Tuesday, 25 December 2018

संसदीय गतिरोध ( Parliamentry Disruptions) और हमारे राजनीतिक दल

संसद के सुचारु संचालन में किसकी रूचि है  

जयशंकर गुप्त 

संसद के देर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र के दौरान दोनों सदनों-लोकसभा और राज्यसभा में प्रायः प्रत्येक दिन एक ही तरह के दृश्य नजर आ रहे हैं. एक तरफ विपक्ष और खासतौर से कांग्रेस के सांसद राफेल युद्धक विमानों की खरीद में कथित घपले की जांच जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति से करवाने की मांग को लेकर हल्ला-हंगामा कर रहे होते हैं तो वहीं दूसरी तरफ हाथों में प्लेकार्ड लिए सत्तारूढ़ भाजपा के सदस्य कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से राफेल खरीद के संबंध में अपने बयान के लिए माफी मांगने के नारे लगाते हैं. आसंदी के पास ही हाथों में प्लेकार्ड लिए सत्तापक्ष के ही सहयोगी अन्ना द्रमुक के सांसद कावेरी जल विवाद में तमिलनाडु के साथ ‘न्याय’ की मांग को लेकर हंगामा करते हैं. बीच बीच में तेलुगु देशम के सदस्य आंध्र प्रदेश को विशेष आर्थिक पैकेज की मांग पर हंगामा करते हैं. इस तरह के शोरगुल और हंगामे के बीच लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति या अन्य पीठासीन अधिकारी कुछ जरूरी संसदीय दस्तावेज सदन पटल पर रखवाते हैं, कुछ विधेयक भी विपक्ष की पर्दे के पीछे की ‘रजामंदी’ से बिना किसी चर्चा और बहस के पास कराए जाते हैं और फिर दोनों सदनों की कार्यवाही पहले टुकड़ों में और फिर अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दी जाती है. 

इस तरह 11 दिसंबर से शुरू हुए संसद के शीतकालीन सत्र के सात दिन सम्मानित सांसदों के शोर गुल, आसंदी के पास आकर किए जानेवाले हल्ला-हंगामे की भेंट चढ़ गये. और जिस तरह की सूचनाएं मिल रही हैं, अगले साल आठ जनवरी तक के लिए निर्धारित इस सत्र के बाकी दिनों में भी इसी तरह के दृश्य नजर आ सकते हैं. संसद का यह शीतकालीन सत्र राजधानी में ठंड के लगातार बढ़ते जाने के बावजूद सदन के भीतर हल्ला हंगामे और नारेबाजी से पैदा हो रही राजनीतिक गरमी की भेंट चढ़ने के लिए अभिशप्त लग रहा है.
राफेल युद्धक विमानों की खरीद के मामले में मोदी सरकार जिस तरह से घिरते नजर आ रही है, खासतौर से राफेल खरीद के मामले में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले में सरकार की सर्वोच्च अदालत को गुमराह करने के इरादे से की गई जालसाजी का खुलासा होने के बाद छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में जीत से उत्साहित कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इस मुद्दे को आसानी से छोड़ने और इसकी जांच जेपीसी से करवाने से कम पर मानने  के मूड में नहीं दिख रहे. लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खरगे कहते भी हैं, ‘‘राफेल पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला सरकार के उस कथित दस्तावेज पर आधारित है जिसमें कहा गया है कि राफेल सौदे पर सीएजी की रिपोर्ट में खरीद प्रक्रिया में किसी तरह की गलती नहीं मानी गई और सीएजी रिपोर्ट को संसद और उसकी पीएसी यानी लोक लेखा समिति भी देख चुकी है. लेकिन सच तो यह है कि सीएजी ने अभी तक इस तरह की कोई रिपोर्ट संसद अथवा इसकी पीएसी को दी ही नहीं है.’’ इस लिहाज से देखें तो सरकार का सीलबंद लिफाफे में दिए दस्तावेज में ‘स्पेलिंग मिस्टेक’ का तर्क भी बेमानी हो जाता है. वित मंत्री अरुण जेटली खुद कहते हैं, ‘‘राफेल की आडिट जांच सीएजी के पास लंबित है. उसके साथ सभी तथ्य साझा किए गए हैं. जब सीएजी की रिपोर्ट आएगी तो उसे संसद की पीएसी को भेजा जाएगा. इसके बावजूद यदि अदालत के आदेश में किसी तरह की विसंगति है तो कोई भी न्यायालय के समक्ष उसे ठीक करवाने के लिए अपील कर सकता है.’’ सवाल एक ही है कि जब सीएजी ने अपनी रिपोर्ट अभी तक दी ही नही तो सुप्रीम कोर्ट में खरीद प्रक्रिया के बेदाग होने संबंधित दावे किस रिपोर्ट के आधार पर किए गए और किसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया.  खरगे का मानना है कि इस मामले की जेपीसी जांच से ही दूध का दूध और पानी का पानी संभव है. 

लेकिन यूपीए शासन के दौरान कथित कोयला घोटाले, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच की मांग को लेकर संसद के सत्र दर सत्र बाधित करने ( पिछली लोकसभा का 68 प्रतिशत समय भाजपा के नेतृत्व में  हुए हंगामों के कारण बरबाद हुआ था.) और उसके समर्थन में तर्क देनेवाले भाजपा के नेता  अब राफेल खरीद की जेपीसी जांच को गैर जरूरी बताने के तमाम बहाने पेश करने में लगे हैं. मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाले यूपीए शासन के दौरान सदन में हल्ला हंगामे को भी विपक्ष का महत्वपूर्ण संसदीय दायित्व परिभाषित करनेवाले जेटली अब जेपीसी की जांच को गैर जरूरी बता रहे हैं, ‘‘बोफोर्स तोप सौदे की जेपीसी जांच का क्या अनुभव रहा. सिर्फ वही एक उदाहरण है जब किसी रक्षा सौदे की जांच जेपीसी ने की थी. जेपीसी के सदस्य दलीय निष्ठा के आधार पर बंटे होते हैं.’’ लेकिन इस ज्ञान के बावजूद जेटली, लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज के नेतृत्व में तत्कालीन विपक्ष यूपीए शासन में कथित घोटालों की मांग पर क्यों जिद ठाने और संसद के सत्र दर सत्र बाधित करने में लगा रहा? इस बात का जवाब भाजपा के नेताओं के पास अभी नहीं है. उनके ही तर्क को मान लें कि जेपीसी में सत्ता पक्ष का बहुमत होता है और उसके सदस्य दलीय निष्ठा के आधार पर बंटे रहते हैं तो सरकार राफेल की जेपीसी जांच से भाग क्यों रही है?
लेकिन इस बार तो एक और मजेदार दृश्य सामने आ रहा है जब सत्तारूढ़ दल खुद ही इस बात के लिए इच्छुक नहीं दिख रहा है कि संसद सुचारु ढंग से चले. शायद यह पहली बार है कि संसद चलाने के लिए गंभीर और सकारात्मक प्रयास करने के बजाय सत्तारूढ़ भाजपा अपने सदस्यों के हाथों में ‘राहुल गांधी माफी मांगें’ के प्लेकार्ड थमाकर और कभी अपने सहयोगी, क्षेत्रीय दलों के जरिए सदन में आसंदी के पास हल्ला हंगामा करवाकर दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित करने में लगी हुई है. एक तरफ संसदीय कार्य मंत्री विजय गोयल कहते हैं कि सरकार राफेल पर भी चर्चा के लिए तैयार है, दूसरी तरफ जब मंगलवार को राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि उन्होंने राफेल विमान सौदे पर सुप्रीम कोर्ट को कथित तौर पर गुमराह किए जाने पर चर्चा के लिए नोटिस दिया है, राज्यसभा के सभापति ने कहा कि यह मुद्दा फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. बुधवार, १९ दिसंबर को भी गृह मंत्री राजनाथ सिंह और संसदीय कार्य मंत्री नरेंद्रसिंह तोमर ने कहा कि सरकार राफेल पर चर्चा के लिए तैयार है लेकिन विपक्ष का दबाव जेपीसी जांच की घोषणा और उसके कार्यस्थगन प्रस्ताव पर चर्चा कराए जाने के लिए ही है. जाहिर है कि सरकार इसके लिए आसानी से तैयार होनेवाली नहीं है क्योंकि विपक्ष का मानना है कि सरकार खुद संसद के भीतर सार्थक और सकारात्मक चर्चा और विपक्ष के संसदीय अधिकारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. विपक्ष के नेता आरोप लगाते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री रहते अपने गुजरात के विधायी अनुभवों को यहां भी दोहराना चाहते हैं. वहां दो तरह से विधानसभा के सत्र चलते थे. जब उन्हें कोई महत्वपूर्ण विधेयक पास कराने होते थे तो वह किसी न किसी बहाने विपक्ष के विधायकों को एक खास अवधि के लिए निलंबित करवा देते थे या फिर हल्ला हंगामे के बीच अपना विधायी कार्य संपन्न करवाते थे. कमोबेस वही तरीका प्रधानमंत्री बनने के बाद वह यहां संसद में भी अपनाना चाहते हैं. इसकी बानगी 2015 में लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी नियम 374ए के तहत कांग्रेस के 44 में से 25 सदस्यों को सदन से निष्कासित करने के रूप में पेश की थी. लेकिन उनके इस फैसले के खिलाफ सात विपक्षी पार्टियों ने लोकसभा के बायकाट में कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की तो फैसला वापस लेना पड़ा था. लेकिन उसके बाद उन्होंने दूसरा तरीका अपनाना शुरू कर दिया कि महत्वपूर्ण विधायी कार्य सदन में चल रहे हल्ला हंगामे के बीच ही निपटाए जाएं. ऐसे कई अवसर आए जबकि अध्यक्ष ने अत्यंत महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विधेयक तो बिना चर्चा के ही पारित कराए जबकि कई बार अनेक महत्वपूर्ण विषयों मसलन विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए वह इसलिए तैयार नहीं हुईं क्योंकि सदन व्यवस्थित नहीं था. 
हालांकि भाजपा के वरिष्ठ सांसद, लोकसभा के पीठासीन अधिकारियों में से एक हुकुमदेव नारायण यादव विपक्ष के इस आरोप को गलत बताते हैं कि सरकार और प्रधानमंत्री मोदी नहीं चाहते हैं कि संसद सुचारु रूप से चले. वह कहते हैं, ‘‘मोदी जी जितना संसद में मौजूद रहते हैं, यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उसका आधा समय भी संसद को नहीं देते थे.’’ लेकिन तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद सौगत राय के अनुसार ताजा प्रकरण में तो साफ है कि सरकार सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलने देना नहीं चाहती. संसदीय गतिरोध के चलते राफेल खरीद के साथ ही किसानों की समस्या-आत्महत्या, बेराजगारी, प्राकृतिक आपदा, संवैधानिक संस्थाओं के ‘ब्रेक डाउन’ आदि जन सरोकार के महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी संसद में चर्चा नहीं हो पा रही. दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद और विधानमंडलों में भी वास्तविक मुद्दों पर चर्चा का समय नहीं मिल पाता. संसद और विधानमंडलों की कार्यअवधि भी लगातार कम होती जा रही है.’’ 

हुकुमदेव नारायण यादव के अनुसार, संसद की नियमावली के तहत सदन में चर्चा के कई प्रावधान हैं. लेकिन विपक्ष का उन प्रावधानों का उपयोग नहीं करना और अपनी मर्जी के मुताबिक बहस के नियम तय करने पर जोर देना सदन की कार्य संचालन नियमावली के विरुद्ध है. इसके लिए वह क्षेत्रीय दलों को भी जिम्मेदार मानते हैं, ‘‘क्षेत्रीय दल अपने क्षेत्रीय हितों के लिए संसद का दुरुपयोग करते हैं. ‘प्लेकार्ड’ के साथ हल्ला हंगामा करके वे अपने क्षेत्र और राज्य के लोगों को संदेश देना चाहते हैं कि वे संसद के भीतर अपने लोगों के लिए लड़ रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार उनकी अनदेखी कर रही है. तकरीबन सभी क्षेत्रीय दलों की यही मानसिकता है, उनकी दृष्टि राष्ट्रीय न होकर क्षेत्रीय होती है. यह समग्रता में राष्ट्र और राजनीति दोनों के लिए दुखद है.’’ 

 बहरहाल, जिम्मेदार चाहे सत्ता पक्ष हो अथवा विपक्ष और क्षेत्रीय दल, सच यही है कि संसद के दोनों सदनों का समय हल्ला हंगामे की भेंट चढ़ रहा है. संसदीय विशेषज्ञों का मानना है कि संसद मुख्य रूप से विपक्ष का फोरम होता है जहां वह विभिन्न नियम प्रावधानों के जरिए सरकार की नाकामियों और गलतियों को सामने लाकर उसे कठघरे में खड़ा करता है. अपनी बात पर जोर देने के लिए यदा कदा वह सदन में हल्ला हंगामे और सदन की कार्यवाही बाधित करने के अपने संसदीय अस्त्र का सहारा भी लेता है. सरकार अपने जवाबों से विपक्ष को संतुष्ट करने और अपनी उपलब्धियों को सामने लाने के प्रयास करती है. उसका संसदीय कौशल उत्तेजित विपक्ष को शांत करने और सहमति के बिंदुओं को सामने लेकर सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से संचालित करने के काम आता है. इस काम में सदन में उसका बहुमत भी सहायक भूमिका निभाता है. लेकिन हाल के वर्षों में सरकारें विपक्ष की इस भूमिका को स्वीकार करने के बजाय उसकी आवाज को दबाने की कोशिशें ही करते नजर आती हैं. मजेदार बात यह है कि आज जिस संसदीय गतिरोध के लिए सत्ता पक्ष यानी भाजपा कांग्रेस और विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रहा है, विपक्ष में रहते उसे ही विपक्ष का संसदीय दायित्व और अधिकार मानता था. 

पिछले दिनों विधायिकाओं के महत्व समझाते हुए उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडु ने कहा कि सदन के सभापति के मंच के पास जाने वाले विधायकों को तुरंत निलंबित करने की व्यवस्था होनी चाहिए. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी शुक्रवार, 21 दिसंबर को सदन को बाधित करनेवाले सांसदों को नियंत्रित और अनुशासित करने की गरज से सदन की ‘रूल्स कमेटी’ की बैठक बुलाई. उन्होंने साफ किया कि वह नियम के विपरीत सदन की कार्यवाही नहीं चला सकती हैं. कमिटी ने आसंदी के पास आकर हल्ला हंगामा करनेवालों के स्वतः निलंबन का प्रस्ताव किया है. 

