Monday, 11 September 2017

मोदी मंत्रिपरिषद का तीसरा फेरबदल

मर्जी की मोदी मंत्रिपरिषद!
चुनौतियां बड़ी हैं


जयशंकर गुप्त

खिरकार देश के लिए एक पूर्णकालिक रक्षा मंत्री का इंतजाम हो गया. अपनी मर्जी के चौंकानेवाले फैसलों के लिए चर्चित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाणिज्य राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) निर्मला सीतारमण को देश की सीमाओं की सुरक्षा की कमान सौंपकर एक बार फिर न सिर्फ बाहर बल्कि अंदर अपनी पार्टी के लोगों को भी चौंका दिया. अपनी करीब सवा तीन साल पुरानी मंत्रिपरिषद के तीसरे, बहुप्रतीक्षित और बहुचर्चित पुनर्गठन के बाद मोदी ने सीतारमण को केवल दूसरी महिला रक्षा मंत्री होने का गौरव ही प्रदान नहीं किया बल्कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (कुछ कथित राष्ट्रभक्तों की निगाह में देशद्रोहियों का अड्डा) से अर्थशास्त्र की स्नातकोत्तर भाजपा की इस अपेक्षाकृत नई नेता को विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के साथ ही देश की सुरक्षा मामलों पर मंत्रिमंडल की अत्यंत महत्वपूर्ण समिति की दूसरी महिला सदस्य होने का मान सम्मान भी दे दिया. हालांकि भाजपा के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि मोदी और भाजपा के उनके खासुलखास अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी ने तो उन्हें सरकार से बाहर करने का फैसला कर लिया था, उनसे त्यागपत्र भी ले लिया गया था लेकिन संघ और भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेताओं के दबाव में उनका मंत्री पद बचा और ऐसा बचा कि मोदी ने उन्हें रक्षा मंत्री बना दिया.
मोदी मंत्रिमंडल की एक अन्य प्रमुख सदस्य स्मृति ईरानी को भी पदोन्नत कर उनके साथ अतिरिक्त प्रभार के रूप में जुड़े सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को पूर्णकालिक तौर पर उनके नाम कर दिया. वह कपड़ा मंत्री भी बनी रहेंगी. अब मोदी मंत्रिमंडल में महिला सदस्यों की संख्या छह और राज्य मंत्रियों की संख्या तीन हो गई है. हालांकि महिला सशक्तीकरण और संसद तथा विधायिकाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की वकालत करनेवाली भाजपा की सरकार के ताजा फेरबदल के बाद कुल 76 मंत्रियों में महिलाओं की संख्या महज 9 ही हो पाई है.

कहने को तो यह फेरबदल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘न्यू इंडिया मिशन’ और 2019 के लोकसभा चुनाव और उससे पहले होनेवाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर किया गया और इसमें मंत्रियों और नेताओं की प्रतिभा, कार्यक्षमता और संगठन तथा सरकार के कामकाज में उनके योगदान को आधार माना गया लेकिन सही मायने में इस पूरी कवायद में मोदी और अमित शाह की मन मर्जी और उनकी राजनीतिक आवश्यकताओं को ही तरजीह दिखती है. हालांकि कुछ मामलों में मोदी और शाह की मर्जी पर संघ और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं का दबाव भी भारी पड़ा.

भाजपा सूत्रों के अनुसार मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन से एक दो दिन पहले पार्टी के अंदर काफी राजनीतिक उठापटक हुई. यह भी एक कारण था कि मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन की तिथि एक दिन आगे बढाई गई. बताते हैं कि मोदी-शाह की जोड़ी सरकार से बाहर किए गए छह मंत्रियों के साथ ही निर्मला सीतारमण, उमा भारती, जयंत सिन्हां, गिरिराज सिंह और सुदर्शन भगत को भी हटाना चाहती थी. राजनाथ सिंह का विभाग बदले जाने की बात थी. सुषमा स्वराज रक्षा ंमत्री बनने की इच्छुक थीं लेकिन संघ और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के दबाव के कारण ऐसा नहीं हो सका. अमित शाह ने तो उमा भारती का त्यागपत्र भी ले लिया था लेकिन अंतिम समय पर संघ के शिखर नेतृत्व के हस्तक्षेप से उनका मंत्री पद बच गया. इन सूत्रों के अनुसार झांसी में बागी तेवर अपना चुकीं भगवावेशधारी उमा के दबाव पर संघ नेतृत्व ने वृंदावन में चल रही अपनी उच्च स्तरीय बैठक में शामिल अमित शाह को समझाया कि उमा को मंत्रिमंडल से बाहर रखना संघ और भाजपा की भविष्य की योजनाओं के मद्देनजर ठीक नहीं रहेगा. बाहर रह कर वह सरकार और संगठन के लिए भी परेशानियां खड़ी करती रहेंगी. हालांकि मंत्रिमंडल में हैसियत घटाए जाने के विरोध में शपथग्रहण समारोह का बहिष्कार कर उमा भारती ने अपने इरादे जाहिर कर दिए. फेरबदल में अपने विभागों में छेड़छाड़ की आशंका को भांपकर ऐन वक्त पर राजनाथ, सुषमा, अरुण जेटली और नितिन गडकरी जैसे भाजपा के वरिष्ठ नेताओं-मंत्रियों की बैठक में उनके विभागों में किसी तरह का हेर फेर नहीं किए जाने का दबाव बनाया गया. राजनाथ ने साफ कह दिया था कि अगर उनका विभाग बदलने की बात हुई तो वह संगठन का काम करना पसंद करेंगे. उनके विभागों में किसी तरह की छेड़-छाड़ नहीं हुई. इसमें भी संघ की भूमिका निर्णायक रही.

निर्मला सीतारमण के पक्ष में यह दलील दी गई कि उन्हें मंत्री बनाए रखकर एक तो महिला सशक्तीकरण की बात हो सकती है, दूसरे वेंकैया नायडू के उप राष्ट्रपति बन जाने के बाद दक्षिण भारत में पार्टी और सरकार में आए खालीपन को भी वह भर सकती हैं. निर्मला तमिलनाडु में पैदा हुई हैं जबकि उनकी ससुराल आंध्र प्रदेश में है, कर्नाटक से भी उनका जुड़ाव रहा है. इस तरह का दबाव बनने पर मोदी ने न सिर्फ निर्मला को मंत्री बनाए रखा बल्कि उन्हें रक्षा मंत्री बनाकर प्रोटोकोल के हिसाब से उन्हें सुषमा स्वराज और अरुण जेटली से ऊपर कर दिया.
संघ के दबाव की काट के लिए उन्होंने पूर्व चार नौकरशाहों-आर के सिंह, सत्यपाल सिंह, हरदीपसिंह पुरी और के जे अल्फांस को अंतिम समय पर मंत्री बनाने का फैसला किया. वे मंत्री बन रहे हैं, इस बात का सूचना भी उन्हें शनिवार की रात को ही दी गई. ईमानदार और कर्मठ छवि के पूर्व नौकरशाह आर के सिंह अक्टूबर 1990 में समस्तीपुर में जिलाधिकारी रहते भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को उनकी रथ यात्रा के दौरान गिरफ्तार करने और फिर जनवरी 2013 में केंद्र सरकार में गृह सचिव रहते अपने एक बयान के लिए चर्चित हुए थे. उन्होंने कहा था कि मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस में हुए आतंकी धमाकों में आरएसएस के दस लोगों के शामिल होने के पुख्ता प्रमाण हैं. डीडीए में ‘डिमालिशन मैन’ के नाम से चर्चित रहे के जे अल्फांस केरल में माकपा समर्थित निर्दलीय विधायक रह चुके हैं. मंत्री बनने के अगले दिन ही पदभार ग्रहण करने के बाद उन्होंने संघ के गोरक्षा अभियान की चिंता किए बगैर कहा, ‘‘मोदी सरकार समावेशी है. इसे केरल और गोवा जैसे राज्यों में लोगों के गोमांस खाने से किसी तरह की समस्या नहीं होगी.’’
कई मामलों में तो मंत्रिपरिषद से बाहर किए गए मंत्रियों की भरपाई उनके जातीय विकल्पों के द्वारा की गई. मसलन बिहार से राजीव प्रताप रूडी को हटाकर उनकी जगह उनके सजातीय, राजकुमार सिंह को लिया गया. उत्तर प्रदेश में 75 साल की उम्र सीमा पार कर चुके कलराज मिश्र और प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बने महेंद्रनाथ पांडेय के त्यागपत्र की भरपाई की गरज से गोरखपुर के राज्यसभा सदस्य शिवप्रताप शुक्ल को वित राज्य मंत्री बनाया गया है. शुक्ल और गोरखपुर से ही राज्य के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के बीच राजनीतिक अनबन के मद्देनजर माना जा रहा है कि शुक्ल के जरिए आदित्यनाथ पर एक तरह का अंकुश लगाने की कोशिश हो सकती है. ब्राह्मणों को बांधे रखने की गरज से ही बिहार में राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के कट्टर विरोधी अश्विनी चौबे भी राज्य मंत्री बनाए गए. बिहार सरकार में मंत्री रहे चौबे की चर्चा उनकी तीखी जुबान के लिए भी होती रही है. उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को ‘पूतना’ तथा राहुल गांधी को ‘विदेशी तोता’ कहा था. उत्तर प्रदेश से एक और राज्य मंत्री संजीव कुमार बाल्यान की जगह उनके ही सजातीय, मुंबई, नागपुर और पुणे के पुलिस आयुक्त रहे सत्यपाल सिंह को राज्यमंत्री बनाया गया. राजस्थान में जोधपुर के राजपूत सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत को राज्यमंत्री बनाने के पीछे पिछले दिनों राज्य के एक बड़े गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने के विरुद्ध आंदोलित राजपूतों की नाराजगी कम करने की कोशिश भी हो सकती है. राज्य से एक और राजपूत, पूर्व ओलंपियन राज्यवर्धनसिंह राठौर को प्रोन्नत कर उन्हें सूचना प्रसारण राज्यमंत्री के साथ ही स्वतंत्र प्रभार के साथ खेलकूद मंत्रालय में राज्य मंत्री बनाया गया है.

