Tuesday, 5 October 2021

HAL FILHAL: TURMOIL IN CONGRESS


कांग्रेस में बवाल


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/EPk4Jo3oOsE

    
    
    पंजाब में कांग्रेस के कथित ‘मास्टर स्ट्रोक’ को लेकर बवाल है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. एक तरफ पंजाब प्रदेश कांग्रेस के त्यागपत्र दे चुके अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू और मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी यानी पंजाब सरकार के बीच हुए समझौते को लेकर असमंजस बना हुआ है. सिद्धू राज्य के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) को तत्काल बदलने की जिद पकड़े हैं जबकि मुख्यमंत्री चन्नी कह रहे हैं इकबाल प्रीत सिंह सहोता को अभी केवल अंतरिम डीजीपी का प्रभार दिया गया है. नये डीजीपी के लिए दस नाम संघ लोकसेवा आयोग के पास भेज दिए हैं. वहां से क्लीयर होकर तीन नाम आते ही उनमें से किसी एक को नये और पूर्णकालिक डीजीपी के रूप में नियुक्त कर लिया जाएगा. लेकिन सिद्धू अभी भी मुंह फुलाए बैठे हैं. उन्होंने अपना त्यागपत्र वापस नहीं लिया है. कांग्रेस के आलाकमान ने भी लगता है कि उन्हें और भाव नहीं देने का तय कर लिया है. अगर वह अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ सार्वजनिक मंचों से बोलना बंद नहीं करते तो नए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की नियुक्ति की जा सकती है.

    

अमित शाह के साथ अमरिंदर: किसका खेल बिगाड़ेंगे !

    दूसरी तरफ आशंकाओं को सच साबित करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस से नाता तोड़ने की घोषणाएं कर रहे हैं. नई दिल्ली में गृह मंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल से उनकी मुलाकात के बाद से ही अटकलें लग रही हैं कि भाजपा के परोक्ष समर्थन-सहयोग से वह नई पार्टी बना सकते हैं. किसान हितों को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार से विवादित कृषि कानूनों को रद्द करवाकर या उनमें कुछ संशोधन करवाकर पंजाब में वह कांग्रेस का चुनावी खेल बिगाड़ने का खेल खेल सकते हैं. उन्हें उम्मीद है कि चन्नी मंत्रिपरिषद से बाहर हुए मंत्रियों और चुनाव के समय कांग्रेस के टिकट से वंचित उनके करीबी कांग्रेसी उनके साथ आ सकते हैं. अकाली दल और आम आदमी पार्टी के असंतुष्ट और अलग हुए धड़ों के भी उनसे जुड़ने की बातें कही जा रही हैं. हालांकि अभी तक कांग्रेस का कोई बड़ा नेता और विधायक उनके साथ खुलकर सामने नहीं आया है. लेकिन वह खुद लगातार आक्रामक हैं और कांग्रेस आलाकमान के विरुद्ध सक्रिय जी 23 के नेताओं के साथ भी संपर्क बनाए हुए हैं. कांग्रेस में आलाकमान के विरुद्ध एक अरसे से सक्रिय जी23 समूह के नेता भी पंजाब के बदले घटनाक्रमों के मद्देनजर मुखर हो गए हैं.

कांग्रेस का बेहतर सामाजिक समीकरण


    

बाएं से रंधावा, चन्नी, सिद्धू और सोनीः बेहतर सामाजिक समीकरण

    दरअसल, नेतृत्व परिवर्तन और चरणजीत सिंह चन्नी के रूप में पंजाब में पहला दलित मुख्यमंत्री और जाट सिख सुखजिंदर सिंह रंधावा और हिंदू नेता ओपी सोनी को उपमुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस आलाकमान को लगने लगा था कि इस बेहतर सामाजिक समीकरण से उसे लगातार दूसरी बार पंजाब का राजनीतिक किला फतेह कर लेने में आसानी होगी. पंजाब में दलित मतदाताओं की संख्या तकरीबन 32 फीसदी और जाट सिख मतदाताओं की संख्या तकरीबन 22 फीसदी बताई जाती है. कांग्रेस आलाकमान को लगा इस सामाजिक समीकरण के साथ सिद्धू के रूप में जाट सिख प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और चन्नी के रूप में दलित मुख्यमंत्री को सामने रखकर वह अगले विधानसभा चुनाव में बड़े बहुमत से जीत हासिल कर राज्य में दोबारा सत्तारूढ़ हो सकेगी. चन्नी की सक्रियता, उनके कुछ शुरुआती जन-किसान हितैषी फैसलों और घोषणाओं के बाद इस तरह का माहौल भी बनने लगा था. 

    लेकिन एक तो नेतृत्व परिवर्तन के तरीके से खुद को अपमानित महसूस करने वाले अमरिंदर सिंह की बगावत और फिर चन्नी सरकार के काम शुरू करते ही उसके कुछ फैसलों को लेकर नाराज सिद्धू के त्यागपत्र का इसमें फच्चर लग गया. प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से सिद्धू के औचक त्यागपत्र ने अगले साल मार्च महीने में उम्र के अस्सी साल पूरा रहे अमरिंदर सिंह को नये सिरे से सक्रिय होने और सिद्धू के साथ ही कांग्रेस आलाकमान के खिलाफ भी आक्रामक होने का बहाना दे दिया. उन्होंने सिद्धू को अस्थिर दिमाग तथा राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को अनुभवहीन करार देते हुए आरोप लगाया कि सिद्धू के दबाव में उन्हें अपमानित कर अपदस्थ किया गया. हालांकि शुरुआती ना नुकुर के बाद ही भाजपा नेताओं के साथ उनकी मेल-मुलाकातों और बयानबाजियों ने साबित किया है कि अमरिंदर सिंह को हटाने का आलाकमान का फैसला कितना सही था ! कांग्रेस आलाकमान लगातार अपने पूर्व कैप्टन की राजनीतिक गतिविधियों पर नजर रखे हुए है.
 

आलाकमान को सिद्धू का झटका

    
    

नवजोत सिंह सिद्धूः नाराजगी की राजनीति !

    लेकिन कांग्रेस आलाकमान को जोर का झटका तब लगा जब नवजोत सिंह सिद्धू ने चन्नी सरकार में अपनी अनदेखी के आरोप लगाते हुए अचानक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र की घोषणा कर दी. जिस तरह से तत्कालीन मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की अनिच्छा के बावजूद ढाई महीने पहले सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था, आलाकमान ने सपने में भी नहीं सोचा था कि सिद्धू इतनी जल्दी रंग बदलने लगेंगे.दरअसल, चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही लगातार दो दिनों तक उनके साथ साए की तरह लगे रहे और गाहे बगाहे उनकी पीठ पर हाथ धरते हुए सिद्धू ने खुद को सुपर सीएम और चन्नी को कागजी मुख्यमंत्री समझकर व्यवहार करना शुरू कर दिया था. उन्होंने संकेत देने शुरू कर दिए कि विधानसभा का अगला चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा. तब पंजाब के प्रभारी हरीश रावत के एक ट्वीट से भी गलतफहमी हुई कि विधानसभा का चुनाव सिद्धू के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. इसको लेकर तमाम तरह के सवाल उठने लगे. बाद में आलाकमान को सफाई देनी पड़ी कि चुनाव प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सिद्धू और मुख्यमंत्री चन्नी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. उधर, राजनीति के अनुभवी और मजे खिलाड़ी की तरह चन्नी ने शुरू में ही अपने कुछ राजनीतिक और जन हितैषी फैसलों के साथ आम आदमी से जुड़ाव वाले नेता की अपनी छवि पेश कर साफ कर दिया कि वह कागजी अथवा रबर स्टैंप मुख्यमंत्री नहीं हैं. सिद्धू को भी अपनी हैसियत का जल्दी ही अंदाजा लग गया. उन्हें यह एहसास भी सताने लगा कि कांग्रेस के चुनाव जीतने के बाद भी मुख्यमंत्री पद पर उनका नंबर नहीं लगनेवाला. तब भी चन्नी ही मजबूत दावेदार होंगे.

चरणजीत चन्नीःरबरस्टैंप मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे!

    इस बीच चन्नी सरकार के एक दो विवादित फैसलों ने उन्हें मौका दे दिया और उन्होंने त्यागपत्र देकर आलाकमान की उलझन बढ़ा दी. अपनी नाराजगी और त्यागपत्र का कारण उन्होंने बताया कि एक तो मुख्यमंत्री चन्नी ने उन्हें भरोसे में लिए बगैर अपनी मंत्रि परिषद बना ली और फिर उनके विरोध को दरकिनार कर उनकी सरकार ने डीजीपी के पद पर विवादित इकबाल प्रीत सिंह सहोता तथा एडवोकेट जनरल के पद पर अमनप्रीत सिंह देओल की नियुक्ति कर दी. सिद्धू इन दोनों पर बेअदबी मामले में दोषी नेताओं और पुलिस अफसरों की मदद करने और उनका केस लड़ने के आरोप लगाते रहे हैं. वह इन पदों पर क्रमशः सिद्धार्थ चट्टोपाध्याय और डी एस पटवालिया एडवोकेट को बिठाना  चाहते थे. लेकिन उनकी नहीं सुनी गई और उन्होंने पद त्याग कर दिया. यही नहीं, वह सार्वजनिक मंचों से सरकार के विरुद्ध खुलकर बोलने लगे.

    लेकिन सिद्धू की तुनकमिजाजी और बात-बात पर बतंगड़ बनाने की उनकी कार्यशैली को लेकर कांग्रेस का आलाकमान भी नाराज हुआ. आलाकमान ने उनका त्यागपत्र नामंजूर करते हुए कह दिया कि उनकी नाराजगी का मसला पंजाब के लोग आपस में ही मिल बैठकर निपटाएं. इस बीच पंजाब के लिए कांग्प्ररेस के भारी हरीश रावत को उत्तराखंड के विधानसभा के चुनाव में व्यस्त होने के नाम पर पंजाब से दूर कर सह प्रभारी हरीश चौधरी को काम पर लगा दिया गया. चौधरी और मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने नवजोत सिंह सिद्धू से मिलकर उनकी नाराजगी दूर करने के लिए ऐसा रास्ता निकालने की कोशिश की जिससे न सिद्धू को झुकना पड़े और न ही सरकार को. संगठन और सरकार में बेहतर समन्वय के लिए प्रभारी हरीश चौधरी, मुख्यमंत्री चन्नी और सिद्धू की एक समिति बनाकर कहा गया कि मह्तवपूर्ण मामलों पर निर्णय यह समिति आम राय से करेंगी. बेअदबी मामले में विवादित भूमिका वाले लोगों को डीजीपी और एडवोकेट जनरल बनाने को लेकर सिद्धू की आपत्तियों के मद्देनजर सरकार ने साफ किया कि इकबाल प्रीत सहोता को एडिशनल चार्ज दिया गया है. नये डीजीपी के लिए 10 नाम संघ लोकसेवा आयोग को भेज दिए गए हैं. वहां से जो तीन नाम फाइनल होंगे, सिद्धू की सहमति से उनमें से किसी एक को डीजीपी बनाया जाएगा. नए एडवोकेट जनरल देओल पर सिद्धू की आपत्ति के मद्देनजर श्रीगुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी से जुड़े मामलों से उन्हें परे रखकर उसकी पैरवी के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता राजविंदर सिंह बैंस को स्पेशल प्रॉसीक्यूटर बनाया गया.