विडंबना इसी बात की है की आज सदन के बीच में प्लेकार्ड के साथ हल्ला हंगामा कर रहे सांसदों को नसीहत देने, उन्हें स्कूली बच्चों से भी बदतर बताने, उन्हें संसदीय अनुशासन का पाठ पढ़ाने के साथ ही ऐसा करनेवाले सांसदों के विरुद्ध कार्रवाई के नियम उपाय तलाशने में लगी लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू स्वयं यूपीए शासन के दौरान हल्ला हंगामा करनेवाले भाजपा सांसदों के साथ खड़े दिखते और संसदीय गतिरोध को जायज ठहराते थे. कोल गेट और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच के लिए जबरदस्त हंगामा कर संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित करने के पक्ष में राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता अरुण जेटली का बयान काबिले गौर है, ‘‘हम लोगों ने जिस मुद्दे पर इस सत्र में हंगामा शुरू किया है उसे हम जनता के बीच ले जाएंगे, जब तक कि निष्पक्षता और जवाबदेही बहाल नहीं हो जाती. अगर संसद के प्रति जवाबदेही का पालन नहीं किया जाता है और बहस सिर्फ इसे समाप्त करने के लिए रखी जाती है, तब विपक्ष के लिए यह रणनीति वैध हो जाती है कि वह उन सभी संसदीय उपायों से सरकार का भंडाफोड़ करे, जिन्हें इस्तेमाल करना उसके हाथ में है.’’ उस समय वह संसदीय गतिरोध को जायज ठहरा रहे थे. उन्होंने कहा, ‘‘बाधा पहुंचाने का अर्थ यह नहीं है कि काम मत करो. हम तो वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं.’’ यह पूछे जाने पर कि क्या संसद का उपयोग बाधा पहुंचाने के बजाय चर्चा के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जेटली का सीधा जवाब था, ‘‘राष्ट्रीय बहस तो जारी है. हर पहलू पर चर्चा हो रही है, भले ही संसद में नहीं हो रही है. यह बहस दूसरी जगह जारी है. हमारी रणनीति यह है कि संसद में इस पर बहस मत होने दो, बस.’’ लोकसभा में विपक्ष की नेता रहीं सुषमा स्वराज से उस समय जब पूछा गया कि क्या वह नहीं जानतीं कि संसद के कामकाज में बाधा पहुंचाने से राष्ट्रीय खजाने को कितना नुकसान होता है, उन्होंने सहमति जताते हुए कहा था, ‘‘संसद सत्र का अगर इस तरह समापन होता है तो आलोचना होती है. हमसे कहा जाता है कि संसद को चलने नहीं दिया गया इसलिए नुकसान हुआ. अगर संसद की कार्यवाही नहीं चलने के कारण 10-20 करोड़ का नुकसान हुआ और हम सरकार पर दबाव बना सके तो यह स्वीकार्य है.’’ यही नहीं उस समय लालकृष्ण आडवाणी ने भी कहा था कि विधायी कार्य में बाधा पहुंचाने से भी ‘नतीजे मिलते हैं’. उस समय विपक्षी भाजपा के एक अन्य बड़े नेता यशवंत सिन्हां ने भी तब इसमें जोड़ा था, ‘‘चूंकि सरकार इस मसले पर चुप है इसलिए हमने इसे उठाने का फैसला किया. मैं पूरी ताकत से मांग करूंगा कि सरकार तुरंत जांच करवाने की घोषणा करे. इसकी घोषणा नहीं होने तक हम सदन को कैसे चलने दे सकते हैं?’’ यही नहीं चार साल पहले विपक्ष में खडे़ भाजपा के नेता वेंकैया नायडु से जब यह पूछा गया था कि सदन में हंगामा कर रहे भाजपा के सांसदों का यह तरीका असंसदीय नहीं है? उन्होंने कहा था, ‘‘हम नए तरीके ईजाद करें ताकि जवाबदेही के सिद्धांत की बलि न चढ़े. हम चुप नहीं रहेंगे. हम लड़ाई को जनता के बीच ले जाएंगे.’’

जाहिर है कि अब भूमिकाएं बदल चुकी हैं. सत्तारूढ़ हो गए भाजपा के नेताओं की भाषा बदली हुई है. लेकिन विपक्ष की भूमिका में आ गई कांग्रेस और इसके सहयोगी दल भी अब अतीत में भाजपा की विपक्षवाली भूमिका का अनुसरण करते हुए भाजपानीत सरकार को घेरने में लगे हैं. राफेल युद्धक विमानों की खरीद मामले में सरकार को संसद के भीतर घेरने से लेकर विपक्ष की रणनीति इसे सड़कों पर ले जाने और 2019 के आम चुनाव में अन्य बातों के साथ ही इसे मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने की लगती है. जाहिर सी बात है कि दोनों पक्षों के अपनी जिद पर अड़े रहने के कारण संसद के सुचारु ढंग से चल पाने की सम्भावना बहुत कम ही रह जाती है. 

Thursday, 1 November 2018

राम जी फिर एक बार करेंगे बेड़ापार ?

सुप्रीम कोर्ट से झटका मिलने के बाद अध्यादेश - कानून के लिए दबाव 

जयशंकर गुप्त
पांच राज्यों और खासतौर से हिंदी पट्टी के तीन राज्यों-राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के आगामी चुनाव में रामलला और अयोध्या में उनके कथित जन्म स्थान पर मंदिर निर्माण का मुद्दा भी भाजपा के लिए खास मददगार साबित होते नहीं दिख रहा है. 29 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने उसमें फच्चर लगा दिया है. उससे पहले भाजपा और उसे संचालित करनेवाले संघ परिवार और मीडिया के एक बड़े तबके ने ऐसा माहौल बना दिया था कि जैसे सुप्रीम कोर्ट 29 अक्टूबर को ही एक बेंच गठित कर इस सुदीर्घ काल, तकरीबन 123 साल से चले आ रहे कानूनी विवाद के लिए एक बेंच गठित कर इसकी रोजाना सुनवाई कर यथाशीघ्र कोई फैसला सुनाएगा. भाजपा के कुछ वरिष्ठतम नेताओं, सरकार के कुछ मंत्रियों ने सुनवाई शुरू होने से पहले धौंस देने के अंदाज में सुप्रीम कोर्ट पर एक तरह का राजनीतिक दबाव भी बनाना शुरू कर दिया था कि सुप्रीम कोर्ट को जन आस्था का सम्मान करना चाहिए और ऐसा कोई फैसला नहीं करना चाहिए जिससे जन आस्था को चोट लगे और उस पर अमल मुश्किल हो.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट की सेहत पर इस तरह के बयानों का खास असर नहीं पड़ा. मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल एवं न्यायमूर्ति के एम जोसफ की पीठ ने अयोध्या की विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि को तीन भागों में बांटने वाले 2010 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर महज दो मिनट की सुनवाई के बाद ही आदेश सुना दिया कि अब अगली सुनवाई के समय का फैसला अगले साल जनवरी में सर्वोच्च अदालत की उपयुक्त पीठ करेगी. उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने मामले की गंभीरता और लंबे समय से लंबित होने का हवाला देकर दिवाली की छुट्टी के बाद सुनवाई का अनुरोध किया. वहीं, रामलला विराजमान के वकील सीएस वैद्यनाथन ने नवंबर में सुनवाई की गुहार लगाई. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए इसे ठुकरा दिया कि ‘‘हमारी अपनी प्राथमिकताएं हैं. हमें नहीं पता कि तारीख क्या होगी. यह जनवरी, मार्च अथवा अप्रैल में भी हो सकती है. जस्टिस गोगोई ने कहा कि मुख्य न्यायाधीश की इस पीठ को यह तय करना था कि इस मामले की कब से सुनवाई की जाए और रोजाना सुनवाई की जाए या नहीं.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद से ही भाजपा और संघ परिवार के साथ ही साधू संतों का भी इस मामले में जमीन अधिग्रहण, अध्यादेश अथवा संसद से कानून बनाकर अयोध्या मे कथित राम जन्मस्थान पर भव्य मंदिर बनाने का दबाव बढ़ गया है. इस आदेश से पहले तक हिंदुओं के सब्र का बांध टूटने और दिसंबर के आगे और इंतजार नहीं करने जैसे बयान देनेवाले भाजपा के बड़बोले नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कहा, ‘‘अयोध्या मामले में केंद्र सरकार को कानून बनाने का अधिकार है. जिस विवादित भूमि की बात हो रही है, वहां पर भगवान राम का मंदिर था. सुप्रीम कोर्ट संसद से ऊपर नहीं हो सकती है. सर्वोच्च अदालत की अपनी कुछ सीमाएं होती हैं. उन्हें उसी के तहत फैसला करने का अधिकार होता है.’’
भाजपा के भीतर एक अरसे से राजनीतिक बनवास भुगत रहे विनय कटियार जैसे नेताओं ने भी कहना शुरू कर दिया है कि सुप्रीम कोर्ट के इस मामले की सुनवाई अगले साल जनवरी में शुरू करने के पीछे कांग्रेस का दबाव है जो नहीं चाहते कि शीघ्र कोई फैसला हो. कटियार ने कहा, ‘‘कांग्रेस के दबाव में लेट किया जा रहा है. कपिल सिब्बल और प्रशांत भूषण समेत कांग्रेस के जो वकील हैं, वे नहीं चाहते कि 2019 से पहले इस मामले की सुनवाई हो, वे इसे टालते रहना चाहते हैं. इसी तरह इसे आगे भी टाला जाएगा. ये लोग रामभक्तों के धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं. हम कब तक सब्र करें. या तो सब बता दें कि उन्हें कुछ नहीं करना है तो रामभक्तों को जो निर्णय करना है वो कर लेंगे.’’ मोदी सरकार में स्वतंत्र प्रभारवाले एक बड़बोले मंत्री गिरिराज सिंह भी धमकानेवाले अंदाज में ही बोले, ‘‘अब हिंदुओं का सब्र टूट रहा है. मुझे भय है कि अगर हिंदुओं का सब्र टूटा तो क्या होगा.’’ सवाल एक ही है जिसका जवाब किसी नेता और मंत्री के पास नहीं है कि हिंदुओं का ठेका और उनके सब्र का पैमाना तय करने के लिए उन्हें किसने अधिकृत किया. क्या इसके लिए कोई व्याकपक जन्मर संग्रह हुआ है? अगर जन समर्थन और जनादेश के जरिए 2014 में भाजपानीत राजग के सत्तारूढ़ होने को ही पैमाना मान लिया जाए तो उन्हें देश के केवल 31 फीसदी मतदाताओं का ही समर्थन मिला था. बाकी 69 फीसदी मतदाताओं ने उन्हें खारिज ही किया था. विपक्ष के मतों का बिखराव ही उन्हें सत्तारूढ़ बनाने में कारगर हुआ था.
लेकिन अस्सी-नब्बे के दशक से ही अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण को हवा देते आ रही भाजपा सरकार पर रणनीतिक तौर पर ही सही, इस मामले में भी एससी, एसटी ऐक्ट की तरह अध्यादेश लाने का दबाव बढ़ा है. आरएसएस के प्रवक्ता अरुण कुूमार ने कहा है, ‘' केंद्र राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के मार्ग में आनेवाली हर बाधा को दूर करने के लिए कानून लाए.’’ जवाब में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, पूर्व गृह और वित्त मंत्री पी चिदंबरम कहते हैंै, ‘‘सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की गरज से भाजपा राम मंदिर का इस्तेमाल करती रही है. राम मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश की मांग करनेवालों को इस बाबत पीएम से पूछना चाहिए. हालांकि वह इस तरह के मामलों पर आमतौर पर चुप ही रहते हैं.’’
लेकिन संसद के मौजूदा स्वरूप, सत्ता पक्ष और विपक्ष के संख्या बल और राजग में भाजपा के कई प्रमुख सहयोगी दलों के रुख को देखते हुए यह विकल्प भी बहुत आसान और व्यावहारिक नजर नहीं आ रहा. इस मुद्दे पर जनता दल (यू) के प्रवक्ता केसी त्यागी ने कहा है कि कोर्ट के फैसले को मानने के अलावा इस समस्या का कोई और समाधान नहीं है. राजग में भाजपा के कई और सहयोगी दल भी इस मामले में अध्यादेश अथवा कानून की पहल का विरोध कर सकते हैं.
लेकिन आल इंडिया मजलिसे मुत्ताहिदा मुसलमीन के नेता, सांसद असदुद्दीन ओवैसी जैसे मुस्लिम समाज के कुछ नेता इस तरह के मामलों पर जहरीले बयान देकर भाजपा और संघ परिवार को राजनीतिक लाभ पहुंचाने के लिए तत्पर रहते हैं. ओवैसी ने फैसले के बाद चुनौती के अंदाज में कहा, ‘‘वे राम मंदिर पर अध्यादेश क्यों नहीं लाते? हर बार वे धमकी देतेे हैं कि वे अध्यादेश लाएंगे. भाजपा, आरएसएस, वीएचपी के हर टॉम, डिक और हैरी इस तरह की बातें कहते रहते हैं. वे सत्ता में हैं, उन्हें ऐसा करने दो. मैं उन्हें, 56 इंच का सीनावाले को ऐसा करने की चुनौती देता हूं. करें, हम भी देखते हैं. मुद्दे को हिंदू-मुस्लिम न बनाएं. देश संविधान से चलेगा.’’ लेकिन मुस्लिम समाज में भी ओवैसी जैसे स्वयंभू प्रवक्ताओं को लेकर विरोध शुरू हो गया है. लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता ओबैद नासिर कहते हैं, ‘‘ओवैसी साहब, ऐसी बचकानी बातें कर के आप मुसलमानों से कौन सी दुश्मनी निकाल रहे हैं ? खुदा के लिए इस मसले पर खामोशी अख्तियार कीजिये और अदालत को अपना काम करने दीजिए. ऐसी बचकाना, गैर जिम्मेदाराना और भड़काऊ बातें संघ परिवार के लिए ऑक्सीजन का काम करती हैं.’’ दरअसल, मीडिया और खासतौर से सोशल मीडिया पर भी संघ परिवार के उत्तेजक और भड़काऊ बयानों पर भी मुस्लिम समाज और खासतौर से युवा पीढ़ी का उत्तेजित होकर उसी तरह की भाषा में जवाब नहीं देना भी संघ परिवार और भाजपा की विफलता का कारण बनते जा रहा है.
 लेकिन भाजपा और संघ परिवार में मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश लाने अथवा संसद से कानून बनवाने के पक्षधर नेताओं का तर्क है कि संसद में सत्तापक्ष का कमजोर संख्या बल इस मार्ग में बड़ी बाधा नहीं बन सकता क्योंकि विपक्ष के लिए खुलकर इसका विरोध करना सहज नहीं होगा. कांग्रेस के लिए यह आसान नहीं होगा कि वह राम मंदिर पर सरकार के प्रस्ताव का खुला विरोध करके अपनी सॉफ्ट हिंदुत्व की छवि पेश करने अपनी पूरी कोशिशों को मिट्टी में मिला दे. इससे विपक्ष में बिखराव भी होगा और सपा, बसपा और राजद जैसी पार्टियों के वोट बैंक में भी सेंध लगेगी.
दरअसल, हर बड़े चुनाव से पहले अयोध्या विवाद और वहां राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का मुद्दा गरम करने और इस मामले में बढ़ चढ़ कर दावे करने की आदी रही भाजपा पर इस मामले में उसका अब तक का ढुलमुल रुख उस पर भारी पड़ते दिख रहा है. चाहे केंद्र में हो या राज्य में, चुनाव से पहले ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ जैसे नारे और मंदिर निर्माण के लिए तमाम तरह की प्रतिबद्धताएं जतानेवाली भाजपा सत्तारूढ़ हो जाने के बाद मंदिर निर्माण की दिशा में एक भी कदम आगे नहीं बढ़ा पाने के लिए नए नए बहाने ढूंढने लग जाती है. मुझे याद है कि अतीत में जब भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने पूछे जाने पर कहा था कि राम जन्मभूमि मंदिर का मुद्दा तो बैंक के एक बेयरर चेक की तरह था जिसे बार बार नहीं भुनाया जा सकता. यही नहीं भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष स्व. कुशाभाऊ ठाकरे ने दैनिक हिन्दुस्ताने के लिए इस लेखक को दिए साक्षात्कार में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के बारे में पूछे जाने पर कहा था कि ‘‘नदी पार करने के लिए नाव की आश्यकता होती है. नदी पार कर लेने के बाद आवश्यक तो नहीं कि नाव को कंधे पर लाद कर निकला जाए.'' और तो और दिसंबर 2000 के अंतिम दिनों में चेन्नई में हुई भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भाजपा के तत्कालीन संगठन प्रभारी महासचिव और आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक प्रस्ताव पेश करते हुए कहा था कि ‘‘अब भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं के एक हाथ में पार्टी का झंडा और दूसरे हाथ में एनडीए का एजेंडा होना चाहिए. हमें अयोध्याा में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण, कामन सिविल कोड और संविधान से कश्मीर को विशेष अधिकार देनेवाली धारा 370 को हटाने जैसे अपने विवादित मुद्दों को ठंडे बस्ते में रख देने चाहिए''.
हालांकि उसके बाद भी विभिन्न चुनावों से पहले भाजपा और संघ परिवार ने इन मुद्दों को गरमाने की भरपूर कोशिशें की. इस बार भी पांच राज्यों में अगले नवंबर-दिसंबर महीनों में होनेवाले विधानसभा और उसके कुछ ही महीनों बाद लोकसभा के आमचुनाव से पहले आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी नागपुर में संघ के विजय दशमी पर आयोजित होनेवाले विजय पर्व कार्यक्रम में अपने संबोधन में कहा था कि राम मंदिर के लिए कानून बनाना चाहिए. यह सीधे तौर पर इशारा था कि संघ और भाजपा के समर्थकों और राम मंदिर के प्रति आस्था रखने वालों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार को अध्यादेश लाने से लेकर सदन में राम मंदिर के लिए कानून बनाने के विकल्प पर अमल करना चाहिए.
वैसे भी, मोदी सरकार के पास अपने पिछले साढ़े चार साल के शासन की उपलब्धियां बताने के लिए कुछ ठोस नहीं है. उसके 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले मतदाताओं से किए गए अधिकतर चुनावी वादे हवाई अथवा जुमले साबित हो चुके हैं. दूसरी तरफ, बेरोजगारी, महंगाई, रफायेल, पेट्रोलियम पदार्थों के आसमान छूते दाम, अमेरिकी डालर के मुकाबले भारतीय रुपये की लगातार गोता लगाती कीमत, किसानों की आत्महत्याओं में कमी नहीं आने, महिलाओं, अबोध बच्चियों के उत्पीड़न, बर्बर बलात्कार और नृशंस हत्या की बढ़ती घटनाएं, दलितों और अल्पसंख्यकों पर बढ़ रहे हमले, बेरोक टोक माॅब लिंचिंग आदि तमाम मुद्दों पर मोदी सरकार लगातार घिरती और कठघरे में नजर आ रही है.