मध्यप्रदेश से आदिवासी फग्गन सिंह कुलस्ते का त्यागपत्र लेकर उनकी जगह टीकमगढ़ से छह बार से लोकसभा सदस्य चुने जाते रहे दलित समाज के वीरेंद्र कुमार खटिक को राज्य मंत्री बनाया गया. दक्षिण भारत में तेलंगाना से बंडारू दत्तात्रेय का त्यागपत्र लेकर कर्नाटक से संघ के समर्पित नेता एवं उत्तरी कन्नडा से सांसद अनंत हेगड़े को राज्यमंत्री बनाते समय कर्नाटक विधानसभा के अगले चुनाव को ध्यान में रखा गया. तेजतर्रार और आक्रामक छवि के हेगड़े भी अपनी बदजुबानी के लिए चर्चित रहे हैं. कुछ दिन पहले सिरसी के एक निजी अस्पताल में उनकी मां के इलाज में हो रही देरी से क्रुद्ध हेगड़े ने वहां डाक्टरों की पिटाई कर दी थी. उनके विरुद्ध मुकदमा भी दर्ज हुआ. इससे पहले उनकी बदजुबानी के कारण उनके खिलाफ सिरसी में ही ‘हेट स्पीच’ का मुकदमा भी कायम हुआ था. उन्होंने इस्लाम धर्म को आतंकवाद से जोड़ते हुए कहा था कि ‘‘जब तक इस्लाम रहेगा, दुनिया में शांति संभव नहीं.’’

मंत्रिपरिषद के इस फेरबदल के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस’ की वह उक्ति भी ‘जुमला’ भर रह गई जो उन्होंने तकरीबन सवा तीन साल पहले, 26 मई 2014 को 45 सदस्यों की अपनी मंत्रिपरिषद के शपथ ग्रहण के बाद कही थी. अब तीसरे फेरबदल के बाद उनकी मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या 76 हो गई है जिसमें 27 कैबिनेट, 11 राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) और 36 राज्यमंत्री शामिल हैं. अभी भाजपा के सहयोगी एवं उसके नेतृत्ववाले राजग के कई घटक दल सरकार में ‘प्रतिनिधित्व’ नहीं मिल पाने को लेकर मुंह फुलाए हैं. राजग में भाजपा के सबसे पुराने सहयोगी शिवसेना ने तो अपने एक मात्र मंत्री अनंत गीते के साथ शपथग्रहण समारोह का बहिष्कार कर अपना विरोध भी जता दिया है. जनता दल यू और अन्ना द्रमुक जैसे नए सहयोगी दल भी मंत्रिपरिषद में अपना उचित हिस्सा चाहेंगे. नियमतः अभी पांच मंत्री और बनाए जा सकते हैं. अगर सहयोगी दलों को सरकार में हिस्सेदारी देनी है तो इसके लिए एक और फेरबदल करना होगा.  
आधिकारिकतौर पर तो यही कहा जा रहा है कि निर्मला सीतारमण के साथ ही स्वतंत्र प्रभारवाले तीन अन्य राज्य मंत्रियों -पीयूष गोयल, धर्मेंद्र प्रधान और मुख्तार अब्बास नकवी को भी उनके बेहतर कामकाज के आधार पर प्रोन्नत कर कैबिनेट मंत्री बनाया गया. पीयूष गोयल को गांव गांव तक बिजली पहुंचाने और धर्मेंद्र प्रधान को घर घर रसोई गैस पहुंचाने की प्रधानमंत्री मोदी की महत्वाकांक्षी उज्वला योजना पर बेहतर अमल का पुरस्कार मिला. मुख्तार अब्बास नकवी को संगठन और सरकार की बात ढंग से रखने तथा संसद में विपक्षी दलों के साथ अच्छा समन्वय बनाए रखने का लाभ मिला. वह अब मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री के रूप में अल्पसंख्यक मुसलमानों का चेहरा होंगे. उन्हें अल्पसंख्यक मामलों का मंत्री बनाया गया है.

 नौकरशाही में उनके अनुभवों का लाभ लेने के नाम पर जिन चार पूर्व नौकरशाहों को मंत्री बनाया गया, उन्हें ऐसे विभाग दिए गए जो उनके अनुभव, क्षमता से मेल नहीं खाते. पूर्व राजनयिक हरदीप सिंह पुरी को शहरी विकास और आवास विभाग मिला जबकि दिल्ली में डीडीए के चर्चित अधिकारी रह चुके के जे अल्फांस को पर्यटन, इलैक्ट्रानिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बनाया गया है. इसी तरह वर्षां तक गृह मंत्रालय से जुड़े रहे पूर्व नौकरशाह और बिहार में आरा से लोकसभा सदस्य आर के सिंह को स्वतंत्र प्रभार के साथ ऊर्जा एवं नवीकरणीय तथा अक्षय ऊर्जा राज्य मंत्री बनाया गया. अगर अनुभव और क्षमता का ही पैमाना होता तो आर के सिंह और सत्यपाल सिंह गृह मंत्रालय, हरदीप पुरी विदेश और अल्फांस को शहरी विकास और आवास मंत्रालय में भेजा जाता.
प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरनेवाले रेल मंत्री सुरेश प्रभु, उमा भारती, एसएस अहलूवालिया और विजय गोयल की सरकार में हैसियत घटा दी गई. अपने पूरे कार्यकाल में रेल भाडे़ में तरह तरह की वृद्धियों और रेल दुर्घटनाओं के लिए ही चर्चित होते रहे श्री प्रभु की जगह पीयूष गोयल को रेल मंत्री बना दिया गया. निगमित क्षेत्र के दुलारे गोयल को कोयला मंत्रालय की जिम्मेदारी भी संभालते रहेंगे. सुरेश प्रभु अब वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय संभालेंगे. इसी तरह से उमा भारती से जल संसाधन और गंगा संरक्षण मंत्रालय लेकर सड़क परिवहन, राजमार्ग, जहाजरानी और नदी विकास मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल रहे संघ के प्रिय नेता नितिन गडकरी के साथ नत्थी कर दिया गया. अपने मंत्रालयों में बुनियादी ढांचे के विकास में लगे गडकरी एक अरसे से नदियों को साफ और गहरा कर जल परिवहन की बात करते रहे हैं. मंत्रिपरिषद में कद और पद तो विजय गोयलए एसएस अहलूवालिया और महेश शर्मा का भी घटा है, गोयल से खेलकूद मंत्रालय का प्रभार लेकर सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धनसिंह राठौर को तथा शर्मा से पर्यटन मंत्रालय लेकर अल्फांस को दे दिया गया. गोयल के पास अब केवल संसदीय कार्य, सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन विभाग रह गए जबकि महेश शर्मा अब स्वतंत्र प्रभार के साथ संस्कृति, वन पर्यावरण एवं जलवायु परविर्तन का हिसाब रखेंगे. चर्चा तो बिहार के बड़बोले और अक्सर अपने विवादित बयानों के कारण चर्चा में रहनेवाले गिरिराज सिंह को भी सरकार से बाहर करने की होती रही लेकिन राजपूत आर के सिंह को मंत्री बनाने और भूमिहार गिरिराज को सरकार से बाहर करने से बिहार में दबंग भूमिहारों की उपेक्षा भारी पड़ने के डर से प्रधानमंत्री मोदी के करीबी गिरिराज सिंह का कामकाज भी बेहतर माना गया और उन्हें पदोन्नत कर सूख्म, मध्यम एवं लघु उद्यम मंत्रालय का राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बना दिया गया.    

मोदी मंत्रिपरिषद में यह फेरबदल ऐसे समय किया गया है जब 17हवीं लोकसभा के चुनाव में बस डेढ़ साल का समय और शेष रह गया है. भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने इस चुनाव में अकेले भाजपा के 350 सीटें जीतने का लक्ष्य घोषित किया है. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव भी एक साथ ही कराए जाने की चर्चाओं के बीच में 2018 में होनेवाले कई राज्य विधानसभाओं के साथ ही 2019 में निर्धारित लोकसभा चुनाव और कुछ राज्य विधानसभाओं के चुनाव भी करा लिए जाने की बातें जोर मारती रहती हैं. इस लिहाज से देखें तो लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव जीतना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है. औद्योगिक उत्पादन में लगातार दर्ज हो रही गिरावट, नोटबंदी और जीएसटी के कुप्रभावों से चरमराती अर्थव्यवस्था, सकल घरेलू उत्पाद की दर में दो प्रतिशत की गिरावट, महंगाई और बेरोजगारी के चरम पर पहुंचने, रोजगार के अवसरों में लगातार आ रही कमी, दैनंदिन के मामले में केंद्र हो अथवा राज्य, भ्रष्टाचार के मामलों में आम आदमी को राहत नहीं मिलने, कश्मीर में अशांति, सीमाओं पर आतंकवादी घटनाओं के जारी रहने, काले धन की वापसी, हर साल दो करोड़ लोगों के लिए रोजगार के प्रबंध, किसानों की आत्म हत्या जारी रहने, कृषि उपज की लागत का डेढ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने और आम आदमी के लिए अच्छे दिन लाने जैसे वादे मोदी सरकार के सामने सवाल बनकर खड़े होने लगे हैं.

इसके साथ ही कई राज्यों में बदलत-बिगड़ते सामाजिक समीकरण भी भाजपा के 350 लोकसभा सीटें जीतने के चुनावी मिशन पर सवाल खड़े कर रहे हैं. भाजपा के नेता डींगें चाहे जितनी हांक लें, उत्तर भारत और खासतौर से हिंदी पट्टी के राज्य भाजपा के लिए गंभीर चिंता का सबब बन रहे हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ गुजरात, दादरा नगर हवेली, दमन दीव, गोवा और महाराष्ट्र की कुल 324 लोकसभा सीटों में से 288 पर राजग और 257 पर अकेले भाजपा के लोग चुनाव जीते थे. बड़ी तेजी से बदल रहे राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा और राजग के लिए इन राज्यों में सीटों का आंकड़ा बढा पाने की बात तो दूर इस आंकड़े को बरकरार रख पाना भी टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और गोवा में तो सभी लोकसभा सीटों पर और जम्मू-कश्मीर, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार तथा महाराष्ट्र में भी अधिकतम सीटों पर भाजपा और राजग का ही कब्जा है. निजी और अनौपचारिक बातचीत में भाजपा और संघ के कई बड़े नेता भी मानते हैं कि इन राज्यों में पार्टी को काफी सीटें गंवानी पड़ सकती हैं. मंत्रिपरिषद के फेरबदल को इस गिरावट को थामने के लिहाज से भी देखा जा सकता है.