    दरअसल, गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी का मामला पंजाब में और खासतौर से पंथिक सिख समुदाय की भावनाओं के साथ जुड़ा है. 2015 में बरगाड़ी गांव के गुरुद्वारा साहिब के बाहर भद्दी भाषा वाले पोस्टर लगाए और पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब के साथ बेअदबी क्रुद्ध सिख समाज में व्यापक आक्रोश और विरोध प्रदर्शन देखने को मिले थे. 2017 के विधानसभा चुनाव में इसकी कीमत अकाली दल और भाजपा गठबंधन सरकार को करारी हार के रूप में चुकानी पड़ी थी. अमरिंदर सरकार में भी इस मामले को लगातार हवा देते रहे सिद्धू उन पर बेअदबी मामले के गुनहगार नेताओं और अफसरों के प्रति नरमी बरतने के आरोप लगाते रहे. इस मामले में बीच के फार्मूले पर बनी सहमति के बाद लगा था कि सिद्धू त्यागपत्र वापस ले लेंगे. लेकिन ऐसा नहीं करके उन्होंने ट्वीट किया कि पद पर रहें अथवा नहीं कांग्रेस में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के साथ वह हमेशा खड़ा रहेंगे. उनके हाव भाव से लगता है कि चन्नी सरकार से उनकी नाराजगी दूर नहीं हुई है. वह सहोता और देओल को तत्काल हटाने की मांग पर अड़े हैं. राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि सिद्धू दिखाने के लिए भले इस मामले को तूल दे रहे हों, उनकी असली कसक सुपर सीएम की तरह काम नहीं कर पाने और अगले चुनाव में उन्हें कांग्रेस के इकलौते चेहरे के रूम में नहीं पेश किया जाना ही है. लेकिन अपनी ताजा हरकतों से सिद्धू कांग्रेस में अलग थलग पड़ते दिख रहे हैं. कांग्रेस आलाकमान ने भी साफ कर दिया है कि अगर वह नहीं मानते हैं तो उनकी जगह प्रदेश कांग्रेस की कमान किसी और को सौंपी जा सकती है. नए अध्यक्ष के रूप में पंजाब कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष कुलजीत सिंह माजरा और पूर्व मुख्यमंत्री सरदार बेअंत सिंह के पौत्र, लुधियाना के सांसद रवनीत सिंह बिट्टू के नाम भी उछलने लगे हैं. 

   मुखर हुए कांग्रेस के असंतुष्ट


कपिल सिब्बलः फैसलों पर सवाल

    पंजाब कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन के बाद इस तरह की उथल-पुथल से कांग्रेस में एक अरसे से सक्रिय असंतुष्ट नेताओं या कहें 'जी-23' के सदस्यों को भी खुलकर सामने आने का मौका मिल गया. कई वरिष्ठ नेता गांधी परिवार के नेतृत्व को खुलेआम चुनौती देने लगे हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि कांग्रेस में अभी कोई अध्यक्ष नहीं है. पता नहीं कि फ़ैसले कौन ले रहा है. सिब्बल के बयान को लेकर पार्टी के भीतर ही विवाद हो गया. जी-23 के नेता एक तरफ़ दिखे तो गांधी-नेहरू परिवार के वफ़ादार नेता दूसरी तरफ. सिब्बल के निवास पर युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन और तोड़-फोड़ भी की. जी 23 के नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद, मनीष तिवारी इसके विरोध में खुलकर सामने आए. आजाद ने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर कांग्रेस कार्य समिति की बैठक बुलाने की मांग की जिसमें पंजाब की उथल-पुथल और पार्टी से नेताओं के हो रहे मोहभंग पर चर्चा की जा सके. इस बीच उनके सुर में सुर मिलाते हुए पी चिदंबरम ने भी ट्वीट कर कहा, ''जब हम पार्टी के भीतर कोई सार्थक बातचीत नहीं कर पाते हैं तो मैं बहुत ही असहाय महसूस करता हूं. मैं तब भी आहत और असहाय महसूस करता हूं जब एक सहकर्मी और पूर्व सांसद के आवास पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के नारे लगाने वाली तस्वीरें देखता हूं.'' दूसरी तरफ़ पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, कांग्रेस के महासचिव अजय माकन और युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बीवी श्रीनिवास ने जी-23 के नेताओं के ख़िलाफ मोर्चा खोल दिया. उनकी तरफ से सिब्बल को बताया गया कि सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष हैं और वही फैसले कर रही हैं. हालांकि कांग्रेस आलाकमान ने अभी तक मुंह नहीं खोला है. कहा जा रहा है कि श्रीमती गांधी शीघ्र ही कांग्रेस कार्य समिति की बैठक बुलाकर उसमें ही इन सब मुद्दों पर बात कर सकती हैं.

    दरअसल, कांग्रेस में शिखर नेतृत्व के स्तर पर उहापोह और असमंजस की स्थिति ने भी असंतुष्ट स्वरों को अवसर दिया है. सोनिया गांधी की उम्र और खराब स्वास्थ्य के मद्देनजर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के खुलकर सामने नहीं आने और यह साफ नहीं करने के कारण भी कांग्रेस का संकट बढ़ रहा है कि वह पूर्णकालिक अध्यक्ष के रूप में कांग्रेस की कमान संभालेंगे कि नहीं. उनकी मौजूदा सक्रियता और आक्रामक तेवर भविष्य में भी जारी रहेंगे कि नहीं. कांग्रेस खेमे से लगातार इस तरह की सूचनाएं छनकर आ रही हैं कि राहुल गांधी अपने मन मिजाज की ‘लेफ्ट आफ दि सेंटर’ कांग्रेस बनाने की कवायद में लगे हैं. पिछले सप्ताह पूर्व कम्युनिस्ट युवा नेता कन्हैया कुमार और दलित युवा नेता, गुजरात के निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी को कांग्रेस में शामिल करवाकर उन्होंने इसी तरह के संकेत देने की कोशिश की है. लेकिन अपने मन मिजाज की कांग्रेस बनाने की उनकी गति बहुत धीमी है. गुजरात में भी अगले साल ही विधानसभा के चुनाव होने हैं. वहां अभी तक कांग्रेस का पूर्णकालिक अध्यक्ष तक नहीं है. इस तरह की शिकायतें अन्य कई राज्यों में भी हैं जहां संगठनात्मक पद लंबे अरसे से खाली पड़े हैं. राजस्थान, छत्तीसगढ़, मेघालय आदि राज्यों में भी नेतृत्व को लेकर अंदरूनी बवाल मचा है. 

    

सोनिया और राहुल गांधी: अपनों से चुनौती !

    लेकिन कांग्रेस में गांधी परिवार के वर्चस्व का विरोध कर रहे नेताओं ने भी अतीत में पार्टी को मजबूत करने के लिए ऐसा कुछ नहीं किया और ना ही ऐसा कोई चेहरा ही वे पेश कर सके जो आगे आकर कांग्रेस की कमान संभालने का दावा कर सके. जी 23 के अधिकतर नेताओं की अपने बूते कोई भी चुनाव लड़ने और जीतने की हैसियत नहीं दिखती. वे किसी और के भरोसे ही वैतरणी पार करने अथवा आलाकमान पर दबाव बनाकर कुछ हासिल करने की कवायद में लगे रहते हैं. राहुल गांधी अकेले जिस तरह से खुलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार, भाजपा, उनके करीबी पूंजीपतियों और आरएसएस के खिलाफ मोर्चा लेते हुए बोलते हैं, कांग्रेस के असंतुष्ट हों या वफादार खुलकर उनके साथ लामबंद नहीं दिखते. जी 23 के नेता जितने बयान और ट्वीट कांग्रेस आलाकमान के विरुद्ध देते दिखते हैं, उनकी वैसी ही आक्रामकता आरएसएस, भाजपा, प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के विरुद्ध नहीं दिखती. उनमें से कई तो मानसिक तौर पर भाजपा और संघ की मानसिकता के करीब ही दिखते हैं.

    जाहिर सी बात है कि कांग्रेस की इस अंदरूनी कलह से कल तक पंजाब में अपने अस्तित्व रक्षा की चिंता में लगी भाजपा के नेता अभी मजे लेने की स्थिति में आ गए हैं. वे कह रहे हैं कि भाजपा ने उत्तराखंड, कर्नाटक और गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन सुगमता से कर लिया लेकिन पंजाब में नेतृत्व परिवर्तन के बाद कांग्रेस में उथल-पुथल शुरू हो गई है. भाजपा नेतृत्व की निगाह पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह पर भी लगी हुई है. हालांकि कांग्रेस से नाता तोड़ने की घोषणाएं करते रहनेवाले अमरिंदर सिंह ने अभी तक व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं किया है. कांग्रेस आलाकमान को लगता है कि नवजोत सिंह सिद्धू को काबू में कर लिए जाने के बाद अमरिंदर के तेवर ढीले पड़ जाएंगे. कांग्रेस की अंदरूनी कलह के बीच कांग्रेस और एनसीपी के साथ महाराष्ट्र में महा विकास आघाड़ी की साझा सरकार का नेतृत्व कर रही शिवसेना ने कांग्रेस की अंदरूनी उथल पुथल पर तंज कसते हुए कहा है कि कांग्रेसियों ने ही कांग्रेस को डुबोने की सुपारी ले ली है. राहुल गांधी कांग्रेस के किले की मरम्मत कर किले की सीलन और गड्ढों को भरना चाहते हैं लेकिन पुराने लोग उन्हें ऐसा नहीं करने दे रहे हैं. शिवसेना के मुखपत्र सामना में ‘कांग्रेस का टॉनिक’ शीर्षक के तहत संपादकीय के अनुसार, लगता है कि राहुल गांधी को रोकने के लिए कांग्रेस के कुछ लोगों ने भाजपा से हाथ मिला लिया है.
 

ममता बनर्जी की चुनौती


    

ममता बनर्जीः निगाहें दिल्ली की ओर!

