Monday, 26 July 2021

HAL FILHAL: PEGASUS SPYWARE PROJECT and RAID ON MEDIA

जासूसी का जाल और मीडिया पर छापेमारी


जयशंकर गुप्त


    क्या कोई सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों, असहमति रखनेवाले पत्रकारों, वकीलों, उद्यमियों और नागरिकों की जासूसी करवा सकती है! और क्या स्वतंत्र और तटस्थ पत्रकारिता कर रहे अखबारों, टीवी चैनलों और पत्रकारों के यहां आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी से उन्हें डराया-धमकाया जा सकता है ! हम बात कर रहे हैं, भारत सहित दुनिया के कई और देशों में भी ‘पेगासस स्पाईवेयर’ के जरिए स्मार्ट फोन हैक कर जासूसी करने के संबंध में मीडिया रिपोर्ट्स की और देश के सबसे बड़े अखबारों में शुमार ‘दैनिक भास्कर’ और उत्तर प्रदेश के खबरिया टीवी चैनल ‘भारत समाचार’ और इसके संपादक के कार्यालयों, ठिकानों पर पिछले सप्ताह बड़े पैमाने पर हुई आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी की.

  
राज्यसभा में पेगासस जासूसी को लेकर हंगामा (तस्वीरः राज्यसभा टीवी)
    मानसून सत्र का पहला सप्ताह कथित जासूसी प्रकरण और मीडिया संस्थानों छापेमारी पर संसद में चर्चा कराने, इसकी संयुक्त संसदीय समिति अथवा सुप्रीम कोर्ट की देख-रेख में विशेष जांच दल (एसआइटी) से जांच करवाने की मांग कर रहे विपक्ष के हंगामे और सरकार के अड़ियल रुख की भेंट चढ़ गया. एक दिन राज्य सभा में विपक्ष के सांसदों के शोरगुल, नारेबाजी और हंगामे के बीच पेगासस जासूसी मामले पर जवाब दे रहे सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव से जवाब की प्रति छीनने के आरोप में तृणमूल कांग्रेस के सांसद शांतनु सेन को पूरे मानसून सत्र के लिए निलंबित किया जा चुका है. लेकिन मामला शांत होने का नाम नहीं ले रहा है. विपक्ष अपनी मांग पर अड़ा है.इस बीच पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन भीमराव लोकुर एवं कोलकाता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ज्योतिर्मय भट्टाचार्य के दो सदस्यीय जांच आयोग से इस मामले की न्यायिक जांच कराने की घोषणा की है. सुश्री बनर्जी के अनुसार उन्हें उम्मीद थी कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में इस मामले की जांच करवाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

    इस बीच देश और दुनिया के कई और देशों में भी इजरायल की कंपनी एनएसओ के जासूसी उपकरण ‘पेगासस स्पाईवेयर’ के जरिए की गई जासूसी के संबंध में नित नए खुलासे हो रहे हैं. मीडिया रिपोर्ट्स में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे, सांसद अभिषक बनर्जी, चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर, सीबीआई के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा, पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा, युद्धक विमान राफेल की खरीद से जुड़े उद्योगपति अनिल अंबानी, उनकी कंपनी के कुछ बड़े अधिकारी, राफेल कंपनी के कुछ अधिकारियों से लेकर जम्मू कश्मीर के कुछ बड़े नेताओं और देश के चार दर्जन पत्रकारों के साथ ही केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव और प्रह्लाद पटेल के नाम भी अब तक सामने आ चुके हैं जिनके स्मार्ट मोबाइल फोन नंबरों को हैक कर उनकी जासूसी की बात कही जा रही है. फ्रांस में खोजी पत्रकारिता के लिए मशहूर संस्था ‘मीडियापार’ के फाउंडर एडवी प्लेनेल और उनकी सहयोगी पत्रकार लीनाग ब्रेडॉ के नाम भी उस लिस्ट में हैं, जिनके फोन की पेगासस के जरिए जासूसी कराए जाने की बातें कही जा रही हैं. मीडियापार वही संस्था है, जिसकी शिकायत पर फ्रांस में राफेल विमानों की खरीद में भ्रष्टाचार की जांच नए सिरे से शुरू हुई है.

    
राहुल गांधीः फोन हैक हुआ
    राहुल गांधी ने अपने स्मार्ट फोन को हैक होने की पुष्टि की है. उन्होंने इस जासूसी प्रकरण को ‘राजद्रोह’ करार देते हुए इसके लिए गृह मंत्री अमित शाह को जिम्मेदार ठहराया है और उनके त्यागपत्र की मांग की है. उन्होंने इस मामले में प्रधानमंत्री की भूमिका की जांच भी सुप्रीम कोर्ट से कराने की मांग की है. लेकिन सरकार ने मीडिया रिपोर्टों के आधार पर विपक्ष की इस मांग को निराधार करार देते हुए कथित जासूसी प्रकरण को संसद के मानसून सत्र के ठीक एक दिन पहले सार्वजनिक करने के पीछे भारत की प्रगति और विकास के रास्ते में अवरोध पैदा करने की गरज से अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र की आशंका जाहिर की है. सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव ने 19 जुलाई को लोकसभा में कहा, "एक वेब पोर्टल पर कल रात एक अति संवेदनशील रिपोर्ट प्रकाशित की गई जिसमें बढ़ा-चढ़ाकर कई आरोप लगाए गए. ये रिपोर्ट संसद के मॉनसून सत्र के एक दिन पहले प्रकाशित हुई. यह संयोग मात्र नहीं हो सकता." इसी तरह की बात करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने भी इसकी क्रोनोलॉजी समझाने की कोशिश की है. सरकार की तरफ से यह भी साफ करने की कोशिश की गई कि सरकार अवैधानिक तरीके से किसी की जासूसी नहीं करवाती है. यानी वैधानिक तरीके से जासूसी कराई जा सकती है. अगर सरकार इस संबंध में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के रहस्योद्घाटनों को निराधार और अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा मानती है तो फिर इस मामले की संयुक्त संसदीय समिति से अथवा सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच को तैयार क्यों नहीं हो जाती.  