बिहार में विधानसभा के चुनाव में राजद, जद यू और कांग्रेस के महागठबंधन के पक्ष में बने दलित, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों के सामाजिक समीकरण के चलते भाजपा का गठबंधन वहां बुरी तरह से मात खा गया था, उससे सबक लेकर भाजपा ने एक तो उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण, वैश्य एवं अन्य सवर्ण जातियों के बीच अपने परंपरागत जनाधार की नाराजगी का जोखिम मोल लेकर भी अपनी रणनीति गैर यादव और गैर जाटव, अन्य पिछड़ी और अन्य दलित जातियों पर केंद्रित की थी, इसका पोलिटिकल डिविडेंड भी उसे विधानसभा की 400 में से 325 सीटों पर जीत के रूप में मिला. लेकिन राज्य का मुख्यमंत्री गोरखनाथ पीठ के राजपूत महंथ, और 1998 से गोरखपुर से लगातार सांसद योगी आदित्यनाथ को बनाया गया. सवर्ण ब्राह्मणों और अन्य पिछड़ी जातियों को सांत्वना के बतौर दिनेश शर्मा और प्रदेश भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष केशव मौर्य को उपमुख्यमंत्री बना दिया गया. लेकिन प्रदेश में खराब होती जा रही कानून व्यवस्था, गोरखपुर और फर्रुखाबाद में आक्सीजन के अभाव में तकरीबन डेढ़ सौ बच्चों के अकेले एक महीने में दम तोड़ने, शासन पर नौकरशाहों के हावी होने आदि कारणों से भाजपा का राजनीतिक ग्राफ तेजी से गिरने लगा. हालत यह हो गई कि मुख्यमंत्री और उनके दोनों उपमुख्यमंत्रियों के साथ ही दो मंत्रियों को भी विधानसभा के उपचुनाव का सामना करने का साहस जुटा पाने के बजाय विधान परिषद में जाने का आसान रास्ता चुनना पड़ा. मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री बने पांच महीने से अधिक का समय बीतने को आया लेकिन दोनों ने अभी तक लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र नहीं दिया है. ब्राह्मणों की नाराजगी को रोकने के लिए केंद्र सरकार में राज्य मंत्री रहे महेंद्रनाथ पांडेय को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और शिवप्रताप शुक्ल को वित राज्यमंत्री बनाया गया. लेकिन राज्य में सपाए बसपा, रालोद और कांग्रेस के संभावित गठजोड़ भाजपा की बेचैनी बढ़ा सकते हैं.

दूसरी तरफ, बिहार में महागठबंधन की चुनौती का सामना करने के बजाय भाजपा नेतृत्व ने उसे तोड़कर नीतीश कुमार और उनके जद यू को अपने पाले में कर लिया. हालांकि भाजपा के साथ नीतीश कुमार और उनके लोग सहज होने के दावे करते रहे हैं, इस बार उन्हें भाजपा नेतृत्व के हाथों लगातार अपमान के घूंट पीते रहने को बाध्य होना पड़ रहा है. बहु प्रचारित सवा लाख करोड़ रु. के सपेशल पैकेज के नाम पर अभी तक बिहार को फूटी कौड़ी भी नहीं मिली है. इस बार बिहार में हर बार से अधिक भयावह बाढ़ का हेलीकाप्टर से जायजा लेने आए प्रधानमंत्री मोदी ने उनके लिए नीतीश कुमार के द्वारा खास गुजराती रसोइए से तैयार दोपहर के भोजन को ठुकरा कर अतीत में नीतीश कुमार के हाथों हुए अपमान का बदला ले लिया. गौरतलब है कि पटना में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के समय नीतीश कुमार ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी एवं अन्य भाजपा नेताओं के लिए आयोजित भोज को रद्छ करवा दिया था. बाढ़ग्रस्त इलाकों का मुआयना करने के बाद मोदी ने केवल 500 करोड़ रु. की सहायता राशि घोषित करके भी मोदी ने नीतीश कुमार को उनकी हैसियत का एहसास कराने की कोशिश की और अब मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन के बारे में तो उन्हें पूछा-बताया भी नहीं.
इससे पहले पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में राजद के नेतृत्व में ‘भाजपा भगाओ, देश बचाओ’ रैली की भारी सफलता ने भी भाजपा के रणनीतिकारों के कान खड़े कर दिए हैं. गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से मिल रही सूचनाएं भी भाजपा आलाकमान को दिलासा नहीं दे पा रहीं. दिल्ली में बवाना विधानसभा के उप चुनाव में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार के हाथों 24 हजार मतों के भारी अंतर से भाजपा की हार ने भी आलाकमान को चौकन्ना कर दिया है.

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार उत्तर भारत और खासतौर से हिंदी पट्टी के राज्यों में संभावित राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए पार्टी और संघ इस बार पश्चिम बंगाल और ओडिसा जैसे पूर्व और उत्तर पूर्व के राज्यों के साथ ही दक्षिण भारत से करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं. हालांकि उत्तर पूर्व में भी असम की 14 में से सात सीटें पहले से ही भाजपा के पास हैं. इसी तरह से कर्नाटक में भी 28 में से 17 सीटें भाजपा के ही पास हैं. दक्षिण भारत में पैठ बढाने की गरज से भी निर्मला सीतारमण को मोदी मंत्रिमंडल में प्रमुख स्थान दिए जाने के साथ ही केरल से के जे अल्फासं और कर्नाटक से अनंत हेगड़े को मंत्री बनाया गया, ओडिसा में जनाधार मजबूत करना भी धर्मेंद्र प्रधान को उनके पुराने विभाग पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के साथ उद्यमिता और कौशल विकास को भी जोड़कर कैबिनेट मंत्री बनाया गया. लेकिन पश्चिम बंगाल और उत्तर पूर्व के राज्यों से इस बार केंद्रीय मंत्रिपरिषद में किसी को भी शामिल नहीं किया गया.

बहरहाल, मोदी मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन के बाद अब अमित शाह की टीम में भी हेर फेर किए जाने की संभावना बढ़ गई है. भाजपा के केंद्रीय संगठन में भी कई पद एक अरसे से खाली पड़े हैं जबकि कुछ लोगों को हटाकर नए लोगों को जिम्मेदारी दिए जाने की बात है. मंत्रिपरिषद से बाहर किए गए कुछ लोग संगठन के काम में लगाए जा सकते हैं. लेकिन क्या सिर्फ सरकार और संगठन में कुछ पैबंद लगाने से भर से 2018-19 में भाजपा की चुनावी नैया पार हो सकेगी या फिर पिछले लोकसभ चुनाव के समय किए गए वायदों को ‘चुनावी जुमलों’ के मुहावरे से बाहर निकालकर सतह पर भी कुछ काम होंगे?

नोट : इस लेख के सम्पादित अंश  हिंदी पाक्षिक आउटलुक के 25  सितंबर 2017 के अंक में प्रकाशित

 

 

पटना में राजद की रैली : संकेत और समीकरण

पटना से हुई गैर भाजपा महागठबंधन की शुरुआत !

जयशंकर गुप्त

टना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में राष्ट्रीय जनता दल की ‘भाजपा हटाओ, देश बचाओ’ रैली में कितने लोग आए, इसको लेकर विवाद हो सकता है. राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के पूर्व उप मुख्यमंत्री पुत्र तेजस्वी यादव ने कहा कि रैली में 25 लाख से अधिक लोग जुटे, लालू प्रसाद को यह अतिशयाक्ति शायद कुछ कम लगी, सो उन्होंने कहा कि रैली में 30 लाख लोगों का जन सैलाब उमड़ा था. दूसरी तरफ, कल तक लालू प्रसाद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन चलाते रहे और अभी भाजपा के सहयोग से राजग की साझा सरकार का नेतृत्व कर रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दल-यू-ने इस महा रैली को फ्लाप करार दिया. लेकिन इतना तो सच है कि हाल के वर्षों में पटना और गांधी मैदान में होनेवाली रैलियों में यह सफलतम और रेस्पांसिव रैली थी. पूरा पटना शहर राजद और महागठबंधन के नेताओं-कार्यकर्ताओं, उनके पोस्टर-बैनरों और कटाउटों से अटा पड़ा था. जितने लोग मैदान में जमा थे, उसी अनुपात में लोग गांधी मैदान के चारों तरफ सड़कों पर, रेलवे स्टेशन और बस अड्डों के आसपास भी राजद के झंडे डंडों के साथ दिख रहे थे. वह भी ऐसे समय में जबकि आधा बिहार बाढ़ की चपेट में है. 