    लेकिन कांग्रेस का संकट सिर्फ अंदरूनी ही नहीं है. अतीत में कांग्रेस से अलग हुए नेता भी इसके लिए लगातार सिरदर्द बन रहे हैं. खासतौर से पश्चिम बंगाल में लगातार तीसरी बार प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ हुई तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी 2024 के संसदीय चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए विपक्ष की ओर से अपनी संभावित दावेदारी पेश करने लगी हैं. इसके लिए विभिन्न राज्यों में अपनी पार्टी को खड़ा करने के क्रम में वह भाजपा के साथ ही कांग्रेस में भी सेंध लगा रही हैं. पश्चिम बंगाल में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के पुत्र, पूर्व सांसद अभिजीत मुखर्जी और असम-त्रिपुरा में कांग्रेस के बड़े नेता रहे संतोष मोहन देव की पुत्री सुष्मिता देव के तोड़ लेने के बाद उन्होंने गोवा में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व मुख्यमंत्री लुइजिनो फलेरियो को अपनी पार्टी में मिला लिया. मेघालय में भी पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के उनके साथ जुड़ने की अटकलें जोर पकड़ रही हैं. हालांकि राहुल गांधी से मुलाकात के बाद लगता है कि मुकुल संगमा का मन बदल गया है. पश्चिम बंगाल में भाजपा से उनकी पार्टी में आ रहे सांसद, विधायकों की कतार के साथ ही भवानीपुर में उनकी खुद की तथा जंगीपुर और समसेरगंज के विधानसभाई उपचुनावों में भी उनकी पार्टी के उम्मीदवरों की भारी जीत से उनका मनोबल और बढ़ा है. कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार के विरुद्ध सक्रिय असंतुष्टों के साथ ही अतीत में कांग्रेस से अलग हुए आंध्र प्रदेश में वायएसआर कांग्रेस के नेता, मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के सी राव, शरद पवार की एनसीपी के लोग भी निकट भविष्य में उनके साथ राजनीतिक गठजोड़ कर सकते हैं. उनकी उम्मीदें ओडिशा में नवीन पटनायक, कर्नाटक में एच डी देवेगौड़ा के जनता दल एस, यूपी में अखिलेश यादव और बिहार में तेजस्वी यादव तथा कुछ और गैर कांग्रेसी, गैर भाजपा दलों और नेताओं के ऊपर भी टिकी हैं. इस बीच उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव भी कांग्रेस के इमरान मसूद और नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे नेताओं को तोड़कर कांग्रेस को कमजोर करने की कवायद में लगे हैं. बिहार में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद ने भी संकेत देना शुरू कर दिया है कि कांग्रेस ने बिहार में अपनी जमीनी सच्चाई को स्वीकार नहीं किया तो उसके साथ महा गठबंधन बनाए रखना मुश्किल होगा. बिहार विधानसभा के दो उपचुनावों में कांग्रेस और राजद के भी दोनों ही सीटों पर उम्मीदवार खड़ा कर देने से वैसे भी महागठबंधन बिखर सा गया है.जाहिर सी बात है कि आनेवाले दिनों में कांग्रेस के अंदरूनी घटनाक्रम और अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनावों के नतीजे भी कांग्रेस की भविष्य की राजनीतिक दशा और दिशा तय करने में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं.

नोट : तस्वीरें इंटरनेट के सौजन्य से  

Monday, 27 September 2021

Hal Filhal : Social Engineering by Political Parties in Uttar Pradesh



यूपी में सोशल इंजीनियरिंग का दौर


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/vQHW41wZiJo


    
    पांच-छह महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए राजनीतिक शतरंज की बिसात अभी से बिछनी शुरू हो गई है. पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी के रूप में पहला दलित मुख्यमंत्री दे कर कांग्रेस ने न केवल पंजाब बल्कि अन्य चुनावी राज्यों में भी अपने राजनीतिक विरोधियों को शह देने की कोशिश की है. हालांकि चुनाव आयोग की आचार संहिता लागू होने में महज तीन-चार महीने ही बाकी रह गए हैं, रविवार, 26 सितंबर को चन्नी मंत्रि परिषद के विस्तार में भी सामाजिक एवं क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखने की कोशिश की गई. चन्नी का दलित चेहरा सामने रखकर कांग्रेस उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी दलित, ब्राह्मण और अल्पसंख्यक मतदाताओं के अपने परंपरागत जनाधार को वापस पाने की कोशिश में है. दूसरी तरफ, सत्तारूढ़ भाजपा ने भी रविवार को ही योगी मंत्रि परिषद का विस्तार कर सोशल इंजीनियरिंग का अपना पुराना फार्मूला लागू करने की कोशिश की है. इसके साथ ही मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के रणनीतिकार भी यूपी में नए सिरे से सोशल इंजीनियरिंग में जुट गए हैं. सभी दलों का फोकस दलित और अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों के साथ ही सवर्ण ब्राह्मणों के बीच अपनी पैठ बढ़ाने और मजबूत करने पर केंद्रित होते दिख रहा है.

भाजपा आलाकमान की बेचैनी

   
    उत्तर प्रदेश को लेकर, पिछले विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ हुई भाजपा के आलाकमान का विश्वास कुछ डगमगा गया सा लगता है. कोरोना की महामारी में उचित इलाज और ऑक्सीजन के अभाव में बड़े पैमाने पर हुई मौतों, मृतकों के सम्मानजनक अंतिम संस्कार नहीं हो पाने के कारण नदी में तैरते और नदी किनारे रेत में दबे शवों की तस्वीरें सार्वजनिक होने, महंगाई, बेरोजगारी और किसान आंदोलन के साथ ही कानून-व्यवस्था की बदतर स्थिति, दलितों पर बढ़ते अत्याचार-उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाएं उत्तर प्रदेश में भाजपा के आलाकमान को परेशान किए हैं. उसे नहीं लगता कि मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान का उसका परंपरागत एजेंडा इस बार भी कारगर हो सकेगा. इसका एक कारण शायद यह भी है कि उसके तथा संघ परिवार की तरफ से हिंदू-मुसलमान के बीच नफरत का माहौल बनाने के इरादे से दिए जाने वाले उत्तेजक बयानों पर दूसरी तरफ से खास प्रतिक्रिया नहीं हो रही है. सांप्रदायिक दंगे नहीं हो रहे हैं. इस कारण सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी नहीं हो पा रहा है. भाजपा और संघ परिवार की इस रणनीति को निष्क्रिय बनाने में किसान आंदोलन और उसके नेता राकेश टिकैत की भूमिका भी महत्वपूर्ण मानी जा रही है. भाजपा शासन में प्रयागराज के प्रतिष्ठित बाघंबरी मठ के महंत और भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष नरेंद्र गिरि की हत्या-आत्महत्या की गुत्थी एवं दर्जन भर अन्य साधु-संतों की हत्या को लेकर हिंदू समाज वैसे भी उद्वेलित है. नरेंद्र गिरि की हत्या-आत्महत्या के मामले में उनके पांच सितारा शिष्य' आनंद गिरि के साथ ही भाजपा के नेता का नाम भी सामने आने से पार्टी की किरकिरी हुई है. आनंद गिरि के भी भाजपा नेताओं के साथ करीबी संबंध सामने आ रहे हैं. उन पर अपने गुरु को उनके कथित अश्लील वीडियो के सहारे ब्लैक मेल करने के आरोप हैं. 

    उत्तर प्रदेश में कभी सवर्ण ब्राह्मण-बनियों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा में इन दिनों और खासतौर से योगी आदित्यनाथ के शासन में जिस तरह से उनके सजातीय राजपूतों का वर्चस्व बढ़ा है ब्राह्मण समाज के लोग खुद को पीड़ित और उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. दलितों और पिछड़ी जातियों के उत्पीड़न, बच्चियों के साथ बलात्कार और हत्या की घटनाएं लगातार बढ़ने के कारण दलितों और पिछड़ी जातियों के बीच भी भाजपा के प्रति नाराजगी बढ़ी है. इस सबके चलते ही एक बार तो भाजपा आलाकमान ने राज्य में नेतृत्व परिवर्तन का मन भी बना लिया था लेकिन मुख्यमंत्री, योगी आदित्यनाथ के अड़ जाने के कारण ऐसा नहीं हो सका. इसके बाद ही भाजपा के रणनीतिकारों ने उत्तर प्रदेश में आदित्यनाथ के अलावा, ब्राह्मण समाज, दलित एवं अन्य पिछड़ी जातियों के बड़े चेहरे भी सामने लाने और उनके सहारे उनके जाति-समाज को आकर्षित करने के इरादे से भाजपा आलाकमान ने उत्तर प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग के अपने पुराने फार्मूले पर काम करना शुरू कर दिया है.

    
गृह मंत्री अमित शाह के साथ बेबी रानी मौर्या: यूपी भाजपा का दलित चेहरा !
    इस रणनीति के तहत ही पिछले पखवाड़े उत्तराखंड की राज्यपाल बेबी रानी मौर्या से त्यागपत्र दिलवाकर उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने की घोषणा के बावजूद भाजपा आलाकमान की योजना उन्हें उत्तर प्रदेश में भाजपा के दलित (जाटव) चेहरे के बतौर पेश करने की है. पूरे उत्तर प्रदेश में उनकी रैलियां-सभाएं करवाने के कार्यक्रम बन रहे हैं. इसके साथ ही भाजपा ने केंद्र सरकार में राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल के अपना दल और संजय निषाद की निषाद पार्टी के साथ चुनावी गठजोड़ की घोषणा भी की है. संजय निषाद वही हैं, जिनका ‘पैसे लेने’, ‘मार डालने’ जैसे विवादित बयानों का स्टिंग पिछले दिनों वायरल हुआ था. निषाद के साथ ही हाल ही में भाजपा में शामिल जितिन प्रसाद, वीरेंद्र गुर्जर एवं गोपाल अंजान को विधान परिषद में नामित कर भाजपा के पक्ष में सामाजिक समीकरण बनाने की कवायद रविवार, 26 सितंबर को की गई. इसमें से जितिन प्रसाद ब्राह्मण तथा बाकी तीन अन्य और अति पिछड़ी जातियों से हैं. 

    रविवार की शाम को ही भाजपा के आलाकमान के दबाव में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने अपनी मंत्रि परिषद का विस्तार भी किया लेकिन मंत्री-राज्य मंत्री उन्होंने अपनी और संघ की मर्जी से ही बनाए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पसंद के पूर्व नौकरशाह, विधान पार्षद अरविंद शर्मा और निषाद पार्टी के संजय निषाद को उन्होंने मंत्री नहीं बनाया. इसके बजाय उन्होंने जितिन प्रसाद (ब्राह्मण) को मंत्री बनाने के साथ ही अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों के तीन लोगों-छत्रपाल गंगवार (कुर्मी), संगीता बिंद (निषाद) और धर्मवीर प्रजापति (कुम्भकार), गैर जाटव अनुसूचित जाति के पलटू राम और दिनेश खटिक के साथ ही अनुसूचित जनजाति के संजय गोंड को राज्य मंत्री बनाया. हालांकि यूपी में जितिन प्रसाद की पहिचान एक ब्राह्मण नेता के रूप में कभी नहीं रही, भाजपा के रणनीतिकार सोचते हैं कि वह इस सबसे बड़े राज्य में ब्राह्मणों की नाराजगी कुछ कम कर सकेंगे. वैसे भी, भाजपा के रणनीतिकारों को लगता है कि लाख नाराजगी के बावजूद ब्राह्मण और बनिए बड़े पैमाने पर भाजपा के साथ ही बने रहेंगे. 

मंत्रिपरिषद का विस्तार : मर्जी के मंत्री, राज्य मंत्री
    इस मंत्रि परिषद विस्तार के जरिए भाजपा ने ब्राह्मण समाज के साथ ही गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित जातियों को साधने की कोशिश की है. भाजपा की योजना इन नए मंत्रियों को उनके जातीय समूहों के बीच लाल बत्ती वाली गाड़ियों पर घुमाकर यह जताने की है कि देखो, मनुवादियों की पार्टी कही जानेवाली भाजपा दलितों और अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों का कितना खयाल रखती है. इसके पहले केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंत्रि परिषद के विस्तार में भी उत्तर प्रदेश से एक ब्राह्मण और आधा दर्जन राज्य मंत्री दलित और ओबीसी ही बनाए गए थे.

