. कलाम ने कंप्यूटर के क्षेत्र में हो रहे नित नए अनुसंधानों का जिक्र करते हुए कहा, 'वर्ष 2021 तक दुनिया में ऐसे सुपर कंप्यूटर आ जाएंगे जिनकी क्षमता मानव मस्तिष्क से हजार गुना ज्यादा होगी.' लेकिन, इसके साथ ही उन्होंने कहा, ‘मानव मस्तिष्क की तरह कंप्यूटर कभी रचनात्मक नहीं हो सकता.’ उन्होंने मानव क्लोनिंग बनाए जाने के विचार से असहमति जताते हुए कहा कि यह प्रकृति के विरुद्ध है.

26 मई की शाम हम लोग स्विट्जरलैंड में आबादी के हिसाब से सबसे बड़े शहर ज्यूरिख में स्थित फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलोजी भी गये. वहां भी डा. कलाम का अभूतपूर्व स्वागत हुआ. इन दोनों विश्व प्रसिद्ध प्रौद्योगिकी संस्थानों का महत्व इस बात से भी समझ सकते हैं कि अब तक विज्ञान के क्षेत्र में सर्वाधिक नोबल पुरस्कार इन्हीं दोनों संस्थानों के वैज्ञानिकों को मिले हैं.

राजधानी शहर बर्न में डा. कलाम का स्वागत


ज्यूरिख से 27 मई को हम लोग राजधानी शहर बर्न गये. डा. कलाम के स्वागत के लिए पूरी दुनिया में शांति और व्यवस्था के प्रतीक स्विट्जरलैंड के राष्ट्रपति सैम्युएल श्मिड तथा उनकी पत्नी ऐरेना श्मिड भी वहां मौजूद थे. दोनों देशों की राष्ट्रीय धुनें बजने के बाद कलाम का स्वागत 26 फौव्वारों के साथ किया गया. ये फौव्वारे स्विट्जरलैंड परिसंघ में शामिल 26 कैंटनों (राज्यों) की तरफ से थे. डा. कलाम ने वहां स्विट्जरलैंड परिसंघ की संघीय परिषद को संबोधित किया. राष्ट्रपति भवन में डा. कलाम के सम्मान में राष्ट्रपति श्मिड द्वारा आयोजित राजकीय रात्रिभोज (बैंक्वेट डिनर) के अवसर पर डा. कलाम ने दोनों देशों के बीच मित्रतापूर्ण संबंधों की तुलना विशाल हिमालय और आल्प्स पर्वतमालाओं से करते हुए कहा कि दोनों देश जब एक-दूसरे से दोस्ती का हाथ मिलाते हैं तो लगता है कि दोनों विशाल और प्राचीन पर्वत श्रृंखलाएं एक दूसरे से मिल रही हैं. उन्होंने कहा कि आजाद होने के बाद भारत के साथ दोस्ती के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करनेवाला पहला देश स्विट्जरलैंड ही था. डा. कलाम ने सापेक्षता (रिलेटिविटी) के सिद्धांत का प्रतिपादन करनेवाले महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के शताब्दी वर्ष का जिक्र करते हुए कहा कि ‘अन्नालेन डेर फिजिक्स’ में उनके युगांतरकारी लेख ने भौतिकी का रूप ही बदल दिया था.
उन्होंने कहा, ‘’जब मैं आइंस्टीन के बारे में सोचता हूं तो मुझे महात्मा गाधी के बारे में उनकी वह टिप्पणी याद आती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि आनेवाली पीढ़ियां शायद ही यकीन कर पाएं कि इस धरती पर महात्मा गांधी जैसा हाड़-मांस का कोई पुतला भी रहता था.”

क्रमशः


अगली कड़ी में स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न में स्थित उस फ्लैट में डा. कलाम की यात्रा जहां रहते हुए कभी महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने सापेक्षता (रिलेटिवटी) का सिद्धांत प्रतिपादित किया था जिसके लिए उन्हें नोबल पुरस्कार भी मिला था. इसके साथ ही डा. कलाम और स्विट्जरलैंड के राष्ट्रपति सैम्युएल श्मिड के साथ पर्यटकों का स्वर्ग और बालीवुड की पसंद कहे जानेवाले इंटरलाकेन और ब्रींज झील की सैर से जुड़े रोचक संस्मरण. 

Monday, 7 September 2020

CORONA'S (COVID19) Growing Havoc in INDIA ब्राजील से आगे निकल विश्व में नंबर दो हुए हम!

भारत में कोरोना का बढ़ता कहर

ब्राजील से आगे निकल विश्व में नंबर दो पर पहुंचे हम

जयशंकर गुप्त

खुशी मनाएं कि गम. गौरवान्वित हों कि हों शर्मसार. वैश्विक महामारी कोरोना (कोविड 19) के संक्रमितों की संख्या के मामले में हमारा भारत विश्व में नंबर दो के मुकाम पर पहुंच गया है. कुल संक्रमितों की संख्या 42 लाख (6 सितंबर 2020 की शाम तक)  को पार कर जाने के कारण भारत अब ब्राजील से आगे निकल गया है. ब्राजील में कल शाम तक कुल कोरोना संक्रमितों की संख्या थी, तकरीबन 41 लाख 23 हजार. कल शाम तक 71 हजार 687 भारतीय कोरोना की चपेट में आकर दम तोड़ चुके हैं. जबकि कोरोना के टेस्ट की रफ्तार अभी भी इस देश में बहुत कम और धीमी है. तकरीबन 138 करोड़ की आबादीवाले इस देश में अभी तक कुल चार करोड़ 88 लाख से कुछ अधिक ही टेस्ट कराए जा चुके हैं. गंभीर चिंता की बात यह है कि पिछले एक सप्ताह में देश में कोरोना से संक्रमित रोगियों की संख्या कम होने के बजाय लगातार रिकार्डतोड़ ढंग से बढ़ते जा रही है. रविवार 6 सितंबर को 91 हजार से अधिक नए मामले दर्ज किए गये. इसके एक दिन पहले, 5 सितंबर को देश में 90 हजार 600 नए मरीज दर्ज हुए थे. 
राहत की बात इतनी भर है कि शनिवार को 73 हजार लोग कोरोना के संक्रमण से मुक्त भी हुए. अभी तक 31 लाख 80 हजार लोग कोरोना संक्रमण से मुक्त हो चुके हैं. लेकिन अभी भी देश के विभिन्न हिस्सों में तकरीबन 9 लाख  कोरोना ग्रस्त मरीज हैं जिनमें से 10 हजार की हालत गंभीर बनी हुई है. चिंता की बात यह भी है कि नये मामले उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से अधिक आ रहे हैं. यह दोनों राज्य इस समय भारी बरसात और बाढ़ का सामना अलग से कर रहे हैं. बिहार में तो नवंबर में विधानसभा के चुनाव भी कराए जा रहे हैं. 
 