ऊपर से मंदिर निर्माण के लिए इसी तरह के दबाव अब उन तमाम साधु संतों और हिंदू संगठनों की तरफ से भी बन रहे हैं जिनकी भावनाओं को अपने राजनीतिक लाभ के मद्देनजर हवा देने में भाजपा ने कभी कोताही नहीं की थी. अब इन संतों ने भी सरकार को इस मुद्दे पर घेरना शुरू कर दिया है कि मंदिर निर्माण में देरी वे बर्दाश्त नहीं करेंगे. संतों का कहना है कि क्या भाजपा मंदिर निर्माण का अपना वादा भूल गई है और क्यों सुप्रीम कोर्ट के फैसले के इंतजार का बयान पार्टी की ओर से बार-बार दिया जा रहा है. सुनवाई टलने के बाद अयोध्या के संतों ने भी पूछा कि बार-बार क्यों सुनवाई टल रही है. ध्यान रहे कि संतों के एक बड़े वर्ग और राम मंदिर आंदोलन से जुड़े महंतों ने इस वर्ष 6 दिसंबर से अयोध्या में मंदिर निर्माण की घोषणा कर दी है. संत समाज का कहना है कि वे मंदिर निर्माण का काम शुरू कर देंगे, सरकार रोकना चाहती है तो रोके.ध्यान रहे कि संतों और मतदाताओं के बीच संदेश देने के लिए चुनाव से ठीक पहले मोदी सरकार के सामने यह एक अहम और अंतिम मौका है. जनवरी से प्रयाग में शुरू हो रहे कुंभ के दौरान भी सरकार को संत समाज के सामने मंदिर के प्रति अपनी जवाबदेही स्पष्ट करनी होगी.
संतों का यह आह्वान सरकार के लिए गले की फांस बनते दिख रहा है. केंद्र की मोदी सरकार और राज्य में योगी सरकार के लिए यह बहुत मुश्किल होगा कि संतों को रोकने के लिए वे किसी भी प्रकार का बल प्रयोग करें. इससे भाजपा को अपने समर्थकों के बीच खासा नुकसान झेलना पड़ सकता है. दिसंबर के बाद ही जनवरी से इलाहाबाद, माफ कीजिए प्रयागराज में कुंभ भी लगने जा रहा है.
कुल मिलाकर अब गेंद पूरी तरह से सरकार के पाले में है. भाजपा के भीतर एक बड़ा तबका इस राय का भी है कि जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के रुख का इंतजार करना चाहिए क्योंकि जनवरी में भी अयोध्या विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट के रुख को कुछ महीनों बाद ही होनेवाले लोकसभा चुनाव में अपने ढंग से भुनाया जा सकता है. इस बीच शुरू होनेवाले सर्दियों के मौसम में भी मंदिर मुद्दे को गरमाने के प्रयास किए जा सकते हैं. लेकिन भाजपा के भीतर एक तबका ऐसा भी है जो मानता है कि सरकार के पास लोकसभा चुनाव से पहले संसद का केवल शीत सत्र ही बचा है जिसमें कानून बनाने की कवायद अथवा दिखावा भी किया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट के ताजा रुख के मद्देनजर उन्हें नहीं लगता कि सर्वोच्च अदालत से उन्हें किसी तरह की उपयोगी मदद मिल सकती है. हालांकि इससे पहले शीर्ष अदालत के 27 सितंबर के मस्जिद और नमाज के इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं मानने के फैसले के बाद मंदिर समर्थकों को लगा था कि मूल मुकदमे में भी सर्वोच्च अदाालत इसी तरह जल्द ही उनके पक्ष में कोई फैसला सुना सकती है.

यह मुद्दा उस वक्त उठा जब तीन न्यायाधीशों की पीठ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर सुनवाई कर रही थी. उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने 30 सितंबर, 2010 को 2-1 के बहुमत वाले फैसले में कहा था कि अयोध्या की 2.77 एकड़ विवादित जमीन को तीनों पक्षों-सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला विराजमान में बराबर-बराबर बांट दिया जाये. इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 13 याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान मई 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए कोई फैसला होने तक अयोध्या में यथास्थिति बनाए रखने को कहा था.

शीर्षासन या संघ का वैचारिक कायापलट!

भाजपा की पितृ कहें या मातृ संस्था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने संगठन, विचारधारा और कार्यशैली को लेकर भारी कश्मकश के दौर से गुजर रहा है. खासतौर से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के आरएसएस की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे आतंकी संगठनों के साथ करने, गोहत्या और लव जिहाद के विरोध में माॅब लिंचिंग जैसी घटनाओं में उसके सांप्रदायिक, मनुवादी और फासिस्ट सोच और चरित्र का विद्रूप सामने आने के बाद से परेशान संघ का नेतृत्व अपनी छवि सुधारने और चमकाने और बदलती परिस्थितियों के मद्देनजर खुद को ढालने या कहें कि अपनी एक सकारात्मक छवि पेश करने की कोशिशों में लगा है. आमतौर पर पर्दे के पीछे गोपनीय गतिविधियों में लिप्त रहने वाले संघ ने पिछले दिनों खुलकर सामने आने की कोशिश की. संघ के पुराने तकरीबन सभी सर संघचालक सार्वजनिक तौर पर बहुत कम बोलते रहे हैं लेकिन 2009 में संघ की कमान संभालने के बाद से ही पेशे से मवेशी डाक्टर रहे मोहन भागवत अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही बोल रहे हैं. कई बार उनके बोल विवादों का कारण भी बनते रहे हैं.
लेकिन हाल के वर्षों में संघ के संगठन और संसाधनों के मामले में भी चतुर्दिक विकास होने के बावजूद देश विदेश के बौद्धिक वर्ग के बीच उसकी सर्व सवीकार्यता नहीं बन सकी है. देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के बजाय अंग्रेजों का साथ देने की उसकी भूमिका, हिटलर की नस्ली तानाशाही और मुसोलिनी के फासीवाद के साथ ही देश में मनुस्मृति का समर्थक होने के कारण वह लगातार सवालों के घेरे में आलोचना का पात्र रहा है. संघ के आलोचक इस मामले में इसके दूसरे सर संघचालक माधव सादाशिव गोलवलकर उर्फ गुरु जी की पुस्तक ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ और 'बंच आफ थाट्स’ के उनके विचारों तथा विभिन्न अवसरों पर दिए गए भाषणों को  उद्धृत करते रहे हैं. हालांकि बाद के वर्षों में ‘बंच आफ थाट्स’ के कई नए संस्करण आए जिनमें से उनके द्वारा कही गई कुछ विवादित बातों को गायब किया गया लेकिन आप मूल रूप से उनके विचारों को तो नहीं बदल सकते. और फिर संघ की शाखाओं में प्रचारकों के पास राणा प्रताप बनाम अकबर और शिवाजी बनाम औरंगजेब के अलावा स्वयंसेवकों को गुरु गोलवलकर की बातों की घुट्टी ही तो पिलाई जाती रही है. यह घुट्टी संघ के स्वयंसेवकों के मन मस्तिष्क में इस कदर जम गई है कि इसके आगे कुछ सोचने विचारने और बोलने की उनमें क्षमता ही नहीं विकसित हो सकी. जब कभी आर्थिक, सामाजिक, वैदेशिक, वैज्ञानिक मामलों पर बहस होती है, वे लोग लड़खड़ा से जाते हैं. 
और हाल के वर्षों में खासतौर से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में और तकरीबन डेढ़ दर्जन राज्यों में भी भाजपानीत साझा सरकारों के आने के बाद जिस तरह से संघ परिवार से जुड़े लोगों का गो हत्या, लव जिहाद आदि के विरोध के नाम पर ‘माब लिंचिंग’ के जरिए जो विद्रूप चेहरा सामने आया है, और उस पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं, वह संघ की शिक्षाओं और उसके द्वारा पिलाई गई मुस्लिम, दलित और महिला विद्वेष की घुट्टी की ही देन है लेकिन उसको लेकर संघ और उसके द्वारा संचालित भाजपानीत सरकारों की छीछालेदर के बाद संघ के नेतृत्व को लगने लगा है कि दिखावे के तौर पर ही सही संघ को अपनी पुरानी खोल से बाहर आना ही होगा. इसके लिए एक सुविचारित योजना और तैयारी के साथ मोहन भागवत ने पिछले दिनों चार दिनों के दिल्ली प्रवास के दौरान बदलती परिस्थितियों के मद्देनजर ‘बदलते संघ’ की छवि पेश करने की कोशिश की.  
उन्होंने संघ की नजर में ‘भविष्य का भारत’ विषय पर सरकारी विज्ञान भवन में दो दिनों तक एकालाप किया और तीसरे दिन तकरीबन अपने लोगों के द्वारा ही संघ से जुड़े विवादित मुद्दों, जिनको लेकर उसकी आलोचना होती रही है, ऐसे तमाम विषयों पर पूछे गए सवालों के जवाब दिए. उन्होंने गुरु गोलवलकर के बहुत सारे विचारों, खासतौर से देश के लिए आंतरिक दुश्मनों के रूप में कम्युनिस्टों, मुसलमानों और ईसाइयों को परिभाषित करने को उस समय की परिस्थितियों के अनुकूल कह कर खारिज करने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि संघ अब अपने संस्थापक डा. केशव बलिराम हगडेवार और गुरु गोलवलकर के समय से काफी आगे आ चुका है. लेकिन अगर गोलवलकर के विचारों को निकाल बाहर कर दें तो संघ के पास वैचारिक पूंजी के बतौर बचता क्या है. उनके उन्हीं विचारों को लेकर तो संघ के स्वयंसेवक और नए जमाने के भक्त कम्युनिस्टों को देशद्रोही करार देते हैं और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध जहरीली बातें करते हैं. गौरतलब है कि इन आंतरिक दुश्मनों की पहचान भी गोलवलकर ने अंग्रजों के मुकाबले की थी. स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल नहीं होने और अंग्रेजों का साथ देने को तार्किक आधार देते हुए उन्होंने कहा था कि 'हमें अंग्रेजों से नहीं बल्कि अपने इन तीन आंतरिक दुश्मनों से लड़ने की जरूरत है.' 
अब दिखावे के तौर पर ही सही क्या संघ अपना हुलिया बदल सकेगा! संघ मामलों के एक जानकार कहते हैं कि मोहन भागवत का दिमाग खुद बहुत सारे मामलों में साफ नहीं है. वह एक बार तो संघ को संविधान के प्रति निष्ठावान बताते हैं और मनुस्मृति को खारिज नहीं करते और फिर संविधान से  धारा 370 और 35 ए को हटाने की बात भी करते हैं. बिहार विधानसभा के चुनाव के समय वह अपने मुखपत्रों-पांचजन्य और आर्गनाइजर को दिए साक्षात्कार में आरक्षण पर पुनर्विचार करने की बात कहते हैं और फिर राजस्थान, म.प्र., छत्तीसगढ़ और तेलंगाना विधानसभाओं के चुनाव के समय आरक्षण की वकालत करते हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार आरक्षण पर अपने पहले बयान के कारण उन्होंने बिहार में दलितों और पिछड़ों को भाजपा विमुख करने में योगदान किया था और अब वह आरक्षण विरोधी सवर्णों को भाजपा से दूर करने के लिए आग में घी डालने का काम कर रहे हैं. एससी, एसटी ऐक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को उलटने के लिए मोदी सरकार के स्टैंड से जले भुने सवर्णों के घावों पर भागवत के बयान ने नमक छिड़कने का काम ही किया है. इसी तरह संविधान के प्रति निष्ठां जतानेवाले भागवत सबरीमाला और अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का खुला विरोध करते हैं.   
कुछ साल पहले उन्होंने कहा था कि जिस तरह से अमेरिका में रहनेवाले  सभी लोग अमेरिकन होते हैं उसी तरह भारत में रहनेवाले सभी लोग हिंदू हैं. यानी आप संघ के हिंदू राष्ट्र में मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन या अपनी अलग धर्म और पहिचान के साथ समान हैसियत में नहीं रह सकते. लेकिन विज्ञान भवन में उन्होंने कहा कि मुसलमानों के बिना हिंदुत्व की अवधारणा बेमतलब और अधूरी है. 2013-14 से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के अन्य बड़े नेता 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा देते आ रहे हैं. पिछले साढ़े चार वर्षों तक इस पर चुप्पी साढ़े रहे  भागवत ने  पिछले दिनों (17 से 19 सितम्बर 2018) नई दिल्ली के विज्ञान भवन के अपने उद्बोधन में इससे असहमति जताते हुए 'कांग्रेस युक्त भारत' की बात कही.   
उन्होंने महिलाओं के सशक्तीकरण पर जोर दिया और कहा कि महिलाओं के प्रति विचार और व्यवहार में जमीन आसमान के अंतर को मिटाना होगा. हर मामले में महिलाओं को बराबरी की हिस्सेदारी दी जानी चाहिए. लेकिन इन्हीं मोहन भागवत ने कुछ साल पहले छह जनवरी 2013 को इंदौर में कहा था, ‘‘ पति की देखभाल के लिए महिला उसके साथ एक करार से बंधी होती है. पति और पत्नी के बीच एक करार होता है, जिसके तहत पति का यह कहना होता है कि तुम्हें मेरे सुख और घर की देखभाल करनी होगी और बदले में मैं तुम्हारी सभी जरूरतों का ध्यान रखूंगा. जब तक पत्नी करार का पालन करती है, पति उसके साथ रहता है. यदि पत्नी करार का उल्लंघन करती है, तो वह उसे त्याग सकता है.’’ इतना ही नहीं इससे कुछ पहले उन्होंने यह कहा था कि बलात्कार जैसी घटनाएं ग्रामीण भारत में नहीं, बल्कि शहरी भारत में होती हैं.
मोहन भागवत ने अपने नए अवतार में स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस के योगदान को सराहा. हालांकि इसके अलावा वह और कह क्या सकते थे. संघ को जनतांत्रिक संगठन बताने की कोशिश की लेकिन यह नहीं बता सके कि सर संघचालक से लेकर नीचे तक के पदों के लिए संघ के इतिहास में कोई चुनाव हुए भी हैं क्या. उन्होंने अपने प्रवचनों और प्रायोजित सवालों के जवाब में संघ को दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और अन्य पिछड़ी जातियों का हिमायती बताया लेकिन यह नहीं बताया कि उनके सभी सर्वोच्च पदों पर केवल द्विज और वह भी ब्राह्मण-इनमें से भी अधिकतर महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण ही क्यों हैं. संघ के राष्ट्रीय पदाधिकारियों और समूची राष्ट्रीय कार्यकारिणी में एक भी दलित, आदिवासी और महिला का नाम क्यों नहीं है. संघ में सूचना के बाद सोचना बंद क्यों हो जाता है, इसके जवाब में उन्होंने समझाने की कोशिश की कि सूचना लंबे विचार विमर्श के बाद दी जाती है इसलिए उसके बाद उस पर सोचने की जरूरत नहीं रह जाती. लेकिन यह तो फासिस्ट समाजों में होता है लोकतांत्रिक समाज में कतई नहीं. 
उन्होंने समलैंगिकता को समर्थन देकर मध्यप्रदेश में अपने भाजपा सरकार में वित मंत्री रहे राघव जी जैसे लोगों का मनोबल जरूर बढ़ाया. 
कुल मिलाकर संघ का जो मूल चरित्र है, उसमें फिलहाल तो बदलाव की कोई संभावना नजर नहीं आती. परिस्थितियों के दबाव में इसके नरम या उदार चेहरा को पेश करने की जितनी भी कोशिशें की जाएं, इसका मूल चरित्र नहीं बदल सकता. कुछ लोग मोहन भागवत के इन विचारों को सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव गोर्वाच्योव के ग्लासनोश्त से करने लगे हैं लेकिन ग्लासनोश्त के बाद पेरेस्त्रोइका भी हुआ था और उसके साथ ही सोवियत संघ का पतन कहें या विखंडन भी. क्या संघ इसके लिए तैयार है !