    हालांकि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव सिर पर होने, तीन-चार महीने बाद ही आचार संहिता लागू हो जाने के मद्देनजर एक तो प्रशासनिक अधिकारी मंत्रियों की वैसे भी नहीं सुनते और फिर राज्य मंत्रियों के पास गाड़ी पर लाल बत्ती लग जाने, बंगला, कार्यालय, सुरक्षा गार्ड और कुछ कारकून मिल जाने के अलावा वैसे भी कुछ काम नहीं होते. उनके सरकारी फाइलें बमुश्किल ही भेजी जाती है. इसको लेकर दलित एवं अति पिछड़ी जातियों के बीच उनके प्रतिनिधियों के साथ भेदभाव की शिकायत भी बढ़ सकती है. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने दलित और पिछड़ी जातियों के प्रति भाजपा के इस प्रेम को उसका ढोंग करार देते हुए कहा है कि अगर इतना ही प्रेम है तो भाजपा की केंद्र सरकार जातिगत आधार पर जनगणना क्यों नहीं करवाती. एक तरफ तो सार्वजनिक उपक्रमों को निजी पूंजीपतियों के हाथों बेचकर सरकार इन उपक्रमों की नौकरियों में आरक्षण समाप्त कर रही है और दूसरी तरफ उनके कुछ मंत्रियों को राज्य मंत्री बनाकर अपने दलित-ओबीसी प्रेम का दिखावा कर रही है. यूपी में दलितों-पिछड़ी जातियों पर अत्याचार उत्पीड़न लगातार बढ़ रहा है.

      अभी तक भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग गैर जाटव दलित एवं गैर यादव पिछड़ी जातियों के बीच पैठ बढ़ाने पर केंद्रित रही है. पिछले कुछ चुनावों में उसे इसका राजनीतिक डिविडेंड भी मिला है. भाजपा की रणनीति अब दलितों में भी सबसे अधिक जाटव (चमार) आबादी पर भी फोकस कर बसपा सुप्रीमो मायावती के परंपरागत जनाधार में सेंध लगाने की लगती है. शायद इसलिए भी जाटव समाज की बेबी रानी मौर्या को आगे किया जा रहा है. लेकिन रविवार की भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग में बेबी रानी मौर्या कहीं नहीं दिखीं. न विधानपरिषद में और न ही मंत्रि परिषद में! ऐसे में, कर्मकांडी भाजपा की श्राद्ध पक्ष में 'सोशल इंजीनियरिंग' पर आधारित यह चुनावी रणनीति कितनी कारगर होगी! पोगापंथी लोगों का प्रचार है कि श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य नहीं किए जाते. भाजपा के लोग भी अभी तक श्राद्ध पक्ष में हुए पंजाब में कांग्रेस के नेतृत्व परिवर्तन को लेकर मजे ले रहे थे लेकिन योगी आदित्यनाथ ने श्राद्ध पक्ष में ही अपनी मंत्रि परिषद के विस्तार में एक ब्राह्मण को मंत्री बनाकर इस टोटके को मिटा दिया है. 
 

ब्राह्मणों को दोबारा जोड़ने में लगी बसपा    


    
त्रिशूल धारी मायावती : छीजते जनाधार की चिंता!
    उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यक कभी कांग्रेस के परंपरागत जनाधार रहे हैं लेकिन 1980 के दशक के अंतिम वर्षों में राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के क्रम में ब्राह्मण भाजपा तथा अल्पसंख्यक मुसलमान समाजवादी पार्टी के करीब होते गए. उसी दौर में कांशीराम के बामसेफ आंदोलन और मायावती के साथ मिलकर उनकी बहुजन राजनीति और बहुजन समाज पार्टी के राजनीतिक परिदृश्य पर तेजी से उभरने के बाद उत्तर प्रदेश में दलित और खासतौर से जाटव बड़े पैमाने पर उनके साथ जुड़ते गए. तब उनका नारा होता था, ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ और ‘ब्राह्मण, बनिया, क्षत्रिय छोड़, बाकी सब हैं, डीएस 4’. इस दलित जनाधार के बूते ही मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री बनीं और प्रधानमंत्री बनने के सपने भी देखने लगीं. 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले मायावती ने सवर्ण ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं के जनाधार पर काबिज होने की गरज अपनी रणनीति में बदलाव किया. खासतौर से ब्राह्मणों को साधने की गरज से उन्होंने भाई चारा सम्मेलन शुरू किए. उनके नारे भी बदल गए, 'पंडित शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा', 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु, महेश है'. इस सोशल इंजीनियरिंग ने गजब का असर भी दिखाया और उन्होंने विधानसभा में 30.43 फीसदी वोटों के साथ 206 सीट हासिल कर पहली बार पूर्ण बहुमत की अपनी सरकार बनाई. 2009 के लोकसभा चुनावों में भी बसपा 27.4 फीसदी वोटों के साथ 21 सीटें जीतने में सफल रही. लेकिन साल 2012 में और उसके बाद भी उनके सोशल इंजीनियरिंग की चमक फीकी पड़ती गई. उनका जनाधार भी बिखरते गया. सबसे बड़ा झटका 2014 के लोकसभा चुनावों में लगा, जब यूपी में बसपा को वोट तो 20 फीसदी मिले लेकिन सीट एक भी नहीं मिल सकी. 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे 23 फीसदी वोट के साथ सिर्फ 19 सीटें ही मिलीं, जिनमें से अब सिर्फ सात ही साथ बचे हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ चुनावी तालमेल से उसे दस सीटें मिलीं लेकिन सपा से चुनावी तालमेल तोड़ लेने के बाद अब यकीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता कि उनमें से कितने मन से उनके साथ रह गए हैं.

    
बेटे के साथ बसपा के प्रबुद्ध (ब्राह्मण) सम्मेलन में सतीश मिश्र :
भाजपा से नाराज ब्राह्मण बसपा से जुड़ेंगे!
    अब एक बार फिर से मायावती और उनकी बसपा ब्राह्मणों की ओर रुख कर रही हैं. उनके सिपहसालार कहे जाने वाले राज्यसभा सांसद सतीश मिश्रा ब्राह्मण समाज को वापस बसपा से जोड़ने के इरादे से प्रबुद्ध वर्ग (ब्राह्मण) सम्मेलन कर रहे हैं. मिश्र कहते हैं कि यूपी में भाजपा सरकार में ब्राह्मण उपेक्षा और उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं. शासन-प्रशासन में उनकी उपेक्षा हो रही है. करीब दो दर्जन साधु-संत, पुजारियों की हत्याएं हो चुकी हैं. यह समाज इनके पास धर्म के नाम पर आया था. लेकिन जब देखा कि अयोध्या में भगवान राम के नाम पर भी लोगों को ठगा गया, तो ब्राह्मण अब भाजपा से विमुख हो रहे हैं. उनके अनुसार ब्राह्मण का मान-सम्मान और स्वाभिमान सिर्फ बीएसपी में ही सुरिक्षत है. बसपा ने अपने शासन में उन्हें उचित भागीदारी दी थी. हालांकि हाल के दिनों में रामवीर उपाध्याय जैसे बसपा के कई बड़े ब्राह्मण नेता पार्टी में उचित मान सम्मान नहीं मिलेने को ही बहाना बनाकर बसपा से दूर हुए है.

    लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि जिस दलित समाज को अपना कोर वोट मानकर बसपा सोशल इंजीनियरिंग का यह प्रयोग कर रही है, क्या वह पूरी तरह से उसके साथ है? अल्पसंख्यक समाज के लोग तो कबके उनका साथ छोड़ चुके हैं. सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश हो या देश के किसी अन्य हिस्से में अल्पसंख्यकों, ओबीसी और दलितों पर होने वाले अत्याचार-उत्पीड़न, दलित बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं को लेकर मायावती और उनकी बसपा को कभी आक्रामक और आंदोलित होते नहीं देखा गया. संघर्ष और आंदोलनों को वह समय नष्ट करने की कवायद मानते हुए अपने लोगों को संगठित होने की सलाह देते रही हैं. हालांकि जुलाई, 2017 में उन्होंने यह कहते हुए राज्यसभा से इस्तीफा दिया था कि अब वह संसद छोड़कर दलित-उत्पीड़न के खिलाफ सड़कों पर उतरेंगी. लेकिन तबसे उन्हें कहीं भी सड़क पर उतरते, आंदोलित होते नहीं देखा गया. केंद्र में हो अथवा उत्तर प्रदेश में भी वह सत्तारूढ़ दल के बजाय कांग्रेस और सपा जैसे विरोधी दलों के खिलाफ ही ज्यादा आक्रामक दिखती हैं. भाजपा के प्रति उनके नरम रुख के कारण, उनके राजनीतिक विरोधी उन्हें भाजपा की 'बी टीम' भी कहने लगे हैं. इसके चलते भी अल्पसंख्यक, ओबीसी और दलित समाज के लोग उनसे कटते गए. 2017 में जीते उनकी पार्टी के 18 विधायकों में से दस सपा तथा दो भाजपा के शिविर में दिखने लगे. अपने इस परंपरागत दलित जनाधार को एकजुट रखने और उसे विस्तार देने की गरज से ही मायावती ने पंजाब में ढाई दशक के बाद शिरोमणि अकाली दल के साथ चुनावी गठजोड़ किया. इस गठबंधन ने सत्ता मिलने पर किसी दलित को उप मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा भी की गई. लेकिन कांग्रेस ने पंजाब में एक दलित चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर उनकी इस चुनावी रणनीति ओर वादे की भी हवा निकाल दी है.

     
चंद्रशेखर : अपना कुछ बनाएंगे या मायावती का खेल बिगाड़ेंगे !
इस बीच मायावती के ही जाटव समाज के युवा नेता चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी पहली बार चुनाव मैदान में उतरने जा रही है. पूरे उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर दलित और खासतौर से-पढ़े लिखे दलित युवा उनके आक्रामक तेवरों के कारण उनकी तरफ आकर्षित भी हो रहे हैं. अभी यह तय नहीं है कि वह किस दल अथवा गठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे. उनकी बातचीत कांग्रेस के साथ ही सपा-लोकदल गठबंधन के साथ भी हो रही है. अगर उनका अखिलेश यादव की सपा और जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल के साथ चुनावी गठजोड़ हो गया और अगर कांग्रेस भी इस गठजोड़ का हिस्सा बन गई तो यह बसपा के साथ ही भाजपा के लिए भी बहुत भारी पड़ सकता है.

    संगठन और जनाधार की कमी से जूझती कांग्रेस


    कांग्रेस के साथ दिक्कत यही है कि उसके पास इस समय उत्तर प्रदेश में न तो कोई ठोस संगठन है और न ही कोई ऐसा नेता जिसकी पूरे उत्तर प्रदेश में अपनी धाक और पहिचान हो. जिस प्रियंका गांधी वाड्रा के नाम पर यूपी का चुनाव लड़ने की बात कही जा रही है, उनके प्रति उत्तर प्रदेश में और खासतौर से युवाओं और महिलाओं के बीच आकर्षण तो दिख रहा है, लेकिन उन्होंने अभी तक इस बात के ठोस संकेत नहीं दिए हैं कि वह यूपी में अपनी राजनीति को लेकर बहुत गंभीर हैं. कुछ दिन यूपी में सक्रिय रहने के बाद वह अचानक गायब सी हो जाती हैं.

प्रियंका गांधी वाड्रा : उत्तर प्रदेश को लेकर कितनी गंभीर !

