Jaishankar Gupt

Saturday, 18 July 2020

Political Crisis in Rajsthan


राजस्थान में राजनीतिक शह और मात का खेल

पहली बाजी गहलोत के हाथ

जयशंकर गुप्त

राजस्थान का सत्ता संघर्ष अब पुलिस और अदालत के पास पहुंच गया है. मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह ही राजस्थान में भी कांग्रेस के बागी तेवर अपनाए नेता सचिन पायलट के सहारे सत्ता में आने के भारतीय जनता पार्टी के मंशूबे फिलहाल तो धराशायी होते साफ दिख रहे हैं. सचिन पायलट कांग्रेस और इसकी सरकार को समर्थन दे रहे सहयोगी दल तथा निर्दलीय विधायकों की अपेक्षित संख्या अपने साथ ला पाने में विफल साबित होने के बाद एक बार फिर से भाजपा में नहीं जाने और कांग्रेस में ही बने होने का राग अलापने लगे हैं. लेकिन अभी भी उनके डेढ़ दर्जन समर्थक विधायकों के साथ हरियाणा में भाजपा की खट्टर सरकार की सुरक्षा और आतिथ्य में मानेसर के पास एक 'पांच सितारा रेजार्ट' में डेरा जमाए बैठे हैं. बाजी पलटते देख इन विधायकों का मनोबल भी जवाब देने लगा है. 
 इस बीच पायलट के सहयोगी,

कांग्रेस के बुजुर्ग विधायक भंवरलाल शर्मा और गहलोत सरकार में कल तक मंत्री रहे विश्वेंद्र सिंह के साथ भाजपा के वरिष्ठ नेता, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत और संजय जैन के बीच कांग्रेस के विधायकों की खरीद-फरोख्त की कथित बातचीत का आडियो जारी हो जाने और पुलिस के द्वारा संबद्ध व्यक्तियों के विरुद्ध राजद्रोह का मामला दर्ज कर पूछताछ शुरू कर देने से इस पूरे प्रकरण में एक नया मोड़ आ गया है. संजय जैन गिरफ्तार हो चुके हैं जबकि कांग्रेस ने अपने दो विधायकों-भंवरलाल शर्मा और विश्वेंद्र सिंह को निलंबित कर दिया है. पुलिस बाकी लोगों के पीछे पड़ी है.

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राज्यसभा के पिछले चुनाव के समय से ही उनकी पार्टी के विधायकों की खरीद-फरोख्त और उनकी सरकार को गिराने के षडयंत्र का आरोप भाजपा पर लगाते रहे हैं. इसके लिए उन्होंने एसओजी बनाकर जांच भी शुरू करवाई थी जिसमें पूछताछ के लिए अन्य लोगों के साथ ही प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री रहे युवा नेता सचिन पायलट को भी नोटिस भेजा गया था. सचिन की तात्कालिक नाराजगी इस बात को लेकर ही ज्यादा बताई जा रही है. 

लेकिन इस नाराजगी की अभिव्यक्ति का समय, स्थान और जो तरीका उन्होंने चुना, वह किसी और बात के संकेत दे रहा था. ऐसे समय में जबकि केंद्र से लेकर अन्य राज्य सरकारें भी कोरोना जैसी महामारी से जूझ रही हैं, वह अपने समर्थक विधायकों के साथ दिल्ली, हरियाणा चले गये. वहां से उन्होंने 12 जुलाई को बगावती तेवर में कहा, ''हमारे पास 30 विधायक हैं. अल्पमत में आ गई गहलोत सरकार को विधानसभा में अपना बहुमत साबित करना चाहिए.'' इस तरह की बात कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री के पद पर रहते कोई कैसे कर सकता है. अगर उन्हें गहलोत और उनके नेतृत्व से किसी तरह की शिकायत थी तो उसे उन्हें कांग्रेस के उचित मंच पर उठाना चाहिए था और अगर गहलोत सरकार से विश्वास मत प्राप्त करने को ही कहना था तो इसके पहले उन्हें अपने समर्थक विधायकों के सरकार से समर्थन वापस लेनेवाले स्व हस्ताक्षरित पत्र के साथ पूरी सूची राज्यपाल को देनी चाहिए थी और उनसे मांग करनी चाहिए थी कि वे गहलोत सरकार से विश्वासमत हासिल करने को कहें. लेकिन ऐसा करते ही सभी विधायकों की सदस्यता जाने का खतरा था क्योंकि दलबदल विरोधी कानून के तहत अलग दल अथवा गुट बनाने के लिए विधायक दल के दो तिहाई सदस्यों का साथ होना जरूरी है. लेकिन यहां तो उनके साथ एक तिहाई विधायक भी नहीं थे. उन्हें और उनके समर्थकों को उम्मीद थी कि केंद्र सरकार और भाजपा उनकी मदद के लिए खुलकर सामने आएगी और बाकी विधायकों का जुगाड़ करने में मदद करेगी. लेकिन सचिन के दावे के विपरीत कांग्रेस के 30 विधायक भी उनके साथ नहीं दिखे. मानेसर के पास रेजॉर्ट में उनके साथ कांग्रेस के 18 और तीन अन्य निर्दलीय विधायक ही बताए गये. राजस्थान के सत्ता संघर्ष में बाजी पलटते देख इनमें से भी कुछ वापस जयपुर लौटने के मूड में दिख रहे हैं. 

इस बीच समर्थकों के साथ सचिन के खुली बगावत के तेवर देख कांग्रेस आलाकमान का रुख भी उनके विरुद्ध हो गया. उनके सरपरस्त कहे जानेवाले कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी उन्हें प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री तथा उनके दो अन्य समर्थकों को भी मंत्री पद से हटाने, भंवरलाल शर्मा और विश्वेंद्र सिंह को पार्टी से निलंबित करने के फैसले पर हामी भर दी. यहां तक कि सचिन पायलट और उनके समर्थकों की कांग्रेस की मुख्यधारा में वापसी की चर्चाओं और प्रयासों के बीच राहुल गांधी ने एनएसयूआई के एक कार्यक्रम में कहा कि 'जिसे पार्टी छोड़कर जाना है, वह तो जाएगा ही.' 


वैसे, कांग्रेस आलाकमान ने अपने बागी नेताओं, विधायकों को लौटने के मौके भी कम नहीं दिए. 13 जुलाई को सभी विधायकों को 'ह्विप' जारी कर जयपुर में कांग्रेस विधायक दल की बैठक में शामिल होने को कहा गया. पहले दिन उनके नहीं आने पर विधायक दल की बैठक दूसरे दिन भी बुलाई गई. दूसरे दिन 14 जुलाई को एक घंटे का अतिरिक्त इंतजार भी किया गया तब भी वे नहीं आए तो पायलट को प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री के पद से तथा उनके समर्थक विश्वेंद्र सिंह और रमेश मीणा को मंत्री पद से बर्खास्त कर दिया गया. अगले दिन कांग्रेस ने 'ह्विप' के उल्लंघन का आरोप लगाकर विधानसभाध्यक्ष सीपी जोशी के कार्यालय से सचिन सहित पार्टी के 19 विधायकों की सदस्यता समाप्त करने से संबंधित नोटिस भिजवा दिया. 

हालांकि संसद अथवा विधानमंडल के बाहर भी पार्टी के 'ह्विप' के उल्लंघन पर सांसद अथवा विधायक की सदस्यता जा सकती है, इसके बारे में दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि ह्विप संसद अथवा विधानमंडल के भीतर ही प्रभावी होता है. शायद इसी तर्क का सहारा लेकर सचिन पायलट और उनके समर्थक राजस्थान हाईकोर्ट की शरण में चले गये. हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई 20 जुलाई तक के लिए टालते हुए अपने अंतरिम आदेश में विधानसभाध्यक्ष से 21 जुलाई तक इस मामले में 19 विधायकों के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लेने को कहा है.   

म.प्र. में सिंधिया प्रकरण के बाद जिस जोर शोर से सचिन भाजपा के साथ नहीं जाने की कसमें खा रहे थे, उसी समय लग रहा था कि वह राजनीतिक सौदेबाजी बढ़ा रहे हैं और आज नहीं तो कल वह अपने मित्र ज्योतिरादित्य के राजनीतिक हम सफर ही बनेंगे. अब बाजी पलटते देख वह कह रहे हैं कि भाजपा में कतई नहीं जानेवाले हैं. उन्हें भाजपा के साथ जोड़कर बदनाम किया जा रहा है. उनके विरुद्ध कांग्रेस की कार्रवाई पर उनकी प्रतिक्रया थी, 'सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं.' ज्योतिरादित्य की तरह वह भी कांग्रेस में और सरकार में भी गहलोत के द्वारा अपनी उपेक्षा के आरोप लगाते रहे हैं.

वैसे, कांग्रेस में उनकी तथा अन्य युवा नेताओं की उपेक्षा आदि की बातें बेमानी लगती हैं. सच तो यह है कि आज की सत्तारूढ़ राजनीति में नेता खासतौर से बड़े बाप की संतानें, जिन्हें राजनीति में बहुत कम समय में बहुत ज्यादा मिल गया हो, किसी दल के साथ विचारधारा और जन कल्याण के लिए अपनी प्रतिबद्धता के कारण नहीं बल्कि सत्ता की बंदरबांट में अपनी मोटी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए ही जुड़ते हैं. ज्योतिरादित्य और सचिन जैसे लोगों को इतने कम समय में इतना ज्यादा कुछ इसलिए ही मिला क्योंकि वे कांग्रेस में बड़े और दिवंगत नेताओं के बेटे हैं. सचिन 26 साल की उम्र में सांसद, 32 साल में केंद्र सरकार में मंत्री, 36 साल की उम्र में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और 40 साल की उम्र में उप मुख्यमंत्री बन गये थे. इतने कम समय (17 साल के राजनीतिक जीवन) में इतनी राजनीतिक उपलब्धियां पार्टी में उनकी उपेक्षा नहीं बल्कि आलाकमान तक उनकी पहुंच का प्रतीक ही कही जा सकती हैं. तकरीबन इसी तरह की उपलब्धियां ज्योतिरादित्य सिंधिया के खाते में भी थीं. लेकिन जिस तरह भाजपा में शामिल होने से पहले सिंधिया भाजपा में हरगिज नहीं जाने की कसमें खाते थे, उनके वहां पहुंच जाने के बाद, उसी तरह की बल्कि उससे ज्यादा बढ़चढ़कर कसमें सचिन भी खा रहे थे. उन्होंने तो अपनी वल्दियत की कसमें भी खाई. लेकिन राजनीति में कसमों और वादों का अर्थ शायद दूसरे ही अर्थों में लिया जाना चाहिए, कम से कम इन दो प्रकरणों ने तो यही साबित किया है.