    यह मांग केवल विपक्ष के नेता, वकील और पत्रकार ही नहीं कर रहे हैं, भाजपा के वरिष्ठ नेता, सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भी कहा है कि “अगर छिपाने के लिए कुछ नहीं है, तो प्रधानमंत्री मोदी को चाहिए कि वह इजराइली प्रधानमंत्री को चिट्‌ठी लिखें और एनएसओ के पेगासस प्रोजेक्ट का पता लगाएं. यह भी पता लगाया जाए कि इसके लिए पैसे किसने खर्च किया.” स्वामी ने ट्विटर पर लिखा कि पेगासस स्पाईवेयर एक व्यावसायिक कंपनी है, जो पैसा लेकर ही काम करती है. इसलिए यह सवाल लाज़मी है कि भारतीय लोगों पर जासूसी के लिए पैसे अगर भारत सरकार ने नहीं दिए, तो आख़िर किसने दिए. मोदी सरकार को इसका जवाब देश की जनता को देना चाहिए. अपने विरोधियों की जासूसी कराने के इस मामले में सरकार पर शक की सुई इसलिए भी उठ रही है क्योंकि एनएसओ ने साफ कहा है कि उसका जासूसी सॉफ्टवेयर अपराध और आतंकवादी गतिविधियों को रोकने और लोगों के जीवन बचाने के एकमात्र उद्देश्य के लिए केवल सरकारों और उनकी खुफिया एजेंसियों को ही बेचा जाता है. इसे किसी निजी व्यक्ति अथवा संस्थान को नहीं बेचा जाता. मजे की बात यह भी है कि अभी तक भारत में जितने भी फोन नंबरों की जासूसी पेगासस के स्पाईवेयर से कराए जाने की बातें सामने आ रही हैं, उनमें से एक भी फोन नंबर किसी आतंकवादी अथवा अंतरराष्ट्रीय स्तर के अपराधी का नहीं है. 

  
भाजपा नेता स्वामीः छिपाने को कुछ नहीं तो जांच करवा लें
    इस संदर्भ में मीडिया रिपोर्ट्स सार्वजनिक होने से पहले ही भाजपा नेता स्वामी ने ट्वीट कर बताया था कि वॉशिंगटन पोस्ट, गार्डियन तथा कुछ और मीडिया संस्थान एक रिपोर्ट सार्वजनिक करने जा रहे हैं, जिसमें इजराइल की फर्म पेगासस को मोदी कैबिनेट के मंत्री, आरएसएस के नेता, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश और पत्रकारों के फ़ोन टैप करने के लिए हायर किए जाने का भंडाफोड़ होगा. 18 जुलाई को वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट में बताया गया कि शुरुआती रिपोर्ट में दुनिया भर में 189 पत्रकारों, 600 से अधिक राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों और 60 से अधिक व्यावसायिक अधिकारियों को एनएसओ के ग्राहकों (क्लाइंट्स) द्वारा लक्षित किया गया था. 18 जुलाई की देर शाम यहां दिल्ली में न्यूज पोर्टल ‘द वायर’ ने अपनी रिपोर्ट में सनसनीखेज खुलासा किया कि भारत सरकार ने 2017 से 2019 के बीच करीब 300 भारतीयों की जासूसी करवाई है. इन 300 लोगों में विपक्ष के नेता पत्रकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और बिजनेसमैन भी शामिल हैं. दि वायर ने दावा किया कि सरकार ने पेगासस स्पाईवेयर के जरिए इन लोगों के फोन हैक किए थे.

क्या है पेगासस जासूसी प्रकरण


    इजराइल की कंपनी एनएसओ का पेगासस स्पाईवेयर एक ऐसा सॉफ्टवेयर है, जो बिना सहमति के आपके स्मार्ट फोन तक पहुंच हासिल करने, व्यक्तिगत और संवेदनशील जानकारी इकट्ठा कर जासूसी करने वाले यूजर यानी ग्राहक को देने के लिए बनाया गया है. यह अगर किसी स्मार्ट फोन में डाल दिया जाए तो कोई हैकर उस आईफोन, एन्ड्राएड फोन के माइक्रोफोन, कैमरा, आडियो और टेक्स्ट मेसेजेज, ईमेल और लोकेशन तक की सभी तरह की जानकारियां हासिल कर सकता है. 

  दरअसल, फ़्रांसीसी मीडिया संस्थान, फॉरबिडन स्टोरीज और मानवाधिकारों की रक्षा से जुड़े एमनेस्टी इंटरनेशनल को 45 देशों के तकरीबन 50 हजार स्मार्ट फोन नंबर्स की एक लिस्ट मिली थी जिनको पेगासस स्पाईवेयर के जरिए हैक करने की आशंका जताई गई थी. 'फ़ॉरबिडन स्टोरीज़' ने इनमें से 67 फोन नंबरों के उपयोगकर्ताओं से अनुमति लेकर उनके नंबरों की फ़ॉरेंसिक जांच करवाई. इनमें से 37 लोगों के फ़ोन में एमनेस्टी इंटरनेशनल सिक्योरिटी लैब्स को पेगासस स्पाईवेयर द्वारा संभावित रूप से टारगेट बनाये जाने के सबूत मिले. इसके बाद ही इन संस्थाओं ने पूरी सूची को दि गार्डियन, वाशिंगटन पोस्ट, फ्रंटलाइन, ली मॉंड, रेडियो फ्रांस, हारेट्ज (इजराइल) जैसे दुनियाभर के 17 बड़े और नामचीन मीडिया संस्थानों के साथ शेयर किया. इन मीडिया संस्थानों में भारत से ‘दि वायर’ भी शामिल था. इन मीडिया संस्थानों और उनके 80 खोजी पत्रकारों की महीनों की मेहनत और गहन जांच के बाद बताया गया कि पेगासस के जरिए अलग-अलग देशों की सरकारें पत्रकारों, विपक्षी नेताओं, बिजनेसमैन, सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और वैज्ञानिकों समेत कई लोगों की जासूसी कर रही हैं. इस सूची में भारत का भी नाम है.

    वैसे, इससे पहले भी तमाम सरकारों पर अपने विरोधियों की जासूसी करने के आरोप लगते रहे हैं. कई सरकारों को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा है लेकिन आश्चर्यजनक बात यही है कि पेगासस जासूसी प्रकरण को पूरी तरह से निराधार और भारत की प्रगति और विकास को अवरुद्ध करने के अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा मान रही मोदी सरकार इसकी संयुक्त संसदीय समिति से अथवा सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में किसी तरह की जांच करने को राजी क्यों नहीं हो रही. इतना भी नहीं बता रही कि उसने पेगासस की सेवाएं ली या नहीं.