Thursday, 14 June 2018

Karnatka shows the way for unified opposition - कर्नाटक में विपक्ष की दिखी ताकत

कर्नाटक में विपक्ष की दिखी ताकत  

2019 में मोदी और भाजपा को महागठबंधन की मजबूत चुनौती!
जयशंकर गुप्त

कर्नाटक में एच डी कुमार स्वामी के नेतृत्व में जनता दल एस और कांग्रेस की सरकार को लगातार प्रामाणिकता और जनादेश प्राप्त होते जाने से लगता है कि यह गठबंधन और इसी के तर्ज पर अन्य राज्यों में भी बन रहे विपक्ष के गठबंधन 2019 में केंद्र और तकरीबन 20 राज्यों में भाजपा के नेतृत्ववाले सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के लिए खासा सिरदर्द साबित हो सकते हैं. कर्नाटक में साझा सरकार ने अपना विधानसभा अध्यक्ष चुनकर और समय सीमा के भीतर सदन में बहुमत साबित कर न सिर्फ अपनी प्रामाणिकता प्रदर्शित की है बल्कि तुरंत बाद हुए विधानसभा की दो सीटों के चुनाव-उपचुनाव जीतकर साबित कर दिया है कि कर्नाटक का जनादेश भी साझा सरकार के पक्ष में है. इससे पहले मंत्रिमंडल के विस्तार की कसौटी को भी गठबंधन सरकार ने बखूबी पार कर लिया है. जयनगर विधानसभा की सीट तो भाजपा की अपनी परंपरागत सीट थी, जिसपर इसके दिवंगत उम्मीदवार पिछले चार बार से लगातार विधायक थे. इस सीट पर कांग्रेस का उम्मीदवार जीत गया. इस जीत को कांग्रेस अपनी बढ़ती राजनीतिक ताकत और साझा सरकार के लिए जनादेश के रूप में प्रचारित करेगा.
 कुछ दिनों पहले, 23 मई को बेंगलुरु में जनता दल एस के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के रूप में कांग्रेस के दलित नेता जी परमेश्वर के शपथ ग्रहण समारोह में गैर भाजपा-राजग विपक्ष के तमाम सूरमाओं की एक मंच पर मौजूदगी से ही लग गया था कि विपक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके नेतृत्ववाले सत्तारूढ़ राजग को चुनौती देने के मूड में आ गया है. यह शपथ ग्रहण का समारोह कम विपक्ष की एकजुटता का राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन ज्यादा था जिसमें एक दर्जन से अधिक कांग्रेसनीत यूपीए के घटक दलों के साथ गैर भाजपा, गैर कांग्रेस क्षेत्रीय दलों का अद्भुत राजनीतिक संगम देखने को मिला. इसके तुरंत बाद ही उत्तर प्रदेश के कैराना और महाराष्ट्र के भंडारा गोदिया संसदीय सीटों और उत्तर प्रदेश, बिहार एवं मेघालय एवं अन्य राज्यों में हुए एक दर्जन विधानसभा सीटों में से 11 सीटों पर विपक्ष के उम्मीदवारों की जीत से भी सत्तारूढ़ खेमे में बेचैनी और विपक्ष का मनोबल बढ़ा है.
इससे पहले भी गुजरात विधानसभा के चुनाव में अपेक्षकृत अच्छे प्रदर्शन और कई संसदीय उपचुनावों में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के उम्मीदवारों की जीत ने कांग्रेस और विपक्ष को एक अलग तरह की राजनीतिक ऊर्जा प्रदान की थी. लेकिन बेंगलुरु में इक्का दुक्का अपवादों को छोड़कर तमाम गैर भाजपा-गैर राजग नेताओं का उत्साहित जमावड़ा  2019 के आम चुनाव में खुद को अपराजेय समझने वाली प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सिपहसालार, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी के सामने विपक्ष की ओर से मजबूत राजनीतिक चुनौती का स्पष्ट संकेत है. एच डी कुमार स्वामी के शपथग्रहण समारोह में विपक्ष का कौन बड़ा नेता नहीं था. कुमार स्वामी और उनके पिता 85 वर्षीय पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा की अगवानी में कांग्रेसनीत यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खरगे, कर्नाटक के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धरमैया, डी शिव कुमार, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष एवं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, बसपा की अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और उनके महासचिव सतीश मिश्र, एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार, बिहार में राजद यानी विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव, लोकतांत्रिक जनता दल के शरद यादव, झारखंड से झामुमो के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, एक और पूर्व मुख्यमंत्री झाविमो के बाबूलाल मरांडी, राष्ट्रीय लोकदल के चैधरी अजित सिंह, माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी, भाकपा के सचिव डी राजा, केरल के माकपाई मुख्यमंत्री पिनराई विजयन, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी वहां पहंुचे. तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष, मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव एक दिन पहले ही देवेगौड़ा और कुमार स्वामी से मिलकर शपथग्रहण समारोह में शमिल नहीं हो पाने का अफसोस जता गए थे. यूपीए के एक प्रमुख घटक द्रविड़ मुनेत्र कझगम के नेता एम के स्टाॅलिन भी तमिलनाडु के तूतिकोरिन में हुए पुलिस गोलीकांड के मौके पर पहंुंचने का कारण बताकर नहीं पहंुच सके. फिल्म अभिनेता से नेता बनने की दिशा में सक्रिय कमल हासन भी उस दिन तूतिकोरिन में ही दिखे.
लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस के पिता-पुत्र डा. फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला भी नहीं दिखे. कारण रमजान और कश्मीर के हालात भी हो सकते हैं. लेकिन कांग्रेस के पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और मिजोरम के ललथनहवला भी नहीं दिखे. ओडिसा के मुख्यमंत्री एवं बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक भी नहीं आए. संभवतः वह अभी अपनी राजनीतिक दिशा तय नहीं कर पा रहे. बीजद के महासचिव अरुण कुमार साहू ने कहा कि उनकी पार्टी भाजपा और कांग्रेस से भी समान दूरी बनाए रखना चाहती है. हालांकि पिछले दिनों नवीन पटनायक ने भी तीसरे मोर्चे को मजबूत करने पर बल दिया था.
 बेंगलुरु में विपक्ष के नेताओं के बीच गजब की आपसी केमिस्ट्री दिखी. अखिलेश यादव के साथ मायावती की करीबी साफ दिख रही थी. दोनों संभवतः पहली बार इतनी आत्मीयता से मंच साझा कर रहे थे. वहीं सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ भी मायावती और अखिलेश के बीच अलग तरह की केमिस्ट्री बनते दिखी. जिस तरह से सोनिया गांधी और मायावती ने एक दूसरे के कंधे और कमर में हाथ डालकर अपनापन दिखाने की कोशिश की वह भविष्य की विपक्षी राजनीति का एक अलग संकेत दे रहा था. बीमार चल रहे राजद के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव ने सोनिया गांधी से लेकर देवेगौड़ा, मायावती और ममता बनर्जी के आगे झुककर उनका आशीर्वाद लिया.
लेकिन एक समय ऐसा भी लगा कि यूपीए और गैर राजग, गैर कांग्रेसी विपक्ष यानी तीसरे मोर्चे की बात करनेवाले नेता खासतौर से ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और अरविंद केजरीवाल, पिनराई विजयन मंच पर अलग अलग मुद्रा में दिख रहे हैं. इसे महसूस कर देवेगौड़ा और सोनिया गांधी ने ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू को भी अपने, शरद यादव, शरद पवार और मायावती तथा अखिलेश यादव के बीच लाकर बड़े फ्रेम में तस्वीरें खिंचवाई. फिर तो चंद्रबाबू नायडू और केजरीवाल, विजयन तथा येचुरी, राजा विपक्ष के सभी सूरमाओं के हाथ उठाकर ग्रुप फोटो बनवाए गए. इस तस्वीर को देखने के बाद पिछले चार साल में यह पहली बार लगा कि 2019 में विपक्ष एकजुट होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा-राजग को मजबूत चुनौती देने के लिए गंभीर है.
एकजुट विपक्ष के सामने चुनौतियां
लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं हैं. यक्ष प्रश्न यही है कि विपक्ष की यह एकजुटता कब तक बनी रहेगी और मोदी के विकल्प के बतौर इसका नेतृत्व कौन करेगा. एक प्रश्न के जवाब में राहुल गांधी के यह कहने पर कि कांग्रेस को बहुमत मिलने की स्थिति में वह प्रधानमंत्री बनने को तैयार हैं, ममता बनर्जी ने कहा था कि जरूरी नहीं कि किसी एक व्यक्ति को सामने रखकर ही विपक्ष लोकसभा का अगला चुनाव लड़े. वह गाहे बगाहे गैर भाजपा, गैर कांग्रेसी दलों, खासतौर से क्षेत्रीय दलों का अलग विपक्षी गठबंधन बनाने पर जोर देते रहती हैं. बंेगलुरु में भी ममता बनर्जी ने यही कहा कि शपथग्रहण समारोह में उनकी शिरकत का मकसद क्षेत्रीय दलों को मजबूती प्रदान करना है. यही राय कमोबेस आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और कभी तीसरे, संयुक्त मोर्चे के संयोजक रहे चंद्रबाबू नायडू, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की भी रही है. हालांकि कभी कांग्रेस समर्थित तीसरे, संयुक्त मोर्चे की सरकार के प्रधानमंत्री रह चुके एच डी देवेगौड़ा ने कहा है कि कांग्रेस के बिना किसी गैर भाजपा विपक्षी महागठबंधन की कल्पना संभव नहीं. लेकिन पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में कांग्रेस किसके साथ गठबंधन करेगी, वाम दलों के साथ अथवा ममता बनर्जी की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के साथ. क्या यह संभव हो पाएगा कि ये तीनों ही राजनीतिक ताकतें वहां भाजपा के विरोध में महा गठबंधन बना सकें. बेंगलुरु के शपथ ग्रहण समारोह में ममता बनर्जी के साथ मंच साझा करनेवाले माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने साफ कर दिया कि भाजपा कोे रोकने के लिए विपक्ष की एकता के नाम पर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से हाथ मिलाने का सवाल ही नहीं उठता. उन्होंने कहा, ‘‘भाजपा के नेतृत्ववाली सरकारें देश में और ममता बनर्जी की सरकार पश्चिम बंगाल में समान रूप से लोकतंत्र की हत्या कर रही हैं.’’ लिहाजा माकपा लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में ममता और मोदी, दोनों को और केरल में कांग्रेस को हराएगी.
इसी तरह से आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में परस्पर विरोधी चंद्रबाबू नायडू और के चंद्रशेखर राव तथा ओडिसा में नवीन पटनायक और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को भी तय करना होगा कि उन्हें भाजपा से लड़ना है कि कांग्रेस से या दोनों से. कांग्रेस को भी इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा कि उसे कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की दिशा में अग्रसर भाजपा से लड़ना है कि क्षेत्रीय दलों के साथ!
इसके साथ ही इस विपक्षी महागठबंधन के नेता और नीतियों-कार्यक्रमों पर भी विचार करना होगा. अभी तक विपक्षी जमावड़े का मकसद भाजपा और मोदी तथा उनके बहाने आम चुनाव में सांप्रदायिकता का विरोध ही नजर आ रहा है. भविष्य में उन्हें उनका विकल्प भी पेश करना पड़ेगा. विपक्ष में कांग्रेस के राहुल गांधी से लेकर मायावती, ममता बनर्जी, शरद पवार और शरद यादव जैसे कई नेता नेतृत्व की लालसा पाले हुए हैं. कहा जा रहा है कि नेतृत्व का फैसला लोकसभा चुनाव के बाद भी संभव है जैसा 2004 में हुआ था. हालांकि भाजपा के लोग प्रधानमंत्री मोदी के सामने विपक्ष के पास वैकल्पिक नेतृत्व के अभाव को भुनाने की कोशिश कर सकते हैं. देश के मतदाता बड़े पैमाने पर आज भले ही केंद्र सरकार और भाजपा से भी नाराज दिख रहे हैं. उन्हें लगता है कि पिछले चार वर्षों में मोदी और भाजपा के चुनावी वादे छलावा ही साबित हुए हैं. लेकिन उनमें से एक बड़े तबके को अभी भी मोदी से उम्मीदें हैं.
म.प्र., राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनाव
विपक्षी एकता की परख तो अगले कुछ महीनों में राजस्थान, म.प्र. और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में भी होगी. इन तीन राज्यों में चुनावी लड़ाई वैसे तो मोटे तौर पर कांग्रेस बनाम भाजपा ही है. वहां भाजपा को चुनौती देने की ताकत रखने वाली बहुत मजबूत क्षेत्रीय पार्टी नहीं है, लेकिन कुछ-कुछ पॉकेट में सपा, बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और लाकतांत्रिक जनता दल के ठीक-ठाक वोट हैं. बीते विधानसभा चुनाव में 6.29 फीसदी वोट पाने वाली बसपा को म.प्र. में चार सीटें भी मिली थीं. इसी तरह उसे छत्तीसगढ़ में 4.27 और राजस्थान में 3.77 फीसदी वोट मिले थे. पिछले साल म.प्र. के उपचुनाव में बीएसपी का उम्मीदवार खड़ा न करना दो सीटों पर कांग्रेस की जीत की वजह बना था. इन तीन राज्यों में कांग्रेस के दिल बड़ा कर सपा, बसपा, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और लोकतांत्रिक जनता दल जैसे क्षेत्रीय दलों के लिए भी कुछ सीटें छोड़ने की स्थिति में 2019 के आम चुनाव की झांकी इन राज्य विधानसभाओं के चुनाव में दिख सकती है.
कर्नाटक की साझा सरकार की स्थिरता सबसे बड़ी चुनौती
 विपक्ष के लिए सबसे बड़ी चुनौती तो कर्नाटक में साझा सरकार की स्थिरता को लेकर सामने आएगी. खंडित जनादेश के बीच सोनिया गांधी की राजनीतिक परिपक्वता और दोनों दलों की एकजुटता से राजनीतिक मात खाई भाजपा आसानी से हार मानने और पांच साल तक इंतजार करनेवाली नहीं है. विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सत्ता हाथ से निकल जाने के कारण चोटिल भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने कहा भी कि कांग्रेस और जेडीएस अपने विधायकों को छुट्टा खोलकर तो देखंे! हालांकि कांग्रेस और जेडीएस के  विधायकों की एकजुटता ने 25 मई को विश्वासमत प्रस्ताव हासिल करने और उससे पहले कांग्रेस के नेता रमेश कुमार को विधानसभाध्यक्ष चुनवाने और सदन में विस्वासमत हासिल करने की प्रारंभिक जंग को जीत लिया है.
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की रणनीति पर गौर करने पर इस बात का अंदाजा आसानी से लग सकता है कि कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस के इस गठबंधन को 2019 से पहले तोड़ना भाजपा के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता होगी. ताकि ऐसे किसी गठजोड़ को मौकापरस्त दलों का कुर्सीपरस्त गठबंधन साबित करने के साथ ही यह बताया जा सके कि ये वो लोग हैं, जो मोदी और भाजपा को रोकने के लिए बेमेल रिश्ते तो गांठ लेते हैं, लेकिन दो कदम साथ नहीं चल सकते.
 जाहिर सी बात है कि दोनों दलों के नेताओं की महत्वाकांक्षाएं, अंतर्विरोध और सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर अंदरूनी टकराहटों में ही भाजपा अपने लिए अवसर तलाशेगी. मुख्यमंत्री भाजपा की नजर लगातार कुमारस्वामी और उनके कुनबे पर होगी. एचडी कुमार स्वामी के बड़े भाई, विधायक एचडी रेवन्ना लगातार सत्ता में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने का दबाव बनाए रखेंगे. और फिर संकट की घड़ी में कांग्रेस और जनता दल एस के विधायकों को सुरक्षित और एकजुट रखने में सफल रह कर्नाटक के कद्दावर कांग्रेसी नेता, विधायक डी शिव कुमार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और उनका अतीत भी इस साझा सरकार के लिए संकट का कारण बन सकता है. सिद्धरमैया की सरकार में ऊर्जा मंत्री रह चुके शिव कुमार के दर्जनों ठिकानों पर पिछले साल आयकर के छापे पड़ चुके हैं. देखना होगा कि पिछले पांच साल में सैकड़ों करोड़ के धनी बनने वाले और संकट के समय कांग्रेसी विधायकों को अपने पांच सितारा होटल में मेहमान के रूप में छिपाकर रखने वाले शिव कुमार के कारनामों की फाइल आने वाले दिनों में कहीं कांग्रेस और इस सरकार के लिए संकट का कारण न बन जाए. भाजपा की नजर अब उन विधायकों पर भी रहेगी, जो बहुमत के वक्त सारे प्रलोभन ठुकराकर भी नई सरकार में कुछ नहीं पा सके. ऐसे विधायक जिस दिन भी अपनी नाराजगी का सौदा करने को तैयार हो जाएंगे, कर्नाटक में तख्ता पलटते देर नहीं लगेगी. मंत्रिमंडल विस्तार के बाद दोनों दलों के विधायकों में असंतोष के छिटपुट स्वर भी सुनने को मिले लेकिन फिलहाल उन पर काबू पा लिया गया है.
  खंडित जनादेश ने दी विपक्ष को ताकत!
दरअसल, कर्नाटक विधानसभा के चुनावी नतीजांे पर पूरे देश की निगाहें टिकी थीं. भाजपा को लगा था पश्चिम में गुजरात और उत्तर पूर्व में त्रिपुरा, मेघालय और मणिपुर की तरह ही कर्नाटक में भी जीत और सरकार बनाने का का सिलसिला जारी रखते हुए वह 2019 में विपक्ष की चुनौती को यह कहते हुए भोथरा साबित कर सकेगी कि उत्तर पूर्व से से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक देश का मतदाता वर्ग तमाम दुश्वारियों और नाराजगी के बावजूद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को ही पसंद करता है. दूसरी तरफ, गुजरात में सत्ता के करीब पहुंचते पहुंचते पिछड़ गई कांग्रेस को भी लगता था कि कर्नाटक की जीत के बाद नई राजनीतिक ऊर्जा से लबरेज होकर वह राजस्थान, म.प्र., छत्तीसगढ़ और मिजोरम में भी भाजपा को मजबूत चुनौती या कहें शिकस्त देकर 2019 के लिए खुद को तैयार कर सकेगी.
लेकिन कर्नाटक का जनादेश दोनों को ही दगा दे गया. विधानसभा की 224 में से 222 सीटों के लिए हुए चुनाव में भाजपा बहुमत के लिए जरूरी 112 विधायकों के आंकड़े तक पहंुचने के क्रम में 104 सीटों पर ही अटक गई. कांग्रेस को भी केवल 78 सीटें ही मिल सकीं, जबकि जनता दल एस को 37 और उसके साथ मिलकर चुनाव लड़ी बसपा को एक सीट मिली. दो सीटें निर्दलीयों के खाते में गईं. नतीजे कांग्रेस के मनोनुकूल नहीं आए, लेकिन त्रिशंकु विधानसभा की आशंका को महसूस कर कांग्रेस ने समय रहते बड़ा राजनीतिक दाव खेलते हुए जनता दल एस के एच डी कुमार स्वामी के नेतृत्व में साझा सरकार बनाने का प्रस्ताव एच डी देवेगौड़ा के सामने रख दिया. खुद सोनिया गांधी ने देवेगौड़ा से बात की. पिता पुत्र राजी हो गए. राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि कर्नाटक के खंडित जनादेश ने 2019 के आम चुनाव के लिए विपक्ष की चुनौती को दमदार बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. कांग्रेस को अगर अपने बूते वहां बहुमत मिल जाता तो उसके सुनहरे अतीत का अहंकार विपक्ष की एकजुटता की राह में बाधा बन सकता था. कांग्रेस में एक बड़ा तबका चुनावों में कांग्रेस के एकला चलो की रणनीति की वकालत करते रहता है. कांग्रेस के इसी अहंकार ने कर्नाटक में जनता दल एस और मायावती की बसपा के साथ, गुजरात में एनसीपी और बसपा के साथ तथा असम में बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ के साथ भी किसी तरह का चुनावी गठबंधन अथवा सीटों का तालमेल नहीं होने दिया था. कर्नाटक में भी यही गलती हुई. दरअसल, कर्नाटक में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने अपने मुख्यमंत्री सिद्धरामैया की चुनावी रणनीति, पर कुछ ज्यादा ही भरोसा किया और देवेगौड़ा परिवार की राजनीतिक ताकत को उनके प्रभाव क्षेत्रों में भी कम करके आंकने की गलती भी की. कांग्रेस के नरम हिन्दुत्व और राहुल गांधी के मठ मंदिरों में मत्था टेकने के कारण भी देवेगौड़ा परिवार के जनाधारवाले इलाकों में दलित और अल्पसंख्यक मतों का कांग्रेस और जनता दल एस के बीच विभाजन हुआ. यह भी एक कारण है कि 38 फीसदी मत हासिल करके भी कांग्रेस 78 सीटें ही जीत सकी जबकि भाजपा 36 फीसदी मत प्राप्त करके भी 104 सीटें हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर सकी. अगर कांग्रेस और जनता दल एस तथा बसपा सीटों का तालमेल कर चुनाव लड़ते तो कर्नाटक का राजनीतिक परिदृश्य आज कुछ और ही होता.
जाहिर है कि कर्नाटक के इस खंडित जनादेश के चलते कांग्रेस की अकड़ कुछ ढीली पड़ी और बेंगलुरु में विपक्षी महागठबंधन का एक अक्स उभरते दिखा. जिस कर्नाटक को भाजपाई अपने लिए गेट वे टु साउथ यानी दक्षिण में भाजपा का प्रवेश द्वार कह रहे थे, वह ‘गेट वे टु अपोजिशन यूनिटी’ यानी विपक्षी एकता का कारक बन गया. कांग्रेस के लिए सबसे अच्छी बात यह रही कि उसे दक्षिण भारत के कर्नाटक में जनता दल एस के रूप में एक महत्वपूर्ण सहयोगी मिला जिससे गठबंधन जारी रहा तो लोकसभा चुनाव में दोनांे दल राज्य की कुल 28 में से तीन चैथाई सीटें आसानी से जीत सकते हैं. हालांकि कांग्रेस और देवेगौड़ा के बीच अतीत के संबंध बहुत ज्यादा मधुर और भरोसेमंद नहीं रहे हैं. नब्बे के दशक में कांग्रेस के सहयोग से तीसरे ‘संयुक्त मोर्चे’ की सरकार के प्रधानमंत्री बने देवेगौड़ा की सरकार कांग्रेस के समर्थन वापस ले लेने के कारण ही गिरी थी. और फिर एचडी कुमार स्वामी पहले भी भाजपा के साथ सरकार साझा कर चुके हैं. इसलिए भी इस साझा सरकार को भविष्य में अतीत की गलतियों से सबक लेकर ही आगे बढ़ना होगा.
कर्नाटक के राजनीतिक घटनाक्रमों से गैर भाजपा दलों को यह बात तो समझ में आ गई है कि मोदी और भाजपा से लड़ना से है, तो एकजुट होना पड़ेगा. अलग-अलग लड़े-भिड़े, तो 2019 में फिर मारे जाएंगे. मोदी और शाह से यही डर उन्हें एकजुट होने का रास्ता दिखा रहा है. लेकिन मोदी की राजनीतिक शैली, आक्रामकता, लोकप्रियता और देश के बड़े हिस्से में उनके लिए जनसमर्थन गैर भाजपा दलों को 2019 से जितना डरा रहा है, उतना ही डर अब भाजपा को कांग्रेस के साथ क्षेत्रीय दलों के संभावित गठजोड़ से होगा. प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और उनके प्रशंसक डींगें चाहे कितनी भी हांकें, गुजरात के बाद कर्नाटक के नतीजे बताते हैं कि मतदाताओं पर उनकी पकड़ ढीली पड़ रही है. कर्नाटक में इससे पहले 2008 में भी भाजपा येदियुरप्पा के नेतृत्व में 110 सीटें जीत कर सरकार बना चुकी थी. इस बार तो वह 104 पर ही सिमट गई. राजग और भाजपा के भीतर भी असंतोष बढ़ते साफ दिख रहा है.