और फिर कांग्रेस में उपेक्षा के आरोप लगाकर भाजपा में जानेवालों की फेहरिश्त लंबी है. आज वे किस हाल में हैं! हरियाणा में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्रसिंह हुड्डा से राजनीतिक मार-खार खाए, भाजपा में गये हरियाणा के चौधरी वीरेंद्र सिंह, राव इंद्रजीत सिंह, अशोक तंवर, असम में तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई से त्रस्त हिमंत विश्व सरमा, उत्तराखंड में विजय बहुगुणा, उनकी बहन रीता जोशी, हरक सिंह रावत, सतपाल महाराज, यूपी में जगदंबिका पाल, कर्नाटक में एसएम कृष्णा जैसे कितने ही लोग इसी तरह कांग्रेस में उपेक्षा और सम्मान नहीं मिलने के आरोप लगाते हुए और यह सोचते हुए भाजपा में गये कि वहां जाकर वह राज्य में नंबर एक नेता, मुख्यमंत्री, केंद्र में मंत्री बनेंगे! आज भाजपा में उनकी दशा-दुर्दशा देखने लायक है. मेनका और उनके पुत्र वरुण गांधी को भाजपा में मिला शुरुआती सम्मान अब न जाने कहां चला गया. आगे चलकर यही हश्र ज्योतिरादित्य और अगर उनकी राह ही चले तो सचिन का भी तो हो सकता है! लेकिन सत्ता के 'सबसे बड़े जाम' की चाहत में 'राजनीतिक शराबी' को यह नहीं दिखता कि सत्तारूढ़ राजनीति के 'मयखाने' में उसके कितने पूर्ववर्ती किस-किस कोने में गिरे पड़े, किस हाल में हैं.

 राजस्थान के सत्ता संघर्ष में फिलहाल तो सचिन पायलट और नेपथ्य में रहकर उनके कंधे पर बंदूक रखकर राजनीतिक शिकार की फिराक में रही भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है. इसका एक कारण तो सचिन के 30 अथवा इससे अधिक कांग्रेसी विधायक साथ रहने के दावे में दम नहीं था, दूसरे राजस्थान में भाजपा की अंदरूनी गुटबाजी ने भी उनका खेल बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. केंद्रीय नेतृत्व के न चाहने के बावजूद राजस्थान भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा बनी हुई पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इस पूरे प्रकरण में निर्लिप्त सी रहीं. भाजपा की सहयोगी रालोपा के सांसद हनुमान बेनीवाल ने तो उन पर गहलोत के परोक्ष समर्थन का आरोप भी लगाया है. हालांकि इसके ठोस सबूत सामने नहीं हैं लेकिन यह तो सच है कि सत्ता पलटने के इस खेल के सफल होने पर अगला मुख्यमंत्री वसुंधरा के दो कट्टर विरोधियों-कांग्रेस के बागी सचिन पायलट अथवा भाजपा में उनके कट्टर विरोधी गजेंद्र सिंह शेखावत में से ही कोई बनता. मुख्यमंत्री रहते शेखावत को प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष भी कबूल नहीं करनेवाली धौलपुर की महारानी को यह कैसे कबूल होता! उधर अशोक गहलोत ने विधायकों की कथित खरीद-फरोख्त की जांच का जिम्मा उनके करीबी पुलिस अफसर शशांक राठोड को देकर भी उन्हें एक तरह से खुश ही किया है.


                                                    केंद्रीय जल संसाधन मंत्री गजेंद्रसिंह शेखावत

इस बीच भाजपा के दिग्गज दलित नेता, विधायक और पूर्व विधानसभाध्यक्ष कैलाश मेघवाल ने अपनी ही पार्टी पर कांग्रेस के विधायकों की खरीद-फरोख्त से गहलोत सरकार गिराने की साजिश रचने का आरोप लगाकर भाजपा नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर दिया है. उन्होंने अशोक गहलोत के आरोपों को विश्वसनीयता प्रदान कर भाजपा की मुश्किलें बढ़ा दी हैं.

 जहां तक विधायकों की संख्या का सवाल है. अगर कांग्रेस के 30 विधायक विधानसभा से त्यागपतत्र दे देते, और कांग्रेस का साथ दे रहे दस निर्दलीय विधायकों में से अधिकतर तथा सहयोगी दल-भारतीय ट्राइबल पार्टी, और रालोद के चार विधायक भी सचिन के साथ खड़े होते तो शायद सरकार पर किसी तरह का खतरा भी होता क्योंकि 200 सदस्यों की विधानसभा में 30 विधायकों के त्यागपत्र के बाद बाकी बचे 170 विधायकों में से बहुमत के लिए 86 विधायकों का समर्थन आवश्यक होता. अभी कांग्रेस के पास कुल 107 विधायक हैं. 30 विधायकों के त्यागपत्र के बाद उसके पास 77 विधायक बचते जबकि 13 निर्दलीयों में से 10, भारतीय ट्राइबल पार्टी के दो और रालोद के एक विधायक का समर्थन भी गहलोत सरकार के साथ है. माकपा के विधायक भी उसके साथ ही हैं. भाजपा के पास अभी कुल 72 विधायक हैं जबकि उसे तीन निर्दलीय विधायकों तथा हनुमान बेनीवाल की रालोपा के तीन विधायकों का समर्थन भी है. इस तरह से भी गहलोत सरकार के सामने ऐसा संकट नहीं नजर आ रहा था जिससे सरकार गिर जाती और फिर सचिन पायलट विधायकी छोड़ सकनेवाले कांग्रेस के 30 विधायक भी तो नहीं जुटा सके.

बहरहाल, अब सचिन की बगावत का 'राजनीतिक गर्भापात' हो जाने के बाद उनके और उनके समर्थकों के पास भविष्य की राजनीति के लिए विकल्प बहुत सीमित रह गये लगते हैं. अब या तो वह मन मारकर अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस में लौटकर भविष्य की रणनीति पर काम करें, कांग्रेस और विधानसभा की सदस्यता त्यागकर भाजपा में शामिल हो जाएं अथवा एक अलग क्षेत्रीय पार्टी का गठन कर सरकार गिराने के खेल में नये सिरे से सक्रिय हो जाएं. राजस्थान के राजनीतिक इतिहास के मद्देनजर राज्य में तीसरी राजनीतिक ताकत के नंबरवन बनने का प्रयोग अभी तक तो सफल होते नहीं दिखा है. और बिना कुछ ठोस मिले विधानसभा की सदस्यता गंवाकर इसके लिए उनके समर्थक विधायकों के तैयार होने के बारे में भी यकीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता. सत्ता परिवर्तन हुए बगैर भाजपा में जाने की बात भी समझ से परे की ही लगती है. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि राजस्थान के राजनीतिक झंझावातों में कहीं फंस गया पायलट के राजनीतिक विमान की लैंडिंग कहां होनेवाली है. लेकिन यह सब लिखने का मतलब यह कतई नहीं कि हम ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट के मुकाबले कमलनाथ अथवा अशोक गहलौत और उनकी सरकारों के कामकाज, उनकी राजनीतिक कार्यशैली के पक्षधर हैं. कमलनाथ और गहलौत ने भी पार्टी में अपने विरोधियों को बौना बनाने, अपने बेटों को आगे बढ़ाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी. शासन- प्रशासन में पूर्ववर्ती भाजपाई सरकारों और इनकी सरकारों के बीच बहुत ज्यादा गुणात्मक फर्क मुझे तो नजर नहीं आया. उन्नीस-बीस का फर्क हो सकता है, इक्कीस का फर्क तो कतई नहीं लगा. सत्ता में भाजपा के लुटेरों की जगह राज्य में कांग्रेस के पॉवर ब्रोकर और लुटेरे सक्रिय हो गये. विधायकों की 'जोड़-तोड़' का सहारा इन दोनों ने भी लिया. कमलनाथ और गहलोत ने भी संबद्ध राज्यों में सपा, बसपा के समर्थक विधायकों को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल करवाया. लेकिन केंद्र में भाजपा के सत्तारूढ़ रहते उनकी सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी.

  भाजपा के इरादे स्पष्ट हैं. उसे हर हाल में हर जगह अपनी सरकार चाहिए, जनादेश की ऐसी तैसी! अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, कर्नाटक, गोवा, मेघालय, मणिपुर, मध्यप्रदेश में वह इस तरह के प्रयोग कर चुकी है. राजस्थान में उसका यह खेल सफल हो जाता ते उसका अगला पड़ाव झारखंड, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में भी होता ही. राजस्थान में एक बार मुंह की खाने के बावजूद वह शांत होकर बैठने और कांग्रेस की सरकार को अपना कार्यकाल पूरा करने देने के मूड में कतई नहीं रहेगी. निर्णायक स्थिति के इंतजार में दिखावे के लिए वह बगुला भगत बने, मछली के और करीब आने का इंतजार करेगी. राजस्थान में ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स जैसे उसके 'कारिंदे' सक्रिय हो गये हैं. कांग्रेस के लोगों के यहां छापे पड़ने शुरू हो गये हैं. सरकार पलटने-बचाने का खेल अभी चालू रहनेवाला है. 

 कोरोना से बचने की जंग आप खुद लड़िए. 'कांग्रेस मुक्त' राज्य के नाम पर 'कांग्रेस युक्त' सरकारें भी हाथ में रहें तो कोरोना जैसी महामारी की चुनौतियों से भाजपा की राजनीतिक सेहत पर खास असर नहीं पड़ने वाला! आखिरकार, वोट उसे कोरोना, महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी और अव्यवस्था से लड़ने नाम पर तो मिलते नहीं! इसलिए मस्त रहिए. कोरोना, महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी के साथ जीने की आदत डाल लीजिए. हमारे प्रधानमंत्री जी भी तो ऐसा ही चाहते-कहते हैं, 'कोरोना संग जीने की आदत डाल लेनी चाहिए.'


