Wednesday, 6 February 2019

खामोशी से चले गए समाजवादी राजनीति के अथक योद्धा

यशंकर गुप्त 


अलविदा जॉर्ज
समाजवादी नेता, प्रखर सांसद, कभी बम्बई के सबसे बड़े ट्रेड यूनियन लीडर, जिनकी एक आवाज पर बंबई का जनजीवन ठप हो जाता था, रेल का चक्का जाम हो जाता था, इमरजेंसी की तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष के सबसे बड़े नायक (बड़ौदा डायनामाइट कांड के हीरो) बेजोड़ वक्ता जॉर्ज फर्नांडिस 29 जनवरी की सुबह बड़ी खामोशी के साथ इस दुनिया को अलविदा कह गए. 31 जनवरी को नई दिल्ली के लोदी रोड विद्युत शवदाह गृह में उन्हें सिपुर्दे खाक कर दिया गया जबकि अगले दिन एक फरवरी को उनकी अस्थियां पृथ्वीराज रोड पर स्थित क्रिश्चियन सिमेट्री में दफ्न कर दी गईं. पिछले एक दशक से अलजाइमर और पार्किंसंस जैसी असाध्य बीमारियों के कारण रोग शैया पर खामोश पड़े 88 वर्षीय जार्ज जैसे मौत का ही इंतजार कर रहे थे. न कुछ बोल, समझ पाते थे और न ही किसी को पहिचान सकते थे.

बहुआयामी व्यक्तित्ववाले, दर्जन भर भाषाओं के जानकार जार्ज फर्नांडिस के साथ हमारा जुड़ाव सत्तर के शुरुआती दशक में हुआ था जब वह सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे और हम समाजवादी युवजन सभा के एक कार्यकर्ता के बतौर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश कर रहे थे. हमारे पिता, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता सेनानी, पूर्व विधायक स्व. विष्णुदेव उनके करीबी मित्र और सहयोगी थे. मधुबन, आजमगढ़ और मऊनाथभंजन में कई बार आए जार्ज फर्नांडिस ने हमारे यहां छोटी-बड़ी बहुतेरी सभाओं को संबोधित किया था. उस समय शेख मुजीबुर्रहमान के संघर्ष और बांग्लादेश के उदय का हवाला देकर वह पूर्वी उत्तर प्रदेश के पिछड़ेपन के विरुद्ध विद्रोह संगठित करने की बातें करते थे. बाद के वर्षों में एक पत्रकार के रूप में भी हमारा उनसे गहरा जुड़ाव रहा. हमने 1980 में नई दिल्ली के 26 तुगलक क्रीसेंट स्थित उनके निवास पर रहकर फीचर एजेंसी, ‘लेबर प्रेस सर्विस’ का काम किया था. आपातकाल के दौरान, जुलाई 1975 के पहले सप्ताह में हमारी गिरफ्तारी भी उनके साप्ताहिक प्रतिपक्ष के साथ ही हुई थी जिसे प्रतिबंधित कर दिया गया था. बाद के वर्षों में भी प्रतिपक्ष और उसके अंग्रेजी संस्करण ‘दि अदर साइड’ का प्रकाशन उन्होंने करवाया था. 
अस्सी के दशक के मध्य में रविवार के संवाददाता के रूप में बिहार प्रवास के दौरान भी हमारा उनसे लगातार जुड़ाव रहा. उनके साथ कई बार बिहार और खासतौर से भागलपुर,बांका, पूर्णिया और अररिया की कार यात्राएं की. एक बार तो भागलपुर के रास्ते में वह खुद भी अपने मित्र सुभाष तनेजा की मारुति ओमनी चलाने लगे.रास्ते में गड्ढा आ जाने पर उन्होंने ऐसा जोर का ब्रेक मारा कि गाड़ी उल्टी दिशा में घूम गई. हमने उनसे हाथ जोड़ कर कहा कि यह बंबई नहीं बिहार की सड़क है. आप रहने दें, गाड़ी सुभाष को ही चलाने दें. वह जोर से हंसे थे और ड्राइविंग सीट पर सुभाष का बिठा दिया था. 
मुंबई और जार्ज
जॉर्ज फर्नांडिस बंबई के मजदूर आंदोलन में पचास-साठ के दशक में ही बड़ा नाम बन चुके थे. निगम पार्षद और विधायक भी चुने गए थे लेकिन देश-विदेश में उनकी ख्याति उस समय, 1967 में हुई थी जब वह बंबई के बेताज बादशाह कहे जानेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सदोबा कानोजी पाटिल को हराकर लोकसभा में पहुंचे थे. तब अखबारों ने उन्हें ‘जार्ज दि जाइंट किलर’ कहा था. 
बंबई वह मंगलोर, आज के मंगलुरु में अपना घर परिवार छोड़, भाग कर पहुंचे थे. उनका जन्म मंगलोर में 3 जून 1930 को हुआ. उनकी मां एलीस मार्था फर्नांडिस किंग जॉर्ज पंचम की प्रशंसक थीं, जिनका जन्म भी 3 जून को ही हुआ था, इस कारण उन्होंने इनका नाम जॉर्ज रखा था. मंगलोर के एलॉयसिस स्कूल से बारहवीं की पढ़ाई के बाद परिवार की रूढ़िवादी परंपरा के चलते बड़ा पुत्र के नाते उन्हें धर्म की शिक्षा के लिए बंगलोर, आज के बंगलुरु में सेंट पीटर सेमिनेरी भेज दिया गया. 16 वर्ष की उम्र में उन्हें 1946-1948 तक रोमन कैथोलिक पादरी का प्रशिक्षण दिया गया. लेकिन चर्च में गैर बराबरी के माहौल से खिन्न होकर वह वहां से भाग खड़े हुए. और फिर नौकरी की तलाश में बम्बई, आज की मुंबई पहुंच गए. शुरुआती जीवन बहुत ही कष्टकर रहा. रेस्तरां में वेटर के काम से लेकर फुटपाथ पर सोने की जिंदगी का अनुभव उन्हें हासिल हुआ. इसका जिक्र करते हुए एक बार उन्होंने बताया था कि वह चौपाटी के फुटपाथ पर सोया करते थे, कई बार पुलिसवाला उन्हें उठा कर वहां से जाने को कहता था. बाद में उन्हें एक अखबार में प्रूफ रीडर की नौकरी मिल गई. आगे चलकर उनका संपर्क अनुभवी समाजवादी, ट्रेड यूनियन नेता पी डीमेलो और फिर समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया से हुआ, जिनका उनके जीवन पर बड़ा प्रभाव रहा. बाद में वह समाजवादी ट्रेड यूनियन आंदोलन और फिर समाजवादी राजनीति की मुख्य धारा से भी जुड़ते गए. मुंबई में उन्होंने एक एक कर म्युनिस्पिल मजदूर यूनियन, हाॅकर्स यूनियन, टैक्सीमेंस यूनियन और फिर बेस्ट कर्मचारी यूनियन आदि छोटी बड़ी मजदूर यूनियनों पर कब्जा जमाते हुए एक तरह से उस समय बंबई के मजदूर आंदोलन में स्थापित श्रीपाद अमृत डांगे और एस वाय कोल्हटकर जैसे स्थापित कम्युनिस्ट नेताओं को बेदखल कर अपना वर्चस्व कायम किया. उन्होंने मजदूरों और खासतौर से टैक्सीवालों की ऋण समस्या के समाधान के लिए 1968 में ‘बाम्बे लेबर कोआपरेटिव बैंक’ की स्थापना कर संघर्ष के साथ रचना का पुट भी जोड़ा जो अभी ‘न्यू इंडिया कोआपरेटिव बैंक लि. के नाम से सक्रिय है.
समाजवादी राजनीति में डा. लोहिया के कट्टर अनुयायियों में मधु लिमये और जार्ज फर्नांडिस की जोड़ी बहुत मशहूर रही. सन 1967 के आम चुनाव में बम्बई दक्षिण संसदीय सीट से संसोपा के उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस के उस दौर के प्रसिद्ध और अजेय कहे जानेवाले नेता एस के पाटिल को परास्त कर सुर्खियों में आए जार्ज 1971 का चुनाव  हार गए. बाद में वह सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और फिर ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन का अध्यक्ष भी चुने गए. उन्होंने 1974 में लाखों कामगारों के साथ ऐतिहासिक रेल हड़ताल करवाई, इस कारण जार्ज समेत हजारों आंदोलनकारियों को जेल में डाल दिया गया. वह हड़ताल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सरकारी दमन और कुछ अंदरूनी भितरघातियों की दगाबाजी के कारण टूट गई थी.  
जार्ज और प्रतिपक्ष
इसी दौरान उन्होंने प्रतिपक्ष के नाम से साप्ताहिक अखबार भी निकाला जो उस समय सड़क से लेकर संसदीय प्रतिरोध का मुखपत्र बन गया. प्रतिपक्ष की ख्याति और चर्चा 1974 में उस समय संसद और उसके बाहर भी जोर शोर से हुई थी जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जमाने में आयात लाइसेंस घोटाला हुआ था. 8 सितंबर, 1974 के अंक में ‘प्रतिपक्ष’ के मुख्य पृष्ठ का शीर्षक था ‘संसद या चोरों और दलालों का अड्डा?’ एक जगह संसद को ‘वेश्यालय’ भी लिखा गया था. इस धमाकेदार स्टोरी और उसके 'अपमानजनक शीर्षक' को लेकर लोकसभा में सत्ता पक्ष ने नहीं बल्कि विपक्ष के पीलू मोदी और राज्यसभा में लालकृष्ण आडवाणी ने प्रतिपक्ष के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव पेश किया. लोकसभा में पांच दिन तक इस बात को लेकर सत्ता और विपक्ष में घमासान होता रहा कि प्रतिपक्ष के खिलाफ मामले को विशेषाधिकार समिति को भेजा जाए या नहीं. इसके पीछे विरोधी दलों की रणनीति आयात लाइसेंस घोटाले को एक बार फिर से चर्चा का विषय बनाने और सरकार को घेरने की थी. लेकिन तभी किसी ने इंदिरा गांधी को विपक्ष की इस चाल के बारे में बता दिया. फिर क्या था, पहले प्रतिपक्ष के विरुद्ध आग बबूला कांग्रेसी सांसद लोकसभाध्यक्ष गुरुदयाल सिंह ढिल्लों से गुजारिश करने लगे कि प्रतिपक्ष के खिलाफ मामले को आगे नहीं बढ़ाना चाहिए. अंततः पत्रिका के खिलाफ मामला न तो विशेषाधिकार समिति को भेजा गया और न ही लाइसेंस घोटाले को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया जा सका. लेकिन पूरा देश जान गया कि लाइसेंस घोटाले को किस तरह सर्वोच्च स्तर से दबा दिया गया. उक्त घोटाले में बिहार से कांग्रेस के एक सांसद तुलमोहन राम और एक अन्य पूर्व सांसद को सजा देकर इसकी इति मान ली गई.
आपातकाल और डायनामाइट कांड
इंदिरा गांधी (दायीं ओर) और  इमरजेंसी की प्रतीक बन गई जॉर्ज के हाथों की हथकडियां
जार्ज फर्नांडिस बिहार आंदोलन में भी खूब सक्रिय रहे. जब देश में आपातकाल लगा, वह भूमिगत हो गए. उन्होंने समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर, लाड़ली मोहन निगम, सीजीके रेड्डी, पत्रकार के. विक्रम राव एवं कुछ अन्य सहयोगियों को साथ लेकर आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत संघर्ष किया, यह बताने के लिए कि इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध प्रतिरोध पूरी तरह मरा नहीं बल्कि जिंदा है. उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक हद तक हिंसा को भी जायज माना, बशर्ते उसमें किसी की जान नहीं जाए. बाद में वह कलकत्ता, आज के कोलकाता में गिरफ्तार हुए. उनके करीबी मित्रों की मानें तो उन्हें मार डालने की योजना थी लेकिन कलकत्ता में उनके मेजबान, चौरंगी पर स्थित सेंट कैथेड्रल चर्च के पादरी विजयन ने कोलकाता में ब्रिटिश और जर्मन उच्चायोग में उनकी गिरफ्तारी की सूचना कर दी. नतीजतन ब्रिटिश प्रधान मंत्री जेम्स कैलेघन, जर्मन चांसलर विली ब्रांट, आस्ट्रिया के चांसलर ब्रूनो क्राइस्की तथा नार्वे के प्रधानमंत्री ओडवार नोर्डी आदि सोशलिस्ट इंटरनेशनल के नेताओं ने एक साथ इंदिरा गांधी को उनके मास्को प्रवास के दौरान फोन पर आगाह किया कि यदि जार्ज का एनकाउंटर हुआ तो परिणाम गम्भीर होंगे. इस तरह जार्ज बच गये और तिहाड़ जेल में रखे गये.
उन पर और उनके दो दर्जन सहयोगियों पर ‘बड़ौदा डायनामाइट कांड’ के रूप में सशस्त्र विद्रोह और राजद्रोह का मुकदमा शुरु हुआ. जेल में उन्हें और उनके करीबी मित्रों, सहयोगियों को कठोर यातनाएं दी गईं. उनसे पहले गिरफ्तार उनके भाई लारेंस और सहयोगी-मित्र,अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी की जेल में इस कदर पिटाई और यातना हुई कि लारेंस के पैर की हड्डी टूट गई जबकि स्नेहलता रेड्डी की तो जान ही चली गई. बड़ौदा डायनामाइट कांड का मुकदमा मार्च 1977 में आपातकाल हटने और जनता पार्टी के सत्तारूढ़ होने, जेल में रहते हुए ही जार्ज फर्नांडिस के बिहार के मुजफ्फरपुर से प्रचंड मतों से लोकसभा का चुनाव जीतने और केंद्र सरकार में मंत्री बनने से ठीक पहले ही बंद हुआ. 
बिहार बना कर्मभूमि
जेल में रहते हुए भी मुजफ्फरपुर से लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद से ही जार्ज का मुंबई और महाराष्ट्र की राजनीति, मजदूर आंदोलन से जुड़ाव कुछ कम होता गया और बिहार से बढ़ता गया. जनता पार्टी की सरकार में उद्योग मंत्री रहते उन्होंने कोका कोला और आई बीएम जैसी मल्टीनेशनल कंपनियों को देश से बाहर करने जैसे कुछ अच्छे कार्य किए.मुजफ्फरपुर में कांटी थर्मल पावर स्टेशन की स्थापना करवाई. भारत वैगन का राष्ट्रीयकरण करवाया. लेकिन बाद में वह सत्तारूढ़ राजनीति का अंग होते गए और यह कह कर अपना पिंड छुड़ाने लगे कि ‘‘मैं किसी समाजवादी सरकार का मंत्री नहीं हूं.’’ एक समय ऐसा भी आया जब उन्होंने दोहरी सदस्यता के सवाल पर संघ और जनसंघ का विरोधी होने के बावजूद मोरारजी देसाई की सरकार के एक मंत्री के रूप में लोकसभा में उनकी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार का जमकर बचाव किया और अगले ही दिन सरकार से अलग हो मधुलिमये, राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर जैसे पुराने समाजवादी साथियों की कतार में शामिल हो चौधरी चरण सिंह के साथ हो गये. ऐसा उन्होंने मधुलिमये के नैतिक दबाव में किया था जिसका जिक्र उन्होंने मुझसे एक लंबे साक्षात्कार में किया था जो 11 जनवरी 1998 के हिन्दुस्तान अखबार में प्रकाशित हुआ था.
1980 का लोकसभा चुनाव भी उन्होंने लोकदल के टिकट पर मुजफ्फरपुर से ही लड़ा और जीता. लेकिन 1984 में न जाने क्यों, शायद कर्पूरी ठाकुर से अलगाव हो जाने के कारण वह बिहार छोड़कर अपने गृह प्रांत कर्नाटक में बेंगलुरु उत्तरी से चुनाव लड़ने चले गए जहां कांग्रेस के कद्दावर नेता, केंद्रीय मंत्री सी के जाफर शरीफ के मुकाबले कम मतों से हार गए. बाद में वह फिर बिहार लौटे और बांका संसदीय उप चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह के विरुद्ध चुनाव लड़े. उस उप चुनाव में जबरदस्त धांधली और बूथ कैप्चरिंग हुई थी जिससे उनके समर्थकों का मानना था कि जार्ज को जबरन हरा दिया गया. हमने उस समय साप्ताहिक ‘रविवार’ में ‘चंद्रशेखर सिंह की जाली जीत’ शीर्षक से आमुख कथा लिखी थी. कुछ ही समय बाद, चंद्रशेखर सिंह के निधन के बाद बांका में फिर उपचुनाव हुआ जिसमें उसी धांधली और बूथ कैप्चरिंग के जरिए उनकी विधवा मनोरमा सिंह चुनाव जीत गई थीं. मुझे याद है कि उस उपचुनाव की रिपोर्टिंग और ‘बूथ कैप्चरिंग’ की फोटोग्राफी करते समय जसीडीह के पास एक बूथ पर हमारी पिटाई भी हो गई थी. हमारे साथ समाजवादी चंद्रभूषण दुबे और मानवाधिकार कार्यकर्ता किशोरी दास को भी पीटा गया था.
जनता दल, समता पार्टी और राजग की राजनीति!
 1989 और 1991 में भी एक बार फिर वह जनता दल के उम्मीदवार के रूप में मुजफ्फरपुर से ही लोकसभा का चुनाव लड़े और जीते. वह वीपी सिंह की सरकार में रेल मंत्री भी बने. रेल मंत्री के रूप में उन्होंने देश को कोंकण रेल और बिहार को छितौनी बगहा पुल दिया. लेकिन बाद के दिनों में जनता दल की राजनीति में पुराने सहयोगियों-शरद यादव, लालू प्रसाद एवं नीतीश कुमार की तिकड़ी के द्वारा हासिए पर धकेल दिए जाने से वह बहुत दुखी और कुपित थे. इस तिकड़ी ने 1993 में उन्हें जनता दल संसदीय दल के चुनाव में शरद यादव के हाथों हरवा दिया. उस समय जार्ज फर्नांडिस के पास एक विकल्प तो अपने समाजवादी सखा मधुलिमये की तरह सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लेने का भी था लेकिन वह एक जुझारू मजदूर-जन नेता थे. उन्होंने इसका राजनीतिक जवाब देने की ठान ली. इस क्रम में उनका लालू विरोध बढ़ता गया.
इस बीच नीतीश कुमार भी इस तिकड़ी से बाहर हो गए. उनके और कुछ अन्य साथियों के दबाव में उन्होंने 1994 में पहले जनता दल (जार्ज) और फिर समता पार्टी का गठन किया. लेकिन 1995 के बिहार विधानसभा के चुनाव में बुरी तरह हार जाने के बाद नीतीश कुमार और साथियों के दबाव में उन्होंने समता पार्टी और भाजपा का गठबंधन मंजूर किया. उसके बाद तो वह उसी गैर कांग्रेसवाद के सबसे बड़े पैरोकार और प्रवक्ता ही बन गए जिसके प्रस्ताव के लिए कभी 1963 में कलकत्ता में सोशलिस्ट पार्टी के सम्मेलन में उन्होंने अपने नेता डा. लोहिया की भी कड़ी मुखालफत करते हुए कहा था, ‘‘इस प्रस्ताव के चलते हम लोग जिस रास्ते पर जाएंगे, वहां से अपना मुंह काला करके लौटेंगे.’’ बाद में डा. लोहिया के इसे अल्पकालिक रणनीति के बतौर मान लेने के नैतिक दबाव और प्रस्ताव के पक्ष में दो बार भाषण करने के बाद ही वह प्रस्ताव मंजूर हो सका था. 
 बहरहाल, 1998-99 में समता पार्टी केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ भाजपानीत राजग की सरकार में सहयोगी बनी. फर्नांडिस उसमें रक्षा मंत्री तथा राजग के संयोजक और नीतीश कुमार रेल मंत्री बने थे. रक्षामंत्री के रूप में जार्ज ने कई अच्छे कार्य किए. अपने नए चुनाव क्षेत्र नालंदा को आयुध कारखाना दिया तो पोखरण का परमाणु विस्फोट उनके रक्षामंत्री रहते ही हुआ. करगिल युद्ध भी उनके रक्षामंत्री रहते ही हुआ जिसमें पाकिस्तानी घुसपैठी सैनिकों को खदेड़ने में हमारी सेना कामयाब रही. सियाचिन ग्लेशियर की दुरुह बर्फीली पहाड़ियों पर तैनात सैनिकों की दशा-दुर्दशा जानने के लिए वहां जानेवाले वह पहले रक्षामंत्री थे. वे वहां 18 बार गए. उसके बाद ही उन्होंने कहा था कि दिल्ली के साउथ ब्लाक में बैठनेवाले सैन्य अधिकारियों-बाबुओं को भी सियाचिन भेजा जाना चाहिए ताकि वे वहां रह कर सैनिकों के विकट जीवन और उनकी समस्याओं का एहसास और समाधान भी कर सकें. हालांकि बार बार सियाचिन जाते रहने के कारण भी वह अलजाइमर (स्मृतिलोप) की चपेट में आ गए जो उन्हें पिछले एक दशक से सार्वजनिक जीवन से दूर रहने और फिर उनकी मौत का कारण भी बना.  
अपने राजनीतिक जीवन के उत्तरार्ध में जार्ज कई तरह के विवादों से भी घिरे. परिवार में भी उथलपुथल हुई. मित्र जया जेटली के बढ़ते दखल के कारण पत्नी लैला कबीर घर छोड़कर चली गईं और तभी लौटीं जब जार्ज शारीरिक और मानसिक रूप से भी अशक्त से हो गए थे. लैला देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और फिर लालबहादुर शास्त्री की सरकार में शिक्षा मंत्री रहे शिक्षाविद स्व. हुमायुं कबीर की बेटी हैं. इससे पहले रक्षामंत्री रहते जार्ज पर ‘तहलका टेप कांड’ और ‘ताबूत घोटाला कांड’ में संलिप्तता के आरोप भी लगे जिसके चलते उन्होंने रक्षामंत्री के पद से त्यागपत्र भी दे दिया. हालांकि उनके विरुद्ध कोई आरोप सिद्ध नहीं हुआ. सुप्रीम कोर्ट से उन्हें क्लीन चिट भी मिल गई थी.
 सरकार के मंत्री और राजग का संयोजक रहते वह वाजपेयी सरकार के संकटमोचक भी रहे. उनके करीबी दावा करते हैं कि उनके दबाव में ही भाजपा 1998 से लेकर 2004 तक ‘अयोध्या विवाद’, ‘कामन सिविल कोड’ और कश्मीर से संविधान की धारा 370 को हटाने से संबंधित अपने विवादित मुद्दों को ‘कोल्ड स्टोरेज’ में रखने को राजी हो गई थी. लेकिन सरकार के संकटमोचन के क्रम में उन्होंने गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का अनावश्यक बचाव भी किया. इसी तरह से उन्होंने उड़ीसा में पादरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को जिंदा जला देने की घटना में संघ का बचाव किया जिसके चलते उनकी बड़े पैमाने पर न सिफ विरोधियों बल्कि समर्थकों के बीच भी किरकिरी हुई. ऐसा उन्होंने गठबंधन राजनीति की मजबूरी के कारण किया या फिर किसी और कारण से, इसका खुलासा उन्होंने कभी नहीं किया. 
सादगी और सुरक्षा
केंद्र सरकार में संचार, उद्योग, रेल और रक्षामंत्री रहते और उससे पहले भी उनकी सादगी और निडरता में कभी कमी नहीं देखी गई. रक्षामंत्री रहते कई बार वह कृष्ण मेनन मार्ग के बंगले से अपने मंत्रालय और संसद भवन भी पैदल ही चले जाते थे. अपने निजी कार्य, यहां तक कि अपने दो जोड़ी खादी के कपड़े धोने का काम भी वह खुद ही करते थे. सुरक्षा के नाम पर उन्होंने कभी कोई ताम-झाम नहीं किया. उनका बंगला हर समय सबके लिए खुला रहता था. मंत्री रहते भी उनके बंगले पर नेपाल, श्रीलंका, तिब्बत और म्यांमार के कथित विद्रोही, नेता डेरा जमाए रहते थे. सुरक्षा को लेकर पूछे गए सवाल के जवाब में एक बार उन्होंने कहा था कि जिसे अपनी जान को बहुत खतरा नजर आता हो उसे तिहाड़ जेल में चले जाना चाहिए क्योंकि सबसे सुरक्षित जगह तो जेल ही हो सकती है. 
एक बार पी वी नरसिंह राव के प्रधानमंत्री रहते उनके गृहमंत्री शंकरराव चव्हाण का बंगला जॉर्ज के बंगले के ठीक सामने पड़ता था. जब भी गृहमंत्री कहीं आते जाते, उनके सुरक्षाकर्मी जॉर्ज के बंगले का गेट बाहर से बंद कर जाते, क्योंकि जॉर्ज के घर कई तरह के लोगों का आना-जाना और ठहरना लगा रहता था. इनमें कश्मीर, पंजाब और उत्तर पूर्व के ‘उग्रवादी’ भी होते थे और नक्सली भी. ये सब अपनी समस्याएं लेकर जॉर्ज के पास आते-जाते थे. गृहमंत्री की सुरक्षा की चौकसी से जॉर्ज और उनके साथियों को दिन में बार-बार अपने ही घर मे कैद रहना पड़ता था. इससे तंग आकर एक दिन जार्ज ने खुद अपने बंगले का गेट उखाड़ फेंका और लोकसभा में जाकर कहा, “आखिर यह गृहमंत्री देश की आंतरिक सुरक्षा कैसे करेंगे जो अपने पड़ोसी सांसद से इतना डरते हैं कि घर आते-जाते उसे बाहर से कैद करवा देते हैं.”
राजनीति में सादगी, सहजता और निडरता की मिसाल रहे जार्ज फर्नांडिस के साथियों ने उनका इस्तेमाल तो किया लेकिन कभी उनके साथ न्याय नहीं किया. कइयों ने तो उनके साथ दगा भी किया. सक्रिय राजनीति के उनके अंतिम वर्षों में जिस तरह से उन्हें जनता दल (यू) के अध्यक्ष पद के लिए नीतीश कुमार और शरद यादव की जोड़ी ने हासिए पर धकेला, 2009 के आम चुनाव में उन्हें लोकसभा के टिकट से वंचित किया गया जिसके विरोध में वह स्वास्थ्य ठीक नहीं रहने के बावजूद निर्दलीय चुनाव लडे़ और हारे और फिर सहानुभूति का दिखावा करके उन्हें कुछ महीनों के लिए राज्यसभा में भेजा गया, यह सब उनके राजनीतिक जीवन के दुखद प्रसंग हैं जिनके बारे में एकाधबार उन्होंने हमसे साक्षात्कारों में चर्चा भी की और कहा कि कुछ लोग अपनी निरंकुश कार्यप्रणाली के रास्ते में उन्हें बाधक समझने लगे हैं. इन प्रसंगों का भी उनकी सेहत पर बहुत बुरा असर हुआ. रोग शैया पर उनकी दुरावस्था देख कर बहुत बुरा लगता था. कभी कभी लगता कि इस जीवन से तो उनकी मुक्ति ही बेहतर है हालंकि उनकी भौतिक उपस्थिति भी उनके समाजवादी साथियों-कार्यकर्ताओं, दुनिया और खासतौर से दक्षिण एशिया में एकाधिकारवादी सत्ता को चुनौती देनेवाले संगठनों-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए बड़ा सम्बल और भरोसा थी कि जार्ज अभी जिंदा है. उनके निधन से आज समाजवादी आंदोलन की वह पीढ़ी समाप्त सी हो गयी जिसने राजनीति में ‘सिविल नाफरमानी’ को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर गरीब, शोषित, पीड़ित, किसानों, मजदूरों और सर्वहारा वर्ग के हक के लिए सतत संघर्ष किया. अब ऐसा कोई नहीं दिखता. 