आश्चर्य और अफसोस की बात यह है कि कोरोना के कहर के इन डरावने आंकड़ों को लेकर हमारी सरकार, मुख्यधारा का मीडिया और हमारे लोग (आम नागरिक) भी अब उतने चिंतित और सचेत नहीं हैं जितना शुरुआती दौर में नजर आते थे जब कोरोना संक्रमितों और उसकी चपेट में आकर मरनेवाले लोगों की संख्या भी बहुत कम थी. लॉाकडाउन के नाम पर सरकारी सख्ती गजब की थी. सरकार ने और मीडिया ने लोगों के बीच भय और दहशत का ऐसा माहौल बना दिया था कि उस समय तो सबकुछ ठप सा हो गया था. हमारा मुख्यधारा का मीडिया इस समय बालीवुड के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत कीआत्महत्या-हत्या की गुत्थी सुलझाने में व्यस्त है और हमारे हुक्मरान इस आपदा को अवसर में बदलकर इसके कैसे और क्या क्या राजनीतिक लाभ लिए जा सकते हैं, इसकी जुगत में. मध्य प्रदेश में जनादेश से बनी कांग्रेस की सरकार को पैसे और राजनीतिक प्रलोभन के जरिए अपदस्थ कर वहां अपनी सरकार बनाने में वे सफल हो चुके हैं.राजस्थान में आपदा अवसर में बदलते-बदलते रह गई. कांग्रेस की सरकार को अपदस्थ कर उसके कथित बागियों के सहारे अपनी सरकार बनाने के उनके मंशूबे पूरे नहीं हो सके.  

 बहरहाल, हमने जुलाई महीने में ही आगाह किया था कि अगर अपेक्षित सावधानी और सतर्कता नहीं बरती गई, कोरोना प्रोटोकोल पर पूरी तरह से अमल नहीं हुआ और बड़े पैमाने पर कोरोना टेस्टिंग नहीं हुई तो अगस्त महीने तक देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या 20 लाख के आंकड़े को छू लेगी. हम गलत साबित हुए. अगस्त बीतते बीतते तो देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या 35 लाख के पार पहुंच गई. अभी भी ऐसा नहीं लग रहा है कि सरकार इस दिशा में विशेष रूप से सक्रिय है. अगर यही हाल रहा और कोरोना संक्रमितों की संख्या इसी रफ्तार से बढ़ती रही (अभी अमेरिका और ब्राजील के मुकाबले भारत में कोरोना संक्रमितों के बढ़ने की रफ्तार दो गुनी से ज्यादा है.)
तो नवंबर महीने तक इस देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या एक करोड़ के पार और इसके कारण दम तोड़नेवालों की संख्या भी डेढ़ लाख से ऊपर पहुंच सकती है. तकलीफदेह बात यह भी है कि कोरोना से मुक्ति दिलाने के नाम पर विभिन्न देशों में कोई टीका (वेक्सिन) अभी तक निर्णायक और प्रामाणिक रूप से सामने नहीं आ सका है. उसके बारे में अभी तक केवल अटकलें ही सुनने-पढ़ने को मिल रही हैं.   
  
  वस्तुस्थिति यही है कि एक तरफ डूबती लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था (जून तिमाही में भारत की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में 23.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई जबकि बेरोजगारी के आंकड़े तेजी से बढ़ रहे हैं. रुपये की कीमत गिर रही है.) को पटरी पर लाने के नाम पर केंद्र और राज्य सरकारों के द्वारा तमाम क्षेत्रों को 'अनलॉक' किया जा रहा है तो दूसरी तरफ भारत में कोरोना का कहर अपने चरम को छूने को आतुर दिख रहा है. अनलॉक प्रक्रिया के तहत होटल-रेस्तरां और बार खोले जा रहे हैं, मेट्रो रेल का परिचालन शुरू होने जा रहा है, रेल गाड़ियां, बसें, टैक्सी और ऑटो रिक्शा दौड़ने लगे हैं (इन सबके परिचालन में कोरोना प्रोटोकोल और अन्य सावधानियों का पालन किस तरह से हो रहा है, इसे सड़क पर दौड़ रहे ऑटो रिक्शा, टैक्सी, बसों, बाजारों में देखा समझा जा सकता है. कई बार तो लगता है कि हमारी लापरवाहियां हमें एक बड़ी त्रासदी की ओर ले जा सकती हैं. 'अन लॉक' भारत में कोरोना का कहर बढ़ते ही जाने के मद्देनजर इस तरह की अटकलें भी लगनी शुरू हो गई हैं कि हालत नहीं सुधरी तो देश को एक बार फिर से 'लॉकडाउन' के हवाले किया जा सकता है! वैसे, 'कोरोना को हराना है' का 'मंत्र वाक्य' देनेवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अब कहने लगे हैं कि 'अब हमें कोरोना के साथ ही जीना सीखना है!'
 

कोरोना पर शुरुआती गंभीरता नहीं  


अगर हम इस देश में कोरोना के प्रवेश, प्रसार और इसके रौद्र रूप धारण कर देशवासियों की अकाल मौत का सबब बनने के कारणों पर गंभीरता से विवेचन करें तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस मामले में क्या हम अपने हुक्मरानों की 'नासमझी' अथवा उनके 'तुगलकी फैसलों' की कीमत तो नहीं चुका रहे! 30 जनवरी को जब देश में पहला कोरोना मरीज केरल में मिला था, हमें अंतरराष्ट्रीय उड़ानों, खासतौर से कोरोना के उद्गम देश, चीन से आनेवाली उड़ानों को बंद अथवा नियंत्रित करना शुरू कर देना चाहिए था. ऐसा करके चीन के पड़ोसी देश ताईवान ने खुद को करोना के कहर से बचा सा लिया था. लेकिन हमारे हुक्मरानों ने तब इसे गंभीरता से नहीं लिया. फरवरी 2020 के पहले सप्ताह में कांग्रेस के नेता, सांसद राहुल गांधी ने इस महामारी के वैश्विक रूप धारण करने और भारत में भी इसके विस्तार की आशंका व्यक्त करते हुए सरकार से एहतियाती सतर्कता बरतने का आग्रह किया था लेकिन तब भी इसे गंभीरता से नहीं लेकर उनका मजाक बनाया गया. कारण शायद कोरोना से प्रभावित अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अगवानी का था. जिस समय ट्रंप अपने लाव-लश्कर के साथ भारत आए, अमेरिका के बड़े हिस्से और आबादी को कोरोना अपनी जद में ले चुका था. लेकिन 24 फरवरी को ट्रंप के साथ या उनके आगे-पीछे कितने अमेरिकी यहां आए, उनमें से कितनों की कोरोना जांच हुई! किसी को पता नहीं! 'नमस्ते ट्रंप' के नाम पर एक लाख से अधिक लोगों की भीड़ जुटाकर अहमदाबाद के मोटेरा क्रिकेट स्टेडियम में उनका सम्मान किया गया!.
12 मार्च 2020 को कर्नाटक के कलबुर्गी में पहले कोरोना संक्रमित की मौत के साथ जब भारत में भी केसेज बढ़ने लगे और फीजिकल डिस्टैंसिंग जरूरी हुआ तो हमारे शासकों ने आपदा को राजनीतिक अवसर के रूप में भुनाने की रणनीति के तहत मध्य प्रदेश में कांग्रेस के विधायकों की 'खरीद-फरोख्त' से 'तख्ता पलट' का इंतजार किया. 12 मार्च को दुनिया भर में कोरोना संक्रमण के विस्तार और तकरीबन पांच हजार मौतों के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे  महामारी घोषित करते हुए किसी भी देश के इसकी जद से बाहर नहीं रह पाने की आशंका जताई थी. लेकिन तब भी हमारे शासक इसे गंभीरता से लेने के बजाए, हंसी में टालते रहे.