कांग्रेेस के बड़े नेता रहे जितेंद्र प्रसाद के यूपीए शासन में केंद्र सरकार में राज्य मंत्री रहे युवा नेता जितिन प्रसाद के बाद पीढ़ी दर पीढ़ी कांग्रेस के साथ रहे कमलापति त्रिपाठी के प्रपौत्र ललितेशपति त्रिपाठी के भी नाता तोड़ लेने के बाद यूपी में कांग्रेस की हालत और भी पतली हो गई है. 2017 के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस के साथ सीटों का तालमेल करने के बावजूद कांग्रेस की हालत पतली ही रही. शायद इसलिए भी कांग्रेस में एक बड़ा तबका इस बार किसी से तालमेल करने के बजाय प्रियंका गांधी वाड़ा को सामने रखकर अपने बूते ही चुनाव लड़ने पर जोर दे रहा है. हालांकि अभी तक यह तय नहीं हो पा रहा है कि प्रियंका खुद भी विधानसभा का चुनाव लड़ेंगी कि नहीं!

    ज्यादा उत्साहित हैं अखिलेश !


     
अखिलेश यादव: भाजपा का दलित-पिछड़ा प्रेम दिखावा!
    समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश में भाजपा और योगी आदित्यनाथ के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है. सत्ता किसके हाथ लगेगी, यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन हर कोई मान रहा है कि यूपी में मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही होने वाला है. अखिलेश यादव के साथ उनके सजातीय यादव और अल्पसंख्यक मतदाता पूरी तरह से लामबंद दिख रहे हैं. अन्य पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों में भी उनका समर्थन इधर बढ़ा है. सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल पूरे उत्तर प्रदेश में यात्रा कर अपने सजातीय पटेल कुर्मी किसानों को सपा के साथ जोड़ने में लगे हैं. चाचा शिवपाल सिंह यादव के साथ अखिलेश यादव की अनबन खत्म सी हो गई लगती है. सपा और उनकी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के बीच चुनावी गठजोड़ हो जाने की बात भी कही जा रही है. इसके साथ ही जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल, केशवदेव मौर्य के महान दल, संजय चौहान की जनवादी पार्टी के साथ भी सपा का चुनावी गठबंधन हो गया है. भीम आर्मी के चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी के साथ भी उनके चुनावी गठजोड़ की बात चल रही है. ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ भाजपा की बात नहीं बन पाने की स्थिति में उनके भी इसी गठजोड़ के साथ आने की बात कही जा रही है. किसान आंदोलन और उसके नेता राकेश टिकैत का समर्थन भी इसी गठजोड़ को मिलने की बात कही जा रही है. 

    
लालजी वर्मा और राम अचल राजभर के साथ अखिलेश यादव :
 सामाजिक समीकरण बनाने की कवायद
  इधर भाजपा और बसपा से नाराज दलित एवं अन्य पिछड़ी जातियों के कद्दावर नेता भी अखिलेश यादव के साथ जुड़ते जा रहे हैं. विधायक दल के नेता और प्रदेश बसपा के अध्यक्ष रहे लाल जी वर्मा (कुर्मी) और राम अचल राजभर की अखिलेश यादव से बात हो गई है. बसपा के एक और बड़े, बुजुर्ग नेता विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव राजभर ने भी अखिलेश यादव का समर्थन किया है. उनके पुत्र सपा में शामिल हो गए हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ी जातियों में शुमार होने वाले राजभर मतों की अच्छी तादाद बताई जाती है.अखिलेश यादव परशुराम जयंती मनाने के साथ ही परशुराम का बड़ा मंदिर बनाने की बात कर ब्राह्मण समाज को भी साधने में लगे हैं. वह भी प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन कर रहे हैं. लेकिन कारण चाहे कोरोना प्रोटोकोल हो या कुछ और वह अभी खुलकर मैदान में नहीं दिख रहे हैं और फिर उनमें तथा उनके करीबी लोगों में चुनावी जीत को लेकर अति विश्वास भी कुछ ज्यादा ही दिख रहा है. 

    इस बीच आम आदमी पार्टी और सांसद असदुद्दीन ओवैसी की मजलिसे मुत्ताहिदा मुसलमीन और पीस पार्टी भी उत्तर प्रदेश के चुनावी समर में सक्रिय हो रहे हैं. हालांकि उनकी भूमिका अभी तक इस या उस दल अथवा गठबंधन का राजनीतिक खेल बनाने अथवा बिगाड़ने से अधिक नहीं दिख रही है. इस तरह से उत्तर प्रदेश में बिछ रही राजनीतिक शतरंज की बिसात पर मोहरे फिट करने, सामाजिक समीकरण बनाने और बिगाड़ने के खेल जारी हैं. भविष्य में इस खेल में कुछ और आयाम भी जुड़ेंगे जो अगले साल फरवरी-मार्च महीने में होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजे को प्रभावित करेंगे. 


Tuesday, 21 September 2021

Hal Filhal : Congress Master Stroke In Punjab !


पंजाब में कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक !


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/2DV4tvcoloo

   
     
इस समय राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन का दौर सा चल रहा है. एक सप्ताह पहले ‘पूरे घर के बदल डालूंगा’ वाली राजनीतिक शैली में भाजपा के आलाकमान ने गुजरात में मुख्यमंत्री विजय रूपाणी समेत उनकी पूरी मंत्रिपरिषद को बर्खास्त कर पहली बार विधायक बने भूपेंद्र पटेल के नेतृत्व में 24 सदस्यों की नई मंत्रि परिषद बनवा दी. उसके सप्ताह भर बाद ही विधायकों के भारी विरोध के मद्देनजर कांग्रेस के आलाकमान ने भी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की जगह अपेक्षाकृत युवा, दलित सिख नेता चरणजीत सिंह चन्नी के हाथों में पंजाब की कमान देकर ‘राजनीतिक खेला’ कर दिया है.
    
चरणजीत सिंह चन्नी के साथ राहुल गांधी : पंजाब में पहले
 दलित मुख्यमंत्री का 'मास्टर स्ट्रोक'
    पहली बार किसी दलित को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाए जाने को कांग्रेस या कहें राहुल गांधी का ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहा जा रहा है. तीन बार विधायक, एक बार नेता विरोधी दल और हाल तक अमरिंदर सिंह की सरकार में मंत्री रहे चन्नी के नाम और चेहरे को न सिर्फ पंजाब के 32 फीसदी अनुसूचित जाति के मतदाताओं के बीच बल्कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधानसभा के चुनावों में भी भुनाया जा सकता है. उनके साथ जाट सिख नेता सुखजिंदर सिंह उर्फ सुक्खी रंधावा और हिंदू नेता ओमप्रकाश सोनी को उपमुख्यमंत्री का भी शपथ ग्रहण करवा कर पंजाब में सामाजिक और क्षेत्रीय संतुलन बिठाने की कोशिश भी की गई है. एक और जाट सिख नवजोत सिंह सिद्धू को पहले ही पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया जा चुका है. अब पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के लिए भी एक दलित सिख समुदाय से आने वाले मुख्यमंत्री का विरोध मुश्किल होगा. चन्नी को कांग्रेस आलाकमान का वरदहस्त भी प्राप्त है. उनके शपथग्रहण कार्यक्रम में राहुल गांधी खुद भी शामिल हुए.

   चुनावों के मद्देनजर नेतृत्व परिवर्तन !

    
    
भूपेंद्र पटेल के साथ नरेंद्र मोदी : नए मुख्यमंत्री के साथ नई मंत्रिपरिषद
पंजाब 
के साथ ही उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भी चार-पांच महीने बाद ही विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं. गुजरात के साथ हिमाचल प्रदेश में भी विधानसभा के चुनाव अगले साल ही नवंबर-दिसंबर में कराए जाएंगे. इन नेतृत्व परिवर्तनों को आगामी विधानसभा चुनावों के साथ जोड़कर भी देखा जा रहा है. 2022 के विधानसभा चुनाव ज्यों-ज्यों करीब आ रहे हैं, राजनीतिक दल चुनावी जीत सुनिश्चित करने की गरज से अपने संगठन और सरकार को चुस्त-दुरुस्त करने और आवश्यक होने पर नेतृत्व में फेरबदल की कवायद में भी जुट गए हैं. भाजपा के आलाकमान ने इन चुनावों के मद्देनजर ही पहले उत्तराखंड में दो-दो मुख्यमंत्री बदल दिए. और अभी एक सप्ताह पहले गुजरात में न सिर्फ अपने मुख्यमंत्री विजय रूपाणी बल्कि उनकी पूरी मंत्रिपरिषद को ही नाकारा और नाकाबिल मान कर उनकी जगह भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया. यहीं नहीं उनके लिए 24 सदस्यों की नई मंत्रिपरिषद भी बनवा दी गई जिसमें रूपाणी मंत्रिपरिषद के एक भी सदस्य को शामिल नहीं किया गया. हालांकि इस नेतृत्व परिवर्तन के समय किसी का जाहिरा विरोध सामने नहीं आया था, मीडिया से बातें करते समय रूपाणी सरकार में उप मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार रहे पाटीदार समाज के कद्दावर नेता नितिन पटेल की आंखों में आंसू छलक आए थे. पार्टी में अंदरूनी विरोध को लेकर ही मंत्रिपरिषद की घोषणा और मंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह को एक दिन के लिए टालना पड़ गया था.
आहत मन नितिन पटेल: इस बार भी सिली मायूशी

    उत्तराखंड, असम और कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन के बाद भाजपा आलाकमान की इच्छा तो उत्तर प्रदेश में भी नेतृत्व परिवर्तन की थी लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आलाकमान के सामने झुकने के बजाय तनकर खड़े हो जाने के कारण यह संभव नहीं हो सका. यहां तक कि आलाकमान की इच्छानुसार वह अपनी मंत्रिपरिषद में फेरबदल को भी राजी नहीं हुए. विवश होकर भाजपा आलाकमान को कहना पड़ा कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव योगी जी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. भाजपा में अभी हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, त्रिपुरा, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में भी नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें लगाई जा रही हैं. देर-सबेर उत्तर प्रदेश में भी नेतृत्व परिवर्तन के अनुमान भी लगाए जा रहे हैं. इसका कारण चाहे चुनावों से पहले पार्टी और सरकार में ‘ओवरहालिंग’ रहा हो या फिर पश्चिम बंगाल में चुनावी हार और वहां लगातार हो रही दुर्गति के कारण प्रधानमंत्री मोदी की चुनाव जितानेवाली साख में आ रही कमी, भाजपा आलाकमान राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन के जरिए संगठन और सरकार पर भी उनकी मजबूत पकड़ के संकेत देना चाहता है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पार्टी और संघ परिवार में भी गाहे-बगाहे हिंदुत्व के एक अन्य ‘पोस्टर ब्वॉय’ के रूप में उभर रहे या उभारे जा रहे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भविष्य में उन्हें राजनीतिक चुनौती मिलने के कयास भी लगते रहते हैं. हालांकि केंद्र से लेकर राज्यों में भी सत्तारूढ़, भाजपा के आलाकमान और संघ के नेतृत्व की मजबूती और अंदरूनी अनुशासन के चलते भी भाजपा शासित राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन बहुत खामोशी और सुगमता के साथ संपन्न हो गया लेकिन कांग्रेस के साथ ऐसा नहीं हो सका.