Thursday, 24 January 2019

यूपी बनेगा 2019 के चुनावी महाभारत का ‘कुरुक्षेत्र’ !

कांग्रेस के लिए प्रियंका साबित होंगी संजीवनी !

जयशंकर गुप्त


कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कुछ दिनों पहले कहा था कि उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को कम करके आंकना गलत होगा. वह वहां सबको चौंका सकते हैं. वाकई, कांग्रेसजनों की लंबे अरसे से चली आ रही मांग के मद्देनजर अपनी बहन प्रियंका -गांधी-वाड्रा को कांग्रेस में महासचिव के रूप में पूर्वी उत्तर प्रदेश और एक अन्य महासचिव के रूप में ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभार देकर उन्होंने चौंकानेवाला राजनीतिक फैसला किया है. उन्होंने साफ किया है कि यूपी में अब वह बैकफुट पर नहीं बल्कि फ्रंट फुटपर खेलेंगे. कयास उनके चचेरे भाई भाजपा सांसद वरुण गांधी के भी साथ आने के लगते रहे हैं.

जाहिर सी बात है कि राहुल 2019 में सत्रहवीं लोकसभा के लिए चुनावी महाभारत में उत्तर प्रदेश की निर्णायक भूमिका को बखूबी समझ रहे हैं क्योंकि हस्तिनापुर की सत्ता के लिए कौरव और पांडवों के बीच का महाभारत अगर कुरुक्षेत्र में लड़ा गया था तो 2019 में इंद्रप्रस्थ यानी दिल्ली की सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए होनेवाले चुनावी महाभारत का फैसला लोकसभा में अस्सी सीटोंवाले उत्तर प्रदेश में ही होने की संभावना है. प्रधानमंत्री पद के तीन-चार घोषित दावेदारों-नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, मायावती, मुलायम सिंह यादव के इसी राज्य से चुनाव लड़ने की संभावना है.

इस लिहाज से भी तमाम दलों और गठबंधनों के बीच समीकरण बनने और बिगड़ने लगे हैं. कांग्रेस को बाहर रखकर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल ने आपस में राजनीतिक गठजोड़ कर लोकसभा की अस्सी सीटों का बंटवारा आपस में कर लिया है. रालोद के लिए तीन-चार सीटें छोड़ने की बात है जबकि रायबरेली और अमेठी की दो सीटें कांग्रेस-सोनिया गांधी या प्रियंका तथा राहुल गांधी के लिए छोड़ी गई हैं. यूपी की राजनीति में हासिए पर धकेल दिए जाने की कोशिशों के एहसास से परेशान कांग्रेस ने भी साफ कर दिया है कि वह तकरीबन 25 करोड़ की आबादी के हिसाब से भी इस सबसे बड़े प्रदेश (अगर उत्तर प्रदेश स्वतंत्र राष्ट्र होता तो दुनिया का सबसे बड़ा पांचवां देश होता) में सभी सीटों पर अपने बूते अकेले चुनाव लड़ेगी.

हालांकि इससे पहले कांग्रेस देश के अन्य हिस्सों की तरह उत्तर प्रदेश में भी महागठबंधन के बारे में बातें करती रही थी. लेकिन इसके लिए उसने कोई ठोस पहल नहीं की. विपक्ष की एकजुटता के नाम पर सम्मेलन, रैलियां और रात्रिभोज तो हुए लेकिन सीटों के तालमेल के लिए कभी आमने सामने बैठकर कोई बात नहीं हुई. इसकी एक वजह तो यह भी रही कि यूपी में पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की बेहद खराब परफार्मेंंस के मद्देनजर सपा-बसपा उसके लिए उसकी मर्जी के मुताबिक अधिक सीटें देने को तैयार नहीं थीं और फिर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में मिली सफलता के बाद कांग्रेस नेताओं का मनोबल और उत्साह कुछ ज्यादा ही बढ़ गया लगता है. इन तीन प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव में भी सपा और बसपा के प्रति कांग्रेस का रुख उपेक्षा और उदासीनता का ही था. इसके बावजूद राजस्थान और मध्यप्रदेश में जरूरत पड़ने पर सपा-बसपा ने कांग्रेस की सरकारें बनवाने में सहयोग किया लेकिन उनका आभार जताने और सरकार में प्रतिनिधित्व देने के बजाय कांग्रेस के नेताओं ने उनकी राजनीतिक हैसियत पर तंज भी कसा. सपा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में सपा के साथ गठबंधन के बाद बुरी तरह मुंह की खाने के बाद वैसे भी अखिलेश यादव के प्रति राहुल गांधी का रवैया उदासीन और उपेक्षा का ही रहा. और फिर राहुल गांधी ने पिछले दिनों कहा भी कि भाजपा और नरेंद्र मोदी को हराने के लिए उनकी पार्टी सहयोगी दलों के साथ उन्हीं राज्यों में गठबंधन करेगी जहां वह कमजोर है. जहां मजबूत है या पहले नंबर पर है, वहां अकेले चुनाव लड़ेगी.