Sunday, 10 June 2018

Former President Pranab Mukharji at RSS Headquarter in Nagpur

संघ मुख्यालय, नागपुर में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी 

 गुरुवार, सात जून 2018 को पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नागपुर में रेशिम बाग स्थित आर एस एस के मुख्यालय में जाने और उनके भाषण को लेकर तमाम तरह की व्याख्याएं हो रही हैं. व्याख्या तो दो दिन पहले से ही तमाम टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर भी हो रही थीं, उनके भाषण के बाद व्याख्या की भंगिमाएं कुछ बदल सी गई हैं.
गुरुवार को ही शाम 5.40 बजे से 8.50 बजे तक हम भी इस पर चर्चा के लिए एक बड़े टीवी चैनल पर मौजूद. प्रणब बाबू का भाषण वाकई जोरदार और एक राजनेता की तरह का था, लेकिन संघ की अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं था. पूरे भाषण में उन्होंने एक बार भी संघ अथवा उसके संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार का नाम नहीं लिया. उनके गीत नहीं गुनगुनाए और नाही मंच पर मौजूद लोगों की तरह ध्वज प्रणाम किया और नहीं तो अपने सारगर्भित भाषण में उन्होंने परोक्ष रूप से संघ को राष्ट्र, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद पर परोक्ष रूप से अच्छी नसीहत भी दी. उन्होंने एक धर्म और एक भाषा की परिकल्पना को खारिज करते हुए भारतीय संविधान को राष्ट्रवाद का श्रोत बताया. उन्होंने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के हवाले से कहा कि देश में विविधता के लिए पर्याप्त जगह है. देश में 122 से ज्यादा भाषाएं और 1600 से ज्यादा बोलियां हैं. सात मुख्य धर्म और तीन जातीय समूह हैं. यही हमारी असली ताकत है, जो हमें दुनिया में विशिष्ट बनाती है. हमारी राष्ट्रीयता जाति-धर्म से बंधी नहीं है.
संघ मुख्यालय में उनकी मौजूदगी और उनके भाषण पर तकरीबन तीन घंटे की चर्चा की शुरुआत में ही हमने कहा था कि प्रणब कहां जाते हैं और क्या बोलते हैं यह उनका निजी मामला है. और यह भी कि वह वहां कुछ भी बोलें, इसका संघ की सेहत पर खास फर्क नहीं पड़नेवाला क्योंकि उनके स्वयंसेवक-प्रचारक आमतौर पर चिकना घड़ा होते हैं. इसकी तस्दीक करते हुए संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने भी अपने उद्बोधन में साफ कहा कि कार्यक्रम के बाद प्रणब प्रणब ही रहेंगे और संघ भी संघ ही रहेगा.
जाहिर सी बात है कि बाकी लोगों के लिए भी कुछ समय तक जुगाली करने से अधिक प्रणब दा के भाषण का विशेष महत्व नहीं रह जाएगा क्योंकि लोग भूल जाएंगे कि उन्होंने वहां कहा क्या क्या था. याद रहेगा या जिसे संघ के लोग अपनी वैधता साबित करने के लिए गाहे बगाहे याद करवाते रहंेगे, वह है, संघ मुख्यालय में उनकी उपस्थिति. और संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के बारे में स्मृति पुस्तिका में लिखे उनके वाक्य और इस अवसर पर उनके साथ ली गई तस्वीरें. आगे चलकर संघ के लोग उनके भाषण को भी तोड़ मरोड़ कर पेश करेंगे ही. प्रणब बाबू का इस्तेमाल उनके लिए अपने प्रोडक्ट को वैधता प्रदान करनेवाले एक विज्ञापन के माडल के रूप में ही किया जाएगा. इस तरह की जायज आशंका उनकी पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी ने भी जाहिर की थी. एक दिन बाद ही सोशल मीडिया पर ‘डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट’ की ओर से फोटो शाप की मदद से तैयार कुछ ऐसी तस्वीरें भी पोस्ट की गई हैं जिसमें प्रणब संघ के निष्ठावान प्रचारक की तरह संघ के ध्वज को प्रणाम करते दिख रहे हैं.
ऐसा यह प्रणब के साथ ही करेंगे, यह सवाल बेमानी है क्योंकि अतीत में ऐसा ही ये लोग महात्मा गांधी के साथ भी कर चुके हैं. 1934 में गांधी वर्धा में संघ के एक शिविर में गए थे. वहां उन्होंने संघ के बारे में कुछ भी नहीं कहा था. लेकिन बाद में संघ के एक बड़े पदाधिकारी एच वी शेषाद्रि ने कहा, ‘‘गांधी जी को वहां यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि अश्पृश्यता का विचार रखना तो दूर स्वयंसेवकों को एक दूसरे की जाति का पता भी नहीं था. गांधी जी इससे बहुत प्रभावित हुए थे.’’ यह बात गांधी ने कभी खुद  कही हो इसका उल्लेख उनके साहित्य में और ना ही उनके किसी करीबी ने अपने किसी संस्मरण में ही किया है. यही नहीं गांधी जी के निजी सचिव रहे प्यारे लाल अपनी पुस्तक ‘‘महात्मा गांधी द लास्ट फेज, भाग 2 के पृष्ठ 400 पर लिखते हैं कि गांधी जी की टोली के एक सदस्य ने एक बार उनसे कहा कि संघ के लोगों ने शरणार्थी शिविर में बहुत अच्छा काम किया है. उन्होंने अनुशासन, साहस और कठिन श्रम की क्षमता प्रकट की है. इस पर गांधी जी ने कहा कि मत भूलो कि हिटलर के नाजी और मुसोलिनी के फासिस्ट भी ऐसे ही थे. इसका जिक्र संघ के लोग कभी नहीं करते.
संघ अपनी वैधता साबित करने के लिए, हालांकि आज जिस तरह से उनका विस्तार हुआ या हो रहा है, उसे देखेते हुए, इसकी उन्हें खास जरूरत भी नहीं होनी चाहिए, अतीत में लोकनायक जयप्रकाश नारायाण, वामपंथी सोच के कृष्णा अय्यर, पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम आदि तमाम लोगों को अपने कार्यक्रमों में ले जाते रहे हैं और उनके वहां कहे की अपने तरह की व्याख्या पेश कर अपने को महिमामंडित करते रहे हैं. समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया कभी उनके मुख्यालय या किसी शिविर में नहीं गए लेकिन अब तो संघ के लोग यह बताने में संकोच भी नहीं करते कि वे भी उनके कार्यक्रम में आए थे. 7 जून के टीवी शो में भी विहिप से जुड़े सज्जन बड़े दावे के साथ ऐसा कह रहे थे.
टीवी शो में संघ और भाजपा के लोग जोर शोर से यह दावा कर रहे थे कि संघ में जाति मायने नहीं रखती. लेकिन जब हमने यह जानना चाहा कि 94 साल के संघ के इतिहास में अब तक कोई दलित, पिछड़ी जाति का सदस्य अथवा किसी भी जाति की महिला संघ के सर संघचालक क्यों नहीं बन सके. अभी तक सर संघचालक बने लोगों में इक्का दुक्का अपवाद का छोड़कर प्रायः सभी महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण ही क्यों रहे. और यह भी कि इस समय की संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नब्बे फसदी लोग ब्राह्मण और बाकी सदस्य भी सवर्ण क्यों हैं. सीधे जवाब देने के बजाय कहा गया कि संघ पुरुषों का संगठन है और महिलाओं के लिए संघ ने राष्ट्र सेविका समिति बनाई है. लेकिन यह समिति कब बनी. सीधी सी बात है कि संघ मनुवादी संगठन है जिसकी संविधान में आस्था नहीं और वह मनु संहिता की वकालत करता है जिसमें औरत और शूद्रों को गोस्वामी तुलसी दास की एक उक्ति ‘‘ढोर गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ की तर्ज पर प्रताड़ना के विषय बताए गए हैं. तिलमिलाहट स्वाभाविक है. लेकिन ठंडे दिमाग से संघ के और बड़े नेता इसका जवाब दें तो आभार मानूंगा.
चर्चा में संघ पर लगे प्रतिबंधों और स्वयंसेवकों-प्रचारकों के अनुशासन और बहादुरी की चर्चा भी हुई. हमने समझाने की कोशिश की कि आपातकाल में हम भी अपने पिता जी के साथ जेल गए थे. किस तरह आपातकाल में संघ के तत्कालीन सर संघचालक बाला साहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर माफी मांगी थी और कहा था कि उनका सामाजिक सांस्कृतिक संगठन आरएसएस उनके बीस सूत्री कार्यक्रमों के प्रचार प्रसार का इच्छुक है. इंदिरा गांधी ने उनके माफीनामे को अस्वीकार करते हुए संघ के नेताओं, प्रचारकों और स्वयंसेवकों से निजी और स्थानीय तौर पर माफीनामा भरने को कहा था. जेलों में माफीनामे की कतारें लग गई थीं. संघ और उसके नेतृत्व के सामने ये सवाल अक्सर मुंह बाए खड़े रहते हैं. यह भी कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में शिरकत के बजाय उसका विरोध क्यों किया था. क्यों इसके तत्कालीन सर संघचाललक गुरू गोलवलकर ने अंग्रेजों से लड़ने के बजाय अल्पसंख्यक मुसलमानों और कम्युनिस्टों से लड़ने को संघ की प्राथमिकता बताई थी. इसके सहयोगी हिंदू महासभा के नेता और बाद में जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने देश विभाजन के लिए जिम्मेदार मुस्लिम लीग के नेतृत्ववाली पश्चिम बंगाल सरकार में साझा किया और वरिष्ठ मंत्री का पद स्वीकार किया था.
ऐसे तमाम सवाल हैं जो संघ के अतीत और वर्तमान को लेकर उठते रहते है, जिनपर स्पष्टीकरण की आवश्यकता है. संघ के नेतृत्व को यह भी बताना चाहा कि वह प्रणब मुखर्जी के भाषण और सुझावों पर अमल करने के लिए तैयार है क्या!