कांग्रेस को करनी पड़ी मशक्कत     


    
नवजोत सिंह सिद्धू के साथ चरणजीत सिंह चन्नी:आगे क्या !
    गुजरात में भाजपा का नेतृत्व परिवर्तन जितनी सहजता से संपन्न हो गया, कांग्रेस को पंजाब में इसके लिए भारी मशक्कत करनी पड़ी. पद से हटने या हटाए जाने के बाद से ही खुद को अपमानित महसूस करते हुए कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बागी तेवर अपना लिया. वह सोमवार को चरणजीत सिंह चन्नी, रंधावा और उनके करीबी कहे जानेवाले सोनी के शपथग्रण समारोह में भी नहीं आए. अपने उसी फार्म हाउस में बैठे रहे, जहां से उन पर हाल तक अपनी सरकार चलाते रहने के आरोप लगते रहे. उनके त्यागपत्र के बाद पहले तो उनकी सरकार में असंतुष्ट मंत्री रहे सुखजिंदर सिंह रंधावा को कांग्रेस विधायक दल का नेता चुने जाने और उनके साथ दलित महिला अरुणा चौधरी और हिंदू समाज से भारत भूषण ‘आशु’ को उपमुख्यमंत्री बनाए जाने की बात सामने आई लेकिन रंधावा ने जिस प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के साथ मिलकर कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ खुली बगावत की, आखिरी समय में उन्हीं के विरोध की वजह से वह मुख्यमंत्री नहीं बन सके. उनका नाम सामने आने पर सिद्धू ने मुंह फुला लिया था. सिद्धू खुद मुख्यमंत्री बनना चाहते थे लेकिन प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष रहते आलाकमान उन्हें मुख्यमंत्री बनाने को राजी नहीं था और फिर उनके नाम पर अमरिंदर सिंह ने वीटो भी लगा दिया था. सिद्धू को अभी मुख्यमंत्री नहीं बनाया जा सकता, यह स्पष्ट होने के बाद उन्होंने किसी और जाट सिख नेता के बजाय किसी दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाने की बात चलाई जिस पर कांग्रेस आलाकमान भी राजी हो गया. और इस तरह से कांग्रेस विधायक दल में चरणजीत सिंह चन्नी के नाम पर सहमति बनाई गई. इसके साथ ही सुखजिंदर सिंह रंधावा और अमृतसर से लगातार पांचवीं बार विधायक ओमप्रकाश सोनी को उप मुख्यमंत्री बनाए जाने की बात तय हुई.

सुखजिंदर सिंह रंधावा: मुख्यमंत्री बनते-बनते
बन गए उप मुख्यमंत्री
    राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तरह ही कांग्रेस आलाकमान पर एक अरसे से पंजाब में भी नेतृत्व परिवर्तन के लिए अंदरूनी दबाव बना हुआ था. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस का आलाकमान अभी तक कोई निर्णय नहीं कर सका है लेकिन पंजाब आसन्न विधानसभा के चुनाव को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान को फैसला करना ही पड़ा. 80 सदस्यों के कांग्रेस विधायक दल में 50-60 विधायकों के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के विरोध में लामबंद हो जाने और 17 सितंबर को नेतृत्व परिवर्तन के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखने के बाद आलाकमान को भी लगने लगा कि विधायकों का विश्वास खोते जा रहे अमरिंदर सिंह की कप्तानी में कांग्रेस की चुनावी नाव पार नहीं लग सकेगी. हालांकि गांधी परिवार और खासतौर से सोनिया गांधी के साथ उनके पति स्व. राजीव गांधी के जमाने से ही कैप्टन अमरिंदर सिंह के पारिवारिक रिश्ते बहुत करीबी रहे हैं. पंजाब में वह कांग्रेस के सबसे बड़े जनाधारवाले कद्दावर लेकिन बुजुर्ग नेता भी हैं. अन्य राज्यों में भाजपा की मोदी लहर के बावजूद अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ही 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ हो सकी थी. श्रीमती गांधी के कहने पर उन्होंने मुख्यमंत्री रहते अमृतसर में अरुण जेटली के विरुद्ध लोकसभा का चुनाव लड़कर उन्हें धूल भी चटाई थी. 

कैप्टन के विरोध में अपने ही लामबंद 

    
    लेकिन अगले साल मार्च महीने में उम्र के 80 साल पूरा करनेवाले कांग्रेस के इस कैप्टन के खिलाफ पिछले कई महीनों से उनकी अपनी ही पार्टी के नेता-विधायकों का बड़ा तबका लामबंद हो रहा था. पार्टी के नेता, विधायक और मंत्री भी उनके खिलाफ कांग्रेस के चुनावी वादों को पूरा नहीं करने, ड्रग्स रैकेट के साथ ही बेअदबी मामले में विपक्षी अकाली दल के नेतृत्व के प्रति नरमी बरतने, पार्टी के विधायकों की उपेक्षा, नौकरशाही के भरोसे ‘महाराजा स्टाइल’ में अपने फार्म हाउस से सरकार चलाने के गंभीर आरोप खुलेआम लगा रहे थे. भाजपा से कांग्रेस में आए पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू अपने सहयोगी विधायक, भारतीय हाकी टीम के पूर्व कप्तान परगट सिंह के साथ मिलकर असंतुष्ट विधायकों को लामबंद करने के साथ ही उनके असंतोष को लगातार हवा दे रहे थे. हालांकि गांधी परिवार के साथ उनकी करीबी के कारण उनके विरुद्ध अंदरूनी कलह और पार्टी के विधायकों के विरोध के हर दाव विफल साबित हो रहे थे.

कैप्टन अमरिंदर सिंह: अपमानित !
    लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह ने आलाकमान से अपनी करीबी का लाभ लेकर समय रहते असंतुष्टों के साथ सुलह-सफाई की कोशिश नहीं की. यहां तक कि कई बार बुलाकर समझाने और अपनी कार्यशैली में सुधार करने के कांग्रेस आलाकमान के निर्देशों की भी वह अनदेखी ही करते रहे. वह पंजाब में दो-तीन नौकरशाहों के भरोसे एक स्वतंत्र, स्वेच्छाचारी क्षत्रप की तरह से अपने फार्म हाउस से सरकार चला रहे थे. किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री को पार्टी चलाने के लिए दिल्ली के कांग्रेस मुख्यालय को फंड देना होता है, लेकिन पंजाब से उन्होंने एक धेला भी नहीं दिया. आम जनता तो दूर पार्टी के विधायक भी उनसे मिल नहीं पाते थे. कांग्रेस के नेता बताते हैं कि उनके सुबह सो कर उठने, तैयार होकर किसी से मिलने का समय दोपहर बारह बजे के बाद शुरू होता है. यह बात भाजपा नेता अरुण जेटली ने भी 2014 में अमृतसर से उनके विरुद्ध लोकसभा का चुनाव लड़ते समय एक प्रेस कान्फ्रेंस में कही थी. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इसके जवाब में अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, “जेटली गलत बोल रहा है, मैं दिन में एक बजे के बाद ही किसी से मिलता हूं.” पिछले दिनों केंद्र सरकार ने जलियांवाला बाग को नया रंग रूप दिया तो राहुल गांधी ने यह कहकर उसका विरोध किया था कि शहीदों की निशानियों के साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए लेकिन कांग्रेसी मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने इस मामले में राहुल गांधी के बयान का समर्थन करने के बजाय केंद्र सरकार के पक्ष में बयान दिया. और भी कई अवसरों पर वह प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के पक्ष में बोलते रहे. वह जब भी दिल्ली आते, प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से अवश्य मिलते थे. हाल के महीनों में राहुल गांधी और प्रियंका वैसे भी उन्हें पसंद नहीं करते थे, जलियांवाला बाग प्रकरण में अमरिंदर के सरकार समर्थक बयान को लेकर उनके प्रति आलाकमान की नाराजगी और बढ़ गई.

आलाकमान का भरोसा भी टूटा

    
    
सोनिया गांधी और राहुल: भारी मन से कहना पड़ा 'सारी अमरिंदर'
इस
बीच बड़बोले और वाचाल छवि के नवजोत सिंह सिद्धू लगातार अपनी ही सरकार के मुख्यमंत्री के विरुद्ध विपक्ष के किसी नेता से भी तीखी और आक्रामक भाषा में आरोप लगाते रहे. उन्हें शांत करने की गरज से कांग्रेस आलाकमान ने सिद्धू को अध्यक्ष बनाकर प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंप दी. लेकिन सिद्धू के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद भी कैप्टन और क्रिकेटर का झगड़ा सुलझ नहीं सका. कई बार एक मंच पर होने के बावजूद दोनों के बीच के रिश्तों की कड़वाहट खुलकर सामने आते रही. अमरिंदर सरकार के खिलाफ सिद्धू की बयानबाजी जारी रही तो अमरिंदर सिंह भी उनके विरुद्ध अपनी भड़ांस निकालते रहे. इस क्रम में सिद्धू अमरिंदर विरोधी विधायकों को एकजुट करते हुए आलाकमान तक यह बात पहुंचाने में कामयाब रहे कि कैप्टन के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस पंजाब का चुनाव नहीं जीत सकती. कई बार की चेतावनियों के बाद भी जब बात नहीं बनी और 50-60 विधायकों ने अमरिंदर के विरोध में सोनिया गांधी को पत्र लिखकर अल्टीमेटम सा दे दिया तो सोनिया गांधी ने उन्हें भारी मन से ‘आइ एम सॉरी अमरिंदर’ कहा और चंडीगढ़ में विधायक दल की बैठक बुलाए जाने की बात बताई.आलाकमान के इस फैसले से आहत और अपमानित महसूस करते हुए अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस विधायक दल की बैठक का बहिष्कार किया और उससे पहले ही राजभवन जाकर राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित को अपना त्यागपत्र थमा दिया. हालांकि विधायक दल की बैठक में कांग्रेस के 80 में से 78 विधायक शामिल हुए. बैठक में अमरिंदर सिंह के कार्यकाल और उनके कामकाज की सराहना का एक प्रस्ताव भी पारित करते हुए भविष्य में भी उनका मार्गदर्शन मिलते रहने की उम्मीद जाहिर की गई.
अमरिंदर सिंह: बागी तेवर !