दरअसल, कांग्रेस को मिलनसार, मेहनती और न सिर्फ कांग्रेसजनों बल्कि आम लोगों के साथ भी सीधा संवाद कायम करने में सक्षम हाजिरजवाब प्रियंका के रूप में राजनीतिक संजीवनी सी मिल गई लगती है. कांग्रेस के नेता कार्यकर्ता इससे बेहद उत्साहित हैं. बदले राजनीतिक परिदृश्य और खासतौर से राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव में शानदार वापसी, राहुल गांधी को चहुंओर मिल रहे जनसमर्थन और प्रियंका-ज्योतिरादित्य के भरोसे कांग्रेस को लगता है कि अकेले चुनाव लड़ने पर यूपी में वह 2009 में जीती 21 सीटों के आंकड़े को छू सकती है या फिर उससे तो अधिक सीटें वह जीत ही सकती है जितनी उसे सपा-बसपा गठबंधन देता. उसका फोकस अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण, गैर जाटव दलित और कुर्मी, सहित गैर यादव अन्य पिछड़ी जातियों तथा मुसलमानों पर होगा. 2009 में इन तबकों के समर्थन से ही कांग्रेस राज्य में लोकसभा की 21 सीटें अपने बूते जीत सकी थी.

लेकिन उसके बाद केे चुनावों के आंकड़े कांग्रेस की इस सोच का समर्थन नहीं करते. 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महज 7.5 फीसदी वोट ही मिले थे और केवल सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही रायबरेली और अमेठी से चुनाव जीत सके थे. इसके उम्मीदवार केवल छह सीटों-सहारनपुर, कानपुर, गाजियाबाद, कुशीनगर, बाराबंकी और लखनऊ में ही दूसरे नंबर पर थे. इनमें से भी कुशीनगर और सहारनपुर को छोड़ दें तो बाकी चार सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार दो लाख से लेकर साढ़े पांच लाख से अधिक मतों के अंतर से हारे थे. बाकियों में अधिकतर की जमानतें भी जब्त हो गई थीं. 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने के बावजूद केवल 6.2 फीसदी वोट लेकर कांग्रेस के सात उम्मीदवार ही जीत सके थे. हालांकि कांग्रेस के लोग अपनी सोच के समर्थन में कहते हैं कि 2009 में अकेले लड़ने पर वह 11.65 फीसदी वोट पाकर भी 21 सीटों पर जीत गई थी. लेकिन तब सपा और बसपा के अलग अलग लड़ने के कारण मत विभाजन का लाभ कांग्रेस को मिला था.
राहुल गांधी, प्रियंका और ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में कांग्रेस के यूपी में अलग चुनाव लड़ने पर एक संभावना तो यह भी बनती है कि उसके उम्मीदवार भाजपा के सवर्ण जनाधार में सेंध लगाकर उसे कमजोर कर सकते हैं लेकिन अगर उसे अन्य पिछड़ी जातियों, गैर जाटव दलितों और मुसलमानों के बड़े तबके का समर्थन भी मिला तो इसका नुकसान सपा-बसपा गठबंधन को और लाभ भाजपा को मिल सकता है. हालांकि भाजपा ने पिछला चुनाव गैर जाटव दलितों और गैर यादव अन्य पिछड़ी जातियों को लामबंद करने की रणनीति के तहत ही लड़कर सफलता पाई थी.

शायद इसलिए भी सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन इससे ज्यादा परेशान नहीं है. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी और भाजपा की लहर के बावजूद सपा को 22 तथा बसपा को 19.6 फीसदी यानी कुल 41.6 फीसदी वोट मिले थे. हालांकि सपा के केवल पांच उम्मीदवार ही जीत सके थे जबकि बसपा का तो खाता भी नहीं खुल सका था. हालांकि 34 सीटों पर उसके और 31 सीटों पर सपा के उम्मीदवार दूसरे नंबर पर थे. भाजपानीत गठबंधन को 43.30 फीसदी वोट मिले थे जबकि सीटें मिल गई थीं 73. इसी तरह से विधानसभा के चुनाव में भी सपा और बसपा को क्रमशः 21.8 तथा 22.2 फीसदी यानी कुल 44 फीसदी वोट मिले थे लेकिन अलग अलग लड़ने के कारण उन्हें सीटें केवल 47 और 19 ही मिल सकी थीं जबकि भाजपा गठबंधन 39.7 फीसदी मत लेेकर भी 325 सीटों पर कब्जा जमा सका था. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में रालोद को भी एक-डेढ़ फीसदी वोट मिले थे.
इन नतीजों के विश्लेषण के बाद सपा, बसपा और रालोद को इस बात का एहसास हुआ कि अगर वे साथ चुनाव लड़ें तो न सिर्फ लोकसभा की अधिकतम सीटों पर जीत सकते हैं बल्कि प्रदेश में भी वे अपनी सरकार बना सकते हैं क्योंकि मोदी-योगी और भाजपा लहर होने और अमित शाह के गैर यादव पिछड़ी जातियों और गैर जाटव दलितों की सोशल इंजीनियरिंग के बावजूद दोनों चुनावों में सपा-बसपा और रालोद को मिले मत प्रतिशत को जोड़कर देखें तो भाजपा गठबंधन पर भारी पड़ते हैं. इसका प्रयोग करके ही उन्होंने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य के त्यागपत्र से रिक्त गोरखपुर और फूलपुर के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना में हुए संसदीय उपचुनाव में भी भाजपा को पटखनी दे दी थी. फूलपुर और गोरखपुर में कांग्रेस ने भी उम्मीदवार खड़े किए थे लेकिन मुकि जमानतें जब्त हो गयीं और उन्हें 20 हजार से भी कम मत मिले थे.

सपा-बसपा और रालोद के बीच गठबंधन की नींव उत्तर प्रदेश के इन तीन संसदीय उपचुनावों के साथ ही राज्यसभा और विधान परिषद के चुनाव के समय ही पड़ गई जब तीनों ने आपसी सहयोग किया. इससे पहले, 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद तथाकथित राम लहर के बावजूद 1993 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में सपा और बसपा के बीच चुनावी गठबंधन हुआ था जिसके चलते उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा-बसपा की सरकार बनी थी. उस चुनाव में एक नारा बहुत लोकप्रिय हुआ था, ‘‘मिले मुलायम, कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम.’ उस चुनाव में 425 सदस्यों की विधानसभा में सपा को 109 और बसपा को 67 सीटें मिली थीं जबकि भाजपा को 178 सीटें मिली थीं लेकिन कांग्रेस के 28 विधायकों के समर्थन से मुलायम सिंह की सरकार बनी थी. लेकिन सपा-बसपा गठबंधन का यह प्रयोग लंबा नहीं चल सका था. जून 1995 में लखनऊ के बदनाम ‘स्टेट गेस्ट हाउस कांड’ के बाद, जिसमें सपा के लोगों ने मायावती के साथ अभद्रता और धक्का मुक्की की थी, उसके बाद ही कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. और फिर राज्य में भाजपा के सहयोग से मायावती के नेतृत्व में सरकार बनी थी. हालांकि वह गठबंधन भी टिकाऊ नहीं रह सका था. लेकिन ‘लखनऊ गेस्ट हाउस कांड’ के बाद सपा और बसपा के बीच रिश्ते इतने कटु हो गए कि हालिया समझौतों से पहले दोनों दलों के नेता आपस में आंख मिलाने से भी कतराते थे. मायावती को पता था कि समाजवादी पार्टी के साथ ताजा गठबंधन के बाद यह सवाल जरूर उठेगा, शायद इसीलिए इस बार 12 जनवरी को सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा करते समय संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में टंगे बैनर पर कांशीराम और मुलायम सिंह यादव के बजाय बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया की तस्वीरें लगी थीं. मायावती ने इसका जिक्र भी किया कि किस तरह 1956 में डा. अंबेडकर और डा. लोहिया के बीच आपसी तालमेल बढ़ा था लेकिन दोनों दलों-भारतीय रिपब्लिकन पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के विलय का औपचारिक फैसला होने से पहले ही डा. अंबेडकर का निधन हो गया था. उन्होंने उसी कड़ी में 1993 में हुए सपा-बसपा गठबंधन को भी देखते हुए इस बात का जिक्र भी किया कि कैसे अप्रिय ‘लखनऊ स्टेट गेस्ट हाउस कांड’ के चलते वह गठबंधन टूट गया था. उन्होंने खुद ही साफ किया कि जनहित और देशहित के साथ ही सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में दोबारा आने से रोकने की गरज से ही उन्होंने जून 1995 के अप्रिय प्रकरण को भुलाकर यह गठबंधन किया है. उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करने का एक कारण यह भी बताया कि यूपी में कांग्रेस का बचा खुचा जनाधार या कहें वोट बसपा के उम्मीदवारों को स्थानांतरित नहीं हो पाता जबकि बसपा के वोट आसानी से उन्हें मिल जाते हैं. उन्होंने 1996 के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस बसपा गठबंधन का उदाहरण भी दिया. इसके साथ उन्होंने 1993 के सपा -बसपा गठबंधन के हवाले से समझाने की कोशिश की कि सपा और बसपा के वोट एक दूसरे को स्थानांतरित हुए थे.कांग्रेस को अलग रख कर गठबंधन के पीछे त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में मायावती के मन में प्रधानमंत्री बन सकने की उम्मीद भी हो सकती है. हालांकि यह पूछे जाने पर कि क्या सपा मायावती की दावेदारी का समर्थन करेगी? अखिलेश यादव ने गोलमोल जवाब दिया, ‘‘इतना तय है कि अगला प्रधानमंत्री यूपी से ही होगा.’’ 2019 में त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में सरकार बनाने के लिए किसको किसके समर्थन की जरूरत पड़ सकती है, यह अभी से कह पाना मुश्किल है. शायद इसलिए भी सपा-बसपा-रालोद गठबंधन और कांग्रेस भविष्य के सहयोग की संभावना को ध्यान में रखकर ही एक दूसरे के विरुद्ध ‘हमलावर’ होंगे. उनके निशाने पर भाजपा ही होगी.

 बहरहाल, सपा-बसपा और रालोद के बीच चुनावी गठबंधन और फिर प्रियंका गांधी के सक्रिय होने के कारण सत्तारूढ़ भाजपा के भीतर बेचैनी और बौखलाहट बढ़ी है. यह बेचैनी प्रधानमंत्री मोदी, पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह, गृहमंत्री राजनाथ ंिसंह और वित मंत्री अरुण जेटली से लेकर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ एवं अन्य कई नेताओं के भाषणों और बयानों में भी साफ दिख रही है. मोदी और शाह ने इसे अवसरवादी और भ्रष्ट नेताओं का सत्ता पाने के लिए गठबंधन तथा कांग्रेस की परिवारवादी राजनीति का विस्तार करार दिया. प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने को भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा ने तंज करते हुए कहा, ‘‘कांग्रेस ने मान लिया है कि राहुल गांधी फेल हो गए हैं. नेहरू के बाद इंदिरा, उनके बाद राजीव. फिर सोनिया और राहुल और अब प्रियंका. कांग्रेस का इतिहास ही परिवारवाद का रहा है.’’ गठबंधन के बारे में अमित शाह ने कहा, ‘‘कल तक एक दूसरे की शक्ल नहीं देखनेवाले आज हार के डर से एक साथ आ गए हैं क्योंकि वे जानते हैं कि अकेले मोदी को हरा पाना मुमकिन नहीं है. उन्होंने दावा किया, ‘‘यूपी में 73 से 74 होंगे, 72 नहीं’’

गौरतलब है कि पिछली बार उत्तर प्रदेश से मिली 73 सीटों के बूते ही भाजपा केंद्र में सत्तारूढ़ हुई थी. स्वयं नरेंद्र मोदी पूर्वी उत्तर प्रदेश के वाराणसी से ही सांसद हैं. इसका लाभ भाजपा और उसके सहयोगी दलों को विधानसभा के चुनाव में 325 सीटें जीतने के रूप में मिला था. लेकिन समय बीतने और केंद्र तथा राज्य में भी भाजपानीत गठबंधन सरकार के विफल होते जाने, चुनाव पूर्व के वायदों के जुमला भर साबित होने, प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के रफाएल युद्धक विमानों की खरीद में कथित घोटाले में घिरते जाने, नोट बंदी, जीएसटी के कुप्रभावों, एससी एसटी ऐक्ट में संशोधन से सवर्णों, किसानों और बेरोजगार युवाओं की सरकार से नाराजगी आदि के कारण भाजपा का जनाधार इससे दूर छिटकने लगा है. राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के हाथ से सत्ता खिसक जाने के बाद सहयोगी दल आंखें तरेरते हुए बिहार की तर्ज पर अपनी राजनीतिक सौदेबाजी मजबूत करने में लगे हैं. नतीजतन भाजपा अपने बिदक रहे सहयोगी दलों को साधने और बिखर रहे जनाधार को समेटने में जुट गई है. भाजपा नेतृत्व को लगता है कि आठ लाख रु. से कम आमदनीवाले सामान्य वर्ग-सवर्णों-के लिए दस फीसदी आरक्षण एवं आनेवाले दिनों में कुछ और जन लुभावन घोषणाओं तथा विपक्ष के नेताओं को भ्रष्टाचार के मामलों में बदनाम एवं गिरफ्तार करवाकर अपने छीजते जनाधार को बचाया जा सकता है. उत्तर प्रदेश में वह फिर एक बार गैर यादव पिछड़ी जातियों और गैर जाटव दलितों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर सकती है. हालांकि लगातार घट रही सरकारी नौकरियों के मद्देनजर चुनाव से ठीक पहले दस फीसदी आरक्षण के बेमानी साबित होने और इसके चलते दलितों-आदिवासियों और पिछड़ी जातियों में बढ़नेवाली आशंकित नाराजगी का खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ सकता है. पिछले पिछले विधानसभा चुनाव से सबक लेकर सपा और बसपा भी भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग की काट कर सकते हैं.चुनाव के समय अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए बनाया जा रहा दबाव भी भाजपा को भारी पड़ सकता है. 

Tuesday, 25 December 2018

संसदीय गतिरोध ( Parliamentry Disruptions) और हमारे राजनीतिक दल

संसद के सुचारु संचालन में किसकी रूचि है  

जयशंकर गुप्त 

संसद के देर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र के दौरान दोनों सदनों-लोकसभा और राज्यसभा में प्रायः प्रत्येक दिन एक ही तरह के दृश्य नजर आ रहे हैं. एक तरफ विपक्ष और खासतौर से कांग्रेस के सांसद राफेल युद्धक विमानों की खरीद में कथित घपले की जांच जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति से करवाने की मांग को लेकर हल्ला-हंगामा कर रहे होते हैं तो वहीं दूसरी तरफ हाथों में प्लेकार्ड लिए सत्तारूढ़ भाजपा के सदस्य कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से राफेल खरीद के संबंध में अपने बयान के लिए माफी मांगने के नारे लगाते हैं. आसंदी के पास ही हाथों में प्लेकार्ड लिए सत्तापक्ष के ही सहयोगी अन्ना द्रमुक के सांसद कावेरी जल विवाद में तमिलनाडु के साथ ‘न्याय’ की मांग को लेकर हंगामा करते हैं. बीच बीच में तेलुगु देशम के सदस्य आंध्र प्रदेश को विशेष आर्थिक पैकेज की मांग पर हंगामा करते हैं. इस तरह के शोरगुल और हंगामे के बीच लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति या अन्य पीठासीन अधिकारी कुछ जरूरी संसदीय दस्तावेज सदन पटल पर रखवाते हैं, कुछ विधेयक भी विपक्ष की पर्दे के पीछे की ‘रजामंदी’ से बिना किसी चर्चा और बहस के पास कराए जाते हैं और फिर दोनों सदनों की कार्यवाही पहले टुकड़ों में और फिर अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दी जाती है. 