आपदा को अवसर (राजनीतिक) में बदलने की कवायद

22 मार्च को जब दुनिया भर में कोरोना से मरनेवालों का आंकड़ा 14647 पहुंच गया, हमारे यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार एक दिन का 'जनता कर्फ्यू' और दो दिन बाद 'लॉकडाउन' घोषित किया. इसके लिए भी 23 मार्च को मध्यप्रदेश में तख्तापलट का इंतजार किया गया. कायदे से 22 मार्च को जनता कर्फ्यू घोषित करने के साथ ही देशवासियों को एहतियाती इंतजाम करने के लिए सचेत कर बताया जाना चाहिए था कि दो-तीन दिन बाद पूरे देश में लॉकडाउन किया जानेवाला है. इससे अफरातफरी के माहौल से बचा जा सकता था. लोग खाने-पीने और जीने के एहतियाती इंतजाम कर सकते थे. उन दो-तीन दिनों में यत्र-तत्र फंसे लोग अपने गंतव्य को पहुंच जाते क्योंकि उस समय आज के मुकाबले कोरोना का कहर भी अपेक्षाकृत बहुत कम था. लेकिन 24 मार्च की शाम आठ बजे प्रधानमंत्री ने 'आकाशवाणी' कर चार घंटे बाद यानी रात के 12 बजे से देशवासियों को एक झटके में लॉकडाउन और 'सोशल डिस्टैंसिंग' (हालांकि यह गलत शब्द है, सही शब्द है फीजिकल डिस्टैंसिंग) के हवाले कर दिया.

लॉकडाउन घोषित करने से पहले उन्होंने विपक्षी दलों के नेताओं, राज्यों के मुख्यमंत्रियों तथा प्रशासकीय प्रमुखों (मुख्य सचिवों एवं पुलिस महानिदेशकों) से सलाह-मशविरा की जरूरत नहीं समझी. यह भी नहीं सोचा कि इस 135-40 करोड़ की आबादी वाले विशाल देश में, जहां 15-20 करोड़ सिर्फ प्रवासी-दिहाड़ी मजदूर, रोज कमाने-खानेवाले लोग हैं, उनका क्या होगा! बिना कोई ठोस योजना बनाये, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया. सभी कल-कारखानों में उत्पादन एवं निर्माण और व्यापार-व्यवसाय ठप हो गया. करोड़ों प्रवासी मजदूर बेरोजगार-बेघरबार हो गए. उनके और वे उनके परिवार के लोगों के सामने दो जून की रोटी के भी लाले पड़ने लगे. नहीं सोचा गया कि रोजी-रोटी का धंधा चौपट या बंद हो जाने के बाद गरीब कर्मचारी, दिहाड़ी मजदूर जीवन यापन कैसे करेंगे. उनके मकान का किराया कैसे अदा होगा. उनके बच्चों के लिए दवा-दूध का इंतजाम कैसे होगा.

लेकिन तब प्रधानमंत्री के लॉकडाउन पर अमल से 21 दिनों के भीतर कोरोना पर विजय हासिल कर लेने के दावे पर लोगों ने तकलीफ बरदाश्त करके भी भरोसा किया.प्रधानमंत्री ने साफ कहा था कि महाभारत का युद्ध 18 दिन में जीता गया था. कोरोना के खिलाफ जंग हम 21 दिनों में जीत लेंगे. आज महीनों बीत गये कोरोना से जगं जीतना तो दूर की बात, अभी भी साफ पता नहीं चल पा रहा है के इस वैश्विक महामारी से मुक्ति कब मिल गाएगी. शुरुआत में सरकारी एजेंसियों और उससे अधिक हमारी मीडिया के एक बड़े वर्ग के सहयोग से भी दिल्ली और देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी कोरोना का संक्रमण फैलने के लिए मुसलमानों की धार्मिक संस्था 'तबलीगी जमात' को खलनायक के रूप में पेश कर इस मामले को भी समाज को धार्मिक और सांप्रदायिक आधार पर बांटने और इसका राजनीतिक लाभ लेने के प्रयास हुए. तबलीग के लोगों और इसके प्रमुख मौलाना साद को लेकर तमाम तरह की अफवाहनुमा सूचनाएं-खबरें फैलाई गईं. उनके विरुद्ध नफरत का माहौल बनाया गया. लेकिन आगे चलकर तबलीग का मामला भी ठंडा पड़ते गया (किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. मौलाना साद को अभी तक गिरफ्तार करने की बात तो दूर उनसे किसी तरह की पूछताछ तक नहीं हुई). बाद में अदालती फैसले में कहा गया कि इस मामले में तबलीगी जमात के लोगों को 'बलि का बकरा' बनाया गया.

दूसरी तरफ, हालत बद से बदतर होती गयी. कोरोना के विषाणु घातक बनकर पहले से भी ज्यादा पांव पसारने लगे. लोगों के सामने खाने-पीने के लाले पड़ने लगे. एक मोटे अनुमान के अनुसार लॉकडाउन के दौरान कम से कम एक करोड़ दिहाड़ी मजदूरों के पेट पर सीधी चोट लगी. हालांकि केंद्र सरकार ने ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ के तहत कोरोना संकट के शुरुआती तीन महीनों तक '80 करोड़' गरीबों के लिए प्रति व्यक्ति पांच किलो गेहूं या चावल और एक किलो दाल प्रति माह दिए जाने की घोषणा की थी. इस योजना का लाभ किन्हें मिला, यह जांच का विषय हो सकता है लेकिन इससे प्रवासी मजदूरों को किसी भी कीमत पर अपने राज्य, गांव और घर लौटने पर रोका नहीं जा सका.

जांच-इलाज और अस्पतालों की दुर्दशा से हालात बदतर 

दरअसल, मीडिया के सहारे मानसिक तौर पर कोरोना का खौफ इस कदर पैदा कर दिया गया कि छोटे और किराए के कमरों में रह रहे प्रवासी मजदूर डर से गये. एक तो उनके पास कोई काम नहीं था, मकान मालिकों का किराए के बकाए के भुगतान का दबाव अलग से बढ़ रहा था. लेकिन सबसे बड़ी बात यह हुई कि उनके बीच खौफ तारी होने लगा कि अगर वे कोरोना से संक्रमित अथवा किसी और बीमारी से भी पीड़ित हो गये तो इस संवेदनहीन समाज में उनकी देखभाल, तीमारदारी कौन करेगा. उन्हें सामाजिक तौर पर बहिष्कृत होना पड़ेगा और उनके साथ अगर कुछ गलत हो गया, किसी की मौत हो गई तो अपनों के बीच उनकी अंतिम क्रिया भी कैसे संभव हो सकेगी.
  