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Wednesday, 1 July 2020

आपातकाल बनाम अघोषित आपातकाल

पीटीआई को प्रसार भारती की धमकी
आपातकाल बनाम अघोषित आपातकाल

जयशंकर गुप्त

अभी आपातकाल की 45वीं बरसी को एक-दो दिन भी नहीं बीते थे जब आपातकाल के असली-नकली 'योद्धाओं' (माफीवीरों) ने आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का काला अध्याय करार दिया था. आपातकाल की ज्यादतियों, प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटे जाने को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कांग्रेस को जमकर कोसा था. लानत मलामतें भेजी गई थीं और फिर ऐसा दोबारा नहीं होने देने की कसमें भी खाई गई थीं. लेकिन एक दिन बाद ही हमारे 'नेशनल ब्राडकास्टर' प्रसार भारती ने इस देश की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी पीटीआई (प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया) को राष्ट्र विरोधी करार देते हुए धमकी भरा पत्र भेजकर 'अघोषित आपातकाल' का व्यावहारिक एहसास करा दिया है.

पीटीआई का 'गुनाह' सिर्फ इतना भर है कि उसने लद्दाख में चीन की घुसपैठ, गलवान घाटी और आसपास के इलाकों में वास्तविक नियंत्रण रेखा के भारतीय हिस्से की तरफ उसके कब्जा जमाने और वहां भारतीय सेना की बिहार रेजीमेंट के 20 जवानों की शहादत आदि की पृष्ठभूमि में अपने पत्रकारीय दायित्वों का निर्वाह करते हुए नई दिल्ली में चीन के राजदूत सुन वेईडोंग (Sun Weidong) और चीन की राजधानी बीजिंग में भारत के राजदूत विक्रम मिस्री के इंटरव्यू प्रसारित कर दिए. इसमें कुछ भी गलत नहीं था लेकिन दोनों इंटरव्यूज से लद्दाख में चीन की घुसपैठ को लेकर भारत सरकार और खासतौर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दावे खंडित हो रहे थे.

इसको लेकर सत्ता के गलियारों में खलबली मची और पीटीआई के दुनिया भर में 400 से अधिक बड़े ग्राहकों में से सबसे बड़ा कहे जानेवाले प्रसार भारती ने शनिवार, 27 जून को पीटीआई के मार्केटिंग विभाग को पत्र लिखकर कहा कि लद्दाख प्रकरण में पीटीआई की रिपोर्टिंग और खासतौर से उसके इंटरव्यूज देश द्रोह की तरह के हैं. पीटीआई की देश विरोधी रिपोर्टिंग के कारण उसके साथ अपने संबंध जारी रखने पर पुनर्विचार किया जाएगा.
गौरतलब है कि भारत सरकार से वित्त पोषित प्रसार भारती से गैर लाभकारी समाचार एजेंसी, पीटीआई को प्रति वर्ष करोड़ों रुपये का भुगतान होता है. पीटीआई की ख्याति समाचारों, लेखों, तस्वीरों और इंटरव्यूज को ठोंक बजाकर अधिकृत रुख जानने के बाद प्रसारित करनेवाली समाचार एजेंसी की रही है. लेकिन जाहिर सी बात है कि प्रसार भारती और उसके पीठ पीछे सक्रिय लोग थोड़ा और आगे बढ़कर पीटीआई से प्रसारित होनेवाले समाचारों को मनमुआफिक ही देखना चाहते हैं.

इसी तरह की कोशिश तो आपातकाल में इंदिरा गांधी और उनकी सरकार ने भी की थी. सत्तर के दशक के मध्यार्ध में खासतौर से 1974 के जेपी आंदोलन, इलाहाबाद हाईकोर्ट के श्रीमती गांधी के चुनाव को रद्द करने के फैसले के बाद मीडिया, समाचार एजेंसियों की कवरेज, श्रीमती गांधी को पद त्याग करने के सुझावस्वरूप लिखे गये संपादकीय आदि को लेकर श्रीमती गांधी और उनके दरबारी बहुत नाखुश थे. उनके पुत्र संजय गांधी तब पीटीआई और यूएनआई से इस बात पर नाराज थे कि इन दोनों प्रमुख एजेंसियों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा के फैसले को हूबहू क्यों प्रसारित कर दिया था. उसे ट्विस्ट कर इस तरह से क्यों नहीं जारी किया था जो श्रीमती गांधी के हित में हो, उनके प्रति जन सहानुभूति पैदा करे.

उस समय देश में चार बड़ी समाचार एजेंसियां थीं- पीटीआई, यूएनआई, हिन्दुस्तान समाचार और समाचार भारती. चारों एजेंसियां एक दूसरे से होड़ में अलग अलग सूत्रों से प्राप्त अलग समाचार जारी करती थीं. तत्कालीन सत्ता को लगा कि चारों एजेंसियों को एक में विलीन कर देने से सूचना-संवाद के प्रवाह को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है. शुरू में किसी भी समाचार एजेंसी का प्रबंधन इसके लिए तैयार नहीं हुआ. तब इसके लिए समाचार एजेंसियों पर सरकारी दबाव बनाया गया. उस समय प्रसार भारती तो था नहीं लेकिन तब भी आकाशवाणी और दूरदर्शन तथा सरकारी विभाग समाचार एजेंसियों के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण ग्राहक (सब्सक्राइबर) थे. सरकार की तरफ से उसका प्रस्ताव नहीं मानने पर न सिर्फ एजेंसियों की सेवा लेना बंद करने बल्कि उनके पुराने बकायों का भुगतान रोक कर उन्हें आर्थिक रूप से पंगु बना देने की धमकियां दी गईं. और कोई विकल्प नहीं होने के कारण समाचार एजेंसियों के प्रबंधन ने घुटने टेक दिए. उसके बाद ही चारों एजेंसियों को आपस में विलीन कर एक नई एजेंसी 'समाचार' बनाई गई थी. इसके साथ ही पूरे आपातकाल के दौरान प्रेस पर सेंसरशिप के जरिए अंकुश लगाने आदि की बातें हुई थीं जिस पर अलग से लिखा जा सकता है.

मीडिया के साथ अभी भी तो यही हो रहा है ! यानी कहने को तो देश में आपातकाल नहीं है लेकिन काम सारे वही हो रहे हैं! अखबार, पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर आमतौर पर सरकार की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं छपता, नही प्रसारित होता है. जो कोई इस तरह की 'गुस्ताखी' करता है, उसे धमकियां मिलती हैं, उसकी नौकरी पर बन आती है, उसके विरुद्ध मुकदमें होते हैं, उसके पीछे सोशल मीडिया पर सक्रिय ट्रोल्स गालियों और अपशब्दों की बौछार शुरू कर देते हैं. इसी क्रम में पीटीआई (यूएनआई और हिन्दुस्तान समाचार का हाल पहले से बुरा है) को आर्थिक रूप से पंगु बनाने की धमकी देकर एक तरफ तो उसे भी 'हिज मास्टर्स वायस' बनाने की कोशिश की जा रही है, दूसरी तरफ, उसकी जगह एएनआइ जैसी सरकार की किसी और 'हिज मास्टर्स वायस' समाचार एजेंसी को प्रोमोट कर मजबूत बनाने और पीटीआई के मुकाबले खड़ा करने की कोशिश हो सकती है.

लेकिन ताजा संदर्भ में प्रसार भारती की धमकी से यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या अब यह सरकार या उसके द्वारा वित्त पोषित प्रसार भारती के लोग तय करेंगे कि अखबार, समाचार एजेंसी और टीवी चैनल किसका इंटरव्यू करेंगे और किसका नहीं. इसके आगे क्या अब यह भी ये लोग ही तय करेंगे कि कौन सा समाचार छपेगा या प्रसारित होगा और कौन नहीं! इसे अघोषित आपातकाल नहीं तो और क्या कहेंगे!
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आपातकाल, संघर्ष और सबक


आपातकाल, संघर्ष और सबक

जयशंकर गुप्त
इस 25-26 जून, 2020 को आपातकाल की 45वीं बरसी मनाई जा रही है. इस साल भी पिछले 44 वर्षों की तरह आपातकाल के काले दिनों को याद करने, इस बहाने इंदिरा गांधी के 'अधिनायकवादी रवैए' को कोसने की रस्म निभाने के साथ ही, लोकतंत्र की रक्षा की कसमें खाई जा रही हैं. ऐसा करनेवालों में बहुत सारे वे 'लोकतंत्र प्रहरी' भी हैं जिनमें से कइयों ने और उनके संगठन ने भी आपातकाल में सरकार के सामने घुटने टेक दिए थे या फिर वे जो आज सत्तारूढ़ हो कर अघोषित आपातकाल के जरिए लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं के साथ कमोबेस वही सब कर रहे हैं जिनके लिए हम सब इंदिरा गांधी और उनके आपातकाल को कोसते रहे हैं.
वाकई आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के स्वरों और शब्दों को दबाने के प्रयासों को आज भी न सिर्फ याद रखने बल्कि उनके प्रति चौकस रहने की भी जरूरत है ताकि देश और देशवासियों को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े और भविष्य में भी कोई सत्तारूढ़ दल और उसका नेता वैसी हरकत की हिमाकत नहीं कर सके जैसा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25-26 जून 1975 की दरम्यानी रात में किया था.
उस कालीरात को देश को आपातकाल और सेंसरशिप के हवाले कर नागरिक अधिकार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताएं छीन ली गई थीं. लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित तमाम राजनीतिक विरोधियों को उनके घरों, ठिकानों से उठाकर जेलों में डाल दिया गया था. अभिव्यक्ति की आजादी पर सेंसरशिप का ताला जड़ दिया गया था. पत्र-पत्रिकाओं में वही सब छपता और आकाशवाणी-दूरदर्शन पर वही प्रसारित होता था जो उस समय की सरकार चाहती थी. प्रकाशन-प्रसारण से पहले सामग्री को प्राधिकृत सेंसर अधिकारी के पास भेज कर उसे सेंसर करवाना पड़ता था.