Monday, 11 September 2017

मोदी मंत्रिपरिषद का तीसरा फेरबदल

मर्जी की मोदी मंत्रिपरिषद!
चुनौतियां बड़ी हैं


जयशंकर गुप्त

खिरकार देश के लिए एक पूर्णकालिक रक्षा मंत्री का इंतजाम हो गया. अपनी मर्जी के चौंकानेवाले फैसलों के लिए चर्चित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाणिज्य राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) निर्मला सीतारमण को देश की सीमाओं की सुरक्षा की कमान सौंपकर एक बार फिर न सिर्फ बाहर बल्कि अंदर अपनी पार्टी के लोगों को भी चौंका दिया. अपनी करीब सवा तीन साल पुरानी मंत्रिपरिषद के तीसरे, बहुप्रतीक्षित और बहुचर्चित पुनर्गठन के बाद मोदी ने सीतारमण को केवल दूसरी महिला रक्षा मंत्री होने का गौरव ही प्रदान नहीं किया बल्कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (कुछ कथित राष्ट्रभक्तों की निगाह में देशद्रोहियों का अड्डा) से अर्थशास्त्र की स्नातकोत्तर भाजपा की इस अपेक्षाकृत नई नेता को विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के साथ ही देश की सुरक्षा मामलों पर मंत्रिमंडल की अत्यंत महत्वपूर्ण समिति की दूसरी महिला सदस्य होने का मान सम्मान भी दे दिया. हालांकि भाजपा के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि मोदी और भाजपा के उनके खासुलखास अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी ने तो उन्हें सरकार से बाहर करने का फैसला कर लिया था, उनसे त्यागपत्र भी ले लिया गया था लेकिन संघ और भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेताओं के दबाव में उनका मंत्री पद बचा और ऐसा बचा कि मोदी ने उन्हें रक्षा मंत्री बना दिया.
मोदी मंत्रिमंडल की एक अन्य प्रमुख सदस्य स्मृति ईरानी को भी पदोन्नत कर उनके साथ अतिरिक्त प्रभार के रूप में जुड़े सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को पूर्णकालिक तौर पर उनके नाम कर दिया. वह कपड़ा मंत्री भी बनी रहेंगी. अब मोदी मंत्रिमंडल में महिला सदस्यों की संख्या छह और राज्य मंत्रियों की संख्या तीन हो गई है. हालांकि महिला सशक्तीकरण और संसद तथा विधायिकाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की वकालत करनेवाली भाजपा की सरकार के ताजा फेरबदल के बाद कुल 76 मंत्रियों में महिलाओं की संख्या महज 9 ही हो पाई है.

कहने को तो यह फेरबदल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘न्यू इंडिया मिशन’ और 2019 के लोकसभा चुनाव और उससे पहले होनेवाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर किया गया और इसमें मंत्रियों और नेताओं की प्रतिभा, कार्यक्षमता और संगठन तथा सरकार के कामकाज में उनके योगदान को आधार माना गया लेकिन सही मायने में इस पूरी कवायद में मोदी और अमित शाह की मन मर्जी और उनकी राजनीतिक आवश्यकताओं को ही तरजीह दिखती है. हालांकि कुछ मामलों में मोदी और शाह की मर्जी पर संघ और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं का दबाव भी भारी पड़ा.

भाजपा सूत्रों के अनुसार मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन से एक दो दिन पहले पार्टी के अंदर काफी राजनीतिक उठापटक हुई. यह भी एक कारण था कि मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन की तिथि एक दिन आगे बढाई गई. बताते हैं कि मोदी-शाह की जोड़ी सरकार से बाहर किए गए छह मंत्रियों के साथ ही निर्मला सीतारमण, उमा भारती, जयंत सिन्हां, गिरिराज सिंह और सुदर्शन भगत को भी हटाना चाहती थी. राजनाथ सिंह का विभाग बदले जाने की बात थी. सुषमा स्वराज रक्षा ंमत्री बनने की इच्छुक थीं लेकिन संघ और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के दबाव के कारण ऐसा नहीं हो सका. अमित शाह ने तो उमा भारती का त्यागपत्र भी ले लिया था लेकिन अंतिम समय पर संघ के शिखर नेतृत्व के हस्तक्षेप से उनका मंत्री पद बच गया. इन सूत्रों के अनुसार झांसी में बागी तेवर अपना चुकीं भगवावेशधारी उमा के दबाव पर संघ नेतृत्व ने वृंदावन में चल रही अपनी उच्च स्तरीय बैठक में शामिल अमित शाह को समझाया कि उमा को मंत्रिमंडल से बाहर रखना संघ और भाजपा की भविष्य की योजनाओं के मद्देनजर ठीक नहीं रहेगा. बाहर रह कर वह सरकार और संगठन के लिए भी परेशानियां खड़ी करती रहेंगी. हालांकि मंत्रिमंडल में हैसियत घटाए जाने के विरोध में शपथग्रहण समारोह का बहिष्कार कर उमा भारती ने अपने इरादे जाहिर कर दिए. फेरबदल में अपने विभागों में छेड़छाड़ की आशंका को भांपकर ऐन वक्त पर राजनाथ, सुषमा, अरुण जेटली और नितिन गडकरी जैसे भाजपा के वरिष्ठ नेताओं-मंत्रियों की बैठक में उनके विभागों में किसी तरह का हेर फेर नहीं किए जाने का दबाव बनाया गया. राजनाथ ने साफ कह दिया था कि अगर उनका विभाग बदलने की बात हुई तो वह संगठन का काम करना पसंद करेंगे. उनके विभागों में किसी तरह की छेड़-छाड़ नहीं हुई. इसमें भी संघ की भूमिका निर्णायक रही.

निर्मला सीतारमण के पक्ष में यह दलील दी गई कि उन्हें मंत्री बनाए रखकर एक तो महिला सशक्तीकरण की बात हो सकती है, दूसरे वेंकैया नायडू के उप राष्ट्रपति बन जाने के बाद दक्षिण भारत में पार्टी और सरकार में आए खालीपन को भी वह भर सकती हैं. निर्मला तमिलनाडु में पैदा हुई हैं जबकि उनकी ससुराल आंध्र प्रदेश में है, कर्नाटक से भी उनका जुड़ाव रहा है. इस तरह का दबाव बनने पर मोदी ने न सिर्फ निर्मला को मंत्री बनाए रखा बल्कि उन्हें रक्षा मंत्री बनाकर प्रोटोकोल के हिसाब से उन्हें सुषमा स्वराज और अरुण जेटली से ऊपर कर दिया.
संघ के दबाव की काट के लिए उन्होंने पूर्व चार नौकरशाहों-आर के सिंह, सत्यपाल सिंह, हरदीपसिंह पुरी और के जे अल्फांस को अंतिम समय पर मंत्री बनाने का फैसला किया. वे मंत्री बन रहे हैं, इस बात का सूचना भी उन्हें शनिवार की रात को ही दी गई. ईमानदार और कर्मठ छवि के पूर्व नौकरशाह आर के सिंह अक्टूबर 1990 में समस्तीपुर में जिलाधिकारी रहते भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को उनकी रथ यात्रा के दौरान गिरफ्तार करने और फिर जनवरी 2013 में केंद्र सरकार में गृह सचिव रहते अपने एक बयान के लिए चर्चित हुए थे. उन्होंने कहा था कि मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस में हुए आतंकी धमाकों में आरएसएस के दस लोगों के शामिल होने के पुख्ता प्रमाण हैं. डीडीए में ‘डिमालिशन मैन’ के नाम से चर्चित रहे के जे अल्फांस केरल में माकपा समर्थित निर्दलीय विधायक रह चुके हैं. मंत्री बनने के अगले दिन ही पदभार ग्रहण करने के बाद उन्होंने संघ के गोरक्षा अभियान की चिंता किए बगैर कहा, ‘‘मोदी सरकार समावेशी है. इसे केरल और गोवा जैसे राज्यों में लोगों के गोमांस खाने से किसी तरह की समस्या नहीं होगी.’’
कई मामलों में तो मंत्रिपरिषद से बाहर किए गए मंत्रियों की भरपाई उनके जातीय विकल्पों के द्वारा की गई. मसलन बिहार से राजीव प्रताप रूडी को हटाकर उनकी जगह उनके सजातीय, राजकुमार सिंह को लिया गया. उत्तर प्रदेश में 75 साल की उम्र सीमा पार कर चुके कलराज मिश्र और प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बने महेंद्रनाथ पांडेय के त्यागपत्र की भरपाई की गरज से गोरखपुर के राज्यसभा सदस्य शिवप्रताप शुक्ल को वित राज्य मंत्री बनाया गया है. शुक्ल और गोरखपुर से ही राज्य के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के बीच राजनीतिक अनबन के मद्देनजर माना जा रहा है कि शुक्ल के जरिए आदित्यनाथ पर एक तरह का अंकुश लगाने की कोशिश हो सकती है. ब्राह्मणों को बांधे रखने की गरज से ही बिहार में राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के कट्टर विरोधी अश्विनी चौबे भी राज्य मंत्री बनाए गए. बिहार सरकार में मंत्री रहे चौबे की चर्चा उनकी तीखी जुबान के लिए भी होती रही है. उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को ‘पूतना’ तथा राहुल गांधी को ‘विदेशी तोता’ कहा था. उत्तर प्रदेश से एक और राज्य मंत्री संजीव कुमार बाल्यान की जगह उनके ही सजातीय, मुंबई, नागपुर और पुणे के पुलिस आयुक्त रहे सत्यपाल सिंह को राज्यमंत्री बनाया गया. राजस्थान में जोधपुर के राजपूत सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत को राज्यमंत्री बनाने के पीछे पिछले दिनों राज्य के एक बड़े गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने के विरुद्ध आंदोलित राजपूतों की नाराजगी कम करने की कोशिश भी हो सकती है. राज्य से एक और राजपूत, पूर्व ओलंपियन राज्यवर्धनसिंह राठौर को प्रोन्नत कर उन्हें सूचना प्रसारण राज्यमंत्री के साथ ही स्वतंत्र प्रभार के साथ खेलकूद मंत्रालय में राज्य मंत्री बनाया गया है.

मध्यप्रदेश से आदिवासी फग्गन सिंह कुलस्ते का त्यागपत्र लेकर उनकी जगह टीकमगढ़ से छह बार से लोकसभा सदस्य चुने जाते रहे दलित समाज के वीरेंद्र कुमार खटिक को राज्य मंत्री बनाया गया. दक्षिण भारत में तेलंगाना से बंडारू दत्तात्रेय का त्यागपत्र लेकर कर्नाटक से संघ के समर्पित नेता एवं उत्तरी कन्नडा से सांसद अनंत हेगड़े को राज्यमंत्री बनाते समय कर्नाटक विधानसभा के अगले चुनाव को ध्यान में रखा गया. तेजतर्रार और आक्रामक छवि के हेगड़े भी अपनी बदजुबानी के लिए चर्चित रहे हैं. कुछ दिन पहले सिरसी के एक निजी अस्पताल में उनकी मां के इलाज में हो रही देरी से क्रुद्ध हेगड़े ने वहां डाक्टरों की पिटाई कर दी थी. उनके विरुद्ध मुकदमा भी दर्ज हुआ. इससे पहले उनकी बदजुबानी के कारण उनके खिलाफ सिरसी में ही ‘हेट स्पीच’ का मुकदमा भी कायम हुआ था. उन्होंने इस्लाम धर्म को आतंकवाद से जोड़ते हुए कहा था कि ‘‘जब तक इस्लाम रहेगा, दुनिया में शांति संभव नहीं.’’