इस तरह 11 दिसंबर से शुरू हुए संसद के शीतकालीन सत्र के सात दिन सम्मानित सांसदों के शोर गुल, आसंदी के पास आकर किए जानेवाले हल्ला-हंगामे की भेंट चढ़ गये. और जिस तरह की सूचनाएं मिल रही हैं, अगले साल आठ जनवरी तक के लिए निर्धारित इस सत्र के बाकी दिनों में भी इसी तरह के दृश्य नजर आ सकते हैं. संसद का यह शीतकालीन सत्र राजधानी में ठंड के लगातार बढ़ते जाने के बावजूद सदन के भीतर हल्ला हंगामे और नारेबाजी से पैदा हो रही राजनीतिक गरमी की भेंट चढ़ने के लिए अभिशप्त लग रहा है.
राफेल युद्धक विमानों की खरीद के मामले में मोदी सरकार जिस तरह से घिरते नजर आ रही है, खासतौर से राफेल खरीद के मामले में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले में सरकार की सर्वोच्च अदालत को गुमराह करने के इरादे से की गई जालसाजी का खुलासा होने के बाद छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में जीत से उत्साहित कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इस मुद्दे को आसानी से छोड़ने और इसकी जांच जेपीसी से करवाने से कम पर मानने  के मूड में नहीं दिख रहे. लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खरगे कहते भी हैं, ‘‘राफेल पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला सरकार के उस कथित दस्तावेज पर आधारित है जिसमें कहा गया है कि राफेल सौदे पर सीएजी की रिपोर्ट में खरीद प्रक्रिया में किसी तरह की गलती नहीं मानी गई और सीएजी रिपोर्ट को संसद और उसकी पीएसी यानी लोक लेखा समिति भी देख चुकी है. लेकिन सच तो यह है कि सीएजी ने अभी तक इस तरह की कोई रिपोर्ट संसद अथवा इसकी पीएसी को दी ही नहीं है.’’ इस लिहाज से देखें तो सरकार का सीलबंद लिफाफे में दिए दस्तावेज में ‘स्पेलिंग मिस्टेक’ का तर्क भी बेमानी हो जाता है. वित मंत्री अरुण जेटली खुद कहते हैं, ‘‘राफेल की आडिट जांच सीएजी के पास लंबित है. उसके साथ सभी तथ्य साझा किए गए हैं. जब सीएजी की रिपोर्ट आएगी तो उसे संसद की पीएसी को भेजा जाएगा. इसके बावजूद यदि अदालत के आदेश में किसी तरह की विसंगति है तो कोई भी न्यायालय के समक्ष उसे ठीक करवाने के लिए अपील कर सकता है.’’ सवाल एक ही है कि जब सीएजी ने अपनी रिपोर्ट अभी तक दी ही नही तो सुप्रीम कोर्ट में खरीद प्रक्रिया के बेदाग होने संबंधित दावे किस रिपोर्ट के आधार पर किए गए और किसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया.  खरगे का मानना है कि इस मामले की जेपीसी जांच से ही दूध का दूध और पानी का पानी संभव है. 

लेकिन यूपीए शासन के दौरान कथित कोयला घोटाले, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच की मांग को लेकर संसद के सत्र दर सत्र बाधित करने ( पिछली लोकसभा का 68 प्रतिशत समय भाजपा के नेतृत्व में  हुए हंगामों के कारण बरबाद हुआ था.) और उसके समर्थन में तर्क देनेवाले भाजपा के नेता  अब राफेल खरीद की जेपीसी जांच को गैर जरूरी बताने के तमाम बहाने पेश करने में लगे हैं. मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाले यूपीए शासन के दौरान सदन में हल्ला हंगामे को भी विपक्ष का महत्वपूर्ण संसदीय दायित्व परिभाषित करनेवाले जेटली अब जेपीसी की जांच को गैर जरूरी बता रहे हैं, ‘‘बोफोर्स तोप सौदे की जेपीसी जांच का क्या अनुभव रहा. सिर्फ वही एक उदाहरण है जब किसी रक्षा सौदे की जांच जेपीसी ने की थी. जेपीसी के सदस्य दलीय निष्ठा के आधार पर बंटे होते हैं.’’ लेकिन इस ज्ञान के बावजूद जेटली, लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज के नेतृत्व में तत्कालीन विपक्ष यूपीए शासन में कथित घोटालों की मांग पर क्यों जिद ठाने और संसद के सत्र दर सत्र बाधित करने में लगा रहा? इस बात का जवाब भाजपा के नेताओं के पास अभी नहीं है. उनके ही तर्क को मान लें कि जेपीसी में सत्ता पक्ष का बहुमत होता है और उसके सदस्य दलीय निष्ठा के आधार पर बंटे रहते हैं तो सरकार राफेल की जेपीसी जांच से भाग क्यों रही है?
लेकिन इस बार तो एक और मजेदार दृश्य सामने आ रहा है जब सत्तारूढ़ दल खुद ही इस बात के लिए इच्छुक नहीं दिख रहा है कि संसद सुचारु ढंग से चले. शायद यह पहली बार है कि संसद चलाने के लिए गंभीर और सकारात्मक प्रयास करने के बजाय सत्तारूढ़ भाजपा अपने सदस्यों के हाथों में ‘राहुल गांधी माफी मांगें’ के प्लेकार्ड थमाकर और कभी अपने सहयोगी, क्षेत्रीय दलों के जरिए सदन में आसंदी के पास हल्ला हंगामा करवाकर दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित करने में लगी हुई है. एक तरफ संसदीय कार्य मंत्री विजय गोयल कहते हैं कि सरकार राफेल पर भी चर्चा के लिए तैयार है, दूसरी तरफ जब मंगलवार को राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि उन्होंने राफेल विमान सौदे पर सुप्रीम कोर्ट को कथित तौर पर गुमराह किए जाने पर चर्चा के लिए नोटिस दिया है, राज्यसभा के सभापति ने कहा कि यह मुद्दा फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. बुधवार, १९ दिसंबर को भी गृह मंत्री राजनाथ सिंह और संसदीय कार्य मंत्री नरेंद्रसिंह तोमर ने कहा कि सरकार राफेल पर चर्चा के लिए तैयार है लेकिन विपक्ष का दबाव जेपीसी जांच की घोषणा और उसके कार्यस्थगन प्रस्ताव पर चर्चा कराए जाने के लिए ही है. जाहिर है कि सरकार इसके लिए आसानी से तैयार होनेवाली नहीं है क्योंकि विपक्ष का मानना है कि सरकार खुद संसद के भीतर सार्थक और सकारात्मक चर्चा और विपक्ष के संसदीय अधिकारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. विपक्ष के नेता आरोप लगाते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री रहते अपने गुजरात के विधायी अनुभवों को यहां भी दोहराना चाहते हैं. वहां दो तरह से विधानसभा के सत्र चलते थे. जब उन्हें कोई महत्वपूर्ण विधेयक पास कराने होते थे तो वह किसी न किसी बहाने विपक्ष के विधायकों को एक खास अवधि के लिए निलंबित करवा देते थे या फिर हल्ला हंगामे के बीच अपना विधायी कार्य संपन्न करवाते थे. कमोबेस वही तरीका प्रधानमंत्री बनने के बाद वह यहां संसद में भी अपनाना चाहते हैं. इसकी बानगी 2015 में लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी नियम 374ए के तहत कांग्रेस के 44 में से 25 सदस्यों को सदन से निष्कासित करने के रूप में पेश की थी. लेकिन उनके इस फैसले के खिलाफ सात विपक्षी पार्टियों ने लोकसभा के बायकाट में कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की तो फैसला वापस लेना पड़ा था. लेकिन उसके बाद उन्होंने दूसरा तरीका अपनाना शुरू कर दिया कि महत्वपूर्ण विधायी कार्य सदन में चल रहे हल्ला हंगामे के बीच ही निपटाए जाएं. ऐसे कई अवसर आए जबकि अध्यक्ष ने अत्यंत महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विधेयक तो बिना चर्चा के ही पारित कराए जबकि कई बार अनेक महत्वपूर्ण विषयों मसलन विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए वह इसलिए तैयार नहीं हुईं क्योंकि सदन व्यवस्थित नहीं था. 
हालांकि भाजपा के वरिष्ठ सांसद, लोकसभा के पीठासीन अधिकारियों में से एक हुकुमदेव नारायण यादव विपक्ष के इस आरोप को गलत बताते हैं कि सरकार और प्रधानमंत्री मोदी नहीं चाहते हैं कि संसद सुचारु रूप से चले. वह कहते हैं, ‘‘मोदी जी जितना संसद में मौजूद रहते हैं, यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उसका आधा समय भी संसद को नहीं देते थे.’’ लेकिन तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद सौगत राय के अनुसार ताजा प्रकरण में तो साफ है कि सरकार सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलने देना नहीं चाहती. संसदीय गतिरोध के चलते राफेल खरीद के साथ ही किसानों की समस्या-आत्महत्या, बेराजगारी, प्राकृतिक आपदा, संवैधानिक संस्थाओं के ‘ब्रेक डाउन’ आदि जन सरोकार के महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी संसद में चर्चा नहीं हो पा रही. दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद और विधानमंडलों में भी वास्तविक मुद्दों पर चर्चा का समय नहीं मिल पाता. संसद और विधानमंडलों की कार्यअवधि भी लगातार कम होती जा रही है.’’ 

हुकुमदेव नारायण यादव के अनुसार, संसद की नियमावली के तहत सदन में चर्चा के कई प्रावधान हैं. लेकिन विपक्ष का उन प्रावधानों का उपयोग नहीं करना और अपनी मर्जी के मुताबिक बहस के नियम तय करने पर जोर देना सदन की कार्य संचालन नियमावली के विरुद्ध है. इसके लिए वह क्षेत्रीय दलों को भी जिम्मेदार मानते हैं, ‘‘क्षेत्रीय दल अपने क्षेत्रीय हितों के लिए संसद का दुरुपयोग करते हैं. ‘प्लेकार्ड’ के साथ हल्ला हंगामा करके वे अपने क्षेत्र और राज्य के लोगों को संदेश देना चाहते हैं कि वे संसद के भीतर अपने लोगों के लिए लड़ रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार उनकी अनदेखी कर रही है. तकरीबन सभी क्षेत्रीय दलों की यही मानसिकता है, उनकी दृष्टि राष्ट्रीय न होकर क्षेत्रीय होती है. यह समग्रता में राष्ट्र और राजनीति दोनों के लिए दुखद है.’’ 

 बहरहाल, जिम्मेदार चाहे सत्ता पक्ष हो अथवा विपक्ष और क्षेत्रीय दल, सच यही है कि संसद के दोनों सदनों का समय हल्ला हंगामे की भेंट चढ़ रहा है. संसदीय विशेषज्ञों का मानना है कि संसद मुख्य रूप से विपक्ष का फोरम होता है जहां वह विभिन्न नियम प्रावधानों के जरिए सरकार की नाकामियों और गलतियों को सामने लाकर उसे कठघरे में खड़ा करता है. अपनी बात पर जोर देने के लिए यदा कदा वह सदन में हल्ला हंगामे और सदन की कार्यवाही बाधित करने के अपने संसदीय अस्त्र का सहारा भी लेता है. सरकार अपने जवाबों से विपक्ष को संतुष्ट करने और अपनी उपलब्धियों को सामने लाने के प्रयास करती है. उसका संसदीय कौशल उत्तेजित विपक्ष को शांत करने और सहमति के बिंदुओं को सामने लेकर सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से संचालित करने के काम आता है. इस काम में सदन में उसका बहुमत भी सहायक भूमिका निभाता है. लेकिन हाल के वर्षों में सरकारें विपक्ष की इस भूमिका को स्वीकार करने के बजाय उसकी आवाज को दबाने की कोशिशें ही करते नजर आती हैं. मजेदार बात यह है कि आज जिस संसदीय गतिरोध के लिए सत्ता पक्ष यानी भाजपा कांग्रेस और विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रहा है, विपक्ष में रहते उसे ही विपक्ष का संसदीय दायित्व और अधिकार मानता था. 

पिछले दिनों विधायिकाओं के महत्व समझाते हुए उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडु ने कहा कि सदन के सभापति के मंच के पास जाने वाले विधायकों को तुरंत निलंबित करने की व्यवस्था होनी चाहिए. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी शुक्रवार, 21 दिसंबर को सदन को बाधित करनेवाले सांसदों को नियंत्रित और अनुशासित करने की गरज से सदन की ‘रूल्स कमेटी’ की बैठक बुलाई. उन्होंने साफ किया कि वह नियम के विपरीत सदन की कार्यवाही नहीं चला सकती हैं. कमिटी ने आसंदी के पास आकर हल्ला हंगामा करनेवालों के स्वतः निलंबन का प्रस्ताव किया है. 

विडंबना इसी बात की है की आज सदन के बीच में प्लेकार्ड के साथ हल्ला हंगामा कर रहे सांसदों को नसीहत देने, उन्हें स्कूली बच्चों से भी बदतर बताने, उन्हें संसदीय अनुशासन का पाठ पढ़ाने के साथ ही ऐसा करनेवाले सांसदों के विरुद्ध कार्रवाई के नियम उपाय तलाशने में लगी लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू स्वयं यूपीए शासन के दौरान हल्ला हंगामा करनेवाले भाजपा सांसदों के साथ खड़े दिखते और संसदीय गतिरोध को जायज ठहराते थे. कोल गेट और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच के लिए जबरदस्त हंगामा कर संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित करने के पक्ष में राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता अरुण जेटली का बयान काबिले गौर है, ‘‘हम लोगों ने जिस मुद्दे पर इस सत्र में हंगामा शुरू किया है उसे हम जनता के बीच ले जाएंगे, जब तक कि निष्पक्षता और जवाबदेही बहाल नहीं हो जाती. अगर संसद के प्रति जवाबदेही का पालन नहीं किया जाता है और बहस सिर्फ इसे समाप्त करने के लिए रखी जाती है, तब विपक्ष के लिए यह रणनीति वैध हो जाती है कि वह उन सभी संसदीय उपायों से सरकार का भंडाफोड़ करे, जिन्हें इस्तेमाल करना उसके हाथ में है.’’ उस समय वह संसदीय गतिरोध को जायज ठहरा रहे थे. उन्होंने कहा, ‘‘बाधा पहुंचाने का अर्थ यह नहीं है कि काम मत करो. हम तो वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं.’’ यह पूछे जाने पर कि क्या संसद का उपयोग बाधा पहुंचाने के बजाय चर्चा के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जेटली का सीधा जवाब था, ‘‘राष्ट्रीय बहस तो जारी है. हर पहलू पर चर्चा हो रही है, भले ही संसद में नहीं हो रही है. यह बहस दूसरी जगह जारी है. हमारी रणनीति यह है कि संसद में इस पर बहस मत होने दो, बस.’’ लोकसभा में विपक्ष की नेता रहीं सुषमा स्वराज से उस समय जब पूछा गया कि क्या वह नहीं जानतीं कि संसद के कामकाज में बाधा पहुंचाने से राष्ट्रीय खजाने को कितना नुकसान होता है, उन्होंने सहमति जताते हुए कहा था, ‘‘संसद सत्र का अगर इस तरह समापन होता है तो आलोचना होती है. हमसे कहा जाता है कि संसद को चलने नहीं दिया गया इसलिए नुकसान हुआ. अगर संसद की कार्यवाही नहीं चलने के कारण 10-20 करोड़ का नुकसान हुआ और हम सरकार पर दबाव बना सके तो यह स्वीकार्य है.’’ यही नहीं उस समय लालकृष्ण आडवाणी ने भी कहा था कि विधायी कार्य में बाधा पहुंचाने से भी ‘नतीजे मिलते हैं’. उस समय विपक्षी भाजपा के एक अन्य बड़े नेता यशवंत सिन्हां ने भी तब इसमें जोड़ा था, ‘‘चूंकि सरकार इस मसले पर चुप है इसलिए हमने इसे उठाने का फैसला किया. मैं पूरी ताकत से मांग करूंगा कि सरकार तुरंत जांच करवाने की घोषणा करे. इसकी घोषणा नहीं होने तक हम सदन को कैसे चलने दे सकते हैं?’’ यही नहीं चार साल पहले विपक्ष में खडे़ भाजपा के नेता वेंकैया नायडु से जब यह पूछा गया था कि सदन में हंगामा कर रहे भाजपा के सांसदों का यह तरीका असंसदीय नहीं है? उन्होंने कहा था, ‘‘हम नए तरीके ईजाद करें ताकि जवाबदेही के सिद्धांत की बलि न चढ़े. हम चुप नहीं रहेंगे. हम लड़ाई को जनता के बीच ले जाएंगे.’’