आपातकाल क्यों!

इंदिरा गांधी ने देश को आपातकाल के हवाले क्यों किया था ! 1971 के आम चुनाव में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध में भारतीय सेना के हाथों पाकिस्तान की शर्मनाक शिकस्त और पाकिस्तान से अलग बांग्लादेश के निर्माण के साथ ही बैंकों के राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रिवी पर्स की समाप्ति जैसे अपने लोकलुभावन फैसलों पर आधारित गरीबी हटाओ के नारे के साथ लोकप्रियता के चरम पर पहुंच कर प्रचंड बहुमत के साथ सत्तारूढ़ हुईं श्रीमती गांधी ने अपने सरकारी प्रचारतंत्र और मीडिया का सहारा लेकर आम जनता के बीच अपनी गरीब हितैषी और अमीर विरोधी छवि बनाई थी. लेकिन आगे चलकर गुजरात के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रावास में बढ़ी फीस और घटिया भोजन की आपूर्ति के विरुद्ध शुरू हुए छात्र आंदोलन ने गुजरात में नव निर्माण आंदोलन का व्यापक रूप धर लिया था. इस आंदोलन की परिणति राज्य में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर बाबूभाई जसु भाई पटेल के नेतृत्व में जनता मोर्चे की सरकार के गठन के रूप में हुई थी.
गुजरात के नव निर्माण आंदोलन का विस्तार बिहार आंदोलन के रूप में हुआ जिसने आगे चलकर देश भर में संपूर्ण क्रांति आंदोलन का रूप धर लिया था. महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के चरम पर पहुंचने से क्रुद्ध देश भर के छात्र-युवा और आम जन भी 72 साल के बुजुर्ग समाजवादी-सर्वोदयी नेता, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के पीछे अहिंसक और अनुशासित तरीके से लामबंद होने लगे थे. गुजरात और बिहार की परिधि को लांघते हुए सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन देश के अन्य हिस्सों में भी जंगल की आग की तरह फैलने लगा. इस आंदोलन ने न सिर्फ राज्य की कांग्रेसी सरकारों बल्कि केंद्र में सर्व शक्तिमान इंदिरा गांधी की सरकार को भी भीतर से झकझोर दिया था. इस आंदोलन को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर प्रायः सभी गैर कांग्रेसी दलों का सहयोग-समर्थन था. असंतोष के स्वर कांग्रेस के भीतर चंद्रशेखर, मोहन धारिया, रामधन और कृष्णकांत जैसे पूर्व समाजवादी युवा तुर्क नेताओं की ओर से भी उभरने लगे थे. तभी 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हां का ऐतिहासिक फैसला और उसके साथ ही शाम को गुजरात में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करनेवाला विधानसभा के चुनाव का नतीजा भी आ गया. जस्टिस सिन्हां ने अपने ऐतिहासिक फैसले में रायबरेली से श्रीमती गांधी के लोकसभा चुनाव को चुनौती देनेवाली समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर फैसला सुनाते हुए श्रीमती गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया. उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द करने के साथ ही उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया था. 24 जून को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भी इस फैसले पर मुहर लगा दी गयी थी. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की आंशिक राहत दे दी थी. वह लोकसभा में जा सकती थीं लेकिन वोट नहीं कर सकती थीं. उधर उनके पद त्याग नहीं करने की स्थिति में अगले दिन 25 जून को दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में संपूर्ण क्रांति आंदोलन का नेतृत्व कर रहे समाजवादी-सर्वोदयी नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण एवं सम्पूर्ण विपक्ष ने अनिश्चितकालीन देशव्यापी आंदोलन का आह्वान किया था. मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में लोक संघर्ष समिति गठित कर 28 जून से इंदिरा गांधी के त्यागपत्र देने तक देश व्यापी आंदोलन-सत्याग्रह शुरू करने का फैसला हुआ था. इसी मैदान में जेपी ने राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर कविता की पंक्ति-‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है,’ का उद्घोष किया था. जेपी ने अपने भाषण में कहा था, ‘‘मेरे मित्र बता रहे हैं कि मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है क्योंकि हमने सेना और पुलिस को सरकार के गलत आदेश नहीं मानने का आह्वान किया है. मुझे इसका डर नहीं है और मैं आज इस ऐतिहासिक रैली में भी अपने उस आह्वान को दोहराता हूं ताकि कुछ दूर, संसद में बैठे लोग भी सुन लें. मैं आज फिर सभी पुलिस कर्मियों और जवानों का आह्वान करता हूं कि इस सरकार के आदेश नहीं मानें क्योंकि इस सरकार ने शासन करने की अपनी वैधता खो दी है.’’ लेकिन बाहर और अंदर से भी बढ़ रहे राजनीतिक विरोध और दबाव से निबटने के नाम पर श्रीमती गांधी ने पदत्याग के लोकतांत्रिक रास्ते को चुनने के बजाय अपने छोटे बेटे संजय गांधी, और वरिष्ठ अधिवक्ता एवं पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कुछ खास सलाहकारों से मंत्रणा के बाद ‘आंतरिक उपद्रव’ की आशंका के मद्देनजर संविधान की धारा 352 का इस्तेमाल करते हुए आधी रात को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से देश में ‘आंतरिक आपातकाल’ लागू करने की अधिसूचना जारी करवा दी थी. कैबिनेट की मंजूरी अगली सुबह छह बजे ली गई थी. उसके तुरंत बाद आकाशवाणी पर श्रीमती गांधी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कहा, ‘‘भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. इससे आतंकित होने की जरूरत नहीं है.’’ उन्होंने आपातकाल को जायज ठहराने के इरादे से विपक्ष पर साजिश कर उन्हें सत्ता से हटाने और देश में अव्यवस्था और आंतरिक उपद्रव की स्थिति पैदा करने का आरोप लगाया और कहा कि सेना और पुलिस को भी विद्रोह के लिए उकसाया जा रहा था. उन्होंने कहा, ‘‘जबसे मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं, तभी से मेरे खिलाफ गहरी राजनीतिक साजिश रची जा रही थी.’’

आपातकाल के विरुद्ध हमारा संघर्ष

आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे. तब हम पत्रकार नहीं, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज में कला स्नातक के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और जेपी आंदोलन में भी सक्रिय थे. आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे. लेकिन पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा. जार्ज फर्नांडिस के साप्ताहिक अखबार 'प्रतिपक्ष' के साथ जुलाई के पहले सप्ताह में हमें गिरफ्तार कर लिया गया. हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित 'प्रतिपक्ष' बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे. पुलिस की चार्जशीट के मुताबिक यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे. डी आई आर और 120 बी के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए. सवा महीने बाद, 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए. हम पिता-पुत्र आजमगढ़ जेल की एक ही बैरक में महीनों आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे.