    भारत और फ्रांस में जिन लोगों की जासूसी कराए जाने के विवरण सामने आ रहे हैं, उनमें से कइयों के नाम किसी न किसी रूप में युद्धक विमान राफेल की खरीद से भी जुड़े हैं. जाहिर सी बात है कि इसके मद्देनजर राफेल युद्धक विमानों की खरीद और उसमें कथित तौर पर ली अथवा दी गई दलाली का मामला भी नए सिरे से तूल पकड़ सकता है. फ्रांस ने तो इस प्रकरण को अपराध मानते हुए जांच के आदेश दे दिए हैं लेकिन भारत सरकार अभी भी इसे नकारने के मूड में ही दिख रही है.

मीडिया पर सरकारी शिकंजा !

  
    अब बात करते हैं, मीडिया और खासतौर से हाल के दिनों में सच को सामने लानेवाले मीडिया संस्थानों और उनके पत्रकारों पर सरकारी शिकंजा कसते जाने के बारे में. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर एक अरसे से सरकार से असहमति रखने और किन्हीं मामलों में सरकार की गलत नीतियों के विरोध में लिखने, बोलने और सरकार की गलतियों, नाकामियों को उजागर करनेवाले पत्रकारों-मीडिया संस्थानों को तरह-तरह से प्रताड़ित करने के आरोप लगते रहे हैं. ऐसे कुछ मीडिया संस्थानों को सरकारी विज्ञापनों की सूची से बाहर रखने, उन्हें न्यूनतम विज्ञापन जारी कर उन्हें आर्थिक रूप से कृपण बनाने से लेकर पत्रकारों को नौकरी से बाहर करवाने, कइयों को रासुका और राजद्रोह जैसे मुकदमों में फंसाने के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन अभी 22 जुलाई को एक साथ दैनिक भास्कर और उत्तर प्रदेश के खबरिया टीवी चैनल भारत समाचार के कार्यालयों और अन्य ठिकानों पर आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की टीमों ने छापा मारा. आमतौर पर सत्तामुखी या कहें सरकार समर्थक ही कहे जाते रहे दैनिक भास्कर ने हाल के महीनों में खासतौर से कोरोना की दूसरी लहर के दौरान इस महामारी से मौत का शिकार हुए लोगों की संख्या पर सरकार के आंकड़ों का सच उजागर करने से लेकर गंगा नदी में बहते और नदी किनारे दफनाए गए शवों, आक्सीजन के अभाव में मरे लोगों पर सरकार की गलत बयानी का सच दिखाने, चित्रकूट में हुई आरएसएस की गोपनीय बैठक से जुड़ी अंदरूनी खबरें सामने लाने, चरम छूती महंगाई और बेरोजगारी के आंकड़ों को प्रमुखता से प्रकाशित करने के कारण सत्ता प्रतिष्ठान के लिए सिरदर्द बनने लगा था. दैनिक भास्कर का प्रबंधन इस छापेमारी को, जो 24 जुलाई को भी जारी रही, अखबार के सच दिखाने के प्रतिशोध में की गई कार्रवाई करार दिया है. दूसरी तरफ सत्ता पक्ष इससे पल्ला झाड़ते हुए इसे रूटीन कार्यवाही मान रहा है.

    अगर किसी व्यक्ति, संस्था, अखबार और मीडिया संस्थान ने भी आयकर अथवा किसी और मामले में कुछ गलत या अनियमित किया है, मनी लांड्रिंग की है तो उसकी जांच होनी ही चाहिए. उसके खिलाफ कानून और जांच एजेंसियों को अपना काम करना ही चाहिए. इसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन सवाल इस छापेमारी की टाइमिंग और अमित शाह जी की भाषा में कहें तो क्रोनोलॉजी को लेकर है. हाल के महीनों में यह बात अक्सर और अधिकतर मामलों में देखी गई है कि हमारे आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियों के निशाने पर सरकार के विरोध में बोलने, लिखने, छापने और दिखानेवाले लोग ही ज्यादा होते हैं. अगर दैनिक भास्कर अखबार ने कुछ भी गलत किया है तो उसकी जांच अथवा इसके कार्यालयों पर आयकर के छापे तबभी पड़ सकते थे जब यह सत्तामुखी था. ऐसे समय में ही उस पर छापे क्यों पड़े जब वह सरकार की गलतियों, नाकामियों को सामने ला रहा है.

    
भारत समाचार के संपादक-ऐंकर ब्रजेश मिश्रः सच के साथ
    
सी दिन उत्तर प्रदेश के एक बेबाक टीवी चैनल भारत समाचार और उसके प्रधान संपादक ब्रजेश मिश्रा, तेजतर्रार पत्रकार विरेंद्र सिंह तथा चैनल से जुड़े कुछ अन्य लोगों के कार्यालय और ठिकानों पर आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय की टीमों ने छापेमारी की. दिल्ली पुलिस की एक टीम भारत में पेगासस जासूसी प्रकरण को उजागर करनेवाले न्यूज पोर्टल ‘दि वायर’ के कार्यालय में भी पहुंच गई. पूछने पर बताया गया कि पुलिस वहां 15 अगस्त स्वाधीनता दिवस समारोह के मद्देनजर रूटीन जांच के लिए गई थी. इससे पहले इसी तरह की छापेमारी एक और न्यूज पोर्टल-यू ट्यूब चैनल ‘न्यूज क्लिक’ के साथ भी हुई थी. भारत समाचार की तरह ही न्यूज क्लिक भी यूपी सरकार से लेकर केंद्र सरकार के गलत कार्यों, कोरोना महामारी से निबटने में सरकार की लापरवाही और नाकामियों को उजागर करते रहा है. अच्छी बात यह है कि इन पत्रकारों और मीडिया संस्थानों ने इस तरह की सरकारी कार्रवाइयों और छापेमारी से डर कर घुटने टेकने के बजाय सच के साथ खड़े रहने का संकल्प जाहिर किया है. हालांकि भारतीय मीडिया का एक वर्ग इन छापों पर या तो तटस्थ है या फिर इनके औचित्य साबित करने में लगा है. सरकार को भी अब जाहिरा तौर पर कह देना चाहिए कि प्रधानमंत्री से लेकर उसके तमाम नेता चाहे कितना भी मजबूत लोकतंत्र की दुहाई देते रहें, लोकतंत्र का अनिवार्य तत्व असहमति उन्हें हर्गिज बर्दाश्त नहीं होगी. उसके विरुद्ध कोई कुछ लिखेगा, बोलेगा और छापेगा तो उसके यहां छापे भी पड़ेंगे.