जाहिर है कि अब भूमिकाएं बदल चुकी हैं. सत्तारूढ़ हो गए भाजपा के नेताओं की भाषा बदली हुई है. लेकिन विपक्ष की भूमिका में आ गई कांग्रेस और इसके सहयोगी दल भी अब अतीत में भाजपा की विपक्षवाली भूमिका का अनुसरण करते हुए भाजपानीत सरकार को घेरने में लगे हैं. राफेल युद्धक विमानों की खरीद मामले में सरकार को संसद के भीतर घेरने से लेकर विपक्ष की रणनीति इसे सड़कों पर ले जाने और 2019 के आम चुनाव में अन्य बातों के साथ ही इसे मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने की लगती है. जाहिर सी बात है कि दोनों पक्षों के अपनी जिद पर अड़े रहने के कारण संसद के सुचारु ढंग से चल पाने की सम्भावना बहुत कम ही रह जाती है. 

Thursday, 1 November 2018

राम जी फिर एक बार करेंगे बेड़ापार ?

सुप्रीम कोर्ट से झटका मिलने के बाद अध्यादेश - कानून के लिए दबाव 

जयशंकर गुप्त
पांच राज्यों और खासतौर से हिंदी पट्टी के तीन राज्यों-राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के आगामी चुनाव में रामलला और अयोध्या में उनके कथित जन्म स्थान पर मंदिर निर्माण का मुद्दा भी भाजपा के लिए खास मददगार साबित होते नहीं दिख रहा है. 29 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने उसमें फच्चर लगा दिया है. उससे पहले भाजपा और उसे संचालित करनेवाले संघ परिवार और मीडिया के एक बड़े तबके ने ऐसा माहौल बना दिया था कि जैसे सुप्रीम कोर्ट 29 अक्टूबर को ही एक बेंच गठित कर इस सुदीर्घ काल, तकरीबन 123 साल से चले आ रहे कानूनी विवाद के लिए एक बेंच गठित कर इसकी रोजाना सुनवाई कर यथाशीघ्र कोई फैसला सुनाएगा. भाजपा के कुछ वरिष्ठतम नेताओं, सरकार के कुछ मंत्रियों ने सुनवाई शुरू होने से पहले धौंस देने के अंदाज में सुप्रीम कोर्ट पर एक तरह का राजनीतिक दबाव भी बनाना शुरू कर दिया था कि सुप्रीम कोर्ट को जन आस्था का सम्मान करना चाहिए और ऐसा कोई फैसला नहीं करना चाहिए जिससे जन आस्था को चोट लगे और उस पर अमल मुश्किल हो.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट की सेहत पर इस तरह के बयानों का खास असर नहीं पड़ा. मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल एवं न्यायमूर्ति के एम जोसफ की पीठ ने अयोध्या की विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि को तीन भागों में बांटने वाले 2010 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर महज दो मिनट की सुनवाई के बाद ही आदेश सुना दिया कि अब अगली सुनवाई के समय का फैसला अगले साल जनवरी में सर्वोच्च अदालत की उपयुक्त पीठ करेगी. उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने मामले की गंभीरता और लंबे समय से लंबित होने का हवाला देकर दिवाली की छुट्टी के बाद सुनवाई का अनुरोध किया. वहीं, रामलला विराजमान के वकील सीएस वैद्यनाथन ने नवंबर में सुनवाई की गुहार लगाई. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए इसे ठुकरा दिया कि ‘‘हमारी अपनी प्राथमिकताएं हैं. हमें नहीं पता कि तारीख क्या होगी. यह जनवरी, मार्च अथवा अप्रैल में भी हो सकती है. जस्टिस गोगोई ने कहा कि मुख्य न्यायाधीश की इस पीठ को यह तय करना था कि इस मामले की कब से सुनवाई की जाए और रोजाना सुनवाई की जाए या नहीं.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद से ही भाजपा और संघ परिवार के साथ ही साधू संतों का भी इस मामले में जमीन अधिग्रहण, अध्यादेश अथवा संसद से कानून बनाकर अयोध्या मे कथित राम जन्मस्थान पर भव्य मंदिर बनाने का दबाव बढ़ गया है. इस आदेश से पहले तक हिंदुओं के सब्र का बांध टूटने और दिसंबर के आगे और इंतजार नहीं करने जैसे बयान देनेवाले भाजपा के बड़बोले नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कहा, ‘‘अयोध्या मामले में केंद्र सरकार को कानून बनाने का अधिकार है. जिस विवादित भूमि की बात हो रही है, वहां पर भगवान राम का मंदिर था. सुप्रीम कोर्ट संसद से ऊपर नहीं हो सकती है. सर्वोच्च अदालत की अपनी कुछ सीमाएं होती हैं. उन्हें उसी के तहत फैसला करने का अधिकार होता है.’’
भाजपा के भीतर एक अरसे से राजनीतिक बनवास भुगत रहे विनय कटियार जैसे नेताओं ने भी कहना शुरू कर दिया है कि सुप्रीम कोर्ट के इस मामले की सुनवाई अगले साल जनवरी में शुरू करने के पीछे कांग्रेस का दबाव है जो नहीं चाहते कि शीघ्र कोई फैसला हो. कटियार ने कहा, ‘‘कांग्रेस के दबाव में लेट किया जा रहा है. कपिल सिब्बल और प्रशांत भूषण समेत कांग्रेस के जो वकील हैं, वे नहीं चाहते कि 2019 से पहले इस मामले की सुनवाई हो, वे इसे टालते रहना चाहते हैं. इसी तरह इसे आगे भी टाला जाएगा. ये लोग रामभक्तों के धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं. हम कब तक सब्र करें. या तो सब बता दें कि उन्हें कुछ नहीं करना है तो रामभक्तों को जो निर्णय करना है वो कर लेंगे.’’ मोदी सरकार में स्वतंत्र प्रभारवाले एक बड़बोले मंत्री गिरिराज सिंह भी धमकानेवाले अंदाज में ही बोले, ‘‘अब हिंदुओं का सब्र टूट रहा है. मुझे भय है कि अगर हिंदुओं का सब्र टूटा तो क्या होगा.’’ सवाल एक ही है जिसका जवाब किसी नेता और मंत्री के पास नहीं है कि हिंदुओं का ठेका और उनके सब्र का पैमाना तय करने के लिए उन्हें किसने अधिकृत किया. क्या इसके लिए कोई व्याकपक जन्मर संग्रह हुआ है? अगर जन समर्थन और जनादेश के जरिए 2014 में भाजपानीत राजग के सत्तारूढ़ होने को ही पैमाना मान लिया जाए तो उन्हें देश के केवल 31 फीसदी मतदाताओं का ही समर्थन मिला था. बाकी 69 फीसदी मतदाताओं ने उन्हें खारिज ही किया था. विपक्ष के मतों का बिखराव ही उन्हें सत्तारूढ़ बनाने में कारगर हुआ था.
लेकिन अस्सी-नब्बे के दशक से ही अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण को हवा देते आ रही भाजपा सरकार पर रणनीतिक तौर पर ही सही, इस मामले में भी एससी, एसटी ऐक्ट की तरह अध्यादेश लाने का दबाव बढ़ा है. आरएसएस के प्रवक्ता अरुण कुूमार ने कहा है, ‘' केंद्र राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के मार्ग में आनेवाली हर बाधा को दूर करने के लिए कानून लाए.’’ जवाब में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, पूर्व गृह और वित्त मंत्री पी चिदंबरम कहते हैंै, ‘‘सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की गरज से भाजपा राम मंदिर का इस्तेमाल करती रही है. राम मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश की मांग करनेवालों को इस बाबत पीएम से पूछना चाहिए. हालांकि वह इस तरह के मामलों पर आमतौर पर चुप ही रहते हैं.’’
लेकिन संसद के मौजूदा स्वरूप, सत्ता पक्ष और विपक्ष के संख्या बल और राजग में भाजपा के कई प्रमुख सहयोगी दलों के रुख को देखते हुए यह विकल्प भी बहुत आसान और व्यावहारिक नजर नहीं आ रहा. इस मुद्दे पर जनता दल (यू) के प्रवक्ता केसी त्यागी ने कहा है कि कोर्ट के फैसले को मानने के अलावा इस समस्या का कोई और समाधान नहीं है. राजग में भाजपा के कई और सहयोगी दल भी इस मामले में अध्यादेश अथवा कानून की पहल का विरोध कर सकते हैं.
लेकिन आल इंडिया मजलिसे मुत्ताहिदा मुसलमीन के नेता, सांसद असदुद्दीन ओवैसी जैसे मुस्लिम समाज के कुछ नेता इस तरह के मामलों पर जहरीले बयान देकर भाजपा और संघ परिवार को राजनीतिक लाभ पहुंचाने के लिए तत्पर रहते हैं. ओवैसी ने फैसले के बाद चुनौती के अंदाज में कहा, ‘‘वे राम मंदिर पर अध्यादेश क्यों नहीं लाते? हर बार वे धमकी देतेे हैं कि वे अध्यादेश लाएंगे. भाजपा, आरएसएस, वीएचपी के हर टॉम, डिक और हैरी इस तरह की बातें कहते रहते हैं. वे सत्ता में हैं, उन्हें ऐसा करने दो. मैं उन्हें, 56 इंच का सीनावाले को ऐसा करने की चुनौती देता हूं. करें, हम भी देखते हैं. मुद्दे को हिंदू-मुस्लिम न बनाएं. देश संविधान से चलेगा.’’ लेकिन मुस्लिम समाज में भी ओवैसी जैसे स्वयंभू प्रवक्ताओं को लेकर विरोध शुरू हो गया है. लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता ओबैद नासिर कहते हैं, ‘‘ओवैसी साहब, ऐसी बचकानी बातें कर के आप मुसलमानों से कौन सी दुश्मनी निकाल रहे हैं ? खुदा के लिए इस मसले पर खामोशी अख्तियार कीजिये और अदालत को अपना काम करने दीजिए. ऐसी बचकाना, गैर जिम्मेदाराना और भड़काऊ बातें संघ परिवार के लिए ऑक्सीजन का काम करती हैं.’’ दरअसल, मीडिया और खासतौर से सोशल मीडिया पर भी संघ परिवार के उत्तेजक और भड़काऊ बयानों पर भी मुस्लिम समाज और खासतौर से युवा पीढ़ी का उत्तेजित होकर उसी तरह की भाषा में जवाब नहीं देना भी संघ परिवार और भाजपा की विफलता का कारण बनते जा रहा है.
 लेकिन भाजपा और संघ परिवार में मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश लाने अथवा संसद से कानून बनवाने के पक्षधर नेताओं का तर्क है कि संसद में सत्तापक्ष का कमजोर संख्या बल इस मार्ग में बड़ी बाधा नहीं बन सकता क्योंकि विपक्ष के लिए खुलकर इसका विरोध करना सहज नहीं होगा. कांग्रेस के लिए यह आसान नहीं होगा कि वह राम मंदिर पर सरकार के प्रस्ताव का खुला विरोध करके अपनी सॉफ्ट हिंदुत्व की छवि पेश करने अपनी पूरी कोशिशों को मिट्टी में मिला दे. इससे विपक्ष में बिखराव भी होगा और सपा, बसपा और राजद जैसी पार्टियों के वोट बैंक में भी सेंध लगेगी.
दरअसल, हर बड़े चुनाव से पहले अयोध्या विवाद और वहां राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का मुद्दा गरम करने और इस मामले में बढ़ चढ़ कर दावे करने की आदी रही भाजपा पर इस मामले में उसका अब तक का ढुलमुल रुख उस पर भारी पड़ते दिख रहा है. चाहे केंद्र में हो या राज्य में, चुनाव से पहले ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ जैसे नारे और मंदिर निर्माण के लिए तमाम तरह की प्रतिबद्धताएं जतानेवाली भाजपा सत्तारूढ़ हो जाने के बाद मंदिर निर्माण की दिशा में एक भी कदम आगे नहीं बढ़ा पाने के लिए नए नए बहाने ढूंढने लग जाती है. मुझे याद है कि अतीत में जब भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने पूछे जाने पर कहा था कि राम जन्मभूमि मंदिर का मुद्दा तो बैंक के एक बेयरर चेक की तरह था जिसे बार बार नहीं भुनाया जा सकता. यही नहीं भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष स्व. कुशाभाऊ ठाकरे ने दैनिक हिन्दुस्ताने के लिए इस लेखक को दिए साक्षात्कार में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के बारे में पूछे जाने पर कहा था कि ‘‘नदी पार करने के लिए नाव की आश्यकता होती है. नदी पार कर लेने के बाद आवश्यक तो नहीं कि नाव को कंधे पर लाद कर निकला जाए.'' और तो और दिसंबर 2000 के अंतिम दिनों में चेन्नई में हुई भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भाजपा के तत्कालीन संगठन प्रभारी महासचिव और आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक प्रस्ताव पेश करते हुए कहा था कि ‘‘अब भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं के एक हाथ में पार्टी का झंडा और दूसरे हाथ में एनडीए का एजेंडा होना चाहिए. हमें अयोध्याा में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण, कामन सिविल कोड और संविधान से कश्मीर को विशेष अधिकार देनेवाली धारा 370 को हटाने जैसे अपने विवादित मुद्दों को ठंडे बस्ते में रख देने चाहिए''.
हालांकि उसके बाद भी विभिन्न चुनावों से पहले भाजपा और संघ परिवार ने इन मुद्दों को गरमाने की भरपूर कोशिशें की. इस बार भी पांच राज्यों में अगले नवंबर-दिसंबर महीनों में होनेवाले विधानसभा और उसके कुछ ही महीनों बाद लोकसभा के आमचुनाव से पहले आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी नागपुर में संघ के विजय दशमी पर आयोजित होनेवाले विजय पर्व कार्यक्रम में अपने संबोधन में कहा था कि राम मंदिर के लिए कानून बनाना चाहिए. यह सीधे तौर पर इशारा था कि संघ और भाजपा के समर्थकों और राम मंदिर के प्रति आस्था रखने वालों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार को अध्यादेश लाने से लेकर सदन में राम मंदिर के लिए कानून बनाने के विकल्प पर अमल करना चाहिए.
वैसे भी, मोदी सरकार के पास अपने पिछले साढ़े चार साल के शासन की उपलब्धियां बताने के लिए कुछ ठोस नहीं है. उसके 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले मतदाताओं से किए गए अधिकतर चुनावी वादे हवाई अथवा जुमले साबित हो चुके हैं. दूसरी तरफ, बेरोजगारी, महंगाई, रफायेल, पेट्रोलियम पदार्थों के आसमान छूते दाम, अमेरिकी डालर के मुकाबले भारतीय रुपये की लगातार गोता लगाती कीमत, किसानों की आत्महत्याओं में कमी नहीं आने, महिलाओं, अबोध बच्चियों के उत्पीड़न, बर्बर बलात्कार और नृशंस हत्या की बढ़ती घटनाएं, दलितों और अल्पसंख्यकों पर बढ़ रहे हमले, बेरोक टोक माॅब लिंचिंग आदि तमाम मुद्दों पर मोदी सरकार लगातार घिरती और कठघरे में नजर आ रही है.