भूमिगत जीवन और मधुलिमये से संपर्क

कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पैरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा लौटने के बजाय आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए. उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों-जेल में और जेल के बाहर भी-से समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह-जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था. वाराणसी में हम जेल में निरुद्ध साथी, समाजवादी युवजन सभा के नेता (अभी कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव) मोहन प्रकाश से मिले. उनसे कुछ पते लेकर वाराणसी में ही समाजवादी युवजन सभा, लोहिया विचार मंच और छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के साथियों अशोक मिश्र, योगेंद्र नारायण, नचिकेता, कुंवर सुरेश सिंह, देवाशीष भट्टाचार्य, चंचल मुखर्जी, मदन मोहन लाल श्रीवास्तव आदि से लगातार संपर्क में रहा. वाराणसी प्रवास के दौरान अशोक मिश्र जी का चेतगंज के पास हबीबपुरा स्थित निवास हमारा ठिकाना होता.
इलाहाबाद में हमारा परिवार था. वहीं रहते नरसिंह गढ़ और बाद में भोपाल जेल में बंद रहे समाजवादी नेता मधु लिमये से पत्र संपर्क हुआ. वह हमें पुत्रवत स्नेह देते थे. उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए. मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था. मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला.’ पत्र में अन्य ब्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी.’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमये का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे. एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए’. यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया.’
जब इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी उनके साथ जेल में बंद आरएसएस पलट समाजवादी अध्येता विनोद कोचर की खूबसूरत स्तलिखित प्रति हमारे पास भी भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके. इसके साथ उन्होंने पत्र लिखा कि अगर हस्तलिपि मिल जाये तो लिखना की ‘दमा की दवा मिल गयी है.’ उस समय हमारे सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी. मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र’ जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है. इसकी हर संभव मदद करें.’ इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे. उनके घरों में छिप कर रहना, खाना और मौके बे मौके भाभियों से भी कुछ आर्थिक मदद मिलनी आम बात थी.
मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे. हम लोग चौधरी साहब के एक राजनीतिक फैसले से सख्त नाराज थे. उन्होंने आपातकाल में विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी. हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं, लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था. हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था. जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार की बात करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं. हमारा आक्रोश समझा जा सकता था. लेकिन मधु जी का आदेश था, सो हम चौधरी साहब से मिलने गए. उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि चुनाव का बहिष्कार बचे-खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा. हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनेवाली थीं. हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था.
मधु जी का पत्र आया कि तुम लोग चौधरी साहेब के पीछे बेमतलब पड़े हो, यहां जेलों में संघ के लोग जिस तरह से माफीनामे लिखने में लगे हैं, उस पर चिंता करनी चाहिए. गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय उर्फ बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को एक नहीं कई 'माफीनामानुमा' पत्र लिखकर आपातकाल में हुए संविधान संशोधन पर आधारित सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्याधीश अजितनाथ रे की अध्यक्षतावाली संविधान पीठ के द्वारा श्रीमती गांधी के रायबरेली के संसदीय चुनाव को वैध ठहरानवाले फैसले पर बधाई देने के साथ ही उनकी सरकार के साथ संघ के प्रचारकों और स्वयंसेवकों के सहयोग करने की इच्छा जताई थी. यहां तक कि उन्होंने कहा था कि बिहार आंदोलन और जेपी आंदोलन से संघ का कुछ भी लेना-देना नहीं है. उन्होंने संघ पर से प्रतिबंध हटाने और उसके प्रचारकों-स्वयंसेवकों को जेल से रिहा करने का अनुरोध भी किया था ताकि वे सरकार के विकास कार्यों में सक्रिय भूमिका निभा सकें. इससे पहले भी उन्होंने 15 अगस्त को लालकिला की प्राचीर से श्रीमती गांधी के भाषण की भरपूर सराहना की थी. लेकिन इंदिरा गांधी ने उनके पत्रों पर नोटिस नहीं लिया था और ना ही कोई जवाब दिया था. बाद में श्री देवरस ने इस मामले पर आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' कहनेवाले सर्वोदयी नेता विनोवा भावे को पत्र लिखकर उनसे श्रीमती गांधी के साथ अपने करीबी संबंधों का इस्तेमाल करते हुए संघ पर लगे प्रतिबंध को हटाने और प्रचारकों-स्वयंसेवकों की रिहाई सुनिश्चित करवाने के लिए हस्तक्षेप करने का आग्रह किया था. लेकिन उन्होंने भी कोई जवाब नहीं दिया था. महाराष्ट्र विधानसभा के पटल पर रखे गये आपातकालीन दस्तावेजों के अनुसार श्री देवरस ने राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकरराव चह्वाण को भी इसी तरह का पत्र जुलाई 1975 में लिखा था.
बाद में अनौपचारिक तौर पर तय हुआ था कि सामूहिक माफी तो संभव नहीं, अलबत्ता माफीनामे निजी और स्थानीय स्तर पर अलग अलग भरे जाएं तो सरकार उन पर विचार कर सकती है. एक बिना शर्त वचन पत्र (अन्क्वालिफाईड अंडरटेकिंग) भरने की बात तय हुई थी जिसके लिए एक प्रोफार्मा भेजा गया था. इसके बाद से जेलों में माफीनामे भरने का क्रम शुरु हो गया था. जिनके पास प्रोफार्मा नहीं पहुंच सका, वे लोग एक पंक्ति के माफीनामे निजी और स्थानीय स्तर पर भर-भर कर जमा करने लगे. इसमें लिखा होता था, "हम सरकार के बीस सूत्री कार्यक्रमों का समर्थन करते हैं."
बहरहाल, इलाहाबाद से हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे. अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे. एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र रविशंकर के नाम से ही भेज दिया. उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिये से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया. हमने मधु जी को लिखा कि ‘‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी. आप जैसे मनीषी इसे बेहतर समझ सकते हैं.’’ इसके बाद मधु जी के पत्र दिए पते पर जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए. आपातकाल की समाप्ति के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे. वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे, कई बार अपनी पत्नी चम्पा लिमये जी के हाथों भी.
आपातकाल में जब लोकसभा की मियाद पांच से बढ़ाकर छह वर्ष कर दी गयी तो विरोधस्वरूप मधु जी और शरद यादव ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था. त्यागपत्र तो समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र जी ने भी दिया था लेकिन उन्होंने अपना त्यागपत्र लोकसभाध्यक्ष के पास भेजने के बजाय चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था. मधु जी ने मुझे पत्र लिखकर कहा कि नैनी जेल में जाकर जनेश्वर से मिलो और पूछो कि क्या उन्हें लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम! मैं उनके पत्र के साथ किसी तरह मुलाकाती बनकर नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिला और उन्हें मधु जी का सन्देश दिया. जनेश्वर जी कुछ उखड़ से गए और बोले, मधु जी अपनी पार्टी के नेता हैं लेकिन हमारी पार्टी (लोकदल) के नेता, अध्यक्ष चरण सिंह हैं. लिहाजा, हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा.
इस तरह के तमाम प्रसंग हैं जो आपातकाल पर हमारी आनेवाली पुस्तक में देखने को मिल सकते हैं. (पुस्तक का लेखन अपने अंतिम चरण में है.)

आपातकाल के सबक!

लेकिन यहां हमारी चिंता का विषय कुछ और है. दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था. जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था, लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी, अधिनायकवादी प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है. भाजपा के वरिष्ठ और बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी ने पांच साल पहले एक अंग्रेजी अखबार से बातचीत में हमारी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में ही इन प्रवृत्तियों के मौजूद रहने और आपातकाल के भविष्य में भी लागू किये जाने की आशंकाएं बरकार रहने का संकेत दिया था. आज स्थितियां ठीक उसी दिशा में जाते हुए दिख रही हैं. देश आज धार्मिक कट्टरपंथ और 'उग्र राष्ट्रवाद' के सहारे एक अराजक माहौल और अघोषित आपातकाल की ओर ही बढ़ रहा है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ी साफ दिख रही है. प्रेस और मीडिया पर भी सरकारी विज्ञापनों, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग जैसी सरकारी एजेंसियों और यहां तक कि अदालतों का भी इस्तेमाल कर असहमति के स्वरों को दबाने के जरिए एक अलग तरह तरह की ‘अघोषित सेंसरशिप’ के अक्स साफ दिख रहे हैं. राजनीतिक विरोधियों के विरुद्ध बदले या कहें बैर भाव से प्रेरित कार्रवाइयां हो रही हैं. मणिपुर में सत्ता पक्ष के कई विधायकों के सरकार से समर्थन वापस ले लेने के बाद राज्य में वैकल्पिक सरकार बनाने का दावा करने वाले कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के घर अगले ही दिन सीबीआई की टीम पहुंच गई.
वैसे, आपातकाल की समाप्ति के बाद उसके गर्भ से निकली जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद हमारे ‘लोकतंत्र प्रेमियों’ ने सम्भवतः पहला अलोकतांत्रिक काम कांग्रेस की नौ राज्यों की चुनी हुई राज्य सरकारों को बर्खास्त करवाकर किया. और नहीं तो मीसा के विरोध में सत्तारूढ़ हुए लोगों को देश में मिनी मीसा लगाने का प्रस्ताव करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ. यह बताने में कोई हर्ज नहीं कि हमारी अंतिम गिरफ्तारी जनता पार्टी के शासन में ही हुई थी और उसी के साथ सक्रिय राजनीति से एक तरह का मोहभंग भी. बाद के दिनों में भी इस तरह के कई प्रसंग आये जब आपातकाल के गर्भ से निकले हमारे इस तरह के तमाम प्रसंग हैं जब ‘लोकतंत्र प्रेमियों’ ने अपनी सत्ता को मिलनेवाली चुनौतियों से निबटने के लिए और ज्यादा घातक और खूंखार कानूनों की खुलेआम वकालत की. उन पर अमल भी किया. अभी सीएए और एनआरसी का विरोध करनेवालों को यूएपीए जैसे कठोर कानून के तहत निरुद्ध किया गया. कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को राजद्रोह जैसे खतरनाक कानूनों के तहत जेल में कैद किया गया. जेल में उन्हें यातनाएं दिए जाने की सूचनाएं भी मिल रही हैं. इसलिए भी 25-26 जून को हमें आपातकाल की बरसी मनाते समय आमजन को न सिर्फ आपातकाल बल्कि उन खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्तियों के बारे में भी आगाह करना होगा जो गरीबी हटाओ के नारे के साथ भारी बहुमत लेकर सत्तारूढ़ हुई इंदिरागांधी जैसी नेता को 'तानाशाह' बना देती हैं और आज भी कुछ लोगों के भीतर एकाधिकारवादी ‘एको अहं द्वितीयो नास्ति’ का एहसास भर देती हैं. ये प्रवृत्तियां भी अमीर बनाम गरीब की लड़ाई का झांसा देकर, धार्मिक कट्टरपंथ पर आधारित अंध राष्ट्रवाद को सामने रखकर अपने विरोधियों और असहमति के स्वरों को दबाने के रास्ते पर चल रही हैं. इन लोगों और इन प्रवृत्तियों से न सिर्फ सावधान रहने की बल्कि उनका मुकाबला करने के लिए आमजन को जागरूक और तैयार करने की जरूरत है.
Posted by Jaishankar Gupta at 17:09 No comments:
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Labels: Balasaheb Deoras, Emergency in India, Indira Gandhi, J.P., Jagmohan Lal Sinha, Madhu Limaye, Rajnarayan