Monday, 19 July 2021

Haal Filhal : Questioning the Relevance of Sedition Law

राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता पर सवाल


जयशंकर गुप्त


    सुप्रीम कोर्ट ने अंग्रेजी राज में बने तकरीबन 151 साल पुराने राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर मोदी सरकार के सामने अजीब सी मुसीबत खड़ी कर दी है. अब केंद्र सरकार को बताना है कि 1870 में बने जिस राजद्रोह कानून को बदलते समय के अनुरूप ब्रिटेन, अमेरिका सहित कई देशों ने कानून की किताबों से बाहर कर दिया है, आजाद भारत में इसे बनाए रखने का औचित्य क्या है! भारतीय दंड संहिता में धारा 124ए यानी राजद्रोह कानून आज भी न सिर्फ कायम है बल्कि सत्ता विरोधियों के विरुद्ध इसके बेजा इस्तेमाल को लेकर विवाद भी उठते रहे हैं. अधिकतर मामलों में अदालतें राजद्रोह कानून के तहत दर्ज मुकदमे रद्द करती रही हैं.

    बीते 15 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा आजादी के 74 साल बाद भी 124ए की प्रासंगिकता पर सवाल खड़ा करने के बाद तमाम राजनीतिक दल, बौद्धिक, विधि विशेषज्ञ, अधिवक्ता तथा सामाजिक एवं मानवाधिकारों से जुड़े संगठनों ने कहा है कि लोकतांत्रिक भारत में इस कानून के लगातार दुरुपयोग को देखते हुए इसे रद्द कर देना ही श्रेयस्कर होगा. लेकिन सरकार ने और इसका नेतृत्व कर रहे सत्तारूढ़ दल ने भी इसके बारे में अभी तक साफ राय नहीं जाहिर की है. मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण की अध्यक्षतावाली पीठ के सामने 124 ए की प्रासंगिकता को लेकर सुनवाई के दौरान महान्यायवादी के के वेणुगोपाल ने कहा कि कानून को पूरी तरह से रद्द करने के बजाय इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए पैरामीटर तय कर दिशा निर्देश जारी किए जा सकते हैं. इससे पहले जुलाई 2019 में केंद्र सरकार ने संसद में अपने जवाब में कहा था कि राष्ट्र विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों से प्रभावकारी ढंग से निबटने के लिए इस कानून की जरूरत है.

    लेकिन मैसूर के रिटायर्ड मेजर जनरल एसजी वोम्बटकेरे और एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया ने आजाद भारत में 124ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती देनेवाली याचिका में कहा है कि यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन है. तीन जजों-मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रमण, ए एस बोपन्ना और हृषिकेश राय- की पीठ ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि यह एक औपनिवेशिक कानून है जिसे अंग्रेजी राज में आजादी की लड़ाई को दबाने के लिए अंग्रेजों ने बनाया था. इसका इस्तेमाल महात्मा गांधी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं को चुप कराने के लिए किया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा कि आजादी के 74 साल बाद भी क्‍या यह कानून जरूरी है? 
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमण

    मुख्य न्‍यायाधीश ने महान्यायवादी श्री वेणुगोपाल से कहा कि धारा 66A को ही ले लीजिए, उसके रद्द किए जाने के बाद भी हज़ारों मुकदमे इस धारा के तहत दर्ज किए गए. हमारी चिंता कानून के दुरुपयोग को लेकर है. मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि यह तो ऐसा ही है कि किसी बढ़ई को एक पेड़ काटने के लिए आरी दी जाए लेकिन वह पूरे जंगल को ही काटने लग जाए. उन्होंने कहा कि सरकार बहुत सारे पुराने कानूनों को क़ानून की किताबों से निकाल रही है तो इस कानून को भी हटाने पर विचार क्यों नहीं किया जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट की राय में राजद्रोह कानून लोकतंत्र में संस्थाओं के कामकाज के लिए गंभीर खतरा है. सुदूर गांव में कोई पुलिस अधिकारी किसी को सबक सिखाना चाहे तो वह राजद्रोह कानून का सहारा ले सकता है. यदि कोई राजनीतिक दल असहमति के स्वरों को दबाना चाहता है तो वह अपने विरोधियों के खिलाफ इस कानून का इस्तेमाल कर सकता है. देश में इस कानून को लेकर हर कोई थोड़ा डरा हुआ है. जस्टिस रमण ने कहा कि सर्वोच्च अदालत राजद्रोह कानून की वैधता का परीक्षण करेगी. केंद्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए कहा गया कि इसके साथ इससे जुड़ी अन्य याचिकाओं की सुनवाई भी होगी. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में ऩ्यायमूर्ति उदय ललित की एक अन्य पीठ में भी धारा 124 ए को चुनौती देनेवाली छत्तीसगढ़ के पत्रकार कन्हैयालाल शुक्ला और मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम की याचिका विचाराधीन है. जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने भी किसी मामले की सुनवाई करते हुए सवाल किया था कि यह कैसे तय होगा कि क्या राजद्रोह है और क्या राजद्रोह नहीं है. सरकार से असहमति मात्र राजद्रोह का आधार नहीं बन सकती है.

राजद्रोह कानून है क्या!

    भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में राजद्रोह को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है या ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके खिलाफ धारा 124ए के तहत राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हो सकता है. इसके अलावा अगर कोई शख्स किसी देश विरोधी संगठन के साथ अनजाने में भी संबंध रखता है या किसी भी प्रकार से उसका सहयोग करता है तो वह भी राजद्रोह के दायरे में आता है. यह गैर जमानती अपराध है. इस मामले में दोषी पाए जाने पर आरोपी को तीन साल से लेकर उम्रकैद तक हो सकती है. इसके अतिरिक्त इसमें जुर्माने का भी प्रावधान है. हालांकि संविधान में अनुच्छेद-19 (1)(ए) के तहत विचार और अभिव्यक्ति की आजादी मिली है. लेकिन इसके साथ ही अनुच्छेद-19 (2) के तहत ऐसा कोई बयान नहीं दिया जा सकता जो देश की संप्रभुता, सुरक्षा, पब्लिक ऑर्डर के खिलाफ हो. तो फिर राजद्रोह कानून को बनाए रखने का औचित्य क्या है.
 
    दरअसल, हमारी सरकारें समाज में शांति और कानून-व्‍यवस्‍था कायम रखने के नाम पर असहमति के स्वरों, सरकार, सरकारी फैसले और कानूनों का विरोध करनेवालों के विरुद्ध राजद्रोह कानून को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती रही हैं. हाल के वर्षों में 124 ए के तहत हुए मुकदमों की संख्या और इसके दुरुपयोग के मामले बढ़े हैं. अब तो इसका इस्तेमाल सरकार के विरोध में लिखने, बोलनेवाले मीडिया के लोगों के विरुद्ध भी होने लगा है. 2020 में 67 पत्रकारों के खिलाफ केस कर दिया गया है. आंकड़े बताते हैं कि 2010 में राजद्रोह के 10 मामले दर्ज हुए थे जबकि 2014 से लेकर 2019 तक राजद्रोह के 326 मामले दर्ज हुए जिनमें 559 लोगों को गिरफ्तार किया गया. हालांकि इनमें से केवल दस मामलों में ही आरोप सिद्ध हो सके. बाकी मामलों में वर्षों जेलों में बिताने के बाद सबूतों के अभाव में अभियुक्त बेदाग छूट गए. तो फिर उन्हें गिरफ्तार क्यों किया गया था. देखा जाए तो राजनीतिक विरोधियों, मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करनेवाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और मीडिया कर्मियों के विरुद्ध उन्हें डराने-धमकाने और चुप करने के इरादे से राजद्रोह के मुकदमों का इस्तेमाल अघोषित ‘सेंसरशिप’ के रूप में भी किया जा रहा है.

    
वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआः सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया
राजद्रोह का मुकदमा
    पर्यावरण के क्षेत्र में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता दिशा रवि, डॉ. कफील खान से लेकर शफूरा जरगर, वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ से लेकर मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम और छत्तीसगढ़ के पत्रकार कन्हैया लाल शुक्ल तथा सिद्दीक कप्पन तक ऐसे कई लोग हैं जिनके विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया. कइयों को इस मामले में गिरफ्तार भी किया गया है जबकि अधिकतर लोग सबूतों के अभाव में अदालतों के द्वारा इन आरोपों से बरी भी हो चुके हैं. देश में इलेक्ट्रानिक मीडिया के पुरोधा पत्रकार कहे जानेवाले विनोद दुआ के खिलाफ 6 मई 2020 को हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ था. उनका गुनाह इतना भर था कि उन्होंने अपने किसी टीवी शो में मोदी सरकार को निकम्मा कहा था. बाद में सुप्रीम कोर्ट ऩे 1962 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को आधार मानकर दुआ पर राजद्रोह के मुकदमे को खारिज कर दिया था.

राजेंद्र सिंह बनाम बिहार राज्य

    गौरतलब है कि 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने राजेंद्र सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में धारा 124ए यानी राजद्रोह क़ानून को बरकरार रखने के पक्ष में फैसला देते हुए कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल “अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों तक ही सीमित होना चाहिए.” सुप्रीम कोर्ट ने तब साफ किया था कि सरकार के कार्यों और फैसलों की आलोचना के लिए किसी नागरिक के विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता क्योंकि ऐसा करना भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है. राजद्रोह कानून से जुड़े मामलों की सुनवाई के दौरान अक्सर सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त फैसले और दिशा निर्देशों का संदर्भ दिया जाता है. उसके बाद भी कई अवसरों पर सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि लोकतंत्र में अगर किसी को सरकार के समर्थन का अधिकार है तो किसी को सरकार और उसके फैसलों की आलोचना करने का अधिकार भी है. इसके बावजूद सत्ता विरोधी अथवा असहमति के स्वरों को दबाने के इरादे से राजद्रोह कानून अथवा इसी तरह के कानूनों का इस्तेमाल किया जा रहा है. और इस मामले में केंद्र सरकार हो या राज्यों में भाजपा की अथवा किसी और दल की सरकार, सबका रवैया कमोबेस एक जैसा ही रहा है.

    
 पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेमः असहमति की सजा! 
    मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम को अभी 13 मई को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उन्होंने कोरोना से हुई प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष एस टिकेंद्र सिंह की मौत पर श्रद्धांजलि देने के क्रम में सोशल मीडिया पर लिख दिया था, “कोरोना का इलाज गोबर और गोमूत्र से नहीं बल्कि विज्ञान से संभव है.” इतना लिखने भर से वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन गए. इस तरह के और भी तमाम मामले हैं जब सरकार के विरोध में बोलने-लिखनेवालों को राजद्रोह या इसी तरह के खतरनाक कानून के शिकंजे में लिया गया. नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध करने से लेकर अभी सरकार के तीन कृषि कानूनों का विरोध करनेवाले किसानों के विरुद्ध भी बड़े पैमाने पर राजद्रोह कानून का इस्तेमाल किया गया है.