यह रैली कहने को तो भाजपा बचाओ, देश बचाओ के नारे पर हुई लेकिन निशाने पर मुख्य रूप से महागठबंधन के ‘विश्वासघाती’ नीतीश कुमार ही थे. लालू प्रसाद और उनके पुत्रों के साथ ही राजद के तमाम नेताओं और अन्य विपक्षी दलों के नेताओं ने भी ‘संघ मुक्त भारत’ का नारा देने वाले नीतीश कुमार पर महागठबंधन तोड़कर संघ के शरणागत होने और भाजपा से मिलकर सरकार बना लेने का आरोप लगाया. नीतीश कुमार के महागठबंधन तोड़ने के बाद यह लालू प्रसाद और उनके राजद के साथ ही नीतीश कुमार के साथ नहीं गए जद यू के पूर्व अध्यक्ष, सांसद शरद यादव एवं कांग्रेस के लिए भी बड़ा शक्ति प्रदर्शन था जिसमें ये लोग सफल रहे. 
इस महा रैली के आयोजन की घोषणा लालू प्रसाद ने काफी पहले तब की थी जब नीतीश कुमार महागठबंधन की सरकार चला रहे थे, हालांकि अंदरखाने वह लालू प्रसाद को गच्चा देकर भाजपा के साथ नए सिरे से जुगलबंदी की जुगत भिड़ाने में लगे थे. लालू प्रसाद पटना से भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन खड़ा करने की कार्ययोजना पर काम कर रहे थे लेकिन नीतीश कुमार ने उसमें फच्चर लगाने की कोशिश की. वे खुद तो भाजपा के साथ गए ही, उन्होंने यह कोशिश की कि शरद यादव और उनके साथी भी उनका अनुसरण करें. उन्हें केंद्र सरकार में मंत्री पद के प्रलोभन दिए गए. उनके मना कर देने और नीतीश कुमार के पलट जाने के बाद विपक्ष की धुरी बनने की सोच के तहत महागठबंधन के साथ ही बने रहने के राजनीतिक रुख के साफ हो जाने के बाद कोशिशें इस बात की हुईं कि वह इस रैली में नहीं जा सकें. कभी उनके सिपहसालार कहे जाते रहे जद यू के महासचिव के सी त्यागी ने दो दिन पहले उन्हें पत्र भेजकर आगाह किया कि राजद की रैली में उनका भाग लेना अनुशासन की लक्ष्मण रेखा को लांघने जैसा होगा. रैली के बाद भी त्यागी ने कहा कि शरद दूसरे खेमे में चले गए हैं. अब जद यू के साथ उनका रिश्ता नहीं रह गया है. हालांकि जद यू से उनका औपचारिक निलंबन अथवा निष्कासन अभी बाकी है. त्यागी ने कहा है कि उनका मामला अनुशासन समिति के हवाले है लेकिन शरद यादव और उनके साथियों पर इस तरह की घुड़कियों का असर नहीं पड़ा. दो दिन पहले उन्होंने कहा भी कि महागठबंधन की रैली का फैसला काफी पहले हुआ था जिसमें नीतीश कुमार के भी शामिल होने की बात थी. नीतीश पलट गए लेकिन हम पलटनेवाले नहीं क्योंकि हम ही असली जद यू हैं जिसके साथ हमारी अधिकतर प्रदेश इकाइयां हैं. मंच पर उनके साथ राज्यसभा के एक और सदस्य अली अनवर और जद यू के वरिष्ठ नेता, राज्य सरकार में पूर्व मंत्री रमई राम भी थे. मंच से ही शरद यादव ने राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपाई महागठबंधन खड़ा करने की घोषणा की जिसका समर्थन मंच पर मौजूद विपक्ष के तमाम नेताओं ने भी किया. 

रैली के आयोजकों के अनुसार दिल्ली के इशारे पर कुछ और दलों और नेताओं को भी इस रैली से विमुख होने के दबाव पड़े. मायावती अथवा उनकी बसपा का एक भी प्रतिनिधि नहीं दिखा. रैली में शामिल होने को लेकर वह लगातार अपना स्टैंड बदलते रहीं. हालांकि 17 अगस्त को दिल्ली में शरद यादव के साझी विरासत बचाओ सम्मेलन में बसपा के सांसद वीर सिंह मौजूद थे. उस सम्मेलन में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी और माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी की मौजूदगी भी थी. सबने एक स्वर से कहा था कि भाजपा शासन में संघ परिवार की देखरेख में साझी विरासत खतरे में है. इसे बचाने के लिए भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाने की बात कही गई थी. स्वयं राहुल गांधी ने कहा था कि बदली परिस्थतियों में अगर सभी विपक्षी दलों का एक महागठबंधन बन जाए तो भाजपा कहीं दिखेगी नहीं. लेकिन जहां साझी विरासत बचाओ सम्मेलन में 17 दलों के नेता और प्रतिनिधि शामिल हुए वहीं महागठबंधन खड़ा करने की अगली कड़ी के रूप में आयोजित राजद की महा रैली में केवल 14 दलों के नेता-प्रतिनिधि ही दिखे. राहुल गांधी स्वयं नहीं आए. उन्होंने  पटना आने और लालू प्रसाद के साथ मंच साझा करने के बजाय नार्वे की राजधानी ओस्लो की यात्रा को मुनासिब समझा. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी नहीं आ सकीं. कांग्रेस का प्रतिनिधित्व राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद और महासचिव सीपी जोशी ने किया. सीताराम येचुरी भी नहीं दिखे. माकपा को संभवतः मंच पर ममता बनर्जी की मौजूदगी नागवार गुजरी होगी. लेकिन भाकपा के महासचिव सुधाकर रेड्डी और सचिव डी राजा वहां दिखे. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तथा राष्ट्रीय लोकदल के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी पूरी ताकत के साथ दिखे. पड़ोसी राज्य झारखंड से झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के साथ ही एक और पूर्व मुख्यमंत्री झाविमो के बाबूलाल मरांडी भी मौजूद थे. एनसीपी के महासचिव और बिहार से लोकसभा सदस्य तारिक अनवर भी थे. हालांकि एनसीपी का प्रतिनिधित्व अगर प्रफुल्ल पटेल अथवा शरद पवार या उनके परिवार का कोई सदस्य करता तो रैली में वजन कुछ और बढ़ जाता क्योंकि शरद पवार के राजग से जुड़ने के कयास गाहे बगाहे लगते रहते हैं. दक्षिण में तमिलनाडु से द्रविड़ मुनेत्र कझगम के लोकसभा सदस्य टी के एस इलेंगोवन और केरल कांग्रेस के प्रतिनिधि आए तो उत्तर पूर्व में असम से एयूडीफ के नेता लोकसभा सदस्य बदरुद्दीन अजमल की मौजूदगी महा रैली को राष्ट्रीय बना रही थी. ओडिसा में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल, दिल्ली से आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और हरियाणा से इंडियन नेशनल लोकदल के किसी प्रतिनिधि की गैर मौजूदगी भी क्षटक रही थी. संभवतः कांग्रेस की नापंसदगी के कारण उन्हें बुलाया ही नहीं गया था.

कुल मिलाकर यह महा रैली लालू प्रसाद और उनके राजद और राजनीतिक कुनबे का शक्ति प्रदर्शन था जिसमें वह पूरी तरह से सफल रहे. एक बार फिर उन्होंने यह साबित किया कि जोड़ तोड़ के खेल से नीतीश कुमार भले ही सरकार चला रहे हों, बिहार में जनाधारवाले वह अकेले नेता हैं. तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोपों और जांच मुकदमों के बावजूद वह भाजपा और उसके नेतृत्व में उभर रही सांप्रदायिक ताकतों के विरुद्ध झुकनेवाले नहीं हैं. उन्होंने और उनके पुत्रों ने भी रैली में साफ किया कि मुकदमे और जेल की दीवारें भी सांप्रदायिक ताकतों से लोहा लेने के उनके संकल्प को कमजोर नहीं कर सकतीं. उनके जनाधार और सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष के उनके कमिटमेंट का लोहा मंच पर मौजूद विपक्ष के तमाम नेताओं ने भी एक स्वर से माना. यह महा रैली नीतीश कुमार और भाजपा गठबंधन सरकार के लिए भी खतरे का संकेत साबित हो सकती है. राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपा और गैर राजग महागठबंधन ने आकार लेना शुरू हो गया है, इससे इतर बिहार में नीतीश कुमार और भाजपा की राजनीति से नाखुस जद यू और राजग में रालोसपा जैसे घटक दलों के नेताओं, विधायकों के बीच इस महा रैली की सफलता एक नई ताकत का संचार कर सकती है. जद यू के विधायकों का एक बड़ा गुट शरद यादव और लालू प्रसाद के साथ सिर्फ एक आश्वासन भर से जुड़ने को तैयार है कि चुनाव हों अथवा उप चुनाव उन्हें टिकट मिलेगा और उनकी चुनावी जीत सुनिश्चित करने के ईमानदार प्रयास होंगे. इसका एहसास सृजन घोटाले और भयावह बाढ़ की विभीषिका का भी सामना कर रहे नीतीश कुमार और उनके सहयोगी भाजपा-राजग के लोगों को भी है. आश्चर्य नहीं होगा कि महागठबंधन के साथ जुड़ रहे दलों, नेताओं और राजनीतिक ताकतों को इससे विमुख करने के प्रयास के बतौर प्रलोभन और दबाव भी नए सिरे से नजर आने लगें. 
   
से राजनीतिक विडंबना भी कह सकते हैं कि कभी 1960 के दशक के मध्य में अपराजेय बनते जा रही कांग्रेस को राज्यों और केंद्र में भी अपदस्थ करने के लिए समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की रणनीति तैयार की थी. इस रणनीति के तहत जनसंघ, सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, भारतीय क्रांति दल, संगठन कांग्रेस, स्वतंत्र पार्टी आदि गैर कांग्रेसी दलों ने चुनावी गठबंधन कर कई राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया था. केंद्र में भी इस तरह का कोई राजनीतिक प्रयोग सफल हो पाता उससे पहले ही एक तो डा. लोहिया का असामयिक निधन हो गया, दूसरे गैर कांग्रेसी, संयुक्त विधायक दल की सरकारें तयशुदा न्यूनतम साझा कार्यक्रमों की अनदेखी और उपेक्षा करते हुए अपने अंतर्विरोधों के बोझ तले चरमरा कर गिर गई थीं. सत्तर के दशक में एक बार फिर समाजवादी-सर्वोदयी नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण के निर्देशन या कहें दबाव में जनता पार्टी के रूप में गैर कांग्रेसी दलों का एका हुआ और उस समय सर्व शक्तिमान कही जानेवाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस को केंद्र में भी राजनीतिक पराभव का सामना करना पड़ा था लेकिन वह प्रयोग भी लंबा नहीं चल सका और 1980 में श्रीमती गांधी एक बार फिर प्रचंड जन समर्थन से सत्तारूढ़ हुई थीं. 1989 में एक बार फिर कांग्रेस से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी दलों का जमावड़ा सत्तारूढ़ हुआ लेकिन यह राजनीतिक प्रयोग भी काल कवलित हो गया. बाद के वर्षों में भाजपा के राजनीतिक रूप से ताकतवर होते जाने और उसके नेतृत्व में आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के अपने सांप्रदायिक एवं फासीवादी स्वरूप में सामने आते जाने के बाद गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी दलों ने कांग्रेस के सहयोग से कभी राष्ट्रीय लोतांत्रिक मोर्चा तो कभी संयुक्त मोर्चा के नाम से तीसरा मोर्चा खड़ा करने की कोशिशें की जो कुछ हद तक कामयाब भी हुईं लेकिन दीर्घकालिक साबित नहीं हो सकीं.  