 सरकारी और निजी अस्पतालों का हाल बुरा था. निजी और बड़े, पांच सितारा अस्पतालों में जहां यकीनन अपेक्षाकृत इलाज और देख रेख की व्यवस्था बेहतर थी, कोरोना के इलाज का 10-15 लाख का पैकेज घोषित था जो गरीब क्या मध्यम वर्ग के लोगों की पहुंच से भी बाहर था. और सरकारी अस्पतालों में उनके लिए टाल मटोल और 'बेड खाली नहीं है' का टका सा जवाब था. उत्तर पूर्वी दिल्ली के मौजपुर में रहनेवाले हमारे रिश्तेदार हरिनारायण राम बरनवाल जून के पहले सप्ताह में कोरोना पाजिटिव होने और हल्के बुखार, खांसी और सांस लेने में दिक्कत बढ़ जाने के बावजूद इलाज के लिए अस्पताल दर अस्पताल भटकते रहे. आधा दर्जन अस्पतालों में उन्हें बिना किसी तरह की जांच किए 'कोरोना नहीं है' का टका सा जवाब देकर  इस अस्पताल से उस अस्पताल भेजा जाता रहा. उनका दूसरा जवाब होता कि अस्पताल में वेंटिलेटर की सुविधायुक्त बेड खाली नहीं हैं. अंततः किसी तरह की पैरवी सिफारिश से उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कर लिया गया. अगले ही दिन जांच में वह कोरोना पॉजिटिव निकले. इलाज शुरू हुआ लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. और 16 जून को उनके निधन की सूचना मिली. इस बीच उनके परिवार के शेष आठ सदस्यों की सुध किसी ने भी नहीं ली. उनके घर सभी के मोबाइल फोन में 'आरोग्य सेतु' नाम का एप  डाउनलोडेड होने के बावजूद कहीं से कोई पता-जांच करने नहीं आया और न ही उनके घर, गली को सैनिटाइज अथवा सील करने की आवश्यकता समझी गई. परिवार के सदस्यों ने खुद ही जाकर पास के किसी सरकारी अस्पताल में जांच करवाई तो पता चला कि आठ में से सात सदस्य पॉजिटिव हैं. हमने 16 जून को उनके बारे में भी ट्वीट किया. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से भी परिवार की मदद की गुहार लगाई. लेकिन केंद्र सरकार के मंत्री, राज्य के मुख्यमंत्री, कहीं से कोई सहायता-प्रतिक्रिया नहीं मिली. इधर घर में उनकी बहू, हमारी भतीजी (साले की पुत्री) ललिता को भी खांसी और सांस लेने में तकलीफ होने लगी. 17 जून को उनके दोनों बच्चों-श्रवण और संतोष बरनवाल के अपने पिता की अंत्येष्टि कर लौटे थे. ललिता की तकलीफ बढ़ने पर उसे आम आदमी पार्टी के विधायक सोमनाथ भारती के सहयोग से दिलशाद गार्डेन में स्थित राजीव गांधी सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल में ले जाया गया. हालांकि वह डरी हुई थी और रो रोकर अस्पताल जाने से मना कर रही थी लेकिन परिवार और हमारे दबाव पर वह वहां भर्ती हो गई. अगले दिन, 18 जून को अस्पताल से उसके भी निधन की सूचना मिली. अस्पतालों में कोरोना से संक्रमित रोगियों का क्या और किस तरह का इलाज हो रहा है, यह अभी भी अधिकतर मामलों में रहस्य ही बना हुआ है. यहां तक कि एम्स (अखिल भारतीय आयुर्वज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में एक पत्रकार तरुण सिसोदिया ने पांचवीं मंजिल से नीचे छलांग लगा कर आत्महत्या कर ली. सरकार में बैठे तमाम बड़े लोगों, केंद्रीय और राज्य सरकारों के मंत्रियों ने सरकारी अस्पतालों के बजाय निजी क्षेत्र के पांच सितारा होनलों में भर्ती होकर इलाज करवाने की एक नई परिपाटी शुरू की जिससे आम लोगों के बीच अपने इलाज को लेकर चिंता और परेशानी औ भी बढ़ी. 

प्रवासियों की घर वापसी, अब शहर वापसी


बहरहाल, बेरोजगारी, भोजन-पानी और सिर ढकने के लिए छत के अभाव के साथ अस्पतालों की दुर्दशा और आम आदमी के इलाज की दुरुहता आदि कारण एक साथ जुटते गये और प्रवासी मजदूरों को किसी भी कीमत पर बेगाना साबित हो रहे शहर-महानगर छोड़कर अपने गांव घर लौटना ही श्रेयस्कर लगा. वे लोग भूखे-प्यासे पैदल या जो भी साधन मिले उससे अपने गांव घर की ओर चल पड़े. जब ढील दिए जाने की जरूरत थी तब सख्ती बरती गई. मार्च-अप्रैल महीने तक कोरोना का कहर और प्रसार इस देश में उतना व्यापक और भयावह नहीं था जितना मई महीने के बाद से बढ़ गया है, लेकिन तब प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए एक तरफ तो रेल-बसें चलाने के बजाय उन्हें गांव-घर लौटने के लिए हतोत्साहित किया गया, दूसरी तरफ दिल्ली जैसे शहरों में सीमा पर प्रवासी मजदूरों को उनके गांव पहुंचाने के लिए बसों का इंतजाम करने से संबंधित उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के ट्वीट के बाद प्रवासी मजदूर लॉकडाउन और फीजिकल डिस्टैंसिंग को धता बताकर हजारों की संख्या में आनंद विहार रेलवे-बस स्टेशन के पास जमा हो गये, बिना विचारे कि उनकी भीड़ कोरोना के संक्रमण और प्रसार में सहायक सिद्ध हो सकती है. बाद में उन्हें बसों से दिल्ली के बाहर ले जाया गया. इसके साथ ही पैदल यात्रियों को रास्ते में मारा-पीटा, अपमानित भी किया गया. रास्ते में स्थानीय लोगों और कहीं कहीं पुलिस-प्रशासन की मानवीयता के लाभ भी उन्हें हुए. लोगों ने खाने-पीने की सामग्री से लेकर जगह-जगह उन्हें कुछ पैसे भी दिए.
कितने तरह के कष्ट झेलते हुए वे मजदूर और उनके परिवार सैकड़ों (कुछ मामलों में तो हजार से भी ज्यादा) किमी पैदल चलकर, सायकिल, ठेले, ट्रक, यहां तक कि मिक्सर गाड़ियों में छिपकर भी अपने गांव घरों को गये! उनमें से सौ से अधिक लोगों ने रास्ते में सड़कों पर कुचलकर, रेल पटरी पर मालगाड़ी से कटकर या फिर भूख-प्यास और बीमारी से दम तोड़ कर जान गंवा दी. भोजन के अधिकार के लिए काम करनेवाले संगठन 'राइट टू फूड' के अनुसार 22 मई तक देश में भूख प्यास, दुर्घटना और इस तरह के अन्य कारणों से 667 लोग काल के मुंह में समा चुके थे. बाद के दिनों में इसमें और इजाफा ही हुआ है.