क्या कहते हैं विधि विशेषज्ञ

    सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन का मानना है कि केवल दिशानिर्देश तय करने से बात नहीं बननेवाली. धारा 124 ए के दिशा-निर्देश और मानदंड 60 के दशक में निर्धारित किए गए थे. पांच दशक बाद भी हम उस फ़ैसले की मंशा और दायरे की ग़लत व्याख्या कर रहे हैं और अभी भी दिशानिर्देशों की तलाश में हैं. सच तो यह है कि इस क़ानून का क़ानून की किताब में होना ही इसके दुरुपयोग को जन्म देता है. सुप्रीम कोर्ट में एक और वरिष्ठ अधिवक्ता एवं ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के संस्थापक कॉलिन गोंसाल्विस के अनुसार राजद्रोह का क़ानून लोगों को डराने-धमकाने और बेवजह जेलों में बंद करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. राजद्रोह कानून के मामले में वर्ष 2018 में भारतीय विधि आयोग ने भी ऊपर एक परामर्श पत्र जारी करते हुए कहा था कि जबकि यह प्रावधान राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिए आवश्यक है, इसका दुरुपयोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए. विधि आयोग की राय में "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के हर ग़ैर-ज़िम्मेदाराना प्रयोग को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है". और यह भी कि सरकार की नीतियों से मेल न खाने वाले विचार व्यक्त करने के लिए किसी व्यक्ति पर राजद्रोह की धारा के तहत आरोप नहीं लगाया जाना चाहिए. परामर्श पत्र में यह भी कहा गया कि ब्रिटेन ने दस साल पहले देशद्रोह क़ानूनों को समाप्त करते वक़्त कहा था कि देश ऐसे कठोर क़ानूनों का उपयोग करने का उदाहरण नहीं बनना चाहता. तो फिर उस धारा 124ए को बनाये रखना कितना उचित है जिसे अंग्रेज़ों ने भारतीयों पर अत्याचार करने के लिए एक औजार के रूप में उपयोग किया था.

 पूर्व मुख्य न्यायाधीश,सांसद रंजन गोगोईः
राजद्रोह कानून अथवा सरकार की वकालत!
    हालांकि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य ऩ्यायाधीश एवं अभी राज्यसभा के सदस्य रंजन गोगोई का इस मामले में कुछ और ही मानना है. उनकी राय में अगर किसी कानून का दुरुपयोग हो रहा है तो उसके रोकने के तरीके भी हैं, उसे रद्द करना ठीक नहीं. उन्होंने कहा कि अदालत सिर्फ किसी कानून की वैधानिकता का फैसला कर सकती है, उसकी जरूरत पर फैसला सरकार को करना चाहिए.

    बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह कानून की वैधानिकता और प्रासंगिकता को लेकर सुनवाई हो रही रहा है. सरकार से जवाब मांगा गया है. स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र का तकाजा तो यही है कि सरकार भी इस औपनिवेशिक एवं गुलामी के प्रतीक राजद्रोह कानून को रद्द करने के मामले में सकारात्मक रुख अपनाए. लेकिन अगर सरकार इस औपनिवेशिक कानून को बनाए रखने की जिद करती है तो क्या सुप्रीम कोर्ट स्वतः इस कानून को समाप्त कर अथवा इसके लिए मौजूदा संदर्भों के साथ नए पैरामीटर्स और दिशा निर्देश जारी कर इस कानून के तहत निरुद्ध लोगों को रिहा करवा सकती है!

Monday, 12 July 2021

Haal Filhal 'Mahangaee Dayan Khaye jaat hai'

हाल फिलहाल

जयशंकर गुप्त

   
     
कोरोनाकाल में अपने ब्लॉग पर अनुपस्थित रहने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं. पिछले दिनों तमाम मित्रों के आग्रह पर हमने यू ट्यूब पर सात रंग न्यूज और फिर अपने देशबंधु अखबार के यू ट्यूब चैनल, डीबी लाइव पर 'हाल फिलहाल' के नाम से वीडियो अपलोड करना शुरू किया है. देश के ताजा तरीन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक घटनाक्रमों पर आधारित गंभीर विवेचन का हमारा 'हाल फिलहाल' हर सप्ताह शनिवार शाम को देखने सुनने को मिल सकेगा. दो दिन बाद सोमवार को  थोड़ा और विस्तार के साथ देशबंधु के पाठकों के लिए यह संपादकीय पृष्ठ पर तथा हमारे ब्लॉग पर भी उपलब्ध रहेगा. उम्मीद है कि हमारे पाठकों, मित्रों और शुभचिंतकों का समर्थन सहयोग हमें पूर्ववत मिलते रहेगा.

महंगाई डायन खाए जात है!

        'हाल फिलहाल' में इस बार चर्चा हम एक ऐसे विषय के बारे में कर रहे हैं जो न सिर्फ हमारी सरकार बल्कि हमारे राजनीतिक दलों और मुख्य धारा की मीडिया के एजेंडे से भी गायब सा है. आम आदमी इस समस्या से बेतरह परेशान और हलाकान है लेकिन इसको लेकर वह भी आंदोलित नहीं होता. कसमसा कर रह जाता है. कारण चाहे कोरोना प्रोटोकोल के मद्देनजर बड़े जनसमूह के साथ सड़कों पर उतरकर आंदोलित होने की संभावनाओं का सीमित हो जाना हो या कुछ और, हमारे विपक्षी दल भी इस विषय को मौजूदा सरकार के विरुद्ध अपना मुख्य राजनीतिक एजेंडा नहीं बना पा रहे हैं. वैसी आक्रामकता नहीं बना पा रहे हैं जितनी हमें यूपीए शासन के दूसरे कार्यकाल में तत्कालीन विपक्ष यानी भाजपा के जरिए देखने को मिलती थी. वे इस मसले पर ट्वीट करने भर से अपने दायित्वों की इति मान लेते हैं.

        
राम देवः मोदी राज में 35 रु. पेट्रोल दिलाने का 'दावा'
हम बात कर रहे हैं, पेट्रोलियम पदार्थों के दाम लगातार बढ़ते जाने और उससे जुड़ी बेतहाशा महंगाई की. आपको याद है, आज से 11 साल पहले एक फिल्म आई थी, ‘पीपली लाइव.’ उसका एक गाना बहुत चर्चित और लोकप्रिय हुआ था, “सखी सैयां तो खूब ही कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है.” उस समय केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्ववाले यूपीए की सरकार थी और भाजपा विपक्ष में थी. भाजपा ने इस गाने को मनमोहन सरकार के विरुद्ध अपने राजनीतिक अभियान का मुख्य अस्त्र बनाया था. उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी महंगाई और खासतौर से पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि को लेकर बहुत उद्वेलित थे. उन्होंने कहा था कि पेट्रोल और डीजल के दाम में वृद्धि सरकार की नाकामी का प्रतीक है. सरकार कसाईखानों को तो सबसिडी देती है लेकिन डीजल के दाम बढ़ाती है. उस समय भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह, प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर, स्मृति ईरानी, रविशंकर प्रसाद और शाहनवाज हुसेन से लेकर तमाम नेताओं ने पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि को आम आदमी पर करारी चोट करार देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से बढ़ी हुई कीमतें वापस लेने और पेट्रोलियम पदार्थों पर एक्साइज ड्यूटी कम करने की मांग भी की थी. श्री जावडेकर ने तो दावे के साथ कहा था, “हम चुनौती के साथ कह सकते हैं कि पूरी तरह से रिफाइंड पेट्रोल दिल्ली में 34 रु. और मुंबई में 36 रु. प्रति लीटर मिल सकता है.” इसी तरह के दावे के साथ उस समय खुद को अर्थशास्त्री बतानेवाले योग गुरु या कहें योग के व्यवसाई बाबा रामदेव ने भी एक टीवी शो में 35 रु. लीटर के भाव पेट्रोल और 300 रु. प्रति सिलेंडर रसोई गैस देनेवाली मोदी जी की सरकार बनवाने का न सिर्फ आग्रह किया था बल्कि उस कार्यक्रम में बैठे युवाओं से इसके समर्थन में ताली भी बजवाई थी.
    