अब एक बार फिर तमाम गैर भाजपा-गैर राजग दलों के नेता नए सिरे से उसी कांग्रेस को साथ लेकर ’गैर भाजपावाद’ की रणनीति तैयार करने में लगे हैं जिसके विरुद्ध गैर कांग्रेसवाद की रणनीति बनी थी. कांग्रेस के भीतर भी एक बड़े तबके या कहें नेतृत्व की राय भी बन रही है कि मौजूदा परिस्थितियों में कांग्रेस भाजपा- राजग को सीधे और अकेले शिकस्त दे सकने की स्थिति में नहीं है. इसके लिए किसी न किसी तरह का विपक्षी महागठबंधन खड़ा करना ही होगा. 

दरअसल, बिहार, दिल्ली और पंजाब विधानसभा के चुनावी नतीजों को अपवाद मान लें तो मई 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए अधिकतर राज्यों में विधानसभा चुनाव, उप चुनाव और कुछ राज्यों में नगर निकायों और पंचायत के चुनावों में भी अपराजेय और विजेता बनकर उभरी भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राजग की चुनावी सफलता के लिए अन्य कारणों के अलावा विपक्षी मतों के बंटवारे को ही मुख्यरूप से जिम्मेदार माना जा रहा है. लोकसभा चुनाव हों अथवा झारखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर, असम और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्य विधानसभाओं और महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली के नगर निकायों के चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को मिले मतों के प्रतिशत के मुकाबले अगर अलग अलग होकर लड़े विपक्षी दलों को मिले मतों के प्रतिशत को जोड़कर देखें तो संयुक्त विपक्ष सत्तारूढ़ भाजपानीत राजग पर निर्णायक रूप से भारी दिखता है. अगर विपक्षी दल अपने निजी अहंकार, वैमनस्य और अपनी राजनीतिक ताकत के बारे में अपने अतिरेकी आकलन को परे रखकर मिलकर अथवा किसी तरह का चुनावी तालमेल कर चुनाव लड़े होते तो नतीजों की शक्ल कुछ और नजर आती. 

लेकिन इस तरह के किसी महागठबंधन को लेकर कई सवाल और आशंकाएं भी हैं. मसलन  महागठबंधन का नेता कौन होगा! राहुल गांधी, शरद यादव, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल समेत कई दावेदार दिख रहे हैं. राहुल गांधी से इतर क्षेत्रीय दलों का कोई भी ऐसा नेता नहीं है जिसका एक राज्य के बाहर संगठन और जनाधार हो. कांग्रेस की उपस्थिति जरूर कई राज्यों में है लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व में कितने दल और नेता राजी होंगे, यह भी एक सवाल है. इसके साथ ही सबसे बड़ी मुश्किल उन राज्यों में होगी जहां कभी कांग्रेस का राजनीतिक वर्चस्व रहा है लेकिन हाल के वर्षों में वहां कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई है. उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिसा, दिल्ली, आंध्र-तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कोई न कोई क्षेत्रीय दल मजबूत राजनीतिक ताकत के रूप में उभरा है. केरल और ओडिसा जैसे राज्यों में कांग्रेस का मुख्य मुकाबला वाम दलों और बीजद से है लेकिन तीसरी ताकत के रूप में वहां जड़ें जमा और फैला रही भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस-वाम दलों और बीजद को भी किसी न किसी तरह का राजनीतिक तालमेल करना होगा जिससे गैर भाजपा दलों का जनाधार बंटने और बिखरने नहीं पाए. इसी तरह से पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस, वाम दलों और कांग्रेस के बीच किस तरह की एकजुटता बन सकेगी. उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा, कांग्रेस आौर आरएलडी क्या एक साथ आ सकेंगे. यह महागठबंधन क्या सिर्फ मोदी और भाजपा विरोध तक ही सीमित रहेगा या फिर उसे आगे ले जाने के लिए सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी बनेगा. इन जटिल सवालों के जवाब मुश्किल हैं लेकिन असंभव नहीं. महागठबंधन का नेता कौन होगा, इस तरह के सवालों के जवाब के लिए विपक्ष के पास अभी बहुत समय है. 
नोट :  इस लेख के सम्पादित अंश 27अगस्त ,2017 को बीबीसी हिंदी.कॉम पर प्रकाशित 

Thursday, 3 August 2017

बिहार की राजनीति और नीतीश की नैतिकता का डीएनए

नजरिया 

जयशंकर गुप्त 

''उसी को जीने का हक है जो इस जमाने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए.''



ताज़ा घटनाक्रम में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भूमिका पर लिखते हुए मशहूर शायर वसीम बरेलवी का ये शेर याद आ गया.
 तीन-चार दिन पहले तक 'संघ मुक्त भारत' बनाने और 'मिट्टी में मिल जाने मगर भाजपा के साथ हाथ नहीं मिलाने' की बातें करते रहे नीतीश कुमार ने जब 27 जुलाई की शाम अपने महागठबंधन सरकार के बड़े पार्टनर लालू प्रसाद यादव और उनके राजनीतिक कुनबे के 'भ्रष्टाचार' से 'आजिज' आकर कार्यवाहक राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी को अपना त्यागपत्र सौंपा तो लोगों को लगा कि राजनीति में भ्रष्टाचार के विरुद्ध नीतीश कुमार ने बड़ा साहसिक क़दम उठाया है.
नीतीश कुमार पिछले कई दिनों से अपने उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के त्यागपत्र के लिए दबाव बनाए हुए थे क्योंकि पिछले कुछ दिनों से लालू कुनबे की 'बेनामी संपत्ति' पर लगातार छापामारी अभियान में लगी सीबीआई ने तेजस्वी यादव के विरुद्ध भी एक मामले में एफ़आइआर दर्ज की थी. हालांकि नीतीश कुमार ने कभी तेजस्वी के त्यागपत्र की खुली मांग नहीं की थी लेकिन यह कहकर दबाव जरूर बनाया कि उनकी सरकार में भ्रष्टाचार का कोई आरोपी कैसे रह सकता है. इसके साथ ही उन्होंने तेजस्वी से बिंदुवार स्पष्टीकरण देने की माँग भी की.

नीतीश के त्यागपत्र देकर राजभवन से बाहर आते ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट करके उन्हें बधाई दी, कुछ ही घंटों में नीतीश कुमार को न सिर्फ भाजपानीत एनडीए का समर्थन मिला बल्कि उनके साथ सरकार साझा करने की घोषणा भी हो गयी, इससे नीतीश के 'साहसिक क़दम' की हवा निकल गई. उनके निवास पर जेडीयू और बीजेपी विधायकों के रात्रिभोज ने भी यही संकेत दिया कि 'साहसिक क़दम' की घोषणा भले ही 27 जुलाई की शाम को की गई हो, इसकी पटकथा पहले से ही लिखी जा चुकी थी.

चाहे सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी का समर्थन हो या फिर दिल्ली में बिना किसी जनाधार के सिर्फ भाजपा को राजनीतिक लाभ पहुंचाने की गरज से नगर निगमों के चुनाव लड़ने की घोषणा, अपने  प्रवक्ता के सी त्यागी से यह बयान दिलवाकर कि भाजपा के साथ वे ज्यादा सहज महसूस करते हैं और फिर राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन कर वह लगातार इस बात के संकेत दे रहे थे कि उनके मन में क्या चल रहा है.

हालांकि इसके साथ ही विपक्षी एकता और सांप्रदायिक ताक़तों के साथ संघर्ष की अपनी प्रतिबद्धता के इजहार, कांग्रेस के नेताओं से मुलाकात और उप राष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार गोपालकृष्ण गांधी के समर्थन की बात कर वह विपक्ष को भी लगातार झांसे में रखे हुए थे. इस सबके बावजूद नीतीश कुमार की राजनीति में मूल्य, नैतिकता और ईमानदारी के तत्व देखनेवाले राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि अगर वह अपने त्यागपत्र के साथ ही विधानसभा भंग करवाकर नए चुनाव कराने की सिफ़ारिश करते तो कुछ और बात होती. भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनकी प्रतिबद्धता भी कुछ ज्यादा निखर कर सामने आती. लेकिन ऐसा उनकी पहले से ही तैयार पटकथा में लिखा ही नहीं था और उन्होंने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी प्रतिबद्धता के नाम पर उनसे हाथ मिला लिया जिन्हें वह मनुवादी, सांप्रदायिक, फ़ासिस्ट करार देते हुए 'संघ मुक्त भारत' की बातें करते थे.  ौंके साथ सर्कार साझा करने को राजी हो गए जिन्होंने न सिर्फ उनके बल्कि उनके बहाने पुरे बिहार के डी एन ए  पर सवाल उठाये थे. 

रअसल, समाजवादी नेता और विचारक डा. राममनोहर लोहिया के नाम पर राजनीति करनेवाले तमाम कथित समाजवादियों की यह आदत रही है कि अपनी सुविधा के हिसाब से कभी गैर-कांग्रेसवाद और भ्रष्टाचार के विरोध के नाम पर जनसंघ और भाजपा के साथ हो लेते हैं और जब किसी वजह से असुविधा महसूस हुई तो सांप्रदायिकता और मनुवाद के विरोध के नाम पर कांग्रेस के साथ हाथ मिला लेने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ. नीतीश कुमार के साथ भी कुछ ऐसा ही है. लोहिया- जेपी के आंदोलन में लालू प्रसाद के साथ रहे नीतीश 1990 में बिहार में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनने के समय उनके बेहद करीबी सहयोगी रहे.उस समय लालू-नीतीश की जुगल जोड़ी बहुत मशहूर थी लेकिन कुछ ही वर्षों में निजी अहंकारों के टकराव के बाद दोनों के रास्ते अलग हो गए. उधर जनता दल की राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर धकेले जाने से तेज तर्रार समाजवादी नेता जार्ज फ़र्नांडिस भी ख़ासे परेशान थे. दोनों ने जनता दल से अलग होकर समता पार्टी बना ली. 1995 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार पहली बार आमने सामने थे.