Sunday, 9 February 2020

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020


भाजपा के लिए अच्छे नहीं हैं रुझान और संकेत

जयशंकर गुप्त

दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों के लिए मतदान कल संपन्न हो गए। तमाम टीवी चैनलों के द्वारा कराए गये ओपिनियन पोल्स की तरह एक्जिट पोल्स के रुझान भी यही बता रहे हैं कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी लगातार तीसरी बार और भारी बहुमत से दूसरी बार सरकार बनाने जा रहे हैं। हालांकि हमारे लिए ओपिनियन पोल्स और एक्जिट पोल्स की विश्वसनीयता हमेशा से संदिग्ध रही है। उनमें से कुछ के रुझान जब शत प्रतिशत या थोड़ा कम अधिक सच साबित हुए तब भी और जब पूरी तरह से गलत हुए तब भी। हमारे लिए ओपिनियन पोल्स और एक्जिट पोल्स मनोरंजन का साधन अधिक लगते हैं। 
हमने दिसंबर 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय भी तमाम ओपीनियन और एक्जिट पोल्स को खारिज करते हुए सार्वजनिक तौर पर, एक टीवी चैनल पर वरिष्ठ पत्रकारों, संपादकों के साथ चुनावी चर्चा में कहा था कि 'आप' को 30 से कम सीटें नहीं मिलेंगी। तब हमारी बात कोई मानने को तैयार न था। आप के खाते में तब सीटें आई थीं 29। 
2015 के विधानसभा चुनाव में भी शुरू से हमारा मानना रहा कि 'आप' को स्पष्ट बहुमत मिल जाएगा, लेकिन जब अरविंद केजरीवाल के बारे में प्रधानमंत्री मोदी जी और उनकी पार्टी के बड़े हो गए बौने नेताओं के मुंह से 'सुभाषित' झरने लगे, बौखलाहट में भाजपा की चुनावी राजनीति के चाणक्य और खासतौर से लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत के सूत्रधार कहे जानेवाले भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने मतदान से दो दिन पहले अपना रणनीतिक ज्ञान बांटा कि विदेश में जमा कालाधन लाकर प्रत्येक भारतीय के बैंक खाते में 15 लाख रु. जमा करने का वादा चुनावी जुमला भर था और यह भी कि दिल्ली का यह चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के कामकाज पर रेफरेंडम नहीं माना जाना चाहिए, हमने कहना शुरू किया कि 'आप' को 50 से अधिक सीटें मिल सकती हैं,शं पता नहीं सीटों का आंकड़ा कहां जाकर फिट बैठेगा। नतीजे आए तो आप के खाते में 67 सीटें आईं और भाजपा को तीन सीटों तथा कांग्रेस को शून्य पर संतोष करना पड़ा था।
 इस बार के सभी ओपिनियन और एक्जिट पोल्स के रुझान एक बात पर एक राय रहे हैं कि दिल्ली में केजरीवाल फिर प्रचंड बहुमत से सरकार बना रहे हैं और भाजपा की नफरत के आधार पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और चुनाव में साम दाम दंड भेद का इस्तेमाल कर तकरीबन 22 साल बाद दिल्ली में सत्तारूढ़ होने की रणनीति कारगर होते नहीं दिख रही। किसी ने भी भाजपा को 'आप' पर बढ़त अथवा बहुमत के पास पहुंचने के रुझान भी नहीं बताए हैं। ऐसे में कोई करिश्मा, करामात ही अमित शाह से लेकर मनोज तिवारी के 45 से अधिक सीटें जीतने के दावे को सच साबित कर सकते हैं।
दिल्ली के चुनावी नतीजे 11 फरवरी को सामने आएंगे। संभव है कि वास्तविक नतीजे एक्जिट पोल्स के रुझानों को गलत साबित कर दें। मतदान से दो तीन दिन पहले कच्ची, झुग्गी बस्तियों में भाजपा नेताओं, सांसदों की 'सक्रियता' और हिन्दू-मुसलमान के बीच सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति भाजपा को सत्तारूढ़ बनाने या सत्ता के मुहाने तक पहुंचाने में कारगर साबित हो जाए। और यह भी संभव है कि दिल्ली में 'आप' की एक बार फिर राजनीतिक सुनामी ही देखने को मिले। हर हाल में भाजपा और कांग्रेस को भी आत्म चिंतन, मंथन कर अपनी चुनावी रणनीति पर पुनर्विचार करने का समय आ गया लगता है। कांग्रेस के लिए अभी भी अपने बूते दिल्ली में सत्ता बहुत दूर हो गई लगती है। इस बार तो लगता है कि कांग्रेस के उम्मीदवार भले ही मैदान में डटे रहे हों, अधिकतर सीटों पर भाजपा विरोधी मतों का विभाजन रोकने की अलिखित या अघोषित रणनीति के तहत कांग्रेस ढीली पड़ी ही दिखी।
इस बार फिर शुरू से ही लग रहा था कि केजरीवाल के 'काम बोलता है' के मुकाबले मोदी, शाह जी की शिगूफे-जुमलेबाजी टिकनेवाली नहीं है। केजरीवाल के आम जन को दिखने और आकर्षित करने वाले कामों की काट करने, उन्हें काम और विकास के मामले में घेरने और अपने ( केंद्र सरकार, दिल्ली पुलिस, डीडीए, भाजपा के वर्चस्ववाले तीनों नगर निगमों, नई दिल्ली नगरपालिका और सात सांसदों) के कामों, उपलब्धियों को जनता के सामने तुलनात्मक ढंग से रखने के बजाय भाजपा नेतृत्व और उसके रणनीतिकारों ने चुनाव को हिन्दू-मुसलमान के बीच नफरत की दीवार को चौड़ी कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करवाने पर जोर दिया। सीएए और एनआरसी के विरोध में शाहीनबाग और देश के विभिन्न हिस्सों में भारतीय संविधान, गांधी और अंबेडकर की तस्वीरों, तिरंगे और राष्ट्रगान के साथ शांतिपूर्ण और अहिंसक धरना-प्रदर्शन कर रहे लोगों की बात सुनने, उनकी समस्या, आशंकाओं का समाधान करने अथवा समाधान का आश्वासन देने के बजाय सरकार और भाजपा ने उनके दमन-उत्पीड़न के साथ ही उन्हें 'देश द्रोही', गद्दार साबित कर उनके विरुद्ध चुनाव लड़ने की रणनीति अपनाई। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के साथ ही उनके तमाम नेताओं, मंत्रियों, सांसदों और मुख्यमंत्रियों ने इसी रणनीति के तहत सांप्रदायिकता के जहर बुझे नारे और भाषणों को अपने चुनाव अभियान का आधार बनाया। एक आधी, अधूरी दिल्ली सरकार पर काबिज होने के लिए साम-दाम, दंड-भेद की रणनीति पर अमल करते हुए भाजपा और  बचे खुचे 'राजग' की पूरी राजनीतिक ताकत दिल्ली में झोंक दी, खुद को चुनावी रणनीति का आधुनिक 'चाणक्य' के रूप में प्रचारित करनेवाले गृहमंत्री अमित शाह स्वयं गली-गली घूमते हुए वोट मांगते और पर्चे बांटते नजर आए। बड़े नेताओं, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों ने गली-मोहल्लों मे चुनावी रैलियां, सभाएं और रोड शो किए। प्रधानमंत्री मोदी ने भी दो चुनावी रैलियों को संबोधित किया। मतदान के दो-तीन दिन पहले आलाकमान ने अपने सांसदों से अपनी चुनावी रातें, गरीबों की कच्ची, झुग्गी बस्तियों में गुजारने का फरमान जारी किया। 
हमेशा अपने जहरीले बयानों के कारण विवादित सुर्खियों में रहनेवाले एक केंद्रीय मंत्री भारी नकदी के साथ दूर दराज के रिठाला पहुंच गये। आप समर्थकों ने उन्हें एक जौहरी की दुकान में कैमरे में कैद कर उन पर पैसे बांटने के आरोप लगाए। कायदे से चुनाव प्रचार बंद हो जाने के बाद किसी बाहरी व्यक्ति को, चाहे वह केंद्रीय मंत्री ही क्यों न हो, किसी चुनाव क्षेत्र में घूमने की इजाजत नहीं होती। लेकिन मंत्री जी मतदान की पूर्व संध्या पर रिठाला के बुद्ध विहार पहुंच गये। उन्होंने वहां एक जौहरी की दुकान से अंगूठी खरीदने की बात की है। बिल भी पेश किया है। गोया, बेगूसराय, पटना अथवा दिल्ली के कनाट प्लेस, चांदनी चौक, करोलबाग या फिर और महत्वपूर्ण इलाकों में बड़े नामी गिरामी जौहरियों की दुकान पर उनकी पसंदीदा अंगूठी नहीं मिल सकती थी। उन्होंने बिल का नकद भुगतान कर प्रधानमंत्री के डिजिटल इंडिया को भी अंगूठा ही दिखाया।
बहरहाल, ओपिनियन और एक्जिट पोल्स के रुझानों से ऐसा नहीं लगता कि दिल्ली में भाजपा की चुनावी रणनीति कारगर हुई। हालांकि उसके नेतृत्व और रणनीतिकारों को हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावी नतीजों और उसके बाद के चुनावी परिदृश्य से सबक लेना चाहिए था क्योंकि इन राज्यों में सावरकर को भारत रत्न देने, जम्मू कश्मीर से संविधान की धारा 370 को हटाने, राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले, और फिर सीएए और एनआरसी जैसे भावनात्मक मुद्दों को भुनाने का अपेक्षित राजनीतिक लाभ भाजपा को नहीं मिला। दिल्ली में एक्जिट पोल्स के रुझान भी यही बता रहे हैं कि जन सरोकारों, महंगाई, बेरोजगारी, महिलाओं के साथ जुल्म ज्यादती, भ्रष्टाचार, लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था पर ध्यान देने के बजाय आप अगर हिन्दुत्व, हिन्दू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान के भावनात्मक मुद्दों को उछालकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीतिक रणनीति में ही उलझे रहे तो आनेवाले दिनों में आपके लिए संकेत अच्छे नहीं कहे जा सकते। इसी साल आपको बिहार विधानसभा और फिर आगे पश्चिम बंगाल, असम और तमिलनाडु विधानसभाओं के चुनावों का सामना भी करना पड़ेगा!
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Tuesday, 14 May 2019

प्रधानमंत्री जी, ये मीटू - मीटू क्या है !

संदर्भ अलग है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते 3 मई को राजस्थान के सीकर में एक चुनावी रैली में कांग्रेस पर जिस ‘मी टू मी टू’ का जिक्र किया, उसका संदर्भ पूर्व विदेश राज्य मंत्री एम जे अकबर के ‘मी टू’ से सर्वथा अलग है. अकबर पर संपादक रहते उनकी कुछ सहकर्मियों ने यौन शोषण का आरोप लगाया था. लेकिन बात बेबात  तुकबंदी भिड़ाने के अभ्यस्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीकर में ‘मी टू मी टू’ के जरिए कांग्रेस के यूपीए शासन में छह सर्जिकल स्ट्राइक करने लेकिन उसका कभी ढिंढोरा नहीं पीटने के दावे की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि कांग्रेस अब सर्जिकल स्ट्राइक पर ‘मी टू मी टू’ कर रही है जबकि उसके शासन में हुए सर्जिकल स्ट्राइक कागजी थे. क्योंकि कांग्रेस की स्ट्राइक के बारे में न सेना, ना देश और ना ही पाकिस्तान को ही पता चला. 

दरअसल, एक दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने पुलवामा, उरी, पठानकोट आतंकी हमले के मास्टर माइंड आतंकी सरगना मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र के द्वारा वैश्विक आतंकवादी घोषित किए जाने का श्रेय लेते हुए इसे अपनी सरकार का सर्जिकल स्ट्राइक नंबर 3 घोषित किया था. इसी के जवाब में कांग्रेस ने कहा था कि यूपीए शासन में भी सेना ने छह बार सर्जिकल स्ट्राइक की थी. लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए इसका कभी ढिंढोरा नहीं पीटा था. कांग्रेस के छह सर्जिकल स्ट्राइक्स की ताईद मोदी सरकार के पहले सर्जिकल स्ट्राइक के हीरो रहे लेफ्टिनेंट जनरल डी एस हुड्डा ने भी की है. 