लेकिन जब देश और प्रदेशों की अर्थव्यवस्था भी दम तोड़ने और खस्ताहाल होने लगी, सरकारी खजाना खाली होने लगा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कहने पर देशवासियों ने ताली-थाली बजा ली, एक घंटे घरों में अंधकार किया, मोम बत्ती और दिए भी जला लिए, देश के बड़े हिस्से में कोरोना का कहर भी रौद्र रूप धारण कर चुका है, हमारे हुक्मरान लॉकडाउन में ढील पर ढील दिए जा रहे हैं. शुरुआत शराब की दुकानें खोलने के साथ हुई. प्रदेशों की सीमाएं खोल दी गईं. रेल, बस, टैक्सी और विमानसेवाएं भी शुरू की जा रही हैं. हालांकि श्रमिक स्पेशल रेल गाड़ियों के कुप्रबंध के कारण इन रेल गाड़ियों के विलंबित गति से नियत स्टेशन के बजाय कहीं और पहुंचने की शिकायतें भी मिलीं. मुंबई से गोरखपुर के लिए निर्धारित स्पेशल ट्रेन ओडिशा के राउरकेला पहुंचा दी गई. इसमें लंबा समय लगा लेकिन रेलवे ने कहा कि ऐसा रूट कंजेशन को देखते हुए जानबूझकर मार्ग बदले जाने के कारण हुआ. लेकिन न तो इसकी पूर्व सूचना यात्रियों को दी गई और ना ही उनके लिए रास्ते में खाने-पीने के उचित प्रबंध ही किए गये. नतीजतन रेल सुरक्षा बल (आरपीएफ) के आंकड़ों के अनुसार ही अस्सी से अधिक लोग रेल गाड़ियों में ही मर गये.

 प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों के साथ कोरोना अब देश के अन्य सुदूरवर्ती और ग्रामीण इलाकों में भी फैलने लगा है.वहां कोरोना की जांच, चिकित्सा और उन्हें क्वैरेंटाइन करने के पर्याप्त संसाधन और केंद्र भी नहीं हैं. फसलों की कटाई समाप्त हो जाने के कारण अब उनके लिए, गांव-घर के पास, जिले अथवा प्रदेशों में भी रोजी-रोटी के पर्याप्त साधन नहीं रह गये हैं. कहीं कहीं धान की रोपनी (बुआई) के काम हैं तो कहीं मनरेगा भी लेकिन यह सब प्रवासी मजदूरों को गांव घर में रोके रखने के लिए नाकाफी साबित हो रहे हैं. अगर रोजगार के उचित और पर्सायाप्त साधन होते ही तो इन्हें गांव-घर छोड़कर दूसरे राज्यों में क्यों जाना पड़ता! इस बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने दावा किया है कि राज्य में एक करोड़ लोगों के लिए रोजगार की व्यवस्था की जा रही है. 70-80 लाख लोगों को रोजगार दिए भी जा चुके हैं. दरअसल, मनरेगा में पहले से ही लगे मजदूरों को उन्होंने नवश्रृजित रोजगार बताकर वाह वाही लूटने की कोशिश की. सच तो यह है कि अगर अपने ही राज्य में कायदे के रोजगार उपलब्ध हैं तो लोग दूसरे राज्यों के शहरों और महानगरों की ओर क्यों लौट रहे हैं. दावे चाहे कैसे भी किए जा रहे हों, लोगों के पास स्थानीय स्तर पर रोजगार नहीं मिल रहे हैं और लोग महानगरों की ओर लौट रहे हैं. 

   लॉकडाउन से ढील बढ़ने, अधिकतर राज्यों-इलाकों में अनलॉक होते जाने, कल-कारखाने, दुकानें खुलने, टैक्सी, ऑटो रिक्शा, ई-रिक्शा और रिक्शा चलने लगने और निर्माण कार्य शुरू होने के कारण शहरों-महानगरों में श्रमिक-मजदूरों की किल्लत शुरू होने लगी है. पहले से भी ज्यादा मजदूरी देने के वादे किए जाने लगे हैं. जाहिर सी बात है कि बेहतर मजदूरी के साथ रोजगार के अवसर बढ़ने के कारण प्रवासी मजदूरों का बड़ा तबका शहरों-महानगरों की ओर वापसी कर रहा है. आंकड़े बता रहे हैं कि रोजाना शहरों-महानगरों में प्रवासी मजदूरों की आमद हजारों के हिसाब से बढ़ रही है. लेकिन आते समय वह अपने साथ कोरोना के वायरस नहीं लाएंगे, इसकी गारंटी कोई दे सकता है! साफ है कि हमारे शासकों-प्रशासकों में दूर दृष्टि के अभाव और उनके तुगलकी फैसलों के कारण पहले कोरोना का अदृश्य वायरस शहरों से गांवों में गया और अब वह ग्रामीण इलाकों से शहरों में लौट रहा है! शहरों में नए सिरे से कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ने लगी है. 


Thursday, 3 September 2020

Foreign Visits With then President Dr. APJ Abdul Kalam (Moscow and St.Petersburg).

 डा. कलाम के साथ विदेश भ्रमण (5)

मास्को और पीटर्सबर्ग में

 

 मास्को प्रवास के दौरान डा. कलाम ने भारत के हितैषी कहे जानेवाले रूस के प्रधानमंत्री मिखाइल येफिमोविच फ्रादकोव तथा रूसी संसद के निचले सदन ड्युमा के अध्यक्ष बोरिस ग्रीजलोव से भी मुलाकात की. फ्रादकोव ने डा. कलाम के सम्मान में एक दिन रात्रिभोज दिया. एक रात्रिभोज मास्को में रहनेवाले भारतीयों की ओर से डा. कलाम के सम्मान में आयोजित समारोह में वहां भारत के राजदूत कंवल सिब्बल ने भी दिया. रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने 24 मई की शाम डा. कलाम के सम्मान में राजकीय बैंक्वेट भोज का आयोजन किया. 

दिन में कुछ समय हमने तकरीबन डेढ़ मील के क्षेत्रफल में त्रिभुजाकार दीवारों से घिरे क्रेमलिन (किले) के आसपास रेड स्क्वायर पर भी बिताए.
क्रेमलिन के बाहर लेखक
मास्को शहर के मध्य में स्थित रेड स्कवायर पर ही क्रेमलिन की दीवारों से लगा महान कम्युनिस्ट क्रांतिकारी व्लादिमीर इलीइच उल्यानोव ‘लेनिन’ की समाधि (मुसोलियम) है जो सोवियत संघ के विघटन और कम्युनिस्ट शासन के समाप्ति के बावजूद बड़े पैमाने पर देशी-विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है. इस समाधि में 1917 से 1924 तक सोवियत रूस, और 1922 से 1924 तक सोवियत संघ के भी राष्ट्राध्यक्ष (हेड ऑफ़ गवर्नमेंट) रहे लेनिन की ‘ममी’ रखी गई है. लेनिन का निधन 21 जनवरी 1924 में गोर्की में हुआ था. उनके शव को दफनाने के बजाए उनकी याद को आनेवाली पीढ़ियों के लिए अमिट वनाए रखने की गरज से मास्को लाया गया और लेप 'बॉमिंग' करके तैयार उनकी ‘ममी’ को उनके मुसोलियम में बने कांच के ताबूत में रखा गया. देखने से लगता है कि पैंट, कोट और टाई पहने, फ्रेंच कट दाढ़ी और मूंछधारी लेनिन चिर निद्रा में सो रहे हैं.

 रूस के आधुनिक निर्माता पुतिन !