मीडिया ने और बिहार के सवर्ण समाज ने उस समय नीतीश कुमार की राजनीति में ख़ूब हवा भरी थी लेकिन जब चुनावी नतीजे सामने आए तो नीतीश कुमार की समता पार्टी सीटों के हिसाब से दहाई का आंकड़ा भी नहीं पार कर सकी. आगे चलकर नीतीश कुमार ने जार्ज फ़र्नांडिस पर दबाव बनाकर उन्हें भाजपा के साथ चुनावी गठबंधन के लिए राजी किया. हालांकि उन्हें बिहार में लालू प्रसाद को अपदस्थ करने और  भाजपा के साथ साझेदारी कर खुद सत्तारूढ़ होने का अवसर 2005 में ही मिला लेकिन वह 1998 से लेकर 2004 तक एनडीए का हिस्सा बनकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों में रेल, भूतल परिवहन और कृषि मंत्री जरूर बनते रहे.

भाजपा के साथ उनका राजनीतिक हनीमून 2013 तक बख़ूबी चलता रहा. यहां तक कि 2002 के गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद भी उन्होंने भाजपा और एनडीए से अलग होने की ज़रूरत नहीं समझी. हालांकि इस दौरान उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से अपनी अलग तरह की दूरी जरूर बना रखी थी. अपने उस समय के डिप्टी और संयोग से इस बार भी डिप्टी ही बने सुशील मोदी के
ज़रिए दबाव बनाकर नरेंद्र मोदी को बिहार से बाहर ही रखा. यहां तक कि 2010 के विधानसभा चुनाव में भी मोदी को बिहार में अपनी पार्टी के चुनाव अभियान में भी शामिल नहीं होने दिया गया.
गुस्से से लाल-पीले हुए नीतीश 
लेकिन इस बीच भाजपा पर नरेंद्र  मोदी का दबदबा बढ़ने लगा था और अंदरखाने बिहार में भी जेडीयू और भाजपा गठबंधन के बीच कटुता और अविश्वास की खाई भी बढ़ने लगी थी. भाजपा ने बड़ी चालाकी से पटना में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक आयोजित की और उस बहाने नरेंद्र मोदी भी वहां गए. यही नहीं भाजपा के कुछ उत्साही लोगों ने मोदी के साथ अमृतसर के किसी कार्यक्रम में ली गई नीतीश कुमार की तस्वीर के साथ कुछ अख़बारों में बड़े-बड़े विज्ञापन प्रकाशित करवा दिए. ग़ुस्से से लाल पीले हुए नीतीश कुमार ने जवाब में नरेंद्र मोदी सहित भाजपा के नेताओं के लिए दिए जानेवाले अपने रात्रिभोज को रद्द करवा दिया. यही नहीं बिहार के बाढ़ पीड़ितों को दी गई गुजरात सरकार की मदद के बारे में किए गए प्रचार से क्षुब्ध नीतीश कुमार ने पूरी रकम गुजरात सरकार को वापस कर दी थी. उस समय नीतीश कुमार के मन मस्तिष्क में सांप्रदायिकता के विरोध का ज्वार तेज़ी से उमड़ने लगा और भाजपा के द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अपना उम्मीदवार घोषित करने के बाद तो जैसे नीतीश कुमार ने आपा ही खो दिया. उन्होंने एक झटके में अपनी सरकार से भाजपा के सभी मंत्रियों को बर्ख़ास्त कर दिया था.

इस तरह से भाजपा के साथ नीतीश कुमार का 15-16 साल पुराना राजनीतिक गठबंधन टूट गया. किसी तरह वह अपनी सरकार बचा पाने में वे सफल रहे. 2014 का लोकसभा चुनाव वह अकेले दम पर 'सुशासन बाबू' की अपनी छवि के सहारे लड़े लेकिन उनकी यह छवि किसी काम नहीं आई और बिहार की 40 में से केवल दो लोकसभा सीटें ही उनके जेडीयू के खाते में आ सकीं. '

लालू प्रसाद के साथ हुए
लोकसभा का चुनाव बुरी तरह से हारने के तुरंत बाद ही उन्हें इलहाम हुआ कि भाजपा और आरएसएस की चुनौतियों का जवाब वह अकेले नहीं दे सकते. और बिना समय गंवाए वह एक कुशल पैंतरेबाज की तरह लालू प्रसाद के पास पहुंच गए जिनके साथ उनका दो दशकों से छत्तीस का आंकड़ा था. लालू प्रसाद उस समय भी चारा घोटाले में सज़ायाफ्ता थे और आज भी हैं लेकिन तब शायद सांप्रदायिकता के जवाब में नीतीश कुमार के लिए लालू यादव का भ्रष्टाचार और परिवारवाद गौण हो गया. उन्होंने लालू प्रसाद को समझाया (लालू प्रसाद के शब्दों में कहें तो गिड़गिड़ाया) कि दोनों के एकजुट हुए बगैर भाजपा को बिहार में शिकस्त नहीं दी जा सकती. बाद में अपनी चुनौती को और मज़बूत बनाने की गरज से कांग्रेस को भी साथ लेकर महागठबंधन तैयार कर लिया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि बिहार के दलितों, महादलितों, पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों ने एकजुट होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में देश भर में चल रहे भाजपा  के विजय रथ को रोक कर अपने डीएनए को दिखा  दिया.

तीन चौथाई बहुमत के साथ नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार बन गई बावजूद इसके कि ज़्यादा (80) विधायक राजद के जीत कर आए थे और जद-यू के केवल 71  विधायक ही जीत सके थे. कांग्रेस के खाते में 27 विधायक आए थे. सरकार के गठन में भी नीतीश कुमार ने बड़ी चालाकी से मुख्यमंत्री पद के साथ ही विधानसभाध्यक्ष का पद भी अपने पास रख लिया ताकि गाढ़े समय में काम आ सके-आए भी.

कसमसाहट में थे नीतीश !

लेकिन कभी नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के बेहद करीबी रहे समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी के अनुसार अपने से सीनियर लालू प्रसाद की छाया में और इस बात के एहसास से भी कि आरजेडी के पास ज़्यादा विधायक हैं, नीतीश कुमार महागठबंधन में एक अजीब तरह की कसमसाहट महसूस कर रहे थे. वह ख़ुद को उस तरह सहज महसूस नहीं कर पा रहे थे जैसा कभी वह भाजपा और सुशील मोदी के साथ महसूस कर रहे थे. गाहे बगाहे राजद के लोगों की तरफ से इस तरह की बयानबाजी भी सामने आती रहती थी कि राजद के पास ज़्यादा विधायक हैं. ये बातें भी खुसुरपुसुर के ज़रिए सामने आती थीं कि अब नीतीश सरकार में उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के राज्यारोहण का समय आने लगा है.

इस बीच और ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के बाद से ही नीतीश कुमार को यह लगने लगा कि 2019 में भी नरेंद्र मोदी को शिकस्त दे पाना मुश्किल है. इसके साथ ही उन्हें यह भी समझ में आया कि 2019 में उन्हें विपक्ष के तथाकथित महागठबंधन की धुरी और चेहरा बनाने की बातें जितनी भी की जा रही हों, बिहार में अपने दल के महज दर्जन भर सांसद जिता पाने की अपनी राजनीतिक ताक़त के मद्देनज़र देश के शीर्ष नेतृत्व को पाने की उनकी महत्वाकांक्षा पूरी होनी मुश्किल है. कांग्रेस का नेतृत्व तत्काल उन्हें मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने को भी तैयार नहीं था. ऐसे में सुशील मोदी और अरुण जेटली के ज़रिए वह भाजपा आलाकमान यानी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ भी अपने राजनीतिक तार जोड़े हुए थे. कभी जेटली के करीबी रहे संजय झा, नीतीश कुमार के भी बेहद करीबी और जेडीयू के विधानपार्षद भी हैं.
दूसरी तरफ, नीतीश कुमार का अपने राजनीतिक भविष्य के बारे में चाहे जो भी आकलन रहा हो, नरेंद्र मोदी उन्हें अपने लिए भविष्य की मजबूत चुनौती ही मानते थे. इसलिए उन्होंने अतीत की सारी कड़वाहटों को भुलाकर नीतीश कुमार को अपनी शरण में लेने के लिए हामी भर दी. हालांकि नरेंद्र मोदी की राजनीतिक कार्यशैली को बारीकी से जानने और समझानेवाले लोग जानते हैं कि उन्हें कभी आंख दिखानेवाले उनके राजनीतिक विरोधियों को वह आसानी से माफ़ नहीं कर पाते. और अब तो कभी उन्हें आंख ही नहीं दिखाने बल्कि अपमानित करनेवाले नीतीश कुमार उनके शरणागत भी हैं.

तैयार थी योजना

राजनीतिक प्रेक्षकों की सुनें तो यह संयोग मात्र नहीं था कि एक तरफ भाजपा नेता सुशील मोदी ने अचानक लालू प्रसाद के कुनबे के कथित भ्रष्टाचार के मामलों को 'दस्तावेज़ी सबूतों' के आधार पर उजागर करना शुरू कर दिया और उधर सीबीआई, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय जैसी केंद्र सरकार की एजेंसियां लालू प्रसाद के कुनबे के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सक्रिय हो गईं. अब तो लालू प्रसाद और उनके परिवार के लोग यह आरोप भी लगा रहे हैं कि उनके कथित भ्रष्टाचार के मामलों से जुड़ी फाइलें और दस्तावेज़ नीतीश कुमार और उनके करीबी लोग ही मोदी के पास पहुंचाने में लगे थे. दनादन छापे पड़ने लगे. घंटों पूछताछ होने लगी. हालांकि इन छापेमारियों और पूछताछ में ठोस क्या क्या निकला इसे आज तक आधिकारिक तौर पर नहीं बताया गया. सिर्फ़ सूत्रों के हवाले से खबरें बाहर आती रहीं. इस बीच भ्रष्टाचार के एक मामले में तेजस्वी यादव के खिलाफ सीबीआई की प्राथमिकी ने नीतीश कुमार को सुअवसर और मनचाहा राजनीतिक अस्त्र प्रदान कर दिया.