मसूद अजहर, वैश्विक आतंकवादी
आतंकी सरगना मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र के द्वारा वैश्विक आतंकवादी घोषित किए जाने के लिए भारत सरकार और खासतौर से भारतीय राजनय, संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत सैयद अकबरुद्दीन बधाई और सराहना के हकदार हैं. लेकिन क्या वाकई मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करना प्रधानमंत्री जी के शब्दों में ‘सर्जिकल स्ट्राइक 3’ है! संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सैंक्शन (प्रतिबंध लगानेवाली) समिति के प्रस्ताव को देखें तो माजरा कुछ और ही नजर आता है. मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के पुराने प्रस्तावों पर चीन वीटो लगाते रहा लेकिन इस बार जब प्रस्ताव को संशोधित करके पेश किया गया तब जाकर चीन उस पर से अपना वीटो हटाने को राजी हुआ. इसके अलावे भारत के साथ चीन का जो कूटनीतिक आदान प्रदान हुआ, सो अलग है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के संशोधित प्रस्ताव में जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों और खासतौर से 14 फरवरी को पुलवामा में हुए आतंकी हमले में मसूद अजहर और उसके आतंकी संगठन जैश ए मोहम्मद की सहभागिता का जिक्र ही नहीं है. गौरतलब है कि इस हमले में हमारे सीमा सुरक्षा बल के 40 जवान शहीद हो गए थे. इसकी जिम्मेदारी जैश ए मोहम्मद के खूंखार आतंकी सरगना मसूद अजहर और उसके संगठन ने ली थी. लेकिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का संशोधित प्रस्ताव कहता है, ‘‘मसूद अजहर के अलकायदा और तालिबान के साथ जुड़ा होने के साथ ही अफगानिस्तान में पश्चिमी ताकतों से लड़ने के लिए लड़ाकों की भर्ती का आह्वान करने के लिए उसे ‘वैश्विक आतंकवादी’ घोषित किया जाता है.’’ इस प्रस्ताव के बारे में अमेरिकी सीएनएन (केबल न्यूज नेटवर्क) की रिपोर्ट का अंश देखें, 

"Azhar was sanctioned for his association with terror organizations such as Al-Qaeda and for "participating in the financing, planning, facilitating, preparing, or perpetrating of acts or activities" associated with JeM, the ISIL (Da'esh) and Al-Qaida Sanctions Committee said in a statement. Azhar's alleged association with the bombing in February, an attack on the Indian parliament in 2001 and other incidents in the Kashmir valley have not been listed in the statement."

कंधार में मसूद अजहर को आतंकवादियों के सुपुर्द करते तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह
इसके बावजूद अगर प्रधानमंत्री मोदी अपनी पीठ थप थपाना चाहें तो उन्हें कौन रोक सकता है. लेकिन अगर यह प्रस्ताव सर्जिकल स्ट्राइक नंबर 3 है तो फिर जनवरी 2001 के पहले सप्ताह में मसूद अजहर और उसके साथ दो अन्य खूंखार आतंकवादियों को भारत की जेल से निकालकर तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह की देख रेख में भारी माल असबाब के साथ ससम्मान विमान में ले जाकर अफगानिस्तान के कंधार में उसके आतंकवादी साथियों को सौंपना क्या था! और फिर यूपीए सरकार के जमाने में हुए सैन्य आपरेशनों को कागजी बताकर कांग्रेस का उपहास करने वाले प्रधानमंत्री मोदी जी को यह बात याद है कि 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर आतंकी हमले के मास्टर माइंड, लश्करे तैयबा के मुखिया हाफिज सईद को 14 दिन के भीतर, 10 दिसंबर 2008 को मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा इसी संयुक्त राष्ट्र की 
सुरक्षा परिषद से अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करवाया था. मोदी जी उसे कौन सा सर्जिकल स्ट्राइक नंबर कहेंगे! 

हाफिज सईद, वैश्विक आतंकवादी
हालांकि हाफिज सईद का वैश्विक आतंकी घोषित होने के बावजूद बाल भी बांका नहीं हुआ. वह अब भी बड़े ठाठ के साथ पाकिस्तान में अपने प्रतिबंधत संगठन ‘लश्करे तैयबा’ का नाम बदल कर ‘जमात उद् दावा’ और उसके चैरिटी विंग फलह ए इंसानियत फाउंडेशन के नाम से सक्रिय रहते हुए आतंकी गतिविधियां संचाालित करते रहा है. पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान ने ‘जमात उद् दावा’ और ‘फलह ए इंसानियत फाउंडेशन’ पर भी प्रतिबंध लागू कर दिया है. सुरक्षा विशेषज्ञ कहते हैं कि इन खूंखार आतंकी सरगनाओं के विरुद्ध पश्चिमी देशों और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को खुश करने के लिए दिखावे के तौर पर पाकिस्तान चाहे कुछ भी कहे, करे, असल में वह इन्हें पालता पोसता और इनका भारत में आतंकी गतिविधियों को संचालित करने के मामले में इस्तेमाल करता है.

सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार प्रधानमंत्री मोदी को बात बेबात अपनी ‘उपलब्धियों’, वैश्विक नेताओं के साथ अपने बेहद करीबी, तू के संबोधनवाले रिश्तों का इस्तेमाल कर इन दोनों आतंकवादी सरगनाओं को भारत लाकर उन पर मुकदमा चलवाना और उन्हें उनके किए की सजा  दिलवानी चाहिए थी. और हां, उस दाऊद इब्राहिम कास्कर का क्या हुआ! 12 मार्च 1993 को मुंबई में हुए सीरियल बम धमाकों का वह मास्टर माइंड, तस्कर सम्राट, आतंकी सरगना भी तो  पाकिस्तान में ही जड़ जमाए बैठा है. मोदी जी को अपनी घर में घुसकर मारने की नीति उसके मामले में शिथिल क्यों पड़ गई. वह तो न जाने कब से उसे वापस लाकर उसके किए की सजा दिलाने की बात करते आ रहे (इधर आप उसकी चर्चा कुछ कम करने लगे हैं) थे. क्या हुआ, कोई समस्या, दबाव!

मेदी जी लोकसभा चुनाव के लिए अपने प्रचार अभियान के दौरान लगातार कह रहे हैं कि उनके पांच वर्षों के शासन में देश में कोई आतंकवादी हमला नहीं हुआ और महाराष्ट्र को नक्सल मुक्त कर दिया गया है. तो फिर उरी, पठानकोट एयरबेस और अभी पुलवामा में हुए आतंकवादी हमलांे और अभी चंद रोज पहले महाराष्ट्र के गढचिरोली जिले में नक्सलियों द्वारा हमारे  हमारे 16 जवानों को सड़क पर आइईडी ब्लास्ट के जरिए मौत के घाट उतार दिए जाने को क्या कहेंगे! उरी, पठानकोट, पुलवामा में आतंकी हमलों, सीमा पर लगातार युद्ध विराम के उल्लंघन, गढ़चिरोली तथा, दंडकारण्य एवं देश के अन्य इलाकों में आए दिन नक्सली हमलों में शहीद होनेवाले हमारे जवानों के शव लगातार उनके घर पहुंचते रहने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी अगर यह कहते हैं कि उनके ही हाथों में देश सुरक्षित है! तो इस पर हंसी नहीं रोना ही आ सकता है. 
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इतिहास-भूगोल का प्रधानमंत्री मोदी का ‘विलक्षण ज्ञान’ (Factual blunders in Prime Minister Modi Speeches)

इतिहास-भूगोल का प्रधानमंत्री मोदी का ‘विलक्षण ज्ञान’ 

जयशंकर गुप्त               

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
ताजा प्रकरण मध्य प्रदेश का है. मई 2019 के पहले सप्ताह में इटारसी की चुनावी सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म होशंगाबाद जिले में बता दिया. उन्होंने कहा, ‘इसी धरती पर पैदा हुए मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था- नर हो न निराश करो मन को, जग में रह कर कुछ नाम करो.’ प्रधानमंत्री का भाषण सुनकर आश्चर्यचकित होशंगाबाद के लोग एक दूसरे से राष्ट्र कवि गुप्त के बारे में पूछ रहे हैं तो जानकार लोगों की हंसी रुकने का नाम नहीं ले रही. दूसरी तरफ, मैथिलीशरण गुप्त जहां से थे, चिरगांव, झांसी (उत्तर प्रदेश) वाले माथा पकड़ कर बैठे हैं.

कमलनाथ, मुख्यमंत्री म.प्र.
इस पर तंज कसते हुए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने ट्वीट किया, ‘आज आपने एमपी के होशंगाबाद के इटारसी में अपनी सभा में राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त का जिक्र करते हुए, उन्हें होशंगाबाद का बता दिया. जबकि उनका जन्म 3 अगस्त 1886 को यूपी के चिरगांव में हुआ था, होशंगाबाद के तो पंडित माखन लाल चतुर्वेदी थे. सोचा आपकी जानकारी दुरुस्त कर दूं।’

इसी दिन राजस्थान में एक चुनावी सभा में प्रधानमंत्री मोदी जी ने चुरु को पाकिस्तान की सीमा पर स्थित बता दिया. राजस्थान के लोग भी प्रधानमंत्री के ‘इतिहास-भूगोल ज्ञान’ पर हंस रहे हैं. एक सप्ताह पहले महाराष्ट्र के लातूर की एक चुनावी सभा में मोदी जी ने कहा, ‘‘कांग्रेस वालों ने बाला साहेब ठाकरे की नागरिकता को छीन लिया था. उनके मतदान करने का अधिकार छीन लिया था..’’
शिवसेना संस्थापक स्व. बाल ठाकरे
सच यह है कि शिव सेना के संस्थापक स्व. बाल ठाकरे के चुनाव लड़ने और वोट देने पर प्रतिबंध कांग्रेस की सरकार ने नहीं लगाया था बल्कि देश के राष्ट्रपति के रेफर करने पर चुनाव आयोग ने बाल ठाकरे के लिए यह सजा तय की थी और उस दौरान देश में कांग्रेस की नहीं बल्कि भाजपा की सरकार थी और भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे.
नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री
उपरोक्त कुछ उद्धरण हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विलक्षण ऐतिहासिक, भौगोलिक ‘ज्ञान’ के कुछ नमूना भर हैं. अपने पांच वर्षों के कार्यकाल में और उससे पहले भी वह गाहे बगाहे ऐसा कुछ बोलते, अपने इतिहास-भूगोल का ‘ज्ञान’ बघारते और हंसी के पात्र बनते रहे हैं. मजेदार बात यह है कि अब तो उनके पास भारी भरकम प्रधानमंत्री कार्यालय में विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ भाषण लेखकों और तथ्य चेक करनेवालों का भारी लवाजमा है. इसके बावजूद वह गाहे बगाहे गलत तथ्य क्यों बोल जाते हैं. क्या जानबूझकर!