ऊपर से मंदिर निर्माण के लिए इसी तरह के दबाव अब उन तमाम साधु संतों और हिंदू संगठनों की तरफ से भी बन रहे हैं जिनकी भावनाओं को अपने राजनीतिक लाभ के मद्देनजर हवा देने में भाजपा ने कभी कोताही नहीं की थी. अब इन संतों ने भी सरकार को इस मुद्दे पर घेरना शुरू कर दिया है कि मंदिर निर्माण में देरी वे बर्दाश्त नहीं करेंगे. संतों का कहना है कि क्या भाजपा मंदिर निर्माण का अपना वादा भूल गई है और क्यों सुप्रीम कोर्ट के फैसले के इंतजार का बयान पार्टी की ओर से बार-बार दिया जा रहा है. सुनवाई टलने के बाद अयोध्या के संतों ने भी पूछा कि बार-बार क्यों सुनवाई टल रही है. ध्यान रहे कि संतों के एक बड़े वर्ग और राम मंदिर आंदोलन से जुड़े महंतों ने इस वर्ष 6 दिसंबर से अयोध्या में मंदिर निर्माण की घोषणा कर दी है. संत समाज का कहना है कि वे मंदिर निर्माण का काम शुरू कर देंगे, सरकार रोकना चाहती है तो रोके.ध्यान रहे कि संतों और मतदाताओं के बीच संदेश देने के लिए चुनाव से ठीक पहले मोदी सरकार के सामने यह एक अहम और अंतिम मौका है. जनवरी से प्रयाग में शुरू हो रहे कुंभ के दौरान भी सरकार को संत समाज के सामने मंदिर के प्रति अपनी जवाबदेही स्पष्ट करनी होगी.
संतों का यह आह्वान सरकार के लिए गले की फांस बनते दिख रहा है. केंद्र की मोदी सरकार और राज्य में योगी सरकार के लिए यह बहुत मुश्किल होगा कि संतों को रोकने के लिए वे किसी भी प्रकार का बल प्रयोग करें. इससे भाजपा को अपने समर्थकों के बीच खासा नुकसान झेलना पड़ सकता है. दिसंबर के बाद ही जनवरी से इलाहाबाद, माफ कीजिए प्रयागराज में कुंभ भी लगने जा रहा है.
कुल मिलाकर अब गेंद पूरी तरह से सरकार के पाले में है. भाजपा के भीतर एक बड़ा तबका इस राय का भी है कि जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के रुख का इंतजार करना चाहिए क्योंकि जनवरी में भी अयोध्या विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट के रुख को कुछ महीनों बाद ही होनेवाले लोकसभा चुनाव में अपने ढंग से भुनाया जा सकता है. इस बीच शुरू होनेवाले सर्दियों के मौसम में भी मंदिर मुद्दे को गरमाने के प्रयास किए जा सकते हैं. लेकिन भाजपा के भीतर एक तबका ऐसा भी है जो मानता है कि सरकार के पास लोकसभा चुनाव से पहले संसद का केवल शीत सत्र ही बचा है जिसमें कानून बनाने की कवायद अथवा दिखावा भी किया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट के ताजा रुख के मद्देनजर उन्हें नहीं लगता कि सर्वोच्च अदालत से उन्हें किसी तरह की उपयोगी मदद मिल सकती है. हालांकि इससे पहले शीर्ष अदालत के 27 सितंबर के मस्जिद और नमाज के इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं मानने के फैसले के बाद मंदिर समर्थकों को लगा था कि मूल मुकदमे में भी सर्वोच्च अदाालत इसी तरह जल्द ही उनके पक्ष में कोई फैसला सुना सकती है.

यह मुद्दा उस वक्त उठा जब तीन न्यायाधीशों की पीठ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर सुनवाई कर रही थी. उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने 30 सितंबर, 2010 को 2-1 के बहुमत वाले फैसले में कहा था कि अयोध्या की 2.77 एकड़ विवादित जमीन को तीनों पक्षों-सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला विराजमान में बराबर-बराबर बांट दिया जाये. इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 13 याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान मई 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए कोई फैसला होने तक अयोध्या में यथास्थिति बनाए रखने को कहा था.

शीर्षासन या संघ का वैचारिक कायापलट!

भाजपा की पितृ कहें या मातृ संस्था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने संगठन, विचारधारा और कार्यशैली को लेकर भारी कश्मकश के दौर से गुजर रहा है. खासतौर से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के आरएसएस की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे आतंकी संगठनों के साथ करने, गोहत्या और लव जिहाद के विरोध में माॅब लिंचिंग जैसी घटनाओं में उसके सांप्रदायिक, मनुवादी और फासिस्ट सोच और चरित्र का विद्रूप सामने आने के बाद से परेशान संघ का नेतृत्व अपनी छवि सुधारने और चमकाने और बदलती परिस्थितियों के मद्देनजर खुद को ढालने या कहें कि अपनी एक सकारात्मक छवि पेश करने की कोशिशों में लगा है. आमतौर पर पर्दे के पीछे गोपनीय गतिविधियों में लिप्त रहने वाले संघ ने पिछले दिनों खुलकर सामने आने की कोशिश की. संघ के पुराने तकरीबन सभी सर संघचालक सार्वजनिक तौर पर बहुत कम बोलते रहे हैं लेकिन 2009 में संघ की कमान संभालने के बाद से ही पेशे से मवेशी डाक्टर रहे मोहन भागवत अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही बोल रहे हैं. कई बार उनके बोल विवादों का कारण भी बनते रहे हैं.
लेकिन हाल के वर्षों में संघ के संगठन और संसाधनों के मामले में भी चतुर्दिक विकास होने के बावजूद देश विदेश के बौद्धिक वर्ग के बीच उसकी सर्व सवीकार्यता नहीं बन सकी है. देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के बजाय अंग्रेजों का साथ देने की उसकी भूमिका, हिटलर की नस्ली तानाशाही और मुसोलिनी के फासीवाद के साथ ही देश में मनुस्मृति का समर्थक होने के कारण वह लगातार सवालों के घेरे में आलोचना का पात्र रहा है. संघ के आलोचक इस मामले में इसके दूसरे सर संघचालक माधव सादाशिव गोलवलकर उर्फ गुरु जी की पुस्तक ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ और 'बंच आफ थाट्स’ के उनके विचारों तथा विभिन्न अवसरों पर दिए गए भाषणों को  उद्धृत करते रहे हैं. हालांकि बाद के वर्षों में ‘बंच आफ थाट्स’ के कई नए संस्करण आए जिनमें से उनके द्वारा कही गई कुछ विवादित बातों को गायब किया गया लेकिन आप मूल रूप से उनके विचारों को तो नहीं बदल सकते. और फिर संघ की शाखाओं में प्रचारकों के पास राणा प्रताप बनाम अकबर और शिवाजी बनाम औरंगजेब के अलावा स्वयंसेवकों को गुरु गोलवलकर की बातों की घुट्टी ही तो पिलाई जाती रही है. यह घुट्टी संघ के स्वयंसेवकों के मन मस्तिष्क में इस कदर जम गई है कि इसके आगे कुछ सोचने विचारने और बोलने की उनमें क्षमता ही नहीं विकसित हो सकी. जब कभी आर्थिक, सामाजिक, वैदेशिक, वैज्ञानिक मामलों पर बहस होती है, वे लोग लड़खड़ा से जाते हैं. 
और हाल के वर्षों में खासतौर से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में और तकरीबन डेढ़ दर्जन राज्यों में भी भाजपानीत साझा सरकारों के आने के बाद जिस तरह से संघ परिवार से जुड़े लोगों का गो हत्या, लव जिहाद आदि के विरोध के नाम पर ‘माब लिंचिंग’ के जरिए जो विद्रूप चेहरा सामने आया है, और उस पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं, वह संघ की शिक्षाओं और उसके द्वारा पिलाई गई मुस्लिम, दलित और महिला विद्वेष की घुट्टी की ही देन है लेकिन उसको लेकर संघ और उसके द्वारा संचालित भाजपानीत सरकारों की छीछालेदर के बाद संघ के नेतृत्व को लगने लगा है कि दिखावे के तौर पर ही सही संघ को अपनी पुरानी खोल से बाहर आना ही होगा. इसके लिए एक सुविचारित योजना और तैयारी के साथ मोहन भागवत ने पिछले दिनों चार दिनों के दिल्ली प्रवास के दौरान बदलती परिस्थितियों के मद्देनजर ‘बदलते संघ’ की छवि पेश करने की कोशिश की.  
उन्होंने संघ की नजर में ‘भविष्य का भारत’ विषय पर सरकारी विज्ञान भवन में दो दिनों तक एकालाप किया और तीसरे दिन तकरीबन अपने लोगों के द्वारा ही संघ से जुड़े विवादित मुद्दों, जिनको लेकर उसकी आलोचना होती रही है, ऐसे तमाम विषयों पर पूछे गए सवालों के जवाब दिए. उन्होंने गुरु गोलवलकर के बहुत सारे विचारों, खासतौर से देश के लिए आंतरिक दुश्मनों के रूप में कम्युनिस्टों, मुसलमानों और ईसाइयों को परिभाषित करने को उस समय की परिस्थितियों के अनुकूल कह कर खारिज करने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि संघ अब अपने संस्थापक डा. केशव बलिराम हगडेवार और गुरु गोलवलकर के समय से काफी आगे आ चुका है. लेकिन अगर गोलवलकर के विचारों को निकाल बाहर कर दें तो संघ के पास वैचारिक पूंजी के बतौर बचता क्या है. उनके उन्हीं विचारों को लेकर तो संघ के स्वयंसेवक और नए जमाने के भक्त कम्युनिस्टों को देशद्रोही करार देते हैं और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध जहरीली बातें करते हैं. गौरतलब है कि इन आंतरिक दुश्मनों की पहचान भी गोलवलकर ने अंग्रजों के मुकाबले की थी. स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल नहीं होने और अंग्रेजों का साथ देने को तार्किक आधार देते हुए उन्होंने कहा था कि 'हमें अंग्रेजों से नहीं बल्कि अपने इन तीन आंतरिक दुश्मनों से लड़ने की जरूरत है.' 
अब दिखावे के तौर पर ही सही क्या संघ अपना हुलिया बदल सकेगा! संघ मामलों के एक जानकार कहते हैं कि मोहन भागवत का दिमाग खुद बहुत सारे मामलों में साफ नहीं है. वह एक बार तो संघ को संविधान के प्रति निष्ठावान बताते हैं और मनुस्मृति को खारिज नहीं करते और फिर संविधान से  धारा 370 और 35 ए को हटाने की बात भी करते हैं. बिहार विधानसभा के चुनाव के समय वह अपने मुखपत्रों-पांचजन्य और आर्गनाइजर को दिए साक्षात्कार में आरक्षण पर पुनर्विचार करने की बात कहते हैं और फिर राजस्थान, म.प्र., छत्तीसगढ़ और तेलंगाना विधानसभाओं के चुनाव के समय आरक्षण की वकालत करते हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार आरक्षण पर अपने पहले बयान के कारण उन्होंने बिहार में दलितों और पिछड़ों को भाजपा विमुख करने में योगदान किया था और अब वह आरक्षण विरोधी सवर्णों को भाजपा से दूर करने के लिए आग में घी डालने का काम कर रहे हैं. एससी, एसटी ऐक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को उलटने के लिए मोदी सरकार के स्टैंड से जले भुने सवर्णों के घावों पर भागवत के बयान ने नमक छिड़कने का काम ही किया है. इसी तरह संविधान के प्रति निष्ठां जतानेवाले भागवत सबरीमाला और अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का खुला विरोध करते हैं.   
कुछ साल पहले उन्होंने कहा था कि जिस तरह से अमेरिका में रहनेवाले  सभी लोग अमेरिकन होते हैं उसी तरह भारत में रहनेवाले सभी लोग हिंदू हैं. यानी आप संघ के हिंदू राष्ट्र में मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन या अपनी अलग धर्म और पहिचान के साथ समान हैसियत में नहीं रह सकते. लेकिन विज्ञान भवन में उन्होंने कहा कि मुसलमानों के बिना हिंदुत्व की अवधारणा बेमतलब और अधूरी है. 2013-14 से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के अन्य बड़े नेता 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा देते आ रहे हैं. पिछले साढ़े चार वर्षों तक इस पर चुप्पी साढ़े रहे  भागवत ने  पिछले दिनों (17 से 19 सितम्बर 2018) नई दिल्ली के विज्ञान भवन के अपने उद्बोधन में इससे असहमति जताते हुए 'कांग्रेस युक्त भारत' की बात कही.   
उन्होंने महिलाओं के सशक्तीकरण पर जोर दिया और कहा कि महिलाओं के प्रति विचार और व्यवहार में जमीन आसमान के अंतर को मिटाना होगा. हर मामले में महिलाओं को बराबरी की हिस्सेदारी दी जानी चाहिए. लेकिन इन्हीं मोहन भागवत ने कुछ साल पहले छह जनवरी 2013 को इंदौर में कहा था, ‘‘ पति की देखभाल के लिए महिला उसके साथ एक करार से बंधी होती है. पति और पत्नी के बीच एक करार होता है, जिसके तहत पति का यह कहना होता है कि तुम्हें मेरे सुख और घर की देखभाल करनी होगी और बदले में मैं तुम्हारी सभी जरूरतों का ध्यान रखूंगा. जब तक पत्नी करार का पालन करती है, पति उसके साथ रहता है. यदि पत्नी करार का उल्लंघन करती है, तो वह उसे त्याग सकता है.’’ इतना ही नहीं इससे कुछ पहले उन्होंने यह कहा था कि बलात्कार जैसी घटनाएं ग्रामीण भारत में नहीं, बल्कि शहरी भारत में होती हैं.
मोहन भागवत ने अपने नए अवतार में स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस के योगदान को सराहा. हालांकि इसके अलावा वह और कह क्या सकते थे. संघ को जनतांत्रिक संगठन बताने की कोशिश की लेकिन यह नहीं बता सके कि सर संघचालक से लेकर नीचे तक के पदों के लिए संघ के इतिहास में कोई चुनाव हुए भी हैं क्या. उन्होंने अपने प्रवचनों और प्रायोजित सवालों के जवाब में संघ को दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और अन्य पिछड़ी जातियों का हिमायती बताया लेकिन यह नहीं बताया कि उनके सभी सर्वोच्च पदों पर केवल द्विज और वह भी ब्राह्मण-इनमें से भी अधिकतर महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण ही क्यों हैं. संघ के राष्ट्रीय पदाधिकारियों और समूची राष्ट्रीय कार्यकारिणी में एक भी दलित, आदिवासी और महिला का नाम क्यों नहीं है. संघ में सूचना के बाद सोचना बंद क्यों हो जाता है, इसके जवाब में उन्होंने समझाने की कोशिश की कि सूचना लंबे विचार विमर्श के बाद दी जाती है इसलिए उसके बाद उस पर सोचने की जरूरत नहीं रह जाती. लेकिन यह तो फासिस्ट समाजों में होता है लोकतांत्रिक समाज में कतई नहीं. 
उन्होंने समलैंगिकता को समर्थन देकर मध्यप्रदेश में अपने भाजपा सरकार में वित मंत्री रहे राघव जी जैसे लोगों का मनोबल जरूर बढ़ाया. 
कुल मिलाकर संघ का जो मूल चरित्र है, उसमें फिलहाल तो बदलाव की कोई संभावना नजर नहीं आती. परिस्थितियों के दबाव में इसके नरम या उदार चेहरा को पेश करने की जितनी भी कोशिशें की जाएं, इसका मूल चरित्र नहीं बदल सकता. कुछ लोग मोहन भागवत के इन विचारों को सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव गोर्वाच्योव के ग्लासनोश्त से करने लगे हैं लेकिन ग्लासनोश्त के बाद पेरेस्त्रोइका भी हुआ था और उसके साथ ही सोवियत संघ का पतन कहें या विखंडन भी. क्या संघ इसके लिए तैयार है !