हालांकि महज प्राथमिकी दर्ज होने के आधार पर राजनीतिकों के पद त्याग के उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं. इस आधार पर पदत्याग की मांग भी विरोधी तो करते हैं लेकिन जिनके भरोसे सरकार चल रही हो वे सत्ता के साझीदार इस तरह की मांग कम ही करते हैं. वैसे भी, बीएस मामले में नीतीश कुमार पर तेजस्वी यादव के त्यागपत्र लेने का अथवा महागठबंधन तोड़  दबाव बनाने वाली भाजपा  केंद्रीय मंत्री सहित कई वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ अभियोगपत्र दाखिल होने के बावजूद वे लोग अपने पदों पर  हुए हैं. और तो और मध्यप्रदेश सर्कार में तो एक मंत्री नरोत्तम मिश्रा  विधानसभा चुनाव भ्रष्ट आचरण का आरोप साबित होने के बाद चुनाव आयोग ने रद्द करते हुए उनके तीन साल तक चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दी है. सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रपति के चुनाव में उन्हें मतदान करने की छूट भी नहीं दी. लेकिन वह बड़ी शान मन्त्र बने हुए हैं. ताज्जुब तो इस बात का भी है की स्याम नितीश कुमार और उनके भाजपाई डेपुटी शुशील मोदी पर भी कई मामले दर्ज हैं.

नीतीश कुमार चाहते तो क़ानून को अपना काम करने देने के बहाने तेजस्वी के ख़िलाफ़ अभियोगपत्र दाख़िल होने और उनकी गिरफ़्तारी का इंतज़ार कर सकते थे, वैसी हालत में तेजस्वी को त्यागपत्र देना ही पड़ता. लेकिन उन्होंने इसकी ज़रूरत नहीं समझी. उन्होंने तो अपने लिए कुछ अलग तरह की ही राजनीतिक पटकथा तैयार करवा रखी थी जिसकी भनक अपने कुछेक ख़ास लोगों को छोड़कर अपने दल के सांसदों, विधायकों तथा शरद यादव जैसे वरिष्ठ नेताओं को भी नहीं लगने दी थी.

और फिर बिहार में द्विज मानसिकता के लोगों, उनसे प्रभावित और संचालित मीडिया का भी नीतीश कुमार पर तेजस्वी यादव के 'भ्रष्टाचार' से समझौता नहीं करने का दबाव था. उनकी सुशासन बाबू की छवि को ललकारा जा रहा था. यह बताने की आवश्यकता नहीं कि लंबे अरसे से बिहार के एक बड़े और मुखर (सवर्ण) तबके की आंखों में लालू यादव और नीतीश कुमार का गठबंधन किरकिरी की तरह से चुभ रहा था.ठीक वैसे ही जैसे कि नब्बे के शुरुआती दशक में चुभ रहा था. वे लोग 1994-95 की तर्ज पर ही इन दोनों को किसी भी कीमत पर अलग करवाने में जुटे थे. इसमें एक बार फिर वे सफल रहे.

नीतीश कुमार की एक ख़ासियत यह भी है कि जब वह सत्ता में होते हैं तो उन्हें अपनी अभिजात्य संस्कृति और उसकी सोहबत पसंद आती है. वह इसी तरह की मीडिया और नौकरशाही से घिरे रहने में खुद को सहज महसूस करते हैं लेकिन जब चुनाव आता है तो उन्हें यह एहसास होने में देर नहीं लगती कि यह तबका उनके पक्ष  माहौल चाहे जितना भी बना दे, उन्हें चुनाव नहीं जिता सकता, इसके लिए उन्हें दलितों, अपने सजातीय कुर्मी जनाधार के साथ ही अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों और बाहुबलियों का समर्थन आवश्यक नजर आने लगता है.

जहां तक भ्रष्टाचार के साथ नीतीश कुमार के कभी समझौता नहीं करने की बात है, शिवानंद तिवारी इसे उनका राजनीतिक ढोंग करार देते हैं. वह सवाल करते हैं, ''यह कैसी नैतिकता और ईमानदारी है जो सज़ायाफ्ता लालू प्रसाद के साथ चुनावी महागठबंधन को तो जायज ठहराती है लेकिन भ्रष्टाचार के पुराने मामले में महज प्राथमिकी दर्ज किए जाने को गठबंधन तोड़ने का आधार बना देती है. जिस समय लालू प्रसाद के दोनों बेटे चुनाव लड़ रहे थे, सरकार में मंत्री बने थे तब क्या नीतीश को इन मामलों की जानकारी नहीं थी? और फिर अगर प्राथमिकी दर्ज़ होना ही किसी के भ्रष्टाचार का सबूत है तो उनके खुद के और सुशील मोदी के ख़िलाफ़ भी तो क्रमशः हत्या और भ्रष्टाचार के आरोप हैं, इस पर नीतीश कुमार क्या कहेंगे.'' 

बिहार की राजनीति को बारीकी से जानने-समझनेवाले पूछते हैं कि नीतीश कुमार ने किस नैतिकता के आधार पर 1980 के बाद से ही, एक दो वर्ष के छोटे अंतराल को छोड़कर किसी न किसी दल के सहारे एक बार लोकसभा और फिर लगातार राज्यसभा का सदस्य बने चले आ रहे महेंद्र प्रसाद उर्फ किंग महेंद्र और अंबानी परिवार के खासमख़ास नौकरशाह रहे एनके सिंह उर्फ नंदू बाबू को राज्यसभा के टिकट दिए थे? उनके पिछले (सुशील मोदी के साथ गलबहियांवाले) कार्यकाल के दौरान अनंत सिंह जैसे अपराधी और बाहुबली छवि के कई विधायकों को मुख्यमंत्री और उनकी सरकार की सरपरस्ती हासिल थी. आज भी अनंत सिंह उनके बेहद करीबी कहे जाते हैं. भ्रष्टाचार के साथ किसी भी क़ीमत पर समझौता नहीं करने का दावा करने वाले नीतीश कुमार क्या बताएंगे कि चुनावों में उनके पास पैसे कहां से आते हैं जिससे वह अपना महंगा चुनाव अभियान और प्रशांत किशोर जैसे महंगे चुनाव प्रबंधक का ख़र्चा भी उठा पाते हैं.

हरहाल, बदले माहौल में  नीतीश कुमार की सरकार तो बची रह सकती है. हालांकि उनके नए गठबंधन में उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी के रुख को देखते हुए दरार अभी से नजर आने लगी है, शारद यादव के नेतृत्व में जेडीयू में भी एक बड़ा तबका उनकी नई राजनीति को अपने गले से नीचे उतार पाने में असहज महसूस कर रहा है. इससे बचने के लिए वह और उनके नए गठबंधन सहयोगी गुजरात और उत्तर प्रदेश की तर्ज पर राजद और कांग्रेस के विधायकों में सेंध लगाने की रणनीति पर अमल कर सकते हैं लेकिन इसके लिए भी नीतीश कुमार को अपनी प्रचारित राजनीतिक छवि के साथ समझौता ही करना पड़ेगा.

वैसे भी बिहार का मुखर तबका और मीडिया का एक बड़ा तबका भले ही अगले कुछ दिनों तक उनकी नैतिक, मूल्यपरक और ईमानदार राजनीति के कसीदे पढ़ते नजर आए, 2015 के विधानसभा चुनाव में उनके नेतृत्व और गठबंधन के पक्ष में लामबंद हुए और उनमें भविष्य का प्रधानमंत्री देखने लगे पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों के लोग, दलित एवं अल्पसंख्यक तो एक बार फिर छला गया ही महसूस कर रहे हैं. और दोबारा भाजपा के साथ मोहभंग की स्थिति में, जो असंभव नहीं है, उनके सांप्रदायिकता विरोधी नारों पर ये लोग कैसे यक़ीन करेंगे?

नोट : इस लेख का सम्पादित रूप 30 जुलाई  को बी बी सी, हिंदी की वेबसाइट पर प्रकाशित। 