मंत्रिपरिषद के इस फेरबदल के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस’ की वह उक्ति भी ‘जुमला’ भर रह गई जो उन्होंने तकरीबन सवा तीन साल पहले, 26 मई 2014 को 45 सदस्यों की अपनी मंत्रिपरिषद के शपथ ग्रहण के बाद कही थी. अब तीसरे फेरबदल के बाद उनकी मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या 76 हो गई है जिसमें 27 कैबिनेट, 11 राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) और 36 राज्यमंत्री शामिल हैं. अभी भाजपा के सहयोगी एवं उसके नेतृत्ववाले राजग के कई घटक दल सरकार में ‘प्रतिनिधित्व’ नहीं मिल पाने को लेकर मुंह फुलाए हैं. राजग में भाजपा के सबसे पुराने सहयोगी शिवसेना ने तो अपने एक मात्र मंत्री अनंत गीते के साथ शपथग्रहण समारोह का बहिष्कार कर अपना विरोध भी जता दिया है. जनता दल यू और अन्ना द्रमुक जैसे नए सहयोगी दल भी मंत्रिपरिषद में अपना उचित हिस्सा चाहेंगे. नियमतः अभी पांच मंत्री और बनाए जा सकते हैं. अगर सहयोगी दलों को सरकार में हिस्सेदारी देनी है तो इसके लिए एक और फेरबदल करना होगा.  
आधिकारिकतौर पर तो यही कहा जा रहा है कि निर्मला सीतारमण के साथ ही स्वतंत्र प्रभारवाले तीन अन्य राज्य मंत्रियों -पीयूष गोयल, धर्मेंद्र प्रधान और मुख्तार अब्बास नकवी को भी उनके बेहतर कामकाज के आधार पर प्रोन्नत कर कैबिनेट मंत्री बनाया गया. पीयूष गोयल को गांव गांव तक बिजली पहुंचाने और धर्मेंद्र प्रधान को घर घर रसोई गैस पहुंचाने की प्रधानमंत्री मोदी की महत्वाकांक्षी उज्वला योजना पर बेहतर अमल का पुरस्कार मिला. मुख्तार अब्बास नकवी को संगठन और सरकार की बात ढंग से रखने तथा संसद में विपक्षी दलों के साथ अच्छा समन्वय बनाए रखने का लाभ मिला. वह अब मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री के रूप में अल्पसंख्यक मुसलमानों का चेहरा होंगे. उन्हें अल्पसंख्यक मामलों का मंत्री बनाया गया है.

 नौकरशाही में उनके अनुभवों का लाभ लेने के नाम पर जिन चार पूर्व नौकरशाहों को मंत्री बनाया गया, उन्हें ऐसे विभाग दिए गए जो उनके अनुभव, क्षमता से मेल नहीं खाते. पूर्व राजनयिक हरदीप सिंह पुरी को शहरी विकास और आवास विभाग मिला जबकि दिल्ली में डीडीए के चर्चित अधिकारी रह चुके के जे अल्फांस को पर्यटन, इलैक्ट्रानिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बनाया गया है. इसी तरह वर्षां तक गृह मंत्रालय से जुड़े रहे पूर्व नौकरशाह और बिहार में आरा से लोकसभा सदस्य आर के सिंह को स्वतंत्र प्रभार के साथ ऊर्जा एवं नवीकरणीय तथा अक्षय ऊर्जा राज्य मंत्री बनाया गया. अगर अनुभव और क्षमता का ही पैमाना होता तो आर के सिंह और सत्यपाल सिंह गृह मंत्रालय, हरदीप पुरी विदेश और अल्फांस को शहरी विकास और आवास मंत्रालय में भेजा जाता.
प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरनेवाले रेल मंत्री सुरेश प्रभु, उमा भारती, एसएस अहलूवालिया और विजय गोयल की सरकार में हैसियत घटा दी गई. अपने पूरे कार्यकाल में रेल भाडे़ में तरह तरह की वृद्धियों और रेल दुर्घटनाओं के लिए ही चर्चित होते रहे श्री प्रभु की जगह पीयूष गोयल को रेल मंत्री बना दिया गया. निगमित क्षेत्र के दुलारे गोयल को कोयला मंत्रालय की जिम्मेदारी भी संभालते रहेंगे. सुरेश प्रभु अब वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय संभालेंगे. इसी तरह से उमा भारती से जल संसाधन और गंगा संरक्षण मंत्रालय लेकर सड़क परिवहन, राजमार्ग, जहाजरानी और नदी विकास मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल रहे संघ के प्रिय नेता नितिन गडकरी के साथ नत्थी कर दिया गया. अपने मंत्रालयों में बुनियादी ढांचे के विकास में लगे गडकरी एक अरसे से नदियों को साफ और गहरा कर जल परिवहन की बात करते रहे हैं. मंत्रिपरिषद में कद और पद तो विजय गोयलए एसएस अहलूवालिया और महेश शर्मा का भी घटा है, गोयल से खेलकूद मंत्रालय का प्रभार लेकर सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धनसिंह राठौर को तथा शर्मा से पर्यटन मंत्रालय लेकर अल्फांस को दे दिया गया. गोयल के पास अब केवल संसदीय कार्य, सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन विभाग रह गए जबकि महेश शर्मा अब स्वतंत्र प्रभार के साथ संस्कृति, वन पर्यावरण एवं जलवायु परविर्तन का हिसाब रखेंगे. चर्चा तो बिहार के बड़बोले और अक्सर अपने विवादित बयानों के कारण चर्चा में रहनेवाले गिरिराज सिंह को भी सरकार से बाहर करने की होती रही लेकिन राजपूत आर के सिंह को मंत्री बनाने और भूमिहार गिरिराज को सरकार से बाहर करने से बिहार में दबंग भूमिहारों की उपेक्षा भारी पड़ने के डर से प्रधानमंत्री मोदी के करीबी गिरिराज सिंह का कामकाज भी बेहतर माना गया और उन्हें पदोन्नत कर सूख्म, मध्यम एवं लघु उद्यम मंत्रालय का राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बना दिया गया.    

मोदी मंत्रिपरिषद में यह फेरबदल ऐसे समय किया गया है जब 17हवीं लोकसभा के चुनाव में बस डेढ़ साल का समय और शेष रह गया है. भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने इस चुनाव में अकेले भाजपा के 350 सीटें जीतने का लक्ष्य घोषित किया है. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव भी एक साथ ही कराए जाने की चर्चाओं के बीच में 2018 में होनेवाले कई राज्य विधानसभाओं के साथ ही 2019 में निर्धारित लोकसभा चुनाव और कुछ राज्य विधानसभाओं के चुनाव भी करा लिए जाने की बातें जोर मारती रहती हैं. इस लिहाज से देखें तो लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव जीतना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है. औद्योगिक उत्पादन में लगातार दर्ज हो रही गिरावट, नोटबंदी और जीएसटी के कुप्रभावों से चरमराती अर्थव्यवस्था, सकल घरेलू उत्पाद की दर में दो प्रतिशत की गिरावट, महंगाई और बेरोजगारी के चरम पर पहुंचने, रोजगार के अवसरों में लगातार आ रही कमी, दैनंदिन के मामले में केंद्र हो अथवा राज्य, भ्रष्टाचार के मामलों में आम आदमी को राहत नहीं मिलने, कश्मीर में अशांति, सीमाओं पर आतंकवादी घटनाओं के जारी रहने, काले धन की वापसी, हर साल दो करोड़ लोगों के लिए रोजगार के प्रबंध, किसानों की आत्म हत्या जारी रहने, कृषि उपज की लागत का डेढ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने और आम आदमी के लिए अच्छे दिन लाने जैसे वादे मोदी सरकार के सामने सवाल बनकर खड़े होने लगे हैं.

इसके साथ ही कई राज्यों में बदलत-बिगड़ते सामाजिक समीकरण भी भाजपा के 350 लोकसभा सीटें जीतने के चुनावी मिशन पर सवाल खड़े कर रहे हैं. भाजपा के नेता डींगें चाहे जितनी हांक लें, उत्तर भारत और खासतौर से हिंदी पट्टी के राज्य भाजपा के लिए गंभीर चिंता का सबब बन रहे हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ गुजरात, दादरा नगर हवेली, दमन दीव, गोवा और महाराष्ट्र की कुल 324 लोकसभा सीटों में से 288 पर राजग और 257 पर अकेले भाजपा के लोग चुनाव जीते थे. बड़ी तेजी से बदल रहे राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा और राजग के लिए इन राज्यों में सीटों का आंकड़ा बढा पाने की बात तो दूर इस आंकड़े को बरकरार रख पाना भी टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और गोवा में तो सभी लोकसभा सीटों पर और जम्मू-कश्मीर, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार तथा महाराष्ट्र में भी अधिकतम सीटों पर भाजपा और राजग का ही कब्जा है. निजी और अनौपचारिक बातचीत में भाजपा और संघ के कई बड़े नेता भी मानते हैं कि इन राज्यों में पार्टी को काफी सीटें गंवानी पड़ सकती हैं. मंत्रिपरिषद के फेरबदल को इस गिरावट को थामने के लिहाज से भी देखा जा सकता है.

बिहार में विधानसभा के चुनाव में राजद, जद यू और कांग्रेस के महागठबंधन के पक्ष में बने दलित, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों के सामाजिक समीकरण के चलते भाजपा का गठबंधन वहां बुरी तरह से मात खा गया था, उससे सबक लेकर भाजपा ने एक तो उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण, वैश्य एवं अन्य सवर्ण जातियों के बीच अपने परंपरागत जनाधार की नाराजगी का जोखिम मोल लेकर भी अपनी रणनीति गैर यादव और गैर जाटव, अन्य पिछड़ी और अन्य दलित जातियों पर केंद्रित की थी, इसका पोलिटिकल डिविडेंड भी उसे विधानसभा की 400 में से 325 सीटों पर जीत के रूप में मिला. लेकिन राज्य का मुख्यमंत्री गोरखनाथ पीठ के राजपूत महंथ, और 1998 से गोरखपुर से लगातार सांसद योगी आदित्यनाथ को बनाया गया. सवर्ण ब्राह्मणों और अन्य पिछड़ी जातियों को सांत्वना के बतौर दिनेश शर्मा और प्रदेश भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष केशव मौर्य को उपमुख्यमंत्री बना दिया गया. लेकिन प्रदेश में खराब होती जा रही कानून व्यवस्था, गोरखपुर और फर्रुखाबाद में आक्सीजन के अभाव में तकरीबन डेढ़ सौ बच्चों के अकेले एक महीने में दम तोड़ने, शासन पर नौकरशाहों के हावी होने आदि कारणों से भाजपा का राजनीतिक ग्राफ तेजी से गिरने लगा. हालत यह हो गई कि मुख्यमंत्री और उनके दोनों उपमुख्यमंत्रियों के साथ ही दो मंत्रियों को भी विधानसभा के उपचुनाव का सामना करने का साहस जुटा पाने के बजाय विधान परिषद में जाने का आसान रास्ता चुनना पड़ा. मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री बने पांच महीने से अधिक का समय बीतने को आया लेकिन दोनों ने अभी तक लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र नहीं दिया है. ब्राह्मणों की नाराजगी को रोकने के लिए केंद्र सरकार में राज्य मंत्री रहे महेंद्रनाथ पांडेय को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और शिवप्रताप शुक्ल को वित राज्यमंत्री बनाया गया. लेकिन राज्य में सपाए बसपा, रालोद और कांग्रेस के संभावित गठजोड़ भाजपा की बेचैनी बढ़ा सकते हैं.

दूसरी तरफ, बिहार में महागठबंधन की चुनौती का सामना करने के बजाय भाजपा नेतृत्व ने उसे तोड़कर नीतीश कुमार और उनके जद यू को अपने पाले में कर लिया. हालांकि भाजपा के साथ नीतीश कुमार और उनके लोग सहज होने के दावे करते रहे हैं, इस बार उन्हें भाजपा नेतृत्व के हाथों लगातार अपमान के घूंट पीते रहने को बाध्य होना पड़ रहा है. बहु प्रचारित सवा लाख करोड़ रु. के सपेशल पैकेज के नाम पर अभी तक बिहार को फूटी कौड़ी भी नहीं मिली है. इस बार बिहार में हर बार से अधिक भयावह बाढ़ का हेलीकाप्टर से जायजा लेने आए प्रधानमंत्री मोदी ने उनके लिए नीतीश कुमार के द्वारा खास गुजराती रसोइए से तैयार दोपहर के भोजन को ठुकरा कर अतीत में नीतीश कुमार के हाथों हुए अपमान का बदला ले लिया. गौरतलब है कि पटना में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के समय नीतीश कुमार ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी एवं अन्य भाजपा नेताओं के लिए आयोजित भोज को रद्छ करवा दिया था. बाढ़ग्रस्त इलाकों का मुआयना करने के बाद मोदी ने केवल 500 करोड़ रु. की सहायता राशि घोषित करके भी मोदी ने नीतीश कुमार को उनकी हैसियत का एहसास कराने की कोशिश की और अब मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन के बारे में तो उन्हें पूछा-बताया भी नहीं.
इससे पहले पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में राजद के नेतृत्व में ‘भाजपा भगाओ, देश बचाओ’ रैली की भारी सफलता ने भी भाजपा के रणनीतिकारों के कान खड़े कर दिए हैं. गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से मिल रही सूचनाएं भी भाजपा आलाकमान को दिलासा नहीं दे पा रहीं. दिल्ली में बवाना विधानसभा के उप चुनाव में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार के हाथों 24 हजार मतों के भारी अंतर से भाजपा की हार ने भी आलाकमान को चौकन्ना कर दिया है.

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार उत्तर भारत और खासतौर से हिंदी पट्टी के राज्यों में संभावित राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए पार्टी और संघ इस बार पश्चिम बंगाल और ओडिसा जैसे पूर्व और उत्तर पूर्व के राज्यों के साथ ही दक्षिण भारत से करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं. हालांकि उत्तर पूर्व में भी असम की 14 में से सात सीटें पहले से ही भाजपा के पास हैं. इसी तरह से कर्नाटक में भी 28 में से 17 सीटें भाजपा के ही पास हैं. दक्षिण भारत में पैठ बढाने की गरज से भी निर्मला सीतारमण को मोदी मंत्रिमंडल में प्रमुख स्थान दिए जाने के साथ ही केरल से के जे अल्फासं और कर्नाटक से अनंत हेगड़े को मंत्री बनाया गया, ओडिसा में जनाधार मजबूत करना भी धर्मेंद्र प्रधान को उनके पुराने विभाग पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के साथ उद्यमिता और कौशल विकास को भी जोड़कर कैबिनेट मंत्री बनाया गया. लेकिन पश्चिम बंगाल और उत्तर पूर्व के राज्यों से इस बार केंद्रीय मंत्रिपरिषद में किसी को भी शामिल नहीं किया गया.

बहरहाल, मोदी मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन के बाद अब अमित शाह की टीम में भी हेर फेर किए जाने की संभावना बढ़ गई है. भाजपा के केंद्रीय संगठन में भी कई पद एक अरसे से खाली पड़े हैं जबकि कुछ लोगों को हटाकर नए लोगों को जिम्मेदारी दिए जाने की बात है. मंत्रिपरिषद से बाहर किए गए कुछ लोग संगठन के काम में लगाए जा सकते हैं. लेकिन क्या सिर्फ सरकार और संगठन में कुछ पैबंद लगाने से भर से 2018-19 में भाजपा की चुनावी नैया पार हो सकेगी या फिर पिछले लोकसभ चुनाव के समय किए गए वायदों को ‘चुनावी जुमलों’ के मुहावरे से बाहर निकालकर सतह पर भी कुछ काम होंगे?

नोट : इस लेख के सम्पादित अंश  हिंदी पाक्षिक आउटलुक के 25  सितंबर 2017 के अंक में प्रकाशित

 

 

पटना में राजद की रैली : संकेत और समीकरण

पटना से हुई गैर भाजपा महागठबंधन की शुरुआत !

जयशंकर गुप्त

टना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में राष्ट्रीय जनता दल की ‘भाजपा हटाओ, देश बचाओ’ रैली में कितने लोग आए, इसको लेकर विवाद हो सकता है. राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के पूर्व उप मुख्यमंत्री पुत्र तेजस्वी यादव ने कहा कि रैली में 25 लाख से अधिक लोग जुटे, लालू प्रसाद को यह अतिशयाक्ति शायद कुछ कम लगी, सो उन्होंने कहा कि रैली में 30 लाख लोगों का जन सैलाब उमड़ा था. दूसरी तरफ, कल तक लालू प्रसाद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन चलाते रहे और अभी भाजपा के सहयोग से राजग की साझा सरकार का नेतृत्व कर रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दल-यू-ने इस महा रैली को फ्लाप करार दिया. लेकिन इतना तो सच है कि हाल के वर्षों में पटना और गांधी मैदान में होनेवाली रैलियों में यह सफलतम और रेस्पांसिव रैली थी. पूरा पटना शहर राजद और महागठबंधन के नेताओं-कार्यकर्ताओं, उनके पोस्टर-बैनरों और कटाउटों से अटा पड़ा था. जितने लोग मैदान में जमा थे, उसी अनुपात में लोग गांधी मैदान के चारों तरफ सड़कों पर, रेलवे स्टेशन और बस अड्डों के आसपास भी राजद के झंडे डंडों के साथ दिख रहे थे. वह भी ऐसे समय में जबकि आधा बिहार बाढ़ की चपेट में है. 