यूपीए शासन में पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि के खिलाफ भाजपा का प्रदर्शन

    2014 के लोकसभा चुनाव में महंगाई डायनवाला गाना काफी हिट हुआ था. उस समय भाजपा का एक चुनावी पोस्टर भी काफी चर्चित हुआ था, ‘बहुत हुई जनता पर महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार.’ अन्य कारणों के अलावा महंगाई ने भी मई 2014 में हुए सत्ता परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. अभी पिछले सवा सात साल से केंद्र में भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राजग की सरकार है. प्रधानमंत्री हैं, नरेंद्र मोदी. लेकिन तबकी परिस्थिति और आज के हालात का तुलनात्मक अध्ययन करें तो हालात तकरीबन वैसे ही हैं, बल्कि उससे भी बदतर हुए हैं, जैसे 2010 से लेकर मई 2014 तक थे. फर्क बस इतना ही हुआ है कि नोट बंदी और अभी कोरोना महामारी के कारण पिछले वर्षों में बेरोजगारी बढ़ी है, लोगों की नौकरियां गई हैं, वेतन मिलना बंद या कहें कम हो गया है. लोगों की आमदनी कम हुई है लेकिन खर्चों में कोई कमी नहीं हो रही. इस सबके साथ ही चरम को छूती महंगाई कहर ढा रही है. आज उस गाने में थोड़ा संशोधन कर हम कह सकते हैं, “सखी सैंयां तो कम ही कमात हैं, महंगाई सबकुछ खाए जात है.”

कौन नसीबवाला है और कौन है बदनसीब!

    ऐसा नहीं है कि मोदी जी के सवा सात साल के शासन में पेट्रोल-डीजल के दाम कभी कम ही नहीं हुए. 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव के समय पेट्रोल और डीजल के दाम कम हुए थे. तब इसका श्रेय और वाहवाही लेते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि वह नसीबवाला हैं, इसलिए पेट्रोल-डीजल के दाम कम हुए. उन्होंने एक फरवरी 2015 को दिल्ली में हुई एक चुनावी रैली में कहा था, “पेट्रोल-डीजल के दाम कम हुए कि नहीं. आपकी जेब में पैसा बचने लगा है कि नहीं... अब हमारे विरोधी कहते हैं कि मोदी तो नसीबवाला है...तो भाई अगर मोदी का नसीब जनता के काम आता है तो इससे बढ़िया नसीब की बात और क्या हो सकती है....आपको नसीबवाला चाहिए या बदनसीब! उनका कटाक्ष दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल  पर था. हालांकि दिल्लीवाले मोदी जी के झांसे में नहीं आए. दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया.

        इन दिनों राजधानी दिल्ली में पेट्रोल एक सौ और डीजल नब्बे रुपए प्रति लीटर के पार चला गया है. रसोई गैस का सिलेंडर 834.50 रुपए, पीएनजी (पाइप्ड नेचुरल गैस) 29.61 रु. प्रति घन मीटर तथा सीएनजी 44.30 रु. प्रति किलोग्राम के भाव बिक रहा है. इस सबके चलते खाने-पीने की वस्तुओं-नमक, खाद्य तेल, दूध, दाल और अंडे से लेकर सब्जियों के भाव आसमान छूने लगे हैं. अमूल के बाद अब मदर डेयरी ने भी दूध के दाम में तकरीबन दो रु. की वृद्धि कर दी है. दिल्ली और आसपास के इलाकों में गर्मी के दिनों में 120 रु. प्रति क्रेट (30 अंडों का एक क्रेट) मिलनेवाला अंडा 180 से 200 रु. की दर से मिल रहा है. पेट्रोल-डीजल और सीएनजी की दरें लगातार बढ़ते जाने के कारण न सिर्फ निजी बल्कि सार्वजनिक परिवहन भी प्रभावित हुआ है. इसकी दरों में वृद्धि भी अवश्यंभावी है. उसके बाद आम आदमी की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं. पता नहीं मोदी जी को अपना नसीबवाला जुमला याद है कि नहीं. उन्हें खुद ही तय कर लेना चाहिए कि वह नसीबवाला हैं या बदनसीब!

    हैरानी की बात है कि जिन लोगों को मई 2014 से पहले महंगाई 'डायन' लगती थी, अब उन्हें वह 'डार्लिंग' लगने लगी है. जो लोग पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि के खिलाफ सड़कों पर रसोई गैस के सिलेंडर और अन्य प्रतीक चिन्हों के साथ धरना प्रदर्शन करते थे. सायकिल और बैलगाड़ी पर चलने की बातें करते थे, अब महंगाई की चर्चा करने से भी कतराते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने ‘मन की बात’ में भी इसका जिक्र नहीं करते. अलबत्ता उनकी पार्टी के नेता और मंत्री और रामदेव भी महंगाई और पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बेतहाशा बढ़ने का औचित्य साबित करने के लिए तरह-तरह के तर्क-कुतर्क देते हैं. छत्तीसगढ़ सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे भाजपा के वरिष्ठ नेता बृजमोहन अग्रवाल तो कहते हैं कि “जिन्हें महंगाई राष्ट्रीय आपदा लगती है, वे लोग खाना-पीना बंद कर दें, अन्न त्याग दें, पेट्रोल का इस्तेमाल करना बंद कर दें और मुझे लगता है कि अगर कांग्रेसी और कांग्रेस को वोट देनेवाले लोग ही ऐसा कर दें तो महंगाई कम हो जाएगी.”