Saturday, 1 July 2017

रायसीना हिल्स पर राम नाथ


दावेदारी: पीएम मोदी और भाजपा नेताओं के साथ रामनाथ कोविंद

जयशंकर गुप्त
सत्रह जुलाई को कुछ असंभव-सा अप्रत्याशित नहीं हुआ तो भाजपा के दलित नेता, बिहार के पूर्व राज्यपाल, पूर्व सांसद रामनाथ कोविंद देश के 14वें राष्ट्रपति बन जाएंगे। सत्तारूढ़ एनडीए के उम्मीदवार कोविंद का रायसीना हिल्स पर आलीशान राष्ट्रपति भवन में बतौर प्रथम नागरिक स्थापित होना अब महज औपचारिकता ही रह गई है। हालांकि विपक्षी कांग्रेस और उसके साथ लामबंद तकरीबन डेढ़ दर्जन छोटे-बड़े दलों ने कोविंद के विरुद्ध एक और दलित नेता मीरा कुमार को खड़ा करके मुकाबले को रोचक बनाने की कोशिश की है। पूर्व उप-प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार केंद्रीय मंत्री और लोकसभाध्यक्ष रह चुकी हैं और उनकी शख्सियत भी वजनदार है। इससे पहले भी के.आर. नारायणन के रूप में दलित नेता देश के राष्ट्रपति बन चुके हैं (हालांकि पूर्व राजनयिक और केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके नारायणन दलित नेता के रूप में पहचान बताए जाने पर शर्ममिंदगी महसूस करते थे। वे कहते थे कि देश के प्रथम नागरिक के रूप में उनका चयन दलित होने के कारण नहीं, बल्कि योग्यता और अनुभव के आधार पर हुआ था) लेकिन संसदीय इतिहास में यह शायद पहली बार है कि सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए दो वरिष्ठ दलित नेता आमने-सामने हैं।
वैसे, कहने को तो सर्वोच्च पद के लिए किसी एक नाम पर आम राय बनाने की बात भी चली थी लेकिन भाजपा ने कोविंद के नाम पर विपक्ष तो क्या अपने सहयोगी दलों को भी भरोसे में लेने की आवश्यकता नहीं समझी। उन्हें उम्मीदवार बनाने की एकतरफा घोषणा करके विपक्ष के सामने चुनौती पेश की कि वह या तो सत्ता पक्ष के उम्मीदवार का समर्थन करे या फिर उसका सामना करे। विपक्ष ने दूसरा विकल्प चुना। वैसे भी, 1977 में नीलम संजीव रेड्डी के चुनाव को छोड़ दें तो तकरीबन सभी राष्ट्रपतियों के चुनाव मतदान के जरिए ही हुए।
दरअसल, इस बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आगामी विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनाव की रणनीति के तहत ही उत्तर प्रदेश के कानपुर में कोरी या कहें कोली समाज से आने वाले दलित नेता कोविंद को अपना उम्मीदवार बनाया है। बिहार में राज्यपाल से पहले दो बार राज्यसभा का सदस्य रह चुके कोविंद भाजपा के प्रवक्ता, अनुसूचित जाति मोर्चा, भारतीय कोली समाज के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश भाजपा के महासचिव रह चुके हैं। वे एक-एक बार लोकसभा और विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। इसी वजह से उन्हें 2014 में लोकसभा का टिकट भी नहीं मिला।
शायद यही कारण है कि 14वें राष्ट्रपति पद के लिए उनकी उम्मीदवारी की घोषणा हुई तो बहुतों को और मीडिया के एक बड़े तबके को भी आश्चर्य हुआ। हालांकि उनके नाम पर विचार तो पहले से ही हो रहा था। कम से कम इस लेखक ने आउटलुक के आठ मई के अंक में भाजपा के राष्ट्रपति पद के संभावित उम्मीदवारों में उनके नाम की चर्चा प्रमुखता से की थी। भाजपा सूत्रों के अनुसार उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में गैर-जाटव दलित और गैर-यादव पिछड़ी जातियों पर केंद्रित भाजपा की चुनावी रणनीति की सफलता को आधार मानकर ही उन्हें एनडीए का उम्मीदवार बनाया गया।
इस चुनावी रणनीति के जनक उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अब राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह बताए जाते हैं। कल्याण सिंह ही कोविंद को पहली बार 1990 में भाजपा की राजनीति में लाए थे। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि आलाकमान की राय में सवर्णों के बीच भाजपा का समर्थन आधार चरम पर पहुंच चुका है। लिहाजा, पार्टी अपनी चुनावी रणनीति दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों पर केंद्रित कर रही है। दलितों में खासतौर से चमार या जाटवों के बीच मायावती और कांग्रेस की पकड़ मजबूत है जबकि पिछड़ी जातियों में यादव आमतौर पर मुलायम सिंह-अखिलेश यादव और लालू प्रसाद तथा कुछेक राज्यों में कांग्रेस तथा अन्य गैर-भाजपा दलों के साथ बताए जाते हैं। लिहाजा, भाजपा ने आदिवासियों के साथ ही गैर-जाटव दलित और गैर-यादव अन्य पिछड़ी जातियों के बीच पैठ बढ़ाने की कवायद तेज कर दी।
इस लिहाज से प्रधानमंत्री मोदी के रूप में अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व पहले से ही होने के बाद अब सर्वोच्च संवैधानिक पद पर किसी आदिवासी या दलित को बिठाने की रणनीति पर विचार किया गया। दिखावे के लिए लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू और श्रीधरन के नाम भी चर्चा में लाए गए थे। आडवाणी की दावेदारी तो खुद मोदी ने सोमनाथ यात्रा के दौरान अमित शाह और पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की मौजूदगी में यह कहकर बढ़ा दी थी कि आडवाणी जी को राष्ट्रपति बनवाना उनके लिए गुरु दक्षिणा होगी। ठगे-से महसूस कर रहे आडवाणी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उन्हें ऐसी गुरु दक्षिणा मिलेगी!
दरअसल, भाजपा और संघ परिवार के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार अंतिम क्षणों में चर्चा सिर्फ दो नामों-झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू और बिहार के राज्यपाल कोविंद पर ही सिमट गई थी। ओडिशा की द्रौपदी मुर्मू के लिए अंग्रेजी तथा हिंदी भाषा की अज्ञानता संभवत: उनकी उक्वमीदवारी पर भारी पड़ गई। उनके समर्थन में यह तर्क था कि उनके चयन का लाभ ओडिशा में सत्तारूढ़ बीजद का समर्थन और कई राज्यों में आदिवासियों के बीच आधार मजबूत करने में मिल सकता है। हालांकि बीजद ने तो पहले ही एनडीए के उम्मीदवार को समर्थन देने की घोषणा कर दी थी।
कोविंद के पक्ष में तर्क दिए गए कि करीबी संबंधों के चलते सिर्फ नीतीश कुमार और जदयू का ही समर्थन नहीं मिलेगा, बल्कि उत्तर प्रदेश का होने के नाते मायावती और उनकी बसपा को भी समर्थन पर मजबूर होना पड़ेगा। यह नहीं भी होता है तो उत्तर प्रदेश में दलितों का बड़ा तबका भाजपा के साथ हो जाएगा और फिर गुजरात, राजस्थान तथा मध्यप्रदेश में कोली समाज को भाजपा से जोड़ने में सफलता मिलेगी।
हालांकि गुजरात में तेजी से उभरे युवा दलित नेता जिग्नेश मेवानी नहीं मानते कि सिर्फ दलित और कोली होने के कारण गुजरात में और देश के अन्य हिस्सों में भी दलित भाजपा का साथ देंगे। वे कहते हैं, ''भाजपा वाले समझते हैं कि दलित समाज में पैदा हुए रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति के पद के लिए नॉमिनेट करके उन्होंने 'मास्टर स्ट्रोक’ मारा है। लेकिन अब दलित ऐसे पैंतरों के झांसे में आने वाले नहीं।’
अगले चुनाव में दलितों को अपने पाले में लाने का फायदा मिले न मिले फौरी तौर पर भाजपा को इस रणनीति में कामयाबी मिलती साफ दिख रही है। विपक्ष की एकजुटता के पक्षधर नीतीश कुमार ने राज्यपाल के रूप में कोविंद की तटस्थ भूमिका के आधार पर समर्थन की घोषणा कर विपक्षी दलों में खलबली मचा दी। बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, अन्ना द्रमुक के दोनों धड़ों और वाईएसआर कांग्रेस ने पहले ही एनडीए उम्मीदवार के समर्थन की घोषणा कर दी थी। नीतीश कुमार का एक तर्क यह भी था कि कोविंद की राजनैतिक पृष्ठभूमि आरएसएस से जुड़ी नहीं है। वे 1977 से 1979 के दौरान तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार के समय केंद्र सरकार के वकील और तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री कार्यालय में निजी सहायक थे। हालांकि विपक्ष के अन्य नेता यह समझाने में लगे हैं कि संघ से जुड़े नहीं होने का मतलब कोविंद का धर्मनिरपेक्ष होना नहीं है।
जनवरी 2016 में गांधीनगर में गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में कोविंद के एक भाषण की चर्चा भी हो रही है। उसमें उन्होंने कहा था कि गांधी और नेहरू का लक्ष्य सत्ता प्राप्त करना था। भाजपा प्रवक्ता के बतौर उनके एक कथन को भी उछाला जा रहा है, जिसमें उन्होंने ईसाइयों और मुसलमानों को एलियन यानी बाहरी करार दिया था।
दूसरी तरफ, कोविंद की उम्मीदवारी और नीतीश कुमार के पलटे रुख से बौखलाई कांग्रेस और उसके साथ खड़े बाकी विपक्ष ने भाजपा की राजनैतिक चाल की काट के लिए और उससे भी अधिक विपक्ष के बिखराव को रोकने के तहत मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया है। सोचा यह गया था कि बिहार की बेटी के नाम पर नीतीश फैसले पर पुनर्विचार करेंगे लेकिन यह सब बेअसर रहा। नीतीश ने साफ किया है कि कोविंद को उनका समर्थन जारी रहेगा, अलबत्ता वे 2019 में विपक्ष की एकता के पक्ष में हैं और राजग के साथ नहीं जाने वाले। सूत्र बताते हैं कि नीतीश विपक्ष के प्रत्याशी के रूप में महात्मा गांधी के पौत्र गोपाल कृष्ण गांधी के नाम की घोषणा करवाना चाहते थे। लेकिन मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाने का एक फायदा विपक्ष को इस रूप में जरूर मिला कि कोविंद की उम्मीदवारी से पसोपेश में पड़ गई मायावती को वापस विपक्ष के पाले में आने का बहाना मिल गया। हालांकि राजनैतिक प्रेक्षकों का मानना है कि विपक्ष की एकजुटता के लिए कांग्रेस ज्यादा गंभीर नहीं दिख रही है। वरना, समय रहते आम आदमी पार्टी, बीजद, तेलंगाना राष्ट्र समिति, वाईएसआर कांग्रेस और इनेलो को भी साधने की पहल क्यों नहीं की गई।
दूसरी तरफ कोविंद की जीत के प्रति आश्वस्त भाजपा के रणनीतिकार जीत के मतों का अंतर बढ़ाने की कवायद में लगे हैं। एक रणनीतिकार बताते हैं कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले भाजपा और इसके सहयोगी-समर्थक दलों का समर्थन आधार 49 फीसदी से कुछ कम ही बन पा रहा था। लेकिन अब उसे तकरीबन 60 फीसदी मतों का आश्वासन है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव में लोकसभा और राज्यसभा के साथ विधानसभाओं (विधान परिषद नहीं) के निर्वाचित सदस्य ही मतदान कर सकते हैं।
हालांकि प्रथम नागरिक के चुनाव में आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। मीरा कुमार की जाति को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर उनके पति को ब्राह्मण बताया जा रहा है जबकि वह जन्मना दलित हैं और उनकी शादी पिछड़ी जाति के मंजुल कुमार के साथ हुई है। उन पर दलितों के हित में कभी कुछ खास न करने और अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करते रहने के आरोप लगाए जा रहे हैं। इसी तरह के आरोप कोविंद पर भी लग रहे हैं। उनके बारे में तो सांसद रहते अपने ही मकान को सांसद निधि के खर्चे से 'बारात घर’ में तब्दील करवा लेने के आरोप भी लग रहे हैं। महिलाओं के लिए संसद और विधायिकाओं में 33 फीसदी आरक्षण का विरोध करने के कारण उन पर महिला विरोधी होने के आरोप भी लग रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि चुनाव अभियान के जोर पकड़ने के साथ ही दोनों उम्मीदवारों और उनके समर्थकों के बारे में आरोप-प्रत्यारोपों के और तीखे और तेज होने की आशंका है। लेकिन सच यह भी है कि आरोप-प्रत्यारोप माहौल तो बना-बिगाड़ सकते हैं लेकिन इस चुनाव के नतीजे नहीं बदल सकते।