    लेकिन कैप्टन ने अपने राजनीतिक भविष्य का विकल्प खुला होने और कोई भी फैसला अपने साथियों-सहयोगियों से मंत्रणा के बाद ही करने की बात कही. जब उनके उत्तराधिकारी के चुनाव की बात चल रही थी, उन्होंने साफ कर दिया था कि मुख्यमंत्री के रूप में सिद्धू उन्हें कतई कबूल नहीं. उन्होंने सिद्धू को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा का मित्र भी बताते हुए कहा कि उनकी राय में सीमावर्ती राज्य पंजाब में सिद्धू का मुख्यमंत्री बनना देश हित में नहीं होगा. यह कह कर एक तरह से कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सिद्धू के नाम पर न सिर्फ वीटो सा लगा दिया बल्कि अपने राजनीतिक भविष्य का संकेत भी दे दिया है. उन्होंने परोक्ष रूप से भाजपा की भाषा बोलते हुए राष्ट्रवाद के मुद्दे पर अपने प्रदेश अध्यक्ष और कांग्रेस को भी घेरने की कोशिश की क्योंकि सिद्धू मुख्यमंत्री तो नहीं बने लेकिन प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष तो हैं ही. भाजपा ने इस बात को लेकर कांग्रेस की आलोचना भी की. लेकिन कांग्रेस नेताओं का एक बड़ा तबका और राजनीतिक प्रेक्षक भी सिद्धू के बारे में अमरिंदर सिंह के द्वारा कही गई बातों को जायज नहीं मानते. सिद्धू के विरोध में तमाम बातें कही जा कती हैं लेकिन उन पर इस तरह का आरोप चस्पा नहीं होता. कुछेक कार्यक्रमों में शिरकत और मुलाकातों के आधार पर किसी को पाकिस्तान, उसके प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष का मित्र नहीं कहा जा सकता. वैसे भी सिद्धू और इमरान खान क्रिकेटर रह चुके हैं और इस लिहाज से उनकी पहले से ही मेल-मुलाकात स्वाभाविक है. पंजाब के लिए कांग्रेस के प्रभारी, उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने भाजपा पर पलटवार करते हुए कहा कि इमरान खान के साथ सिद्धू की मित्रता तब से है जब वह भाजपा में थे. और करतारपुर साहिब कारिडोर खोले जाते समय अगर पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष बाजवा और सिद्धू गले मिले तो इसमें गलत क्या था. हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी भी तो उनके घर जाकर पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से गले मिले थे. उनके साथ बिरयानी खाई थी. कांग्रेस के एक और नेता याद दिलाते हैं कि कैप्टन पर भी तो उनके राजनीतिक विरोधी पाकिस्तान की एक प्रभावशाली डिफेंस जर्नलिस्ट अरूसा आलम के साथ वर्षों से गहरे और अंतरंग रिश्ते होने के आरोप लगते रहे हैं. इससे उनकी देशभक्ति पर सवाल तो नहीं किए जा सकते.

चन्नी के सामने चुनौतियां


    देखने वाली बात यह होगी कि पंजाब में पहले दलित मुख्यमंत्री के रूप में सरकार की कमान संभाल चुके चरणजीत सिंह चन्नी के बारे में कैप्टन अमरिंदर सिंह का रुख क्या होता है. आज वह उनके शपथग्रहण समारोह में नहीं आ सके. अभी भी कांग्रेस के एक-डेढ़ दर्जन विधायकों के उनके साथ होने की बात कही जा रही है. हालांकि नेतृत्व परिवर्तन के बाद इनमें से कितने उनके साथ रह जाएंगे, कहना मुश्किल है. लेकिन इससे इतर नये मुख्यमंत्री  चन्नी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अगले चार-पांच महीनों में ही होनेवाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित करने की होगी. इसके लिए न सिर्फ कैप्टन अमरिंदर सिंह बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू और कई खेमों में बंटी कांग्रेस के गुटबाज नेताओं को भी साधना होगा. बड़बोले सिद्धू को नियंत्रित रखना अपनेआप में ही एक बड़ी चुनौती होगी. अभी उन्हें अपनी मंत्रिपरिषद का गठन भी करना होगा. उनके दो उपमुख्यमंत्रियों में से एक सिद्धू के तो दूसरे कैप्टन अमरिंदर सिंह के करीबी बताए जाते हैं. चन्नी खुद भी सिद्धू के साथ मिलकर अमरिंदर सिंह के विरुद्ध झंडा उठाए रहते थे. उन्हें संगठन और सरकार में तालमेल बिठाना पड़ेगा. अमरिंदर सिंह की सरकार के रहते कांग्रेस के तकरीबन डेढ़ दर्जन अधूरे वादों को पूरा करने की जिम्मेदारी भी चन्नी सरकार पर होगी. इन अधूरे वादों को लेकर विपक्ष से अधिक कांग्रेस के चन्नी सहित तमाम असंतुष्ट नेता, विधायक अमरिंदर सरकार के विरुद्ध हमलावर रहे हैं. इसके अलावा उनका खुद का दामन भी बेदाग नहीं रहा है. अमरिंदर सरकार में मंत्री रहते कई तरह के आरोपों के साथ उनको लेकर विवाद खड़े होते रहे हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद विपक्ष उन्हें मुद्दा बना सकता है. एक महिला आइएएस अधिकारी को उनके द्वारा अतीत में अश्लील मेसेज भेजने का मामला भी तूल पकड़ सकता है. भाजपा की नेता और महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने इस मुद्दे को अभी से उछालना शुरू कर दिया है. 

    
हरीश रावत: बयान को लेकर गलतफहमी!
    इस बीच पंजाब के लिए कांग्रेस के प्रभारी हरीश रावत के एक बयान को लेकर भी विवाद खड़ा हो गया है. रावत ने मीडिया से बातचीत में कहा है कि पंजाब में विधानसभा का अगला चुनाव प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. तो क्या चन्नी केवल चुनाव तक ही मुख्यमंत्री रहेंगे! इसको लेकर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने आपत्ति की है. नेतृत्व परिवर्तन के समय मुख्यमंत्री बनते बनते रह गए जाखड़ ने ट्वीट कर कहा कि रावत का यह बयान चौंकाने वाला है. मुख्यमंत्री के अधिकार और उनकी राजनीतिक हैसियत को कमजोर करने की कोशिश है. हालांकि इसके तुरंत बाद ही कांग्रेस के मीडिया विभाग के अध्यक्ष रणदीप सिंह सुरजेवाला ने आधिकारिक रूप से स्पष्ट किया कि विधानसभा के चुनाव मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के नेतृत्व में लड़े जाएंगे. चुनाव अभियान में पार्टी के अन्य बड़े नेता भी शामिल होंगे. 

कारगर होगा मास्टर स्ट्रोक !

    
    पंजाब की राजनीति में कांग्रेस का यह ‘मास्टर स्ट्रोक’ कितना कारगर होगा, इसका पता विधानसभा के अगले चुनाव में ही चल सकेगा. नया नेतृत्व कांग्रेस की चुनावी नाव को पार लगा सकेगा या इसका हश्र भी वैसा ही होगा जैसा अप्रैल 1996 में पंजाब में ही चुनाव से 10-11 महीने पहले कांग्रेस के हरचरण सिंह बराड़ की जगह राजेंद्र कौर भट्टल को मुख्यमंत्री बनाने के बाद हुआ था. उस चुनाव में कांग्रेस को बुरी पराजय का सामना करना पड़ा था. हालांकि कांग्रेस आलाकमान और उसके रणनीतिकारों का मानना है कि नेतृत्व परिवर्तन से अमरिंदर सिंह और उनकी सरकार के विरुद्ध ‘ऐंटी इनकंबेंसी फैक्टर’ काफी हद तक निष्प्रभावी हो सकेगा. चन्नी सरकार अमरिंदर सरकार के कुछ महत्वपूर्ण अधूरे कार्यों को पूरा करके पंजाब के लोगों का दिल जीत सकती है. चरणजीत सिंह चन्नी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अपनी पहली प्रेस कान्फ्रेंस में केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के खुला विरोध, किसान हितों के लिए कुरसी क्या जान भी कुरबान करने, बेअदबी और ड्रग रैकेट के गुनहगारों को उनके किए की कड़ी सजा दिलाने, किसानों के बिजली के बकाया बिल माफ करने, कमजोर तबके के लोगों के लिए बिजली पानी मुफ्त करने जैसी घोषणाएं करके सकारात्मक पहल की है. उनके पास समय कम है और काम अधिक लेकिन वह इस तरह की ठोस शुरुआत के जरिए अपनी और अपनी सरकार की प्राथमिकताओं को सामने रखकर पंजाब के मतदाताओं का दिल जीतने की कोशिश कर सकते हैं. पंजाब में पहली बार किसी दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने न सिर्फ पंजाब में अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी के गठजोड़ की बल्कि किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाने के भाजपा के और किसी दलित को उप मुख्यमंत्री बनाने के आम आदमी पार्टी के चुनावी वादे की भी हवा निकाल दी है. कांग्रेस की कोशिश चरणजीत सिंह चन्नी को घुमाकर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी अपने परंपरागत जनाधार रहे अनुसूचित जाति के मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की भी हो सकती है. इसके मद्देनजर उत्तर प्रदेश के भाजपाई मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और बसपा सुप्रीमो मायावती के वक्तव्यों और ट्वीट में अभी से बेचैनी नजर आने लगी है. भाजपा कांग्रेस के दलित प्रेम को चुनावी बता रही है. लेकिन कांग्रेस ते पहले भी कई दलित नेताओं को कई राज्यों में मुख्यमंत्री बना चुकी है, भाजपा ने अभी तक किसी राज्य में किसी दलित को मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया ! जाहिर सी बात है कि पंजाब में कांग्रेस के इस दलित कार्ड या कहें मास्टर स्ट्रोक का जवाब भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों के पास भी नहीं दिख रहा है.








Monday, 13 September 2021

Hal Filhal: Farmer's Protest becoming Mass Movement

जनांदोलन बनता किसान आंदोलन !


जयशंकर गुप्त


https://youtu.be/nETSJwcB76k    


    भारत सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में पिछले 9-10 महीनों से दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में शांतिपूर्ण और अहिंसक धरना-प्रदर्शन कर रहे किसानों का आंदोलन अब एक जनांदोलन का रूप लेते जा रहा है. अब इसके साथ बेरोजगार युवा और मजदूर भी जुड़ने लगे हैं. संयुक्त किसान मोर्चा के 27 सितंबर को भारत बंद के अह्वान को कई प्रमुख मजदूर संगठनों का समर्थन मिलने की सूचनाएं भी मिल रही हैं.संवेदनहीन मोदी सरकार के पुलिसिया दमन, सत्तामुखी मुख्यधारा की मीडिया की बेरुखी और बेरहम मौसम की मार को झेलते हुए भी ये किसान दिल्ली से लगने वाली उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान की सीमाओं पर लंबे समय से डेरा डाले हैं. कड़ी धूप, कड़कड़ाती ठंड और मूसलाधार बारिश भी इन किसानों का मनोबल तोड़ पाने में विफल रही है. तकरीबन छह सौ किसान इस किसान आंदोलन के क्रम में जान गंवा चुके हैं.

    
कृषि कानूनों के वापस होने तक घर वापसी नहीं !
    सरकार के साथ किसान नेताओं की कई दौर की बातचीत कृषि कानूनों को वापस नहीं लेने, यहां तक कि उसमें किसान नेताओं के मनमुआफिक किसी तरह का फेरबदल करने पर भी राजी नहीं होनेवाली सरकार की जिद के कारण बेनतीजा ही रही है. किसान आंदोलन को तोड़ने की कोशिशें, मीडिया के जरिए किसान आंदोलन को बदनाम करने, उन्हें आतंकवादी, खालिस्तानी, टुकड़े-टुकड़े गैंग से जुड़े होने के आरोपों से लेकर आंदोलन के केवल धनाढ्य किसानों और बिचौलियों का पक्षधर बताने के कुप्रचार भी किसानों के जज्बे और हौसले को डिगा नहीं सके हैं. आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने एक स्वर से घोषित किया है कि किसान अपनी मांगें पूरी होने यानी कृषि कानूनों की वापसी होने तक घर लौटनेवाले नहीं हैं. चाहे इसके लिए उन्हें 2024 तक या उससे आगे भी इस संघर्ष को क्यों न खींचना पड़े. 