 सोवियत संघ के जमाने में गुप्तचर सुरक्षा एजेंसी ‘केजीबी’ (कोमिटेट गोसुदरस्टवेनवेय बीजोपासनास्टी यानी राजकीय सुरक्षा समिति) में वरिष्ठ अधिकारी रहे पुतिन को आधुनिक रूस का निर्माता भी कहा जाता है. वह संयुक्त रूस पार्टी के अध्यक्ष और 1999 में रूस के प्रधानमंत्री बने. 2000 में उन्हें रूस का राष्ट्रपति चुना गया. तब से अभी तक वह लगातार रूस के प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति के पद पर बने हुए हैं (रूस के संविधान में संशोधन करवाकर उन्होंने 2036 तक राष्ट्रपति बने रहने का इंतजाम करवा लिया है). हालांकि अब उनके खिलाफ भी असंतोष के स्वर तेज होने लगे हैं.

 बहरहाल, 24 मई, 2005 को डॉ. कलाम ने पुतिन द्वारा आयोजित राजकीय भोज के अवसर पर उन्हें अपनी एक ताजा लघु कविता भेंट की जिसे उन्होंने उसी दिन द्वितीय विश्व युद्ध में शहीद सैनिकों की याद में बने स्मारक पर एक अनाम शहीद की मजार के सामने तस्वीर बना रहे युगल को देखकर लिखी थी. इस कविता में उन्होंने जीवन को उस मिथकीय पक्षी ‘फीनिक्स’ की तरह बताया, जो अपनी ही राख (भस्मियों) से जीवित हो उठती है,

"Life is a phoenix, can rise from ashes

Presents a future at challenging situations

This altar of ashes is fountain of new life

War was thrusted, martyrdom shined

Memories of soldiers ignite beauties of life

Phoenix is a metaphor of life in its action

Ashes remind us to celebrate greatness of those lives."  


 पुतिन के राजकीय रात्रिभोज के अवसर पर डा. कलाम का स्वागत, फिल्म ‘श्री 420’ के मशहूर गाने, ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी. सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है, हिन्दुस्तानी.’ और फिल्म ‘अंदाज’ के गाने, ‘जिन्दगी एक सफर है सुहाना, यहां कल क्या हो किसने जाना.’ के साथ हुआ. इस अवसर पर श्री पुतिन को संबोधित अपने अभिभाषण में डा. कलाम ने कहा, “सच्चे और घनिष्ठ मित्रों के बीच आकर सदैव अत्यंत प्रसन्नता होती है. रूस हमारा पुराना और सच्चा मित्र है. परस्पर विश्वास भारत और रूस के बीच संबंधों को आकार प्रदान करता है. हमारे कार्यनीतिक संबंध राजनीतिक सहमति पर आधारित हैं क्योंकि यह संबंध स्थाई हैं और सभ्यता, इतिहास, भूगोल और संस्कृति से जुड़े हुए हैं. हम एक दूसरे की स्थिरता, एकता और अखंडता के प्रति वचनबद्ध हैं. जैसा कि हम भारत और रूस में ऐतिहासिक परिवर्तन देख रहे हैं, दोनों देशों की सरकारें स्थिरता, समृद्धि, शांति और न्याय के लिए जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप इन परिवर्तनों के माध्यम के रूप में कार्य कर रही हैं. विविधता, धर्मनिरपेक्षता और बहुलवाद दोनों देशों की ताकत हैं. हम अपने-अपने देशों के बहुसांस्कृतिक, बहुजातीय और बहुधर्मी गुणों को महत्व व प्रोत्साहन देते हैं. इन साझे आदर्शों से हम एक दूसरे की चिंताओं और आकांक्षाओं को समझ सकते हैं और साझे उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए बहुपक्षीय मंचों पर मिलकर काम कर सकते हैं.’’

 उन्होंने कहा कि 21वीं सदी नई चुनौतियां पैदा कर रही है. इस बढ़ते हुए वैश्वीकृत विश्व में शांति व समृद्धि को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. भारत और रूस की साझेदारी ने अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा में योगदान दिया है. वास्तव में शांति के लिए एक पक्की और स्थाई जिम्मेदारी सुनिश्चित करने का समय आ गया है. हमारे विचारों में उल्लेखनीय समानता और बरसों से जांची-परखी मैत्री से हम राष्ट्रीय उद्यम के सभी क्षेत्रों में सहयोग की ओर बढ़ सकेंगे. हमारी आर्थिक समृद्धि और आपसी हित व्यापार, निवेश, संयुक्त अनुसंधान और विकास में हमारी घनिष्ठ साझेदारी तथा निरंतर एक-दूसरे दूसरे से जुड़ने और वैश्वीकृत विश्व में अवसरों का पूरा लाभ उठाने पर निर्भर करते हैं.
 डा. कलाम ने कहा, “ऊर्जा संसाधनों की खोज भारत की एक उच्च प्राथमिकता है. सखालिन तेल क्षेत्र में भारत का निवेश और कुडनकुलम नाभिकीय विद्युत संयंत्र में रूस का घनिष्ठ सहयोग, दोनों देशों द्वारा इस क्षेत्र को दी गई प्राथमिकता का सूचक है. राष्ट्रपति महोदय, हमें परस्पर हित और दीर्घकालिक सहक्रिया वाले क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने वाले साधनों की लगातार सक्रिय खोजबीन करनी चाहिए. हमारे द्विपक्षीय संबंधों में सूचना और संचार प्रौद्योगिकियां, जैव प्रौद्योगिकी, इलेक्ट्रॉनिक, बैंकिंग और वित्तीय सेवाएं अनन्वेषित क्षेत्र हैं. इन क्षेत्रों में हमारे परस्पर हित के अवसरों के लाभ उठाने से विकास के साझा लक्ष्यों को मजबूती मिलेगी. रूस अनेक महान वैज्ञानिक विचारों और प्रौद्योगिक नवप्रवर्तनो की जन्मभूमि रहा है. हम अपने अनुसंधान प्रयासों में एक साझीदार की भूमिका निभाना चाहते हैं. हमारा विश्वास है कि परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष और विज्ञान के अन्य अग्रणी क्षेत्रों के शांतिपूर्ण प्रयोग में हमारे सहयोग से प्रकृति के प्रति मानव की जानकारी बहुत समृद्ध हो सकती है और लाखों लोगों के जीवन को सुधारने के लिए प्रौद्योगिकियों में कुशलता प्राप्त हो सकेगी.”

रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के साथ डा. कलाम की गुफ्तगू
रात्रिभोज से पहले 24 मार्च को ही मास्को में डा. कलाम ने ऐतिहासिक किले ‘क्रेमलिन’ में स्थित राष्ट्रपति भवन के ‘ग्रीन हाल’ में राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के साथ द्विपक्षीय बातचीत की. बाद में दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा कि उनकी बातचीत के केंद्र में यूरेशिया और समूचे विश्व में शांति और स्थिरता सुनिश्चत करना था. संयुक्त बयान में कहा गया, “दोनों देश एक ऐसी विश्व व्यवस्था के पक्षधर हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहमत कानूनों, परस्पर सम्मान और हितों की सुरक्षा के सिद्धांत पर आधारित है. छोटे हों अथवा बड़े, सभी मुद्दों का समाधान बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के आपसी बातचीत के जरिए किया जाना चाहिए.