Thursday, 14 June 2018

Karnatka shows the way for unified opposition - कर्नाटक में विपक्ष की दिखी ताकत

कर्नाटक में विपक्ष की दिखी ताकत  

2019 में मोदी और भाजपा को महागठबंधन की मजबूत चुनौती!
जयशंकर गुप्त

कर्नाटक में एच डी कुमार स्वामी के नेतृत्व में जनता दल एस और कांग्रेस की सरकार को लगातार प्रामाणिकता और जनादेश प्राप्त होते जाने से लगता है कि यह गठबंधन और इसी के तर्ज पर अन्य राज्यों में भी बन रहे विपक्ष के गठबंधन 2019 में केंद्र और तकरीबन 20 राज्यों में भाजपा के नेतृत्ववाले सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के लिए खासा सिरदर्द साबित हो सकते हैं. कर्नाटक में साझा सरकार ने अपना विधानसभा अध्यक्ष चुनकर और समय सीमा के भीतर सदन में बहुमत साबित कर न सिर्फ अपनी प्रामाणिकता प्रदर्शित की है बल्कि तुरंत बाद हुए विधानसभा की दो सीटों के चुनाव-उपचुनाव जीतकर साबित कर दिया है कि कर्नाटक का जनादेश भी साझा सरकार के पक्ष में है. इससे पहले मंत्रिमंडल के विस्तार की कसौटी को भी गठबंधन सरकार ने बखूबी पार कर लिया है. जयनगर विधानसभा की सीट तो भाजपा की अपनी परंपरागत सीट थी, जिसपर इसके दिवंगत उम्मीदवार पिछले चार बार से लगातार विधायक थे. इस सीट पर कांग्रेस का उम्मीदवार जीत गया. इस जीत को कांग्रेस अपनी बढ़ती राजनीतिक ताकत और साझा सरकार के लिए जनादेश के रूप में प्रचारित करेगा.
 कुछ दिनों पहले, 23 मई को बेंगलुरु में जनता दल एस के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के रूप में कांग्रेस के दलित नेता जी परमेश्वर के शपथ ग्रहण समारोह में गैर भाजपा-राजग विपक्ष के तमाम सूरमाओं की एक मंच पर मौजूदगी से ही लग गया था कि विपक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके नेतृत्ववाले सत्तारूढ़ राजग को चुनौती देने के मूड में आ गया है. यह शपथ ग्रहण का समारोह कम विपक्ष की एकजुटता का राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन ज्यादा था जिसमें एक दर्जन से अधिक कांग्रेसनीत यूपीए के घटक दलों के साथ गैर भाजपा, गैर कांग्रेस क्षेत्रीय दलों का अद्भुत राजनीतिक संगम देखने को मिला. इसके तुरंत बाद ही उत्तर प्रदेश के कैराना और महाराष्ट्र के भंडारा गोदिया संसदीय सीटों और उत्तर प्रदेश, बिहार एवं मेघालय एवं अन्य राज्यों में हुए एक दर्जन विधानसभा सीटों में से 11 सीटों पर विपक्ष के उम्मीदवारों की जीत से भी सत्तारूढ़ खेमे में बेचैनी और विपक्ष का मनोबल बढ़ा है.
इससे पहले भी गुजरात विधानसभा के चुनाव में अपेक्षकृत अच्छे प्रदर्शन और कई संसदीय उपचुनावों में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के उम्मीदवारों की जीत ने कांग्रेस और विपक्ष को एक अलग तरह की राजनीतिक ऊर्जा प्रदान की थी. लेकिन बेंगलुरु में इक्का दुक्का अपवादों को छोड़कर तमाम गैर भाजपा-गैर राजग नेताओं का उत्साहित जमावड़ा  2019 के आम चुनाव में खुद को अपराजेय समझने वाली प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सिपहसालार, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी के सामने विपक्ष की ओर से मजबूत राजनीतिक चुनौती का स्पष्ट संकेत है. एच डी कुमार स्वामी के शपथग्रहण समारोह में विपक्ष का कौन बड़ा नेता नहीं था. कुमार स्वामी और उनके पिता 85 वर्षीय पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा की अगवानी में कांग्रेसनीत यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खरगे, कर्नाटक के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धरमैया, डी शिव कुमार, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष एवं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, बसपा की अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और उनके महासचिव सतीश मिश्र, एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार, बिहार में राजद यानी विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव, लोकतांत्रिक जनता दल के शरद यादव, झारखंड से झामुमो के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, एक और पूर्व मुख्यमंत्री झाविमो के बाबूलाल मरांडी, राष्ट्रीय लोकदल के चैधरी अजित सिंह, माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी, भाकपा के सचिव डी राजा, केरल के माकपाई मुख्यमंत्री पिनराई विजयन, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी वहां पहंुचे. तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष, मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव एक दिन पहले ही देवेगौड़ा और कुमार स्वामी से मिलकर शपथग्रहण समारोह में शमिल नहीं हो पाने का अफसोस जता गए थे. यूपीए के एक प्रमुख घटक द्रविड़ मुनेत्र कझगम के नेता एम के स्टाॅलिन भी तमिलनाडु के तूतिकोरिन में हुए पुलिस गोलीकांड के मौके पर पहंुंचने का कारण बताकर नहीं पहंुच सके. फिल्म अभिनेता से नेता बनने की दिशा में सक्रिय कमल हासन भी उस दिन तूतिकोरिन में ही दिखे.
लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस के पिता-पुत्र डा. फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला भी नहीं दिखे. कारण रमजान और कश्मीर के हालात भी हो सकते हैं. लेकिन कांग्रेस के पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और मिजोरम के ललथनहवला भी नहीं दिखे. ओडिसा के मुख्यमंत्री एवं बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक भी नहीं आए. संभवतः वह अभी अपनी राजनीतिक दिशा तय नहीं कर पा रहे. बीजद के महासचिव अरुण कुमार साहू ने कहा कि उनकी पार्टी भाजपा और कांग्रेस से भी समान दूरी बनाए रखना चाहती है. हालांकि पिछले दिनों नवीन पटनायक ने भी तीसरे मोर्चे को मजबूत करने पर बल दिया था.
 बेंगलुरु में विपक्ष के नेताओं के बीच गजब की आपसी केमिस्ट्री दिखी. अखिलेश यादव के साथ मायावती की करीबी साफ दिख रही थी. दोनों संभवतः पहली बार इतनी आत्मीयता से मंच साझा कर रहे थे. वहीं सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ भी मायावती और अखिलेश के बीच अलग तरह की केमिस्ट्री बनते दिखी. जिस तरह से सोनिया गांधी और मायावती ने एक दूसरे के कंधे और कमर में हाथ डालकर अपनापन दिखाने की कोशिश की वह भविष्य की विपक्षी राजनीति का एक अलग संकेत दे रहा था. बीमार चल रहे राजद के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव ने सोनिया गांधी से लेकर देवेगौड़ा, मायावती और ममता बनर्जी के आगे झुककर उनका आशीर्वाद लिया.
लेकिन एक समय ऐसा भी लगा कि यूपीए और गैर राजग, गैर कांग्रेसी विपक्ष यानी तीसरे मोर्चे की बात करनेवाले नेता खासतौर से ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और अरविंद केजरीवाल, पिनराई विजयन मंच पर अलग अलग मुद्रा में दिख रहे हैं. इसे महसूस कर देवेगौड़ा और सोनिया गांधी ने ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू को भी अपने, शरद यादव, शरद पवार और मायावती तथा अखिलेश यादव के बीच लाकर बड़े फ्रेम में तस्वीरें खिंचवाई. फिर तो चंद्रबाबू नायडू और केजरीवाल, विजयन तथा येचुरी, राजा विपक्ष के सभी सूरमाओं के हाथ उठाकर ग्रुप फोटो बनवाए गए. इस तस्वीर को देखने के बाद पिछले चार साल में यह पहली बार लगा कि 2019 में विपक्ष एकजुट होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा-राजग को मजबूत चुनौती देने के लिए गंभीर है.
एकजुट विपक्ष के सामने चुनौतियां
लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं हैं. यक्ष प्रश्न यही है कि विपक्ष की यह एकजुटता कब तक बनी रहेगी और मोदी के विकल्प के बतौर इसका नेतृत्व कौन करेगा. एक प्रश्न के जवाब में राहुल गांधी के यह कहने पर कि कांग्रेस को बहुमत मिलने की स्थिति में वह प्रधानमंत्री बनने को तैयार हैं, ममता बनर्जी ने कहा था कि जरूरी नहीं कि किसी एक व्यक्ति को सामने रखकर ही विपक्ष लोकसभा का अगला चुनाव लड़े. वह गाहे बगाहे गैर भाजपा, गैर कांग्रेसी दलों, खासतौर से क्षेत्रीय दलों का अलग विपक्षी गठबंधन बनाने पर जोर देते रहती हैं. बंेगलुरु में भी ममता बनर्जी ने यही कहा कि शपथग्रहण समारोह में उनकी शिरकत का मकसद क्षेत्रीय दलों को मजबूती प्रदान करना है. यही राय कमोबेस आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और कभी तीसरे, संयुक्त मोर्चे के संयोजक रहे चंद्रबाबू नायडू, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की भी रही है. हालांकि कभी कांग्रेस समर्थित तीसरे, संयुक्त मोर्चे की सरकार के प्रधानमंत्री रह चुके एच डी देवेगौड़ा ने कहा है कि कांग्रेस के बिना किसी गैर भाजपा विपक्षी महागठबंधन की कल्पना संभव नहीं. लेकिन पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में कांग्रेस किसके साथ गठबंधन करेगी, वाम दलों के साथ अथवा ममता बनर्जी की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के साथ. क्या यह संभव हो पाएगा कि ये तीनों ही राजनीतिक ताकतें वहां भाजपा के विरोध में महा गठबंधन बना सकें. बेंगलुरु के शपथ ग्रहण समारोह में ममता बनर्जी के साथ मंच साझा करनेवाले माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने साफ कर दिया कि भाजपा कोे रोकने के लिए विपक्ष की एकता के नाम पर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से हाथ मिलाने का सवाल ही नहीं उठता. उन्होंने कहा, ‘‘भाजपा के नेतृत्ववाली सरकारें देश में और ममता बनर्जी की सरकार पश्चिम बंगाल में समान रूप से लोकतंत्र की हत्या कर रही हैं.’’ लिहाजा माकपा लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में ममता और मोदी, दोनों को और केरल में कांग्रेस को हराएगी.
इसी तरह से आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में परस्पर विरोधी चंद्रबाबू नायडू और के चंद्रशेखर राव तथा ओडिसा में नवीन पटनायक और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को भी तय करना होगा कि उन्हें भाजपा से लड़ना है कि कांग्रेस से या दोनों से. कांग्रेस को भी इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा कि उसे कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की दिशा में अग्रसर भाजपा से लड़ना है कि क्षेत्रीय दलों के साथ!
इसके साथ ही इस विपक्षी महागठबंधन के नेता और नीतियों-कार्यक्रमों पर भी विचार करना होगा. अभी तक विपक्षी जमावड़े का मकसद भाजपा और मोदी तथा उनके बहाने आम चुनाव में सांप्रदायिकता का विरोध ही नजर आ रहा है. भविष्य में उन्हें उनका विकल्प भी पेश करना पड़ेगा. विपक्ष में कांग्रेस के राहुल गांधी से लेकर मायावती, ममता बनर्जी, शरद पवार और शरद यादव जैसे कई नेता नेतृत्व की लालसा पाले हुए हैं. कहा जा रहा है कि नेतृत्व का फैसला लोकसभा चुनाव के बाद भी संभव है जैसा 2004 में हुआ था. हालांकि भाजपा के लोग प्रधानमंत्री मोदी के सामने विपक्ष के पास वैकल्पिक नेतृत्व के अभाव को भुनाने की कोशिश कर सकते हैं. देश के मतदाता बड़े पैमाने पर आज भले ही केंद्र सरकार और भाजपा से भी नाराज दिख रहे हैं. उन्हें लगता है कि पिछले चार वर्षों में मोदी और भाजपा के चुनावी वादे छलावा ही साबित हुए हैं. लेकिन उनमें से एक बड़े तबके को अभी भी मोदी से उम्मीदें हैं.
म.प्र., राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनाव
विपक्षी एकता की परख तो अगले कुछ महीनों में राजस्थान, म.प्र. और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में भी होगी. इन तीन राज्यों में चुनावी लड़ाई वैसे तो मोटे तौर पर कांग्रेस बनाम भाजपा ही है. वहां भाजपा को चुनौती देने की ताकत रखने वाली बहुत मजबूत क्षेत्रीय पार्टी नहीं है, लेकिन कुछ-कुछ पॉकेट में सपा, बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और लाकतांत्रिक जनता दल के ठीक-ठाक वोट हैं. बीते विधानसभा चुनाव में 6.29 फीसदी वोट पाने वाली बसपा को म.प्र. में चार सीटें भी मिली थीं. इसी तरह उसे छत्तीसगढ़ में 4.27 और राजस्थान में 3.77 फीसदी वोट मिले थे. पिछले साल म.प्र. के उपचुनाव में बीएसपी का उम्मीदवार खड़ा न करना दो सीटों पर कांग्रेस की जीत की वजह बना था. इन तीन राज्यों में कांग्रेस के दिल बड़ा कर सपा, बसपा, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और लोकतांत्रिक जनता दल जैसे क्षेत्रीय दलों के लिए भी कुछ सीटें छोड़ने की स्थिति में 2019 के आम चुनाव की झांकी इन राज्य विधानसभाओं के चुनाव में दिख सकती है.
कर्नाटक की साझा सरकार की स्थिरता सबसे बड़ी चुनौती
 विपक्ष के लिए सबसे बड़ी चुनौती तो कर्नाटक में साझा सरकार की स्थिरता को लेकर सामने आएगी. खंडित जनादेश के बीच सोनिया गांधी की राजनीतिक परिपक्वता और दोनों दलों की एकजुटता से राजनीतिक मात खाई भाजपा आसानी से हार मानने और पांच साल तक इंतजार करनेवाली नहीं है. विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सत्ता हाथ से निकल जाने के कारण चोटिल भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने कहा भी कि कांग्रेस और जेडीएस अपने विधायकों को छुट्टा खोलकर तो देखंे! हालांकि कांग्रेस और जेडीएस के  विधायकों की एकजुटता ने 25 मई को विश्वासमत प्रस्ताव हासिल करने और उससे पहले कांग्रेस के नेता रमेश कुमार को विधानसभाध्यक्ष चुनवाने और सदन में विस्वासमत हासिल करने की प्रारंभिक जंग को जीत लिया है.
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की रणनीति पर गौर करने पर इस बात का अंदाजा आसानी से लग सकता है कि कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस के इस गठबंधन को 2019 से पहले तोड़ना भाजपा के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता होगी. ताकि ऐसे किसी गठजोड़ को मौकापरस्त दलों का कुर्सीपरस्त गठबंधन साबित करने के साथ ही यह बताया जा सके कि ये वो लोग हैं, जो मोदी और भाजपा को रोकने के लिए बेमेल रिश्ते तो गांठ लेते हैं, लेकिन दो कदम साथ नहीं चल सकते.
 जाहिर सी बात है कि दोनों दलों के नेताओं की महत्वाकांक्षाएं, अंतर्विरोध और सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर अंदरूनी टकराहटों में ही भाजपा अपने लिए अवसर तलाशेगी. मुख्यमंत्री भाजपा की नजर लगातार कुमारस्वामी और उनके कुनबे पर होगी. एचडी कुमार स्वामी के बड़े भाई, विधायक एचडी रेवन्ना लगातार सत्ता में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने का दबाव बनाए रखेंगे. और फिर संकट की घड़ी में कांग्रेस और जनता दल एस के विधायकों को सुरक्षित और एकजुट रखने में सफल रह कर्नाटक के कद्दावर कांग्रेसी नेता, विधायक डी शिव कुमार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और उनका अतीत भी इस साझा सरकार के लिए संकट का कारण बन सकता है. सिद्धरमैया की सरकार में ऊर्जा मंत्री रह चुके शिव कुमार के दर्जनों ठिकानों पर पिछले साल आयकर के छापे पड़ चुके हैं. देखना होगा कि पिछले पांच साल में सैकड़ों करोड़ के धनी बनने वाले और संकट के समय कांग्रेसी विधायकों को अपने पांच सितारा होटल में मेहमान के रूप में छिपाकर रखने वाले शिव कुमार के कारनामों की फाइल आने वाले दिनों में कहीं कांग्रेस और इस सरकार के लिए संकट का कारण न बन जाए. भाजपा की नजर अब उन विधायकों पर भी रहेगी, जो बहुमत के वक्त सारे प्रलोभन ठुकराकर भी नई सरकार में कुछ नहीं पा सके. ऐसे विधायक जिस दिन भी अपनी नाराजगी का सौदा करने को तैयार हो जाएंगे, कर्नाटक में तख्ता पलटते देर नहीं लगेगी. मंत्रिमंडल विस्तार के बाद दोनों दलों के विधायकों में असंतोष के छिटपुट स्वर भी सुनने को मिले लेकिन फिलहाल उन पर काबू पा लिया गया है.
  खंडित जनादेश ने दी विपक्ष को ताकत!
दरअसल, कर्नाटक विधानसभा के चुनावी नतीजांे पर पूरे देश की निगाहें टिकी थीं. भाजपा को लगा था पश्चिम में गुजरात और उत्तर पूर्व में त्रिपुरा, मेघालय और मणिपुर की तरह ही कर्नाटक में भी जीत और सरकार बनाने का का सिलसिला जारी रखते हुए वह 2019 में विपक्ष की चुनौती को यह कहते हुए भोथरा साबित कर सकेगी कि उत्तर पूर्व से से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक देश का मतदाता वर्ग तमाम दुश्वारियों और नाराजगी के बावजूद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को ही पसंद करता है. दूसरी तरफ, गुजरात में सत्ता के करीब पहुंचते पहुंचते पिछड़ गई कांग्रेस को भी लगता था कि कर्नाटक की जीत के बाद नई राजनीतिक ऊर्जा से लबरेज होकर वह राजस्थान, म.प्र., छत्तीसगढ़ और मिजोरम में भी भाजपा को मजबूत चुनौती या कहें शिकस्त देकर 2019 के लिए खुद को तैयार कर सकेगी.
लेकिन कर्नाटक का जनादेश दोनों को ही दगा दे गया. विधानसभा की 224 में से 222 सीटों के लिए हुए चुनाव में भाजपा बहुमत के लिए जरूरी 112 विधायकों के आंकड़े तक पहंुचने के क्रम में 104 सीटों पर ही अटक गई. कांग्रेस को भी केवल 78 सीटें ही मिल सकीं, जबकि जनता दल एस को 37 और उसके साथ मिलकर चुनाव लड़ी बसपा को एक सीट मिली. दो सीटें निर्दलीयों के खाते में गईं. नतीजे कांग्रेस के मनोनुकूल नहीं आए, लेकिन त्रिशंकु विधानसभा की आशंका को महसूस कर कांग्रेस ने समय रहते बड़ा राजनीतिक दाव खेलते हुए जनता दल एस के एच डी कुमार स्वामी के नेतृत्व में साझा सरकार बनाने का प्रस्ताव एच डी देवेगौड़ा के सामने रख दिया. खुद सोनिया गांधी ने देवेगौड़ा से बात की. पिता पुत्र राजी हो गए. राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि कर्नाटक के खंडित जनादेश ने 2019 के आम चुनाव के लिए विपक्ष की चुनौती को दमदार बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. कांग्रेस को अगर अपने बूते वहां बहुमत मिल जाता तो उसके सुनहरे अतीत का अहंकार विपक्ष की एकजुटता की राह में बाधा बन सकता था. कांग्रेस में एक बड़ा तबका चुनावों में कांग्रेस के एकला चलो की रणनीति की वकालत करते रहता है. कांग्रेस के इसी अहंकार ने कर्नाटक में जनता दल एस और मायावती की बसपा के साथ, गुजरात में एनसीपी और बसपा के साथ तथा असम में बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ के साथ भी किसी तरह का चुनावी गठबंधन अथवा सीटों का तालमेल नहीं होने दिया था. कर्नाटक में भी यही गलती हुई. दरअसल, कर्नाटक में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने अपने मुख्यमंत्री सिद्धरामैया की चुनावी रणनीति, पर कुछ ज्यादा ही भरोसा किया और देवेगौड़ा परिवार की राजनीतिक ताकत को उनके प्रभाव क्षेत्रों में भी कम करके आंकने की गलती भी की. कांग्रेस के नरम हिन्दुत्व और राहुल गांधी के मठ मंदिरों में मत्था टेकने के कारण भी देवेगौड़ा परिवार के जनाधारवाले इलाकों में दलित और अल्पसंख्यक मतों का कांग्रेस और जनता दल एस के बीच विभाजन हुआ. यह भी एक कारण है कि 38 फीसदी मत हासिल करके भी कांग्रेस 78 सीटें ही जीत सकी जबकि भाजपा 36 फीसदी मत प्राप्त करके भी 104 सीटें हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर सकी. अगर कांग्रेस और जनता दल एस तथा बसपा सीटों का तालमेल कर चुनाव लड़ते तो कर्नाटक का राजनीतिक परिदृश्य आज कुछ और ही होता.
जाहिर है कि कर्नाटक के इस खंडित जनादेश के चलते कांग्रेस की अकड़ कुछ ढीली पड़ी और बेंगलुरु में विपक्षी महागठबंधन का एक अक्स उभरते दिखा. जिस कर्नाटक को भाजपाई अपने लिए गेट वे टु साउथ यानी दक्षिण में भाजपा का प्रवेश द्वार कह रहे थे, वह ‘गेट वे टु अपोजिशन यूनिटी’ यानी विपक्षी एकता का कारक बन गया. कांग्रेस के लिए सबसे अच्छी बात यह रही कि उसे दक्षिण भारत के कर्नाटक में जनता दल एस के रूप में एक महत्वपूर्ण सहयोगी मिला जिससे गठबंधन जारी रहा तो लोकसभा चुनाव में दोनांे दल राज्य की कुल 28 में से तीन चैथाई सीटें आसानी से जीत सकते हैं. हालांकि कांग्रेस और देवेगौड़ा के बीच अतीत के संबंध बहुत ज्यादा मधुर और भरोसेमंद नहीं रहे हैं. नब्बे के दशक में कांग्रेस के सहयोग से तीसरे ‘संयुक्त मोर्चे’ की सरकार के प्रधानमंत्री बने देवेगौड़ा की सरकार कांग्रेस के समर्थन वापस ले लेने के कारण ही गिरी थी. और फिर एचडी कुमार स्वामी पहले भी भाजपा के साथ सरकार साझा कर चुके हैं. इसलिए भी इस साझा सरकार को भविष्य में अतीत की गलतियों से सबक लेकर ही आगे बढ़ना होगा.
कर्नाटक के राजनीतिक घटनाक्रमों से गैर भाजपा दलों को यह बात तो समझ में आ गई है कि मोदी और भाजपा से लड़ना से है, तो एकजुट होना पड़ेगा. अलग-अलग लड़े-भिड़े, तो 2019 में फिर मारे जाएंगे. मोदी और शाह से यही डर उन्हें एकजुट होने का रास्ता दिखा रहा है. लेकिन मोदी की राजनीतिक शैली, आक्रामकता, लोकप्रियता और देश के बड़े हिस्से में उनके लिए जनसमर्थन गैर भाजपा दलों को 2019 से जितना डरा रहा है, उतना ही डर अब भाजपा को कांग्रेस के साथ क्षेत्रीय दलों के संभावित गठजोड़ से होगा. प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और उनके प्रशंसक डींगें चाहे कितनी भी हांकें, गुजरात के बाद कर्नाटक के नतीजे बताते हैं कि मतदाताओं पर उनकी पकड़ ढीली पड़ रही है. कर्नाटक में इससे पहले 2008 में भी भाजपा येदियुरप्पा के नेतृत्व में 110 सीटें जीत कर सरकार बना चुकी थी. इस बार तो वह 104 पर ही सिमट गई. राजग और भाजपा के भीतर भी असंतोष बढ़ते साफ दिख रहा है.