भाजपा नेता अग्रवाल अन्न त्याग देने से महंगाई कम हो जाएगी
    उस समय पेट्रोलियम पदार्थों पर लगनेवाले करों को हटाने अथवा कम करने और आम आदमी को सबसिडी देने की बढ़ चढ़कर मांग करनेवाले लोग अब कह रहे हैं कि देश के विकास के लिए पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने और लगातार बढनेवाले उत्पाद शुल्क यानी एक्साइज ड्यूटी देश के विकास को गति देने के लिए परम आवश्यक है. तो क्या मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के जमाने में पेट्रोलियम पदार्थों पर उत्पाद शुल्क नहीं लगते थे और उससे मिलनेवाला पैसा विकास कार्यों के बजाय कहीं और खर्च होता था! 

    कुछ दिनों पहले तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि अभी सरकार की आमदनी काफी कम हो गई है और इसके 2021-22 में भी कम ही रहने के आसार हैं. सरकार की आमदनी कम हुई है जबकि खर्चे बढ़ गए हैं. उनकी यह बात सच हो सकती है लेकिन उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इस कोरोनाकाल में क्या आम आदमी की आमदनी बढ़ गई है, जिससे उस पर करों का बोझ लगातार बढ़ते जा रहा है. सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि कोरोनाकाल में महंगाई से पीड़ित लोगों ने घर में पड़े सोने और उसके जेवर गिरवी रखकर कर्ज लिए जबकि सबसे अधिक कर्ज महिलाओं ने अपने मंगलसूत्र गिरवी रखकर लिए हैं. 
    
    
सरकार की आमदनी कम हो गई हैः धर्मेंद्र प्रधान
    धर्मेंद्र प्रधान ने पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि को जायज ठहराने के पक्ष में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि का तर्क दिया और कहा कि कच्चे तेल की कीमत 70 डालर प्रति बैरल हो गई है. कमोबेस इसी तरह के तर्क यूपीए सरकार के समय कांग्रेस के नेता और मंत्री भी देते थे. अब इसे भी समझते हैं. 2014 में जब मनमोहन सिंह की सरकार थी, उस समय कच्चे तेल की कीमत 108 डालर प्रति बैरल हो गई थी जबकि उस समय पेट्रोल की अधिकतम कीमत 71.51 रुपए और डीजल 57.27 रुपए प्रति लीटर था. तो फिर क्या कारण है कि आज जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 70 से 75 डालर प्रति बैरल है तो पेट्रोल 100 रु. और डीजल 90 रु. के पार बिक रहा है!

    दरअसल पेट्रोलियम पदार्थों की इस मूल्यवृद्धि का कारण इस पर लगने वाले केंद्र सरकार के उत्पाद शुल्क और राज्य सरकारों के वैट हैं. 2014 में पेट्रोल पर 9.48 रु. तथा डीजल पर 3-56 रु. केंद्रीय उत्पाद शुल्क लगता था जो अब बढ़कर क्रमशः तकरीबन 33 रु. और 32 रु. हो गया है. इस पर तकरीबन 20-22 रु. राज्य सरकारों का वैट भी लगता है. यही कारण है कि जब अप्रैल 2020 में अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमत न्यूनतम 20 डालर प्रति बैरल के आसपास आ गई थी तब भी पेट्रोल और डीजल के दाम कम नहीं हुए थे. सरकार चाहती तो कच्चे तेल की कीमतों में ऐतिहासिक कमी का फायदा आम आदमी को पेट्रोल-डीजल की कीमतें कम करके दे सकती थी. आर्थिक रूप से कंगाली के कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने उस समय एक महीने के भीतर पेट्रोल और डीजल की कीमतों में क्रमशः 30 और 42 रु. की कमी करते हुए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में हुई भारी कमी का लाभ अपने उपभोक्ताओं को दिया था. लेकिन हमारी सरकार ने ऐसा करने के बजाए अपना खजाना भरना जरूरी समझा. 5 मई 2020 को पेट्रोल पर 10 और डीजल पर 13 रु. का उत्पाद शुल्क और बढ़ा दिया गया. इससे दो महीने पहले भी सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क में तीन-तीन रु. की वृद्धि की थी.

    जब भी पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में कमी करने की मांग उठती है भाजपा के नेता इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालते हुए कहते हैं कि राज्य सरकारें चाहें तो वैट में कमी करके पेट्रोल-डीजल के दाम कम कर सकती हैं जबकि राज्य सरकारों और खासतौर से गैर भाजपा दलों के द्वारा शासित राज्यों के प्रतिनिधि इसके उलट कहते हैं कि केंद्र सरकार को एक्साइज ड्यूटी में कमी करके आम आदमी को राहत देना चाहिए. इस तरह दोनों ही अपनी जिम्मेदारी दूसरे पर थोपने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं करते. अभी अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमतें और बढ़ने की आशंका जताई जा रही है. इसका मतलब साफ है कि आम आदमी को फिलहाल महंगाई से राहत मिलने के आसार कम ही हैं. भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने सरकार को सुझाव दिया है कि करों में कटौती कर आम आदमी को कुछ राहत दी जा सकती है लेकिन क्या हमारी सरकार उनकी बात को भी सुनेगी. नए पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी का कहना है कि वह अभी इस मामले को समझने में लगे हैं. इसके बाद ही कुछ कह पाएंगे. तो क्या आम आदमी को सात-आठ महींनों बाद होनेवाले उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड सहित पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव का इंतजार करना होगा क्योंकि चुनाव सामने हों तो हमारी सरकार कीमतों में कमी या फिर कीमतों को स्थिर रखने के जतन करती है. ऐसा ही पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरि विधानसभा के चुनाव के समय देखा गया था. चुनाव संपन्न होने तक पेट्रोलियम पदार्थों के दाम तकरीबन स्थिर ही रहे लेकिन चुनाव संपन्न होने के बाद ही इनमें वृद्धि जो शुरू हुई तो फिर रुकने का नाम ही नहीं ले रही.