डा. कलाम को मिली प्रोफेसर की उपाधि

  डा. कलाम मास्को विश्वविद्यालय में भी गये. उन्होंने अकादमी ऑफ साइंस में जाकर रूसी वैज्ञानिकों से मुलाकात की. अकादमी ने उन्हें प्रोफेसर की मानद उपाधि प्रदान की. अकादमी के अध्यक्ष ओसिपोव ने उन्हें विलक्षण प्रतिभा का धनी राष्ट्राध्यक्ष बताया. डा. कलाम ने वहां वैज्ञानिकों से भूमंडल के सामने आ रही भूकंप और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदा की चुनौतियों का सामना करने, इसका पूर्वानुमान लगाने और इनसे बचाव के उपाय ढूंढने का आह्वान भी किया. उन्होंने ड्युमा को भी संबोधित किया और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता की वकालत मजबूती से करते हुए रूस का सक्रिय समर्थन भी मांगा. उन्होंने वहां बताया कि परमाणु शक्ति संपन्न देशों से घिरे होने की वजह से भारत के भी परमाणु संपन्न राष्ट्र बनने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था. उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत कभी भी महाविनाश के हथियारों का प्रसार नहीं करेगा.

 डा. कलाम भारत में हुई खरीद के लिए बहुचर्चित सुखोई विमान बनानेवाली कंपनी के डिजाइन सेंटर में भी गए. ओरिएंटल स्टडीज के तहत इंडोलॉजी के रूसी छात्रों और शिक्षकों को भी संबोधित करते हुए उन्होंने पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के संबंधों में सुधार को बेहद महत्वपूर्ण करार दिया. इंडोलॉजी के रूसी छात्रों ने डा. कलाम के सम्मान में वीर तुम बड़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो' पर आधारित सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किया. 

बिहार विधानसभा भंग करने के विवादित फैसले पर डा. कलाम की मुहर

 मास्को प्रवास के दौरान पहली रात को ही डा. कलाम ने बिहार विधान सभा भंग करने के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाली तत्कालीन केंद्र सरकार के विवादित फैसले पर मुहर भी लगायी थी. इसके लिए उनकी बहुत आलोचना भी हुई थी. बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उस अधिसूचना को रद्द कर दिए जाने के बाद उनकी और ज्यादा किरकिरी हुई थी. हालांकि बाद में डा. कलाम के प्रेस सचिव एस एम खान ने बताया था कि उन्होंने अधिसूचना पर बहुत दबाव में अनिच्छापूर्वक हस्ताक्षर किया था. रविवार को मास्को पहुंचने की पहली रात वह सो नहीं सके थे. आधी रात को उनके पास बिहार विधानसभा भंग करने के केंद्रीय मंत्रिमंडल के फैसले पर हस्ताक्षर करने और वापस फैक्स करने का प्रस्ताव आ गया था. डा. कलाम ने देर रात अपने सचिव पी एम नायर को होटल केम्पिंस्की के अपने कमरे में बुलाकर मंत्रणा की. मंत्रिमंडल के फैसले के साथ ही बिहार विधानसभा को भंग करने की राज्यपाल बूटा सिंह की सिफारिश मंगाकर देखी थी. बकौल खान, डा. कलाम मंत्रिमंडल की उक्त सिफारिश पर हस्ताक्षर करने को तैयार नहीं थे. हस्ताक्षर करने से पहले उन्होंने इससे जुड़े तमाम पहलुओं पर अपने विधिक एवं संवैधानिक सलाहकारों से गहन मंत्रणा की थी. उनके सलाहकारों ने बताया था कि अगर डा. कलाम मना कर देंगे और मंत्रिमंडल उसी प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पास कर दोबारा उनके पास भेजेगा तो उन्हें उस पर हर हाल में हस्ताक्षर करना ही होगा. बकौल खान, सुप्रीम कोर्ट द्वारा अधिसूचना रद्द कर दिए जाने के बाद डा. कलाम ने अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि उन्हें हस्ताक्षर नहीं करना चाहिए था. उन्होंने उस समय राष्ट्रपति पद छोड़ने का मन भी बना लिया था. इस संबंध में उन्होंने अपने भाई से भी परामर्श किया था. लेकिन यह समझाए जाने पर कि उनके त्यागपत्र से देश में संवैधानिक संकट पैदा हो सकता है, उन्होंने त्यागपत्र देने का फैसला बदल दिया था. हालांकि पूरी यात्रा के दौरान डा. कलाम ने मीडिया के साथ इस प्रकरण पर कोई चर्चा नहीं की. गौरतलब है कि बिहार के तत्कालीन राज्यपाल सरदार बूटा सिंह ने बिहार विधानसभा को भंग करने की सिफारिश की थी जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल ने मंजूर कर स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति डा. कलाम के पास भेज दिया था.  

 मायकोव्सकाया मेट्रो स्टेशन

मास्को प्रवास के दौरान हम ऐतिहासिक एवं विश्व प्रसिद्ध मायकोव्सकाया मेट्रो स्टेशन पर भी गए. सेंट्रल मास्को के ट्वेर्सकोय जिले में स्थित यह मेट्रो स्टेशन 1935 में बनी मास्को मेट्रो का विस्तार है. द्वितीय विश्व युद्ध से पहले महान रूसी कवि ब्लादिमीर मायकोव्सकी के नाम पर बना यह मेट्रो स्टेशन इंजीनियरिंग एवं स्टालिनवादी स्थापत्य का विलक्षण नमूना है. इसे 11 सितंबर 1938 को चालू किया गया. जमीन की सतह से तकरीबन 33 मीटर नीचे सात तल्लों तक बने इस मेट्रो स्टेशन के प्लेटफार्मों पर जाने के लिए लिफ्ट के साथ ही स्केलेटर यानी स्वचालित सीढ़ियों का पुख्ता इंतजाम था. लोग हाथ में रखी पुस्तक पढ़ते हुए आराम से अपने वांछित प्लेटफार्म की ओर चले जा रहे थे. हर तल पर बने प्लेटफार्म पर अलग-अलग दिशाओं और गंतव्यों की ओर जानेवाली मेट्रो रेल गाड़ियों की सूचना संकेतकों के जरिए बखूबी दी जा रही थी. बताया गया कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय नाजी फौजों के युद्धक विमानों से होनेवाली बमबारी से बचने के लिए सबसे नीचे, सातवें तल के प्लेटफार्म को कम्युनिस्टों ने अपनी शरणस्थली के रूप में इस्तेमाल किया था. हमें बताया गया कि जोसेफ स्टालिन ने सात नवंबर 1941 को ऐतिहसिक अक्टूबर क्रांति की वर्षगांठ का समारोह इस मेट्रो स्टेशन के भव्य सेंट्रल हाल में ही किया था. इसी सेंट्रल हाल में स्टालिन ने कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं के सम्मेलन को भी संबोधित किया था.  