चाणक्य और चंद्रगुप्त
उनके कुछ गलत तथ्यवाले भाषणों के और नमूने देखें- बिहार में पिछले लोकसभा और विधानसभा के चुनावी भाषणों में उन्होंने बताया कि तक्षशिला बिहार में है, गुप्त वंश के थे चंद्रगुप्त, चाणक्य बिहार में पैदा हुए थे और सिकंदर का ‘दीने इलाही’ बेड़ा पटना के पास गंगा में डूबा था. सच यह है कि तक्षशिला पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में है, चंद्रगुप्त गुप्त मौर्य वंश के संस्थापक थे. चाणक्य तक्षशिला में शिक्षक थे और वहीं से बिहार, पाटलिपुत्र आए थे. सिकंदर व्यास नदी के इस पार आया ही नहीं था. पंजाब से ही लौट गया था और फिर ‘दीन ए इलाही’ सिकंदर का सैन्य बेड़ा नहीं बल्कि अकबर के द्वारा शुरू किया गया समरूप धर्म था जिसमें सभी धर्मों के मूल तत्वों का समावेश था. 

मोदी जी ने एक बार कहा कि प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्यामा प्रसाद मुखर्जी गुजरात की मिट्टी में पैदा सपूत थे जो लंदन में रहकर क्रांतिकारियों का सहयोग करते थे. वहां वह स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती के संपर्क में रहते, उनसे परामर्श करते थे. उन्होंने इच्छा जताई थी कि मरने के बाद उनकी अस्थियां आजाद भारत के गुजरात में प्रवाहित की जाएं.
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और स्वामी विवेकानंद
सच यह है कि जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी पश्चिम बंगाल में कोलकाता के थे और उनका निधन आजाद भारत में जम्मू-कश्मीर की एक जेल में हुआ था और फिर जब डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक साल के थे तो स्वामी विवेकानंद का निधन हो गया था. दयानंद सरस्वती का निधन तो मुखर्जी के जन्म से काफी पहले हो चुका था. दरअसल, मोदी जी प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा के बारे में बोलना चाह रहे थे, जो गुजरात के थे लेकिन मोदी जी उनकी जगह बार बार श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम ले रहे थे.

 प्रधानमंत्री मोदी ने एक प्रमुख हिंदी दैनिक को दिए एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में कहा कि ‘‘सरदार पटेल की अंत्येष्टि में नेहरू शामिल नहीं हुए थे.’’ लेकिन पटेल की अंत्येष्टि के मौके की तस्वीरें बताती हैं कि उनकी शव यात्रा में नेहरू सरदार पटेल के बेटी-बेटे के साथ चल रहे थे.
आदित्यनाथ, संत कबीर, गुरु नानकदेव
मोदी जी ने उत्तर प्रदेश के मगहर में राज्य के मुख्यमंत्री और गुरु गोरक्षनाथ पीठ के पीठाधीश्वर आदित्यनाथ के साथ मंच साझा करते हुए कहा, ‘‘संत कबीर, गुरु गोरखनाथ और गुरु नानकदेव एक साथ यहीं मगहर में बैठकर आध्यात्मिक विमर्श करते थे.’’ सच यह है कि तीनों संत महात्माओं के कालखंड में भारी अंतर है. गुरु गोरक्षनाथ 11हवीं शताब्दी के प्रारंभ में, संत कबीर 15हवीं शताब्दी तथा गुरुनानक देव 15 अप्रैल 1469 से लेकर 22 सितंबर 1539 तक थे.
अटल बिहारी वाजपेयी और सीताराम केसरी
25 सितंबर 2018 को भोपाल में भाजपा कार्यकर्ताओं के महाकुम्भ में उन्होंने कहा, ‘‘1984 में भाजपा बुरी तरह से चुनाव हारी थी. अटल जी भी तो चुनाव हारे थे, तब हमने तो ईवीएम का रोना नहीं रोया था! सच यह है कि उस समय देश में चुनाव ईवीएम से होते ही नहीं थे. उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने अपने अध्यक्ष सीताराम केसरी का अपमान किया क्योंकि वह दलित समाज से थे जबकि केसरी वैश्य थे.
इंदिरा गांधी और बेनजीर भुट्टो
यही नहीं, दावोस में विश्व आर्थिक मंच पर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि उन्हें 600 करोड़ भारतीय मतदाताओं ने प्रधानमंत्री चुना है. जबकि पूरी दुनिया की आबादी भी शायद 600 करोड़ से कम ही होगी. फरवरी 2018 के पहले सप्ताह में संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के जवाब में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि ‘शिमला समझौता इंदिरा गांधी और बेनजीर भुट्टो के बीच हुआ था.’ सच यह है कि 1971 में शिमला समझौता भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के उस समय के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच हुआ था. उस समय बेनजीर 16 बरस की थी.

9 मई, 2018 को कर्नाटक के बीदर में  विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार कर रहे मोदी जी ने कहा, ‘‘कांग्रेस का कोई नेता फांसी से पहले देश की आजादी के लिए लड़ रहे शहीद भगत सिंह और उनके साथियों से जेल की काल कोठरी में मिलने नहीं गया था. अब लोग भ्रष्टाचारियों से मिलने जेल में जा रहे हैं.’’
जवाहरलाल नेहरू
इस झूठ का खुलासा 10 अगस्त 1929 के ट्रिब्यून अखबार की एक कतरन से हुआ जिसमें जवाहरलाल नेहरू के बयान के अनुसार वह 9 अगस्त 1929 को लाहौर सेंट्रल जेल में गए थे और भगत सिंह और उनके साथियों से मिले थे जो उस समय भूख हड़ताल पर थे. 
नरेंद्र मोदी
मोदी जी का एक और मजेदार उद्धरणः ‘‘मैंने जब लालकिले से आग्रह किया था कि जो लोग सक्षम हैं, उन्हें गैस पर मिलनेवाली सबसिडी छोड़ देनी चाहिए. मेरी इतनी सी बात पर सवा सौ करोड़ परिवारों ने गैस पर मिलनेवाली सबसिडी छोड़ दी थी.’’ उस समय संपूर्ण भारत में कुल परिवारों की संख्या 25 करोड थी.

पिछले साल 3 मई को कर्नाटक विधानसभा के चुनाव के समय चुनावी रैली में मोदी जी ने कहा कि ‘‘कर्नाटक बहादुरी का पर्याय माना जाता है, लेकिन कांग्रेस सरकार ने फील्ड मार्शल के एम करियप्पा और जनरल थिमय्या के साथ कैसा बर्ताव किया?’’ 

उन्होंने कहा, ‘‘1948 में जनरल थिमैया के नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान से युद्ध जीता लेकिन उस पराक्रम के बाद कश्मीर को बचाने वाले जनरल थिमैया का तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू और रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन ने बार-बार अपमान किया जिसके बाद उन्हें अपने सम्मान की खातिर अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था.’’ सच यह है कि वी कृष्ण मेनन अप्रैल 1957 से लेकर अक्टूबर, 1962 तक देश के रक्षा मंत्री थे. वहीं जनरल थिमय्या मई, 1957 से मई 1961 तक ही सेनाध्यक्ष थे.

जनरल करियप्पा के बारे में उन्होंने कहा, ‘‘1962 के भारत-चीन युद्ध में फील्ड मार्शल करियप्पा का रोल इतिहास की तारीखों में दर्ज है. उनके साथ कांग्रेस की सरकारों ने कैसा व्यवहार किया था.’’

सच यह है कि जनरल करियप्पा 1953 में ही रिटायर हो गये थे. 1949 में नेहरू सरकार ने उन्हें सेना का कमांडर इन चीफ बनाया था. 1986 में राजीव गांधी की सरकार ने उन्हें फील्ड मार्शल का रैंक प्रदान किया था.

मई, 2019 के दूसरे सप्ताह में प्रधान मंत्री मोदी ने एक खबरिया चैनल (न्यूज नेशन) के अपने प्रिय पात्र पत्रकार दीपक चौरसिया को दिए गए ट्रांस्क्रिप्टड इंटरव्यू में चौंकानेवाला दावा किया कि उन्होंने 1987-88 में डिज़िटल कैमरे से  आडवाणी जी के किसी कार्यक्रम की रंगीन फोटो खींच email से भेजा था। हमारे महा ज्ञानी प्रधानमंत्री को कौन समझाए कि email का  प्रचलन  ही भारत में  90 के दशक में में शुरु हुआ. फिर  आपने 1987-88 में ही ईमेल भेज दिया और फिर, उस समय डिजिटल कैमरा भी कहां था!

यह सब और इससे भी ज्यादा ऐतिहासिक, भौगोलिक ज्ञान के ‘सच’ हमारे प्रधानमंत्री जी के मुखारविंद से आए दिन निकलते रहे हैं. लेकिन कभी भी उन्हें अपने इस ‘विलक्षण ज्ञान’ पर मलाल नहीं रहा और न ही उन्होंने अपने इस तरह के ’ज्ञान’ के सार्वजनिक प्रदर्शन पर कभी अफसोस ही जाहिर किया. आनेवाली पीढ़ियां देश के इसी तरह के ‘इतिहास, भूगोल के ज्ञान’ को अर्जित करेंगी!
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