यह रैली कहने को तो भाजपा बचाओ, देश बचाओ के नारे पर हुई लेकिन निशाने पर मुख्य रूप से महागठबंधन के ‘विश्वासघाती’ नीतीश कुमार ही थे. लालू प्रसाद और उनके पुत्रों के साथ ही राजद के तमाम नेताओं और अन्य विपक्षी दलों के नेताओं ने भी ‘संघ मुक्त भारत’ का नारा देने वाले नीतीश कुमार पर महागठबंधन तोड़कर संघ के शरणागत होने और भाजपा से मिलकर सरकार बना लेने का आरोप लगाया. नीतीश कुमार के महागठबंधन तोड़ने के बाद यह लालू प्रसाद और उनके राजद के साथ ही नीतीश कुमार के साथ नहीं गए जद यू के पूर्व अध्यक्ष, सांसद शरद यादव एवं कांग्रेस के लिए भी बड़ा शक्ति प्रदर्शन था जिसमें ये लोग सफल रहे. 
इस महा रैली के आयोजन की घोषणा लालू प्रसाद ने काफी पहले तब की थी जब नीतीश कुमार महागठबंधन की सरकार चला रहे थे, हालांकि अंदरखाने वह लालू प्रसाद को गच्चा देकर भाजपा के साथ नए सिरे से जुगलबंदी की जुगत भिड़ाने में लगे थे. लालू प्रसाद पटना से भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन खड़ा करने की कार्ययोजना पर काम कर रहे थे लेकिन नीतीश कुमार ने उसमें फच्चर लगाने की कोशिश की. वे खुद तो भाजपा के साथ गए ही, उन्होंने यह कोशिश की कि शरद यादव और उनके साथी भी उनका अनुसरण करें. उन्हें केंद्र सरकार में मंत्री पद के प्रलोभन दिए गए. उनके मना कर देने और नीतीश कुमार के पलट जाने के बाद विपक्ष की धुरी बनने की सोच के तहत महागठबंधन के साथ ही बने रहने के राजनीतिक रुख के साफ हो जाने के बाद कोशिशें इस बात की हुईं कि वह इस रैली में नहीं जा सकें. कभी उनके सिपहसालार कहे जाते रहे जद यू के महासचिव के सी त्यागी ने दो दिन पहले उन्हें पत्र भेजकर आगाह किया कि राजद की रैली में उनका भाग लेना अनुशासन की लक्ष्मण रेखा को लांघने जैसा होगा. रैली के बाद भी त्यागी ने कहा कि शरद दूसरे खेमे में चले गए हैं. अब जद यू के साथ उनका रिश्ता नहीं रह गया है. हालांकि जद यू से उनका औपचारिक निलंबन अथवा निष्कासन अभी बाकी है. त्यागी ने कहा है कि उनका मामला अनुशासन समिति के हवाले है लेकिन शरद यादव और उनके साथियों पर इस तरह की घुड़कियों का असर नहीं पड़ा. दो दिन पहले उन्होंने कहा भी कि महागठबंधन की रैली का फैसला काफी पहले हुआ था जिसमें नीतीश कुमार के भी शामिल होने की बात थी. नीतीश पलट गए लेकिन हम पलटनेवाले नहीं क्योंकि हम ही असली जद यू हैं जिसके साथ हमारी अधिकतर प्रदेश इकाइयां हैं. मंच पर उनके साथ राज्यसभा के एक और सदस्य अली अनवर और जद यू के वरिष्ठ नेता, राज्य सरकार में पूर्व मंत्री रमई राम भी थे. मंच से ही शरद यादव ने राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपाई महागठबंधन खड़ा करने की घोषणा की जिसका समर्थन मंच पर मौजूद विपक्ष के तमाम नेताओं ने भी किया. 

रैली के आयोजकों के अनुसार दिल्ली के इशारे पर कुछ और दलों और नेताओं को भी इस रैली से विमुख होने के दबाव पड़े. मायावती अथवा उनकी बसपा का एक भी प्रतिनिधि नहीं दिखा. रैली में शामिल होने को लेकर वह लगातार अपना स्टैंड बदलते रहीं. हालांकि 17 अगस्त को दिल्ली में शरद यादव के साझी विरासत बचाओ सम्मेलन में बसपा के सांसद वीर सिंह मौजूद थे. उस सम्मेलन में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी और माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी की मौजूदगी भी थी. सबने एक स्वर से कहा था कि भाजपा शासन में संघ परिवार की देखरेख में साझी विरासत खतरे में है. इसे बचाने के लिए भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाने की बात कही गई थी. स्वयं राहुल गांधी ने कहा था कि बदली परिस्थतियों में अगर सभी विपक्षी दलों का एक महागठबंधन बन जाए तो भाजपा कहीं दिखेगी नहीं. लेकिन जहां साझी विरासत बचाओ सम्मेलन में 17 दलों के नेता और प्रतिनिधि शामिल हुए वहीं महागठबंधन खड़ा करने की अगली कड़ी के रूप में आयोजित राजद की महा रैली में केवल 14 दलों के नेता-प्रतिनिधि ही दिखे. राहुल गांधी स्वयं नहीं आए. उन्होंने  पटना आने और लालू प्रसाद के साथ मंच साझा करने के बजाय नार्वे की राजधानी ओस्लो की यात्रा को मुनासिब समझा. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी नहीं आ सकीं. कांग्रेस का प्रतिनिधित्व राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद और महासचिव सीपी जोशी ने किया. सीताराम येचुरी भी नहीं दिखे. माकपा को संभवतः मंच पर ममता बनर्जी की मौजूदगी नागवार गुजरी होगी. लेकिन भाकपा के महासचिव सुधाकर रेड्डी और सचिव डी राजा वहां दिखे. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तथा राष्ट्रीय लोकदल के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी पूरी ताकत के साथ दिखे. पड़ोसी राज्य झारखंड से झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के साथ ही एक और पूर्व मुख्यमंत्री झाविमो के बाबूलाल मरांडी भी मौजूद थे. एनसीपी के महासचिव और बिहार से लोकसभा सदस्य तारिक अनवर भी थे. हालांकि एनसीपी का प्रतिनिधित्व अगर प्रफुल्ल पटेल अथवा शरद पवार या उनके परिवार का कोई सदस्य करता तो रैली में वजन कुछ और बढ़ जाता क्योंकि शरद पवार के राजग से जुड़ने के कयास गाहे बगाहे लगते रहते हैं. दक्षिण में तमिलनाडु से द्रविड़ मुनेत्र कझगम के लोकसभा सदस्य टी के एस इलेंगोवन और केरल कांग्रेस के प्रतिनिधि आए तो उत्तर पूर्व में असम से एयूडीफ के नेता लोकसभा सदस्य बदरुद्दीन अजमल की मौजूदगी महा रैली को राष्ट्रीय बना रही थी. ओडिसा में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल, दिल्ली से आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और हरियाणा से इंडियन नेशनल लोकदल के किसी प्रतिनिधि की गैर मौजूदगी भी क्षटक रही थी. संभवतः कांग्रेस की नापंसदगी के कारण उन्हें बुलाया ही नहीं गया था.

कुल मिलाकर यह महा रैली लालू प्रसाद और उनके राजद और राजनीतिक कुनबे का शक्ति प्रदर्शन था जिसमें वह पूरी तरह से सफल रहे. एक बार फिर उन्होंने यह साबित किया कि जोड़ तोड़ के खेल से नीतीश कुमार भले ही सरकार चला रहे हों, बिहार में जनाधारवाले वह अकेले नेता हैं. तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोपों और जांच मुकदमों के बावजूद वह भाजपा और उसके नेतृत्व में उभर रही सांप्रदायिक ताकतों के विरुद्ध झुकनेवाले नहीं हैं. उन्होंने और उनके पुत्रों ने भी रैली में साफ किया कि मुकदमे और जेल की दीवारें भी सांप्रदायिक ताकतों से लोहा लेने के उनके संकल्प को कमजोर नहीं कर सकतीं. उनके जनाधार और सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष के उनके कमिटमेंट का लोहा मंच पर मौजूद विपक्ष के तमाम नेताओं ने भी एक स्वर से माना. यह महा रैली नीतीश कुमार और भाजपा गठबंधन सरकार के लिए भी खतरे का संकेत साबित हो सकती है. राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपा और गैर राजग महागठबंधन ने आकार लेना शुरू हो गया है, इससे इतर बिहार में नीतीश कुमार और भाजपा की राजनीति से नाखुस जद यू और राजग में रालोसपा जैसे घटक दलों के नेताओं, विधायकों के बीच इस महा रैली की सफलता एक नई ताकत का संचार कर सकती है. जद यू के विधायकों का एक बड़ा गुट शरद यादव और लालू प्रसाद के साथ सिर्फ एक आश्वासन भर से जुड़ने को तैयार है कि चुनाव हों अथवा उप चुनाव उन्हें टिकट मिलेगा और उनकी चुनावी जीत सुनिश्चित करने के ईमानदार प्रयास होंगे. इसका एहसास सृजन घोटाले और भयावह बाढ़ की विभीषिका का भी सामना कर रहे नीतीश कुमार और उनके सहयोगी भाजपा-राजग के लोगों को भी है. आश्चर्य नहीं होगा कि महागठबंधन के साथ जुड़ रहे दलों, नेताओं और राजनीतिक ताकतों को इससे विमुख करने के प्रयास के बतौर प्रलोभन और दबाव भी नए सिरे से नजर आने लगें. 
   
से राजनीतिक विडंबना भी कह सकते हैं कि कभी 1960 के दशक के मध्य में अपराजेय बनते जा रही कांग्रेस को राज्यों और केंद्र में भी अपदस्थ करने के लिए समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की रणनीति तैयार की थी. इस रणनीति के तहत जनसंघ, सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, भारतीय क्रांति दल, संगठन कांग्रेस, स्वतंत्र पार्टी आदि गैर कांग्रेसी दलों ने चुनावी गठबंधन कर कई राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया था. केंद्र में भी इस तरह का कोई राजनीतिक प्रयोग सफल हो पाता उससे पहले ही एक तो डा. लोहिया का असामयिक निधन हो गया, दूसरे गैर कांग्रेसी, संयुक्त विधायक दल की सरकारें तयशुदा न्यूनतम साझा कार्यक्रमों की अनदेखी और उपेक्षा करते हुए अपने अंतर्विरोधों के बोझ तले चरमरा कर गिर गई थीं. सत्तर के दशक में एक बार फिर समाजवादी-सर्वोदयी नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण के निर्देशन या कहें दबाव में जनता पार्टी के रूप में गैर कांग्रेसी दलों का एका हुआ और उस समय सर्व शक्तिमान कही जानेवाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस को केंद्र में भी राजनीतिक पराभव का सामना करना पड़ा था लेकिन वह प्रयोग भी लंबा नहीं चल सका और 1980 में श्रीमती गांधी एक बार फिर प्रचंड जन समर्थन से सत्तारूढ़ हुई थीं. 1989 में एक बार फिर कांग्रेस से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी दलों का जमावड़ा सत्तारूढ़ हुआ लेकिन यह राजनीतिक प्रयोग भी काल कवलित हो गया. बाद के वर्षों में भाजपा के राजनीतिक रूप से ताकतवर होते जाने और उसके नेतृत्व में आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के अपने सांप्रदायिक एवं फासीवादी स्वरूप में सामने आते जाने के बाद गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी दलों ने कांग्रेस के सहयोग से कभी राष्ट्रीय लोतांत्रिक मोर्चा तो कभी संयुक्त मोर्चा के नाम से तीसरा मोर्चा खड़ा करने की कोशिशें की जो कुछ हद तक कामयाब भी हुईं लेकिन दीर्घकालिक साबित नहीं हो सकीं.  

अब एक बार फिर तमाम गैर भाजपा-गैर राजग दलों के नेता नए सिरे से उसी कांग्रेस को साथ लेकर ’गैर भाजपावाद’ की रणनीति तैयार करने में लगे हैं जिसके विरुद्ध गैर कांग्रेसवाद की रणनीति बनी थी. कांग्रेस के भीतर भी एक बड़े तबके या कहें नेतृत्व की राय भी बन रही है कि मौजूदा परिस्थितियों में कांग्रेस भाजपा- राजग को सीधे और अकेले शिकस्त दे सकने की स्थिति में नहीं है. इसके लिए किसी न किसी तरह का विपक्षी महागठबंधन खड़ा करना ही होगा. 

दरअसल, बिहार, दिल्ली और पंजाब विधानसभा के चुनावी नतीजों को अपवाद मान लें तो मई 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए अधिकतर राज्यों में विधानसभा चुनाव, उप चुनाव और कुछ राज्यों में नगर निकायों और पंचायत के चुनावों में भी अपराजेय और विजेता बनकर उभरी भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राजग की चुनावी सफलता के लिए अन्य कारणों के अलावा विपक्षी मतों के बंटवारे को ही मुख्यरूप से जिम्मेदार माना जा रहा है. लोकसभा चुनाव हों अथवा झारखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर, असम और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्य विधानसभाओं और महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली के नगर निकायों के चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को मिले मतों के प्रतिशत के मुकाबले अगर अलग अलग होकर लड़े विपक्षी दलों को मिले मतों के प्रतिशत को जोड़कर देखें तो संयुक्त विपक्ष सत्तारूढ़ भाजपानीत राजग पर निर्णायक रूप से भारी दिखता है. अगर विपक्षी दल अपने निजी अहंकार, वैमनस्य और अपनी राजनीतिक ताकत के बारे में अपने अतिरेकी आकलन को परे रखकर मिलकर अथवा किसी तरह का चुनावी तालमेल कर चुनाव लड़े होते तो नतीजों की शक्ल कुछ और नजर आती. 

लेकिन इस तरह के किसी महागठबंधन को लेकर कई सवाल और आशंकाएं भी हैं. मसलन  महागठबंधन का नेता कौन होगा! राहुल गांधी, शरद यादव, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल समेत कई दावेदार दिख रहे हैं. राहुल गांधी से इतर क्षेत्रीय दलों का कोई भी ऐसा नेता नहीं है जिसका एक राज्य के बाहर संगठन और जनाधार हो. कांग्रेस की उपस्थिति जरूर कई राज्यों में है लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व में कितने दल और नेता राजी होंगे, यह भी एक सवाल है. इसके साथ ही सबसे बड़ी मुश्किल उन राज्यों में होगी जहां कभी कांग्रेस का राजनीतिक वर्चस्व रहा है लेकिन हाल के वर्षों में वहां कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई है. उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिसा, दिल्ली, आंध्र-तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कोई न कोई क्षेत्रीय दल मजबूत राजनीतिक ताकत के रूप में उभरा है. केरल और ओडिसा जैसे राज्यों में कांग्रेस का मुख्य मुकाबला वाम दलों और बीजद से है लेकिन तीसरी ताकत के रूप में वहां जड़ें जमा और फैला रही भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस-वाम दलों और बीजद को भी किसी न किसी तरह का राजनीतिक तालमेल करना होगा जिससे गैर भाजपा दलों का जनाधार बंटने और बिखरने नहीं पाए. इसी तरह से पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस, वाम दलों और कांग्रेस के बीच किस तरह की एकजुटता बन सकेगी. उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा, कांग्रेस आौर आरएलडी क्या एक साथ आ सकेंगे. यह महागठबंधन क्या सिर्फ मोदी और भाजपा विरोध तक ही सीमित रहेगा या फिर उसे आगे ले जाने के लिए सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी बनेगा. इन जटिल सवालों के जवाब मुश्किल हैं लेकिन असंभव नहीं. महागठबंधन का नेता कौन होगा, इस तरह के सवालों के जवाब के लिए विपक्ष के पास अभी बहुत समय है. 
नोट :  इस लेख के सम्पादित अंश 27अगस्त ,2017 को बीबीसी हिंदी.कॉम पर प्रकाशित