लेनिनग्राद फिर से बन गया सेंट पीटर्सबर्ग

 25 मई को हम लोग डा. कलाम के साथ रूस की सांस्कृतिक राजधानी कहे जानेवाले ऐतिहासिक शहर सेंट पीटर्सबर्ग पहुंच गए. बाल्टिक सागर पर खूबसूरत नीवा नदी के किनारे बसे रूस के इस दूसरे सबसे बड़े मगर ऐतिहासिक बंदरगाह शहर की स्थापना रूसी साम्राज्य के सम्राट जार पीटर महान ने 1703 में की थी. 1712 से लेकर अगले दो सौ साल तक यह शहर रूसी साम्राज्य की राजधानी रहा. इस शहर का नाम भी कई बार बदला. शुरू में इसे ‘सेंट पीटर्सबर्ग’ का नाम दिया गया जबकि बाद में इसे ‘पेट्रोग्राद’ और बोलशेविक क्रांति के बाद इसका नाम ‘लेनिनग्राद’ रखा गया था, लेकिन पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोश्त के बाद इस शहर का नाम फिर से ‘सेंट पीटर्सबर्ग’ रख दिया गया.

 सेंट पीटर्सबर्ग की ख्याति खूबसूरत और चौड़ी सड़कों, भव्य महलों और चर्चों तथा कई जगहों पर चौड़ी नहर की शक्ल में कल कल बहती नीवा नदी के खूबसूरत किनारों के लिए भी है. नीवा नदी इस शहर में घूम घूम कर बहती है. दुनिया भर में विशालतम कहे जानेवाला हर्मिटेज म्युजियम भी यहीं, सेंट पीटर्सबर्ग में है.

विशालकाय हर्मिटेज म्युजियम

  रूस में कला और संस्कृति की राजधानी कहे जानेवाले इस शहर में डा. कलाम ने दुनिया के सबसे विशाल कहे जानेवाले हर्मिटेज फाइन आर्ट्स म्यूजियम में भारतीय वीथी (गैलरी) का अवलोकन किया. म्यूजियम में पैदल चलते समय डा. कलाम की तेज चाल गजब की थी. साथ चल रहे जगदीश टाइटलर तो थक कर रास्ते में एक जगह कुर्सी मंगाकर बैठ गए लेकिन कलाम नहीं रुके. लौटते समय डा. कलाम ने टाइटलर को बैठे देख मुस्कराकर पूछा, ‘क्या यह म्यूजियम आपको आश्चर्यजनक और विलक्षण नहीं लगा!’ झेंप मिटाते हुए टाइटलर बोले, ‘हां, क्यों नहीं. वाकई यह म्युजियम अद्भुत और बेमिसाल है.’

हर्मिटेज म्युजियम के बाहर तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जगदीश टाइटलर के साथ मीडिया कर्मी; बाएं से विशेश्वर भट्ट, राजेश सिन्हां, शिबी अलेक्स चंडी, रितु सरीन, हम और कुमार राकेश
'स्टेट हर्मिटेज फाइन आर्ट्स म्यूजियम' के बारे में बताया गया कि इसमें विंटर पैलेस, स्माल हर्मिटेज, दि ओल्ड हर्मिटेज और दि न्यू हर्मिटेज के नाम से चार बड़े भवन हैं. विंटर पैलेस अक्टूबर 1917 में बोल्शेविक क्रांति के होने तक रूसी सम्राटों के राजमहल के रूप में इस्तेमाल होता था. विंटर पैलेस 1754 में बना जबकि स्माल हर्मिटेज 1767, ओल्ड हर्मिटेज 1784 और न्यू हर्मिटेज 1852 में बना. हर्मिटेज म्युजियम की शुरुआत 1767 में तत्कालीन सम्राट जार के निजी कलेक्शन के 3000 आइटम्स एवं 225 तस्वीरों के साथ, ‘म्यूजियम फार एंपररके रूप में की गई. आज यहां तकरीबन 35 लाख आइटम रखे गए हैं. बताया गया कि इस म्युजियम में रखी गई तस्वीरों, कलाकृतियों एवं अन्य ऐतिहासिक धरोहरों को देखने के लिए कोई अपनी सामान्य चाल से चलते हुए अगर एक प्रदर्शनी के पास एक मिनट के लिए भी रुके तो पूरा म्युजियम देखने के लिए उसकी पूरी जिंदगी भी उसके लिए नाकाफी लगेगी. इसमें दुनिया भर से प्रायः सभी देशों और कलाकारों की सामग्री देखने को मिलेगी.
भारतीय वीथिका में मुगल मिनिएचर पेंटिंग्स
, बौद्ध स्कल्पचर्स, मथुरा एवं गंधारा स्कल्पचर्स के सैंपल्स, कुषाण काल, गुप्त काल, प्रतिहार एवं मुगल काल की सामग्री भी समाहित है. म्युजियम के निदेशक डा.मिखाइल पिओत्रोव्सकी ने बताया कि इस म्युजियम को दो बार भीषण विभीषिकाओं का सामना करना पड़ा था. 1837 में भीषण आग और फिर विश्व युद्ध के समय नाजियों की बम बारी को भी यह म्युजियम झेल चुका है. आग के समय म्युजियम में रखी गई सामग्रियों को सुरक्षित हटाकर स्क्वायर पैलेस में रखा गया था जबकि नाजियों की बमबारी के समय म्युजियम में रखी सामग्रियों को अन्य पड़ोसी शहरों में पहुंचा दिया गया था.  
  

 सेंट पीटर्सबर्ग में डा. कलाम का स्वागत गवर्नर वेलेंटिना इवानोवा ने किया. वहां डा. कलाम इंस्टीट्यूट आफ लेजर ईक्विपमेंट टेक्नालॉजी, आर्कटिक एवं अंटार्कटिक रिसर्च इंस्टीट्यूट में भी गए. वहां भी उनकी चिंता और जिज्ञासा का विषय भूकंप और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के पूर्वानुमान और उनसे बचाव के एहतियाती उपायों को लेकर ही था. उन्होंने वहां वैज्ञानिकों के साथ बातचीत में उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव में ग्लेशियरों के पिघलने, बर्फ की भारी चट्टानों के खिसकने-धसकने और ओजोन की परत की स्थिति आदि के बारे में दोनों देशों के अनुसंधान केंद्रों द्वारा उपलब्ध सूचनाओं के आदान-प्रदान पर जोर दिया. संस्थान के निदेशक इवान फ्रोलोव ने डा. कलाम को मौसम के बदलावों, समुद्री विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे अनुसंधान, उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी ध्रुव पर हो रहे प्राकृतिक घटनाक्रमों और बदलावों के अनुसंधान आदि के बारे में पावर प्रेजेंटेशन के जरिए अवगत कराया. वैज्ञानिकों के सारगर्भित प्रेजेंटेशन अपने तो पल्ले नहीं पड़ रहे थे. हम और कई अन्य पत्रकार साथी भी झपकियां लेते रहे जबकि डा. कलाम लगातार एक कुशाग्र विद्यार्थी के रूप में सुनते और नोट्स भी लेते जा रहे थे. उन्होंने अंटार्कटिका में शोध के मामलों में भारत एवं रूस के परस्पर सहयोग की संभावनाओं पर भी विचार किया. 


नोटः अगले सप्ताह डा. कलाम के साथ विदेश भ्रमण के दूसरे चरण में चार दिनों की स्विट्जरलैंड यात्रा पर विशेष एवं रोचक संस्मरण. वहां ऐसा क्या हुआ कि राष्ट्रपति डा. कलाम को लेकर हमारा सिर गर्व से ऊंचा हो गया.