    करनाल में झुकी हरियाणा सरकार

    
    
करनाल में पुलिस का बर्बर लाठीचार्ज
हरियाणा
के करनाल में आंदोलनकारी किसानों के दबाव में राज्य सरकार के झुकने और उनकी अधिकतर मांगें मान लेने के बाद किसान नेताओं को मनोबल और बढ़ा है. गौरतलब है कि 28 अगस्त को हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के करनाल आगमन का विरोध कर रहे किसानों पर पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के बाद किसानों ने अपनी मांगें पूरी होने तक करनाल में मिनी सचिवालय के सामने डेरा डाल दिया था. करनाल में एसडीएम आयुष सिन्हां के प्रदर्शनकारी किसानों के सिर फोड़ देने के स्पष्ट निर्देश का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने और उस निर्देश पर अमल करते हुए पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के बाद खट्टर सरकार के खिलाफ पहले से ही नाराज चल रहे किसानों का आक्रोश और बढ़ गया था. किसानों के दबाव में आई सरकार किसान नेताओं के बीच हुई बातचीत में बनी सहमति के बाद किसानों ने मिनी सचिवालय से अपना धरना हटा लिया है. सरकार ने 28 अगस्त के पुलिस लाठी चार्ज की न्यायिक जांच हाइकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश से करवाने, एक महीने के भीतर जांच रिपोर्ट पेश करने, लोकतंत्र में भी जलियांवालाबाग हत्याकांड के गुनहगार माइकल ओ डायर की भाषा बोलनेवाले करनाल के एसडीएम आयुष सिन्हां को एक महीने के लिए छुट्टी पर भेजने के साथ ही पुलिस लाठीचार्ज में घायल किसान, जिनकी अगले दिन मृत्यु हो गई थी, के परिवार के दो लोगों को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की है.
आयुष सिन्हाः लोकतंत्र में माइकेल ओ डायर की भाषा !

     इधर उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में 5 सितंबर को हुई किसानों की महापंचायत ने इस आंदोलन की दिशा बदलनी शुरू कर दी है. तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग के साथ शुरू हुआ किसान आंदोलन एक नये तरह के जनांदोलन का रूप लेने लगा है. अब किसान नेता कृषि कानूनों के विरोध के साथ ही मोदी सरकार पर देश के सरकारी संसाधनों, सार्वजनिक उपक्रमों को अपने चहेते पूंजीपतियों को बेचने का आरोप भी लगाने लगे हैं. इसके साथ ही महंगाई, बेरोजगारी के सवाल भी उठाते हुए किसान नेता वोट की चोट से सत्ता परिवर्तन की बात भी करने लगे हैं. यह भी एक कारण है कि अब किसान आंदोलन के साथ मजदूर और बेरोजगार युवा भी जुड़ते जा रहे हैं. तमाम विरोधी दलों का खुला समर्थन इस आंदोलन के पक्ष में दिखने लगा है. और अब तो सत्तारूढ़ दल भाजपा, इसके सहयोगी और इसे संचालित करनेवाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े भारतीय किसान संघ के लोग भी कृषि कानूनों के विरुद्ध आंदोलित किसानों के पक्ष में बोलने लगे हैं.

    किसान महापंचायत ने भाजपा की नींद उड़ाई  


    
 किसान महापंचायत में राकेश टिकैतः सरकार नहीं मानी तो वोट की चोट
लेकिन मोदी सरकार न जाने किन कारणों से इन सब बातों को अभी भी अनसुना कर रही है. हालांकि पिछले 5 सितंबर को मुजफ्फरनगर में हुई किसानों की महापंचायत और उसमें सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ाने के इरादे से दिए गए अल्लाहु अकबर, हर हर महादेव और जो बोले सो निहाल का नारा लगाकर किसान नेताओं ने भाजपा के चुनावी रणनीतिकारों की नींद उड़ा दी है. उन्हें लगता है कि इस तरह के नारों के साथ किसान नेताओं और खासतौर से राकेश टिकैत के गूंगी बहरी और संवेदनहीन सरकार को वोट की चोट देने के आह्वान का न सिर्फ उत्तर प्रदेश और पंजाब बल्कि उत्तराखंड विधानसभा के चुनावों में भाजपा की राजनीतिक सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है. इस तरह के नारों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के उनके प्रयासों में पलीता लगते दिख रहा है. महा पंचायत में किसान नेताओं ने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि 2013-14 में वे लोग भाजपा और आरएसएस के द्वारा फैलाए गए भ्रमजाल के शिकार हो गए थे. 
    
    गौरतलब है कि 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों ने न सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में भी भाजपा के पक्ष में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर आधारित चुनावी माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. भाजपा को इसका भरपूर राजनीतिक लाभ न सिर्फ 2014 के संसदीय आम चुनाव में बल्कि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मिला था. इस बार किसान आंदोलन ने न सिर्फ किसानों को बल्कि इन इलाकों में दशकों पुराने सामाजिक सद्भाव और भाई चारे को भी लामबंद किया है. इस महा पंचायत में राकेश टिकैत ने साफ तौर पर भाजपा और आरएसएस के लोगों पर सुनियोजित साजिश के तहत सांप्रदायिक दंगे करवाने के आरोप लगाते हुए कहा कि इस बार भी इन लोगों की साजिश 2022 के चुनाव से पहले किसी बड़े हिंदू नेता की हत्या करवाने की हो सकती है. उन्होंने इसके लिए भाजपा के नेताओं के साथ ही आम जनता को भी आगाह किया.

   कितनी जायज हैं किसानों की आशंकाएं !


    किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने 27 सितंबर को भारत बंद का आह्वान किया है. उनके इस आह्वान को तमाम मजदूर संगठनों का समर्थन भी मिल रहा है. किसान नेताओं की बदली रणनीति पर काबू पाने की गरज से मोदी सरकार ने मुजफ्फरनगर की किसान महापंचायत के तीन दिन बाद, 8 सितंबर को रबी फसलों-दलहन, तिलहन और मोटे अनाज की खरीद के लिए एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य में लाक्षणिक वृद्धि कर किसानों के सामने राजनीतिक चुग्गा फेंकने की कोशिश की. लेकिन किसान नेता इससे अप्रभावित ही रहे. उनका कहना है कि एमएसपी तो बढ़ती घटती रहती है, उनकी मांग तो कृषि उपज मंडियों की व्यवस्था जारी रखने और एमएसपी पर किसानों की फसल की खरीद की संवैधानिक गारंटी देने की है. 

    इसके साथ ही किसान नेता करनाल में एसडीएम आयुष सिन्हां के बर्बर और किसान विरोधी रवैए को सामने रखकर कह रहे हैं कि इससे भी जाहिर होता है कि कृषि कानून किस हद तक किसान हितों के विरुद्ध है. कृषि कानून के तहत किसानों और व्यापारी-पूंजीपतियों के बीच किसी तरह का विवाद होने पर उसका निपटारा किसी अदालत में नहीं बल्कि एसडीएम के दरबार में होगा. आयुष सिन्हां के रवैए से समझा जा सकता है कि किसानों को किस तरह का न्याय मिलेगा. यही नहीं मंडियों के बने रहने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की फसल खरीद के लिए संवैधानिक गारंटी की मांग कर रहे किसानों का तर्क है कि इस तरह की गारंटी नहीं होने के बाद पूंजीपति वैसा ही करेंगे जैसे हिमाचल प्रदेश में गौतम अडानी की कंपनी ने सेब किसानों के साथ किया है. पहले तो मंडी व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए उन लोगों ने दाम बढ़ाकर किसानों से सेब की खरीद की लेकिन इस बार सेब के दामों में गुणवत्ता के हिसाब से औसतन 15-20 रु. प्रति किलो के हिसाब से कमी कर दी है. इसी तरह से उनका कहना है कि कृषि कानूनों के बनने के बाद से उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब तथा कई अन्य राज्यों में भी कृषि उत्पादन मंडी समितियों में भारी कमी आई है. 

    सरकारी आंकड़ों में किसानों की बदहाली


    किसान नेताओं का मानना है कि कृषि कानूनों के अमल में आने पर किसानों का उनकी जमीन और उपज पर भी हक नहीं रह जाएगा. कार्पोरेट ताकतों को कृषि पर कब्जा करने का हक मिल जाएगा. इस बीच भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसओ) ने बताया है कि देश में खेती-बाड़ी करने वाले आधे से अधिक परिवार कर्ज के बोझ से दबे हैं. इस सर्वेक्षण के अनुसार कर्ज में डूबे प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतन 74,121 रुपये का कर्ज था. सर्वे में कहा गया है कि उनके कुल बकाया कर्ज में से तकरीबन 70 प्रतिशत बैंकों, सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों जैसे संस्थागत स्रोतों से लिए गये थे. जबकि 20.5 प्रतिशत कर्ज पेशेवर सूदखोरों से लिए गये. एनएसओ ने जनवरी-दिसंबर 2019 के दौरान देश के ग्रामीण क्षेत्रों में परिवार की भूमि और पशुधन के अलावा कृषि परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आकलन किया. सर्वे के अनुसार कृषि वर्ष 2018-19 (जुलाई-जून) के दौरान प्रत्येक कृषक परिवार की हर महीने औसत आमदनी महज 10,218 रुपये थी. एक परिवार में औसतन चार-या पांच सदस्य होते हैं. इस हिसाब से प्रति किसान यह आमदनी दो से ढाई हजार रुपए प्रति माह ही बैठती है. एनएसओ की यह रिपोर्ट आंखें खोलनेवाली है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 के संसदीय चुनाव से पहले और बाद में भी किसानों को उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना दाम दिलाने, उनकी आमदनी दो गुनी करने की बातें करते रहे हैं. एनएसओ के ये आंकड़े उनके इन वादों को जमीनी सच की कसौटी पर परखने में भी मददगार हो सकते हैं.

मुजफ्फरनगर की किसान पंचायत में सांप्रदायिक सद्भाव की बातें
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की साजिशों का खुलासा !
     कुल मिलाकर देखा जाए तो किसानों का आंदोलन अब केवल तीन कृषि कानूनों को रद्द करने का आंदोलन मात्र नहीं रह गया है. अब इसने एक वृहत्तर जनांदोलन की शक्ल लेनी शुरू कर दी है. मोदी जी और उनकी सरकार में शामिल लोगों को पता होगा कि 1973-74 का गुजरात आंदोलन कुछ कालेजों में होस्टेल की फीस बढने और भोजन की खराब गुणवत्ता के लेकर शुरू हुआ था. उसकी ही तर्ज पर बिहार आंदोलन शुरू हुआ. आगे चलकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के भी उस आंदोलन में शामिल होने के बाद उसे जेपी आंदोलन या कहें संपूर्ण क्रांति आंदोलन भी कहा जाने लगा. आगे चलकर इसमें कुछ और राजनीतिक घटनाक्रम भी जुड़े जिनके चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश को आंतरिक आपातकाल के हवाले कर दिया था. लेकिन 1977 में हुए संसदीय आम चुनाव में उन्हें और उनकी कांग्रेस को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा था. पहली बार केंद्र में सत्ता परिवर्तन फलस्वरूप जनता पार्टी की सरकार बनी थी. कहने का मतलब सिर्फ यही है कि समय रहते अगर मोदी सरकार ने अतीत से सबके लेकर कृषि कानूनों पर अपनी जिद छोड़कर कृषि और किसानों के हित में कोई ठोस फैसला नहीं किया तो उसे भी आगे चलकर इसका राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. इसकी बानगी उन्हें अगले साल फरवरी-मार्च महीने में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब सहित पांच राज्य विधानसभाओं और फिर उसी साल, 2022  के अंत में होनेवाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिल सकती है.

नोट ः तस्वीरें इंटरनेट से ली गई हैं