Sunday, 10 June 2018

Former President Pranab Mukharji at RSS Headquarter in Nagpur

संघ मुख्यालय, नागपुर में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी 

 गुरुवार, सात जून 2018 को पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नागपुर में रेशिम बाग स्थित आर एस एस के मुख्यालय में जाने और उनके भाषण को लेकर तमाम तरह की व्याख्याएं हो रही हैं. व्याख्या तो दो दिन पहले से ही तमाम टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर भी हो रही थीं, उनके भाषण के बाद व्याख्या की भंगिमाएं कुछ बदल सी गई हैं.
गुरुवार को ही शाम 5.40 बजे से 8.50 बजे तक हम भी इस पर चर्चा के लिए एक बड़े टीवी चैनल पर मौजूद. प्रणब बाबू का भाषण वाकई जोरदार और एक राजनेता की तरह का था, लेकिन संघ की अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं था. पूरे भाषण में उन्होंने एक बार भी संघ अथवा उसके संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार का नाम नहीं लिया. उनके गीत नहीं गुनगुनाए और नाही मंच पर मौजूद लोगों की तरह ध्वज प्रणाम किया और नहीं तो अपने सारगर्भित भाषण में उन्होंने परोक्ष रूप से संघ को राष्ट्र, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद पर परोक्ष रूप से अच्छी नसीहत भी दी. उन्होंने एक धर्म और एक भाषा की परिकल्पना को खारिज करते हुए भारतीय संविधान को राष्ट्रवाद का श्रोत बताया. उन्होंने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के हवाले से कहा कि देश में विविधता के लिए पर्याप्त जगह है. देश में 122 से ज्यादा भाषाएं और 1600 से ज्यादा बोलियां हैं. सात मुख्य धर्म और तीन जातीय समूह हैं. यही हमारी असली ताकत है, जो हमें दुनिया में विशिष्ट बनाती है. हमारी राष्ट्रीयता जाति-धर्म से बंधी नहीं है.
संघ मुख्यालय में उनकी मौजूदगी और उनके भाषण पर तकरीबन तीन घंटे की चर्चा की शुरुआत में ही हमने कहा था कि प्रणब कहां जाते हैं और क्या बोलते हैं यह उनका निजी मामला है. और यह भी कि वह वहां कुछ भी बोलें, इसका संघ की सेहत पर खास फर्क नहीं पड़नेवाला क्योंकि उनके स्वयंसेवक-प्रचारक आमतौर पर चिकना घड़ा होते हैं. इसकी तस्दीक करते हुए संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने भी अपने उद्बोधन में साफ कहा कि कार्यक्रम के बाद प्रणब प्रणब ही रहेंगे और संघ भी संघ ही रहेगा.
जाहिर सी बात है कि बाकी लोगों के लिए भी कुछ समय तक जुगाली करने से अधिक प्रणब दा के भाषण का विशेष महत्व नहीं रह जाएगा क्योंकि लोग भूल जाएंगे कि उन्होंने वहां कहा क्या क्या था. याद रहेगा या जिसे संघ के लोग अपनी वैधता साबित करने के लिए गाहे बगाहे याद करवाते रहंेगे, वह है, संघ मुख्यालय में उनकी उपस्थिति. और संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के बारे में स्मृति पुस्तिका में लिखे उनके वाक्य और इस अवसर पर उनके साथ ली गई तस्वीरें. आगे चलकर संघ के लोग उनके भाषण को भी तोड़ मरोड़ कर पेश करेंगे ही. प्रणब बाबू का इस्तेमाल उनके लिए अपने प्रोडक्ट को वैधता प्रदान करनेवाले एक विज्ञापन के माडल के रूप में ही किया जाएगा. इस तरह की जायज आशंका उनकी पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी ने भी जाहिर की थी. एक दिन बाद ही सोशल मीडिया पर ‘डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट’ की ओर से फोटो शाप की मदद से तैयार कुछ ऐसी तस्वीरें भी पोस्ट की गई हैं जिसमें प्रणब संघ के निष्ठावान प्रचारक की तरह संघ के ध्वज को प्रणाम करते दिख रहे हैं.
ऐसा यह प्रणब के साथ ही करेंगे, यह सवाल बेमानी है क्योंकि अतीत में ऐसा ही ये लोग महात्मा गांधी के साथ भी कर चुके हैं. 1934 में गांधी वर्धा में संघ के एक शिविर में गए थे. वहां उन्होंने संघ के बारे में कुछ भी नहीं कहा था. लेकिन बाद में संघ के एक बड़े पदाधिकारी एच वी शेषाद्रि ने कहा, ‘‘गांधी जी को वहां यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि अश्पृश्यता का विचार रखना तो दूर स्वयंसेवकों को एक दूसरे की जाति का पता भी नहीं था. गांधी जी इससे बहुत प्रभावित हुए थे.’’ यह बात गांधी ने कभी खुद  कही हो इसका उल्लेख उनके साहित्य में और ना ही उनके किसी करीबी ने अपने किसी संस्मरण में ही किया है. यही नहीं गांधी जी के निजी सचिव रहे प्यारे लाल अपनी पुस्तक ‘‘महात्मा गांधी द लास्ट फेज, भाग 2 के पृष्ठ 400 पर लिखते हैं कि गांधी जी की टोली के एक सदस्य ने एक बार उनसे कहा कि संघ के लोगों ने शरणार्थी शिविर में बहुत अच्छा काम किया है. उन्होंने अनुशासन, साहस और कठिन श्रम की क्षमता प्रकट की है. इस पर गांधी जी ने कहा कि मत भूलो कि हिटलर के नाजी और मुसोलिनी के फासिस्ट भी ऐसे ही थे. इसका जिक्र संघ के लोग कभी नहीं करते.
संघ अपनी वैधता साबित करने के लिए, हालांकि आज जिस तरह से उनका विस्तार हुआ या हो रहा है, उसे देखेते हुए, इसकी उन्हें खास जरूरत भी नहीं होनी चाहिए, अतीत में लोकनायक जयप्रकाश नारायाण, वामपंथी सोच के कृष्णा अय्यर, पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम आदि तमाम लोगों को अपने कार्यक्रमों में ले जाते रहे हैं और उनके वहां कहे की अपने तरह की व्याख्या पेश कर अपने को महिमामंडित करते रहे हैं. समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया कभी उनके मुख्यालय या किसी शिविर में नहीं गए लेकिन अब तो संघ के लोग यह बताने में संकोच भी नहीं करते कि वे भी उनके कार्यक्रम में आए थे. 7 जून के टीवी शो में भी विहिप से जुड़े सज्जन बड़े दावे के साथ ऐसा कह रहे थे.
टीवी शो में संघ और भाजपा के लोग जोर शोर से यह दावा कर रहे थे कि संघ में जाति मायने नहीं रखती. लेकिन जब हमने यह जानना चाहा कि 94 साल के संघ के इतिहास में अब तक कोई दलित, पिछड़ी जाति का सदस्य अथवा किसी भी जाति की महिला संघ के सर संघचालक क्यों नहीं बन सके. अभी तक सर संघचालक बने लोगों में इक्का दुक्का अपवाद का छोड़कर प्रायः सभी महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण ही क्यों रहे. और यह भी कि इस समय की संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नब्बे फसदी लोग ब्राह्मण और बाकी सदस्य भी सवर्ण क्यों हैं. सीधे जवाब देने के बजाय कहा गया कि संघ पुरुषों का संगठन है और महिलाओं के लिए संघ ने राष्ट्र सेविका समिति बनाई है. लेकिन यह समिति कब बनी. सीधी सी बात है कि संघ मनुवादी संगठन है जिसकी संविधान में आस्था नहीं और वह मनु संहिता की वकालत करता है जिसमें औरत और शूद्रों को गोस्वामी तुलसी दास की एक उक्ति ‘‘ढोर गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ की तर्ज पर प्रताड़ना के विषय बताए गए हैं. तिलमिलाहट स्वाभाविक है. लेकिन ठंडे दिमाग से संघ के और बड़े नेता इसका जवाब दें तो आभार मानूंगा.
चर्चा में संघ पर लगे प्रतिबंधों और स्वयंसेवकों-प्रचारकों के अनुशासन और बहादुरी की चर्चा भी हुई. हमने समझाने की कोशिश की कि आपातकाल में हम भी अपने पिता जी के साथ जेल गए थे. किस तरह आपातकाल में संघ के तत्कालीन सर संघचालक बाला साहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर माफी मांगी थी और कहा था कि उनका सामाजिक सांस्कृतिक संगठन आरएसएस उनके बीस सूत्री कार्यक्रमों के प्रचार प्रसार का इच्छुक है. इंदिरा गांधी ने उनके माफीनामे को अस्वीकार करते हुए संघ के नेताओं, प्रचारकों और स्वयंसेवकों से निजी और स्थानीय तौर पर माफीनामा भरने को कहा था. जेलों में माफीनामे की कतारें लग गई थीं. संघ और उसके नेतृत्व के सामने ये सवाल अक्सर मुंह बाए खड़े रहते हैं. यह भी कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में शिरकत के बजाय उसका विरोध क्यों किया था. क्यों इसके तत्कालीन सर संघचाललक गुरू गोलवलकर ने अंग्रेजों से लड़ने के बजाय अल्पसंख्यक मुसलमानों और कम्युनिस्टों से लड़ने को संघ की प्राथमिकता बताई थी. इसके सहयोगी हिंदू महासभा के नेता और बाद में जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने देश विभाजन के लिए जिम्मेदार मुस्लिम लीग के नेतृत्ववाली पश्चिम बंगाल सरकार में साझा किया और वरिष्ठ मंत्री का पद स्वीकार किया था.
ऐसे तमाम सवाल हैं जो संघ के अतीत और वर्तमान को लेकर उठते रहते है, जिनपर स्पष्टीकरण की आवश्यकता है. संघ के नेतृत्व को यह भी बताना चाहा कि वह प्रणब मुखर्जी के भाषण और सुझावों पर अमल करने के लिए तैयार है क्या!